चौबीस छत्तीस ज़ीरो वन ~ इरा टाक | Hindi Novel, Era Tak - Chaubis Chhattis Zero One

हिन्दी साहित्य की दुनिया (कहीं-कहीं तथाकथित) में विचरण करते करते वहाँ के निवासी भूल जाते हैं कि हिन्दी की एक और दुनिया है जो उनकी वाली से बड़ी है। कथाकार इरा टाक दोनों संसारों में अच्छा काम कर रही हैं। पढ़िए उनके हाल में ही प्रकाशित रोचक और पठनीय उपन्यास "चौबीस छत्तीस ज़ीरो वन" (राजपाल प्रकाशन) का कुछ हिस्सा। ~ सं0 


Chaubis Chhattis Zero One, Hindi Novel by Era Tak


चौबीस छत्तीस ज़ीरो वन

इरा टाक

इरा भाकुनी टाक लेखक, चित्रकार और फिल्मकार हैं। बीकानेर में जन्मी इरा आगरा विश्वविद्यालय से बीएससी , एमए (इतिहास ), और मास कम्युनिकेशन में स्नातकोतर डिप्लोमा हासिल किये हुए हैं। जयपुर की इरा, वर्तमान में मुंबई रह कर अपनी रचनात्मक यात्रा में लगी हैं। वे भारत में हिंदी ऑडियो स्टोरी की दुनिया में लेखक के रूप में जाना पहचाना नाम है। वो जेएलएफ, साहित्य आजतक जैसे बड़े साहित्यिक जलसों में वक्ता रह चुकी हैं।
लेखकीय यात्रा: तीन काव्य संग्रह - अनछुआ ख़्वाब, मेरे प्रिय, कैनवस पर धूप / कहानी संग्रह - रात पहेली, कुछ पन्ने इश्क़ / नॉवेल - लव ड्रग, चौबीस छत्तीस ज़ीरो वन / ऑडियो नावेल (Storytel)- गुस्ताख इश्क, प्यार के इस खेल में / ऑडियो बुक्स- मेरे हमनफ़स, ये मुलाक़ात एक बहाना है, किलर ऑन हंट, रिज़र्व सीट, पटरी पर इश्क़, रंगरेज़ पिया आदि (Storytel) / लाइफ लेसन बुक्स- लाइफ सूत्र और  RxLove366 / फिल्ममेकर के रूप में पांच शॉर्ट फिक्शन फिल्म्स - फ्लर्टिंग मैनिया, डब्लू टर्न, इवन दा चाइल्ड नोज, रेनबो और अक्षर
इस समय वो बॉलीवुड में पटकथा (script writing) लेखन कर रहीं हैं। चित्रकार के रूप में वे दस एकल प्रदर्शनियां कर चुकी हैं।
मुख्य अवार्ड्स- चंदबरदाई युवा रचनाकार पुरस्कार, 2017, प्राउड डाटर ऑफ इंडिया, 2017, सरोजनी नायडू अवार्ड, 2018, स्त्री शक्ति पुरस्कार, मुंबई 2023


हकीम शाहिद अब्बास कल रात ही मुरादाबाद से लौटे थे। मुरादाबाद में उनकी चचाजात बहन रहती थी, चार-पांच महीनों में उनका एक चक्कर वहां लग ही जाता था, वो शहर पीतलनगरी के नाम से  मशहूर है तो वहां बाज़ार में घूमते हुए उनकी नज़र एक बेहद खूबसूरत नक्काशीदार चिलमची पर टिक गयी, थोड़ा मोल भाव करते हुए उन्होंने तुरंत गज़ाला बेगम के लिए खरीद ली। रात बड़ी मुश्किल से काटी और सुबह ही चाणक्य मिष्ठान भंडार से एक किलो कड़क जलेबी तुलवाई, जानते थे कि बेगम साहब को जलेबियाँ बेहद पसंद हैं। तो जलेबी और चिलमची बगल में दबाये हुए, अलसुबह ही हवेली के दरवाज़े पर पहुँच गये। चाय की महक उनके नथुनों में दाखिल हुई।

-सलाम आले कुम गज़ाला मैम।

“मैम” सुनकर गज़ाला को हैरानी हुई, मगर उन्होंने नज़रन्दाज़ करते हुए सिर झुकाया- 

-वालेकुम असलाम हकीम साहब! इतनी सुबह कैसे? सब खैरियत तो है?

