सप्तपर्णी: ज्योति चावला की कहानी | Saptaparni: Jyoti Chawla Ki Kahani

'सप्तपर्णी' फूल की शैतानी खुशबू (इसके पेड़ को अंग्रेज़ी में 'डेविल्स ट्री' भी कहते हैं) से मोहित होकर, मैंने 2018 में फेसबुक पर लिखा था। ज्योति चावला की इसी नाम की कहानी को पढ़ते हुए दिल्ली, या कहूँ महानगरीय जीवन के कई संवेदनशील पहलुओं से अच्छा राबता हुआ। पढ़िएगा ~ सं 





सप्तपर्णी

- ज्योति चावला

तीन कविता संग्रह - ‘माँ का जवान चेहरा’, जैसे कोई उदास लौट जाए दरवाजे से और यह उन्नींदी रातों का समय है क्रमशः आधार प्रकाशन, वाणी प्रकाशन और राजकमल प्रकाशन समूह से प्रकाशित। एक कहानी संग्रह ‘अँधेरे की कोई शक्ल नहीं होती’ आधार प्रकाशन से प्रकाशित। कहानियों की दूसरी किताब जल्द ही। आलोचना की एक पुस्तक कथा-अंतर्कथा-अंतर्पाठ सेतु प्रकाशन से प्रकाशित। कविताएँ और कहानियाँ विभिन्न भारतीय भाषाओं में अनूदित। शीला सिद्धांकर कविता सम्मान, पाखी कविता सम्मान। 
ज्योति चावला, अुनवाद अध्ययन एवं प्रशिक्षण विद्यापीठ, 15 सी, न्यू एकेडमिक ब्लिडिंग, इग्नू, मैदानगढ़ी, दिल्ली-110068

अक्तूबर से पहले अक्तूबर की आहट सुनाई देने लगी थी। गर्मियां अपना बिस्तर समेट रही थीं और सर्दियां गहरी नींद से जगने की तैयारी में थीं। हवा में सरगोशी आई तो नहीं थी लेकिन रूह ने उसे महसूस करना शुरू कर दिया था। मैं बड़ी शिद्दत से सप्तपर्णी के पेड़ों को देखने लगी थी। पेड़ों पर फुनगियां आई तो नहीं थीं लेकिन उन्होंने मुझसे आंखें मिलाकर धीरे से पलकें झपकाई थीं ऐसे जैसे कह रहे हों, बस जल्द ही।

अपने घर की बाल्कनी के अपने पसंदीदा कोने पर मैंने दरी बिछाकर गुनगुनी धूप में लेटने का ख्वाब भी अभी ठीक से देखना शुरू नहीं किया था। यूं भी इतनी भागमभाग में इतनी फुर्सत किसके पास है कि ऐसे रोमानी ख्वाबों को पुरज़ोर जीया जा सके। 

ऐसा सोचते ही लता मंगेशकर और भूपेंदर सिंह की आवाज़ में गाया गीत धड़कनों की तहों में अपनी पूरी उमंग के साथ बजने लगता है - दिल ढूंढता है फिर वहीं फुर्सत के रात दिन। बैठे रहें तसव्वुरे जानां किए हुए।

यूं लगता है कि गुलज़ार साहब ने मुझे ही देखकर यह गीत कभी लिखा होगा जिसमें कुछ ऐसे ही ख्वाब होंगे। गर्मियों में छत पर सफेद चादरों पर रात भर जगना या फिर सर्दियों में धूप में लेटे करवटें बदलना। 

खैर, हर मौसम की आहट पर यह गीत मेरे भीतर रखे कारवां में गीतों के सारे क्रम को अनदेखा करते हुए अपनी पूरी अराजकता के साथ बजने लगता है। और अपनी गर्दन को झटका देते हुए इसके बोल के ट्रांस से निकलना पड़ता है मुझे।

वह भी एक ऐसा ही दिन था। रविवार का दिन। सितंबर का आखिरी हफ्ता। गर्मियों और सर्दियों के बीच तकरार का एक दिन। दिल्ली की सड़कों पर दौड़ती गाड़ियों की भागदौड़ से आंख चुराते हुए मैं अपनी बाल्कनी में पौधों के बीच सूखते जा रहे पत्तों को झाड़ रही थी। चारों ओर अपार्टमेंट्स से घिरी अपनी सोसाइटी के एक घर की बाल्कनी में उतनी ही तन्हा और उतनी ही भीड़ में थी जितनी दिल्ली की शोर मचाती सड़कों और गाड़ियों के काफिले में कोई होता है। ढेर सारी गाड़ियां लेकिन सबके शीशे चढ़े हुए। ढेर सारे घर लेकिन सब अलहदा, सब अजनबी एक-दूसरे से।

मेरे घर के सामने वाला घर जिसमें एक बुज़ुर्ग दंपति रहती है, बड़े शहर में बसे कस्बे का सा एहसास कराती हुई। पचहत्तर के आसपास की उम्र की महिला और अठहत्तर-अस्सी के आसपास का पुरुष। कानों में इयरफोन ठूंसे बीबीसी सुनते दुनिया की पूरी खबर रखने वाले बुज़ुर्ग और उनसे उतनी ही नाराज़ या जुदा, अपने पौधों से बतियाती वह महिला। परिचय होने के बाद मधु आंटी ने बतलाया था जब नौकरी की तैयारी करते होंगे तब बीबीसी सुनते होंगे। आदत ऐसी लगी कि आज तक गई नहीं। 

हमें इस सोसायटी में आए अभी डेढ़ बरस ही हुआ है। हमें अपनी बाल्कनी में देखकर सबसे अधिक आंटी ही खुश हुई थी। चलो अब कुछ चहल-पहल रहेगी। कई साल से इस उजाड़ बाल्कनी को देखते-देखते मेरी आंखें सूख गई थीं। तुम आयी हो तो हरियाली आएगी। बच्चे रहेंगे तो बच्चों की ख़ुशबू रहेगी यहां। यह उनका स्वागत था, वह भी अपनी बाल्कनी से ही। एक लम्बी सांस लेने के बाद फिर उन्होंने कहा था - बच्चे खुदा की नेमत हैं। बच्चे हैं तभी तो यह मुस्कान है। तब मुझे लगा था कि उनसे उनके बच्चों के बारे में पूछूं, लेकिन फिर लगा यह थोड़ी जल्दी है। 

