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हरे प्रकाश उपाध्याय - सुनील मास्टर व अन्य कविताएं | Kavita: Hare Prakash Upadhyay

बाबू लोग बड़ी जात उनके पानी से डरते थे
पर अनूठी बात उनकी बालाओं पर मरते थे


हरे प्रकाश उपाध्याय की कविताएं कुछ-कुछ अदम गोंडवी की ग़ज़लों सरीखा, हमें खबरदार करती हैं। उनका ज़ोर ए क़लम बना रहे। ~ सं० 


Kavita: Hare Prakash Upadhyay


कविताएं 

हरे प्रकाश उपाध्याय

बिहार के एक गाँव में जन्म। अभी लखनऊ में वास। कुछ समय पत्रकारिता के बाद अब जीविकोपार्जन के लिए प्रकाशन का कुछ काम। तीन किताबें- दो कविता संग्रह - 1. खिलाड़ी दोस्त तथा अन्य कविताएं 2. नया रास्ता, एक उपन्यास- बखेड़ापुर। अनियतकालीन पत्रिका 'मंतव्य' का संपादन। पता – महाराजापुरम, केसरीखेड़ा रेलवे क्रॉसिंग के पास, पो- मानक नगर, लखनऊ -226011, मोबाइल – 8756219902


सुनील मास्टर


मैं, सुनील कुमार थाना सहार राज्य बिहार
आप सबको करता हूँ नमस्कार!
क्या बताना कि कितने लोगों को नौकरी देती है सरकार
बीएससी बायलोजी से कर मैं भी एक शिक्षित बेरोजगार

आगे भी पढ़ने का मेरा मन था
पर पिता की दो बीघे की खेती, उनके पास न धन था
कमाने का साधन-स्रोत क्या बस उनका तन था
जीवन हमारे परिवार का बहुत विपन्न था

लगना था मुझको भी खेती मजूरी में
पहले तो मारा हाथ पैर पढ़ाई के सुरूरी में
चांस लिया फारम-तारम परीक्षा-तरीक्षा जी हुजूरी में
हँसने लगे थे लोग, लगा प्राइवेट में मास्टर मजबूरी में

सुबह नौ से शाम तीन बजे तक चिल्लाता हूँ
डायरेक्टर साहेब के चाबुक पर घोड़े सा हिनहिनाता हूँ
महीने भर खट के बस सात हजार कमाता हूँ
कैसे चलेगा, घर-घर साइकिल से जा ट्यूशन पढ़ाता हूँ

पीरो है क़स्बा वही राय जी के स्कूल में ज्वाइन किया हूँ
नई-नई हुई है शादी पर अपनी उसको गाँव में छोड़ दिया हूँ
कैसे रखते यहाँ पर, हर महीने माई की बीमारी में पैसे दिया हूँ
अपने से पकाकर कच्चा-पका जैसे हो खाया-पिया हूँ

देह दुखता है दिन भर खटने से साइकिल पर चलने से
माथे को आराम मिलता है झंडू बाम मलने से
मैं भी विधाता की मछरी हूँ उनको स्वाद मिलता है तलने से
क्या ख्वाब पाले होंगे मेरे माई बाबू भी पाँव देख मेरे पलने से

मात्रा सिखाता हूँ पहाड़ा पढ़ाता हूँ मेढ़क चीर कर दिखाता हूँ
मैं भी शिक्षक हूँ पर मजबूरी का अर्थ ही मास्टर बताता हूँ
सुनो मेरे बच्चो उस राह न चलना जिस राह मैं आता-जाता हूँ
गजब हूँ मैं भी इस बहरे शहर में किसको दुखड़ा सुनाता हूँ !

 
 
 
 

खेत में एतवारू


खेत पर मिल गए आज एतवारू
दोनों, मरद और मेहरारू
हाड़ तोड़ कर मेहनत करते
कहते कैसा अंधा कुँआ है यह पेट
जो भी उपजाते
चढ़ जाता सब इसके ही भेंट
 
खाद बीज पानी
के प्रबंध में खाली रहती इनकी चेट
फसल उपजती तो घट जाती उसकी रेट
बोले भैया
मीठा-मीठा बोल के
हर गोवरमिंट करती हमलोगों का ही आखेट
 
खाकर सुर्ती
दिखा रहे एतवारू खेत में फुर्ती
सूरज दादा ऊपर से फेंक रहे हैं आग
जल रहे हैं एतवारू के भाग
हुई न सावन-भादो बरसा
बूंद-बूंद को खेत है तरसा
 
एतवारू के सिर पर चढ़ा है कर्जा
बिन कापी किताब ट्यूशन के
हो रहा बबुआ की पढ़ाई का हर्जा
हो गई है बिटिया भी सयानी
उसके घर-वर को लेकर चिंतित दोनों प्रानी
 
थोड़ी इधर-उधर की करके बात
मेड़ पर आ सीधी कर अपनी गात
गम में डूब लगे बताने एतवारू
रहती बीमार उनकी मेहरारू
बोले
भैया सपनों में भी अब सुख नहीं है
जीवन किसान का रस भरा ऊख नहीं है
 
अच्छा छोड़ो एतवारू
क्या पीते हो अब भी दारू
मुस्काकर बोले भैया यह ससुरी सरकार
है बहुत बेकार
जबसे बिहार में बंद है दारू
तबसे गरदन पे चढ़ने को थाना-पुलिस उतारू
साहेब सब पीते हैं
पैसेवाले भी पीते हैं
हम लोग भी थोड़ा-मोड़ा जब तब ले लेते हैं
पर शराब माफ़िया भैया खून चूस लेते हैं
 
ले ली मैंने भी ज़रा चुटकी एतवारू से
बोला सुनाके उनकी मेहरारू से
लाओ बना लें खेत में ही दो पेग एतवारू
लाया हूँ मिलेट्री से बढ़िया दारू
हँस रहे हैं बेचारे एतवारू
आँख तरेर देख रही हम दोनों को
उनकी मेहरारू!