-अल्लाह का फज़ल है, सैर पर निकला था, चाणक्य के यहाँ जलेबी छनती हुई नज़र आ गयी, तो आपकी याद आ गयी, बस फिर क्या था आपके लिए तुलवा लाया, आपके बहाने हम भी थोड़ी बहुत चख लेंगे। 

-शाहिद मियां! बहाने हमारे आती है लेकिन खाते तो आप ही ज्यादा हैं। आप सैर पर वजन घटाने जाते हैं या बढ़ाने? एक किलोमीटर की सैर के बाद एक किलो जलेबी खा कर किसका वजन कम हुआ है भला? अपनी हकीमी ख़ुद पर भी तो लागू किया करें।

-अरे अब किसके लिए घटाना है, कोई अपना हो जो फ़िक्र करे तो मन भी करता है।

वो बात-बात में अपनी मुहब्बत का इजहार करने से नहीं चूकते थे।

-और एक किलो मैं अकेला थोड़े ही खा जाऊंगा, आप हैं, सकीना है और अपना हुसैन है,  सब मिल कर खायेंगे। 

फिर अपनी ही बात पर जोर से हँसते हुए उन्होंने सकीना को जोर से पुकारा,

-अरे सकीना, भई ज़रा चाय तो पिलवाओ।

-जी हकीम साहब बना रही हूँ।

सकीना ने रसोई से जवाब दिया, उसे मालूम था कि शाहिद मियां को अदरख इलायची वाली चाय बहुत पसंद थी। वैसे बहाना तो चाय का होता था, मिलना तो उनको बेगम साहब से होता था। सकीना और हुसैन इस बात पर पीछे उनका खूब मज़ाक उड़ाते थे। 

इतने में हुसैन ब्रश करते हुए आँगन में आ गया,

-हाँ चचा, बात तो सही कह रए तुम, किसको फ़िक्र है तुम्हारी, लेकिन मय्यत उठाने वालों की तो कमर टूट जायेगी न, जे सोच के ही वजन घटा लेयो।

-लाहौल बिला कुवत, न दुआ न सलाम, मुंह खोलते हो तो मनहूसियत निकलती है।

-सलाम चचा, क्यों भड़क रहे हो? पहले ये बतावो कि सुबह-सुबह कैसे धमक पड़े?

शाहिद मियां हुसैन की चुहलबाजी से चिढ़ जाते,

-बरखुदार थोड़ी तमीज़ सीखिए, जलेबी लेकर आया हूँ आप भी खा लीजिये। जबान में मिठास आएगी, थोड़ी कड़वाहट कम होगी।

-आप ही ठूंसिये, हम जरा डाइटिंग कर रहे हैं। प्रोटीन शेक पीकर जिम जायेंगे अभी।

बेगम साहब को हंसी आ गयी,

-अरे हकीम साहब, आप इसकी बातों का बुरा न माने, बच्चा है।

-बच्चा? ठूंठ हो गया है। काम पर लगाइए इसको, ख़ाली दिमाग है तो शैतान कब्ज़ा किये बैठा है।

-तुम अपने काम पर ध्यान दो बुढ़ऊ! दवाई की पुड़िया बांटते रहो, फालतू ज्ञान न बांटो।

शाहिद मियां का मन किया कि एक ज़ोरदार चपेट हुसैन के मुंह पर लगा दें पर बेगम साहब का लिहाज़ कर के वो ज़हर का घूँट पी गये। हुसैन उनको और वो हुसैन को एक आंख नहीं सुहाते थे। उनको हमेशा लगता था कि हुसैन की वजह से ही बेगम साहब ने उनसे निकाह नहीं किया, दूसरी तरफ़ हुसैन को लगता था कि शाहिद मियां उसकी अम्मी जैसी बेगम साहब पर लाइन मारते रहते हैं, कहीं एक दिन वो इस घर में दूल्हा बन के न आ जाएँ और रिश्ते में उसके बाप हो जाएँ!

दोनों का वाक युद्ध ख़त्म होते न देख आखिर बेगम साहब को बीच बचाव में उतरना पड़ा, उन्होंने हुसैन को आंख दिखाई,

-हुसैन ज्यादा जुबान न चलाओ वरना मुंह पर “बदायूं छाप देंगे”।

“बदायूं छाप देंगे”, उनका तकिया कलाम था जो अक्सर वो गुस्से में बोलती थीं। दरअसल बदायूं जो उत्तर प्रदेश का काफ़ी बड़ा लेकिन पिछड़ा जिला है, उसका नक्शा जूते जैसा है, तो जूता न बोल कर वो बदायूं ही बोल देतीं, ताकि उनकी बात भी पहुँच जाए और सामने वाले को ज्यादा बुरा भी न लगे। 

हुसैन कसमसा कर रह गया और सिर झुका कर आँगन के कोने में बने वाश बेसिन पर कुल्ला करने लगा। सकीना तब तक चाय ले आई, इस वजह से सुबह में घुल रहा तनाव कम हो गया।

-लीजिये! हकीम साहब, आप तो अदरख वाली चाय पीजिये। 

-लाओ भई, बहुत बहुत शुक्रिया। लो सकीना ये जलेबी प्लेट में डाल लाओ।

बेगम साहब को चाय पकड़ा कर सकीना जलेबी का पैकेट उठा कर रसोई की तरफ बढ़ गयी। हुसैन ने आकर स्टूल से अपना कप उठा लिया, तभी उसकी नज़र हकीम साहब के पैरों के पास में रखे झोले पर पड़ी। 

-ये क्या बखेड़ा उठा लाये?