          मधु आंटी अपनी उम्र के हिसाब से बेहद खूबसूरत हैं। उम्र तो पचहत्तर के आसपास की होगी लेकिन झुर्रियां भी उनके चेहरे पर शोभती हैं। हमेशा वे बढ़िया पहनावे में होतीं। कभी मैंने उन्हें ऐसे नहीं देखा जैसे बस कमरे से उठकर बाल्कनी में आ गई हों। उनकी बाल्कनी से सटकर एक तरफ गूलर का पेड़ है और दूसरी तरफ एक अशोक का। दोनों की शाखाएं उनकी बाल्कनी पर झुकी हुई थीं। और इन दोनों के बीच सड़क की दूसरी तरफ खड़ा सप्तपर्णी। मधु आंटी अपनी बाल्कनी में जब आतीं तो पेड़ की उन शाखाओं के साथ एक खूबसूरत फ्रेम बना रही होती थीं। यदि कोई फोटोग्राफर एक तस्वीर पेड़ की उन शाखाओं के साथ मधु आंटी की लेता तो बेशक वह एक मनमोहक दृश्य होता।  

पेड़ों से घिरे होने के बावजूद उनकी छत या बाल्कनी, जो भी कहना चाहें आप, में उन्होंने एक छोटी-मोटी खूबसूरत बगिया बना रखी है। हर मौसम के फूल खिलाने की तकनीक उन्होंने यूट्यूब से सीखी है। किसी समय टेलीफोन विभाग में नौकरी करती थीं वे। और अब बरसों से रिटायर्ड और फोन या मोबाइल से दूरी बनाए रखने वाली आंटी केवल दुबई में बसे अपने बेटे से फोन पर बात करने के लिए और यूट्यूब पर पौधों की देखभाल के तरीके देखने जाती थीं और बाकी पूरा वक्त इन पौधों की देखभाल में ही व्यस्त रहती थीं। पिछली सर्दियों में उन्होंने मुझे गुलदाउदी के फूल दिए थे और साथ में हिदायत भी कि इन्हें संभालकर रखूं और अगली सर्दियों से पहले फिर से इनकी पौध बना लूं। उन्होंने कई गुर भी बताए थे मुझे। उनके दिए गुलदाउदी ने पिछली सर्दी-भर मेरी बाल्कनी को गुलज़ार किया। लेकिन इस सर्दी मैं फिर खड़ी हूंगी खाली हाथ उनके आंगन के गुलदाउदी को ललचाई निगाहों से देखती।

मुझे देखकर अक्सर वे कहती हैं कि मैं भी बहुत बिज़ी रहा करती थी तुम्हारी तरह। विशू छोटा था, मुझे और तुम्हारे अंकल हम दोनों को ऑफिस जाने की जल्दी होती थी और इस सबमें सब कुछ पकड़ने और बहुत कुछ छूटने की जद्दोजहद चलती रहती थी। फिर थोड़ी सांस लेकर .... अब एकदम खाली हूं। समय बिताने के लिए इतने पौधे लगाए हैं। अब ये ही मेरे बच्चे हैं। यह सुनते ही आंटी की पीठ पीछे रखे उन सारे पौधों की आंखों में चमक आ जाती। इस सबसे अनजान आंटी फिर किसी पौधे की तरफ इशारा करती हुई कहती, इसके पत्ते देखो, कितनी चमक है इनमें। यह चमक ऐसे ही नहीं आती। बड़ी मेहनत करनी पड़ती है। जो पौधा इस समय आंटी के सामने होता, उसे उस पल ठीक ऐसा लगता जैसे मेहमानों के सामने मां या पिता एक पोएम सुनाने के लिए कह दें। वह उस एक पल थोड़ा खफा सा भी होता लेकिन मां का लाडला होने का गुमान भी इस पल उसके मन में होता।

वे अलग-अलग कंपोस्ट बनाने के तरीके मुझे बताती जातीं जिन्हें मैं सिर्फ इतना ही सुन रही होती जितना वे मेरे कानों की लवों को छू रहे होते। मेरे पास न तो समय था और न ही इतनी समझ कि मैं भी उसी तरह की कंपोस्ट बनाउं और फिर अपने पौधों के पत्तों को मुस्कराते हुए देखूं।

शाम को ऑफिस से लौटकर जब मैं बाल्कनी में आती तो आंटी को उसी तरह व्यस्त देखती अपनी बाल्कनी में अपने पौधों से बतियाती ऐसे जैसे बच्चों से बतिया रही हो। अरे, तुम्हारे पत्ते क्यों झड़ने लगे। ठीक से खाते नहीं हो। और इसे देखो, कैसे चेहरा उतरा हुआ है। वे वहीं पास रखी कोई बोतल या डिब्बा उठातीं और खोलकर ऐसे उन पौधों की जड़ में डालती जातीं जैसे खांसी-जुकाम से परेशान बच्चे के मुंह में मां दवा डालती है। थोड़े से गुस्से और थोड़े से प्यार के साथ। उनके पौधे मुझे उस समय अपने दोनों बच्चों से लगते। अपनी बदमाशी की सज़ा बेमन से पाते। सिर्फ मेरे डर से दवा लेते। 

अंकल को अक्सर बाल्कनी के पिछले कोने में फोन पर ज़ोर-ज़ोर से बात करते ही सुना। कभी वे किसी प्रॉडक्ट की शिकायत कर रहे होते, कभी किसी कस्टमर केयर पर किसी बात को लेकर उलझे होते। ज़ोर-ज़ोर से लगभग चिल्लाते हुए वे अंग्रेजी में बहस करते ही दिखाई देते। या फिर अलसुबह बाल्कनी में उनके पैर घिसट कर चलने की आवाज़ आती। दरअसल, उनके ज़ेहन पर बुढ़ापे का गहरा खौफ था। उम्र के साथ उनकी सुनने और देखने की क्षमता पर असर पड़ गया था। आंख का चश्मा भी बहुत कारगर नहीं था। 

कान की समस्या का समाधान निकालने की कोशिश भी की गई। महंगी और एडवांस्ड टेक्नोलॉजी के हियरिंग एड भी खरीदे गए। लेकिन अंकल को उनसे समस्या थी। वे केवल वही आवाज़ें सुनना चाहते थे जिन्हें सुनने की उनकी इच्छा हो। और हियरिंग एड से वे आसपास की अनचाही आवाज़ें सुनने को बाध्य थे। एक-दो मशीनें बदलकर भी जब तसल्ली नहीं हुई तो यह तय हुआ कि वे मशीन नहीं लगाएंगे। मशीन न लगाने का यह फैसला उनका निजी था। लेकिन इसके साथ ही अन्य कई चीज़ें खुद ही होती चली गईं। जैसे - उन्होंने घर से बाहर जाना बिल्कुल बंद कर दिया। और वह भी इस कदर कि उन्होंने तय किया कि वे मॉर्निंग वॉक के लिए भी नहीं जाएंगे। उन्हें लगता था कि क्योंकि उन्हें अब आंखों से ठीक से दिखाई नहीं देता और कान भी अब लगभग हथियार डाल चुके हैं तो घर से बाहर जाना अब खतरे से खाली नहीं। उन्हें लगता था कि कहीं सड़क पर चलते हुए गड्ढे में पैर पड़ गया तो आंख और कान के साथ-साथ वे हाथ-पैर से भी मोहताज हो जाएंगे। उनका यह डर उनकी उम्र के हिसाब से जायज़ था लेकिन यह डर उनके मस्तिष्क पर इतना हावी हो गया कि उन्हें सड़क पर चलते हुए हर वक्त डर लगने लगा। वे सड़क पर नज़र गढ़ाकर देखने लगे और देखने पर उन्हें हर जगह गड्ढे दिखाई देते थे। यह आंखों का असर था या मस्तिष्क में बैठे डर का असर या फिर वास्तव में सड़क में इतने गड्ढे थे, कुछ भी हो, उन्होंने तय कर लिया कि वे अब घर के बाहर नहीं जाएंगे। 

