राजेन्द्र यादव पर ज़बरदस्त बेबाक मृदुला गर्ग! Mridula Garg on Rajendra Yadav

"मेरे ख़्याल से हिन्दी साहित्य जगत में फ़्लर्ट करने की कला, सिर्फ दो जन जानते हैं, राजेन्द्र यादव और मनोहर श्याम जोशी।" 

मृदुला गर्ग की लिखी इस लाइन से आपको कुछ अंदाज़ा लगा होगा कि राजेन्द्र यादव पर यह लेख उन्होंने कितनी बेबाकी से लिखा है। आज यादवजी के जन्मदिन पर खास

राजेन्द्र यादव पर ज़बरदस्त बेबाक मृदुला गर्ग Mridula Garg on Rajendra Yadav



एक दोस्त जो कभी कभी दुश्मन हो जाता थाः राजेन्द्र यादव

मृदुला गर्ग 



राजेन्द्र यादव अर्से तक मेरे दोस्त रहे थे। ऐसे दोस्त जो कभी कभी दुश्मन की भूमिका तो निभा देते थे पर और कोई नहीं। कोई और ताल्लुक़ात बनाने का ख़्याल उनके मन में भले आया, पर परवान चढ़ाने के बारे में सोचने से पहले ही डर गये। यह उन्होंने ख़ुद कहा था। पर उसका कोई लिखित प्रमाण मेरे पास नहीं है। किसी भी आपसी बातचीत का नहीं है। मसलन उन्होंने एक बार कहा था कि उन्होंने लिखना किसी पैशन के तहत शुरु नहीं किया, बल्कि एक दैहिक हादसे से गुज़रने के बाद, अन्य कोई बड़ा काम न कर पाने की मजबूरी में उसे चुना। पर साहब ठीक ही चुना। मैं उनके लेखन को हमेशा महत्वपूर्ण मानती रही हूँ।

खुराफ़ात करके खलनायकी अर्जित करने की ख़्वाहिश, मुझे दुर्भाग्यपूर्ण लगती रही। पर उसके पीछे काम कर रहे जज़्बे को समझ सकती हूँ। वह हलफ़िया बयान उन्होंने तब दिया था, जब मैंने कहा था कि अमुक कहानी लिखने के बाद, मेरा मन हुआ कि बाल्कनी से कूद जाऊँ। उन्होंने कहा, ऐसी 'एक्स्टसी’ उन्होंने लेखन में कभी महसूस नहीं की। 

बहुत सी ऐसी स्त्री लेखक थीं, जिन्होंने मेरी त्रासदी के समय मुझे कमज़ोर जान कर मुझ पर आक्षेप लगाये थे और मेरे उपन्यास कठगुलाब को राजकमल प्रकाशन में छपने से रोका था।

मैंने यादवजी को बतौर लेखक ही जाना। उसके माध्यम से ही व्यक्ति को पहचाना। कुछ घुसपैठ, अलबत्ता, प्रकाशक-सम्पादक की ज़रूर रही। और काफ़ी उस अड्डेबाज़ी की, जो सत्तर के दशक में, मैंने अक्षर प्रकाशन के दफ़्तर में की। कड़क चाय पीते, जिसे शानी ‘नीला थोथा’ कहते थे। 

1972-73 में अक्षर प्रकाशन यादवजी ने नया-नया शुरु किया था और वह, पेरिस या ऑस्ट्रिया के कॉफ़ी हाउस की तर्ज़ पर, लेखकों का दुपहरी मिलन अड्डा था। कुछ कम शायराना पर लीक से हटा माहौल था। फ़र्क वही था, जो कड़क उबली चाय और बढ़िया फ़िल्टर कॉफ़ी में होता है। याद रहे मेरा दख़ल महज़ दुपहरी अड्डे में था। शाम के दारूबाज़ अड्डे में औरतें शामिल नहीं की जाती थीँ; न तब, न अब। 

उसके अलावा रोज़ की घरेलू मिलनसारी या आवाजाही इसलिए नहीं थी कि साहित्य जगत में, मेरा मेलजोल वाला रिश्ता किसी से नहीं था। कारण, मेरे पति का क्षेत्र लेखन से अलग था और है और वे पीते-पिलाते नहीं कि उसी बहाने महफ़िल जमे। दो-चार बार के पारिवारिक मिलन के अलावा, यादवजी से ज़्यादातर मिलना, अक्षर प्रकाशन के दफ़्तर में ही हुआ। 

बिला असमंजस एक बात कह सकती हूँ। बाक़ी लोगों की तरह यादवजी भी, अन्दर-बाहर में बँटे, दो शख़्स थे ही, एक फ़ाँक उनमें और थी। हंस पत्रिका शुरु होने से पहले के साहित्य मर्मज्ञ राजेन्द्र यादव और हंस के सम्पादक बनने के बाद के गुरु राजेन, दो अलग शै थीं। 

उनके बारे में फैली तरह-तरह की भ्रान्तियों में मेरी क़तई आस्था नहीं है। इसलिए जो सवाल अमूमन उनके बारे में पूछे जाते हैं, उनका सीधा-सा जवाब यह है कि वे भ्रान्तियाँ, दोस्तों से ज़्यादा शागिर्दों ने फैलाई थीं। उनके अहम को तुष्ट करने की ख़ातिर। कोई उन्हें खलनायक बतलाता तो कोई हर पल विवाद को जन्म देने वाला बुतशिकन। कोई शोषित-प्रताड़ित स्त्रियों का हमदर्द और पैरोकार। कोई हमारे बेचारे पिछड़े मुल्क की पिछड़ी हिन्दी पट्टी में, स्त्री व दलित विमर्श का जन्मदाता। वह सब वे होना चाहते थे पर थे नहीं। वरना इस मुल्क में कुछेक बरस जेल काट आना क्या मुश्किल होता। दरअसल जो उन दिनों हंस के आसपास हो रहा था, वह मुझे एक मंचस्थ नाटक की तरह मालूम होता था। हंस की कुर्सी हासिल करने के बाद, वक़्त गुज़रने और उम्र बढ़ने के साथ, शागिर्दों की क़तार में बढ़ोतरी क्या हुई, नाटक, बम्बईया फ़िल्म की तरह अतिनाटकीय होता गया। 

वैसे प्रशंसक और शागिर्द जुटाना चाहने में बुराई नहीं है। बक़ौल मिलान कुन्डेरा, यह चाहत व्यक्ति के समाज से जुड़ाव को दर्शाती है। "द लास्ट वाल्ट्ज़" में उसका पात्र कहता है, "शागिर्द बनाने की चाहना से तो सन्यासी या वैरागी भी अछूता नहीं रहता।" जहाँ तक जुड़ाव का सवाल है, यादवजी के संदर्भ में उससे कोई इन्कार नहीं कर सकता। न सन्यासी या वैरागी होने की तोहमत ही उनके सिर कोई लगा सकता। न हंस के पहले के यादव पर, न आज के। पर बाद में मामला इतना तूल पकड़ गया कि ज़्यादातर रचानाशील मर्दों की तरह, यादवजी भी मुझे, उस बच्चे की तरह मालूम पड़ने लगे, जो हर वक़्त आपका ध्यान आकर्षित करने में लगा रहता है। पर यह उनकी शख्सियत का मात्र एक हिस्सा था। और बहुत कुछ था, जो उन्हें वह राजेन बनाता था, जो सबका दोस्त था और नहीं भी था।