इससे पहले कि शाहिद मियां उसे रोक पाते, उसने झोले से चिलमची निकाल ली, चमचमाती नक्काशीदार पीतल की चिलमची।

-छोड़ नामुराद, बिना पूछे मेरी चीज़ें न छुआ कर।

शाहिद मियां ने चाय का कप एक तरफ रख कर चिलमची छीन ली।

बेगम और सकीना मुंह खोले ये सब देख रहीं थी। फिर बेगम ने कड़क आवज़ में पूछा-

-ये क्या है शाहिद मियां?

शाहिद मियां एकदम से नर्वस हो गये, वो तो आराम से चाय पीकर, जलेबी खिला कर मीठा माहौल बना कर गज़ाला को ये चिलमची तोहफे में देना चाहते थे लेकिन हुसैन ने सारा खेल ही बिगाड़ दिया, जैसे पहली ही बॉल पर कोई क्लीन बोल्ड हो जाए। वो हकबका कर बोले,

- आपके लिए गिफ्ट है, मुरादाबादी चिलमची! ख़ास आपके लिए। कल काम से मुरादाबाद गया था तो सोचा आपके लिए नई चिलमची खरीदी जाये, कहाँ आप उस पुरानी चिलमची में अपनी जान उलझाये रहती हैं? ये काफ़ी महंगी है, पूरे साढ़े तीन हज़ार की। अब फेंकिये उस पुरानी चिलमची को और ये नई लीजिये।

ये सुनते ही सकीना के हाथ से जलेबी की प्लेट छूटते-छूटते बची। वो समझ गयी थी कि अब शाहिद मियां पर बम गिरेगा और गर्दा सारे आंगन में फैलेगा। इस दुर्घटना का इतिहास, किताबों में लिखा जाएगा, सकीना हैरान थी कि कैसे शाहिद मियां आज ख़ुद को फ़ना करने को आ गये। उसने मन ही मन शाहिद मियां की सलामती की दुआ मांगी। बेगम साहब अब तक टोरनाडो का रूप इख्तियार कर चुकी थीं।

-शाहिद मियां आपकी हिम्मत कैसे हुई, हमारी खानदानी चिलमची की बराबरी इस बाजारू मुरादाबादी चिलमची से करनी की? आप जानते भी हैं कि उसके साथ हमारे कितने ज़ज्बात जुड़े हुए हैं? हमारी अम्मी साहिब, नानी साहिब, परनानी साहिब और न जाने कितनी पुरखिन के ज़ज्बात जज्ब हैं इस चिलमची में! चमकती चीज़ देख कर पुरानी मुहब्बत नहीं भुलाई जाती। दफ़ा हो जाइए अपने साढ़े तीन हज़ार की चिलमची लेकर और दोबारा कभी अपनी शक्ल न दिखाईयेगा।

बेगम साहब का गुस्सा देखकर एक बार तो तीनों सन्न रह गये। फिर हुसैन की हंसी फूट पड़ी। बेगम ने जलती हुई निगाह से उसकी तरफ देखा तो वो रसोई में अपना प्रोटीन शेक बनाने घुस गया। गार्गी के दिल्ली जाने के बाद से ही उसने रनिंग के साथ-साथ जिम भी स्टार्ट कर दिया था, गार्गी की बातों का उसके ऊपर ख़ासा असर हुआ था, वो एसआई की तैयारी करना चाहता था, बहुत साल उसने आवारगी और निकम्मेपन में गुज़र दिए थे, अब वो भी बेगम साहब की आँखों में वो गर्व देखना चाहता था जो सुमन की आँखों में गार्गी को लेकर था। 

वैसे तो वो दिन भर मस्मौला रंगबाज़ बना घूमता था पर कई बार उसका मन उसको कचोटने लगता था- मैं कौन हूँ, कहाँ से आया, मेरे असली मां-बाप मुझे अकेला क्यों छोड़ गये, बेगम साहब मुझे नहीं पालती तो क्या मुझे इतना अच्छा घर नसीब होता, मैंने बेगम साहब को क्या दिया, गार्गी ने तो हजारों मुश्किलों के बाद भी अपनी लाइफ सेट कर ली पर मैंने आज तक क्या किया? घर बाहर के कुछ कामों के अलावा मैंने ज़िन्दगी में क्या हासिल किया जिसकी वजह से मुझे जाना जाए, गुमनामी से आया था और गुमनाम ही न रह जाऊं, ऐसे कई सवाल रात होते ही उसके दिमाग में रेंगने लगते थे। इस बार उसने बीए फाइनल ईयर टॉप करने की कसम उठा ली थी। सबके सो जाने के बाद रात दो बजे तक पढ़ाई में लगा रहता, वो इस बार बेगम साहब को सरप्राइज देना चाहता था।