अब वे सिर्फ घर में रहते थे - दिन भर। और घर में चलते हुए भी वे पैर घसीटकर चलने लगे थे और साथ ही जहां ज़रूरी हो, दीवार का सहारा ले लेते थे। यह समस्या उनके पैरों की नहीं, बल्कि शायद अब उनके मस्तिष्क की थी। वे इतना चौकन्ने हो गए थे कि गिरने के डर से उन्होंने ज़मीन पर पैर उठाकर रखना बंद कर दिया था। उनके पैरों की घिसटन अब उस घर का संगीत थी। 

आंटी की बड़ी सी बाल्कनी के एक कोने में कई बोतलें रखी थीं और एक कोने में कई डिब्बे और बर्तन। ये सभी कंपोस्ट थे अलग-अलग तरह के। इन पौधों का मनपसंद भोजन जिसे खाने से इनके चेहरे चमक जाते हैं। मुझे अपनी रसोई और फ्रिज की शेल्फ दिखाई देने लगती। अलग-अलग तरह की चीज़ों और बोतलों से भरी। मेरे बच्चों के चेहरे की मुस्कान का राज़। 

उन्होंने जुलाई-अगस्त से ही सर्दियों के फूलों की तैयारी करनी शुरू कर दी थी। गुलदाउदी, गेंदा, पेटुनिया, डहेलिया, सिनेरेरिया ....। हवा में ठंडक की आहट आई नहीं कि उनकी बाल्कनी सीज़नल फूलों की टोकरी बन जाती। अलग-अलग रंगों के अनेक फूल। फूलों और बाल्कनी को सजाने की उनकी कलात्मकता इतनी जुदा थी कि वे यह भी ध्यान रखतीं कि कौन-कौन से रंगों के फूल किस गमले में अच्छे लगेंगे। उनकी बाल्कनी में कोई भी फूल उनकी मर्ज़ी के बिना नहीं आ सकता था। अगर उन्होंने चाहा कि गुलाबी, कत्थई, जामुनी, सफेद, नीले और लाल रंग के ही फूल खिलें तो वही खिले, नारंगी रंग के फूल की हिम्मत नहीं कि वह उनकी बगिया में खिल जाए।

बाहर सड़क पर खड़ा सप्तपर्णी उनसे इसीलिए नाराज़ रहता कि उसे उनका प्यार नहीं मिला और उसे तो अपनी ही मिट्टी-पानी से खिलना होगा। इसीलिए शायद उन दोनों में होड़ भी लगी रहती कि पहले कौन खिले।

मेरे लिए तो हवा में सरगोशी का पता इन्हीं दोनों से चलता। 

बीच अक्तूबर आते-आते सप्तपर्णी की खुशबू फिज़ाओं में फैलने लगती और वह आंटी की बाल्कनी की तरफ अपनी नाक लंबी किए उनके खिलाए फूलों की खुशबू सूंघने की कोशिश करता। वहां से कोई खुशबू न आने पर बहुत खुशी होती उसे।

आपने कभी सप्तपर्णी की खुशबू को महसूस किया है

अक्तूबर के बदलते मौसम में जब हवा हल्के से चेहरे और बाजुओं की खुली त्वचा को छूकर निकलती है तो पहली बार लगने लगता है, गर्मियों को विदा कहने का समय आ गया है। किसी फ्लाई ओवर या ऊंची बिल्डिंग से देखने पर दिल्ली में दूर-दूर तक लाल गुलमोहर के फूलों की छतरियां दिखाई देती हैं। अनजान व्यक्ति को लग सकता है कि हवा में यह जो महक घुली-घुली सी है वह इन्हीं फूलों की है शायद।

पहले-पहल सप्तपर्णी की गंध पान की खुशबू सी कौंधती है ज़ेहन में। ऐसे जैसे कोई गुलकंद, सौंफ और सुपारी से भरा पान चबा रहा हो कहीं आसपास। सौंधी-सी खुशबू। फिर यह खुशबू बढ़ती ही जाती है ऐसे जैसे एक साथ हज़ारों लोग आपके इर्द-गिर्द पान चबाते चले जा रहे हों। जब आपकी नाक और आंखें आसपास इसकी खुशबू को पकड़ने में नाकाम हो जाती हैं तो इसे कहीं दूर से चले आ रहे हवा के झोंके मानकर हार मान लेती हैं। और फिर इन्हीं खुशबुओं में सराबोर जब आप इसे अपनी सांसों के भीतर उतार रहे होते हैं, तब एहसास होता है कि आप सप्तपर्णी के गलियारों में हैं।

मेरे लिए तो यह खुशबू, यह महक बदलते मौसम की आहट है।

पर अभी यह आहट सुनाई देनी शुरू नहीं हुई थी। अक्तूबर का पहला ही हफ्ता था। दशहरे को अभी दस दिन बाकी थे। आंटी अपनी बाल्कनी में दिखाई दी। पहले से कहीं ज़्यादा व्यस्त। बाल्कनी में जगह बनाती, पौधों को एक ओर ठेलती। मैं थोड़ी जल्दी में थी और बाल्कनी में अखबार उठाने आई थी। थोड़ी देर में ऑफिस के लिए निकलना था मुझे। 

अगले दो दिन मुझे बाल्कनी में वे दिखाई नहीं दीं। मैं उन दोनों ही दिन जल्दी ऑफिस गई और देर से लौटी। देर शाम ऑफिस से लौटने के कारण मैं बाल्कनी में नहीं जा पाई। और सुबह जल्द बाज़ी में बाल्कनी में उतनी ही देर जाना हुआ जितनी देर में अखबार उठाया जा सके और पौधों को पानी दिया जा सके। उनकी बाल्कनी दिखी पर वे नहीं। उनके पौधे दिखे और कुछ उदास। जहां वे लाडले बच्चे की तरह पूरी बाल्कनी में छितरे हुए दिखते थे, वहीं आज वे मुझे क्लास से निकाले गए और दीवार की तरफ मुंह किए पनिशमेंट में खड़े दिखाई दिए। गर्दन झुकाए-से। 

