कभी रेत के ऊँचे टीलों पे जाना
घरौंदे बनाना बना के मिटाना
वो मा'सूम चाहत की तस्वीर अपनी
वो ख़्वाबों खिलौनों की जागीर अपनी
न दुनिया का ग़म था न रिश्तों के बंधन
बड़ी ख़ूबसूरत थी वो ज़िंदगानी
...ये दौलत भी ले लो ये शोहरत भी ले लो ...
सुदर्शन फ़ाकिर के लिखे को जगजीत सिंह की आवाज़ में हमने सुना है और खूब गुना है।
गुनिए और डूबिए कबीर संजय की कोई एक साल हुए 'बनास जन' में प्रकाशित कहानी 'तीतर' में। कबीर संजय ठहराव लिए व्यक्तित्व वाले लेखक हैं, चमक-दमक से थोड़ा-सा दूर रहते हुए साहित्य का आनंद उठाते हुए आगे बढ़े जा रहे हैं। शुभकामनाएं ~ सं0
तीतर
कबीर संजय
दैनिक हिंदुस्तान में प्रमुख संवाददाता। स्नातक, इलाहाबाद विश्वविद्यालय। तद्भव, पल प्रतिपल, बनास जन, कृति बहुमत, नया ज्ञानोदय, लमही, कादंबिनी, इतिहास बोध, गंगा-जमुना व दैनिक हिंदुस्तान जैसे पत्र-पत्रिकाओं में कहानी व कविताएं प्रकाशित। नया ज्ञानोदय में प्रकाशित कहानी ‘पत्थर के फूल’ का लखनऊ में मंचन। कहानी संग्रह ‘सुरखाब के पंख’ आधार प्रकाशन से और कहानी संग्रह 'फेंगशुई' लोकभारती प्रकाशन से प्रकाशित। कहानी संग्रह 'सुरखाब के पंख' के लिए प्रथम रवीन्द्र कालिया स्मृति सम्मान से पुरस्कृत। वन्यजीवन और पारिस्थितिकी पर वाणी प्रकाशन से जंगलकथा सीरीज की तीन पुस्तकें 'चीताः भारतीय जंगलों का गुम शहजादा' और 'ओरांग उटानः अनाथ, बेघर और सेक्स गुलाम' और 'गोडावणः मोरे अंगना की सोनचिरैया' प्रकाशित।
संपर्कः प्लाट नंबर- बी-93, फ्लैट नंबर---101, मटियाला एक्सटेंशन, गुरु हरिकिशन नगर, उत्तम नगर, दिल्ली-10059 मो. 8800265511 ईमेलः sanjaykabeer@gmail.com
मैं छोटा बच्चा था। तीसरी या चौथी कक्षा में पढ़ता था। एक गाना रेडियो बड़ा लोकप्रिय था। अक्सर ही कई जगहों पर वो मेरे कानों में पड़ जाता। सुन कर मैं चौंक जाता। आप जैसा कोई मेरी जिंदगी में आए। तो बाप बन जाए। हां, बाप-बाप बन जाए। मुझे बड़ी अजीब बात लगती।
उस समय मैं नाजिया हसन को नहीं जानता था। लेकिन, मैं अपने पिता को जानता था। उनकी ऐंठी हुई मूंछों और गुस्सैल आंखों के चलते मैं हर समय उनसे नजरें चुराता फिरता। सोचता कि मेरे पर उनकी नज़र न पड़ जाए। मेरी कोई कमी उनकी पकड़ में न आ जाए। मैं कहीं छिप जाऊं। मुझे वो देख नहीं पाएं। ऐसे में मैं सोचता कि भला ये भी क्या बात हुई। आप जैसा कोई मेरी जिंदगी में आए। और बाप बन जाए। क्या यह एक अपने पिता से सहमी हुई, मेरे जैसी ही किसी आत्मा का गान है। वो किसका आह्वान कर रही है। आज इन बातों पर सोचता हूं तो हंसी भी आती है। और हैरानी भी होती है। मेरे कान इतने ज़्यादा गलत कैसे सुन लेते थे।
केवल यही नहीं। और भी ऐसे किस्से हैं। जब निकाह पिक्चर बहुत हिट हुई तो उसके गाने भी हर कहीं बजते थे। इस फिल्म के एक गाने के बारे में भी मेरे कान धोखा देते। दिल के अरमां हाथ धोकर रह गए। हम वफा करके भी तन्हां रह गए। मुझे इस बेसिर-पैर की लाइन का अर्थ नहीं समझ में आता। भला दिन के अरमां हाथ धोकर कैसे रह गए। क्या इस बात का कोई मतलब होता है। रेडियो पर हर दिन यह बजता था। पापा भी टेप रिकार्डर पर कैसेट लगाकर इसको सुनते थे। मेरी समझ इस पर शहीद हो जाती। दम तोड़ देती। हो सकता है कि किसी ने गाने की पैरोडी में कभी मेरे सामने यह बात कही हो। फिर जब भी मैंने गाना सुना, मेरे कानों ने वही शब्द सुनें, जो मेरे अंदर पहले ही बैठे हुए थे।
