मोड़: सरिता निर्झरा की कहानी | Sarita Nirjhara ki Hindi Kahani - Mod

कहानी का समय कोरोना से हो रहे विस्थापन का है लेकिन कहानी कुछ और है, हमारी स्त्रियों की मजबूती की है और अच्छी है पढ़ लीजिए, युवा रचनाकार सरिता निर्झरा की कहानी 'मोड़' ~ सं० 


हमारे बीच फिर एक चुप्पी पांव पसार चुकी थी। उसके भीतर एक तूफ़ान घुमड़ रहा था। मुझे एहसास हुआ की मेरे सवालों ने बोतल खोल कर किसी जिन्न को बाहर निकल दिया है और वो अकेली ही उसे फिर बोतल में बंद करने की मशक्कत कर रही है। इस मशक्कत में उसके आँखों के कोरों पर कुछ नमी थी जिसे न उसने समेटने की कोशिश की न मैं ही उन्हें ढलकता हुआ देख पाया। 

Sarita Nirjhara ki Hindi Kahani - Mod



मोड़

सरिता निर्झरा 

उभरती हुई कवयित्री, लेखिका एवं सामाजिक कार्यकर्ता हैं। हिंदी साहित्य के प्रति इनका रुझान इन्हें लेखन के क्षेत्र में ले आया। सामाजिक मुद्दों पर लिखे इनके लेख विभिन्न वेबसाइट पर अत्यधिक चर्चा में रहे तथा लाडली अवार्ड्स के लिए नामांकित भी हुए। निर्झरा की लिखी कहानियां नारी चरित्र के इर्द गिर्द बुनी हुई होती हैं। बोधि प्रकाशन के राम कुमार ओझा पाण्डुलिपि योजना में चयनित कहानियों का संग्रह - "चाँद ज़मीन और औरतें" उनका पहला संग्रह हैं। "हरी आँखों वाली लड़की" उनका पहला एकल  काव्य संग्रह है।  संपर्क: itsmesarita78@gmail.com



जेठ महीने में बिना छाँव के तारकोल की लंबी सड़कें। प्रगति के नाम पर काँच की चमकती बिल्डिंगें और उनसे टकराती धूप। सर पर पोटली बक्सा या गटरी टांगे लोगों का कारवां। शहरों को छोड़कर मिट्टी के गांव की याद आ गई या यूं कहें कि कंक्रीट के बने शहरों ने सर छुपाने की जगह न दी। विदेश से आया मेहमान यूं धीरे-धीरे शहरों में घर कर गया कि उसके बाशिंदों को अपना सब कुछ छोड़ कर गांव की तरफ रुख़ करना पड़ा। 

सुना था आनंद विहार के कहीं पास बसों का इंतज़ाम हुआ है यही सोच कर गठरी उठा ली थी मैंने भी और चल पड़ा इस शहर को छोड़कर अपने गांव की तरफ। अशिक्षा ने हमारे देश के बहुत से लोगों को भुलावे में रहने की आदत डाल दी है। मेरे माता पिता और मेरे गांव के लोग भी अशिक्षित हैं और शायद इसी वजह से समझते हैं कि शहर में बड़ा अफसर हूं। 

पढ़ने लिखने में ठीक और जाति से ब्राह्मण इसलिए गांव में बहुत ज़मीन जायदाद और पैसा ना होने के बावजूद इज़्ज़त बहुत थी। जब शहर जाकर पढ़ने का निर्णय लिया तब पिताजी ने खुशी-खुशी सीना चौड़ा करके सबसे कहा "हमार बबुआ अफसर बने जात हैं दिल्ली सहर में पढिहें। हमरो नाम रोशन होई”। 

मैं बता नहीं पाया कि दिल्ली शहर में मुझ जैसे लाखों बच्चे छोटे-छोटे गांव कस्बों शहरों से आते हैं। एक कमरे में तखत डालकर सालों गुजारते हैं और उसके बावजूद आसमान में छेद करने की कूवत नहीं होती है। मैं यह बता नहीं पाया या बताना नहीं चाहता था यह मैं ठीक ठीक नहीं समझ पाया हूं। अगर यह बात पिताजी समझ जाते तो शायद मुझे भी वही गांव में रहकर खेतीबाड़ी करनी पड़ती। शहर देखने की मेरी लालसा धरी की धरी रह जाती है शायद इसीलिए मैंने उन्हें ज्यादा समझाने की कोशिश नहीं की। मैं इकलौता लड़का हूं। ब्राह्मण परिवार इकलौता लड़का समझ रहे हैं ना आप ऊपर से पढ़ने में भी अच्छा। तमाम पढ़े-लिखे लड़कों की तरह मुझे भी गांव जाकर खेती नहीं करनी इसलिए दिन-रात दूनी चौगुनी मेहनत कर रहा हूं। इसके बावजूद शहर की महंगाई और मेरे सपनों के बीच बहुत बड़ी खाई है और उस पर से यह आपदा। 

इस आपदा से बचने के लिए एक ही तरीका है घरों में रहे। सोशल डिस्टेंसिंग का पालन करना था मगर हमारी मजबूरी शायद इन सब चीजों से बड़ी थी। मकान मालिक जब रोज किराए की ताकीद करता है और बैंक के पैसे धीरे-धीरे करके रिसते हुए पानी से खत्म होने लग जाते हैं तो डर लगता है कि कहीं खाली हाथ ना हो जाए उस स्थिति में घर भी नहीं जा पाएंगे अभी कम से कम बैंक में कुछ पैसे हैं बड़का अफसर बाबू ना सही छोटे पद पर काम करने वाला बनकर ही अपने गांव गढ़ी चले जाएं किसान के घर में पैदा हुआ हूं दाल चावल की कभी कमी नहीं हुई और फिलहाल तो शहर में भी घरों में बंद लोग उसी दाल चावल पर निर्भर है। यही सोच मैं भी निकल पड़ा था अपने गांव जाने के लिए जज मत कीजिएगा मुझे। मैं अपना अकाउंट और मेरी मजबूरी दोनों ही आपसे नहीं बांट सकता। 