तीन दिन बाद शनिवार के दिन जैसे ही मैं बाल्कनी में आई, आंटी सामने ही दिखीं। मुझे देखते ही बच्ची सी चहकीं - कहां थी तुम! कितने दिन से दिखाई नहीं दीं। मैं रोज़ तुम्हें याद कर रही थी। इससे पहले कि मैं कुछ कहती, विशू आ रहा है, दिसंबर में। पूरे बीस दिन के लिए। नए साल पर हमारे साथ ही रहेगा। पिछले से पिछले साल आया था। अब आ रहा है। डब्बू तो तीन साल का हो जाएगा, इस 21 दिसंबर को। यहीं होगा उस वक्त वह भी। 

आंटी खुश ज़्यादा थी या व्यस्त, समझना मुश्किल था। दिसंबर में उनके घर रौनक लगने वाली है। विशू, उसकी पत्नी स्मिता, दो बच्चे - 10 बरस की गुंचा और तीन बरस का डब्बू। 

मैं आंटी की खुशी में शामिल होती, इससे पहले ही पौधों में उलझी आंटी मेरी ओर बिना देखे ही बोली, गुलदाउदी के पौधे बड़े हो रहे हैं, दिसंबर तक तो ये सब खिल जाएंगे। मेरे पास जगह नहीं है, कहां रखूंगी इतने पौधे! गुंचा और डब्बू तो मिट्टी से ही खेलने लगेंगे। न बाबा न! मैं नहीं रख सकती इन्हें। मैं इन्हें तुम्हारे यहां भिजवा रही हूं। तुम ही संभालो इन्हें। इस बार उन्होंने नहीं कहा कि इसकी पौध संभालकर रखना। अगले बरस फिर काम आएगी। 

मैंने देखा कि गुलदाउदी के पत्ते उदास थे। उनके चेहरे की चमक गायब थी।

आंटी ने मुझे यह कहने का वक्त भी नहीं दिया कि अभी तो अक्तूबर की शुरुआत ही है। दिसंबर आने में तो अभी काफी वक्त है। अभी तो इन पौधों को खुद से जुदा न करें।

गुलदाउदी तो सिर्फ बहाना बने, उनके साथ ही गेंदा, पेटुनिया, डहेलिया, सिनेरेरिया, चंपा, मोगरा लगभग बीस पौधे मेरे घर चले आए। अब वे सब मेरी बाल्कनी का हिस्सा थे।

चले भी आओ कि गुलशन का कारोबार चले

मेहदी हसन की गज़लों से सजी यह अलसाई दोपहर है रविवार की। मैं आंखें मीचे अपने कमरे में लेटी हूं और मेरी आंखों के सामने मेहदी हसन अपने हॉर्मोनियम के साथ गा रहे हैं - गुलों में रंग भरे बादे नौ बहार चले

    चले भी आओ कि गुलशन का कारोबार चले।

इसके बाद उठकर मुझे छोटे-छोटे कई काम निपटाने हैं। और इन सब कामों में गुलाम अली खां, फरीदा खा़नम, बेग़म अख्तर भी मेरे साथ रहने वाले हैं। बाकी सब लोग स्पोर्ट्स क्लब गए हैं और मैं आज अपने पसंदीदा गज़लकारों के साथ अपना वक्त बिताने वाली हूं। मौसम में हल्की सी जुंबिश का असर यह है कि ए.सी. बंद हो गए और पंखे में गर्मी-सी लगती है। दो मौसमों के बीच की इस जद्दोजहद ने मेरी इस खूबसूरत दोपहर में खलल डाल दी है। बाहर का मौसम जानने के लिए मैंने खिड़की से बाहर झांका तो मधु आंटी दिखाई दी। मेरी खिड़की से आंटी की बाल्कनी कुछ इस कोण पर थी कि कोई अगर बाल्कनी में खड़ा या बैठा भी हो तो दिखाई देता है लेकिन बैठकर वह क्या कर रहा हैं, यह दिखाई नहीं देता। मैं यूं ही पल भर खड़ी आंटी को देखती रही। चूंकि आंटी के शरीर का ऊपरी हिस्सा ही खिड़की से दिख सकता था तो मेरी निगाह आंटी के चेहरे पर ही थी। वे बाल्कनी में बैठी कुछ काम कर रही थीं। पर क्या काम कर रही थीं यह नहीं दिख रहा था। हां, उनके चेहरे पर कई भाव आते-जाते दिख रहे थे जिनसे लग रहा था कि वे बहुत मन से किसी काम में लगी हैं। खिड़की से देखने पर ही धूप बहुत तेज़ दिख रही थी। इतनी तेज़ तो ज़रूर कि बाहर जाकर उनसे बात करने और देखने की इच्छा मन में उठ-उठकर रह जा रही थी।

मैं खिड़की से ही उन्हें देखने लगी। शायद वे हाथों से किसी चीज़ को सहला रही थीं। आंखें ही जैसे उनके हाथ बन गई थीं। मैंने बाल्कनी में धीरे से आकर झांका। आंटी बड़ा सा सूटकेस लिए बैठी थीं और कपड़ों को बड़े प्यार से छू रही थीं। अब मैं वापस अपने कमरे में थी। मैं इस पल उन्हें टोकना नहीं चाह रही थी। न ही यह चाहती थी कि उनकी नज़र मुझ पर पड़े। इस पल वे अपने एकांत में थीं। इस पल वे अपने गुज़रे वक्त में थीं। इस पल उन्हें उन पलों से बाहर खींच लाना गुनाह सा होता। मैं कमरे की खिड़की से ही उन्हें देखने लगी। आंटी कपड़ों की छुअन को महसूस करतीं और फिर बड़े प्यार के साथ हैंगर में टांग-टांगकर कपड़ों को अलगनी पर लटकाती जा रही थी। सूटकेस से कपड़े निकालने और हैंगर में टांगने तक ऐसे लगता जैसे वे गहरी नदी में गोता लगा रही हों और जैसे ही डूबने को होतीं, हाथ-पैर मार किनारे की तरफ आ जातीं। उनकी नज़र एक पल उन कपड़ों पर अटकती फिर जैसे खुद को ही धकेलती वे उन्हें हैंगर में टांग देतीं। 

