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धीरा: विजयश्री तनवीर की सच्ची कहानी | Dheera: true Hindi story by Vijayshree Tanveer

‘धीरा’ सधी हुई कहानी है। विजयश्री तनवीर की कहानियों में वह प्रवाह और शैली है जो आपको फैन बना सकती है। पढ़िएगा और अपनी प्रतिक्रिया भी ज़रूर दीजिएगा ~ भरत तिवारी 

मामी ने मेरा बिस्तर भीतर बरोठे में लगाया था। तकिए और चादर ने शायद सालों से धूप न देखी थी। उनमें अजीब-सी हमक भरी थी। चादर के किनारे पर रेशमी धागों से कढ़े गुल-बूटों के बीच लाल डोरे से धीरा और प्रमोद कढ़ा था। यह पच्चीसों साल पुरानी धीरा के दायजे में आई चादर थी। मामी गिलास में दूध रख लालटेन की लौ नीची कर चली गई। मैं तकिए में मुँह गाड़कर सोने की कोशिश करने लगी। अचानक लगा जैसे सीलन भरी बोसीदा चादर से धीरा के कस्तूरी इत्र की सुवास उठ रही है। तकियों और चादर पर कढ़े हुए फूल महकने लगे थे। मेरी आँखों में दूर तलक नींद न थी।


Dheera: True Hindi story by Vijayshree Tanveer Photo Bharat Tiwari


धीरा: विजयश्री तनवीर की सच्ची कहानी

एम. ए .हिंदी व समाजशास्त्र। मास कम्युनिकेशन (जामिया)। कुछ समय अमर उजाला में पत्रकारिता से जुड़ी रही। प्रकाशित किताबें - 'तपती रेत पर ' (कविता संग्रह)'  
अनुपमा गांगुली का चौथा प्यार ' (कहानी संग्रह) / 'सिस्टर लिसा की रान पर रुकी हुई रात' कहानी संग्रह। लगभग सभी प्रतिष्ठित पत्र पत्रिकाओं में कविताएँ , कहानियाँ, आलेख  प्रकाशित। कहानी 'गांठ' हंस कथा सम्मान से सम्मानित। साल 2023 का सविता कथा सम्मान। सृजन साहित्य मंच छत्तीसगढ़ से कृष्ण चन्दर कहानी सम्मान की घोषणा


अपने नाम के अनुसार यह कहानी आरंभ से अंत तक धीरा की ही है मगर मैं इसका एक ज़रूरी हिस्सा हो जाऊँगी मुझे इसका कोई अनुमान नहीं था। मुझे, सम्भवतः इस कहानी के समापन का निमित्त होना था इसलिए अरसे बाद पुनः ननहार लौटने का योग बना होगा।



कंडक्टर ने उँगली में फँसे रांगे के छल्ले से बस की छत पर एक ख़ास अंदाज़ में टंकार दी।

"गुलखेड़ा वाले अगाड़ी आ लो।" और पूरे वेग से दौड़ती बस अपने खड़खड़ाते वजूद की एक करुण चीत्कार के साथ रुक गई। बेआराम सीट में देर से पड़े निकम्मे बदन में हल्की-सी ऐंठन भरकर मैं दरवाज़े पर चली आई। यहाँ तक पहुँचते-पहुँचते यह छकड़ा बस लगभग ख़ाली हो चुकी थी। इक्का-दुक्का ऊँघते लोग भी आँखें मलकर अगले किसी स्टॉप पर उतरने को चौकस होकर बैठ गए थे। मेरे दाहिनी ओर दूर तक जाती कोलतार की चिकनी काली सड़क थी। जबकि मेरी याद के हिसाब से यहाँ पिंडलियों तक रेत से भरा कच्चा दगड़ा होना चाहिए था। इस नवेलेपन को देखकर दम भर को मैं चकरा गई थी। बाईस बरस का दीर्घ अंतराल। इतने में एक पीढ़ी जवान हो जाती है, एक बूढ़ी और एक दिवंगत। मुद्दत से मेरी याद में ठहरी हुई चीज़ों का कायाकल्प भी इतना ही सहज था जितना ख़ुद मेरा अपना बदल जाना।

"यहीं उतरना है न?" मैंने पक्का किया।

"हाँ जी यईं उतर लो। यूई सीधी सड़क जावेगी...तनक आगे से कोई सवारी पकड़ लियों।" कंडक्टर ने कान पर टिकी कलम से दाँत कुरेदकर कहा।

छकड़ा बस जिस अप्रिय चीत्कार से रुकी थी उसी चीत्कार से मुझे छोड़कर आगे बढ़ गई। मैं सड़क के किनारे दिशाभ्रमित-सी खड़ी थी। मुझे इसी सड़क पर सीधे जाकर कहीं बाएँ मुड़ना होगा। या शायद दाएँ! इतने सालों बाद जब सारे नाते, सूरतें और रास्ते बिसरा गए हैं तो मैं किन अजाने मोह तंतुओं से बंधी यहाँ चली आई हूँ! जब सालों पहले अम्मा ने ही अपना नैहर तज दिया तो मेरा ननहार कैसा! बाऊजी के अवसान के बाद अम्मा को निचले ओहदे पर उनकी नौकरी मिली थी और मुझे हॉस्टल। जिस उम्र में माँ बेटी के बीच सहलापा पनपता है हमारे बीच अनमिलत रही। साल में कुल माहे अधमाहे ही अम्मा का संग होता था। सो हमारा सम्वाद नितांत औपचारिक था। ननिहाल के बाबत मुझे कुछेक बेतुकी बातें याद हैं जैसे यह कि मैं आठ साल की थी जब अम्मा ने सौगंध उठाई थी "पीहर की देहली पर कभी पाँव ना धरूँगी" जैसे यह कि इस सौगन्ध के बाद भी माँ डाकिए से अक़्सर ही पूछती थी "गुलखेड़ा से कोई चिट्ठी आई है?" भले ही कालांतर में कुछ चिट्ठियां आई थीं मगर कोना कटी चिट्ठियाँ जो माँ को तोष के बजाय महीनों का शोक दे जाती थीं।

मेरे पास सचमुच यहाँ आने का कोई ठोस प्रयोजन न था अलावा इसके कि बीमारी के बाद के दिनों में मैंने अम्मा के भीतर एक कसक देखी थी। "नानी की तुझसे बड़ी लाग थी नीरजा...कभी मौक़ा निकाल कर हो आना।" मगर उस घड़ी उनकी अपेक्षा पर मैं खीज गई थी। न जाने किस आन-तान में जीवन गुज़ार दिया। अब बीस बरस बाद उन्हें उस लाग की सुध हुई है। उन दिनों घर, नौकरी और अम्मा के मर्ज़ को संभालने में मैं एक यंत्र की तरह हो गई थी। अब मुझे यहाँ से जोड़ने वाला सेतु ढह चुका था। अम्मा को देह छोड़े भी महीना होने को आया। हठात् ही उनकी अपेक्षा जैसे मेरा धर्म हो गई थी।