खैर फिलहाल शाहिद मियां पर आते हैं, बेगम साहब के छोड़े हुए तीर उनको लहुलुहान कर चुके थे। उनको समझ ही नहीं आ रहा था कि अचानक ऐसा क्या हो गया, जैसे गहरी चोट लगने के कुछ सेकंड्स तक दर्द का अहसास नहीं होता, संवेदना शून्य हो जाती है, फिर धीरे-धीरे दर्द की तीव्रता होश को वापस लाती है। उन्होंने ख़ुद को समेटा, एक गहरी सांस लेकर बेगम साहब की तरफ देखा जो अभी भी उनको घूर कर देख रहीं थीं।

शाहिद मियां का गोरा रंग गुस्से और अपमान से लाल हो चुका था। उन्होंने तिलमिलाते हुए चिलमची को झोले में डाला और चाय अधूरी छोड़ कर निकल गये। बेगम भी अपने कमरे की तरफ बढ़ गयी। सकीना सहमी हुई सी रसोई में आटा माढने लगी थी। बेचारे शाहिद मियां सोच कर आये थे कि बेगम चिलमची में अपना दिल निकाल कर दे देंगी लेकिन यहाँ तो दांव ही उल्टा पड़ गया था।

लावारिस-सी प्लेट पर पड़ी जलेबियों पर मक्खियाँ आपका हक जताने को भिनभिनाने लगी थीं।

ऐ मोहब्बत तिरे अंजाम पे रोना आया
जाने क्यूँ आज तिरे नाम पे रोना आया
    ~ शकील बदायुनी 

इतनी ज़िल्लत शाहिद मियां ने अपनी अट्ठावन साल की ज़िन्दगी में कभी नहीं सही थी। चिलमची को आंगन में पटक कर वो सीधे अपने कमरे की तरफ बढ़ ही रहे थे कि गीले फर्श पर उनका पैर फिसल गया। रुबीना ने अभी-अभी पोछा लगाया था, रुबीना उनके घर में सारा काम संभालती थी। धड़ाम की आवाज़ सुनकर वो दौड़ती हुई रसोई से निकली,

-अरे लगी तो नहीं हकीम साहब?

तब तक शाहिद मियां उठ चुके थे और अपनी कमर पकड़े खड़े थे, रुबीना को देखते ही उनका पारा चढ़ गया।

-बस मेरी कब्र खुदने की देर है, सूर-ए-फातिहा पढ़े जाने के इंतज़ाम तो पूरे किये हैं तुमने।

रुबीना ने चौंकते हुए अपना दुप्पट्टा मुंह पर लगा लिया, वो सोचने लगी कि सुबह तो घर से बड़े अच्छे मूड में निकले थे अब इन पर कौन सी गाज गिर गयी तो इतना ज़हर उगल रहे हैं।

-या अल्लाह, हकीम साहब कैसी मनहूस बातें कर रहे हैं? सुबह-सुबह कोई बिल्ली रास्ता काट गयी क्या?

शाहिद मियां ने घूर कर रुबीना की तरफ देखा और कमरे में घुस कर जोर से दरवाज़ा बंद कर लिया। रुबीना भी बड़बड़ाती हुई रसोई की तरफ बढ़ गयी।

हकीम साहब बिस्तर पर औंधे पड़े हुए आंसू बहा रहे थे। उनको लग रहा था जैसे उनकी दुनिया ही उजड़ गयी, कोई साथ देने वाला नहीं, पहले दिल टूटा फिर रुबीना की वजह से कमर भी टूट गयी। मूड की बैंड बजी हुई थी, उनका मन कर रहा था कि कोई जलजला आये और दुनिया खत्म हो जाए। दर्द और नहीं सहा जा रहा था, वो बुरे ख़यालों के समंदर में गोते लगा ही रहे थे कि दरवाज़े पर खटखटाहट हुई, रुबीना ने मीठी आवाज़ में पूछा,

-हकीम साहब, दूध हल्दी बना दूँ, कोई गुम चोट होगी तो निकल जायेगी?

हकीम साहब ने कोई जवाब नहीं दिया, मुंह फुलाए लेटे रहे। रुबीना ने दोबारा आवाज़ लगाई,

-हकीम साहब! आप ठीक तो हैं?

- मैं सौ फ़ीसदी ठीक हूँ, मुझे आराम करने दो।

- शुक्र है ख़ुदा का, अच्छा हकीम साहब आज खाने में क्या बनाऊँ?

