श्रीलाल शुक्ल स्मृति इफ्को साहित्य सम्मान २०२३ से सम्मानित कथाकार मधु कांकरिया की कहानियाँ इस पाठक को पसंद आती रही हैं लेकिन, 'घूमर', उनकी प्रस्तुत कहानी कुछ अधिक ही अच्छी, सच्ची, हमसब के आसपास गुज़री कहानी लगी. वक़्त मिले तो ज़रूर पढ़िएगा ~ सं०
Madhu Kankaria ki Kahaniyan |
घूमर
मधु कांकरिया
वह देश में नोटबंदी और मुहबन्दी का ज़माना था, जिसका असर उन घरों में भी हो रहा था जिसकी कहानी कही जा रही है। ज़माने के ऐसे ही एक घर में दिन की आख़िरी धूप में, उस वर्ष की सबसे मोहक और सबसे भयानक घटना एक साथ घटी थी। मोहक इसलिए कि जत्न से संजोयी एक मुराद आज पूरी होने जा रही थी, मीरा की बेटी सुहानी के सुहाने सपनों के साकार होने का दिन था वह। भयानक इसलिए कि हॉस्पिटल गए थे वे चार पर दिन के आखिरी छोर में लौट कर आए थे तीन — लोग पूछेंगे तो क्या जवाब देगी वह? भीतर दबे अनकहे ज्वालामुखी को फटने से बचाने के लिए अस्पताल से लौटते ही वह सीधे नहानघर पहुंची, नहानघर के प्रति कृतज्ञ थी वह। पिछले दस दिनों की एक एक घटना, एक एक दृश्य जैसे चीख चीख कह रहे थे कि यह जीवन बचाया जा सकता था, बिल्कुल बचाया जा सकता था पर वही चूक गयी। ओंठों को गोल कर लगातार गर्म गर्म भांप छोड़ती रही वह कि धुंआ कुछ तो कम हो। धरती धूज रही थी उसके आगे। निढाल हो जमीन पर धंस गयी वह। ऊफ कैसी चरम विवशता! जीवन का पहला मृत्यु दुःख! आषाढ़ की पहली बारिश के पहले बादलों-सा बार बार उमड़ घुमड़ आता दुःख और जी भर रो लेने की इजाज़त नहीं। उसने चाहा था कि आँख मूँद आंसुओं और हाहाकार को मुक्त बहने दे वह पर आँखों के मूंदते ही चमक उठता ढहते मेघेन का निचुड़ा-सा चेहरा और ऊपर की ओर उठी हुई निष्प्राण मुंदी हुई वे आँखें जो कभी जीवन से भरी रहती थी। उड़ान भरते भरते जैसे एकाएक पंख टूट गए हो और अब पल पल फ़ैल रहे हों अवसाद के डैने!
उफ़! काश दो दिन और जीवित रह जाता मेघेन!
दुःख यह नहीं कि मेघेन गया। दुःख था कि काश उसकी आत्मा शांति से उसके शरीर को छोड़ पाती। स्वप्न था कि मस्त उड़ान भरते हुए एक दूसरें को अलविदा कहेंगे पर हक़ीक़त में अलविदा तक न कह सकी। अंदर ही अंदर दरक रहा था वह पहाड़ और उसे अहसास तक नहीं हुआ!
कितना कुछ है जो दृश्य के बाहर छिपा रहता है …सोच रही है मीरा! शादी के लिए इतनी दौड़ धूप कर रहा था मेघेन … शुरू शुरू में उसे अच्छा लग रहा था पर नहीं भी लग रहा था। अरे भाई शादी है कोई युद्ध नहीं! मन ही मन सोचती पर भोली आँखें देख नहीं पायी कि मौत जाल बिछा रही थी। चिंता की चिड़िया चोंच मारती रही पर उम्मीद से भरी रही वह और अंजुली के जल-सा बह गया मेघेन। रह गया पछतावा!
