मेरे हाथ अख़बार का कागज़ था जिसमें मुझे समय के दो कान काट कर रखने थेअजायबखाना में रखे कीमती पत्थरों का मोह मुझसे अब तक न छूट सका मगरमैं कश्मीर से कन्याकुमारी तक गयाहिरन की छाल से खरगोश के फ़र तक
प्रेमा झा की कविताओं में समाज की कई आवाज़ें मुखर होती हैं, स्त्रियों का, हमारे आसपास का जीवन दिखता है। पढ़िए पाँच चुनिंदा कविताएं। ~ सं0
Prema Jha ki Kavitayen |
'अ वाइफ इज़ अ लीगल प्रॉस्टिट्यूट' व अन्य कविताएं
प्रेमा झा
डूअल मास्टर्स इन बिजनेस एडमिनिस्ट्रेशन एंड मीडिया मैनेजमेंट, NIILM नई दिल्ली, जन्म: 21 नवम्बर, मुजफ्फरपुर, बिहार / वर्तमान में कार्यभार: हेड ऑफ़ मेडिकल कंटेंट के पद पर ASPS, अमेरिका और BAPRAS, लंदन के लिए कार्यरत / प्रकाशित कृतियाँ: प्रथम काव्य संग्रह, हरे पत्ते पर बैठी चिड़ियाँ” वर्ष २००९ में जागृति साहित्य प्रकाश, पटना, द्वितीय काव्य संग्रह, किले की दीवार और चिड़ियाँ का तिनका भारतीय ज्ञानपीठ तथा वाणी प्रकाशन, चर्चित रचनाओं में लव जेहाद, ककनूस, बंद दरवाजा, हवा महल और एक थी सारा विशेष तौर पर पाठकों द्वारा पसंद की गई. हंस में छपी कहानी “मिस लैला झूठ में क्यों जीती हैं?” खासा चर्चा में रही. फिलवक्त अपने एक उपन्यास को लेकर शोधरत हैं.
मंटो के उपन्यास का एक कन्फ्यूज़्ड पात्र
मैं रोमांस लिख कर थक चुका था
मैंने सही रस्ते का इंतख़ाब तो नहीं किया अब भी
मगर गर्म उबलती दोपहर में प्यास के स्वाद को जान लिया है
मैंने रेशमी कपड़े खरीदे उसके लिए जिसका होना मेरी मुकद्दर को राज़ी था
मुझे उसे मेरी माशूका कहने से कोई गुरेज़ न था
मैं उसे नए कपड़ों में वैसा ही देखना चाहता था जैसा कि मंटो की कहानियों की होती थी कोई भोली नायिका
या कि
राशेल, बलाश, गैबी, कैथरीन या लैनी जैसी किसी विदेशी नावलों की सांयोगिक पात्रा
वो मेरा घर थी सो सूरज, तारे, चाँद सब उसके गिर्द खुलते थे
मगर अफ़सोस उसका मेरा होना बाक़ी रहा
जैसे अटकी हुई होगी साँसे विनसैंट की आखिरी क्षणों में स्थगित
मैं क्रॉप की हुई तस्वीरों-सा रहा
जिसे महफ़िल में पिछले वाले दरवाज़े से इजाज़त मिली थी
मैंने मुहब्बत को इससे पहले भी पढ़ने की कोशिश की थी मगर सेक्स और रोमांस, दुनिया और रीति-रिवाज़
में बार-बार उलझता रहा!
मेरे हाथ अख़बार का कागज़ था जिसमें मुझे समय के दो कान काट कर रखने थे
अजायबखाना में रखे कीमती पत्थरों का मोह मुझसे अब तक न छूट सका मगर
मैं कश्मीर से कन्याकुमारी तक गया
हिरन की छाल से खरगोश के फ़र तक
भेड़ वाली गर्मी मेरे लिए अब तक संदिग्ध और कम खूबसूरत थी
कुदरत जानती है या कि हम बस!