पहलेपहल मैं उनसे 1970-71 में मिली थी। मेरी पड़ोस की सहेली कृष्णा की पड़ोसन सहेली निम्मी के पति, दीक्षित जी, रानीगंज की कोयला खदान में काम करते थे; पर साहित्य-कला आदि के शौकीन थे। काम के सिलसिले में पति के साथ उनसे मिलना हुआ था। उसके बाद, जब मैं अपने मैके, दिल्ली आई तो संयोग से वे यहाँ थे। बोले, "चलिए आपको राजेन्द्र यादव से मिलवाएं।" उनके साथ मैं अक्षर प्रकाशन के दफ़्तर में, जो बाद में हंस का दफ़्तर बना, यादवजी से मिली। तब तक मैंने उनकी दो-चार कहानियाँ पढ़ी थीं। बचपन में साहित्य काफ़ी पढ़ा था पर विदेशी और बंगला अधिक। हिन्दी में जैनेन्द्र, अज्ञेय आदि की पीढ़ी के बाद के लेखकों को कम। बी.ए;एम.ए हिन्दी में न करके, अर्थशास्त्र में किया, सो साहित्य को कोर्स की तरह पढ़ने की मजबूरी नहीं थी। जो पढ़ती, शौक़ या लत के चलते। पर उनकी कहानी "छोटे छोटे ताजमहल" कुछ वक़्त पहले पढ़ी थी और उसने मन पर ख़ासा प्रभाव छोड़ा था। उनके उपन्यास वगैरह मैंने उस मुलाक़ात के बाद रफ़्ता-रफ़्ता पढ़े। 

उन दिनों मैं दुर्गापुर में थी। अपने एक अंग्रेज़ मित्र के साथ मैंने अज्ञेय की कविता "हरी घास पर क्षण भर" का अंग्रेज़ी में अनुवाद करके, उसका मंचन किया था। यादवजी से ज़िक्र हुआ तो उन्होंने अंग्रेज़ी का एक उपन्यास मुझे पकड़ा दिया कि, अक्षर प्रकाशन के लिए, उसका अनुवाद हिन्दी में कर दूँ। विकी बाँम का उपन्यास था, नाम याद नहीं। क्या बतलाऊँ, कितना रद्दी अनुवाद मैंने उसका किया! मुझे तो इतनी अक्ल भी न थी कि पान्डुलिपि बनाई कैसे जाती है। सोचती थी, लेखक लोग बस वाक्य बना कर दे देते हैं, हिज्जे-विज्जे ठीक करने का काम सम्पादक करते होंगे। यूँ भी अनुवाद में मन रमा नहीं। यादवजी के सब्र, नये लेखन से लगाव और उस्तादी की दाद देनी होगी कि उन्होंने यह ज़रूर कहा कि अनुवाद रद्दी था, पर पूरी तरह मेरी लिखने की क़ाबिलियत को नकारा नहीं।

अक्षर प्रकाशन वह मठाधीशी ताक़त नहीं दे पाया था जो हंस के सम्पादक होने ने बख्शी। बदक़िस्मती से स्त्री विमर्श के नाम पर जो नारा उन्होंने दिया, वह बरसों पुराना, घिसा-पिटा देह की स्वतंत्रता का था। सुलभ होने के कारण, छपास की मारी, नई स्त्री लेखकों को रास आया। 

निजी कारणों से मेरे भीतर उन दिनों कुछ और खदबदा रहा था। अनुवाद करने की प्रक्रिया ने, अंग्रेज़ी में लिखी इकलौती कहानी से मन हटा कर, उसे हिन्दी की तरफ़ मोड़ दिया क्योंकि उसके कुछ दिन बाद, मैंने अपनी पहली कहानी लिखी, जो सारिका में छपी। उसके सम्पादक कमलेश्वर से भी यादवजी की मार्फ़त मिलना हुआ था। तब तक हम लोग बागलकोट (कर्नाटक) रहने लगे थे। वहाँ से मुम्बई आना-जाना रहता था। वहीं एक छोटे से आर्ट थियेटर हॉल में, यादवजी के उपन्यास "सारा आकाश" पर आधारित, हिन्दी की पहली आर्ट फ़िल्म देखी। कमलेशवर जी से वहीं मिलना हुआ। 

मेरी पहली कहानी "रुकावट", 1971 में सारिका में छपी, जिसे पढ़ कर यादवजी ने एक प्यारा-सा ख़त लिखा। उन दिनों की अपनी लापरवाही में उसे सम्भाल कर नहीं रखा, इसलिए अगर कहूँ कि उन्होंने लिखा था, वे सोच भी नहीं सकते थे कि मैं इतनी अच्छी (बेबाक?) कहानी लिख सकती थी तो उसका कोई सबूत मेरे पास नहीं है। यह भी नहीं कह सकती कि वह महज़ नये लेखक की हौसला अफ़ज़ाई थी या वाक़ई, उसमें उन्हें कुछ ठीक-ठाक लगा था। ख़ैर जो था, मेरा लेखन उसके बाद शुरु हुआ। यादवजी से मिलने के कारण, मैंने लेखन शुरु नहीं किया। उसके कारण और थे, जो यहाँ अवान्तर हैं। पर उनसे मिलना एक तरह से उत्प्रेरक ज़रूर बना। 

उसके बाद हर साल जब मैं दिल्ली आती तो दुपहर, कुछ दिन अक्षर प्रकाशन के दफ़्तर में बिताती। हिन्दी साहित्य जगत के लघु, महान, अटरम-शटरम, सब तरह के बेहिसाब लेखकों से वहीं मिलना हुआ। उनमें से कुछ नाम हैं; जगदंबाप्रसाद दीक्षित, गिरिराज किशोर, शानी, अजित कुमार, शैलेश मटियानी, हरिप्रकाश त्यागी, योगेश गुप्त, सुदर्शन चोपड़ा, रवीन्द्र त्यागी, राजेन्द्र अवस्थी। और भी कई। मज़े की बात यह है कि मन्नू भण्डारी और उनके साथ ख़रीदारी करके आई स्नेहमयी चौधरी के अलावा, किसी स्त्री से मिलना याद नहीं। मिली नहीं या याद नहीं रहा, कह नहीं सकती। मेरे मन में उस जगह की छवि, खांटी मर्द अड्डे की तरह है। वैसे ही जैसे यादव की छवि, साहित्य विशेषज्ञ होने के दम्भ से ओत-प्रोत, उत्कट मेल शॉविनिस्ट, साहित्य मनीषी व अनुरागी की है। 