ज़िन्दगी की ठोकर ने ज़िन्दगी पर उसकी राय को बदल दिया है। विचार बदल रहे हैं, जन्म ले रहे हैं नए विचार — कितनी बनावटी है ज़िन्दगी! हर पल मुखौटा! उफ़! क्यों लेने दिया उसने इतना कर्जा! क्यों होने दिया वह सब जो नहीं होना था। माना, उसकी ट्रेवलिंग एजेंसी ठीक ठाक चल रही थी फिर भी क्या ज़रुरत थी हैसियत से बढ़कर हैसियत दिखाने की? होने में नहीं, दिखने में क्यों विश्वास करता है आदमी? कैसा समय! छिलका ही गूदा हो गया है। हे देव! समय रहते चेत जाती तो यह चूक तो नहीं होती! नहीं होता बीपी इतना हाई! इतनी मोटी बात भी क्यों नहीं समझ पायी वह कि बिना दिखावे के भी सब कुछ कितना तो खूबसूरत चल रहा था। हल्की हल्की लहरें बीच बीच में उठ रही थी पर जीवन शांत था। जीवन का असली आनंद तो वही था।
पर समय के माया जाल में फंस गयी वह। समय तेजी का था। तेजी युग सत्य था। मौसम में तेजी। महंगाई में तेजी, औपचारिकता में तेजी, दिखावे में तेजी, भाषणों में तेजी, वादों में तेजी! बाजार में तेजी।
क़तरा-क़तरा समय की किरचें लहूलुहान कर रही थी उसे — क्यों नहीं चेती वह जब ख़तरे के स्याह मेघ खंड इकट्ठे हो रहे थे मेघेन के इर्द गिर्द। जब मौत चमक रही थी किसी स्वप्न भरी आँखों की तरह पर वह ग़ाफ़िल रही। शादी के खर्च और ज़िन्दगी में पहली बार लिया क़र्जा मेघेन की स्वाभिमानी आत्मा को चूहे की तरह कुतर रहा था। उसका ब्लड शुगर और बीपी दोनों ही ख़तरे की सीमा छू रहे थे। जब बोलते बोलते हांफने लगा था वह तभी जैसे आकाशवाणी हो गयी थी। आधा तभी मर गया था। लेकिन बेईमान मन और जीवन की घिस घिस ने इतना घिसा दिया था उसे कि कुछ भी नहीं व्यापा, नहीं सुनी मन की आवाज़? भोले मध्यवर्गीय आशावाद और नियतिवाद ने जैसे सब आशंकाओं पर पोंछा लगा उम्मीद से लबालब भर दिया था उसे। बेटी की शादी की ख़ुशी की चादर में जैसे ज़िन्दगी के सारे छिद्र ढक गए थे। स्वप्न और यथार्थ के दोराहे पर खड़ी मीरा ने बहने दिया मेघेन को भी ज़िन्दगी के तेज प्रवाह में। जिम्मेदारियों के तीव्र अहसास ने न मेघेन को मेघेन रहने दिया न मीरा को मीरा।
नतीजा?
भूसा रह गया, तत्व निकल गया। वह स्थूलताओं में घिरी रही और वह ढह गया। किनारा क़रीब आ ही रहा था कि छूट गयी पतवार।
पीड़ा का समुद्र हिलोरे ले रहा है भीतर। काश समय में वापस जाकर उन पलों को लौटा लाती वह। काश ज़िन्दगी में भी होता कोई रिवाइंड बटन। काश अपने घर कोलकाता से ही किया होता विवाह! पर समधी समधन का आग्रह! उसने तो हल्के से आनाकानी भी की कि रिवाज़ तो यही है कि बरात उनके द्वार पर आए, पर नहीं नहीं नहीं नहीं। समधी नहीं माने। ठुकरा नहीं पाए उनका आग्रह। अब जिस घर में जन्म भर के लिए बेटी को रहना है उनके आग्रह का तो मान रखना ही था। आज अहसास हो रहा है उसे कि वह सब अधूरे सत्य थे। असली था जीवन, सबसे ऊपर था जीवन। मना कर देना था उसे, माना मेघेन थे घर के मुगले आज़म पर वह यदि दृढ रहती तो मानना पड़ता मेघेन को। मेघेन ज़रूर सुनते उसकी मन की बात! और इतनी झुलसती गर्मी में नहीं आना पड़ता दिल्ली। गर्मी तो कोलकाता में भी पड़ती है पर दिल्ली की गर्मी दिमाग़ के अंदर घुस जाती है। उफ़! ज़िन्दगी की सबसे बड़ी भूल हुई उससे। पर आत्मविश्वास उसी का धक्के खा रहा था, साथ ही विवेक बुद्धि भी, माना अगले आठ महीने तक कोई मुहूर्त ही नहीं था और दोनों ही पक्ष इसे टालने के पक्ष में नहीं थे। फिर समधी जी का आश्वासन — आप सिर्फ बारात की ख़ातिर-दारी की ज़िम्मेदारी संभाल लें, गीत संध्या और शादी की सारी ज़िम्मेदारी हमारा इवेंट मैनेजर संभाल लेगा।
आश्वासन भला भी था!