वैसे भी ये कहानी मेरी नहीं इसलिए इससे ज्यादा अपने बारे में नहीं बताऊंगा। यह कहानी उसकी है जो मुझे उसी टर्मिनस पर मिली। पीले सलवार दुपट्टा और गुलाबी-सी कुर्ती कमर तक के बाल करीने से गुंथे हुए। मेरी ही तरह वह भी चल कर आ रही थी। एक बैग कमर पर और एक छोटी-सी गठरी बस इतना ही सामान था। उसके साथ करीब तीन-चार औरतें थी और 5 छोटे-छोटे बच्चे। सबसे छोटा बमुश्किल 6 महीने का होगा। वो सबकी देखभाल में लगी हुई थी। सड़क किनारे सीमेंट के बड़े बड़े डिवाइडर के पास उन्हें रुकने का इशारा करती हुई बोली, "ए भौजी बस कब जाये अबहीं पता करके आवत हैं।”

यह बोलते हुए, पसीने को दुपट्टे से पोंछते हुए ,एक बस के पास खड़े पुलिस वाले तक गई। "साहब यह बस कब तक जाना  शुरू होगी और सुजानपुरा के लिए बस कौन-सी जाएगी?"

पुलिस वाले ने उसे ऊपर से नीचे तक निहारा,"किस डिस्ट्रिक्ट में पड़ता है सुजानपुरा?"

 "जी लखीमपुर खीरी में"

"लखीमपुर खीरी तक जाने के लिए बिना किसी साधन के निकल आई हो अगर यहां पर बस का इंतजाम ना किया गया होता तो ? कहां जाती ?" पुलिस वाले ने उसे कुछ घुड़कते हुए पूछा। इस आपदा में शायद कोई और होता तो वर्दी वाले के सामने सहमता लेकिन पुलिस वाले से ज्यादा तेजी उसकी आवाज में थी। 

"कहां जाती मतलब इसी सड़क पर चलती जाती। सीधी सड़क है। कहीं ना कहीं तो पहुंचा ही देती ना साहब। आप बताए सुजानपुरा की बस कब और कहां से चलेगी। मेरे साथ बाकी औरतें हैं और छोटे बच्चे भी हैं।”

पुलिस वाले ने उचककर उस पार देखा जहां वह 4 औरतें हैं और 5 बच्चे बैठे थे।”तेरे साथ सिर्फ औरतें हैं क्या कोई आदमी नहीं है?"

पुलिस वाले की आवाज में यूं तो ऐसी कोई बात न थी जो उसको चुभ जाती लेकिन पता नहीं क्यों उस लड़की की आवाज में अब वह काट थी मानो किसी ने सोए हुए सांप के फन पर सर रख दिया हो। 

"क्यों औरतें नहीं जा नहीं सकती? आदमी का होना जरूरी है? बस में आदमी की शक्ल देख करके बिठाओगे या आधार कार्ड से? मेरे पास है और क्या चाहिए वोटर आईडी? वह भी हैं साथ में। किसी आदमी का ठप्पा ना लगा हो तो क्या करें? अकेले औरत जा नहीं सकती,कहां लिखा है यह? बुला अपने साहब को पूछूं ज़रा।” 

पूछताछ करनेवाला पुलिसकर्मी कोई बड़ा अफसर नहीं था हड़बड़ा गया। एक तो आपदा का समय चारों तरफ मीडिया और लोगों की मदद करने वाले लोग। ऐसे में किसी भी औरत की तेज आवाज किसी भी वजह से उसे मुश्किल में डाल सकती थी। उसने हाथ बढ़ाते हुए कहा, “अरे मेरा वो मतलब नहीं था मैं तो बस यूं ही पूछ रहा था। अभी जाकर बैठो सुजानपुरा और छपरा जाने वाली जो बस है वह कल दोपहर तक जाएगी। आज रात यहीं रुकना पड़ेगा अभी 8:00 बजे खाना शुरू होगा। खाना-वाना खा कर आज यहीं आराम करो। कल सुबह से शुरू हो जाएगी छपरा की बस”। 

"कितने बजे चलेगी?"

"11:00 बजे से पहले कुछ उम्मीद नहीं है। जाओ जाकर बैठो" यह कहते हुए वापस अपने रजिस्टर में घुस गया जहाँ शायद बेघर लोगों के नाम लिखे गए थे। मोटा रजिस्टर भरने की कगार पर था। तंत्र तमाम कोशिशें कर रहा था। कुछ सफल और बहुत-सी असफल कोशिशें रही थी। मुझ जैसे लाखों थक कर बेहाल हो चुके थे। 

और वह उड़ती हुई वापस आ गई आकर बैठी। 

"भौजी, आज रात यहीं रुके के पड़ी। कलिहैं चली बस, आज रात लड़के बच्चे सब संभाल के यहीं रहो कल चला जाएगा।” यह बोलते हुए वह मुस्कुरा दी। 

उस थकान में उसकी मुस्कुराहट की वजह मुझे समझ नहीं आई। औरतें पहनावे में पुरभिहा खुशबु समेटे थी। लाल पिली चटक रंग की साड़ियाँ। भर हाथ चूड़ी महावर और सर पर पल्ला भी। सभी औरतें अपने साथ दो एक गठरी संभाले हुए थी। साथ में बच्चे भी थे। इतनी दूर से पैदल चलकर आ रही थी लेकिन उनके चेहरे पर सुकून था। यह सुकून इस समय में मेरी समझ के परे था। लोग मर रहे हैं भारी आपदा पड़ी है। हम एक दूसरे से दूर बैठने पर मजबूर हैं। एक बीमारी चारों तरफ चुपचाप घूम रही है जो पकड़ में आ जाए तो सीधे यमलोक की सैर करा दे और ऐसे में यह औरतें खुश हैं ! 

