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'लिव-इन के नाम क़त्ल होती लड़कियों के नाम' व अन्य कविताएं ~ दामिनी यादव | Live-in Poetry ~ Damini Yadav

दामिनी यादव की इन तीन कविताओं में से पहली पर मेरी प्रतिक्रिया — लिव-इन के नाम क़त्ल होती लड़कियों के नाम... पढ़ी। सारे मर्मों को कोंच गई। दामिनी, बहुत बहुत गहरी और समाज द्वारा  नवनिर्मित पापों को सामने रखती हुई कविता है, ये बात और है कि आदमी को पाप हमेशा से सुहाते, फुसलाते, बुलाते रहे हैं। ~ सं० 



लिव-इन के नाम क़त्ल होती लड़कियों के नाम

दामिनी यादव 

सुनो,
मन तो नहीं जोड़ पाऊंगी,
ख़ाली जिस्म चलेगा क्या?
कोई रिश्ता नहीं जोड़ पाऊंगी
एक रात का साथ चलेगा क्या?
थके हारे मन में एक भूख सोई रहती है
बनना सोई भूख का वक़्ती निवाला, चलेगा क्या?
जिस दौर में दिल में भी दिमाग़ धड़कता हो
बनना उस दौर का खिलौना और खिलवाड़, चलेगा क्या?
नाम भी मत पूछना, काम भी मत बताना
अपना काम निपटते ही ख़ामोशी से चले जाना, चलेगा क्या?
जिस एहसास से कभी न जुड़ना हो कोई शब्द
उस एहसास के सन्नाटे में ख़ामोशी से पसर जाना, चलेगा क्या?
जब आऊं मैं तो निचोड़ लेना पोर-पोर, पर सीने से मत लगाना
लगे बिखरने वाली हूं तो झटके से हट जाना, चलेगा क्या?
तुम्हारे हाथ शरीर की तह तक जा सकते होंगे, मन तक नहीं
मन तक राह मिले तो सरे-राह छोड़ जाना, चलेगा क्या?
ज़्यादा बातें करेंगे तो कुछ जान भी जाएंगे,
सीखना जानकर भी अंजान बनने का दुनियावी हुनर, चलेगा क्या?
मैं ख़ामोशी से पड़ी रहूं, तुम ख़ामोशी से चले जाना
आंखों ही नहीं, याद तक से ओझल हो जाना, चलेगा क्या?
कुछ देर को ही तो फ़र्क ख़त्म होगा इंसान और खिलौनों का
इंसानी जज़्बात का खिलवाड़ बन जाना, चलेगा क्या?
मन जोड़ोगे तो बैकवर्ड कहलाओगे,
बनना प्रैक्टिकल, स्मार्ट और ट्रेंडी, चलेगा क्या?
बस ग़लती से भी न चूमना मेरे माथे को पूरे हो जाने के बाद
भूख के सोने पे मैं जाग गई तो न जाऊंगी, न जाने दूंगी, 
नहीं चलेगा न...


खिड़कियां और पर्दे

खिड़कियों पर गिरे पर्दे से हम एक दुनिया छिपा लेते हैं
खिड़कियों पर गिरे पर्दे से हम एक अलग दुनिया बना लेते हैं
खिड़कियों पर गिरे पर्दे से हम समेट लेते हैं एक नज़रिया
खिड़कियों पर गिरे पर्दे से हम एक नया नज़ारा बना लेते हैं
खिड़कियों पर गिरे पर्दे छटपटाते हैं आज़ाद उड़ान भरने को
खिड़कियों पर गिरे पर्दों को हम सिमटना सिखा देते हैं
खिड़कियों पर गिरे पर्दे कितने बेबसी से बंध जाते हैं
खिड़कियों पर गिरे पर्दे निगाहों के पहरेदार बन जाते हैं
खिड़कियों पर गिरे पर्दे सच छिपाना जानते हैं
खिड़कियों पर गिरे पर्दे झूठ बनाना जानते हैं
खिड़कियों पर गिरे पर्दे कब आंखों पर गिर जाते हैं
ये हम एक-दूसरे से बिछुड़ने पर ही समझ पाते हैं...


वफ़ाओं के कुचले सिले

कुचली हुई सिगरेट का भी एहसास जुदा होता है
लबों से कदमों तक का सफ़र बदा होता है,
लोग महंगी कीमत चुका, अदा से उंगलियों में थाम लेते हैं 
फ़िक्र के लम्हों को धुएं में उड़ा देते हैं,
शान से चूमते हैं सुलगते जिस्म को,
सारी मुहब्बत आंखों से जता देते हैं,
फिर हर कश उन्हें कायनात लगता है
धुएं का हर छल्ला जज़्बों का बयां लगता है
आख़िरी कश तक चिंगारी को हवा देते हैं
यही है ज़िंदगी, यही बात बारहां कहते हैं
आख़िरी कश इस मुहब्बत की मौत होता है
शौक को शोक में तब्दील होना होता है
फिर फेंक उसे कदमों तले कुचल देते हैं
लोग मुहब्बत की वफ़ाओं का ऐसे सिला देते हैं
होंठ से कदमों तलक का सफ़र ये बताता है,
इंसान चंद कश का ही मेहमां बनाया जाता है
आज तुम किसी होंठों तले हो तो गुरूर मत करना
कौन जाने वक्त किस करवट बदल जाता है। 
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