वे मेरी ज़िन्दगी के बिन्दास दिन थे। अक्षर प्रकाशन में बिताया वक़्त, यूनिवर्सिटी में पुरुष सहपाठियों के साथ गुज़ारे वक़्त की तरह, जीवंत और ख़ुशगवार था। उसमें बहस-मुबाहसा, हँसी-मज़ाक, बेबात की बात से निकलती बात सब थी। यादवजी ने एक बार कहा भी, आप तो खासी अड्डेबाज़ हैं।
आप तो खासी अड्डेबाज़ हैं
मुझे याद है एक दिन मैं मूसलाधार बारिश में, नामचारे का छाता लिये, हौज़ ख़ास से 520 नम्बर की बस पकड़ वहाँ पहुँच गई थी। चोड़ा हालत में यादवजी से कहा, चलिये गोलचा कैफ़े में कॉफ़ी पी कर आयें तो वे घबरा कर मुकर गये। बोले, अभी तो गाड़ी नहीं है। मैंने कहा, कमाल है, मैं इतनी दूर से बस पकड़ कर आ रही हूँ, आप ज़रा-सी दूर चलने को तैयार नहीं? पर वे नहीं माने। फिर बिजली गुल हो गई। मोमबत्ती जलाई गई। हम उसके पास बैठ गपियाने और चाय पीने लगे। इतने में जगदम्बा प्रसाद दीक्षित प्रकट हुए। दरवाज़े पर झिझक कर ठिठके तब समझ में आया कि समाँ किस क़दर रोमानी था। पर हमने ग़ैर-रोमानी गुफ़्तगू के अलावा उस दिन फ़्लर्ट तक नहीं किया। कभी न किया हो ऐसा नहीं है। मेरे ख़्याल से हिन्दी साहित्य जगत में फ़्लर्ट करने की कला, सिर्फ दो जन जानते हैं, राजेन्द्र यादव और मनोहर श्याम जोशी। फ़्लर्ट करने का मतलब है, दोनों जन जाने रहें कि मामला, क्षणिक, मज़ेदार, रसिक या कामुक गुफ़्तगू का है, उसमें छुअन-छुआई या संजीदा जज़्बात के दखल की गुंजाइश नहीं है, फिर भी मज़ा रोमान्स का हो। उसके लिए शब्दों की जिस जादूगिरी या विट और हाज़िरजवाबी में घुली रोमानियत को अल्फ़ाज़ देने की ज़रूरत है, हमारे यहाँ कम मिलती है। मुझे याद आ रहा है, एक दिन, ख़ासी दोस्ताना बेबाकी से यादवजी ने कहा था, "जब आपको पहली बार देखा तो सोचा, एक अफ़ेयर कर डालूँ। फिर लगा, नहीं, काफ़ी ख़तरनाक औरत है।" मुझे वह बेबाकी पसन्द आई थी। इस जुमले ने उनके बेबाक कहन और मेल शॉविनिज़्म, दोनों के अहसास को पुख्ता किया था। 

इस तमाम अड्डेबाज़ी के बावजूद अगर मैं किसी गुट में शामिल नहीं हुई, किसी उठा-पटक में हिस्सेदारी नहीं निभाई, दूसरों के निजी जीवन में घुसपैठ से कतराती रही और अपने निजी जीवन को उनकी नज़रो से अजनबी बनाये रही तो उसकी वजह मेरी फ़ितरत थी, मौक़े की कमी नहीं।

1974 में 11 बरस तक साहित्यिक राजनीति से अनजान, छोटे कस्बों में कहानियाँ लिखते-छपवाते दिल्ली से बाहर बिता कर, मैं दिल्ली लौटी। उसके बाद भी, घर, बच्चों, बीमारों की देखभाल में खल्लास हुई अपनी बैटरी रिचार्च करने के लिए, अक्षर प्रकाशन में वक़्त गुज़ारने का सिलसिला जारी रहा। 

1975 में मेरा पहला उपन्यास "उसके हिस्से की धूप" वहीं से छपा। उसकी भी एक मज़ेदार कहानी है। यादवजी व नेमीजी आदि सभी उन लोगों ने, जिन्हें मेरी ख़राब लिखाई पढ़नी पड़ी थी, राय दी कि मैं एक टाइपराइटर ख़रीद लूँ। सो नया-नकोर खरीदा। टंकन सीखने का तरीका यह अपनाया कि हाथ से लिखे उपन्यास की पाण्डुलिपि को उसपर टंकित करते-करते, उसके गुर सीखे। टंकन शुरु किया तो रेमिंगटन के 70 के उस माडल में मुझे "ख" नहीं मिला। दरअसल, आधे "ख्" में डंडी मार कर पूरा बनाना होता था। वह अजब-सी शक्ल-सूरत वाला अक्षर अपन को नज़र न आया। तो किया यह कि र और व मिला कर ’ख’ के बजाय प्रयोग कर लिया। यादवजी को पाण्डुलिपि पढ़ने को दी तो वे बोले, "इस औरत को क्या परेशानी है, बार बार रवड़ी क्यों हो जाती है?” कहन का यह मज़ाहिया अंदाज़, जिसे हज़िरजवाबी या अंग्रेज़ी में विट कहते हैं और जिसका, हिन्दी में ज़बरदस्त अभाव है, उनका मौलिक और बेमेल था ही, ज़बरदस्त आकर्षण का स्रोत भी था। हाल कितना बेहाल हो, उनसे बात करके क्षण भर को सही, मन प्रफुल्ल हुए बग़ैर नहीं रहता। ख़ैर मैंने बतलाया कि मुझे टाइपराईटर में 'ख’ नहीं मिला। उन्होंने कहा, "गाजर का हलवा खिलाओ तो ढूँढ़ देंगे।” यूँ वे घर आये, मुझे "ख" मिला। उनका आग्रह था कि वे बाक़ी का उपन्यास तभी पढ़ेंगे, जब मैं पूरे का पूरा दुबारा टंकित करूँ। तो किया। यूँ टाइप करना सीखा। उपन्यास तीन भागों में विभक्त था। अनाड़ी मैं, तीसरा भाग जो "ख" की खोज के बाद टाइप किया गया था, उनके पास छोड़, पहले दो दुबारा टाइप करने के लिए ले आई। दुरुस्त करके उन्हें दे दिये। तीसरा खण्ड पहले से उनके पास पड़ा था। इतनी अक्ल न हुई कि तीनों साथ रख कर, पाण्डुलिपि मुकम्मल करके दूँ। वैसे पाण्डुलिपि उन्हें उनकी राय जानने के लिए दी थी, छापने को नहीं। छापने हेतु दूसरी प्रति, राजपाल प्रकाशन के सम्पादक, महेन्द्र कुलश्रेष्ठ को दी थी। मौखिक तौर पर वे कह चुके थे कि वे उसे छाप रहे हैं और अनुबन्ध भेजा जा रहा हैं। पर आया उपन्यास वापस, बिला वजह बतलाये। उसके लौटाये जाने का अचरज मिटा भी न था कि पुस्तक अक्षर से छप कर आ गई। जब यादवजी ने बतलाया, अप्रैल में सबमिट करने की वजह से, पुस्तक जल्दबाज़ी में छापनी पड़ी तो, मुझे याद है, खुशी के साथ डरावना ख़्याल आया, कहीं तीसरे खण्ड के बिना न छप गई हो। उनसे कहा नहीं पर तुरत 520 नम्बर की बस पकड़, दरियागंज उनके दफ़्तर पहुँची और तसल्ली की। तीनों खण्ड मौजूद थे। मेरे हद दर्जे के बौड़मपने के बावजूद, मेरी पुस्तक उन्होंने क़ायदे से छापी, उसके लिए उनकी हमेशा मम्नून रहूँगी। बहुत बरसों बाद महेन्द्र कुलश्रेष्ठ ने बतलाया कि उन्होंने उपन्यास इसलिए लौटा दिया था क्योंकि यादवजी ने उनसे कहा था कि उसे वे छाप रहे हैं। लेखक से बिला पूछे उन्होंने क्यों मान लिया और बरसों रंजिश किये क्यों बैठे रहे, उसका ताल्लुक़ मुझसे नहीं, उनके आपसी मनमुटाव से था। उठा-पटक या गुटबाज़ी की बातें न समझ पाने के कारण, इस तरह के हादसे मेरे साथ कई बार हुए। पहले मैंने इसके लिए दोष यादवजी को दिया पर अब सोचती हूँ, उन्होंने कह दिया, दूसरे ने मान लिया, यह क्या बात हुई! 