सड़क के हाशिए पर खड़े-खड़े मेरी कच्ची याद में ननिहाल की कितनी ही चीज़ें कौंधने लगती हैं। मेरे सम्मुख टूक-टूक दृश्यों और शब्द-शब्द आवाज़ों का एक कारवाँ-सा यूँ गुज़रता जाता है जैसे कोई रेल धड़धड़ाती तपाक से गुज़र जाए। उन दृश्यों में एक तूल-तवील पक्की हवेली है। एक गहरा कुआँ है। और है आबनूसी पेटी में सहेजा एक क़दीमी हॉर्मोनियम। जिसे छूने की सख़्त मनाही है। ज़ेहन से थोड़ा जूझने पर चित्रों और आवाज़ों के मायने कुछ साफ़ होने लगते हैं। सात बरस की एक लड़की कुएँ की जगत पर खड़ी बार-बार कुएँ में झाँककर अपना नाम पुकार रही है।

"नी-----र----जा sssss। "

कुएँ से तुरंत एक बाज़गश्त आवाज़ उठती है।

"नी----र-----जा ssss।"

लड़की हैरान हो रही है। वह ध्वनि परावर्तन के नियम को नहीं समझती। वह उझककर कुएँ में झाँकती है कि उस अंधे गह्वर में भला कौन छुपा बैठा है जो उसकी ऐसी निर्विकार नकल उतारता है। मगर कुएँ में घुप्प अंध्यार पड़ा है। इतने में हवेली के किसी कोने से हॉर्मोनियम की धुन मचलती आती है। लड़की कुएँ में बैठे नकलची की ताक-झाँक भूल उस धुन के पीछे दौड़ जाती है। हवेली के ओसारे में बूढ़े हॉर्मोनियम पर सिर निहुड़ाए एक ठसक भरी औरत अपने अतीत की अज़्मत में खोई है। वह बड़े कौशल और नज़ाकत से बाजे की एक-एक कुंजी पर अपनी उंगलियाँ रखती है।

" तोय पतो ए निज्जो मेरी चटसाल के सालाना जलसे में यू बाजा लाट साहब इरविन से मोए नेग में मिलो था।"

सात बरस की बारीक-सी लड़की को हॉर्मोनियम बजाती वह औरत दुनिया की सबसे अज़ीम औरत जान पड़ती है कि उसके पास ऐसी नायाब और अमोलक चीज़ है जिसे निरी नाज़ुकी से छुआ जाता है। और ज़रा-सी छू छा से भी ठेस लग सकती है। वह अपने मन में अंग्रेज़ी अंदाज़ में हिंदी बोलते सूटेड-बूटेड लाट साहब इर्विन की फ़र्ज़ी सूरत गढ़ने लगी है। लाट साहब ज़रूर ही कोई बहुत बड़ा आदमी होगा। इसलिए उसकी सौगात भी इतनी ख़ास है जिस पर नानी इतना इतराती है। वह अभिभूत हो हॉर्मोनियम बजाने की हठ में ठिनठिनाने लगती है। "नानी...नानी मैं भी बजाऊँगी लाट साब का बाजा...बस एक बार।"

"एक बेर काएको मेरी लाड़ो तू रोज बजाए करियो...जब मेरो दम निकलैगो तो तोएये दे जाऊँगी...यहाँ किसीए गरज नाय याकी।"

"नानी और इसकी पेटी भी?" उसके लिए निश्चित ही बाजे की पेटी भी एक नेमत है।

"हाँ याकी पेटी भी। "

लड़की उसी क्षण हॉर्मोनियम को अपनी धरोहर मान चुकी है। इस हुलास में वह ठसक भरी औरत के गले में झूल जाती है। औरत लाड़ से उसे अपनी गोद में भर लेती है।

"आ धोरे को आजा...बजवाऊं।"

सुगढ़ सुजान उंगलियाँ छोटी लड़की की नन्हीं उँगलियों पर घिरकर बाजे की कुंजियाँ चाँपती हैं। बायाँ हाथ अहरह धौंकनी दाबता है। औरत आसूदगी से आँखें मींच लेती है। छोह भरी गोद में सिमटी लड़की की आँखें और उंगलियां बूढ़े हॉर्मोनियम की कुंजियों और धौंकनी में उलझ-उलझ जाती हैं। एक मीठी सुर लहरी विराट हवेली की पथरीली दीवारों से टकराती है।

"झीनी--------झीनी----sss-----बीsssनी-----चदरिया ss

काहे कै----ताना sss----काहे कै भ-र-नी

कौन तार से-----बीनी---चदरिया sss।

झीsssनी----झी...

अचानक भीतर के कोठे से उठती दारुण खाँस ठसक भरी औरत में बेकली भर देती है। हॉर्मोनियम पर क़ायदे से टहलती उंगलियाँ तेज़-तेज़ चलने लगती हैं।

"झीनी झीनी बीनी चदरिया..."

औरत के सुर एकदम से गड़बड़ाने लगे हैं। बाजे की धुन बिगड़ गई है। उसका ध्यान सेहन पर पड़े जाल से टपकती आवाज़ों पर जा लगा है। उपरले तल्ले से मुँह बिराते हुए एक मीठी-सी झिड़की टप्प से नीचे गिरती है।

" जाओ हटो . .. फिर कट गई तुम्हारी तिलंगी...निरे अनाड़ी! " मख़ौल उड़ाती जनाना हंसी जाल से गिरकर सेहन में बिखर जाती है।

"अब कहोगे मेरा दोस नाय...माँझा--ई--कच्चा---था--धीरा।"

हॉर्मोनियम की कुंजियाँ चाँपती ठसकीली औरत के भाल पर सलवटें पड़ गई हैं। वह गीत रोककर गरजती है। "धी--------रा ssss----ओsss धीरा! तेरे केस ना सूखे अब तक...के आज अटारे पे ही साँझ करेगी?"