और बुरा भी!
भला था कि परिवार की पहली शादी टनाटन हो यह सत्य किसी बेताल की तरह उसकी पीठ पर ही नहीं उसकी चेतना पर भी हावी था। बुरा था कि मेघेन का स्वास्थ्य इसके भी लायक कहाँ था? क्या मिला इतनी उतावली कर? न गेह बचा, न देह, न नेह। बहरहाल शादी के लिए बन्ना बन्नी गाते गाते और बंद खिड़की के कांच से पटरी पर पॉटी करते देशबासियों को गाहे बगाहे देखते देखते वे कोलकाता से दिल्ली आए। घर से शादी के निमित लिए गए ‘सुरुचि भवन’ में पंहुचे भर थे कि लोडशेडिंग!
गर्मी इतनी कि लोगबाग मिलते तो ‘जय राम जी की!’ कहने की बजाय कहते ‘उफ़ कितनी गर्मी है!’ रुक जाना था उसे नीचे ही कहीं! पर जगह जगह बिखरे काम, सफ़र की थकावट, पोर पोर में चिंता, सूरज के ताप और गुल बत्ती ने जैसे दिमाग़ को ही सुन्न कर दिया था, देख ही नहीं पायी कि इन सबके बीच जर्जर हो चुकी नाव को। बाघ की तरह झपट्टा मारती जानलेवा धूप ने जैसे संवेदनाओं को ही सुखा डाला था।
दिखी तो उसे सिर्फ ज़िम्मेदारियाँ, दिखावे और औपचारिकताओं की बर्फीली सिल्लियां जो हिमालय बन खड़ी थीं सामने, जिसने बादलों से झूमते लहराते मेघेन को मेघेन नहीं बैल बना दिया था।
धरती धधक रही थी साथ ही वह। फिर भी वे पैदल ही चढ़ गए सात मंजिल। उसने भी नहीं रोका। अगली शाम गीत संध्या थी उसकी तैयारी और अगले के अगले दिन शादी! होने दिया उसने जो हो रहा था क्यों नहीं सोचा कि सबसे ऊपर जीवन है पर सोचने का वक़्त ही कहाँ बचा था। दुश्चिंताओं को कुछ दिनों के लिए तह कर रख लिया। नकली चिंता में असली चिंता को खड़े रहने की जगह ही नहीं मिली। शरीर तो लगातार दिखा रहा था लाल बत्ती। एक के बाद एक योजनाएं बना रहा था मेघेन इस बात से बेख़बर कि ज़िन्दगी उसके लिए अंतिम योजना बना चुकी थी।
बस अंत की शुरुआत शायद तभी से हो गयी थी।
उन दो दिनों ने ज़िन्दगी के सारे रंग दिखा दिए थे मीरा को। रात-सी रात हुई, धरती सपनों में सोइ हुई थी। सुबह हुई। निर्वाण-सी सुबह! मन चिड़िया-सा चहक उठा था। गुलजार घर में बन्ना बन्नी के गीत गाये जा रहे थे — एक बार आओ जी जंवाई जी पावना। …जीवन का उत्सव था। जमाने की चिरसंचित मुराद आज पूरी हुई थी मीरा की। उसकी बेटी सुहानी को हल्दी चढ़ रही थी। ज़माने बाद परवरदिगार ने दिखाया था उसे यह दिन। शादी का बजट ज़रूर अनुमान से काफी ज्यादा हो गया था पर मन सन्तुष्ट था क्योंकि वर होनहार मिला था, घर भी बहुत समृद्ध था। बड़े घर में रिश्ता होने की तरंग कब तेज गति से बहते समय में दवाब की जानलेवा लहर बन गयी जब तक हुआ अहसास देर हो चुकी थी। समधी जी शहर के बहुत बड़े उद्योगपति थे, उनकी इज़्ज़त के अनुसार ही बारातियों की ख़ातिरदारी करनी थी। आज के दिन कम से कम सब कुछ वैसा ही हो रहा था जैसा सोचा था उसने…. कि तभी जाने कहाँ से बिजली गिर गयी उनपर। ‘सुरुचि भवन’ पहुंचे भर कि बिजली चली गयी।