खैर, उस समय मुझे पहेलियों वाले गाने बहुत पसंद आते। तीतर के दो आगे तीतर, तीतर के दो पीछे तीतर। आगे तीतर। पीछे तीतर। बोलो कितने तीतर। यह गाना सुनते ही मैं सोच में पड़ जाता। मन ही मन में गिनने भी लगता। अभी गिनती पूरी भी न होती कि गाने में खुद ही इसका हल बता दिया जाता। तीन। मैं सोच में पड़ जाता, ऐसा कैसे। तीन कैसे हो सकते हैं। एक अगर आगे है। दो अगर पीछे हैं। आगे भी तीतर है। पीछे भी तीतर है। फिर तीन कैसे। क्या वो अपनी जगह बदल रहे हैं। किसी का अंदाज़ा दो है। किसी का तीन। किसी का सात। लेकिन, सही जवाब है तीन। पर कैसे। सच कहूं तो मैं आज तक तीतरों को इस तरह से सजा नहीं पाया। कोशिश भले कर रहा हूं। पर वो तरतीब नहीं मिल रही। वो तरकीब भी नहीं मिल रही।
तीतर का तो नहीं। ये किस्सा तीतर के बच्चों का भले है। वही तीसरी-चौथी कक्षा वाली ही उम्र रही होगी। गर्मियों की छुट्टियां चल रही थीं। मैं अपनी नानी के घर गया हुआ था। मुख्य सड़क से हटकर पगडंडियों पर चलकर पहुंचने वाला यह गांव था। सौ-दो सौ घर रहे होंगे। उसके बाद खेत ही खेत। खूब ऊंचे-ऊंचे महुआ के पेड़। आम की बगिया। मिट्टी की दीवार से घेरे गए फालसे के खेत। गर्मियों में उसमें पकने वाली वो छोटी-छोटी खट्ट-मिट्ठी बेरियां। गेंहू कट चुका होता। लेकिन, उसकी जड़ें और तने का अंतिम हिस्सा खेत में पड़े होते। अगली जुताई के बाद उन्हें खेत में ही घुल-मिल जाना था। कोई गांठ बहुत जिद्दी होगी तो उसे बीनकर निकाल दिया जाना था।
महुए के पेड़ों के नीचे सूखे हुए पत्तों की एक मोटी परत मौजूद रहती। जब चलो तो उसमें से आवाज आती। सूखे हुए पत्तों के टूटने की आवाज। उनका चूरमा बनने की आवाज। मैं अपने जूतों पर इतराते हुए जब वहां पहुंचता तो फुटबाल की तरह पत्तों की उस मोटी परत पर अपने पैर मारता। पत्ते बिखर जाते। दूर-दूर तक फैल जाते। कुछ पत्तों को मैं चारों तरफ से कुचलने की कोशिश करता। उन्हें चूर-चूर कर देता। अपने हाथों में भी बहुत सूखे हुए पत्तों को पकड़ लेता और उन्हें दोनों हाथों से रगड़कर चूर-चूर कर देता।
तब बचपन के खेल बड़े निराले होते थे। दिन भर जब लू चलती थी तब नानी के घर का वो बड़ा-सा दरवाजा बंद कर दिया जाता। कभी आंधी आ जाती। धूल से पूरा घर भरने लगता। बाहर हू-हू की आवाज करके आंधी चलती रहती। उसके साथ न जाने के कितने पत्ते और टहनियां उड़ने लगते। पेड़ों की टहनियों के टकराने से भी आंधी की आवाज डरावनी हो जाती। छतों पर सूखने के लिए डाले गए कपड़े भी हवा के साथ न जाने कहां-कहां की सैर को निकल पड़ते। कई बार आंधी के बाद बरसात की फुहारें भी पड़ने लगतीं। ऐसे में वे कपड़े अपने मालिकों के घरों से कुछ दूर धूल से लटे-पटे, भीगे, कहीं दुर-दुराए से पड़े मिलते। उन्हें वहां से खोजकर लाया जाता था। ख़ातिर-ख़िदमत की जाती। नहला-धुलाकर उन्हें फिर से राजा बेटा बना दिया जाता।
ऐसी आंधियों में भी मेरा मन आम के बग़ीचे की तरफ भटकने लगता। मैं सोचता कि आंधी बंद हो। सबसे पहले मैं आम के बग़ीचे की तरफ भागूं। क्योंकि, बाद में पहुंचने का कोई फायदा नहीं था। अगर देर होगी तो सारे आम पहले ही बीन लिए जा चुके होंगे। मेरे हाथ कुछ नहीं लगेगा। मेरे दिल के अरमां भी हाथ धोकर रह जाएंगे।