" आई माताजी..." ऊपर खिलखिलाता उपहास खलबलाहट में बदल गया। " लो उड़ ली पतंग...मैं जाऊँ...पकड़ो अपनी चकरी।"

मगर उजलत में लपकने से चूक गई चकरी जाल पर आ पड़ी है। भीगे बालों का जूड़ा लपेटती...झनक-मनक करती एक सत्रह साला लड़की हड़बड़ी में ज़ीना उतरती आती है। घबराहट में उसकी ज़बान अँठलाने लगी है।

" ल लल्ला जी--प पतंग उड़ा रहे थे ना--तो चकरी थमा रक्खी थी।"

" वाकी पतंग उड़न दे, तू मत ना उड़।...जाके लिए तोय ब्याह के लाई हूँ वाके काज देख...परमोद कित्ती देर से खाँस रा है।"

एक दूसरी औरत हैंडपम्प के ओटले पर झाँवें से एड़ियां रगड़ रही है। उसके शीतला के दागों से भरे चेहरे पर मक्कारी थिरकने लगी है। "तुम्हारी भली चलाई माताजी...इस निराली भावज के उड़े बगैर कहीं लल्ला जी के कनकौए उड़ें हैं!...लक्खनखोई हर बखत चौंडा उघाड़े छत्त पे खेल करती फिरै है...चाहे कोइयों झाँक ले।"

सत्रह साला लड़की सिटपिटाकर सिर पर आँचल ढंकती कोठे में जा घुसी है। वहाँ उसके सिवा कोई पाँव नहीं रखता सो छोटी लड़की ने भी फ़ासले से ही झांका। अंदर अजीब-सी असौंध भरी है। बिस्तर पर पड़े हड़ीले आदमी ने खाँसते-खाँसते कै कर दी है। उस कै में अपचे भोजन के साथ रक्त के क़तरे हैं। अपनी लाचारी से चिड़चिड़ाए हड़ीले आदमी ने पूरी ताक़त से पैर तानकर सत्रहसाला लड़की के पेट में लात मारी "कहाँ मर रई थी हरामज़ादी...आध घण्टे से उल्टी में पड़ा हूँ।" मगर लात का आघात इतना कमज़ोर है कि लड़की बस तनिक लड़खड़ाई भर है। लात खाकर भी वह गूँगी-सी बिना घिन्नाए गीले अंगोछे से खाट पर पड़े आदमी की मराऊ देह पौंछकर पाँयते बैठ गई है।

माहौल से ग़ाफ़िल होकर ठसक भरी औरत के सुर फिर सध गए हैं "ओढ़ि--कै---मैली--कीनी---चदरिया sssss"

"सोनगढ़ी, भट्टा, गुलखेड़ा, भिन्सारी...बीस रुपैय्ये सवारी।"

अचाहे ही एक कड़वी हांक से मैं चिहुँक उठी थी। ननिहाल की पुरअसरार हवेली अर्रा-अर्रा कर ज़मीन पर आ गिरी। दृश्य आँखों में चौंधियाकर वीरान हो गए। आवाज़ें गुंग पड़ गईं। फटर-फटर शोर मचाता एक बिना छत का टैम्पो मेरे क़रीब रुक गया था।

"किंगे को जाओगी भैनजी?

"गुलखेड़ा।" मैंने टैम्पो के अंदर झांका। मेरे अलावा एक भी औरत नहीं थी। तिस पर सवारियाँ ऐसे ठुंसाठुस कि एक दूसरे की रगड़ से देह छिल जाए।

"इसमें जगह कहाँ है?" 

"आप बैठो तो मैडम जी। भतेरी जगह हो जागी।'’  टैम्पो चालक अंदर बैठे लोगों से मुख़ातिब हुआ। " तनक तनक सरक लो भैया...जनाना सवारी हैगी। "

मैंने अपनी धुंधली याद से गंतव्य का अंदाज़ा लिया डेढ़-दो किलोमीटर से कम तो क्या ही होगा। हालाँकि सांझ अभी दूर थी और दो जोड़ी कपड़ों और ढाई किलो मिठाई के सिवा मेरे पास कोई भारी बोझ नहीं था। फिर भी इतनी दूर पैदल चलना मेरे लिए सहल न था। ड्राइवर की कृपा से मेरे लायक़ जगह बन गई थी। मैं चुपचाप सिकुड़कर बैठ गई।

आते जाड़ों के दिन थे। बदन के उघड़े अंगों को अगहनिया धूप की नरम गरमाई भली लग रही थी। खेतों में एक तरफ़ ईख सयानी हो रही थी। दूसरी ओर हाथी घास के ढूंडों में कल्ले फूट रहे थे। ज्यों-ज्यों टैम्पो कोलतार की पक्की सड़क पर आगे बढ़ रहा था त्यों-त्यों मैं अपनी स्मृति में कहीं बहुत पीछे रेत भरे कच्चे दगड़े पर लौट रही थी। मेरी यादों से उछलकर अब छोटी बारीक लड़की अम्मा का हाथ थामे ननिहाल जा रही है। ननिहाल में उसकी मौज होती है। भांत-भांत के पकवान और न्यारे-न्यारे खेल। गुट्टे खेलने को तिदरे बारजे का चिकना लाल फ़र्श। छुपन छुपाई को सब तरफ़ जगह ही जगह। जलावन के भंडार में पुआल की गाँज में जो छिप जाए तो मज़ाल कोई सांझ तक पा ले। और सबसे मज़ेदार तो राजा-रानी का स्वाँग है। जो हवेली के अकेले कोने में भरी दुपहरी चलता है। इस स्वांग में वह हमेशा रानी बनती है। उसके लिए धीरा अपने ब्याह की सलमे सितारों वाली झलाबोर लाल साड़ी देती है। राजमुकुट बनाने को अपने फेरों का मौर। पिछले सलूनों की बची हुई पौंचियों से बाजूबंद बाँधती है। चोटी में चुटिल्ला डाल गेंदे की लड़ी गूँध देती है। धीरा की सिंगार पिटारी में कितनी चीज़ें होती हैं। नख रंगने को नख़ूनी, पाँव रचने को आलता, पौडर-सुर्ख़ी, कस्तूरिया अतर...जिससे उसकी गर्दन, कनपटी और काँख हरदम गमकती रहती हैं। वह जाने कौन-सी छड़ी फिराकर सिर से नख उसका रूप ही बदल देती है। तब वह बेहद उजली दिखती है। उस वक़्त उसे नानी की टोक एकदम ज़हर लगती है जब रानी के अधूरे सिंगार बीच वह धीरा को पुकार लेती हैं। "जले पाँव की बिलैया बस इंगे उंगे डोलती फिर...आदमी बुख़ार में तप रा है...यहाँ जवान धींगड़ी बालकों में बालक बन रई है...जा तनक परमोद के पाँव दाब दे।" छोटी लड़की मन ही मन कसमसाती है अच्छा हो किसी दिन धीरा पाँव की जगह उस गंधाए आदमी का गला ही दाब दे।

लड़की का हाथ थामे अम्मा किसी डुबाऊ ख़याल में खोई ऐसी चुप चल रही है मानो उसके संग है भी कि नहीं। अम्मा के हाथ में कसी उसकी हथेली पसीज रही है। उनकी अधीर गति से तालमेल बिठा पाने में नाकाम वह मट्ठर चाल से घिसट रही है। नन्हे पाँव पिंडलियों तक रेत से भरे हैं। जूतों के अंदर किसकिसाती रेत के संग तलुवे में कोई कंकड़ी भी रड़क रही है। शायद मन में भी। बीती शाम ननिहाल से जाने कैसी चिट्ठी आई थी कि सवेरे हड़बड़ी में काम निबटाकर अम्मा उसका हाथ थाम चल पड़ी थी। न राखी न दौज...न ब्याह न भोज, न गर्मी की छुट्टी। बेमौसम के बुलावे पर वह अचरज में पड़ी है। अम्मा की चुप उसे अखर रही है।

"हम नानी के यहाँ क्यों जा रहे हैं?"