मौसम बदल रहा है। आंटी को देखकर ऐसा मुझे भी महसूस हुआ। सर्दियों के कपड़ों को धूप लगाने का समय आ गया है। जैसे कुछ कौंधा मुझे भी। मुझे भी बच्चों की यूनिफोर्म और गर्म कपड़े सब निकालने होंगे। इसी खुमारी में जैसे ही बाल्कनी की खुली ज़मीन पर पांव रखा, तपते फर्श ने जैसे इस खुमारी से खींचा मुझे। अभी तो काफी समय है। दशहरे से पहले तो ज़रूरत नहीं पड़ने वाली। और मैं वापस लौट गई मेहदी हसन के पास, आंटी को उनके एकांत में छोड़कर। पीछे धीरे-धीरे गीत बजता रहा- पत्ता पत्ता बूटा बूटा हाल हमारा जाने है... जाने तो जाने गुल ही न जाने, बाग तो सारा जाने है।

सप्तपर्णी की खुशबू हवा में घुलने लगी थी

जैसे-जैसे दिन बीत रहे थे, हवा में बदलते मौसम की खुमारी घुलने लगी थी। सप्तपर्णी की खुशबू हवा में घुलने लगी थी ऐसे जैसे एक साथ कई लोग पंक्तिबद्ध होकर एक खास लय में गुलकंद और सौंफ भरा पान चबाते चले जा रहे हों। दशहरा गुज़र चुका था। अक्तूबर का महीना स्मृतियों के संदूकों के खुलने का महीना है। पूरा बरस अपने काम में मसरूफ़ हम कितना कुछ भूल जाते हैं। लेकिन अक्तूबर का महीना उन पुरानी स्मृतियों का दरवाज़ा एक बार फिर खोल देता है। ढेर सारे त्योहारों से लबरेज़ यह महीना नए साल की कुंडी सा सामने खड़ा होता है और हम धीरे-धीरे कदम बढ़ाते स्मृति से भविष्य की ओर बढ़ते चले जाते हैं।

सप्तपर्णी की यह खुशबू पिछले कुछ बरसों से ही मेरे अनुभव संसार से जुड़ी है लेकिन जबसे जुड़ी है, तबसे मुझे हर बरस इस खुशबू का इंतज़ार रहता है। नए बरस की ओर बढ़ने से पहले की बेहद दिलरुबा आहट-सा। अक्तूबर की खुशबू में कुछ छूटने और कुछ नया पाने की अजीब सी गंध घुली रहती है। एक ओर नया पाने की खुशी आह्लादित करती है वहीं दूसरी ओर पिछला बरस छूट जाने की कसक भी रह जाती है।

लेकिन आंटी को तो नए बरस का इंतज़ार ही नहीं। न ही उन्हें अक्तूबर कुछ खास आकर्षित कर रहा है। उन्हें तो इंतज़ार है दिसंबर के आने का और फिर सदा के लिए ठहर जाने का।

वे पिछले पंद्रह दिनों से व्यस्त हैं। उन्होंने इन पंद्रह दिनों में न जाने कितने कपड़ों और बिस्तरों को धूप दिखा दी है। मैं पिछले पंद्रह दिनों से उन्हें इतना ही व्यस्त देख रही हूं। अपने पौधों से इतना प्रेम करने वाली आंटी ने मेरी जानकारी में, पिछले पंद्रह दिनों में अपने पौधों की तरफ आंख उठाकर देखा भी नहीं है। मेरी बाल्कनी में खिलते उनके पौधे इस नए माहौल को बेमन से ही सही, अब स्वीकारने लगे हैं। उनके मुरझाए चेहरों पर अब हल्की-हल्की मुस्कान आनी शुरू हो गई है। लेकिन अपने ठुकरा दिए जाने का दर्द अभी भी उनके चेहरे पर रह-रहकर दिखाई दे जाता है।

आंटी, आपके ये गद्दे पिछले तीन दिन से बाहर ही पड़े हैं। मैंने कहा था।

हां, बेटा। अभी और धूप लगानी है। उन्होंने गद्दा पलटते हुए जवाब दिया।

लगता है, अभी काफी काम बाकी है आपका!

उन्होंने एक पल के लिए चेहरा ऊपर कर जवाब दिया, अभी तो बहुत कपड़ों को धूप लगानी है। गद्दे हैं, कंबल हैं, रजाइयां भी निकालनी हैं। बीस दिन रुकेगा विशू। हल्की सर्दी, ज्यादा सर्दी सबके हिसाब से बिस्तर निकाल रही हूं। दो बरस पहले अगस्त में आया था वो। कई साल हो गए इन बिस्तरों और सामानों को धूप लगे।

और ये गद्दे? ये क्यों निकाल रही हैं?

अरे! तुमने देखा नहीं है गुंचा और डब्बू को! बहुत बदमाश हैं दोनों! उनकी आंखों में चमक आ गई है। डब्बू तो दौड़ते-दौड़ते कहीं भी गिर जाता है। जहां वो खेलेगा, उसके आसपास गद्दे लगा दूंगी। गिरेगा, तो चोट नहीं लगेगी। गद्दों में बदबू हुई तो बच्चे के लिए ठीक नहीं ना! इसलिए धूप लगा रही हूं।

और फिर उन्होंने एक कपड़ा उठाकर दिखाया, यह देखो, विशू ने अपनी मेहंदी पर यह कुरता पहना था। उसके दोस्तों ने मेहंदी वाले उसके हाथ उसके कुर्ते पर लगवा दिए थे। कितना प्यारा कुरता है। उनकी हथेलियां इस समय विशू की हथेलियों को सहला रही थीं। मेहंदी के इस निशान में विशू के हाथों की छुअन है शायद जिसे वे अब भी महसूस कर रही थीं। फिर धीरे-से मुसकुराकर बोलीं -

अभी उस दिन फोन पर कह रहा था - मम्मी, मेरे कुर्ते का दाग अब तो उड़ गया होगा ना? यह कहकर वे खुद ही हंस पड़ीं। बारह बरस हो गए विशू की शादी को और आठ बरस उसे दुबई गए हुए। इन आठ बरसों में वह केवल चार बार ही आ पाया। इस बरस विशू आ रहा है। अभी बहुत सारी तैयारियां करनी हैं आंटी को।

हमारी गुंचा है ना! वह तो पूरी तरह विशू की कॉपी है। जब गुस्सा होती है तो वैसे ही नाक चिढ़ाती है जैसे विशू करता था। मैं तुम्हें फोटो दिखाऊंगी उसकी। विशू की भी। फिर खुद ही बोलीं -दिसंबर में तो वह आ ही रहा है। तुम खुद ही देख लेना। 