क्यों? कैसे? मेरे दिमाग में यह सवाल घूमे जा रहा था और इतने में उन्होंने अपनी गठरियाँ उठाई और बस टर्मिनस के एक ओर खंबे से सामान टिका कर एक कोना पकड़ लिया। एक ने गठरी में चादर निकाली और बिछा दी। सभी वहां आराम से बैठ गए एक नन्हा-सा बच्चा जो सो रहा था उसे भी वहीं लिटा दिया गया। बाकी बच्चे वहीं आसपास घूम रहे थे। उनमें से एक औरत ने 2 बच्चों का हाथ पकड़ा और पास ही पानी के नल में से कुछ पानी लेकर उनका हाथ मुंह धोया और फिर खाने का डिब्बा खोला। डब्बों में बकायदा पूरी तरकारी सब बना था। ऐसा लग रहा था जैसे मानो किसी सफ़र की तैयारी के साथ निकले हो। कोई मजबूरी नहीं थी सच कहूं तो मुझे गुस्सा आ रहा था उन्हें देखकर। अगर घर में पूरी तरकारी बनाने का तेल रसद सब मौजूद था तो यूं सड़क पर निकलने की क्या जरूरत है? 

उसी घर ही में रहो न और आदमी क्यों नहीं है इनके साथ? मैं इस बात को सोचना नहीं चाहता था लेकिन बार-बार मेरी सोच बस एक ही ओर जा रही थी कि बिना आदमी के इतनी औरतें आखिर जा कहां रहे हैं और किस घर की है?

अब आप इसे मेरी रूढ़िवाद सोच या परवरिश का हिस्सा मान सकते हैं लेकिन मेरे समाज में सिखाया ही यही गया है। औरत हर बार किसी ने किसी आदमी के साथ होती है। रिश्ता चाहे पिता का हो पुत्र का हो बेटे का हो या पति का बिना इसके अगर औरत दिखती है तो वह.... खैर! 

उन औरतों के पूरे समूह के कुछ दूर मैं भी अपना बैग रख, सर टिका कर बैठ गया। खाने की कतार देख भूख मर गयी थी। किसान का बेटा हूँ और आज मुठ्ठी भर दाल भात के लिए यूँ लाइन में नहीं लगा गया। एक बार को शहर का सारा भरम कच्ची दीवार-सा भरभरा कर गिरता जान पड़ा पर फिर संभाला खुद को। बैग में कुछ बिस्किट के पैकेट और चार केले थे वही निकाल लिए। पानी की बोतल खाली थी तो इधर उधर देखने लगा जहां पानी की व्यवस्था हो। तभी उस गुलाबी कुर्ते वाली लड़की पर नज़र पड़ी वो भी चार पानी की बोतलें हाथ में लिए इधर उधर देख रही थी। 

पता नहीं पानी लेने या उसके साथ पानी लेने, मैं भी उसी तरफ चल पड़ा। 

"पानी दिख रहा है कहीं?" मैंने उसे सीधे न देखते हुए पूछा। 

उसने मुझे ऊपर से नीचे तक देखा पर कोई जवाब न दिया। 

मैं हताश हुए बिना दोबारा बोल पड़ा, “चाहो तो दे दो ये बोतलें भर कर ले आता हूँ।”

"हम भर लेंगे। उधर दिख रहा है टैंकर।”

यह कहते हुए ही वो आगे बढ़ गयी और मैं उसके पीछे पीछे। 

इस समय खाने और पानी की लाइन देख कर लग रहा सरकार 370 के साथ जनसंख्या बिल भी ले आती तो बढ़िया था। लॉकडाउन में आपदा से लड़ते हुए कोई कुछ कह भी नहीं पाता और देश सचमुच शुक्रगुज़ार होता। खैर मेरी तो शादी भी नहीं हुई है अभी। 

पानी की लाइन में मैं उसके पीछे खड़ा था। अजीब हालात थे लेकिन फिर भी उसकी तरफ ध्यान चला ही गया। रंग शायद शहर की आपाधापी में हल्का पड़ गया था। गठा हुआ शरीर और नैन नक्श आकर्षित करते हुए। खास था उसके चेहरे पर वो भाव जिसका सही आंकलन नहीं कर पा रहा था। दर्प नहीं था किन्तु ऐसा लग रहा था मानो वो जीत की ट्रॉफी साथ लिए हुए हो। मैंने एक बार फिर बात करने की कोशिश की। 

"सुजानपुरा जा रही हो? हमारे गांव से दो गांव दूर ही है। मैं धरमुपुर का रहने वाला हूँ।” मुझे पड़ोसी जान खुश होने की बजाय उसके चहरे पर कुछ अलग से भाव आये। तिरस्कार करने की कोई वजह समझ नहीं आ रही थी किन्तु कुछ तो था। 

"हम्म" बस इतना ही बोली। 

"ये साथ कौन है तुम्हारे?"