अक्षर प्रकाशन के दफ़्तर जा कर अड्डेबाज़ी करने के पीछे, उनकी लतीफ़ लफ़्फ़ाज़ी के आकर्षण का काफ़ी हाथ था। अपने जन्म दिन पर मिली शुभकामनाओं में यादगार है, उनका फ़ोन पर कहना, ”कब मरोगी?'' यूँ भी मेरी हमेशा से औरतों की बनिस्बत मर्दों से दोस्ती ज़्यादा रही थी। सो खुले माहौल में बिला ज़नाना हस्तक्षेप, मिल बैठ बतियाना, ख़ूब भला लगता था। 

यह दोस्ताना मेल जोल 1979 तक चला। 

फिर 1979 में मेरा उपन्यास "चित्तकोबरा" नैशनल पब्लिशिंग हाउस से छपा, जिनका अक्षर के साथ सहयोगी करार हो चुका था। उपन्यास पर बेहद भौंडा बवाल मचा। हर मुमकिन तरीके से स्त्री की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को खारिज करते हुए मेरी मानहानि की गई। यहाँ तक कि मुझे गिरफ़्तार भी किया गया। हिन्दी साहित्य जगत के अधिकतर बाशिन्दों ने, उस प्रताड़ना और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के हनन पर चूँ न की।

जिन्होंने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के, खास तौर पर एक स्त्री लेखक की अस्मिता के हनन पर आपत्ति उठाई, वे इतने गिने-चुने लोग थे कि नाम गिना रही हूँ। उनमें साहित्यकार भी हैं और अन्य विशिष्ट जन भी। मर्द भी हैं, औरतें भी। ये नाम हैं, सर्वप्रथम लघु पत्रिका पुनश्च के सम्पादक दिनेश द्विवेदी, फिर जैनेन्द्र, योगेश गुप्त, मृणाल पान्डे, वीरेन्द्र सक्सेना, श्रीकान्त वर्मा, मंजुल भगत, लक्ष्मीमल्ल सिंघवी और दिल्ली के उस समय के राज्यपाल, जगमोहन, बस। देखा आपने, राजेन्द्र यादव का नाम इनमें नहीं है। उस वक़्त की यादवजी की बेरुख़ी के बरअक्स, कैसे कोई यक़ीन कर सकता है कि वे स्त्री अस्मिता, स्त्री विमर्श, स्त्री वगैरह-वगैरह के पैरोकार थे? जवानी और अधेड़ावस्था में नहीं रहे तो अचानक बुढ़ापे की दहलीज़ पर कैसे हो जाते? इतनी बेसबब बात कम-अज़-कम मेरी समझ के बाहर है। इस पूरे हादसे में निशाने पर मेरा उनका दोस्त होना-न होना या दोस्त से दुश्मन हो जाना नहीं था; दुश्मन हम हुए भी नहीं थे। निशाने पर थी, तथाकथित लेखकीय स्वतंत्रता में स्त्री की बराबर की हिस्सेदारी। जब इम्तिहान का मौक़ा आया तो अन्य मर्दों और मर्द मानसिकता से आक्रान्त औरतों की तरह, वे पितृसत्ता के सबसे लिज़लिज़े मक़ाम पर आसीन; एक युवा औरत को परेशान-ज़लील करने की साज़िश का रस लेते रहे। क्या इसलिए कि वह औरत अपने बल बूते पर लिख रही थी? उसके पास न पद था, न पदवी, न किसी का वरद् हस्त, न पैसा, न राजनीतिक रोटी सिंकवा पाने की ताक़त। रस सिर्फ़ मर्दों ने नहीं, औरतों ने भी भरपूर लिया। अगर यादवजी या वे स्त्रियाँ, जो आज स्त्री विमर्श की रोटी सेंक-खा रही हैं, लेशमात्र भी स्त्री की अस्मिता के पक्षधर होते तो एक स्त्री के उस अश्लील, भौंडे चरित्र हनन और लेखकीय स्वतंत्रता के परखच्चे उड़ाए जाने पर, एतराज़ किये बग़ैर न रहते।

एक निजी बात तहाँ बतलाती चलूँ। 1980 में जब सारिका के सम्पादक का चित्तकोबरा के विरुद्ध भदेस अभियान चरम पर था, मेरी माँ की मृत्यु हो गई। यादवजी , कुछ अन्य लेखकों के साथ मेरे मैके आये। तब मेरी बहन मंजुल भगत ने उन्हें घेर लिया। चाय नाश्ता भी करवाया पर सीधा सवाल दाग़ दिया कि दोस्त यादव इस मामले में चुप क्यों थे? दोस्त तो थे, आख़िर दुश्मन तो माँ की मौत पर घर आते नहीं। चलताऊ परिचित भी नहीं। इस बात पर उसने उन पर काफ़ी लानत भी भेजी। मैंने सोचा उसके बाद वे नन्दन को लक्ष्य करके कुछ कहेंगे पर वे चुप रहे। यह बात भूलने वाली नहीं थी। मेरे मन की भावना कि राजेंद्र यादव स्त्री के अस्मिता के ईमानदार पैरोकार नहीं थे, पुख्ता हो गई। दोस्त भी वे खरे नहीं उतरे, पर यदि वे महज़ दोस्ती की वजह से, बिना यक़ीन मेरा साथ देते तब भी मुझे सही नहीं लगता। 

दरअसल, यादवजी उन दिनों, धड़ल्ले से, स्त्रियों के लेखन को ज़नाना लेखन या सुखी सम्पन्न जनों का लेखन कह कर, खारिज किया करते थे। उसी सिलसिले में मंजुल भगत की "दूत" कहानी उन्होंने हंस से लौटाई थी और मैंने उसका ज़िक्र, 1990 में अपने लेख "स्त्री चेतना, मर्द आलोचना" में किया था, जो हंस में ही छपा था। उसमें जो तकरार थी और यादवजी की आलोचना और प्रशन्सा भी, वह मुद्दों को ले कर थी। मंजुल भगत ने कहा भी था, कमाल है तू उन्हीं की पत्रिका में उनकी आलोचना कर रही है। वह इसलिए कि यादवजी जानते थे कि उसमें व्यक्तिगत कुछ नहीं था। 

