महाजनी सभ्यता का तिलस्म और प्रेमचंद ~ नन्द चतुर्वेदी | Mahajani Sabhyata... Nand Chaturvedi on Premchand

Mahajani Sabhyata... Nand Chaturvedi on Premchand


नैतिक प्रतिबद्धता होने के कारण ही प्रेमचंद का विरोध स्तर उन सब अविश्वसनीय से अलग होता है, जो सिर्फ बातूनी है और ऐश्वर्यमयी जिंदगी जीते हैं। 

~ नन्द चतुर्वेदी

नन्द चतुर्वेदी (1923–2014) की जन्म शताब्दी मना रहे हम हिन्दीवालों को प्रो पल्लव ने नन्द बाबू की किताब शब्द संसार की यायावरी से मुंशी प्रेमचंद पर लिखा यह आलेख पढ़ा कर बड़ा नेक काम किया है. ~ सं० 

महाजनी सभ्यता का तिलस्म और प्रेमचंद


प्रेमचंद के साहित्य में किसानों और मजदूरों के शोषण का हादसा सब कही विद्यमान है, किन्तु ‘गोदान’ की समाप्ति और ‘मंगलसूत्र’ के प्रारम्भ के साथ वे महाजनी सभ्यता के आतंककारी विस्तार से परिचित हो गए थे। इसलिए ‘महाजनी सभ्यता’ निबंध में पूंजीवाद के जिस विकराल रूप का वर्णन है, उसे ही ‘मंगलसूत्र’ के देवकुमार एक तर्क-संगति देते हुए कहते हैं कि 
‘‘जिस राष्ट्र में तीन-चौथाई आदमी भूखों मरते हों, वहां किसी एक को बहुत-सा धन कमाने का कोई नैतिक अधिकार नहीं है, चाहे इसकी उसमें सामर्थ्य हो।’’ 

सामर्थ्यवाली बात कह कर प्रेमचंद उन सारे पूंजीवादी-दार्शनिकों का तर्क-व्यामोह भंग कर देते हैं, जिसका उन्हें बहुत गर्व है और जिसे वे अकाट्य समझते हैं। ‘वैयक्तिक प्रतिस्पर्धा’ के जिस तर्क को वे मनुष्य-जिजीविषा का हिस्सा बनाते हैं, वह बुनियादी रूप से लालची और ईर्ष्यालु कर्म की हिस्सेदारी है। इसीलिए प्रेमचंद ने एक दूसरे आलेख ‘नया जमाना-पुराना जमाना’ में पूंजीवादी समाज पर टिप्पणी करतेहुए लिखा-
‘‘यह सभ्यता शहद और दूध की नदी अपने कब्जे में रखना चाहती है और किसी दूसरे को एक घूंट भी नहीं देना चाहती। वह खुद आराम से अपना पेट भरेगी, चाहे दुनिया भूखी मरे।’’

कंचन-लोलुप पूंजीवादी  सभ्यता के सम्बन्ध में लिखते बोलते हुए प्रेमचंद में एक बौद्धिक प्रखरता है- ज्यादा अच्छा हो, यदि उसे नैतिक प्रतिबद्धता कहें। नैतिक प्रतिबद्धता होने के कारण ही प्रेमचंद का विरोध स्तर उन सब अविश्वसनीय से अलग होता है, जो सिर्फ बातूनी है और ऐश्वर्यमयी जिंदगी जीते हैं। यही प्रतिबद्धता उन्हें उन सारे धर्माचायों से भी अलग करती है, जिनका नैतिकता बोध मनुष्य की जिंदगी के बिलकुल पास खड़े सवालों और भयावह अत्याचारों से कतराता हुआ निकल जाता है। 


मैं यह जोर देकर कहना चाहता हूं कि प्रेमचंद ‘गरीबी के अध्यात्म’ से जुड़े थे। हजारों जगह और सैकड़ों प्रसंगों में प्रेमचंद ‘कांचन मुक्ति’ के अध्यात्म को दुहराते है। वे लिखते हैं - 
’’मैं कल्पना ही नहीं कर सकता कि कोई बड़ा आदमी बड़ा धनपति हो। जैसे ही मैं किसी आदमी को बहुत अमीर देखता हूं, उसकी तमाम कला और ज्ञान की बात का नशा मेरे ऊपर से उतर जाता है। मैं उसे कुछ इस तरह देखने लगता हूं कि उसने इस वर्तमान समाज-व्यवस्था के आगे घुटने टेक दिए हैं। जो अमीरों द्वारा गरीबों के शोषण पर आधारित है। लिहाजा कोई नाम, जो लक्ष्मी से असंपृक्त नहीं है, मुझे आकर्षित नहीं करता... मैं खुश हूं कि प्रकृति और भाग्य ने मेरी सहायता की है और मुझे गरीबों के साथ डाल दिया हैं इससे मुझे आध्यात्मिक शान्ति मिलती है।’’

प्रेमचंद जब गरीबों के साथ होते हैं, तब वे किसी रूमानी अंदाज में नहीं होते, उसे शोभामय नहीं बनाते और न उसका स्तवन करते हैं; बल्कि, उसकी सारी शोभा-यात्रा के छल को खोलते हैं और एक अदृश्य, गोपन हिंसा की धूर्तता को जाहिर करते है; उसके लंपट स्वभाव को समझाते हैं, जिससे आदमी डरे नहीं और अमीरों की हैसियत का कारण समझे। उसे असली रूप में पहचाने। ‘संपदा का मेस्मेरिज्म’ विनष्ट करने का काम करते हुए उन्होंने ‘महाजनी सभ्यता’ आलेख में एक स्थान पर लिखा है-
’’इस महाजनी सभ्यता के सारे कामों की अरज पैसा होता है... इस दृष्टि से मानो आज महाजनों का ही राज्य है। मनुष्य समाज दो भागों में बंट गया है। बड़ा हिस्सा तो मरने और खपनेवालों का है। और, बहुत ही छोटा हिस्सा उन लोगों का है, जो अपनी शक्ति और प्रभाव से बड़े संप्रदाय को अपने वश में किए हुए है। उन्हें इस बड़े भाग के साथ किसी तरह की हमदर्दी नहीं जरा भी रियायत नहीं। उसका अस्तित्व केवल इसलिए है कि अपने मालिकों के लिए पसीना बहाये, खून गिराए और एक दिन चुपचाप इस दुनिया से विदा हो जाए....’’