होता भी ज़्यादातर यही था। नानी के घर रहने के उन कुछ ही दिनों में धूप अपने निशान मेरे शरीर पर छोड़ने लगती। वो मुझे फिर से निर्मित करती। मैं उसके रंग में रंगा जाने लगता। लेकिन, मेरे आसपास वालों को मेरी बड़ी चिंता होती। सबको लगता कि मैं काला होता जा रहा हूं। अगर रंग ज़्यादा काला हो गया या मैं बीमार पड़ गया तो। फिर क्या होगा। मेरे घर वालों को क्या जवाब दिया जाएगा। इसलिए राजा बेटा बनाकर मुझे घर के अंदर कैद करने की बड़ी कोशिश होती। पर मैं भी हर समय इस जेल ब्रेक के फिराक में लगा रहता। मौक़ा मिलता नहीं कि इसे अंजाम भी दे देता।
उस दिन भी यही कोई चार साढ़े चार बजे का वक़्त रहा होगा। दोपहर का सबसे गर्म हिस्सा बीत चुका था। लेकिन, हवा अभी भी अपने गर्म हाथों के तमाचे गालों पर जड़ रही थी। उसकी चोट से मेरे गाल ज़रूर तमतमा गए होंगे। लाल हो गए होंगे। लेकिन, मुझे इसकी कहां परवाह। मैं तो महुए के विशालकाय और घने पेड़ों की छाया में पहुंच चुका था। गंगा के किनारे यहां पर कुछ ऊंचे-नीचे टीले जैसी जगहें थीं। जहां पर महुए के कई पेड़ बेतरतीब से खड़े हुए थे। महुए के उन पेड़ों पर भी किसी न किसी का मालिकाना था। लेकिन, आमतौर पर उसके नीचे-घूमने फिरने की मनाही किसी को नहीं थी। बस महुए के टपकने के दिन न हो। जिन दिनों महुआ चूता था। उन दिनों सुबह-सवेरे ही उसके मालिक ज़मीन पर नीचे छोटे-छोटे रौशन बल्बों की तरह टिमटिमाने वाले महुए को बीनने के लिए पहुंच जाते। उन दिनों उनकी नज़र बचाकर ही एक-दो महुए का स्वाद अपनी जीभ पर लिया जा सकता था। बाकी तो ललचाई हुई नज़रें ही उन्हें देखकर और उनका स्वाद जीभ को याद दिलाकर अपना काम पूरा करतीं।
महुए के पेड़ों के नीचे जमा ढेर सारी पत्तियों पर लात मारता हुआ मैं कुछ आगे तक चला गया। उसके आगे सरपत के झुरमुट थे। गेहूं कट चुके थे। खेत में बस नीचे के तने और जड़ें ही बची थीं। सूखी पत्तियां इधर-उधर उड़ते हुए अपने ठहरने का एक ठिकाना ढूंढती रहतीं। अक्सर ही उन आवारों को कोई ठौर नहीं मिलता। लेकिन, कुछ सदगृहस्थ की तरह एक जगह जम जातीं। उसी मिट्टी में खुद भी मिल जातीं। खत्म हो जातीं। जबकि, आवारा पत्तियां तमाम जहां में मटरगश्ती के बाद थक जातीं और उनके शरीर का मांस झड़ जाता और सिर्फ कंकाल बचता। फिर वे कंकाल भी अपने आपको मिट्टी में विलीन कर देते।
मिट्टी का यह धूसर रंग। सूखी पत्तियों का यह पीला रंग। गेहूं के निचले तनों का यह गेहुंआ रंग। सरपत की सूखी पत्तियों का मटमैला रंग। ऊपर नीला आसमान। धूप में खूब खुलकर मुस्कुरा रहे पेड़ों के हरे-हरे पत्ते। सूखी पत्तियों की मोटी परतों को अपने जूतों से उड़ाता मैं। कहीं किसी सूखे पत्ते के नीचे आराम करते गोजर की सुरक्षा मेरी वजह से ख़तरे में पड़ जाती। वो भागता। मैं उसे देख लेता। शरीर के दोनों तरफ उगे हुए सैकड़ों पैरों से दौड़ने वाले इस जीव को देखकर ही बदन में झुरझुरी-सी चढ़ जाती। मैं किसी छोटी डंठल से उसके शरीर को दबा लेता। इस तरह से कि उसकी जान न निकले। वो उससे निकल छूटने की कोशिश करता। कुछ देर यह कशमकश चलती। फिर मैं आगे बढ़ जाता।
उस दिन भी मैं अपनी चंगुल में फंसे ऐसे ही किसी गोजर या मकड़े को सता रहा था। कि अचानक ही मुझे पत्तों के ढेर के बीच से कुछ सरसराहट की भनक लगी। मेरी नज़र तुरंत ही उधर गई। पत्तियों के ढेर में छिपे हुए किसी पक्षी के बच्चे मुझसे दूर भागने लगे। मुझे लगता है कि बड़ी देर से वे अपनी सांस रोककर वहां बैठे रहे होंगे। उनकी मां ज़मीन पर ही घोसले बनाती होगी। इसलिए वही उनका पूरा सुख-संसार था। अभी बाहर की दुनिया उन्होंने देखी नहीं थी। मां जब खाना ढूंढने के लिए बाहर जाती थी तो बच्चे चुपचाप अपने को छिपाए