"कुछ काम है।" अम्मा के चेहरे पर अजीब-सी सख़्ती है।

"क्या काम?"

"है कुछ...तेरे मतलब की बात नहीं।"

लड़की अम्मा की चुप्पी से किसी अनिष्ट का अंदाज़ लगाती है। इस अंदाज़े के साथ उसके भीतर हॉर्मोनियम का लोभ गुल मचाने लगता है।

"क्या नानी का दम निकल गया अम्मा?" 

"जादा बड़-बड़ मत कर निज्जो...चुप चल।" फटकार सुनकर लड़की बुझ गई है।

मतलब नानी सलामत है। तो आज भी वहीं ओसारे में अपनी सुखासंदी पर पसरी पेटी में क़ैद हॉर्मोनियम की चौकसी करती होगी! जाने कब नानी का दम निकलेगा! कभी निकलेगा भी कि नहीं! एकाएक उसे लगता है लाट साहब का बाजा उसका कभी न होगा। नानी उसे झूठ ही भरमाती है। आज भी देखते ही अपनी बाँहें पसार देगी। "अय मेरी निज्जो आ गई...अब नानी नतनी की ताल बाजेगी। बाजा तो आख़िर मेरी लाड़ो का ई होवेगा।" 

नानी सबसे चिड़चिड़ाई रहती है लेकिन उस पर लाड़ लुटाती है। उसे इस बात का कौतुक रहता है। अम्मा कहती है "ममेरों मौसेरों में तू पहल की है ना इसलिए उनकी दुलहैटी है और घर कुनबे में कोई लड़की भी तो ना जनमी। नानी को लड़कियां अच्छी लगती है।"

"तो धीरा क्यों नहीं लगती? वह तो रोज़ नानी के पाँव दाबती है। सिर देखती है। उंगलियाँ चटकाती है।"

"वो बहू जो ठहरी।" अम्मा हंसती है। नन्ही लड़की को औरतों के नाते का यह टहूका समझ नहीं आता।

उसे ननिहाल में हॉर्मोनियम के बाद जो सबसे ज़्यादा भाता है वह है धीरा। वह हॉर्मोनियम की तरह ही उसकी आत्मा में बजती है। धीरा के सघन केश। नरम पेट, खमदार कमर। उसकी चूड़ी, महावर, बिंदी, सिंदूर। उसका सब कुछ उसे मोहता है। बनाव सिंगार का बहुत शौक है धीरा को। लेकिन एक दिन धीरा का प्राणप्रिय सिंधौरा हमेशा को संदूकची में मुंद गया। घर कुनबे की कई औरतों ने मिलकर उसकी चूड़ी फोड़ दी। सिंदूर धो दिया। औरतें चूड़ी फोड़ती जाती थीं और रोती जाती थीं। "सबर कर ले लाली...अब इस धज का क्या होवेगा। जाड़े की चाँदनी है।...तेरे भाग में घरवाले की सेवा लिक्खी ही बीबी, तूने कसर ना रक्खी ..अपने तईं सुरग के दुआर खोल लिए।" रोदन क्रंदन से घबराई वह माँ की टाँगों से चिपकी सहमी खड़ी थी। उस दिन भी ऐसे ही अचानक चिट्ठी आई थी। कोना कटी चिट्ठी। अम्मा ऐसे ही औचक भागी थी। हवेली के सेहन में बीचों-बीच चादर ढाँपे एक मुर्दा सोया था। अनगिनत लोग जमा थे। रोवाराहट मची थी। नानी छाती पीट-पीट कलप रही थी।

“अरे प-र-मो-द मोय ना ले गयो रेssss। अपनी अम्मा पे तरस ना आया तोय...मेरे रामजी.. मैं डुकरिया कैसे जिन्दी बैठी रै गई...मोय उठा लेता। "

धीरा मुर्दे के पाँयते बैठी थी। अडोल, एकदम चुप। उसकी आँखें निर्निमेष उस मुर्दे को तक रही थीं। वह जो काया छोड़ने से पहले भी एक मुर्दा ही था।

साल भर से मुर्दा अहर्निश कराहता था, घिघियाकर मरने की दुआएँ मांगता था, खुल्ल खुल्ल खाँसता हुआ खाट के तले रखी बाल्टी में थूकता था। खाँसते-खाँसते कभी खांसी का दौरा उठता फिर देर तक उसकी साँस न जुड़ती। सब उससे दूर रहते। मगर धीरा उसकी सेवा टहल को पाँयते बैठी रहती। सब पक्की नींद सोते। वह रातों को कुत्तों की-सी झपकी लेती। सवेरे उसकी उल्टी और खखार भरी बाल्टी खंगालती। लिसड़ी चादर धोती। अर्थी को एकटक ताकती धीरा की आँखों में संदेह भरा था कि बांस की तिखटी से उठकर वह गंधैला मुर्दा फिर खाँसते-खाँसते हलक से खखार और ख़ून उगल देगा।

मुर्दे की उठावनी हो रही थी। सेहन में औरतों की रुलाई तेज़ हो गई थी। मगर धीरा की आँखें सूखी थीं। “इंदु जीजी सुरग ना चईये था मोय पर सच्ची कहूँ आज नरक से छूट गई...मेरे पीहर चिट्ठी गेर दो...मोय ले जाएं।"

धीरा की गुहार पर छाती पीटती बुढ़िया दहाड़ उठी। "बरसी तक तो मरन भी ना दूँ तोय। अपसुगनी एक आँसू ना गिरा तेरी आँख से...आते ही पाँच हाथ लम्बा ठाड़ा आदमी खा गई...डकार भी ना भरी।"

बुढ़िया की अंड-बंड बातों पर लड़की की अम्मा भड़क उठी। "झूठ के पाँव ना होते...तू जाने तो है अम्मा दिक खा गई तेरे परमोद को। पर इस बिचारी को तू खा रई है।"

बुढ़िया की भौंहें तन गईं।

"औरत में सत्त होवै तो अपने आदमी के परान जमराज से भी छीन लेवै।"

"बेकार की बात मत कर अम्मा तेरे सत्त में क्या खोट था जो बाऊजी चले गए?"

इस तर्क पर बुढ़िया तिलमिलाकर रह गई थी। धीरा उसकी अम्मा के पाँव पकड़ दीनता से बोली।

“क्या करूँ जीजी ना आ रई मोय रुलाई...यहाँ तो येई कचोके सुन घुट-घुट मर जाऊँगी मैं।"

माँ के साथ घिसटती ख़यालों में ग़ारत लड़की के अयाने मन में सहसा कोई खटका हुआ। कहीं धीरा तो नानी के कचोके सुन घुट-घुट .! रोकते रोकते भी डर ज़बान पर आ गया। “अम्मा बताओ तो धीरा मर गई क्या?"