जिस समय हम दो बाल्कनियों के आरपार बातें कर रहे थे, ठीक मेरे पीछे और आंटी की आंखों के सामने उनके दिए गुलदाउदी के पौधे में गुलदाउदी की एक कोंपल फूटी थी जिससे वे इस पल बिल्कुल अनजान थीं।

तेरे आने की जब ख़बर महके, तेरी खुशबू से सारा घर महके

दिन बीत रहे थे। दीवाली आने वाली थी। घर में शॉपिंग, साफ-सफाई और साज-सजावट सबने मिलकर बड़ी चहलकदमी ला दी थी। हम भी अपने व्यस्ततम समय में से इन सभी चीज़ों के लिए समय चुरा रहे थे। कभी ऑफिस से जल्दी आना, कभी ऑफिस के बाद शॉपिंग के लिए सीधे चले जाना, घर में होने पर घर के हर कोने-किनारे को साफ कर लेने की जिद और इसी बीच सर्दियों के कपड़े निकालना, उन्हें धूप लगाना, कंबल, रजाई निकालना, और दौहर, कफंर्टर संभालना ..... उफ्फ, कितना काम! पर सच कहूं तो काम से ज़्यादा काम की व्यस्तता अच्छी लग रही थी। 

उधर मधु आंटी की बाल्कनी तो जैसे कपड़े और बिस्तरों के बाद न जाने किस-किस चीज़ की नुमाइश बनती जा रही थी। जैसे जैसे वक्त बीत रहा था उनकी काम करने की गति भी बढ़ रही थी। ट्रेड मिल पर चढ़ते समय स्पीड कम होती है पर जैसे जैसे समय बीतता है, हम स्पीड बढ़ाते जाते हैं। आंटी भी शायद इस समय ट्रेड मिल पर ही थीं। स्पीड बढ़ाए हुए। उन्हें अभी न जाने कितना कुछ फैलाना और समेटना था। इसका तनाव उनके चेहरे पर भी दिख रहा था।

मैं कई बार उनसे बीच-बीच में बात करती और कई बार तो अपने कमरे की खिड़की जो उनकी बाल्कनी में खुलती थी, वहां से चुपके से उन्हें देखती रहती। अब तो उन्होंने खिलौने, और कुछ बड़े-बड़े डिब्बे ढेर लगा रखे थे। हवा में ठंड की तुर्शी बढ़ रही थी और उसी अनुपात में धूप भी नखरीली हो चली थी। अब अक्तूबर सी कड़क धूप नहीं थी। दिल्ली के प्रदूषण और कोहरे की मिलीजुली चादर में छिपी धूप आंखमिचौली का खेल खेल रही थी। आंटी को यह सब बिल्कुल अच्छा नहीं लग रहा था। 

यह हाल रहा, तो मेरा तो काम खत्म नहीं होने वाला। तीन दिन से ये डिब्बे बाहर पड़े हैं। इन्हें खोलने की हिम्मत नहीं हो रही। धूप निकले तो खोलूं, वे जैसे अकेली खड़ी खुद से ही बातें कर रही थीं।

मन किया पूछूं कि इन डिब्बों में क्या है। पर फिर लगा, दिख ही जाएगा सब एक-दो दिनों में। और फिर किसी अधूरे छूटे काम की ओर बढ़ जाती।

पतझड़ की वो शाख अभी तक कांप रही है

डिब्बे थे, या कि यादों के पिटारे थे जिन्हें वे खोलना चाहती भी थीं और नहीं भी। क्या था इन डिब्बों में, मुझे यह जानने से ज़्यादा उत्सुकता आंटी को उन डिब्बों को खोलते देखने की थी। सच कहूं तो मुझे आंटी को बाल्कनी से नहीं, खिड़की से देखने की इच्छा थी जहां से उनका चेहरा दिखे और बहुत कुछ कहती और बुदबुदाती आंखें दिखें, उनके हिलते हाथ तो दिखें लेकिन हाथों से वे क्या छू रही हैं, यह न दिखे। 

गत्ते के इन डिब्बों में आंटी का गुज़रा वक्त बंद था जो अभी भी इन डिब्बों में धड़क रहा था जिन्हें वे खोलना तो चाहती थीं लेकिन इस डर से नहीं खोल रही थीं शायद कि एक बार वह वक्त डिब्बे से बाहर आया तो फिर उसे वापस कैसे इन छोटे-छोटे डिब्बों में समेट पाएंगी वो। 

छत के एक कोने से दूसरे कोने तक दौड़ लगाती आंटी, अब तो अंकल को भी अनदेखा करने लगी थीं। अंकल बीच-बीच में बाल्कनी में आकर आंटी को देख जाते और फिर घर के भीतर न जाने किस काम में मसरूफ़ हो जाते। लेकिन आंटी तो जैसे अभी अपनी सुध में नहीं है। दीवाली निकल गई, हमारे फैलाए काम समेटे भी गए और दीवाली बीतने पर उसके बीत जाने का एहसास भी कई दिन पुराना हो गया लेकिन उनकी बाल्कनी है कि अभी भी काम के बोझ से उतनी ही दबी है।

डिब्बे खुल गए हैं। डिब्बों में ऐसा क्या है जिसे धूप लगाने की ज़रूरत है, एकबारगी समझ नहीं पाई मैं। छोटे-छोटे कपड़े, स्कूल का स्वेटर, पुराना आईकार्ड, दूध की बोतलें, लंचबॉक्स, कटोरी, चम्मच, न जाने क्या-क्या!

मेरे लिए समझना अब थोड़ा मुश्किल हो रहा था। विशू के आने का इन सब चीज़ों से क्या लेना-देना! इन्हें भी धूप दिखाने की ज़रूरत है क्या! आखिर वे क्या कर रही हैं! उनके अकेलेपन की गूंज अब रात को भी मेरे कानों में बज रही थी। कितनी अकेली हैं वो! कितना घना है उनका इंतज़ार! वो विशू का इंतज़ार कर रही हैं या बीत चुके वक्त के लौट आने का.....! अगर यह विशू का इंतज़ार है तब तक तो ठीक है, और अगर यह गुज़र चुके वक्त को लौटा लाने की ज़िद है तो.......