-मुझे भूख नहीं है, तुम सफ़ाई कर के निकल जाओ और सुनो शाम को भी मत आना, हो सकता है आज मुझे बाहर जाना पड़े।

-दो पराठे सेंक जाऊं नाश्ते को? रात की कीमा कलेजी फ्रिज में रखी है, उसके साथ खा लीजियेगा।

-अरे बोला न तुमको, जाओ, मुझे भूख नहीं है।

रुबीना चुपचाप निकल गयी। उनकी बीवी रसूलन बी के इन्तकाल के बाद रुबीना ने ही घर संभाला था। बेटा तो पहले ही दुबई जा चुका था। अपनी अम्मी के इन्तकाल पर दस दिन को ही आया था। पहले तो रुबीना बस साफ़ सफ़ाई करती थी, बाद में खाना भी पकाने लगी। हकीम साहब वैसे तो उसको अपनी बेटी की तरह मानते थे पर कई बार उस पर चिढ़चिढ़ा भी जाते थे। रुबीना उनकी उम्र का लिहाज़ रख कर कभी बुरा नहीं मानती थी क्योंकि वो जानती थी, वो उसके ही भरोसे हैं, इसलिए जब कभी हकीम साहब की चिढ़चिढ़ से उसका दिमाग ज़्यादा ख़राब हो जाता तो वो दो-तीन दिनों की छुट्टी मार लेती, तब जाकर शाहिद मियां का दिमाग ठिकाने आता वो जैसे-तैसे रुबीना की सारी शर्तें मान कर उसको मना लाते। 

रुबीना का शौहर इकबाल ऑटो चलाता था, जब कभी हकीम साहब को कहीं जाना होता तो फ़ोन करके उसी को बुला लेते। पिछले साल इकबाल ने हकीम साहब के बेटे से पैसे उधार लेकर कार भी खरीद ली, जिसको वो टैक्सी के रूप में चलाता था। तब से हकीम साहब भी कार से जाने लगे थे, बेगम साहब को भी जब कभी बाहर जाना होता तो वो इकबाल से कार मंगाया करती थीं। इस तरह एक ये कड़ी भी बेगम साहब और शाहिद मियां की जुडती थी। बेगम साहब कब कहाँ जा रही हैं ये खबर इकबाल, रुबीना को और रुबीना, शाहिद मियां को दे देती। 

अभी रुबीना कपड़े धो कर चुपचाप घर से चली गयी।

शाहिद मियां अभी भी कमरे में बंद थे, वो बेहद दुखी थे, बेगम साहब उनसे अकेले में कुछ भी कह देती तो वो बर्दाश्त कर लेते पर आज उन्होंने हुसैन और सकीना के सामने उनका और उनकी पाक मुहब्बत का तमाशा बना दिया।

क्या गलती थी उनकी? यही न कि वो एक चिलमची उनके लिए ले गये थे। हुसैन तो शुरू से उनकी आँखों में खटकता था और आज तो हद ही हो गयी।

बेगम से बेपनाह मुहब्बत करके भी शाहिद मियां को क्या मिला?

उन्होंने अपने कुरते की बाजू से अपनी गीली ऑंखें साफ़ की, तभी उनका फ़ोन बज उठा।

नासिर था उनका एकलौता बेटा। इंजीनियरिंग कर के वो दुबई चला गया था, पिछले बारह साल से वहीँ सेटल था। मन तो नहीं था पर मन को मार कर हकीम साहब ने फ़ोन उठा लिया।

- हेलो  

-सलाम अब्बू।

-खुश रहो बेटा।

-क्या हुआ अब्बू आज इतने सुस्त कैसे हो? बेगम साहब से कोई झगडा हुआ क्या?

नासिर अपने अब्बू की नस-नस से वाकिफ था और वक़्त बेवक्त बेगम साहब को लेकर उनको छेड़ने से बाज़ नहीं आता था।

-नाम मत लीजिये उनका। मेरा उनसे कोई वास्ता नहीं है।

-अल्लाह! मतलब फिर कुछ कहा-सुनी हो गयी?

शाहिद मियां चुप्पी की चादर ओढ़े रहे तो नासिर को उनके खामोश दर्द का अहसास हुआ।

 -खैर छोड़िये उनको, अब्बू आप यहाँ आ जाइये, हम सबको आपकी ज़रूरत है। यहाँ अपनी बहु के हाथ का खाना खाइए, पोती के साथ खेलिए। आप क्यों उस छोटे शहर में अकेले ज़िन्दगी जाया कर रहे हैं?