हुए पत्तों के उन्हीं ढेरों में बैठे रहते। उनके रंग सूखे हुए पत्तों और धरती के रंग के साथ इस कदर घुल मिल जाते कि वे नज़र ही नहीं आते। सामने रहकर भी वे गायब रहते। उनके घोसले के बगल में बैठा मैं जब काफी देर तक उस मकोड़े को सताने में लगा रहा। तब भी उन्होंने अपनी सांस रोककर, अपने बदन को सिकोड़कर, चुपचाप, बिना हिले बैठे रहकर मेरी नजरों से ओझल रहने की कोशिश की होगी। लेकिन, जब मौत सामने हो तो इस तरह का धैर्य कुछ ही समय तक बना रहता है। अक्सर ही धैर्य जवाब दे देता है। कोशिश होती है कि इस ख़तरे से जितना भी ज़्यादा हो सके, दूर हो जाओ। लेकिन, दूर जाने की यह कोशिश कई बार ख़तरे को और पास ले आती है।
मां का कहना मानकर अगर वे दम साधे पड़े होते तो बच जाते। लेकिन, जब उनकी सांस टूटी तो वे अपने नन्हें पैर से भागकर ख़तरे से दूर जाने लगे। पर इस सरसराहट ने मेरे सामने उनकी मौजूदगी का खुलासा कर दिया। वे शायद तीन या चार थे। तीतर के आगे पीछे तीतर। बोलो कितने तीतर। वे भागते और कुछ दूर जाकर चुप-चाप यूं बैठ जाते जैसे कि उन्हें कोई देख नहीं पा रहा। फिर घबराहट में भागने लगते। मैं लंबे-लंबे पैर बढ़ाता हुआ उनकी तरफ भागा। मेरे अंदर सदियों से बैठा एक शिकारी जाग गया। हां, वही जो जान बचाते हुए भागने वालों को खदेड़ता है। इसकी बजाय अगर कोई मेरी तरफ हमला करने वाला होता तब शायद मैं उसका मुकाबला करने की बजाय ऐसे ही भाग खड़ा होता। शिकार और शिकारी का यह खेल है। एक भागता है तो दूसरे को खदेड़ने के लिए उकसाने लगता है।
मैंने तीन-चार लंबे डग भरे और एक पक्षी पर अपने हाथ रख दिए। अपने घुटनों को मोड़कर वह ज़मीन से चिपककर बैठ गया। मेरे हाथों में उसके पंखों की थिरकन समाने लगी। मुझे उसकी मौजूदगी का अहसास पहले से ज़्यादा हुआ। उसे अपनी हथेलियों में जकड़कर मैंने उठाया। वो उसमें से छूटने के लिए छटपटाने लगा। लेकिन, मेरे पास अभी उस पर ज़्यादा ध्यान देने का वक्त नहीं था। मैंने उसे चुपचाप अपनी पैंट की जेब में डाल लिया।
फिर दूसरे को पकड़ने के चक्कर में पड़ गया। एक बच्चा कुछ दूर भागकर एक धूसर जगह पर चुपचाप बैठ गया था। अपने छलावरण पर उसने ज़रूरत से ज़्यादा भरोसा कर लिया। मेरे जैसे प्राइमेट्स की आंखें बहुत सारे रंगों को देख सकती हैं। उन रंगों में अंतर को पकड़ सकती हैं। खासतौर पर अगर वे कुछ ही देर पर पहले हिली-डुली हों या हिलने-डुलने वाली हों या फिर उसमें हल्की-सी कंपन हो रही हो तो फिर उनका बचना दुश्वार है। प्राईमेट्स आंखें उसको भांप लेंगी।
मैंने भी भांप लिया। चुपचाप जाकर उसकी पीठ पर अपनी पूरी हथेलियां रख दीं। वह पकड़ से छूटने के लिए, बच निकलने के लिए छटपटाने लगा। लेकिन, अब तक मेरी पकड़ मजबूत थी। मैंने उसे भी अपनी हथेलियों में बंद कर लिया।
मैंने उसे अपने एक हाथ से पकड़ा। दूसरे हाथ को पैंट की जेब में डालकर दूसरे वाले को निकाला। मेरे दोनों हाथों में एक-एक बच्चा था। बच्चों के शरीर के शुरुआती रोएं निकल चुके थे और कुछ हद तक पंखों का विकास शुरू हो गया था। उनकी गुलाबी टांगों में शक्ति का प्रवाह थोड़ा-थोड़ा होने लगा था। लेकिन, अभी वे बच्चे ही थे। वे अपनी चोंच से जीभ को बाहर निकाले हांफ रहे थे। बीच-बीच में उनके पंखों में कोई झुरझुरी-सी आती। वे उससे बाहर निकलना चाहते। लेकिन, मेरे हाथ किसी शिकंजे से कम नहीं थे।