उसने मुझे गौर से देखा और कहा "काहे तुमको भी अकेली औरतों से परेशानी है का?"

उसने पुलिसवाले से बातचीत के दौरान शायद देख लिया था की मेरा सारा ध्यान उसी तरफ था। मैं अचानक किये इस प्रश्न से हड़बड़ा गया और बोल पड़ा "अरे इसमें क्या है। मैं तो शहर में रहा हूँ। शहर की औरतें हर जगह अकेली जाती हैं।”

"हाँ लेकिन अकेली औरत खटकती तो सभी को है चाहे शहर हो या गांव।” उसकी आवाज़ में कड़वाहट साफ़ पता चल रही थी। मैं कुछ न बोला। उसने आवाज़ में कुछ नरमी लाते हुए कहा "हमारे गांव की औरतें है यही नाते से भौजाई हुई। जा रहे है जिससे आराम से गांव पहुँच जाये ये सब।” ये बोलते हुए पानी की लाइन के साथ वो दो कदम हो गयी और मैं उसके पीछे। 

जिज्ञासा अब भी शांत नहीं हुई। इतनी औरतें अकेली तो नहीं रहती होंगी। फिर ये अकेली क्यों जा रही है... 

"अच्छा तो तुम सब घर लौट रही हो? सही है ऐसे समय में घर परिवार में रहे तो बेहतर है।”

उसने फिर एक बार मुझे देखा, इस बार आंखों में मेरे सवालों से तंग आने का भाव था लेकिन मुझे उसके पीछे ज़रा-सा दर्द भी दिखा और तभी सर हिलाते हुए उसने कहा, “हम घर नहीं लौट रहे, बस इन लोगो को पहुंचाने जा रहे हैं। इहाँ शहर में अकेले रहे से तो बेहतर है की गाँव घर में रहें "

"शहर में अकेले?? ये औरतें शहर में अकेले रहती है तो करती क्या है??" ये ख्याल इतनी तेज़ी से मन में कौंधा की मुझे लगा की मेरे दिमाग और दिल की बातचीत उसके कानों में भी पड़ जाएगी। 

फिर कुछ सम्भलते हुए उससे पूछा, “अकेली? यहाँ भी अकेली रहती है? परिवार?"

उसने मुझे दो पल को रुक कर बड़ी संजीदगी से देखा मानो मेरे आँखों के उस पार मेरे दिमाग में झाँकने की कोशिश में हो। 

जब तक मैं उसके भाव समझता वो अचानक, मुस्कराते हुए चेहरे पर चमक लिए बोल पड़ी "और गांव में ये बताने भी जा रहे कि औरत अकेली हो तो भी अपनी देखभाल कर ही लेती है।", मैं बरबस ही मुस्करा उठा।

“बिलकुल सही कह रही हो। औरत कुछ भी कर सकती है, मैं ऐसा ही मानता हूँ। अकेली चाहे दुकेली !"

इस बार उसने मेरी तरफ कुछ उस निगाह से देखा मानो मेरा झूठ पकड़ने की कोशिश में हो। पानी की लाइन कुछ और आगे बढ़ी और साथ हम भी। 

बातचीत बढ़ाने के इरादे से पूछा "नाम क्या है तुम्हारा?"

वो नाम बताएगी या नहीं इसका ठीक-ठीक अंदाज़ा नहीं था मुझे लेकिन फिर भी ये एक सवाल पूछ लिया मैंने और उसने बेपरवाही से लाइन की तरफ उचकते हुए कहा "संगीता"।  

अब ये कोई फिल्म होती तो कह देता की मुझे भी उसके नाम में संगीत सुनाई देने लगा। लेकिन ऐसा नहीं था, इस समय संगीत के नाम पर चारों तरफ थके बेचैन कदमो का शोर था। 

"संगीता अच्छा नाम है "

"इसमें अच्छा क्या है? नाम है बस। किस्मत और कर्म अच्छे हो तो ठीक वरना हममें और उस जानवर में क्या फर्क" उसने वही पास बैठे एक कुत्ते की तरफ देखते हुए कहा। 

एक बार को लगा की उसने मुझे उस कुत्ते के बराबर खड़ा करने की ज़ुर्रत कैसे की? फिर अचानक सड़क की भीड़, भूख, घर से दूरी और पैसे की तंगी सब एक साथ याद आ गए और मैंने कुछ नहीं कहा। 

मेरे कुछ न बोलने पर संगीता खुद ही बोल पड़ी, “शहर ने हमको नया नाम दिया। सुंदरी!"

मैंने बिना कुछ कहे उसके चेहरे की तरफ ध्यान से देखा। दूर से कद काठी तो सुघड़ थी लेकिन उतनी दूर से मैं इसकी हिरण जैसी सुंदर आँखें नहीं देख पाया था। गहरी बादामी आँखें, कुछ काले डोरों के साथ। जैसे गाँव के पोखर में जाल डला हो। तीखी सुडौल नाक और भरे हुए होंठ जिन्हें अनायास ही... 