-हाँ ठीक है, मैं सोचता हूँ, उससे पहले यहाँ भी तो कई काम निपटाने होंगे।

-अरे क्या काम है अब आपका वहां? आजकल वैसे भी लोग अंग्रेजी दवाओं पर ज्यादा भरोसा करने लगे हैं।

-अरे ऐसा नहीं है बेटे, जब अंग्रेजी डॉक्टर जेब खाली कर देते और मर्ज़ नहीं संभलता तब ये हकीम ही याद आता है लोगों को। ऐसे ही नहीं बोलते पूरे बदायूं के लोग कि हकीम साहब के हाथों में शिफ़ा है।

-हाँ अब्बू वो तो मैं जानता हूँ। पर बुढ़ापे में अकेले उस शहर में अकेले रहने से क्या फायदा? बेगम साहब आपसे निकाह करना नहीं चाहती। बेटा बहु यहाँ है, हकीमी तो आपकी दुबई में भी चल जायेगी।

-ठीक है नासिर, मैं इस बारे में सोचूंगा... ख़ुदा हाफ़िज़ 

-अल्लाह हाफ़िज़ अब्बू।

नासिर से बात करने पर उनका दिल कुछ हल्का हुआ पर आज दवाखाना खोलने का मन नहीं था। दिल पर गहरी चोट लगी थी जिसके लिए उनके खानदानी यूनानी दवाखाने में भी कोई दवा नहीं थी।

“बरकत शिफ़ाखाना” के नाम से मशहूर दवाखाना, अपनी रंगत खोने लगा था। उनके ठीक सामने “नूर हॉस्पिटल” खुल चुका था। यूँ तो वो दो कमरों का क्लिनिक था पर नाम हॉस्पिटल रखा था। लियाकत भट्टी ने अपने एकलौते बेटे काबुल भट्टी को रूस भेज कर MBBS करवाई थी, अब वो पड़ोसी के बजाय उनका रकीब बन चुका था। काबुल के क्लिनिक खोलने के बाद से शाहिद मियां के काफ़ी मरीज सामने शिफ्ट हो गये थे। उस पर गज़ाला बेगम का लगातार इनकार। हकीम शाहिद का फ्रस्टेशन लगातार बढ़ता जा रहा था।

मोहसिन अली से बचपन की दोस्ती थी, तो ज़ाहिर है कि बेगम साहब को भी बचपन से देखते आये थे। बदायूं शहर ही कितना है, शहर की खूबसूरत लड़कियां लड़कों की लिस्ट में होतीं थी और गज़ाला तो अपने समय की बेहद खूबसूरत लड़कियों में शुमार थीं, उनके लिए पूरे उत्तर प्रदेश के अच्छे खानदानों के रिश्ते आ रहे थे पर उनके अब्बू ने अपनी बहन के बेटे को चुना। एक तो बचपन से घर परिवार देखा हुआ था, दूसरे अपनी एकलौती औलाद को बदायूं से दूर नहीं भेजना चाहते थे। 

जवानी में कदम रखते ही शाहिद मियां, गज़ाला को दिल दे बैठे थे और ये एकतरफ़ा इश्क उनको बुढ़ापे तक सता रहा था। उनको मालूम था कि गज़ाला का निकाह पहले ही मोहसिन से तय हो चुका तो कभी कुछ बोले नहीं। दिल पर पत्थर रख कर, निकाह में दूल्हे के साथ बारात में नाचते हुए गये थे।

मोहसिन के अचानक चले जाने का सदमा शाहिद मियां के लिए भी असहनीय था। उस वक़्त उन्होंने काफ़ी कुछ संभाला था। उनकी बीबी रसूलन को उनका गज़ाला के घर बार-बार जाना सुहाता नहीं था पर शाहिद मियां भी दिल के हाथों मजबूर थे। एक रोज़ कहासुनी में बोल दिया-

-रोज़ एक ही बात पर चिकचिक मत किया करो रसूलन। गज़ाला सुल्तान से बचपन से मुहब्बत करता हूँ और उनसे निकाह करूँगा। अब वो अकेली हैं, मैं उनको ऐसे तन्हा नहीं छोड़ सकता।

उस रोज़ शाहिद मियां की हवेली में जो तमाशा हुआ था वो पूरे मोहल्ले ने देखा था। चीख पुकार सुनकर कर कई मरीज़ उलटे पाँव लौट गये थे। रसूलन रोती हुई गज़ाला के घर पहुंची थी, 

-अपना शौहर तो खा गयीं, अब मेरा हड़पने के चक्कर में हो गज़ाला?

गज़ाला बेगम को तेज़ आवाज़ में बात सुनने की आदत नहीं थी, मारे गुस्से के उनका चेहरा तमतमा गया।

-होश में हो बीवी? इतनी बदतमीज़ी से बात करने वालों की जुबान खींच लेती हूँ मैं।

-मार ही दो मुझे, मेरा शौहर तो छीन ही लिया तुमने।

-तुम्हारा लिहाज कर रही हूँ तो कुछ भी मत बोलो रसूलन बी। मैं आज भी मोहसिन की बीवी हूँ और  हमेशा रहूंगी। तुम्हारे शाहिद मियां की मुझे कोई ज़रूरत नहीं। मोहसिन के बचपन के दोस्त थे, बचपन से मैंने भी उन्हें देखा है, वो मेरे लिए सिर्फ़ दोस्त हैं पर तुमको औरत मर्द का केवल एक ही रिश्ता नज़र आता है। अफ़सोस है रसूलन।