मैंने इधर-उधर नज़र दौड़ाने की कोशिश की। पर बाकी बच्चों का कोई निशान नहीं दिखा। मैंने गौर किया हो सकता है कि वे छिपकर बैठ गए हों। पत्तों के बीच छिपे हों। पर वे कहीं नज़र नहीं आए। लेकिन, मेरे हाथ में दो बच्चे थे। वे दोनों मुझे जीता हुआ कोई ईनाम जैसे लग रहे थे। मेरे दो पदक। जिन्हें मैंने आज की भागदौड़ में हासिल किया था।
मैं रास्ते भर उन्हें अपने हाथों में पकड़े, उन्हें अपने गालों से छूता रहा। शायद इस तरह से वे मेरा प्यार महसूस कर सकें। नहीं मैं तुम्हारे लिए ख़तरा नहीं हूं। मैं तो तुम्हें पाल लूंगा। तुम्हारा खयाल रखूंगा। तुमको खाना दूंगा। पानी दूंगा। तुम्हें खूब अच्छी जगह पर रखूंगा। तुम्हें कोई ख़तरा नहीं होगा। कुछ ही दिनों में तुम मेरे दोस्त बन जाओगे। मैं अपनी कमीज की जेब में तुम्हें रखकर दूर-दूर तक घुमाने ले चलूंगा। तुम्हें कोई तकलीफ नहीं होगी।
अपने दोनों पदकों को हाथों में संभाले मैं तेज-तेज कदमों से घर पहुंचा। अनावश्यक सवालों से बचने के लिए घर में प्रवेश करते समय मैंने अपने दोनों हाथ पैंट की जेब में डाल दिया। बताता चलूं कि उस समय बहुत ही ढीली-ढाली पैंट पहनने का फैशन था। जिसकी जेबें भी बहुत लंबी हुआ करती थीं। आज के जैसी चुस्त पैंटों में तो इसकी संभावना नहीं होती। लेकिन, उस ढीली-ढाली पैंट की लंबी जेब में ऐसा संभव हुआ कि उन दोनों पदकों को मैं जेब के अंदर भी संभाले रहा।
घर के अंदर जाकर कमरे में मैंने उन्हें अपनी जेब से बाहर निकाला। दरवाजा बंद किया और उन्हें अपनी पकड़ से आजाद कर दिया। दोनों ही निकलकर इधर-उधर भागने लगे। लेकिन, जाने का रास्ता तो कोई था नहीं। उन्हें उड़ना नहीं आता था। पर भागते वे बहुत तेज थे। एक ही दिशा में तेजी से भागते हुए वे अचानक रुक जाते थे। फिर रास्ता बदलकर दूसरी ओर भागने लगते। ऐसे में उन्हें पकड़ना मुश्किल हो जाता। पर जल्द ही वे थककर एक कोने में चुपचाप बैठ गए।
मैंने कमरे के एक कोने में कटोरी में पानी रख दिया। ताकि अगर उन्हें प्यास लगी हो तो वे पी लें। मैं उनके पास तक चला गया। बार-बार की भागदौड़ से थके उन दोनों ने लाचारगी से अपने आपको मेरे हवाले कर दिया। शायद अब और भागने की ताकत उनके अंदर नहीं बची थी। उन्हें लेकर मैं आंगन में चला आया। यहां पर मैंने उन्हें एक गत्ते के डिब्बे में रख दिया। उसमें पानी की कटोरी डाल दी। इसी बीच मामी की निगाह उन पर पड़ गई।
उन्होंने पूछा, ई का आय। का पकड़ लाए हो।
मैं बोला, चिड़िया का बच्चा है।
ई कहां मिल गया।
खेत में पत्ती के बीच छिपा बैठा था।
कौन-सी चिड़िया है
ये तो पता नहीं
मामी ने उन्हें गौर से देखना शुरू किया। उनका आकार किसी वयस्क गौरैया से थोड़ा ज़्यादा का था। रंग मादा गौरैया से मिलता-जुलता था। पर थोड़ा-सा ही गौर करके कोई कह सकता था कि वो गौरैया नहीं है। वहां पर आमतौर पर गौरैया को ही चिड़िया कहा जाता था।
मामी बोली, चिड़िया तो है नहीं। फिर कऊन है। फिर थोड़ा ध्यान देने के बाद खुद ही पहचान गईं। अरे ई तो तीतर है। तीतर पकड़ लाए तुम। का करोगे इसका।
मैं क्या जवाब देता। बोला, पालूंगा। इस बीच मेरे तीतर पकड़ कर लाने की खबर पूरे घर में फैल गई। आसपास के बच्चे भी देखने आने लगे। मैंने मामी से थोड़ा कच्चा चावल मांगा। गत्ते के उस डिब्बे में बिखेर दिया। पर तीतर के उन बच्चों ने उसकी तरफ एक बार भी चोंच मारकर नहीं देखा। वे दोनों बस एक कोने में बैठे रहे। बीच-बीच में वे एक दूसरे की गर्दन में अपनी चोंच घुसा लेते। जैसे यही चीज उनकी एकमात्र संबल हो। चलो पूरी दुनिया अलग है। सबकुछ बदल गया। लेकिन, तुम तो मेरे भाई मेरे साथ हो। उन्हें थोड़ी सांत्वना मिलती रही होगी।
