दामिनी यादव की कविताओं की आग से ज़ेहन को बेधने वाली चिंगारियाँ निकल रही होती हैं। पढ़िए उनकी दो ताज़ा कविताएं ~ सं०
अगर डर है मर जाने कातो तुम मर चुके हो पहले ही, ये भी बताऊंगी।नपुंसकों को लंगोट की ज़रूरत तो नहीं है,फिर भी कस लो,कि समय के आह्वान की चुनौतियों सेतुम्हारा शीघ्रपतन न हो जाए
Damini Yadav - Two Fresh Hindi Poems |
दो ताज़ा कविताएं
दामिनी यादव
अब तक तीन पुस्तकें स्वतंत्र रूप से प्रकाशित हो चुकी हैं। तीन कविता संग्रहों सहित कई पुस्तकों का स्वतंत्र रूप से संपादन व अनुवाद। कुछ कविताएं साहित्य अकादमी, दिल्ली द्वारा प्रकाशित कविता संग्रह ‘कविता में दिल्ली’ तथा सिग्नेचर पोयम ‘माहवारी’ का अंग्रेज़ी अनुवाद साहित्य अकादमी के ‘इंग्लिश जनरल’ में संग्रहीत। सातवीं कक्षा की पाठ्य पुस्तक ‘वितान’ में भी एक आलेख सम्मिलित। देश के कई सम्मानित हिंदी प्रकाशन संस्थानों के संपादकीय विभाग में सहायक संपादक सहित विविध भूमिकाओं में सक्रिय भागीदारी। कुछ समय तक आकाशवाणी दिल्ली से भी जुड़ाव। दो दशक से अधिक समय से रचनात्मक लेखन में सक्रिय। समय-समय पर कई रचनाएं राष्ट्रीय स्तर की पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित। कुछ रचनाओं के अंग्रेज़ी, पंजाबी, बांग्ला, मराठी और मलयालम अनुवाद। सिग्नेचर पोयम ‘माहवारी’ पर इसी शीर्षक से फोर पिलर्स प्रॉडक्शन हाउस द्वारा एक शॉर्ट फिल्म का निर्माण तथा स्वयंसेवी संस्था ‘सृजन’ द्वारा इसी पोयम पर एक नुक्कड़ नाटक का निर्माण व निरंतर मंचन। कई वेबसाइट्स पर अनेक रचनाएं उपलब्ध। साहित्य अकादमी, हिंदी अकादमी, वर्ल्ड बुक फेयर, बनारस साहित्य महोत्सव, हरियाणा साहित्य महोत्सव, दिल्ली दूरदर्शन सहित देश भर में आयोजित अनेक गरिमापूर्ण मंचों व टीवी चैनल्स पर काव्य समारोहों में सहभागिता। ज़ी सलाम पर इनके व्यक्तित्व व कृतित्व पर आधारित एक विशेष साक्षात्कार ‘जहान-ए-निस्वां’ कार्यक्रम के अंतर्गत प्रसारित। हरिद्वार प्रैस क्लव द्वारा गोल्ड मैडल, शहीद भगत सिंह संस्था का यंग ब्रिगेड अवॉर्ड, वुड्स इंडिया द्वारा नारी गौरव सम्मान सहित कई पुरस्कार व सम्मान।
बतौर कॉन्टेंट राइटर एवं एंकर ‘द वायर’ चैनल तथा ‘सिटी स्पाइडी’ से जुड़ाव। लेखन, संपादन, अनुवाद व एंकरिंग आदि वर्तमान व्यतताएं। संपर्क- damini2050@gmail.com
आह्वान
हर बार बहुत बुरा होकर मैंने जाना
अच्छे बने रहने की अनिवार्यता
और जाना,
अच्छेपन के थके हुए कंधों पर
मुर्दा बेताल-सा लदा पड़ा समाज
जो बेताल होने पर भी
जब-तब प्रश्न पूछ ही लेता है
और समाज को मुर्दा होने से बचाए रहता है
याद दिलाता रहता है विक्रम जैसे राजाओं को
उनकी बुद्धि, उनका शौर्य, उनका सामर्थ्य, उनका अतीत।