बेगम साहब के गुस्से को देख कर रसूलन नरम पड़ी और उसकी आँखों से आंसू बह निकले।

-पर वो बोलते हैं कि आपसे निकाह करेंगे।

-इतनी हिम्मत शाहिद मियां की? मेरी मर्जी के बगैर इतनी बड़ी बात कैसे बोल दी? बोल देना अपने शौहर को कि गज़ाला सुल्तान किसी की दूसरी बीबी नहीं बनेगी। मलिका की तरह ज़िन्दगी रही है, हमेशा और ऐसे ही जियूंगी। मेरे लिए मोहसिन मियां की याद ही काफ़ी है। वो अपना घर संभालें तो बेहतर होगा।

ये सुनकर रसूलन बीबी, बेगम साहब के पैरों पर गिर गयी।

-मुझे माफ़ करना बाज़ी। मैं डर गयी थी।

गज़ाला ने उसे उठा कर गले से लगा लिया।

-बेफिक्र रहो, तुम्हारा दर्जा तुमसे कोई नहीं छीन सकता। कौसर बाग़ के दरवाज़े शाहिद मियां के लिए आज से, अभी से बंद किये जाते हैं।

उस दिन के बाद बेगम गज़ाला ने शाहिद मियां से मिलना छोड़ दिया था, गज़ाला ने उनको कसम दी थी कि रसूलन के जीते जी वो कभी उनकी चौखट पर कदम नहीं रखेंगे। बेगम साहब ने अगले ही दिन मिस्त्री को बुलवा कर अपनी दूसरी मंजिल की लाइब्रेरी वाली खिड़की जो शाहिद मियां के घर की तरफ खुलती थी, ईंटों से चिनवा दी। शाहिद मियां उस रोज़ बहुत गिडगिडाये थे पर बेगम ने एक न सुनी। उस रात रोते हुए शाहिद मियां ने अपनी डायरी में ये दर्ज़ किया था-

“इस दीवार के पार मेरा महबूब है, ये दीवार गिरेगी क़यामत के दिन!”

बेगम साहब की नजले की दवाई और काढ़ा ज़रूर हकीम साहब के दवाखाने से हमेशा आता रहा। इस बीच हुसैन, दुआ के रूप में बेगम साहिब को मिल गया था। तो उनके जीवन का सहारा मिल गया था। शाहिद के दिल का टुकड़ा टूट गया था पर मुहब्बत कहीं छूटती है भला?

आते-जाते, कभी किसी ब्याह-जनाजे में गज़ाला की झलक तो उनको मिल ही जाती थी। दस साल पहले जैसे ही रसूलन बेगम का इन्तकाल हुआ, वो गज़ाला बेगम को दी हुई कसम से आज़ाद हो गये। सबसे पहले उन्होंने दरगाह में जाकर गज़ाला के दिल में थोड़ी सी जगह और मुहब्बत मांगी थी। 

उनका “कौसरबाग” हवेली में आना-जाना फिर शुरू हो गया।

गज़ाला को भी वो बुढ़ापे में वो दोस्त जैसे लगने लगे थे। “लोग क्या कहेंगे” की उम्र से ऊपर उठ चुकी थी तो अक्सर दो-चार दिन में चाय साथ हो ही जाती थी। शाहिद मियां का बेटा जब दुबई चला गया था और शाहिद मियां को मियादी बुखार हो गया था, उनकी देखभाल करने वाला कोई नहीं था। जब बेगम उनको देखने उनकी हवेली पर आई थीं तो वो बच्चों की तरह रो पड़े थे। तब गज़ाला बेगम ने उनका बहुत खयाल रखा था, जिसके चलते वो जल्दी से अच्छे हो गये थे। दोबारा से उनकी दोस्ती शुरू हुई थी पर शाहिद मियां की तरफ से तो शुरू से मुहब्बत ही थी और बेगम साहब ने जो तीमारदारी की उससे तो मुहब्बत और गाढ़ी हो गयी थी।

दोस्ती, मुहब्बत में बदल सकती है पर मुहब्बत, दोस्ती में बदल जाये ये बड़ी मुश्किल बात है। तो शाहिद मियां के दिल में एक चिंगारी सुलघती रही और हजारों कोशिशों के बाद भी ये चिंगारी गज़ाला बेगम के दिल में गर्माहट पैदा न कर सकी। बेगम साहब ने उनकी सारी कोशिशें दो टूक बात बोल कर नाकाम कर दी।

-दोस्त बनकर सब्र कर लो शाहिद मियां, शौहर बनने के ख्व़ाब न देखो। तीन चौथाई ज़िन्दगी बीत गयी, बाकी भी निकल ही जायेगी।