मैंने मामी से पूछा कि ये लोग खाते क्या होंगे। मामी को भी इस बारे में कुछ पता नहीं था। घर में पके हुए चावल भी रखे हुए थे। मैंने कुछ पके हुए चावल भी गत्ते में बिखेर दिया। इसे भी उन्होंने छुआ तक नहीं। फिर मैंने रोटी के टुकड़े भी छोटे-छोटे करके उसमें डाल दिए। पर इसकी तरफ भी वे आकर्षित नहीं हुए।
मामी बोली, इसकी मां इन लोगों को खिलाती होगी। उसी की चोंच से खाएंगे। ऐसे नहीं खाएंगे।
मुझे लगा कि हो सकता है कि भूख नहीं लगी हो। अभी भूख लगेगी तो खुद ही खा लेंगे। दोनों को गत्ते में ही रखकर मैं कुछ और काम करने लगा। आसपास के बच्चे तीतर के बच्चे दिखाने के लिए मेरी चिरौरी करने लगे। मैं उनके बीच गर्वीला-सा बना फिरता रहा। मैं शहर से आया था। वो गांव के थे। मेरे अंदर पहले से ही श्रेष्ठता बोध था। अब मेरे पास एक ऐसा खिलौना भी आ गया था, जो कि किसी और के पास नहीं था। तीतर को मैं अपने घर ले जाने वाला था। घर में तोते का एक पिंजड़ा था। तोता अब नहीं था। पिंजड़ा था। मैं तीतर को उसी पिंजड़े में रखने वाला था।
घूम-टहलकर आया तो एक नज़र फिर गत्ते में डाला। दोनों बच्चे एक कोने में सुस्त से बैठे थे। मैंने अंदाज़ा लगाने की कोशिश की। क्या उन दोनों ने कुछ खाया था। ऐसा लगता तो नहीं। मैंने अपनी उंगलियों से रोटी के टुकड़े और चावल के दाने उनकी तरफ कर दिए। लेकिन, मेरे हाथों को देखकर उन दोनों में घबराहट फैल गई और वे फिर से गत्ते में ही इधर-उधर भागने का प्रयास करने लगे। मैंने अपना हाथ बाहर निकाल लिया। वे दोनों एक कोने में चुपचाप बैठ गए।
मैं चुपचाप उन्हें देखता रहा। मैंने ऐसा सोचना चाहा कि उन दोनों ने ज़रूर कुछ दाने खाए हैं। ज़रूर उन्होंने रोटी का एक टुकड़ा भी खाया है। पानी भी पिया है। पर शायद मैं ऐसा सोच नहीं पाया। ऐसा सोचने की कोशिश करता रहा। पर कामयाबी नहीं मिली।
मामी ने मेरी इस उधेड़बुन को समझ लिया। उन्होंने एक कटोरी में आटे और पानी का गाढ़ा घोल जैसा तैयार किया। उन्होंने कहा कि माचिस की तीली के पिछले तरफ लगाकर इस घोल को खिलाने की कोशिश करो। मैं उसे लेकर जाने लगा तो वे खुद ही बोल पड़ीं, रुको मैं खिला देती हूं।
माचिस की तीली के पिछली तरफ आटे के उस घोल को लगाकर वे उनकी चोंच के पास ले गईं। पर उनकी तरफ से कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई। दोनों उसकी तरफ उपेक्षा भाव से देखते ही रहे। थोड़े देर के प्रयास के बाद वे थक गईं। उन्हें घर के और भी काम करने थे। तो उन्होंने कटोरी और माचिस की तीली मेरे हवाले कर दिया और घर के काम निपटाने चली गईं। मेरे हाथ से भी दोनों बच्चों ने एक भी बार अपनी चोंच नहीं खोली।
मैं चुपचाप बैठकर गुमसुम उन्हें देखता रहा। पहले उनकी आंखें चकर-मकर चारों तरफ देखती रही थीं। लेकिन, अब वे चुपचाप बैठे थे। कई बार उनकी आंखें पलट जाती। जैसे कि वे ऊंघ रहे हों। मुझे घबराहट होने लगी।
शाम को मामा घर आए तो उन्हें भी इस सनसनीखेज घटना की जानकारी मिली। उन्होंने तो पहले गत्ते का निरीक्षण किया। पक्षियों के दोनों बच्चों को देखकर उन्होंने तीतर ही होने की ताकीद की। पर उनकी आंखों में मेरी इस हरकत की प्रशंसा नहीं थी। बल्कि, इसे लेकर उनके चेहरे पर उलाहने का भाव था। मेरी इस हरकत से वे सहमत नहीं थे। उन्होंने कहा कुछ नहीं। पर नापसंदगी की झलक उनके चेहरे पर आकर चली गई।