“मामी लगती है तेरी...बड़े छोटे का लिहाज रख। वो क्यों मरे!" अम्मा की फटकार अबकी और भी करारी थी।

क्या धीरा अब भी हवेली में घुट-घुट मरती होगी! स्मृति की बीथिकाओं में भटकते गाँव की सरहद आ गई थी। गाँव बस सौ गज़ दूर रह गया था। सरहद पर एक पायाब बम्बा था। उसके बाद सड़क दो सिम्त में बंट गई थी। टैम्पो से उतरकर मैं फिर दाएँ-बाएँ के फेर में उलझ गई। बम्बे के अवार पार कच्चे पक्के मकानों की पंगत शुरू हो गई थी। सालों बाद भी सब जाना बूझा सा। बम्बे की पुलिया पर पाँव लटकाए बैठे बच्चे, घास में थूथनी घुसाए गाय-भैंसों का कुनबा, सिर पर घास के गट्ठर ढोते आदमी और दरवाजों के बाहर बतक्कड़ी में मुनहमिक औरतें। दृश्यों के रेले में निज्जो कहीं रिल गई थी। अपने दरवाज़े पर मौजूद एक मरी-सी औरत मेरे हाथ में थमे मिठाई के डिब्बों पर उत्सुक नज़र डालकर निकट चली आई।

"पाहुनी दीखो?"

मैंने हाँ में गर्दन हिलाई।

कौन लगो या गाम की?

"ननसार है।"

“किसके यहाँ?"

"कुएँ वाली पक्की हवेली। "

“अरे तो बिरहमदत्त पंडज्जी की धेओती हो! मुझे तसल्ली हुई कि अब मैं सही ठिकाने पर पहुँच जाऊँगी। मगर तभी मराऊ औरत ने एक गहरी साँस भरी।

"वहाँ काएको जाओ हो बीबी! हवेली तो ऊजड़ हो गई। वहाँ कोई ना रैता।" बोलते हुए औरत का स्वर किंचित धीमा हो चला था। "जनै किसका सराप लगा है सगला ही बंस ख़त्म हो गया। सास बऊ पता ना कौन से पातक भुगत रई हैं!"

"तो वो लोग अब कहाँ हैं?" मेरे ऊपर थकन घिर आई थी। अंदर तेज़ी से बहता कुछ ठिठक गया था।

"अच्छा तुमैं ख़बर ना है...फेर तो कहीं हेरा जाओगी।" औरत ने निकट ही गोलियाँ खेलते घुटे हुए सिर वाले लड़के को आवाज़ दी।

"अरे किरसन उरै कू आ।" लड़का कमर से खिसकती पतलून को सरकाता आ खड़ा हुआ।

"तेरी फुआ लगे हैं ढोर...ना जै जै ना राम राम।" औरत उसकी टक्कल खोपड़ी पर चपेट लगाकर भिनभिनाई।

“जा फुआनने वेदवती अम्मा के घर तक छोड़िया।" मैं उपकृत हो उठी। क्या अब भी किसी अनजान राहगीर को रास्ता दिखाने लोग जाते है!

लड़का हुमक-हुमककर अपने क़द से दुगुनी बड़ी साइकिल खींचता मेरी अगुआई कर रहा था। वह बीच-बीच में रुकता मुड़कर मुझे देखता फिर पैडल मारने लगता। मैं उसके पीछे मूढ़ अनुचर की भांति रेंगती जा रही थी। मुझे एक-एक क़दम भारी हो रहा था। सारी पुलक कहीं बिला गई थी। हवेली भला क्यों ऊजड़ हो गई! ऐसा क्या हुआ कि कोई न बचा! नानी के संग तीनों में कौन-सी बहू होगी! मन में कितने ही सवाल घुमड़ रहे थे। कच्ची पक्की ..टेढ़ी मेढ़ी अनचीन्ही गलियों को लाँघकर हम गाँव के आख़िरी छोर पर एक घर के आगे रुक गए। जान पड़ता था किसी वजह से वह अधबना ही रह गया। क्योंकि अच्छे बड़े मैदान की चहारदीवारी के अंदर बिना पलस्तर के दो ढाई कमरे चिनने के बाद बुनियाद भरकर छोड़ दी गई थी।

लड़के ने साइकिल को दीवार का सहारा दे फाटक भड़भड़ाकर ज़ोर से आवाज़ लगाई।

"बेदो अम्मा! कहाँ हो...मेहमान आए हैं।"

कई मिनट भीतर से कोई हलचल न उठी। लड़का बंदर की-सी चपलता से चौहद्दी पर चढ़ा और हल्की-सी धप्प की ध्वनि के साथ भीतर कूद गया। थोड़ी देर बाद फाटक की ओट से पचासेक साल की झिलंगी-सी धोती पहनी प्रौढ़ा ने आधा धड़ बाहर निकाला। शीतला के दागों से भरा सँवलाया चेहरा धूप की चौंध से और मनहूस लग रहा था। 

"कौन? " सूरज से बचने को आँखों पर हथेली की आड़ बनाकर दरवाज़े पर खड़ी औरत ने मुझे अचम्भव से देखा। चौड़े चकाट माथे पर अपरिचय की सिलवट पड़ गई।

"देखी-सी तो लगो .. मैं पैचान ना रई। " 

मैं अनाहूत अतिथि होने की आत्महीनता से सिमट गई। लज्जा और संकोच मेरे पूरे मेरे समूचे अस्तित्व पर शैवाल की तरह फैल रहे थे।

"मैं...मैं नीरजा...बड़ी मामी हो न? " मेरे शब्द मानो कंठ में ही फंस रहे थे।

अगले क्षण हड़ियल चेहरे पर जड़ी पीली निस्तेज आँखों में चौंक भर गई। "अरी...निज्जो बीबी हो! अय मैं भी तो कहूँ देखी भाली-सी सूरत है। अनी-बनी इन्दरानी जीजी हो...वोई नाक नकस, वोई काठी। "

सालों बाद अचानक मुझे देखकर मामी अचकचा गई थी।

"दरवज्जे पे क्यों खड़ी हो भीतरे को आ जाओ। " मामी ने फाटक से हटकर मुझे अंदर आने की जगह दी।

"आज कैसे ननसार याद आ गईं।"

मुझसे कोई जवाब न बना मैं बस एक झेंपीली मुस्कराहट ही दे सकी। मामी ने धोती की खूँट में बंधे दस-दस के दो सिक्के निकालकर साथ आए बच्चे की मुट्ठी में ठूँस दिए।

"जइयो रे किरसन...गनेसी की दुकान से बिस्कुट और दालसेव लिया।"

मैं छिपी निगाह से मामी में आई तब्दीलियों को पकड़ रही थी। दुहरा बदन इकहरा हो गया था और सूरत की बदनुमाई दूनी। ज़्यादातर बाल सफ़ेद हो चले थे। आँखों के गिर्द कालिमा गहरा गई थी। वह मेरी निगाह को ताड़कर तेल हल्दी से सने हाथ मैली धोती में पौंछते हुए झेंपी-झेंपी-सी हंसी। 

"तुम भी कैओगी मामी ने कैसा रूप बिगाड़ रक्खा है। अचार गेर रई थी अबके मिरच अच्छी उतरी हैं...तनक धोती बिलौज बदल लूँ।"

मैं खिसियाकर फिर मुस्कराने लगी।

"खड़ी क्यों हो बैठ जाओ...तखत पे जाजिम डाल दूँ?"