यह यादवजी की फ़ितरत का सबसे खुशनुमा पहलू था। आप उन्हें गाली दे कर लेख या ख़त लिखें, वे बखुशी हंस में छापेंगे। बदनाम हुए तो क्या नाम न होगा? पर बात महज़ इतनी नहीं थी। वह वाक़ई उनकी बहुत बड़ी सिफ़त थी। आप उनसे ख़ुल कर बात कर सकते थे। उनके मुँह पर उनकी बुराई कर सकते थे। लगता वे ज़रा बुरा नहीं माने। कोई रँजिश नहीं रखी। वाक़ई ऐसा था नहीं, यह इलहाम मुझे काफ़ी बाद में हुआ। फिर भी खुली बातचीत को आमंत्रित कर पाना, उनकी एक बड़ी ख़ूबी थी। उनसे हर कोई दोस्त की तरह बातचीत कर सकता था, दोस्त की तरह पेश आ सकता था। वह चाहे जिस उम्र, लिंग या संस्कृति का हो। हमारे यहाँ पीढ़ियों के बीच के जिस दमघोटूँ अन्तर को पूजनीय माना जाता है, जो हर रिश्ते को दिखावटी और बोझिल बनाता है, यादवजी के संग-साथ में उससे मुक्त रहा जा सकता था। बिला पैर छुए, बिला हाँ जी-हाँ जी किये, बिला गर्दन झुकाये, आप उनसे सीधे मुँह, जो चाहे कह सकते थे। तभी भाईसाहब, भाभीजी, दीदी, गुरु और प्रिय आदि बनाने से परहेज़ी मैं, इतने खुले मन से अक्षर प्रकाशन में उनके साथ बैठ सकी और उन्हें अपनी रचनाएं पढ़वा कर, उनकी राय माँग सकी। हंस के माध्यम से सांस्कृतिक मय राजनीतिक ताक़त हासिल करने से पहले, मैंने उनकी साहित्यिक समझ और राय को जितना महत्व दिया, बाद में नहीं दे पाई। इसीलिए कि तब उनके लिए साहित्य, विमर्श के सहारे राजनीति करने का माध्यम बन चुका था। कृति की उत्कृष्टता नगण्य हो गई थी, उसका कृतिकार कौन है, शागिर्द या अन्य, वही सबकुछ हो गया था। पर दोस्तनवाज़ वे तब भी थे और गुफ़्तगू के लतीफ़ फ़नकार भी। 

जो हुआ उसके बावजूद, मुझे उनके लेखन के पसन्द करने लायक़ बिन्दुओं को मर्दाना या सुखी-सम्पन्न मर्दाना लेखन कह कर उड़ाने की, न अब इच्छा है, न पहले कभी हुई। उसी लेख में उनकी एक कहानी, "एक कटी हुई कहानी" पर जो मैंने लिखा था, यहाँ उद्धृत कर रही हूँ। 

”यही साहित्य सृजन का करिश्मा है कि मर्द से मर्द लेखक (अंग्रेज़ी में जिसे मेल शॉविनिस्ट कहते हैं) जाने-अनजाने शुद्ध नारीवादी कहानी लिख सकता है। रचना, अनुभूति और भावबोध की उर्वर भूमि से जन्म लेती है, तर्क और विचार की बंजर धरती से नहीं। राजेन्द्र यादव लाख ज़नाना लेखन कह कर महिला रचनाकारों की कहानियों का मखौल उड़ायें, ख़ुद वह कमाल ज़नाना कहानी लिखी है कि सात ख़ून माफ़ करने को जी चाहता है। 

”एक कटी हुई कहानी” का कथ्य कुछ विशेष नहीं है पर उसकी स्त्री पात्र कुलवंत की गढ़न ऐसी है कि पूरी कहानी को ज़नाना चेतना का जामा पहना देती है। हिन्दी कथा साहित्य में स्त्री का चित्रण करते हुए, नैतिक लटकों-झटकों से किनारा किये रहना, दुर्लभ ही नहीं दुसाध्य रहा है। यही दुसाध्य काम यादव ने इस कहानी में कर दिखाया है। कुलवंत, पैनी नज़र रखने वाली उजड्ड औरत है जिसकी ज़िन्दादिली, औरत मर्द दोनों को यकसां हमदर्द और दोस्त बनाने की ताक़त रखती है।”

यही ताक़त यादव नाम के आदमी में भी थी। 

ख़ैर कुलवंत की कहें तो, ”वह ख़ासी बेपर्दा और बदसलीका औरत है जो, मर्दों के साथ सुट्टा ही नहीं लगाती; आती-जाती जवान लड़कियों को देख, हाय-हूय भी कर लेती है। वह उन्हें मचाचा कहती है, (क्या लफ़्ज़ है। और कोई देश होता तो फ़ौरन उसे कोष में रख दिया जाता!) वह एक अजनबी औरत की निजी ज़िन्दगी के बारे में अश्लील कयास लगाने से भी बाज़ नहीं आती। पर जब तक आप नाराज़ हों, वह आपको दोस्त बना चुकी होती है। बात-बेबात हँसने वाली गज़ब की हमदर्द-हमराज़। पाठक समझ जाता है कि उसकी वह ज़िन्दादिली, ज़िन्दगी के खोखलेपन को भरने की कोशिश है। पर लेखक उसे करुणा विगलित नहीं होने देता और न ख़ुद होता है। ज़रा सोचिए, भावुकता की पकी-पकाई-परोसी थाली को लात मार, वह एक स्त्री की कहानी सपाट ढंग से कहता है और कोई नैतिक निष्कर्ष नहीं निकालता। हम सब जानते हैं हर औरत के भीतर एक कुलवंत साँस ले रही होती है। पर ज़्यादातर पुरुष उसे देख नहीं पाते। और स्त्रियाँ न देखने का ढ़ोंग करती हैं। असल में इस मिथक रहित निपट प्राकृतिक औरत का निरूपण ही फ़ेमिनिस्ट लेखन का सार है।”

कुलवंत शायद राजेन्द्र यादव का फ़ीमेल संस्करण है या आज की यादवीय भाषा में कहूँ तो यादव, कुलवंत के मेल संस्करण थे। उसी की तरह यादवजी बेहद दोस्त नवाज़ शख़्स थे। बस पहले दोस्त ज़्यादा थे, बाद में अजनबियों को नवाज़ कर शागिर्द बनाने में दिलचस्पी ज़्यादा हो गई। फिर भी दोस्त होना उनकी सबसे बड़ी ख़ूबी थी। 

कभी-कभी कोई छोटी सी सहज घटना व्यक्ति की छवि को उभारने के लिए काफ़ी होती है। यादवजी का पुरुषोचित दम्भ बात-बात पर प्रकट होता रहता था। एक बार हुआ यह कि वे और मैं सड़क पर ऑटो पकड़ने के इरादे से निकले। उन्होंने आवाज़ दे कर ऑटो रोकना चाहा तो वह नहीं रुका। तब मैंने आवाज़ लगाई, वह फ़ौरन रुक गया। औचक उनके मुँह से निकला, "क्या कर रही हो! तुम्हारी आवाज़ मेरी आवाज़ से तेज़ कैसे हो सकती है।" बात निहायत मामूली बल्कि निरर्थक लगती है। पर औचक मुँह से निकला वह जुमला उनकी प्रकृति को सही तौर पर उजागर कर गया था। 