अगले दिन मुझे बाल्कनी में देखते ही बोलीं - विशू के बचपन की चीज़ें हैं। ये सब कुछ उसे बहुत पसंद था। आंटी मुस्कुरा रही थीं और उनके हाथ लकड़ी के तख्त पर पड़े इस सारे सामान को छू रहे थे। 

उसके बच्चों को दिखाऊंगी, उसके पापा की चीज़ें! खुश हो जाएंगे वो! उनकी आंखें जैसे ज़ीरो वॉल्ट के दो छोटे बल्बों सी चमक रही थीं। गुंचा को आ जाएगा अब यह स्वेटर। देखो, ये दूध की बोतल है उसकी। हमारे टाइम में ऐसी बोतलें आती थीं। दोनों तरफ निपल। कांच की है यह बोतल! कैसे तो संभालकर रखा मैंने इसे। विशू देखेगा तो कितना हंसेगा। 

मुझे लैक्टेशन नहीं हुआ था। थोड़ा-बहुत दूध आता भी तो विशू का पेट नहीं भरता। फिर डॉक्टर ने बोतल लगाने के लिए कहा। विशू बहुत कमज़ोर था इसी वजह से। इस वक्त उनका एक हाथ अपनी छाती पर आ गया था। खुद को विशू की कमज़ोरी का ज़िम्मेदार ठहराता। मुझे इस पल आंटी बहुत कमज़ोर लगीं। बेहद अकेली और उदास। 

और यह देखो चांदी का चम्मच! उसकी नानी ने दिया था। पूरे पांच बर्तन थे। विशू इन्हीं में खाना खाता। मां कहती थी कि चांदी में बहुत ताकत होती है। मरते हुए को भी जिला दे। मैं इन्हीं बर्तनों में खाना देती उसे। बाद में कितना तगड़ा हो गया था वो.....। खो गया था यह चम्मच! मैंने कई बार ढूंढा, नहीं मिला। अब देखो, इस डिब्बे में निकला। 

मेरी पूछने की हिम्मत नहीं हुई कि स्मृतियों के इन पिटारे को खोलने का अभी क्या मतलब! आंटी, विशू के आने से पहले उसकी उपस्थिति को जी रही थी। हर पल, हर लम्हा।

लेना होगा तो ले जाएगा कुछ इसमें से। यही सोचकर निकाल दिया सारा सामान। अब उसके बच्चे इस्तेमाल करेंगे ये सब। अब बस इन सबको धुलवाकर रखना है। सारा घर फैला लिया है मैंने। तेरे अंकल गुस्सा कर रहे हैं। पर तू ही बता, इसमें से कौन-सा काम गैर ज़रूरी है। 

मैंने महसूस किया, सप्तपर्णी की खुशबू चारों ओर फैल गई है। सब कुछ को अपनी ज़द में लेती। उसके आसपास के सभी फूल अभी बेमानी हैं।

दूर कहीं किसी के रेडियो पर बज रहा था - मेरा कुछ सामान तुम्हारे पास पड़ा है..... पतझड़ की वो शाख अभी तक कांप रही है, वो शाख फिरा दो, मेरा वो सामान लौटा दो।

आशा भोंसले की आवाज़ और आर.डी.बर्मन का संगीत।



दिले नादां तुझे हुआ क्या है, आखिर इस मर्ज़ की दवा क्या है

शाम अब जल्दी घिरने लगी है। शाम होते ही दिनभर खिले रहने वाले फूल-पौधे ज्यों मुंह लटका लेते हैं और मैं उन्हें देख सोचने लगती हूं कि जल्द सुबह हो और ये फिर से खिलखिला सकें। दिन की धूप में पौधों को मुस्कुराते देखना बहुत सुकून देता है। उनके मुस्कुराते चेहरे बिल्कुल बच्चों से लगते हैं, निश्चिंत। आंटी की छत पर पड़े डिब्बे और बोतलें मांग लेने का दिल करने लगा है। इस सर्दी अगर इन पौधों को थोड़ा टॉनिक दे दिया जाए तो खांसी-जुकाम से बचे रहेंगे सर्दी भर। कहीं मैं आंटी सी तो नहीं होती जा रही - कुछ कौंधा मेरे भीतर। सिर को हल्का सा झटका मैंने। घर के अंदर से बच्चों की शरारतों की आवाज़ सुनाई दी। 

आंटी पिछले कुछ दिनों से और अधिक व्यस्त हो गई थीं। अब उनकी व्यस्तता घर के अंदर ज़्यादा थी। उनकी रसोई और विशू की पसंद के इर्दगिर्द ही अब सब कुछ चल रहा था। सर्दी बढ़ गई थी। विशू के आने की तारीख भी नज़दीक आ रही थी। दीवाली बीते लगभग एक महीना हो चला था लेकिन उनका घर जैसे अब रौशन हो रहा था। रसोई में अलग-अलग तरह की चीज़ें बन रही थीं, घर-बाहर सब धोया-पोंछा जा रहा था। खिड़की-दरवाज़ों से लेकर दीवारें, कोने-किनारे सब संवारे जा रहे थे। उनकी दीवाली तो अब आने वाली थी। विशू, स्मिता, गुंचा और डब्बू। कितनी रौनक होगी। बीस दिन। कोई कहीं नहीं जाएगा। बस सब साथ रहेंगे। शादी के एल्बम दिखाए थे आंटी ने। पूरे पांच एल्बम बने थे उनकी शादी में। हर रस्म का अलग एल्बम। कितनी सुंदर लग रही थी आंटी उन तस्वीरों में। एक-एक तस्वीर को उन्होंने पोंछा था अपने रुमाल से। भीग गया था रुमाल।

सर्दी बढ़ गई थी और साथ ही उनका दिखना भी कम हो गया था। दिन में धूप होती भी तो मैं घर न होती, और जब मैं लौटती तो शाम ढल चुकी होती। आंटी कम ही दिख रही थी। मैं अपने भीतर ही उनकी खुशी और बेचैनी का अंदाज़ा लगाकर उनके लिए खुश हो रही थी। बीस तारीख आने वाली है। आंटी और व्यस्त हो जाएंगी....। कितनी खुश रहेंगी वो। उनकी सारी तैयारी घर के अंदर कैसे काम आएगी, मैं अनुमान लगाने की कोशिश कर रही थी। 

हमें भी दो दिन के लिए बाहर जाना था। 18 की शाम को जाकर 21 को लौटना था। जाते वक्त भी मैं यही सोच रही थी कि वापस आकर विशू और उसके परिवार से मुलाकात होगी। आंटी के मुंह से सभी का नाम सुनकर कुछ स्कैच सा भी खींच लिया था उन सबका ज़ेहन में। 

हम 18 की शाम को गाड़ी से निकले। और जब 21 को लौटे तो बहुत रात हो चुकी थी। विशू आ चुका होगा, मुझे ख्याल आया। और फिर खुद पर ही हंसी भी कि मुझे यह क्या हुआ! 