"अरे नहीं ठीक तो है।" मैं तपाक से नंगे तख़्त पर बैठ गई। लंबे बरामदे के सामने एक सीध में दो कमरे बने थे। बायीं तरफ़ रसोई। दाएँ में शायद ग़ुस्लखाना। बाक़ी जगह खुली अंगनाई में नीम के पेड़ के नीचे गाय भैंसों की खोर। कभी हवेली से दूर इस अहाते में ढोर बंधते थे। अब वहीं बस रहने भर को दो कमरे डाल दिए थे।

मामी ने हैंडपम्प से पानी खींचकर गिलास भरा और मेरे हाथ में देकर भीतर के कमरे में घुसकर सांकल चढ़ा ली। अंदर से संदूक़ खखोड़ने की आवाज़ें आने लगीं। मेरे चारों ओर बेगानापन कुदकने लगा। मैं ख़ाली-सी गिलास की तली में बैठी गाद को देखने लगी। सालों बाद भी यहाँ के पानी का बकसीला स्वाद मुझे याद था। मैं ननिहाल के पुराने घर को सोच रही थी। अजब-सी हवेली थी। साल की लकड़ी पर आरकूट के चोबदार बोझिल दरवाज़े के भीतर पाँव रखते ही घुटी-घुटी-सी दुआरी। दुआरी की एक सीध में ज़ीना, नहानघर और पाखाना। दुआरी के पार सेहन, सेहन पार तितरफ़ बरामदे और बरामदों के पार उदार कोठे। कोठों में बैठते नानी का जी घुटता था वो महल सरीख़े घर से आई थीं। नानी मिडिल पास थी। उनकी हर बात में ठसक थी। सो उनकी खाट बरामदे में एक नियत जगह पर बिछी रहती। नियत जगह खाट के तले पेटी में हॉर्मोनियम और पीछे आले पर कलसी में नानी के लिए पानी रखा रहता था। बिल्कुल ऐसा ही बेस्वाद और बकसीला।

थोड़ी देर बाद मामी कमरे से बाहर निकली तो बाल पट्टेदार कढ़े थे। चेहरे पर सस्ती क्रीम की सफ़ेद परत चढ़ी थी। नई जुलहटी धोती ढीली चरबी वाले पेट पर क़ायदे से फैली थी। मगर मामी अब भी असहज लग रही थी। या शायद हम दोनों ही कुछ असहज थे। मैं चोर आँखों से घर की दुर्दशा देख रही थी।

घर की दीवारें, खिड़की, किवाडें सब तंगहाली की गवाही दे रहे थे। दीवारों पर चलताऊ रोगन चढ़ा था। खिड़कियों के काँच में दरारें थीं। उन पर पड़े पुरानी धोतियों के परदे हवा से फरफरा रहे थे। गणपति का दो साल पुराना कैलेंडर दीवार पर घड़ी के पेंडुलम की तरह दोलन करता अपने काल का हाल कह रहा था। मामी ख़ुद को व्यस्त दिखाने के लिए तख़्त पर रखी चीज़ों को उलट-पलट करने लगी।

"अब वो ठाठ ना रए निज्जो बीबी। सोलह सौ बीघा ज़मीन थी। तुमारी सारी मौसी मामाओं के ब्याह ज़मीन बेक के ई तो हुए। कई बीघे बिचले लल्लाजी की बीमारी खा गई। कुछ माताजी ने एक भगतजी के नाम कर दी। नहर पार की सगली जमीन सरकारी पिलान में चली गई। आज तलक बी मुआवजा ना मिला। खेती बाड़ी देखने वाला कोई होता तो कुछ हिस्से आता। बंटाई पे देके कुछ ना बचता। साल भर का गेंऊ-दाल बस्स।"

मैंने अनचाहे ही बकबकाए पानी का घूँट भरा।

"तो हवेली भी बेच दी?"

"ना...उसे कौन खरीद रा है!"

"फिर यहाँ क्यों?"

“इत्ते बड़े घर में जी घबरावे था। माताजी हर बखत डरै थीं।

अब तो कैई साल हो लिए। "

मैं हैरान हुई। "वहाँ तो ख़ूब रौनक़ होती थी। "

“रौनक तो बालक बुतरुओं से थी निज्जो बीबी डाँण ने वेई ना छोड़े। "

"डायन!" मेरी उत्सुकता बेलगाम हो रही थी।

मामी ने दीवार का सहारा लेकर बिलखना शुरू कर दिया। “हाँ हवेली किसी परेतनी ने कबजा रक्खी थी। भगतिया ने भतेरे तंतर मंतर करे...कोई असर ना हुआ। "

"क्या कह रही हो मामी इन बेकार की बातों पर हवेली छोड़ दी!" मैं मामी की मूढ़ता पर खुंदक खा रही थी।

“छोड़ दी तो देहली पे दीया बालने को बच गई। तुमारी मान ली मैं भरमा गई, सारा गाम थोड़ी भरमा गया। सब कहवैं है हवेली में से बालक बुतरुओं के रोने की आवाज़ आवै। कोई औरत रातों चिचियावे है। ना तो बताओ घर के सगले बालक किसने खा लिए। एक बी ना जिया।

“मामी शून्य में देखती बोले जा रही थी।

"मेरा बड़ा कोठे पे चिड़ियान को बाजरा गेरने गया...तिमजले से सीधा जाल पे आके पड़ा। खोपड़ी के दो फाड़ हो गए।...बिचले को बिजली ने पकड़ लिया। छोटा गोद का रात को सोया...सवेरे मरा मिला। कतई नीली देह।"

बोलते-बोलते मामी आँखों पर आँचल धरकर विलापने लगी।

"मामा तुम्हारे औलाद के सदमे में ही चले गए। छोटे लल्ला जी का पहलौठा बस दो दिन जिया। गोल-मटोल एकदम खरगोस-सा था। फिर तले उप्पर दो पेट में ही गए। छोटकी मामी मर मर के बची। "

मैं सन्न बैठी सुन रही थी। मेरी कनपटियों पर ख़ून की चाल तेज़ होने लगी थी। मामी अपनी रौ में थी।

“छोटे लल्ला जी की सोते में घिग्घी बंध जावे थी। सो अपना हिस्सा बेक के खुरजा बस गए। कदी कदार भी ना आते। अब तो ख़ैर लुगाई भी उनै छोड़ के अपने पीहर बैठी है। जी तो मेरा बी करे सब छोड़ के कहीं भाग जाऊँ। पर इज्जत से पड़ी तो हूँ। बिराने घर थूकने का बी डर।"

मेरे दिल के नरम कोने में लगातार कोई फांस चुभ रही थी। मामी के रूजोरंज में मुब्तिला होते हुए भी मेरा मन धीरा का ज़िक्र सुनने को कलमला उठा। मगर वह तो हमेशा ही हीन और नगण्य थी। उसकी बात कौन करता!