मज़े की बात यह है कि जब तक यादवजी अपनी आवाज़ को स्त्रियों की आवाज़ से अलग जान, उसका सिक्का जमाते रहे, स्त्री लेखकों का कोई नुकसान उन्होंने नहीं किया। फ़ायदा बेशक़ किया। उनकी रचनाएं पढ़ कर, उन्हें छाप कर, उन पर अपनी राय दे कर, अच्छी-बुरी; गहरी-उथली जैसी, जब रही। नुकसान तब हुआ जब उनकी ज़ोर पकड़ रही आवाज़ के नीचे अपनी आवाज़ के दब जाने के अंदेशे ने, उन्हें उस मुक़ाम पर ला खड़ा किया कि उन्होंने सोचा, क्यों न वे औरतों की तरफ़ से बोल लें? यही नहीं, स्त्री विमर्श का नारा उछाल कर, उन्हें अपने मतानुसार बोलने के लिए मजबूर या प्रेरित करें। अक्षर प्रकाशन वह मठाधीशी ताक़त नहीं दे पाया था जो हंस के सम्पादक होने ने बख्शी। बदक़िस्मती से स्त्री विमर्श के नाम पर जो नारा उन्होंने दिया, वह बरसों पुराना, घिसा-पिटा देह की स्वतंत्रता का था। सुलभ होने के कारण, छपास की मारी, नई स्त्री लेखकों को रास आया। वे भूल गईं कि देह से परिभाषित वे हमेशा से रही हैं। मस्तिष्क को नकार कर, मात्र देह की स्वतंत्रता की आवाज़ बुलन्द करके, वे अपने को उसी कठघरे में क़ैद किये रहेगी। ज़माना पहले अमरीका में एक क़िताब छपी थी, "एवरी वुमन कैन।" (हर औरत कर सकती है)। क्या कर सकती है? मुक्त सैक्स। तब भी मेरे मन में सवाल उठा था, "डज़ शी वान्ट टू?"(क्या वह करना चाहती है?) हाँ या ना का जवाब हमें यादवजी की मर्दाना दमदार आवाज़ नहीं देगी। हर औरत की महीन आवाज़ ख़ुद तय करेगी। सामूहिक रूप से नहीं; अलग-अलग निजी तौर पर। देह से परिभाषित होने और देह को स्वतंत्रता का पर्याय मानने का क्या नुकसानदेह नतीजा होता है, आज अमरीका के उत्तर नारीवादी युग में बख़ूबी देखा जा सकता है। जब राष्ट्रपति की दावेदार होने पर, हिलेरी क्लिंटन को, भौंडे, फूहड़, सैक्सिस्ट चुटकुलों का शिकार होना पड़ा। ऐसे चुटकुले, हिन्दी के समर्थ पुरुषों की मर्दाना दारू महफ़िलों की हमेशा से शान रहे हैं और अब भी हैं। देह की स्वतंत्रता के नाम पर, लेखन की स्वतंत्रता को सीमित करके, उन्होंने स्त्री लेखन का नुकसान किया। पर ज़ाहिर है स्त्रियाँ ख़ुद उसमें हाथ न बँटाती तो वह न हो पाता। 

दुख इस बात का है कि सबसे ज़्यादा नुकसान, यादवजी ने ख़ुद अपने लेखक-आलोचक-रसिक का किया। उन्हें सुख इस बात में मिलने लगा कि एक भीड़ हर वक़्त उन्हें घेरे रहे; उनसे राय-परामर्श लेती रहे, उन्हें कभी महान तो कभी बुतशिकन बतलाती रहे। उसके लिए स्त्री विमर्श के नाम पर जो पत्ता उन्होंने चला, काफ़ी कारगर रह। तुर्रा यह कि उन्होंने औरतों को दुख का बाज़ार-हाट लगाने का मंच प्रदान कर दिया। दुख, हज़ूर, बेचने-भुनाने की नहीं, झेल कर बहादुर बनने और सृजन करने की चीज़ है। आप से बेहतर कौन जानता है? पर आपकी आवाज़ ठहरी दमदार, तेज़, आप क्यों दुख की नुमाइश लगाएंगे? वह काम तो रीं-रीं करके बोलने वाली, कमज़ोर, बेवकूफ़, देह से सीमित औरतों का है। आख़िर आपने एक स्त्री लेखक को यह कहने पर मजबूर कर दिया कि, ”हम जो आज स्त्री विमर्श से जोड़े गये रचनाकार हैं और नस्ल से स्त्रियाँ ही हैं” ... वाह जीत गये आप!

मेरे निजी जीवन के बारे में, सिरे से ग़लत जानकारी, हंस के मार्च 1993 अंक में देने के बाद, उन्होंने मुझसे कहा था कि, झूठ का प्रचार नहीं चाहती तो अपनी असल ज़िन्दगी यानी दुखों के बारे में लिखूँ। क्यों भला? मैं स्त्री हूँ इसीलिए अपने दुखों को सार्वजनिक करना होगा। हर्गिज़ नहीं। 

उस समय मैंने उन्हें एक पत्र लिखा था। उसे यहाँ देना चाहती हूँ। 

सेवा में, दिनांक 20 मार्च 1993
सम्पादक
हंस
दिल्ली

प्रिय यादवजी , 

हंस के मार्च (1993) अंक में, मुझे सम्बोधित करके आपने जो सम्पादकीय लिखा है, उसे पढ़ कर दुःख सिर्फ इसलिए हुआ क्योंकि आप ही के शब्दों में, आपकी टिप्पणी ''मिसप्लेस्ड यानी बंदर की बला तबेले के सिर" का आदर्श उदाहरण है। कभी न कही गई बातों की कल्पना करके या उनके "देव दुर्लभ'' अर्थ निकाल कर, आपने अपनी वह भड़ास निकाली है, जो स्त्री विद्रोह ने आपके भीतर पैदा कर दी है।

चूंकि मैं करोड़ों बालिकाओं-औरतों की ज़िंदगियों में घटित होने वाली घटना श्रृंखला (आभ्यंतिकरण और मालिकीकरण) के साथ, स्त्री को जोड़ कर देखती हूँ, इसीलिए कहती हूँ कि आज स्त्री जाति में भी दो वर्ग हैं, दलित और ग़ैर दलित। उसी तरह जैसे पुरुष जाति में दो वर्ग हैं, दलित और ग़ैर दलित। और चूँकि मैं करोड़ों बालिकाओं ही नहीं, बालकों की ज़िंदगियों में घटित होने वाले शोषण को भी स्त्री से जोड़ कर देखती हूँ, इसीलिए मैंने ''जादू का कालीन'' नाटक लिखा है और ''वह मैं ही थी'' कहानी। आप ग़ैर दलित मर्द हैं, इसलिए अच्छी तरह जानते हैं कि जब तक दलित अपने को कमतर मानने के अहसास से मुक्त नहीं होंगे, उनके भीतर क्रोध का लावा नहीं फूटेगा। वे अपनी सामाजिक स्थिति से विद्रोह नहीं करेंगे और उस आभ्यंतिकरण से छुटकारा नहीं पाएंगे, जिसके बने रहने पर ही आप अपने ग़ैर दलित मर्दाना अहम को पोस सकते हैं। उतनी ही अच्छी तरह आप यह भी जानते हैं कि जब तक स्त्री अपने को कमतर मान कर दलित होने की आत्म-दया में डूबी रहेगी, वह विद्रोह नहीं करेगी। और यही आप चाहते हैं। 