 
 
 
 

मुन्नी बाई का गाँव


बिहार में जिला रोहतास ब्लॉक दिनारा गाँव नटवार
मुन्नी बाई से मिलने गए पूछते-पाछते इक इतवार
एक आदमी हँसकर बोला
बस्ती से बाहर है नटों का टोला
दबाकर बाईं आँख दाईं को कुछ ज्यादा ही खोला
बचाकर रखना भैया ज़रा तुम अपना झोला

मिला टोले में सबसे पहले ही मुन्नी बाई का घर
वहाँ का हाल जो लिखूँ किस्सा नहीं कहर
बाबू लोग बैठे थे था समय दिन का दोपहर
संगीनों के साये में गुड़िया नाचे कांपती थर-थर

मुश्किल से सौ-पचास लोगों की बस्ती थी
नाच-गाना खाना-पीना ऊपर से ज़रा मस्ती थी
अंदर गए भीतर झांका दिखती साफ़ पस्ती थी
कपड़े-लत्ते बरतन-बासन हारी-बीमारी हालत उनकी खस्ती थी

था नहीं बस्ती में कोई वैसा पढ़ा-लिखा
हर आदमी झूलता-झामता लचर-फचर दिखा
जीने हेतु औरतों ने नाचना मर्दों ने चुप्पी सिखा
पता नहीं कैसी बिजली मुझे तो आशंकाओं का बादल दिखा

बाबू लोग बड़ी जात उनके पानी से डरते थे
पर अनूठी बात उनकी बालाओं पर मरते थे
अपनी ताकत से उन पे मनमर्जी करते थे
उनके बच्चों को चोर उचक्का कहते थे

बड़े लोग ही नाच पार्टी चलाते थे
उसमें मुन्नी बाई उसकी बहनों को नचाते थे
जब जवानी ढली तो मार के भगाते थे
रूहानी-ज़िस्मानी संबंधों की कीमत इस तरह चुकाते थे
उनके बच्चे किसके बच्चे दर-दर की ठोकरें खाते थे

मुन्नी बाई समझकर पुलिस या पत्रकार
मुझसे कुछ लेने को करने लगी इसरार
बोली रात यही बिताइये
मँगाती हूँ दारू ब्रांड बताइये
खड़े मसाले का मुर्गा भात पकाती हूँ खाइये
बरतन अलग रखा है आप लोगों का मत घबराइये
पूरी रात ये और वो बात ठहरकर आराम से बतियाइये!

 
 
 
 

नाच


छुपाना क्या
छुपाने से होगा भी क्या
सुन लीजिए साँच
चले गए देखने एक दिन नाच!

नाच हो रहा था काराकाट बाज़ार में
नाच आया था पैंसठ हजार में
नाच की चर्चा थी सारे गाँव जवार में
लाउडस्पीकर की आवाज जा रही आँगन-बधार में!

नाच देखने लोग दूर-दूर से आये थे
कोई कांधे पर लाठी
तो कोई कांधे पर ही बंदूक लटका लाये थे

महज सोलह साल की है मुन्नी
नाचती है कमर पे बाँध के चुन्नी

हँस-हँसकर मुन्नी गाना
बंद कमरेवाला ही सब गा रही है
जोकर के गंदे इशारे पे
तनिक नहीं शरमा रही है
देखो ज़रा सी लड़की को
कैसे बुढ़ऊ का मजाक उड़ा रही है
चौकी के किनारे पहुँचा मंटू तिवारी
उसके दाँतों से रुपैया दाँतों से खींचकर जा रही है

नाच बड़ा हाहाकारी था
लगता वहाँ बच्चा से बूढ़ा तक
सब ही बलात्कारी था
कोई सीटी मारता
कोई शामियाने में तो कोई चौकी पर नाचता
न किसी को लाज लिहाज था
सबका ही गजब मिजाज था

दूल्हा भी एकटक ताकता मुन्नी को
दूल्हा का बाप भी ताकता मुन्नी को
कन्या का भाई
चौकी पर चढ़के खींचता मुन्नी के चुन्नी को

हर कोई था मुन्नी का प्यासा
कहना कठिन है ज़रा कविता में
कैसी बोल रहे थे लोग भाषा

मुन्नी सबसे छोटी थी
एक ज़रा उमरदराज़
दो थोड़ी-थोड़ी मोटी थी
नाचने वाली थी कुल चार
मगर मुन्नी का नशा सब पर सवार

लोग मुन्नी को बुला रहे थे बारंबार
नाचती रही मुन्नी पूरी रात लगातार

लोग बीच-बीच में उठ-उठकर जा रहे थे
बड़ा लज़ीज़ भोज था चटखारे लेकर खा रहे थे
कोई गाँजा कोई बीड़ी कहीं-कहीं जला रहे थे
कोई खटिया पर लेटकर कोई सामियाने में बैठकर
सब ही जैसे जी चाहे अपना मन बहला रहे थे

मुन्नी नाचती रही
नाचते-नाचते हो गई भोर
अचानक गोली चली मच गया शोर
लगा गाँव में आया हो कोई चोर

अरे!
दिल्ली से दिहाड़ी कमाकर
पेट काटकर पैसे बचाकर
मंटू जो आया था ममेरे भाई की शादी में गाँव
रात भर पीता रहा सुबह खा गया ताव
वही दुष्ट चौकी पर टंगे परदे के पीछे
कर चुका था जघन्य कारस्तानी
भैया मत पूछो अब आगे की कहानी !

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