बोले, ये तो दीमक खाती है। ये सब थोड़े खाएगी। इस तरह से मर जाएगी। ज़्यादा अच्छा है कि इसे वहीं छोड़ आया जाए। जहां से इसे लाया गया था। इसकी मां आकर इसे ले जाएगी।
तब तक रात घिरने लगी थी। इसलिए उस समय तक छोड़ने जाना संभव नहीं था। वो रात बच्चों को गत्ते में ही बितानी पड़ी।
मामा की बात तो मैं सुन ली थी। लेकिन, इतनी मेहनत के बाद पकड़े गए पक्षियों को यूं ही छोड़ देने के लिए मैं तैयार नहीं था। मैंने खेत में कई जगहों पर दीमकें लगी हुई देखी थीं। एक जन ने खेत की बाड़ बनाई थी। उसमें जो लकड़ी लगाई थी, उसमें दीमक लगी हुई थी। एक जगह पर पत्तियों के नीचे पड़ी टहनियों को दीमक खा रही थीं। दीमकों की वहां पर कौन-सी कमी भी भला। दीमकों का घर ढूंढना एक बेहद आसान-सा काम होता है। वे जहां भी होती हैं, अपने आने-जाने के लिए मिट्टी से एक सुरंग का निर्माण कर लेती हैं। इस सुरंग को सामान्य तौर पर भी देखा जा सकता है। सुरंग तोड़ दो तो उसमें से आते-जाते दीमक साफ-साफ दिखाई पड़ते हैं।
मुझे कुछ खास नहीं करना था। दीमकों की उन सुरंगों को तोड़ देना है। उन दोनों बच्चों को दीमकों के पास छोड़ देना है। वो खुद ही उसमें से दीमकों को चुन-चुन कर खाने लगेंगी। इससे उनका पेट भरेगा। शरीर में ताकत आएगी तो वे पहले जैसे ही चुस्त-फुर्त हो जाएंगे।
सुबह सूरज के दर्शन होने के साथ ही मैं सबकी नज़र बचाकर दोनों को अपनी पैंट की जेब में हाथ डालकर अपनी हथेलियों से संभाले खेतों की तरफ भागा। मैंने दीमकों के घर खोज लिए। उनकी सुरंगें तोड़ दीं। चारों तरफ दीमकें बिखर गईं। तीतर के दोनों बच्चों को वहीं पर रख दिया। लेकिन, वे निढाल से पड़े रहे। उन्होंने दीमकों की तरफ भी नहीं देखा। मैंने अपनी उंगलियों से कुछ दीमकों को उनकी तरफ किया। पर वे चुपचाप पड़े रहे। वे अपने पैरों पर खड़े भी नहीं हो पा रहे थे। उनमें से कोई एक अपने पैर पर थोड़ी देर के लिए खड़ा भी होता तो थोड़ी देर तक संतुलन बनाने की कोशिश के बार फिर से बैठ जाता।
उनकी शक्ति क्षीण हो चुकी थी। एक दिन पहले ही उन्होंने मुझे बहुत छकाया था। मेरे हाथ वे आसानी से नहीं लगे थे। कई बार हांफने के बाद ही मैं उन्हें पकड़ सका था। लेकिन, अब विरोध करने की ताकत उनकी ख़तम हो चुकी थी। उन्होंने अपने आप को मेरे ऊपर छोड़ दिया था। मुझे बहुत दया आई। मन में पाप का एक बोध भी आकर बैठ गया। मेरे चलते उन दोनों की यह हालत हो गई। ग्लानि मेरे गले में आकर टिक गई।
मैंने चुपचाप दोनों को उठाया और उन्हें वहीं ले जाकर छोड़ दिया, जहां से उन्हें पकड़ा था। कुछ देर तक मैं उन्हीं के पास चुपचाप बैठा था। वे भाग नहीं रहे थे। वे भाग नहीं सकते थे। वे निढाल पड़े रहे। मैं भी उनके पास चुपचाप-गुमसुम बैठा था। फिर मुझे लगा कि ऐसे तो उसकी मां अगर मुझे देखेगी तो डर के मारे नहीं आएगी।
ऊपर आसमान पर सूरज की धूप भी चुभने लगी थी। मैं महुए के एक पेड़ से पीठ टिकाकर खड़ा हो गया। नज़र मेरी वहीं पर जमी हुई थी। मैं सोचता था कि कुछ देर में ही उनकी मां वहां पर आएगी। लेकिन, वो वहां पर नहीं आई। मैं काफी देर खड़ा रहा। फिर अपने ही दुख और बेचारगी में डूबा, छोटे-छोटे कदम उठाता हुआ नानी के घर लौट आया।
यहां पर सभी मुझे डांटने-फटकारने और इस बात की दरयाफ्त करने लगे कि इतनी सुबह-सुबह मैं बिना किसी को कुछ बताए कहां चला गया था। मैंने बताया कि मैं तीतर को वहीं पर रखने गया था। सबके मन में इसको लेकर बहुत उत्सुकता थी। उन्होंने पूछा भी, तीतर की मां आ गई थी।