खैर, उसके इस नए नाम के खुलासे पर मैं मुस्करा उठा। ”शहर ने भी सुंदर नाम दिया है"

सुंदरी पूरी बातचीत में पहली बार कुछ तरल-सी जान पड़ी। मेरी तरफ देख ज़रा-सा मुस्करायी और लाइन फिर आगे बढ़ी। 

टैंकर का पानी रात भर की उम्मीद था। हज़ारों लोग बैठे थे और झुण्ड के झुण्ड पहुंच रहे थे। मालूम होता था बड़े शहर जिन खम्भों पर खड़े है वो सभी जा रहे थे। शहर उन्हें रोक पाने में असफल था। 

अबतक हम दोनों पानी भर चुके थे और अपने हिस्से का पी भी चुके थे। इस बीच हमारी कोई बात नहीं हुई लेकिन कभी-कभी ख़ामोशी भी बात करती है। मुझमें उसे शायद कोई शरीफ आदमी दिखा, वैसे ये यकीन से नहीं बोल सकता। मुझे उसमें संगीता और सुंदरी के बीच कुछ दिखा। वापसी में मैंने ही पूछ लिया, “वैसे शहर नाम नहीं दिया करते। तुम्हें किसने इस नाम से पुकारा?"

तारकोल की सड़क पर कुछ ढूंढती नज़रों ने उससे कहा, “ जब शहर आयी तो एस्कॉर्ट बनने की तैय्यारी थी। तभी ये नाम मिला था।”

सड़कें ठंडी ही थी पर पता नहीं क्यों ये सुन कर अचानक तारकोल गर्म-सा लगने लगा और ताप कहीं बहुत भीतर महसूस हुआ। मैं उसकी और देख कर उसकी चेहरे पर किसी विषाद की रेखा को देखने की कोशिश में था। अब इसे भी आप मेरी मनोग्रंथि कह सकते हैं की जिस काम की बात संगीता कर रही थी वो सुंदरी नाम पर जंच रहा था। किन्तु अपनी बोली भाषा वाली संगीता पर नहीं। 

अँधेरे में भी मेरी नज़र शायद उसे छू गयी और उसने बेबाकी से हँसते हुए पूछा, “का बाबू? हमार चरित्र तौलत हउआ की आपन?"

उसके सवाल ने बींध दिया लेकिन हँसी ! इस मुश्किल वक़्त में जहाँ प्यास भूख गर्मी बेहाली और जान पे बनी थी एक पल को लगा मानो लू में पुरवाई का झोंका। कितनी सुन्दर मनोहारी! 

इसके सवाल पर ध्यान जाते ही मैं पूछ बैठा, “क्यों मैं तुम्हें शरीफ आदमी नहीं लगता?"

उसने बिना मेरी तरफ देखे हुए, "शरीफ दिखने और होने में फर्क होता है। बिलकुल वैसा ही जैसा रेगिस्तान में पानी दिख ज़रूर सकता है लेकिन प्यास बुझे ये ज़रूरी नहीं।”

मेरे मुताबिक खूबसूरत और शायद कम पढ़ी लिखी लड़की से मैं ऐसी सूफियाना बातों की उम्मीद नहीं रखता था। ये सब मेरे मुताबिक इसलिए की उसे जानता तो नहीं था लेकिन फिर भी इंसानी फितरत कि मैं उसे माप-तौल रखा था। ये तौल कब कहाँ किसने बनाये नहीं पता लेकिन गहरे पैठे थे। कहने को शहर में था लेकिन औरत की सोच की सीमा तोड़ती बातों पर मुझे अब भी आश्चर्य होता था। सीधा सरल हिसाब है पुरुष बाहर की दुनिया और औरत घर संभाले। यही तो बरसों से होता आया है और बुराई क्या है इसमें?? 

इधर उसकी अवधी और खड़ी बोली के बीच डोलती बातों में मैं, और आँखें की पलकों में उड़ते बाल कुछ उलझ से गए थे और जिन्हें झटकते हुए वो मुझे भी ख्यालों से बाहर यथार्थ में ले आयी। 

रात 1 बजने वाले थे। बसों की लाइनों से भीड़ का अंदाज़ा हो रहा था। भीड़ से नए भारत की सबसे बड़ी पलायन यात्रा का भी अंदाज़ा था। और ये पलायन मानव जाति के इस संकट का भान करा रहा था। भूख, थकान और ज़िंदगी की मार से बेहाल भीड़ नींद का सहारा ले कर कुछ पल का सुकून जी रही थी। हालाँकि नींद मौत से ज़रा ही अलग होती है लेकिन जीवन की शांति यहीं मिलती है। सोचे तो शायद ऊपर वाला हर दिन के अंत में हमें याद दिलाता है की सुकून तो निद्रा में ही है और चिर निद्रा में पूर्णशांति। 

“तुम धरमुपुर के हो? बाभन टोला है उधर बस और थोड़े अहीर हैं न?"

कुछ देर पहले गांव के नाम पर उसके चेहरे के भाव और अभी कहे वाक्य में अंतर् था। जैसे कोई रूठा बच्चा माँ से नाराज़ हो पर फिर आँचल का कोना उँगली पर लपेटने की कोशिश में हो। 

"हाँ। लेकिन अब क्या बाभन और क्या अहीर, शहर में कौन मानता है ये सब और अभी? इसमें से क्या पता कौन कौन जात है?" चारों तरफ बस मजबूर चेहरे दिख रहे थे। 

भीड़ की कोई जाति नहीं होती कोई धर्म नहीं। इस समय दूर-दूर तक बस इंसान थे जो अपने मकानों से मजबूरी में निकल कर घर की तरफ चले जा रहे थे। हम दोनों ही महामारी और पलायन को आँखों से देखते हुए बहुत कुछ टूटते और छूटते देख रहे थे। समाचार में पत्रकार की निगाह से पलायन का दर्द देखना और उस दर्द को स्वयं थके शरीर से झेलना दो अलग बाते हैं। 

"तुमने बताया नहीं की तुम सब अकेली क्यों जा रही हो?"