अंधा कर दिए जाने से पहले मैंने सचमुच चाहा था
जो देख रही हूं उसे देख लेने से पहले अंधा हो जाना
पर मेरी आंखें मेरे चाहने से नहीं, बल्कि
मेरे देखते रहने की सज़ा के परिणामस्वरूप छिनीं
और मैं नहीं चाहती आंख के बदले आंख का कानून
इसलिए मैं सहमति देते स्वर में कहती हूं
ये अंधा बनाया जाना नहीं, नेत्रदान है।
मैंने नंगा होने से पहले देखा है
झूठ के झबले में सजे-धजे सच को
और हमाम का भरम बनाए रखने के लिए
मैंने सहर्ष चुना नंगा होना,
क्योंकि ये नंगा समाज मेरा भी तो है
और इसके नंगेपन के सामने मेरे कपड़े अश्लील लग रहे थे।
जब सब-कुछ ग़लत और सिर्फ़ ग़लत हो रहा है
मेरे साथ और मेरे आस-पास,
मैं इसकी मूक समर्थक बनी खड़ी हूं,
ताकि ग़लत को ग़लत समझा तो जाए
और फिर हम ग़लत को सही करने की
साझा कोशिशों में जुट जाएं।
अब का ग़लत किसी एक के सही होने से नहीं संवरेगा,
अब चलेंगे तो सब साथ चलेंगे,
कोई एकला नहीं चलेगा...
समर-संवाद
भुला दी गईं वे कविताएं
जिनमें प्रेमियों की विरह
और प्रेमिकाओं के चुंबन लिखे थे,
ताज़ा और जीवंत रहा बस वह लावा
जो लहू में बहता, लहू को जिलाए रखने में रहा कामयाब।
धूर्त का ज्ञान साबित हुए वे सारे प्रवचन,
जो भगोड़ों द्वारा व्यास गद्दियों पर बैठकर दिए गए थे
याद रहा तो बस
नमक का बढ़ता दाम और सिर छुपाए रखने का जुटान।
बच्चों की किलकारियों ने मोहना छोड़ दिया
और नज़रें अटकती रहीं उनके हाथों में थमे कटोरों पर,
जो वो फैला देते हैं हर विकास-मार्ग की बत्तियों पर
विकास की रफ़्तार रोक कर।
ललित कलाएं अश्लीलता का चरम लगती हैं इस चरमराते समय में,
जब उनमें नहीं दिखती है फटे ज्वालामुखी की धार
और दिखती है बस फूलों और तितलियों से भरी बहार।
कलम से कुरेदे जा रहे हैं दांत
उनमें फंसे ज़िंदा गोश्त के टुकड़े निकालने को
जो पूरी की पूरी नस्ल को चबाते वक़्त अटक गए थे।
ओह!
मेरा कहा तुम्हें बेदर्द लगता है!
ऐसे शब्दों से ही सड़ता हुआ पस निकलता है,
जो रह गया शेष देह में तो दलता रहेगा देश को,
तो सुनो,
अपने कानों का मैल निकाल
और पतली कर अपनी मोटी खाल,
मैं सरस्वती-पुत्री वीणा के तार नहीं बजाऊंगी,
बल्कि उसे गदा की तरह लहरा
तुम्हें इस समर की याद दिलाऊंगी।
अगर डर है मर जाने का
तो तुम मर चुके हो पहले ही, ये भी बताऊंगी।
नपुंसकों को लंगोट की ज़रूरत तो नहीं है,
फिर भी कस लो,
कि समय के आह्वान की चुनौतियों से
तुम्हारा शीघ्रपतन न हो जाए,
दम है अगर तुम्हारे हौसलों में
अपने अज्ञातवास से निकलने का
तो मुमकिन है इस बार
बृहन्नला विराट नगर का युद्ध ही नहीं,
पूरी महाभारत अकेली जीत आए।
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