मेरे आतुर्य से बेख़बर मामी ने चौके में चाय चढ़ा दी। चौके की दीवारों पर कलौंछ थी। कुछ वैसी ही कलौंछ मेरे ज़ेहन पर छाई थी। वह कलौंछ मात्र सम्वाद से ही मिट सकती थी। मैं बातों का सिरा ढूँढने के औरेब में थी।

“और धीरा उसका क्या हुआ...म मेरा मतलब...बिचली मामी?" मैंने सम्भलकर पूछा।

“वो भी खतम हो ली...दसियों साल हो गए...चिट्ठी ना पौंची?" मामी निकट पड़े बेलन से अदरक कूटते हुए नितांत बेलागी से बोली।

"कैसे?" मेरे अंदर एक झनाका हुआ। मुझे लगा मेरी थकन और गहरी हो गई है।

“वाका दिमाग़ चल गया हा बीबी। वाई बावलेपन में कुएँ में कूद मरी।"

मामी ने जैसे कलेजे में कोंचनी भोंक दी हो। अचरज से मेरी आँखें फैल गईं। कानों में सनसनाहट-सी हो रही थी। धीरा के पागलपन की बात मुझे बेतरह साल रही थी। "वह तो अच्छी भली थी। पागल कैसे हो गई!"

"दिमाग का कुछ पता है कहीं का कहीं भागे है।" मामी क़िस्से को टरका रही थी।

“फिर भी कुछ तो हुआ होगा।" 

"उसे खसम चईये था। बिगड़ैल ने छोटे लल्ला जी फंसा लिए। गौनहाई बऊ का जोड़ा कैंची से कतर दिया।"

"क्यों?" मेरे लिए धीरा पहेली हुई जा रही थी।

"जलापे में और काएको? नई ब्याहली से होड़ करे थी। सांझ पड़े ही चुट्टे-बिन्दे कर अतर उड़ा के लल्ला जी के आगे पीछे डोले थी। वो अपने कोठे में घुसते तो उनका दरवज्जा पीट के हल्ला करती। उनके कोठे के आगे बैठ के रातों चीख़े थी।"

अब तक लड़का बिस्कुट नमकीन लेकर आ गया था। मामी ने प्याले में चाय डालकर बेमेल प्लेटों में नमकीन और बिस्कुट सजा दिए। मेरे साथ आई मिठाई के कुछ टुकड़े भी। लड़का खाने के लोभ में तख़्त के किनारे पर जमा हुआ था। उसकी नदीदी आँखे बिस्कुट और कतलियों पर चिपकी थीं। मैं धीरा के प्रसंग को छोड़ने को तैयार न थी। मामी की आँखों ने मेरी इस उद्विग्नता को लपक लिया था।

"जा रे किरसन तनक बाहरे को खेल ले।"

"वह मेरे कान के पास अपना मुँह लाकर फुसफुसाई। क्या बताऊँ निज्जो बीबी...एक रात तो वाने दल्लान में लल्ला जी के आगे अपने धोती बिलौज फाड़ गेरे। क़तई नंगी हो गई। मोय बच्चा चईये। कुछ तो बावली कुछ भूतों खदेड़ी...लल्ला जी की सगली देह बकोट ली। उस दिन माताजी और लल्लाजी ने बहुत मारी। उस्तरे से वाके केस मूँड दिए। रोज ही मार खावे थी। पर ऐसी पक्की कि एक आँसू ना रोई।"

मुझे अपना सिर फटता हुआ लगा। एक स्नायविक आकुली से मेरे सारे रोएं खड़े हो गए थे। “फिर अपने घर क्यों न लौट गई धीरा?"

“वाके पीहरियों ने हाथ झाड़ दिए। वे तो बिचले लल्ला जी के मरन में रोने को बी ना आए। बस चिट्ठी भेजी कि हमने तो अपनी ओर से देखभाल के ब्याह करा। बाक़ी बहन बेटी का भाग। अब वे जैसे रक्खें उनकी चीज़ है।"

नमकीन में सरसों के तेल और मिर्च की झांस थी। चाय में मीठे की अति। मैं चुपचाप बिस्कुट कुतरने लगी। चाय पीते मेरे होंठ चिपकने लगे थे। मामी खड़े-खड़े ही मीठी चाय को कटोरे में सहरा-सहराकर पी रही थीं।

"मैं बी क्या जिकरा ले बैठीं। तुम कहो इन्दरानी जीजी ठीक ठाक हैं?"

“अम्मा तो पिछले महीने छाती के कैंसर से..." मैं दरअसल इस वक़्त धीरा के सिवा और कुछ नहीं सुनना चाहती थी।

अम्मा की ख़बर सुन मामी चाय का कटोरा तख़्त पर टिका लद्द से ज़मीन पर बैठकर बिलखने लगी। "ऐसी नाराजी कि मरते बखत भी याद ना करा जीजी ने।"

कुछ देर को हमारे सम्वाद में मातम छितरा गया था। मैंने ही माहौल को हल्का करने की कोशिश की।

"अम्मा किस बात पर नाराज़ थीं?"

"उनै भी नाराज़ होने को कोई बात चईये थी भला! किसियों बात पे बिगड़ जावें थीं।" मामी रोते-रोते पपड़ाये होठों पर उचड़ आई चाम को दांतों से कुतरकर बोली।

"बिना वजह तो न हुई होंगी!" मैं मामी को पूरी शिद्दत से कुरेद रही थी।

"माताजी से ई कोई राड़ हुई ही।" मामी ने आँख चुराकर कहा। "ऐसी गरब गहेली हीं कि फेर पलट के ना आईं। दौज सलूनो भी छोड़ दिये।"

मामी बातों का रूख़ बदलने की जुगत में थी।

"तुमने भली करी जो आ गईं। माताजी का जी तुममें ई पड़ा है। चाय पानी पी लो तो मिल लियों। अबी सो रई दीखे हैं। जाड़े-जाड़े धूप में खाट गेर दूँ हूँ।"

सहसा मुझे सुध हुई कि मैं यहाँ क्यों आई हूँ।

“नानी कैसी हैं?"