"कितनी अजीब बात है न। हम सब है फिर भी अकेले और तुम अकेले हो पर कोई सवाल नहीं पूछेगा।”

"मेरा वो मतलब नहीं था। बस बच्चों के साथ इन हालात में अकेली औरतें यूँ सफ़र पर निकले तो सवाल उठता ही है।”

"हम्म, उठता है क्योंकि उठाया जाता है। जब पूरी ज़िन्दगी ये औरतें अकेली गुज़ारती हैं तब कोई नहीं पूछता।”

"अकेली क्यों? ये सभी तो शादी-शुदा हैं, बच्चे हैं। तो फिर...?"

"हर शादी-शुदा औरत के हिस्से एक मर्द आता है लेकिन वो उसका साथी भी हो ये ज़रूरी नहीं। ये अकेली औरतें ही हैं। ध्यान से देखो। आज इन हालातों में भी बच्चों को थपकी दे कर सुलाती हुई खुश है। इस महामारी में बाहर सड़क पर भी मुस्करा रही है क्योंकि जो मार घर पर मिलती है उससे ये बेहतर है।”

"....... "

"ये अकेली औरतें ही हैं जो रोटी कपड़ा छत, बच्चे के आगे का जीवन, इन सब की खातिर, मर मर के काम करती है। नमक कम होने पर मार भी खा लेती है और ज़ख्म वाला शरीर ले कर रात को बिस्तर भी गरम करती है। और जानते हो इन्हें उन दोनों ही हाल में दर्द बयान करने की आजादी नहीं है। लेकिन तुमको या किसी को भी ये अकेलापन नहीं दिखता। ब्याह के नाम पर तमाम रिश्तों में बाँध कर उम्र भर के लिए बाँध ली जाती हैं।”

मेरे सामने ज़िंदगी का अलग ही पहलू सामने आ रहा था। बोलते-बोलते उसकी आँखों में नमी भी थी और शरीर में गुस्से की आग भी। 

"जानते हो तुमको ये अकेली क्यों नहीं दिखती? क्योंकि इनको सिखाया जाता है मुस्कराना। भर हाथ चूड़ी में उँगलियों के ज़ख्म छुप जाते हैं। घूंघट में निशान ढंके रहते हैं और तुमको साज श्रृंगार में बस औरत दिखती है। और तुम तो शरीफ भी हो तो तुम्हें भले घर की बहु-बेटियां ही दिखी। तुमने कहाँ सोच होगा की दिल्ली की किसी एस्कॉर्ट से मिलोगे? क्यों लगती हूँ मैं वैसी लड़की?"

उसकी बातें और नज़र दोनों ही अचानक मेरी तरफ रुख़ कर चुके थे और मैं निहत्था था इस सवाल के सामने। 

पिछले कुछ घंटों के दौरान मैं उसे इतने करीब से अब देख रहा था। गेहुँए रँग पर दिन भर की धूप थकान का असर तो था लेकिन चेहरे की लुनाई बरकरार थी। ज़िद्दी बच्चे-सी बिखरी लटें गर्म हवा के मद्धिम झोंको से बालियों में अटकती और वो उन्हें फिर कानों पर थपकाती। 

टर्मिनस की बड़ी बड़ी हैलोजन लाइटें बड़े दूर तक रौशनी देती हैं। रौशनी में सब कुछ साफ़-साफ़ दिखता है, पर न जाने क्यों मैं उसके चेहरे को साफ़ नहीं देख पा रहा था। शायद मेरी नज़र उसकी पलकों में उलझी थी, जिन्हें झपकाते हुए उसने ये गहरा सवाल बड़ी बेपरवाही से पूछ लिया। मैं कहना चाहता था की मुझे उस जैसी लड़की कभी नहीं मिली। लेकिन कुछ कह नहीं पाया। 

मैंने उसके सवाल के बदले सवाल पूछना ही बेहतर समझा क्योंकि सवाल जवाब के बहाने बातें होती। यूँ हमारे बीच बात करने को कुछ नहीं था लेकिन बात करने के लिए बात होनी ज़रूरी नहीं। बेमतलब की बातें उस हवा पानी की तरह होती है जिनसे रिश्तों की पौध गमले में बंध के नहीं बल्कि जड़ों को दूर तक फैलाये फलती फूलती हैं। 

अब इस महामारी के बीच मैं किस रिश्ते की उम्मीद में था ये मत पूछियेगा, क्योंकि जवाब नहीं है मेरे पास। बस इतना चाहता था की रात भर का वक़्त जवाब सवाल में निकल जाये। झूठ नहीं कहूंगा, मैं उसके संगीता से सुंदरी के सफ़र के बारे में जान जाऊँ ये इच्छा भी थी। 

"तो तुम इन लोगों को घर पहुंचाने जा रही हो बस? "

मेरे इस बस पर उसने एक बार फिर लटों को कानों पर टिकाते हुए मेरी ओर सवालिया नज़रों से देखा। 

"मेरा मतलब है, तुम्हारा परिवार उनसे मिलना। गाँव गढ़ी देखेके के इच्छा नईखे?"