मुझ पर आपका गुस्सा इसीलिए है कि क्योंकि आप यह बर्दाश्त नहीं कर सकते कि कोई स्त्री, पुरुष द्वारा निर्धारित कसौटियों के आभ्यंतिकरण से विद्रोह करे और आपकी नकली करुणा को ठुकरा दे।

अगर सारी स्त्रियों को दलित बतलाने से, चाहे वे जिस वर्ग से हों, आपका मर्दाना अहम् तुष्ट होता है तो ज़रूर शौक़ फ़रमाइए। पर उनसे यह अपेक्षा मत कीजिए कि वे आपके इस मालिकाना निष्कर्ष का आभ्यंतिकरण करके, ''हाय अबला जीवन तेरी यही कहानी” की तर्ज पर आँसू बहाती, निष्क्रिय पड़ी रहेंगी। 

आपकी माँ ने चाहे जो कहा हो, आज हर स्त्री अपने शरीर को भुनाने को तैयार नहीं है। बहुत सी ऐसी स्त्रियाँ हैं, जो नामदेव ढसाल के ''क्रोध” को भीतर सुलगा कर, इस मानसिकता से विद्रोह कर रही हैं। उन्हें आप दलित कह कर, अपने पाँव तले नहीं खींच ला पाएंगे। आम बहस में निजी बात कहने की ज़रूरत नहीं होती पर चूँकि आपने कुछ निहायत निजी कटाक्ष किये हैं, इसलिए मैं कानून और विधि के नियमों का पालन करते हुए, उस खिड़की का प्रयोग कर रही हूँ जो आपने खोली है। 

मेरा विवाह एक निहायत दकियानूसी, निम्न मध्यवर्गीय परिवार में हुआ था। पति ने बाद में तरक्की भले कर ली हो पर आज तक उस पूरे परिवार में से (पति को छोड़कर) किसी ने मेरी एक कहानी तक नहीं पढ़ी। इतना वे ज़रूर जानते हैं कि मैं लिखती हूँ और काफ़ी कुछ आपत्तिजनक भी। फिर भी मैं ”मालिकों की इच्छा, स्वार्थ और सम्मान के विरुद्ध” अपना करियर, मित्र बन्धु, स्नेही-प्रेमी, आना-जाना, विचारधारा, जीवन शैली चुन पाई तो सिर्फ इसलिए कि मैंने आत्मदया का उत्सव नहीं मनाया। बाहरी मर्द मालिकों ने एड़ी चोटी का ज़ोर लगाया फिर भी ”चित्तकोबरा” पर मचाया गया बावेला मुझे घर से सड़क पर नहीं ला सका और न मेरे परिवार को मुझसे तोड़ सका। 

पर आप निराश न हों। आपकी हमदर्द-हमराज़ बीसियों औरतों को मैं जानती हूँ, जो हर तरह से स्वतंत्र-सम्पन्न होने के बावजूद, ख़ुद को दलित बतलाती हैं और बाक़ायदा रोती-कलपती-झींकती हैं। पर दलित वर्ग की स्त्री के लिए तनिक सा सोच-विचार करने को तैयार नहीं हैं। आत्मदैन्य का उत्सव आत्मरति की तरह होता है। परवर्ट सुख से भरपूर। ख़ासकर तब जब आप जैसे दम्भी ”मर्दाना” पुरुष पीठ ठोंक कर करुणा की बौछार कर रहे हों। मेरी जैसी औरतें दलित होंगी भी तो, उनके भीतर क्रोध फूटेगा, मर्दाना दया की भूख नहीं। जो औरतें मालिकिकरण से पीड़ित हैं, वे अपने लिए कराह कर रह जाती हैं, दूसरी औरत की मदद के लिए आगे नहीं बढ़ पातीं।

अभी पिछले दिनों एक कॉलेज में जाना हुआ। सम्पन्न-शिक्षित लड़कियों ने पूछा, हम भला स्त्री की स्थिति में सुधार लाने के लिए क्या कर सकती हैं, हम तो ख़ुद दलित हैं। मैंने कहा, चलो और कुछ नहीं तो इतना ही कर लो कि हर लड़की अपने से कम भाग्यशाली लड़की को पढ़ा दे। उनका जवाब था, हमें अपनी समस्याओं से फ़ुर्सत नहीं है, हम किसी और को, मदद के लिए कहाँ ढूँढती फिरें। मैं जानती हूँ कि इस आत्मकेन्द्रित आत्मदैन्य को पालने वाली स्त्रियाँ आपकी बात की पुष्टि करती हैं, यानी बेचारी स्त्री अपने को बेचारा मानती है, मानती रहेगी और आपको नकली करुणा के आँसू बहाने का मौक़ा देती रहेगी। 

यादवजी, आपकी तरह ये लड़कियाँ भी दिल्ली की पॉश कॉलोनियों में रहती हैं। अपने सिवाय किसी और को देख नहीं पातीं। और न असहमति बर्दाश्त कर पाती हैं। पर चूँकि मैं कस्बों से होती हुई, समाज के थोपे पुरुषोचित निर्देश और अनुग्रह, दोनों से संघर्ष करके यहाँ पहुँची हूँ, इसलिए मुझे स्त्रियों में अनेक वर्ग दिखलाई देते हैं। दलित और ग़ैर दलित, दोनों। आपका मर्दाना अहम् हमें दलित मान कर पोषित होता है तो मान लीजिए। मेरे विरोध करने से क्या होता है? मालिक तो आप हैं न? जो फ़तवा आप जारी करेंगे वही मान्य होगा। ऐसी औरतें आपको बेशुमार मिल जाएंगी, जो आपके मालिकाना अहम् को सहलाएगी, पालेंगी, पोसेंगी। पर मेरे दोस्त, कुछ थोड़ी सी स्त्रियाँ ऐसी भी मिलेंगी, जो आपसे असहमत होंगी, आपके फ़तवे के ख़िलाफ़ विद्रोह करेंगी। 

विरोध का पहला क़दम है, यह बोध कि वे दलित (कमतर) नहीं हैं। दूसरा क़दम है, अपने कमतर न होने का सार्वजनिक ऐलान। तीसरा क़दम है, करोड़ों शापित बालिकाओं-औरतों के साथ करोड़ों शोषित बालकों को स्त्री से जोड़ कर देखना, जिससे दलितों के प्रति नकली करुणा नहीं, असली संवेदना पैदा हो सके।