पूरी दोपहर भाग दौड़ में बीती। शादी के घर में पचासों काम। इससे सम्पर्क उससे सम्पर्क। बिजली का कहीं अता पता नहीं। जेनेरेटर और लिफ्ट नकारा। इसी बीच फिर एक बार नीचे जाना पड गया फिर सात मंजिल की चढ़ाई। दम फूल गया था पर फूलते दम के साथ ही कैटरिंग वालों से, डेकोरेटर से, हलवाई से, बिजली फिटिंग करने वालों से बात की मेघेन ने। हर खाली जगह को तो उसी को भरना जो था। सोया सोया जगा-सा लग रहा था मेघेन। कभी का इतना सुदर्शन मेघेन इन दिनों पलस्तर उखड़ी दीवार-सा किसी अभिशप्त श्रम देवता-सा मुरझाया और निस्तेज दिखने लगा था। मीरा ने कहा भी कि शांति रखें, कुछ नाश्ता पानी ले ले पर तभी ध्यान आया कि कुछ मेहमानों को लाने की व्यवस्था करनी है। उसी में लगे थे कि अचानक चक्कर आ गया। सोफे पर बैठे बैठे ही लुढ़क गए। देखा भी सबसे पहले मीरा ने ही था। वह आधा-सा पल खंजर की तरह गड़ गया था भीतर। क्षण के क्षणांश में भी देख लिया था मीरा ने उस गुलमोहर के रंग को उड़ते हुए। उस बुलंद इमारत को ढहते हुए। मीरा अपने भाई और भाभी को लेकर जब तक एम्स पहुंची कहानी ख़त्म हो चुकी थी। भक-से बुझ गया था वह! श्रम, थकान और तनाव से भरपूर ज़िन्दगी में बेटी विदाई के सुकून भरे दो पल नसीब होते कि उसके पहले ही बादलों के पार जा चुका था मेघेन।
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एक घुटी हुई-सी गहरी आवाज़ में दुनियादारी देख चुके भाई ने बूत बनी मीरा को झकझोरा। अवरुद्ध कंठ से सिर्फ यही कहा — देखो ज़िन्दगी अपने हाथों में नहीं है। पंद्रह बीस मिनट देता हूँ तुम दोनों को, जितना रोना है रो लो, फिर आंसुओं को बहने की इज़ाज़त नहीं होगी। पहले कर्तव्य फिर शोक। यह राज कि मेघेन नहीं रहे सिर्फ हम तीन तक ही रहे। रीति रिवाजो और नेकचारों के इस समाज में शादी के सारे नेकचार वैसे ही हों जैसे मेघेन के रहते होते… इस शादी के क़र्ज़ ने पहले ही जान ले ली है अब यदि इसे भी अंजाम न दिया गया तो दोनों बेटियों के भविष्य क्या बच पाएंगे? इस शादी को यदि टाल दिया जाए तो कौन जाने फिर सुहानी उस घर में जा भी पाए या अपशकुनी कहकर यह शादी ही तोड़ दी जाए ... बोलते बोलते अपनी बाहर निकली आँखों को पल भर के लिए मूँद एक गहरी निश्वास छोड़ी उन्होंने।
लाश को वहीँ एम्स के मुर्दाघर में जमा कर वे तीनों कलेजे पर पत्थर धर घर लौट आए।