अगली सुबह 22 दिसंबर, हम सबकी छुट्टी थी। मैं सुबह देर से उठी। अभी सारा सामान अनपैक करना था। बहुत सारा काम फैला था। पर ज्यों ही आंख खुली, मैंने परदा खींचा। सामने आंटी की बाल्कनी थी। पर आंटी नहीं थी। कोई चहलकदमी भी नहीं थी। लगता है सब देर तक सो रहे हैं। 

पूरा दिन मेरी नज़र उनकी बाल्कनी पर और कान उनके घर की ओर टिके रहे। घर में रौनक होगी। गुंचा और डब्बू शरारतें कर रहे होंगे। आंटी ने डब्बू के इर्द-गिर्द गद्दे लगा दिए होंगे। सब लोग ज़ोर से हंस बोल रहे होंगे। रसोई में कुछ अच्छा सा बन रहा होगा। 

मधु आंटी के मुंह से उनके बच्चों के बारे में सुन-सुन कर उनसे जैसे मेरा भी एक रागात्मक संबंध बन गया था। ऐसा लगने लगा था जैसे मैं उन्हें बरसों से जानती हूं। आंटी के मुंह से विशु की इतनी बातें सुन चुकी थी कि विशु और उनके बच्चे दोनों मेरे सामने बच्चों जैसे ही हो गए थे। यह बहुत अजीब सी स्थिति थी। विशु जिसकी उम्र मुझसे दो-एक साल ही कम होगी। लेकिन अभी विशु मेरे लिए दूध पीता बच्चा हो गया था। लेकिन फिर कभी वह मेरे सामने शादी के मंडप में बैठा दुल्हा भी बन जाता। विशु, विशु सुनकर मुझे ऐसा लगने लगा था कि विशु का इंतज़ार मैं भी उतना ही कर रही हूं जितना कि मधु आंटी।

जब मैं लौट कर आई तो इस उम्मीद में थी कि सामने छत पर चहलकदमी होगी। विशु और बच्चों के साथ आंटी बहुत व्यस्त होंगी। परन्तु यहां सन्नाटा था। फिर ऐसा लगा कि हमेशा घर में ही तो बैठे नहीं रह सकते हैं। ज़रूर सभी लोग बाहर गए होंगे। एक साथ घूमने-फिरने, बोटिंग करने या फिर दिल्ली से बाहर, एक साथ। मैं अंदर चली आई। 

अगले दिन रविवार था। 23 दिसंबर। मैंने सुबह उठते ही फिर उसी उम्मीद से बाल्कनी में झांका। आज आंटी दिखाई दीं। उसी तरह तख्त पर बैठी। उनका चेहरा और हाथ दिखाई दे रहे थे। लेकिन हाथों से वे क्या कर रही हैं, यह नहीं दिख रहा था। मैं दौड़कर बाल्कनी में आई। आंटी के पास सुनाने के लिए बहुत कुछ होगा। विशू आया है। बच्चे कितने बड़े हो गए! डब्बू की शरारतें, गुंचा की बातें। कितना कुछ।

आंटी उन्हीं डिब्बों को लिए बैठी थी, जिनमें चांदी के बर्तन थे, बोतल थी, लंचबॉक्स था, आईकार्ड था, और न जाने क्या कुछ था जो विशू की बचपन की यादों से जुड़ा था। मैंने हौले से पुकारा - आंटी। लेकिन आंटी ने कोई जवाब नहीं दिया। उनकी आंखें सामने के गुल्लर के पेड़ पर फंसी हुई थी। मेरे दो बार पुकारने के बाद भी उन्होंने ना तो मेरी ओर देखा और ना ही मुझे कुछ जबाव ही दिया। मुझे ऐसा लगा जैसे उनकी आंखें पेड़ के पत्तों में ऐसे अटक गयी हैं कि उन्हें वहां से खींच लाना संभव नहीं है। थोड़ी देर मैं उन्हें देखती रही। थोड़ी देर में वे वहां से उठीं। मुझे लगा कि अब वे कुछ कहेंगी लेकिन उन्होंने मुझसे कुछ नहीं कहा। कुछ देर वे वहीं खड़ी रहीं और फिर अंदर चली गयीं। मैं कुछ देर तक वहीं खड़ी रहकर उनकी अनुपस्थिति को वहां देखती रही। मैं चलने को हुई तो वे फिर आईं और अब मेरी ओर देखे बिना ही बोलीं - नहीं आ रहा विशू। उसे अचानक ऑफिस के काम से बाहर जाना पड़ा। कहता है अगले बरस आऊंगा। दिसंबर में। वो जैसे उस पल अपने से ही बातें कर रही थीं - अगले बरस तक तो बच्चे और बड़े हो जाएंगे, अगले बरस तक तो हम और बूढ़े हो जाएंगे, अगले बरस तो पता नहीं गुलदाउदी खिलेगा भी या नहीं। अगले बरस धूप निकलेगी भी या नहीं..........अगला बरस आएगा भी या नहीं। 

आंटी की आंखें ठहरी हुई थीं, सामने दीवार पर, दूर सप्तपर्णी के पेड़ पर, पेड़ की ऊपरी टहनियों पर खिले फूलों पर या फिर.... कहीं दूर किसी अदृश्य पर।

उनके हाथ धीरे-धीरे चल रहे थे, बिल्कुल धीरे-धीरे। एक-एक कर एक-एक सामान को वापस डिब्बों में संजोते। 

मैंने देखा मेरे आंगन में खिले गुलदाउदी से लेकर बाहर सड़क पर खड़े सप्तपर्णी तक सब कुछ उदास हो गए हैं, बहुत उदास।

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4 टिप्पणियाँ

  1. बहुत मार्मिक.....देश से बाहर गए बच्चों के बुजुर्ग माँ पिता की त्रासदी

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  2. मैं ऐसी बहुमूल्य सीख से भरी कहानियों से सीख लेकर जिंदगी जी रही हूं। मैं बच्चों के बचपन की कोई चीज बचाकर नहीें रखीजो उनके काम के नाम हों और मेरी जान ले लें।
    पूरी कहानी पढ़ते वक्त मन आशंकित होता रहा -अगर विशु ना आ पाया तो।? हम मां बाप के भाव तो जानते हैं पर विशु के दिल की बात नहीें जानना चाहते कि उनपर क्या बीती होगी।
    बेहद खूबसूरत कहानी।सार्थक और संतुलित अंदाज में लिखी कहानी।शब्दों को मान देते हुए बेवजह खर्च करने से बचा गया।बीच बीच में गजल की पंक्तियां लगा अतिरिक्त एनर्जी मिल गई। लेखिका महोदया को धन्यवाद

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  3. एक पीढ़ी जो अपने आपको पौधों की खाद, दवा , हवा देकर खुश है। वे पौधे एक पीढ़ी का प्रतीक है। उनके मकरंद की खुशबू सब जगह फैलती है। उसका माली उसी मकरंद से बेजार रहता है और अगले वर्ष का इंतजार करता है।
    छोटूराम।

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