छोड़िए। यह बतलाइए, हिन्दुस्तानी मर्द हमेशा माँ की आड़ ले कर वार क्यों करता है? ज़रा आंचल से बाहर निकल कर देखिए, आपकी माँ ने चाहे जो कहा हो, हैरी कुक्सन और राजेन्द्र यादवजी, पर आज ऐसी भी कुछ माँए हैं जो अपने बच्चों को ''मर्द” बनने की घुट्टी नहीं पिला रहीं। उम्मीद की जा सकती है कि ये बच्चे, बड़े हो कर, हर औरत को कमतर(दलित) मानने से बाज़ आ जाएंगे और शोषित औरतों को पूरे सामाजिक परिप्रेक्ष्य में देख पाएंगे। 

एक छोटी सी जिज्ञासा। इन्दिरा गान्धी ने बहुतों को नहीं बख्शा, सो तो मालूम है पर उसे किसने नहीं बख्शा? जहाँ तक स्कैण्डल का सवाल है, वे तो हज़ूर आपके भी काफ़ी फ़ैलाये जाते हैं जबकि आप न दलित हैं न स्त्री। इससे मेरा मतलब यह कदापि नहीं है कि चूँकि इन्दिरा गान्धी दलित नहीं थीं इसलिए कोई औरत दलित नहीं है। गोष्ठी में मैंने ऐसा कुछ नहीं कहा था। सिर्फ दलितों की तरह स्त्रियों में भी कई श्रेणियों के पैदा होने की बात कही थी। आपने जो अर्थ निकाला, वह आपके पूर्वग्रह के चलते था, और शायद इसलिए भी कि कोई दलित (स्त्री) आपसे असहमत होने का, यानी आपके मालिकिकरण को नकारने का, दुस्साहस कैसे कर सकती है।

स्स्नेह

मृदुला गर्ग
ई 118 मस्जिद मोठ, जी के 3, 
नई दिल्ली 110048 
दिनांक 20 मार्च 1993 ( उन दिनों मेरा यही पता था। )

उन जैसे मर्द लेखक ने ज़नाना कहानी लिखी, उस रचनात्मकता को मेरा सलाम। ऐसे बेबाक लेखक ने, ज़बरदस्ती स्त्री विमर्श के नाम पर, उस्तादी करके अपना और स्त्री लेखकों का जो नुकसान किया, उसे मैं अपनी करुणा दे पाने के भी नाक़ाबिल हूँ। 

फिर भी दोस्त राजेन्द्र यादव का एक एहसान नहीं भूलूंगी - यहाँ याद कर रही हूँ। 1993 सितम्बर में अपने जवान पुत्र की एक्सिडेन्ट में मृत्यु के बाद कुछ बरस तक मैंने कुछ नहीं लिखा। उन दिनों यादवजी का कई बार फ़ोन आया कि कोई कहानी हंस के लिए दो। मेरे यह कहने पर कहानी न लिखी है, न लिख पाऊंगी। उन्होंने कहा, एक उपन्यास लिखा है न अभी, उसका अंश भेज दो। तब तक उपन्यास छपने नहीं दिया था, यूँ ही अलमारी में बन्द पड़ा था। यही मैंने उनसे कहा। उन्होंने कहा, तो उसे निकालो भई और एक अंश छाँट कर भेज दो। मैंने कहा, मेरे बस का नहीं है। उन्होंने कहा, यह तो करना ही पड़ेगा, उठो जा कर देखो। आप यक़ीन नहीं करेंगे पर दिन में छ्ह-सात बार उनका फ़ोन आ गया, "देखा? नहीं… तो देखो न यार। अभी।" आखिर मैंने उठ कर अलमारी खोल कर पाण्डुलिपि निकाली और एक अंश, जो अपने में पूर्ण था, उन्हें भेजा। मैं जानती थी वे हंस में उपन्यास अंश नहीं छापते। उन्होंने उसे बतौर कहानी ही छापा। यह संवेदनशील मित्रता की एक मिसाल थी। उपन्यास 1996 में ज्ञानपीठ से छपा। हंस में उसकी दो तीन समीक्षाएं छपीं, जो किसी मित्रता के कारण नहीं थीं। यानी साहित्य अपनी जगह था और दोस्ती अपनी जगह। आप यह भी समझ गये होंगे कि उस त्रासदी की वजह से ही मैंने फिर कभी उस पत्र का ज़िक्र नहीं किया। 

मैं अन्य दोस्तों की तरह नहीं थी, जो सिर्फ़ दोस्त होने के साथ हंस में छपते भर नहीं थे बल्कि जिनकी हर साहित्यिक और जेन्डर व जीवन दृष्टि यादव तय करते थे। मेरी और यादवजी की बहस और तकरार हमेशा मुद्दों को ले कर रही थी और बराबर चलती रही थी। मेरे पत्र और लेख को उन्होंने मुझसे कहानी का आग्रह करने से नहीं रोका। जबकि बहुत सी ऐसी स्त्री लेखक थीं, जिन्होंने मेरी त्रासदी के समय मुझे कमज़ोर जान कर मुझ पर आक्षेप लगाये थे और मेरे उपन्यास कठगुलाब को राजकमल प्रकाशन में छपने से रोका था। मुझ पर कटाक्ष करते उनके लेख 1993 में ही हंस में बेशक़ छपे पर मेरे उपन्यास की समीक्षा पर उनका असर नहीं दीखा। 

एक बात और थी। चाह कर भी बहुत दिनों तक वे दुख में साथ नहीं दे सकते थे, मैं दुख के बावजूद भरपूर हँस सकती थी पर उसके लिए मुझे वक़्त चाहिए था, जो उनके पास नहीं था। लिहाज़ा धीरे-धीरे हमारी दोस्ती, उनकी मशहूरियत और साहित्यिक आपा-धापी के बीच कमज़ोर पड़ती गई। यानी हंस के दफ़्तर में मेरा आना जाना पूरी तरह खत्म हो गया पर आपसी संवाद नहीं। पर उसमें भी काफ़ी कमी आ गई।

पर उनके लेखन की मैं हमेशा प्रशंसक रही हूँ और रहूँगी। उनका लेखन तो उन दिनों से मेरे सामने रहा था, है जब मैं बी.ए, एम.ए कर रही थी। तब उसे भोगा हुआ यथार्थ कहने का फ़ैशन था। पर राजेन्द्र यादव का लेखन मात्र भोगा हुआ यथार्थ नहीं था, जैसा कि आजकल दलित या स्त्री लेखकों की आत्मकथाओं में होता हैं। उसमें यथार्थ की कई-कई परतें थीं। बौद्धिक, भाषाई, शिल्पगत और जज़्बाती। भाषा पर इतना ज़बरदस्त अधिकार, सत्य की परतें उघाड़ने पर ही हो पाता है। मुझे उनके उपन्यासों की बनिस्बत उनकी कहानियाँ ज़्यादा पसन्द हैं। ‘टूटना’, हो या ‘मिसेज़ तेजपाल’ या ‘छोटे छोटे ताजमहल’; वे लेखकीय दम्भ का अतिक्रमण करने वाली, ऐसी कहानियाँ हैं जिन में दुख पर हँसने की असीम शक्ति है। वही शक्ति यादवजी की पूँजी थी। 

और मैं समझती हूँ, तुम मानोगे, मेरे दोस्त, मेरी भी। 

मृदुला गर्ग
ई 421( भूतल) जी के पार्ट 2
नई दिल्ली 110048

(ये लेखक के अपने विचार हैं।)

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