"गाँव गढ़ी से कउनो मोह नाई बचल। जेकरा संगे मोह रहल उ गईल सर्गे।”

मेरी तरफ देखते हुए उसने आगे बोलै, "हमार माई। हमर एगो परिवार रहल। बाबू बचपन में चल बसलें। एक ठो भाई रहल उहो खसरा से दुनिया छोड़ गईल। तबसे बस हम अउर हमरा माई।”

ये बोलते हुए वो रुक गयी। पता नहीं क्यों मुझे एहसास हो रहा था की मैंने नासूर को कुरेद दिया है। दर्द की वजह जानने की इच्छा और उसे दर्द न देने के बीच जद्दोजहद चल रही थी। जून की उमस भरी रात में हम दोनों के बीच गहरा मौन पसरा था जिसका एक एक कोना पकड़ हम समय बिता रहे थे। कुछ देर बाद वो बोली, “हमर माई ईगो अकेली औरत रहल।”

ये बोलते हुए वो एक बार फिर चुप की सुई से मानो पुरानी गठरी खोलते हुए संभाल कर भीतर झाँका। उसके चेहरे पर दर्द की लकीरे थीं। 

"बड़ी बड़ी बातें। पढ़ाई लिखाई अधिकार ये सब शहर और स्कूलों में पढ़ाई जाने वाली बातें हैं। सब एक बराबर कब्बो नाय रहलें। गरीब और उस पर नीच जाति और उस पर अकेली औरत !"

उसके ज़बान की तल्ख़ी निबौरी-सी मेरे कानों से होते हुए ज़बान का स्वाद बदल रही थी। 

"गाँव के ठाकुर आदमी लोग नीच औरतों को आपन लगान और मिल्कियत समझेलें।”

एक फीकी हंसी हँसते हुए बोली, “ वैसे तो शहर में भी आदमी लोगन सोच से घटिया हउए। गाँव में हम और माई अकेल रहे। खेत गिरवी और हम दोनों अपने ही खेत पर मज़दूर। बाबू के बाद दसवीं तक पढ़लि फिर अम्मा संग खेत पर काम पकड़ लेहली। उम्र उठान पर रहल। शरीर और ज़बान दोनों। आये दिन ठाकुर के आदमियन संग झड़प होई जात रहल और एक बार बात बढ़त बढ़त इतनी हुई की हम उनके सबसे कमज़ोर अंग पर चोट कर बैइठे।”

मेरे चेहरे पर शायद हैरानी और कुछ न समझने के भाव थे। लम्बी साँस भर, मुझे देख कर मुस्कराती हुई बोली, “मर्द जात बहुत ताकतवर होत है लेकिन उनका अहम बड़ा कमज़ोर। ज़रा-सी ठेस से बिलबिला उठत हैं और हम इसी गलती की सज़ा पाए।”

मैं उसे बीच में कुछ भी बोल कर भटकाना नहीं चाहते था। वो जितना बोलती मैं उतने ही कदम उसकी यादों के पास जा रहा था। 

"एक रोज़ हमरी दी हुई चोट के सज़ा मिलल और ऊंच जात के कुछ आदमी हमरे ही खेत में हमार माई के सामने हमरा बलात्कार किये। जिस्म नोचने से जख्म हुआ लेकिन अंदर से आत्मा मरणासन हो गयी। आत्म्विश्वास तार तार। हमारे साथ गुनाह हुआ और हम ही गुनहगार बन गए। गांव से कउनो मदद नाई मिलल। आपन गाँव गढ़ी रहल तब्बो हम अउर माई अकेल रहली और फिर माई से सदमा ज्यादा दिन झेल नाई गईल और छोड़ के चल देहलिस।”

एक साँस में वो अपने दर्द को बयान कर गयी मानो किसी कड़वी दवा को एक घूंट में पिया हो। जाने कैसे उसकी जबां की सारी कड़वाहट मेरे भीतर महसूस हो रही थी। मैं वो नहीं था जिसने उसके साथ गुनाह किया पर मैं मर्द था। शायद शर्मिंदा भी था। दो अनजान लोगों से अचानक हम दोनों के बीच एक रिश्ता बन गया था। मैं अब उसका हमराज़ था और उसे मुझ पर विश्वास था। ये क्यों हुआ नहीं पता। पर बेवजह बने रिश्ते बेवजह की बातों से होते हैं दूर तक फैलाव लिए ! ये बात मेरे कितने भीतर गयी इसका ठीक ठीक अंदाज़ा नहीं लेकिन ये लड़की ज़रूर भीतर उतर रही थी। उसने एक लम्बी साँस भरी मानो संगीता को पीछे कर सुंदरी का चोला पहन रही हो। 

"खेत बारी तो पहले ही चला गया था अब मेरे जन्मस्थान पर मेरे लिए कुछ नहीं था। गठरी मुठरी ले कर शहर आये और बस सुंदरी बनने की तैयारी में जुट गए।”

ये बात इसने यूँ कही मानो UPSC की परीक्षा की तैयारी हो। 

"तो क्या तुम अब भी वही काम करती हो?"

मेरे इस सवाल पर मेरे चेहरे पर उसकी नज़रें गड़ गयी। अँधेरे में भी उसकी झपकती पलकों का एहसास हो रहा था। वो अँधेरे के पार मेरे भाव पढ़ना चाहती थी। 

"अगर करती हूँ तो बुराई है? मेरा ये काम करना बुरा है और जो आदमी इस्तेमाल करते है मुझ जैसो को वो? आदमी आये नहीं तो ये सारे काम होंगे भी नहीं "

इस बात पर बोलने को मेरे पास कुछ नहीं था। 

एक लंबी साँस में उसने इस कहानी की सारी थकान भीतर जज़्ब कर ली, “किस्मत साथ दी हमारा और एक दिन कुछ समाज सेवी पुलिस की मदद करते हुए वहां पहुंचे। हम जैसी पच्चीस लड़कियों को छुड़ाया। फिर कुछ साल उनके आश्रम में रहे। आगे की पढ़ाई भी की और काम सीखा। आज सिलाई का काम करते हैं और सिखाते भी हैं। अपना काम करते हैं और अपनी ज़िन्दगी के मालिक खुद है। सब खो दिए लेकिन हौसला कैसे खोते?" 