सर्दी को आग चाहिए
चाँद के लिए सिक्का-भर ज़मीन
धूप और मेघ के लिए चाहिए होता है कटोरे भर समय
और दिल को चाहिए होता है तीन नसों से खून
मसलन; अलफ़ाज़, नींद, और किसी का टूट कर चाहना
फिर भी मुझे मुहब्बत लिखना नहीं था, उसे जीना था!
मुझे उसकी तलाश थी जो जड़ाऊदार साड़ी, सुगन्धित इत्र और बहुत महँगी लाली के बगैर भी सम्मोहित कर सके
मुझे खूबसूरती की आत्मा की खोज थी
और वो बेशक आँखें खोल कर किया हुआ प्रेम था!
विनसैंट: विदेशी नॉवेल ‘मैं राशेल’ का एक पात्र! अमृता प्रीतम के रचना-संग्रह “दो खिड़कियाँ” संग्रह से साभार
अ वाइफ इज़ अ लीगल प्रॉस्टिट्यूट
विवाह एक उच्च कोटि की वेश्यावृत्ति है
एक रात मन्त्र में झट से अर्जित करवा देता है सब
पुरुष स्त्री का बन जाता है खेत जोतता हुआ बैल
मगर रुको यहाँ, यह भ्रम है कि औरत गाय ही बनती है
कभी-कभी वो बन जाती हैं जंगली सांड
मेहँदी-हल्दी में नहाई देह ने उसे निर्लज्ज भी किया है बहुत
डट कर खड़ी होती है वो वहां- जहां आती है चौखट
और लांघ देती है अपनी सलवार की म्यानी से भी ज्यादा लम्बी सिलाई
वो एक दीवार फांदती है और दूसरा छत मांगती है
हाँ. यह फेमिनिज्म है!
गहने-जेवर, कपड़े और तीज-त्यौहार का उपहार तो पुरानी-पिछड़ी हुई बातें हैं
स्त्री बन जाती है अधिकारिक तौर पर सोशल कॉन्ट्रैक्ट के तहत एक कानूनन वेश्या
जैसे कामगार की सलीब पर बैठी हो ताजपोश, मुंह चिढ़ाती हुई कोई तेज औरत
किसी लेखक ने खूब ही कहा है “अ वाइफ इज़ अ लीगल प्रॉस्टिट्यूट”
खाई होगी किसी ने गाली, बेलन, और पीया होगा घूँट-घूँट भर पीड़ाओं को पानी की तरह
इसलिए मर्दों की आंख में आंसू नहीं होता है
कभी-कभी ये मर्द भी मगर मर्द नहीं रह जाते हैं
हर्मैफ्रडाइट हो जाते हैं
औरत जब होती है चालाक
मर्द बन जाता है अय्यार
फिर एक युद्ध चलता है और कई वाद स्थापित होते हैं
जैसे मार्क्सवाद, लेनिनवाद, कार्ल्सवाद और भी ऐसे ही कई सिद्धांत
फिर इन सिद्धांतों पर खड़ी हो जाती है एक पूरे मुल्क की राजनीति
फिर होता है कोई तानाशाह तो कोई मनुवाद
कोई संघी तो कोई वामपंथी
फिर बम-गोले, बारूद, नफ़रत और दहशत
डाकिनी डस लेती है पूरा-का-पूरा जनसमूह
फिर भूत होता है, पिशाचिनी होती है
बनती है किवंदती और आदमी बन जाता है एक डरावनी जाति
वापस आता है पुरुषवाद
और उस स्त्री को सबसे पहले हाशिये पर रखता है जो होती है गाय
फिर दुधारू गाय और खेत के बैल में होती है लड़ाई
मगर इस बार कोई जीत या हार नहीं होती
बल्कि होती है रंगनीति
इस तरह निज़ाम की हिकमत बदस्तूर चलती रहती है!
मेहंदी और बास
मेहंदी के पेड़ पर भूत होते हैं
बचपन में सुना था!
अघोरियों की श्मसान में
उसने मुझे हैरत भरी निगाहों से देखा और एक कोने में खड़ा हो गया
उसके लिए मैं हक़ीर थी जिसे रंगों में यकीन था
वो दुनिया की तमाम रंगबाज़ियों का सौदागर था
जिसे मेहंदी के पेड़ पर के भूत वाली बात का पता था
उसने मुझे बतलाया कि वो भूत दुनिया है
जिसके नाक-नक्श बहुत भद्दे हैं
और जो रंग महल में जुआ खेला करता है
वो ठगता है, रंग की उजली सच्चाई को
ढीठ होकर मना कर देता है!