फिर भी शाहिद अक्सर अपनी पुरानी डायरी में गज़ाला और शाहिद लिख-लिख कर मन बहलाते रहे। गज़ाला सुल्तान की एक पुकार पर वो नंगे पैर भागे चले आते थे, बेगम भी उनको अपने ज़रूरी कामों के लिए खूब भगाती थीं।



खैर दोपहर तक पड़े-पड़े सोचते रहने के बाद आखिर शाहिद मियां अपने बिस्तर से हिले। चार मरीज़ दवाखाने का शटर भड़भड़ा कर लौट चुके थे। 

-चार सौ रुपये का नुक्सान हो गया।

शाहिद मियां ने मन ही मन हिसाब लगाते हुए अपने आप से कहा। दिमाग में खलबली मच गयी, उधर पेट में भी भूखे जिन्नों ने सिर उठाना शुरू कर दिया था।

-उठो शाहिद मियां, भूखे रहोगे तो शाहिद से शहीद हो जाओगे। खाली पेट तो आशिकी भी नहीं होती। ख़ुद से मुहब्बत करो यार। कोई नहीं आएगी अब तुम्हारा खयाल रखने वाली।

ख़ुद को समझाते हुए उन्होंने शीशे में देखते हुए पीली पड़ चुकी सफ़ेद कंघी से अपनी बची-खुची जुल्फें संवारी। रसोई में पहुँच कर तलाशी ली तो तीन पराठे नज़र आ गये। उनको रुबीना पर बहुत प्यार आया, वो उनके मना करने के बाद भी अक्सर दो-चार पराठे तो सेंक ही जाती थी, शायद इतने सालों में वो भी जान गयी थी कि जब मूड सही होगा तो सबसे पहले भूख ही लगेगी। 

फ्रिज से कीमा कलेजी निकाल कर कढ़ाई में गर्म करने चढ़ा कर, लगभग भागते हुए उन्होंने अपने दवाखाने का शटर खोल दिया। 

-एकतरफ़ा मुहब्बत के चक्कर में पहले ही सुबह से चार सौ रुपये, अरे चार सौ नहीं... साढ़े तीन हज़ार की चिलमची और ढाई सौ की जलेबी कुल चार हज़ार एक सौ पचास रुपये का नुक्सान हो गया या ख़ुदा!

और जो दिलो दिमाग को सदमा पहुंचा है उसकी तो कोई गिनती नहीं हो सकती है.

उन्होंने हिसाब लगाते हुए कीमा कलेजी में करछी हिलाई।

-हकीम साहब! ओ हकीम साहब!

एक मरीज़ की पुकार सुनते ही शाहिद मियां के मुर्दा जिस्म में जुम्बिश आ गयी।

-आया भाई … आप दवाखाने में तशरीफ़ रखिये।

उन्होंने एक बड़ा सा निवाला मुंह में ठूंसते हुए जवाब दिया।

ख़ुदा के फज़ल से उस दिन दोपहर बाद खूब मरीज़ आये, नूर हॉस्पिटल से मायूस मरीज़ भी वापिस हकीम साहब की पनाह मांगने आ गये थे। शाहिद मियां ने थोड़े नखरे दिखाते हुए ये सोच कर “सुबह का भूला अगर शाम को घर आ जाये तो उसे भूला नहीं कहते” सबको बड़े दिल से अपना लिया।

-मियां! एलोपैथी कभी यूनानी का मुकाबला नहीं कर सकती। ये जड़ से मर्ज़ को खत्म करती है जबकि ये मुई लाल-पीली गोलियां एक मर्ज़ को दबाती हैं तो चार नए मर्ज़ पैदा कर देती हैं।

***

शाहिद मियां ने उस रात तय किया कि अब बेगम गज़ाला सुल्तान को मनाने हरगिज़ नहीं जायेंगे बल्कि उस गली से रास्ता ही बदल देंगे।

“तेरी गलियों में न रखेंगे कदम आज के बाद!”

देर रात मोबाइल पर ये गाना सुनते हुए शाहिद मियां नोट गिनने में मसरूफ थे। सुबह उनका दिल टूटा था पर आज छप्पर फाड़ नोटों की बारिश भी हुई थी तो शाहिद मियां के ज़ख्म पर मरहम लग गया था। फिर उन्होंने करीम रेस्टोरेंट से तीन गार्लिक नान और फुल प्लेट चिकन चंगेजी आर्डर किया, देर रात तक टीवी पर मुगल-ए-आज़म देखते हुए मजे से नोश फरमा रहे थे।

“प्यार किया तो डरना क्या, प्यार किया कोई चोरी नहीं की, घुट-घुट कर यूँ मरना क्या.... जब प्यार किया तो...”

बेगम साहब का खयाल फिर से दिमाग में रेंगने लगा था, जिसे उन्होंने बेरहमी से दरकिनार करते हुए टीवी की वॉल्यूम बढ़ा दी। 



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