अपने अपराध बोध में दबे हुए मेरे मन ने झूठ बोला। मैंने कहा हूं। फिर जब एक बार हूं कर दिया तो फिर कहानी भी बना दी। पहले तो मां नहीं आई। फिर वहीं पर उन्हें रखकर मैं महुए के पेड़ के पास चला गया। जब तीतर ने देखा कि उसके बच्चों के पास कोई नहीं है तो वह चुपके से वहां चली आई। पता नहीं किसने-किसने मेरी कहानी पर विश्वास किया। किसने मुझे झूठा समझा। इस बात को समझ पाने की बुद्धि मेरे पास नहीं थी।
मैं चुपचाप घर में दाखिल हो गया। गत्ते का डिब्बा एक किनारे में खाली-सा पड़ा हुआ था।
वह पूरा दिन बीत गया। अगले दिन की सुबह हुई। सूरज उगने के साथ ही मैं उठा और चुपके से घर से निकल गया। सीधे वहीं पहुंचा जहां पर मैंने बच्चों को छोड़ा था। यहां पर जो मैंने देखा, उसने मेरे दुख दोगुना कर दिया।
यहां पर तीतर का एक बच्चा पड़ा हुआ था। वह मर चुका था। उसके पूरे शरीर पर चीटिंयां चिपकी हुई थीं। वे शायद उसके शरीर को धीरे-धीरे खाने की कोशिश कर रही थीं। या फिर काटने की कोशिश कर रही थीं।
मुझे उन चीटियों पर बहुत गुस्सा आया। मैंने उसे अपने हाथों में उठा लिया। पहली बार जब मैंने उसे पकड़ा था, तब वो हाथों से छूटने के लिए छटपटा रहा था। उसकी पंखों में अजब-सी थिरकन थी। मैंने एक जिंदा चीज पकड़ी हुई थी। जो मुझसे छूटकर भागने की कोशिश कर रही थी। लेकिन, अब वह चीज बेजान थी। उसके शरीर में कोई हरकत नहीं थी।
उसको मेरे हाथ में उठाने के साथ ही चींटियों में खलबली मच गई। उनकी पंक्तियां टूट गई थीं। वे इधर-उधर भागने लगीं। उनमें से कई मेरी हथेलियों से होते हुए मेरी कुहनियों तक पहुंचने लगीं। कुछ मेरे गले पर भी सरसराने लगीं। मैं उन्हें अपने दूसरे हाथ से झटकने लगा। लेकिन, उनकी तादाद बहुत ज़्यादा थी।
पर मैंने अपने हाथों से तीतर के उस बच्चे को छोड़ा नहीं। लाल मांसाहारी चींटियों ने मुझे कई जगह काटा। उन जगहों पर मुझे काफी देर तक खुजली होती रही और चकत्ते भी पड़ गए। लेकिन, मैं उस नन्हीं-सी लाश को लेकर महुए के पेड़ के नीचे आया। महुए के पेड़ के थाले में नमी थी। गंगा का किनारा होने के चलते यहां पर मिट्टी में भी बालू की मात्रा काफी थी। एक पतली टहनी से भी उसे खोदना आसान था। मैंने एक छोटी-सी कब्र खोदी और उस लाश को उसमें रख दिया।
मेरे माथे पर पसीने की बूंदें चुहचुहा आईं। मेरी आंखों में ढेर सारा पानी उमड़ पड़ा। कुछ बूंदें छोटे बच्चे के शरीर पर भी टपक पड़ीं। मैंने कब्र को ढंक दिया। चुपचाप।
किसी को नहीं पता कि वहां पर मेरा एक अपराध ढंका हुआ है। गड़ा हुआ है। एक ऐसा अपराध, जिसकी गवाही सिर्फ वो महुए का पेड़ ही दे सकता है। पर मैं जानता हूं कि वो कुछ नहीं बोलेगा। मेरे झूठ की पोल कभी नहीं खोलेगा।
बहुत दिनों तक मैं अपने आपको को भुलावा देता रहा कि कम से कम एक बच्चा तो बच गया। शायद उसमें कुछ जान बची रही हो और वह अपनी मां और बाकी भाई-बहनों से मिलने में कामयाब हो गया हो। या फिर निढाल पड़े-पड़े उसने आवाज लगाई हो और उसकी मां उसे ढू्ंढते हुए आ गई हो।
पर आज जान गया हूं कि ज़्यादा संभावना इसी बात की है कि किसी कौव्वे की चोंच में उसने आखिरी सांस ली हो।
पर वास्तव में क्या हुआ होगा, ये किसे पता ।
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(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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