और फिर खुद बाद में जार-जार रोता है!
क्योंकि उसके पास इस भूत के भटकने वाली बात का ठोस प्रमाण है
वह दुनिया की उन औरतों से झूठ बोलता है जिसे भूत और भगवान में विश्वास है
वो निहायत ही अश्लील है और रूह की रंग को पहचानने की सलाहियत नहीं रखता है
मेहंदी की बदसूरती का इतना भद्दा पहलू देख कर
मुझे उसके रंगों से मुर्दों की बास आने लगी
और चारो ओर ये दुनिया किसी भूतिया शक्ल में घूमने लगी-
कि तभी एक अघोरी नंगा नाचता हुआ आता है
और शरीर पर भभूत लगा लेता है
अब भय, भभूत, और मेहंदी वाला भूत तीनों इस दुनिया में
श्लील बन कर नाटक कर रहे हैं!
कलयुग
कलयुग में मृत्यु मज़ाक बनेगी और पाप उत्सव
दुनिया धीरे-धीरे विकराल बनेगी
धीरे-धीरे जानवर- मनुष्य बन जाएगा और मनुष्य जानवर
इस तरह दुआओं का असर तब भी रहेगा!
प्रार्थना में लीन हवाएं, तूफ़ान अपना हमसाया करेंगी.
अब मौसम धीरे-से बदलेगा और एक संकर मौसम लाएगा
धीरे-धीरे बीमारी आदत बनेगी और सांस कोई चोरी का रोज़गार
संसार और पीछे जाएगा, बाशिंदे फिर से आदिमानव हो जाएंगे
आसमान नीचे आएगा
और नीचे
ज़मीन पर गिर जाएगा!
शासक उस पर काबिज़ होगा
और क्या?
धत्त! बेवड़े कहीं के
एक युग समाप्त होगा!
कोरोमंडल एक्सप्रेस
हर ख़बर तारीख़ है और हादसा घना जंगल
पटरियों पर भटकती आत्मा सरकारी है
निजी है अंतिम क्षणों का समाचार
टेबल पर बिखरा हुआ-सा जो है
देश है तुम्हारा
सत्ता चूर है मद में
इस बात से कि हर काम पुण्य है
वो चील-कौवों की बहुत सोचते हैं
बाज़-नज़र रखते हैं
इनके विकास की माँ बाँझ है
परियोजनाएं धनी रिश्ता-सा अभी-अभी आया है
प्राण बंद हो गए नोटों सा
बिजली के खंभे पर अटक गया है
करंट-सी सांसों का सायरन
पूरे शहर में बज रहा है
रुको अभी; जरा रुको हम मनाएँगे अमृत महोत्सव
वंदे भारत में आईपीएल का मैच खेलता सबसे तेज़ खिलाड़ी
कोरोमंडल एक्सप्रेस पर आकर हॉल्ट करेगा
दक्षिण में कहीं दूर जाकर गाड़ी पटरी से उतर जाएगी
क्या ही फ़र्क पड़ेगा फिर चाहे प्रयागराज हो या अलीगढ़
कन्ना-रोहट, चीख़-पुकार
तुम्हारे आंसू हैं प्लास्टिक का गुलदस्ता
तेरहवें दिन वहाँ चुनाव का प्रचार होगा
सबसे सुंदर बनेगा शहर
क्रेन सब भूगोल बदल देगा
हम बदलाव करते रहेंगे
कभी नाम में, कभी लाशों की संख्या में, कभी क्षति-पूर्ती की राशी में
मगर माफ़ करना!
न बदल सकेंगे हम तुम्हारी क़िस्मत
राम-राम बोलो बूढ़ों, बेरोज़गारों, विद्यार्थियों
कोई नहीं जानता
कब यह सत्य हो जाए
कि हो जाए सब सत्यानाश!
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