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नदी की धारा रुके तो जीवन रुके। बाहर जयजयकार भीतर हाहाकार! मीरा की चेतना को जैसे काठ मार गया है। शादी भी अजब चौपाल है, कहीं २१वीं सदी इठला रही है तो कहीं २०वीं सदी अंगड़ाई ले रही है। शाम के लिए ओर्केस्ट्रा की तैयारी चल रही है तो अभी गणेश पूजन की। फूफाजी बाई सुखिया पर झल्ला रहे हैं कि खाली घड़ा लेकर वह सामने क्यों आ गयी, अपशकुन होता है। पान चबाती रानी बुआ अलग फनफना रही है — कुंवरसा की घोड़ी के लिए चने की दाल भिगोनी है, नहीं मिल रहा है दाल का डब्बूसा (कटोरदान)। सुगंधित फूलों की वेणी से महकती मालती जीजी को केसर की डिब्बी नहीं मिल रही है। बिखरे बालों को हाथ के जुड़े में समेटती कमला मासी को चाँदी का आरती का थाल चाहिए…तो लीला चाची को आम के अचार की बरनी … सुरभि की अस्सी वर्षीया नानी की कमर में चनक आ गयी है तो खोज जारी है किसी ऐसे की जो पांव से जन्मा हो, जिसकी लात से चनक दूर हो जाएगी। शादी का घर जैसे भिंडी बाजार। इन सब हो हल्ले के बीच पंडित जी गणेश पूजन करवा रहे हैं उससे और वह मन ही मन बुदबुदा रही है — तुम तो सिर्फ एक बार मरे पर कल से जाने कितनी बार मरी हूँ मैं और उठ कर खड़ी हुई हूँ। इतना जानलेवा है झूठ बोलने की कला साधना। लगता है जीवन भी मैं हूँ और मृत्यु भी मैं हूँ। कार्य को सही दिशा में सम्पूर्ण करने का और कौन मार्ग था मेरे पास? भंवर में डूबती नैया को मैं इसी प्रकार बचा सकती थी।
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रात कितनी लम्बी हो सकती है, पहली बार हुआ यह अहसास। न ढले न बीते न रीते। जैसे ख़ुद ही रात हो गयी है वह। सुबह होते न होते पूरा घर जाग गया था। आज सगाई का दिन। यूं इन दिनों जेठ की दिल्ली में सुबह बहुत कम सुबह होती थी, दोपहर शेर के खुले जबड़े-सी खुली रहती — दहकती, गरजती, झपटती। सपनों से भरी सुहानी को बादाम का उबटन करना था पर वह कहीं मिल नहीं रहा था। माँ भी नदारद! फोन मिलाया तो स्विच ऑफ! पूरे अड़तालीस मिनट बाद दिखी माँ। मुलायम मुलायम स्वरों में पूछा उसने
— सुबह सुबह कहां गयी थी मम्मी?
— तुम्हारे पापा से मिलने, काँपी चेहरे की खाल। किसी प्रकार अवरुद्ध कंठ से बाहर धकेला चंद शब्दों को। जीवन पूरी तरह एक नाटक बन गया था। आकाश धूल के बादलों से ढक गया था, अंतस में धुंआ जमा हो रहा था … काश निकाल पाती इस जमा हुए धुंएँ को … अनायास ही सोचने लगी वह।
— मुझे भी मिलना है। मम्मी, मैं आज संगीत शाम के पहले ही मिल आऊंगी पापा से। उसके वाक्य को अधबीच में ही झपट्टा मार कहा बुआ ने,
— नहीं लली, तुम कैसे जा सकती हो? हल्दी चढ़ने के बाद लली घर से बाहर नहीं निकल सकती। कल फेरे के बाद हम सब चलेंगे उन्हें लाने। कल तो छुट्टी मिल जाएगी उनको….
— आज नहीं मिल सकती?