यह लिखना आज नितांत गैर'जरूरी है कि पूंजीवाद का आखिरी लक्ष्य क्या है? सब जानते हैं कि मनुष्य में जो कुछ श्रेष्ठ है, जो उसका सत्य है, वह उसे निचोड़ लेता है। सारे मानवीय रिश्ते व्यर्थ होते प्रतीत होते हैं। मानवीय संवेदनाओं को इस तरह बेरहमी से काट कर पूंजीवाद समाज और व्यक्ति के बीच शिकार और शिकारी का रिश्ता कायम करता है। शिकारी के मन में शिकार के प्रति कोई भाव, कोई संवेदना नहीं होनी चाहिए। इसके चलते ‘‘पूज्य पिताजी भी पितृभक्त बेटे के टहलुए बन जाते हैं। मां अपने सपूत की टहलुईं, भाई भी भाई के घर आए तो मेहमान है... इस सभ्यता की आत्मा है व्यक्तिवाद।’’

अंत तक प्रेमचंद उस तिलस्म को तोड़ना चाहते हैं, जो ईश्वरीय विधान के नाम से पूरे देश में पैर फैला कर निश्चित पसरा पड़ा है। जो अमीर हो गया है, ‘ईर्ष्यां’ जोर-जबरदस्ती, बेईमानी, झूठ, मिथ्या, अभियोग-आरोप, वेश्यावृत्ति, व्यभिचार, चोर-डाके, बरास्ते उन सब क्रूर कर्मों के जो वर्जित है, उन्हें रहस्यमयता का साथ स्वीकार करता है ‘ईश्वरेच्छा’ की मुहर लगाता है। इस मायावी ईश्वरेच्छा के विरुद्ध प्रेमचंद अनवरत संघर्ष करते हैं।

प्रेमचंद मानने लगे थे कि ‘महाजनी सभ्यता’ के खिलाफ ‘नयी सभ्यता’ का जिहाद शुरू हो गया है। ‘कांचन मुक्ति’ का जिहाद शुरू हो गया है। ‘कांचन मुक्ति’ का जिहाद मामूली नहीं है। फिर भी, वे एक महान आशावादी की तरह कहते हैं-
इस पैसा-पूजा को मिटा दीजिए, सारी बुराइयां अपने-आप मिट जाएंगी।

व्यक्ति-संपदा के संबंध में उग्र विचार रखने वाले प्रेमचंद उग्रवादी होते नजर नहीं आते। एक वयस्क समझदार, सहनशील तर्क-प्रिय व्यक्ति की मुद्रा अख्तियार किए रहते हैं। एक आत्मीय विपक्ष की स्थिति में असंपत्तिवाद का स्तवन करते हैं। संपत्तिवानों को ‘आत्म-निरीक्षण’ करने का ख्याल आ सकता है और प्रेमचंद शायद रहे हों कि इस तरह वे लोक-कल्याण के लिए ‘धन-संचय’ से विरत हो जाएं।

‘कंचन मुक्त’ होने की मानवीय दलीलों से प्रेमचंद का साहित्य ओत-प्रोत है। किन्तु एक अमानवीय, हिंसक, निष्करुण, विभाजित, वर्गों में, श्रेणियों में बंटा संसार आज कहीं अधिक फैल गया है। गरीबी के अध्यात्म और उसकी आवश्यकता का प्रतिपादन करने वाले मन से लक्ष्मी के जादुई तंत्र की गिरफ्त में है। ‘कांचन मुक्ति’ का दर्शन और विज्ञान फैलाने के लिए अब बहुत कम प्रेमचंद नजर आते हैं।

(नन्द चतुर्वेदी की पुस्तक शब्द संसार की यायावरी से साभार )
यह नन्द चतुर्वेदी का जन्म शताब्दी वर्ष है। 
००००००००००००००००

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ

ये पढ़ी हैं आपने?

Hindi Story आय विल कॉल यू! — मोबाइल फोन, सेक्स और रूपा सिंह की हिंदी कहानी
कहानी ... प्लीज मम्मी, किल मी ! - प्रेम भारद्वाज
मैत्रेयी पुष्पा की कहानियाँ — 'पगला गई है भागवती!...'
Harvard, Columbia, Yale, Stanford, Tufts and other US university student & alumni STATEMENT ON POLICE BRUTALITY ON UNIVERSITY CAMPUSES
तू तौ वहां रह्यौ ऐ, कहानी सुनाय सकै जामिआ की — अशोक चक्रधर | #जामिया
दमनक जहानाबादी की विफल-गाथा — गीताश्री की नई कहानी
गिरिराज किशोर : स्मृतियां और अवदान — रवीन्द्र त्रिपाठी
जंगल सफारी: बांधवगढ़ की सीता - मध्य प्रदेश का एक अविस्मरणीय यात्रा वृत्तांत - इंदिरा दाँगी
ब्रिटेन में हिन्दी कविता कार्यशाला - तेजेंद्र शर्मा
कोरोना से पहले भी संक्रामक बीमारी से जूझी है ब्रिटिश दिल्ली —  नलिन चौहान