हमारे बीच फिर एक चुप्पी पांव पसार चुकी थी। उसके भीतर एक तूफ़ान घुमड़ रहा था। मुझे एहसास हुआ की मेरे सवालों ने बोतल खोल कर किसी जिन्न को बाहर निकल दिया है और वो अकेली ही उसे फिर बोतल में बंद करने की मशक्कत कर रही है। इस मश्क में उसके आँखों के कोरो पर कुछ नमी थी जिसे न उसने समेटने की कोशिश की न मैं ही उन्हें ढलकता हुआ देख पाया। 

कुछ देर बाद वो खुद ही बोल उठी। 

"तो समझे तुम की मुझे गांव में क्यों किसी से नहीं मिलना?"

"हाँ, लेकिन फिर भी जा रही हो?"

"हाँ जा रही हूँ। क्योंकि हमारे गाँव, दुनिया से अलग-थलग पड़े हैं। उन्हें बदलते समय का अंदाज़ा नहीं। उनके हिसाब से 17 बरस की नीच जात की लड़की जो रोती बिलखती गाँव से कहीं चली गयी वो मिट गयी होगी। मैं जाऊंगी ये बताने की बिना उनकी दया, मदद के मैं जी रही हूँ। अकेली हूँ कमज़ोर नहीं। अच्छा बुरा जो हुआ झेल कर आज उनके सामने खड़ी हो सकती और कउनो माई के लाल में दम नइखे कि... ", कहते-कहते वो फिर चुप हो गयी। मुझे एक बार फिर उसके इर्दगिर्द एक महीन-सी दीवार महसूस हुई। 

कुछ देर को हम चुप थे। हालाँकि मैं उससे कुछ और सुनना चाहता था। क्या,ये नहीं पता। लेकिन कुछ ऐसा जिससे इर्दगिर्द की दीवार टूट जाये या मैं किसी सुराख़ से उस तक पहुंच सकूँ। वो भीतर से नम थी लेकिन ज़मीन परती पड़ गयी थी, मानो बरसों से बारिश की एक बून्द नहीं। 

रात आधे के कुछ पार थी। 

"तो तुम नफरत करती हो? मर्दों से?", बहुत बेमानी-सा सवाल था, लेकिन मैंने पूछा। 

"उम्महम्म... नहीं ऐसा नहीं। नफरत नहीं करती लेकिन विश्वास नहीं रहा। नफरत करती तो शायद किसी एक या वो कुछ चेहरे नफरत की वजह होते लेकिन विश्वास दरक गया। आत्मविश्वास कुचल दिया था। बड़ी मुश्किल से संभाला, अब विश्वास आने में कितना समय लगे नहीं पता। ये ज़िन्दगी या "

बोलते बोलते कहीं दूर आसमान में उसकी नज़रें टिक गयी जैसे अपने सवालों का खुद ही जवाब तलाशती हों। मैं इस तलाश में उसके साथ जाना चाहता था लेकिन उस तरफ अँधेरा बहुत था। 

रात के तीसरे पहर में अब सन्नाटा और गहरा गया था। इधर उधर बैठे पुलिसवाले भी ऊंघ रहें थे। भारी पलकों को मूँद कर उसने भी सर खम्बे पर टिकाया। नींद का सुकून पुरानी यादों के दर्द की सबसे कारगर दवा है। नींद में गुम सुंदरी मुझे बार बार झपकती पलकों को खोलने पर मजबूर करती थी। आज की रात बस, उसके बाद शायद 

सुबह के चहल पहल के बीच नींद खुली और सुंदरी का सर मेरे कंधे पर था। कुछ पल को उसके दर्द उसके सपने उसके जख्मों का सारा बोझ उठा लेना चाहता था लेकिन न मौका था न हालात। 

नींद से हड़बड़ाई हुई उठी, एक पल को हम इतने करीब थे की शायद पलकें झपकती तो उलझ जाती लेकिन वो दुपट्टे को संभालते हुए बोली, “बस लग गयी?"

और मेरे जवाब से पहले ही, “हे भउजी उठा हो "

"चलो चलो सब उठो। हम बस देखत हई।”

सफ़र की शुरुआत थी या सफ़र का अंत समझ नहीं पा रहा था | बस एक पल और,यही सोच मैंने आवाज़ लगा दी, “सुंदरी !"

आगे बढ़ते कदम ठिठके। ”संगीता पता दोगी अपना?"

चारों तरफ भीड़ ही भीड़ थी। शोर था बेचैनी थी और इस सोशल डिस्टेंसिंग के दौर में उसकी नज़रें मेरे चेहरे को छूती हुई महसूस हुई। 

"सुंदरी का पता खो गवा और संगीता अभी केहू के पता देवे नाय चाहत। दिल्ली बड़ा शहर है। क्या पता फिर मिले किसी मोड़ पर" ये बोलते हुए वो मुड़ गयी। बस की लाइनें एक बार फिर स्थिति की भयावहता से रूबरू करवा रही थी। सभी अपने साथ अपनी कहानियाँ समेटे वापसी में थे। रात खतम हो चुकी थी और सफ़र के शुरू होने से पहले ही मोड़ आ गया था। 

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