— नहीं, अभी बीपी बहुत हाई है। बोलते बोलते वह मुस्कुरायी, बित्ता भर, पर उस मुस्कराहट का जुगाड़ करने में ही चेहरा नीला पड़ गया, नीचे का ओंठ काँपता रहा, निगाहें नीची कर नाखुनों से धरती को कुरेदती रही। आंसुओं को जबरन रोका तो गला भर गया, आँखें मूंदी तो भीतर के पर्दे पर तैरने लगी — गिरते ढहते मेघेन की तस्वीर! समुद्र में डोलती डोंगी-सा हिचकोले लेते मन का राज खुले उसके पहले ही कांपती देह के साथ किसी बहाने वहां से हटकर वह सीधे बाथरूम में पंहुची। मुट्ठियां भींच, गोल गोल ओंठों से गर्म गर्म भाप छोड़, हाथ पैर पटक उसने नल को खुला छोड़ा और ह्रदय में उठे रुलाई के आवेग को किसी प्रकार बाहर निकाला और मुंह पर पानी के छींटे डाल मुंह पोंछती बाहर निकली।
खंड खंड खंडित मन। रंगीन माहौल में संगीन मन! सोच रही है मीरा — न उन्होंने अपना आप जीया न मैंने। ज़िन्दगी का सबसे बढ़कर शोक यही कि शोक मनाने का भी अवसर न मिले। देख रही है विधाता की इस सृष्टि को गहरी उदासी से — दृश्य वही है दृष्टि बदल गयी है। समय बलवान है वह किसी की प्रतीक्षा नहीं करता, उनको गए साढ़े बारह घंटे हो गए पर सबकुछ वैसे ही चलरहा है। एक पवित्र इच्छा — कोई चूक न रहे कर्तव्य पालन में। रह रह कर उठती लहरें — कभी भीतर कभी बाहर! मन करता — इतना रोए इतना रोए कि धरती डूब जाए पर इजाज़त नहीं इसकी।
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दुःख के दोराहों पर खड़ी सोच रही है मीरा — पहर बीतने के साथ बदल जाता है दुःख का चेहरा — रात को जुदा, दिन को जुदा। दिन में ख़ुद को लोगों से छिपाना तो रात को ख़ुद से ख़ुद को छिपाना। असहनीय को सहन करना ही ज़िन्दगी है! किसी तपस्वी से गृहस्थन का धर्म भी कम नहीं होता! जीवन और मौत से बड़ा है फ़र्ज़! फ़र्ज़ की डोर से बंधे मन ने वह सब किया जो उससे करने को कहा गया।
हर पल का इम्तहान था ज़िन्दगी के ये अढ़ाई दिन जो रस्मों से भरे हुए थे। ठहरकर रोने का न समय था न स्थान। आखिर शादी के घर में कितनी बार जा सकती थी वह बाथरूम, आंसुओं से भरे दिल को हल्का करने। ख़ुद को लोगों की आँखों से बचाने।
आज के दिन की शुरुआत हुई हल्दी की रस्म से।
‘आना भोला जी के लाल, हमारे घर हल्दी में
आकर डमरू बजाना हमारे घर हल्दी में ‘
गीतवाली जमुना बाई पंचम स्वर में गा रही थी।
फिर आयी मेहँदी की रस्म !
हाजिर थी दो मेहँदी लगाने वालियां। सहमी हुई गोरैया-सी फड़फड़ायी वह। कई बार मना भी किया। सगुन के लिए चिटकी अंगुली पर मेहँदी लगाईं भी पर किसी ने न सुनी उसकी। रिश्तेदारों से भरा घर। छोटी बेटी ने भी ठुमक कर कहा — ममा नहीं लगवाएगी मेहँदी तो हम भी नहीं लगवाएंगे।
भावहीन जड़ आँखें ऊपर उठी, बिटिया के मासूम चेहरे पर टिकी, भाव उमड़े! आत्मा तक में उतर गया था वह जादुई पल जब पहलीबार गोद में लिया था उसने सुहानी को। वही सुहानी आज ज़िन्दगी की एक नयी शुरुआत करने वाली है। परायी होने जा रही है। कितना अरमान था मेघेन का कि धूम धाम से विदा किया जाय उसे।
फैला दी उसने हथेलियां! निस्पंद, निष्प्राण हथेलियां!
जैसे समर्पण किया हो दुनिया के सामने! भीतर ही भीतर चलता रहा नवकार मंत्र — ॐ नमो अरिहंताणं…ॐ नमो सिद्धाणं। साथ ही परिताप भी — स्वप्न और सुहानी रात अभी ढली न थी पर तुम ढल गए!
मेहँदी वालियों से निपटी तो मेकअप वालियां!
उनको भी अच्छा खासा पैकेज दिया गया था।
अबकी रिश्तेदारों ने पकड़ लिया! कर दिया ख़ुद को हवाले दुनिया के रस्मों रिवाज के आगे।
हो गया मेकअप! जब दर्पण दिखाया ब्यूटी पार्लर वाली ने तो दर्पण भी दगा कर गया, ख़ुद की सूरत की बजाय दिखने लगी उसे मेघेन की अधमुंदी उदास आँखें। भीतर उमड़ते आवेग को थामने के प्रयास में आँखें बह निकली, मन से आह निकली — कितना अच्छा है कि मरी हुई देह सबको दिख जाती है पर मरा मन नहीं दीखता किसी को। रुलाई को रोकना चाहा तो हिचकियाँ शुरू हो गयी। किसी प्रकार पानी पीने के बहाने वहां से खिसकी। पर जाए तो जाए कहाँ? हर जगह मेहमान। समझदार भाई कान में फुसफुसाया — बस तीस घंटे की मोहलत दे दो। कल विदाई का मुहूर्त भी मैंने जल्दी का निकलवा लिया है, कल शाम नौ बजे फेरे के साथ ही कर देंगे विदाई फिर जितना चाहे रो लेना, अभी क़ाबू रखो ख़ुद पर नहीं तो सब किया कराये पर पानी फिर जाना है। याद रखना — तेल डालने से बुझी हुई बाती आग नहीं पकड़ती, जो जा चुका है उसके लिए शोक स्थगित करो, जो है उसके लिए सोचो, गीत संध्या में एकदम सामान्य रहना, सामान्य ही नहीं बल्कि चेहरे पर ख़ुशी का भाव रहना चाहिए। लोग देखें तो कहें अच्छा दिन!
ज़रा भी शक न होने पाए किसी को। ध्यान रखना, शक की हज़ार आँखें होती हैं। कइयों को बड़ी मुश्किल से ऐम्स जाने से रोका है।
बोलते बोलते डब डबा गयी पीड़ा से उफनते भाई की आँखें! दो दुखी मन एक हुए!
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‘किसे पता था, तुझे इस तरह सजाऊंगा, ज़माना देखेगा और मैं न देख पाऊंगा ‘
सुरमई शाम। समधी जी के भेजे इवेंट मैनेजर का पिलपिला-सा अनुरोध, सूत्रधार था वह — इस कल्चरल प्रोग्राम की जान तो आप दोनों समधन ही हैं। आपकी समधन ने बहू का स्वागत अपने नृत्य से कर दिया है, आप की तरफ से भी तो दामाद का अभिनन्दन होना चाहिए न! कोरियोग्राफर का भी अनुरोध — आंटी, महीने भर से तो आप अभ्यास कर रही हैं, अंकल ठीक हो रहे हैं, सुबह ही मैंने एम्स के डॉक्टर से अंकल के बारे में पूछा था — कल तक तो वे घर भी वापस आ जाएंगे।
— हाँ, कल सुबह वे आ जाएंगे, तेज हवा में हिलते पत्ते-सी कांपती वह बुदबुदायी।
— ममा, पापा ठीक नहीं हैं क्या? तुम्हारा चेहरा देख कर लगता है। मुझे तो मामा ने बताया था कि पापा को थकावट बहुत आ गयी है इसलिए जान बूझकर एम्स में आराम के लिए रखा गया है कि शादी के घर में ज्यादा तनाव न लें वे। सच, बताइये अम्मा! सुहानी के चेहरे पर चिंता की गाढ़ी लकीरें। द्रवित हुई वह! देखा बेटी की ओर। सगाई की ड्रेस में लाल सेबों से लदे मोहक पेड़-सी दिख रही थी वह! काश देख पाता मेघेन अपनी लाडो को! बस कुछ घंटे और निकल जाए। फेरे हो जायँ फिर जी भर रो लेगी वह! फिर तो ज़िन्दगी भर शोक ही मनाना है।
कुछ अबोले पल! बोलने की भीतरी ताकत इकट्ठी की उसने, फिर गिरती आवाज में बोली,
— पापा ने कहा है मुझे, सुहानी जैसा कहे करना।
— पापा ने? पापा से बात हुई आपकी? फिर मुझसे बात क्यों नहीं करायी? टोहती नजरों से घूरा सुहानी ने।
बस पल भर के लिए ही हुई बात। डॉक्टर ने अधिक बात करने नहीं दी।
— हुर्रे! तो ममा भी नाचेगी। चेहरे पर छाया मीठा मीठा सोना सोना भाव और गहरा गया बिटिया के। बेटी के सिर पर हाथ फेरते हुए भींगे और उदास स्वरों में कहा उसने,
— तथास्तु!
आज के उत्सव के देवता समधी और जतनों से तराशी प्राण प्यारी बेटी का अनुरोध! कैसे टाले वह? एक चाह बंधन मुक्ति की तो एक चाह बंधन की भी। समुद्र की लहर-सी उठी, जल से निकली मीन-सी तड़पी। सनसनाते एक संदेह ने अलग से सर पर हथोड़ा चलाया — कहीं मेघेन का राज खुल गया तो … पूरी ताकत से इस ‘तो’ को दरकिनार करते हुए अंतरात्मा के दरवाज़े बंद किये, दुःख को पंखुड़ी पंखुड़ी नोचा। ख़ुद को सिद्धार्थ से बुद्ध होते हुए देखा। ख्याल ख्याल में बसे मेघेन के ख्याल को हल्के से परे सरकाया। एक आर्त नजर देह की खोल में लिपटे सजे धजे बाराती और घराती पर डाली। झिलमिल झूमर और जादुई समां। सूख में डूबे हुए सब। देह की खोल से बाहर निकलते मैं को सूखी पत्ती की तरह रस्मों रिवाज़ों की हवाओं के हवाले किया। उस अनुपस्थित को नमन किया जो हर जगह उपस्थित था — माफ़ करना प्रिय, मेरी अंतिम उम्मीद! तुम्हें चिता को समर्पित करने के पहले रंग और नूपुर की दुनिया में शामिल होना पड़ रहा है कि कहीं अंतस के भीतर दबा ढका रहस्य उजागर न हो जाए। कहीं सुहानी को आभास न हो जाए कि पिता को कुछ हो गया है कि कहीं आग्रह ठुकरा देने पर समधी समधन बुरा न मान जाए!
देखते देखते मीरा जाने कहाँ लुप्त हो गयी और अब जो थी सामने वह एक छाया थी, उस छाया ने लिया एक जोरदार प्रलयकारी घूमर — आली मैं हार गयी! लहर लहर लहरायी देह। शोक और श्रृंगार का मिला जुला घूमर! चप्पे चप्पे में काँपा दर्द पर लिया घूमर — साथ साथ जिए गए प्यार के लिए। भीतर के खालीपन को भरने के लिए। संसार में रहते सांसारिक रहने के लिए, अगली पीढ़ी की बेहतरी के लिए.जीवन के स्वभाविक आनंद के लिए। फिर लिया दूसरा घूमर — माया से सत्य, ज्ञात से अज्ञात की ओर बढ़ती महायात्रा के लिए। अप्रत्याशित आगत के लिए। वैराग्य को साधने के लिए, दुखों के पार जाने के लिए, कुछ हद तक दर्द बहा भी। दम थामे देख रहे थे लोग इस उन्मत्त घूमर को, लगा जैसे अनंत काल से ले रही है वह घूमर जिसे लेते लेते देह से बाहर आ गयी है वह कि तभी लिया उसने तीसरा घूमर — जंजीरों में कैद आत्मा की मुक्ति के लिए। जीवन और मृत्यु के पार के रहस्य को जानने के लिए पर तीसरा घूमर लिया कि जैसे तूफ़ान आ गया हो सागर में। लेते लेते जाने कैसा तो अँधियारा छाया पलकों पर कि दुखों के पार जाते जाते वह उसी में धंस गयी और वहीँ गिर पड़ी, स्टेज पर ही।
सृष्टि और समय से परे थे वे पल जो सनातन बन रहे थे।
दम साधे लोग नृत्य देखते रहे। ऐसा प्रलयकारी घूमर तो पहले कभी न देखा था। नील बटे सन्नाटे के कुछ निस्तब्ध पल गुजरने पर लोग जैसे समाधी से जागे, आसमान से कोई तारा टूटा। लोगों को समझ आया कि मीरा अचेत पड़ी थी और घूमर दुर्घटना में तब्दील हो चुका था।
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