“तीनेक साल हो गए उनै फालिज मार गया...अब तो बस आज कल लगी है।"

चाय ख़त्म होते ही मामी नानी के पास लिवा जाने को खड़ी हो गईं। आँगन के एक निकम्मे कोने में गूदड़ लिहाफ़ ओढ़े एक ठठरी झिलंगी खाट पर पड़ी थी। मेरे दिल में एक धक्क-सी हुई। रोबीली नानी का यह रूप पहचान में न आता था। नानी के पेट पीठ मिलकर एक हो गए थे। आँखें कोटरों में धंसी थीं। बदन से बास उठ रही थी। चिपचिपी लार से लिथड़े मुँह के पास मक्खियाँ भिनक रही थीं। मेरे अंदर कुछ पिघलने लगा था।

“ऐसे अचानक क्या हुआ!"

"सब उसकी लीला है बीबी...हम तुम कौन!" मामी ने आसमान की ओर ताका। “अच्छी भली रोटी खाके सोईं...तड़के भैंस की सानी पानी को उठी तो बरामदे में निसस पड़ीं हीं।...अब बस्स इसी ढाल पड़ी रहवैं। ना मरों में ना जिंदों में। गू-मूत सब इकली कर रई हूँ।" मामी ने नानी के मुँह पर बैठी मक्खियां उड़ाते हुए कहा। 

"कुछ खाती वाती हैं?"

"तनक मनक-सी दलिया खिचड़ी निगल ली तो भौत जानो। पैले ज़रा नमक जादा पड़ जाए तो थाली सरका देवें थीं। ले जा याय मोसे ना खाए जा रए तेरे तीमन। अब रोटी की भी ना रईं।"

मामी ने खाट पर पड़े लोथ को हिलाया- ”माताजी! माताजी!

उठ ना रईं। देखियों कौन आया है...रात दिन याद करै थीं।"

कोटरों में धंसी आँखे खुलीं। आँखों ने मेरी शिनाख़्त की। आँखों में हैरत भर गई। आँखों ने हल्का-सा झपककर मुझे क़रीब बुलाया। बोलने के प्रयास में पपड़ाए होठों के कोरों पर बेतरह लार इकट्ठी होने लगी थी। बड़े यत्न के बाद हिलते नानी के टेढ़े होठों से फूँक भर निकली। जैसे दो गूंगे बोल मेरे कान में सुर-सुर हुए।

“नि---ज्जो......बा---जा। "

मेरा कन्ठ रूंध गया था। मैंने नानी की क्षीण देह को अपनी बाँहों में भर लिया। मैं हैरान थी कि बूढ़े बाजे ने नानी और मुझे आज भी उसी पुख़्ताई से जोड़ रखा है। नानी की आँखों ने मेरे अगल-बग़ल देखकर सवालिया ढब से पलक झपकाई। उस झपक का मंतव्य मैं समझ गई थी।

"अम्मा नहीं रहीं।" बोलते हुए मेरी आवाज़ भारी हो थी। नानी का नहीफ़ बदन फरफरा उठा। हतप्रभ आँखों से बल्ल-बल्ल खारा दरिया बह निकला। एक व्याकुल चुप हमारे बीच पालथी मारे बोलती रही। दिन बुझ रहा था। नानी की खाट बरामदे में खींचकर मामी ने पुरानी चादर की धूल भरी आयताकार गठरी मेरे सामने रख दी।

"ये धरी तुम्हारी सौगात। ननहार से बस यू ई नेमत आई तुम्हारे हिस्से।" कहते हुए मामी के चेहरे पर रंज उतर आया था।

मगर मेरे भीतर बैठी सात बरस की निज्जो हुलस उठी। “अरे इसमें अब भी जान बाक़ी है!" मैं ताज्जुब में थी। हॉर्मोनियम जस का तस था। हॉर्मोनियम बजाना सीख चुकी मेरी अंगुलियाँ बाजे की कुंजियों को महसूस रही थीं। सफ़ेद-काली तमाम कुंजियाँ सलामत थीं। किंतु मैं जाने क्यों उस आबनूसी पेटी के बारे में सोच रही थी। जिसमें नानी हमेशा बाजे को बड़ी एहतियात से रखती थी। हॉर्मोनियम का उस पेटी से जुदा होना कोई सामान्य बात नहीं थी।

"इसकी पेटी कहाँ गई?" हैरत मुझ पर वाक़ई तारी थी।

“पता ना। रहवै तो था पेटी में ई। पर कैई साल हो गए याईं गाँठ में बंधा है। बीमारी से पैले भी माताजी रोज सवेरे इसमें से ई खोले थीं।"

मामी मेरी मनोदशा से असंपृक्त हो हुलास से मेरी मेहमानदारी में रम गई थीं।

“थोड़ी-सी कचौरी उतार दूँ...तुम आ गईं तो जी कर आया, ना तो एक टैम बनाया दो टैम खाया। मुज इकली का कित्ता पेट। अब पैले जैसी बात ना रई। जादा देर खड़ी रऊँ तो गोड़ टूटन लगैं।"

मैं पास ही आसन डालकर मटर छिलवाने बैठ गई। मेरे अंदर देर से एक नासब्र तलब उठ रही थी।

"मैं ज़रा हवेली हो आऊं? "

"अब इस बखत! अबेर हो गई...बिजली बत्ती भी ना है।" मामी के लिए मेरा आग्रह असंगत और अनपेक्षित था।

"गली मोहल्ले में कोई तो होगा...दीया ढिबरी दे देगा।" बोलते हुए मुझे लगा था मैं असभ्य और निरंकुश हो रही हूँ।

“पूरा मोहल्ला बियाबान हो गया। अब गामन में कौन रहवै...बड़े बूढ़े पड़े उमर टेर रए हैं।" मामी ने अपने कौशल से निबटारा करने का यत्न किया। “फिर भी ना मानो तो कल बखत हो अइयों।"

ठंड से सिकुड़ी हुई-सी फ़ाख़्तई साँझ में मामी धुएँ के परदे के पीछे कचौरियां तल रही थीं। कोई सीली लकड़ी लगातार धुँआ छोड़ रही थी जिससे आँखें कड़ुआ रही थीं। या ये कड़वाहट किसी और चीज़ की थी! मामी ने अपने जानिब ख़ासा तर भोज बनाया था। तेल मसालों की तह में लिपटा सूखा सीताफल, रसेदार आलू मटर, मोयनदार कचौरियां।

लेकिन मेरे अंदर धीरा बेतरह कुलबुला रही थी। जैसे बस अभी उस कुएँ में झांक लूँ जिसमें धीरा कूद मरी थी। मेरा मन बुझा हुआ था। अनमनाहट में थोड़ा-सा खाकर मैं एक तुर्श डकार छोड़कर उठ गई।

"ठीक ना बना?" मामी ने मायूसी से पूछा।

“नहीं अच्छा था। रात को कम ही खाती हूँ।"

मामी ने चूल्हे की राख बराबर की। बुझबुझाती लकड़ियां तसले में भरीं और नानी की खाट के तले रख दीं।

“सारी रात माताजी के खर्राटों की डाक बंधी रहवै। पलक से पलक ना लगती। सो इनकी खाट अब बरामदे में ही कर दूँ।"

मामी ने मेरा बिस्तर भीतर बरोठे में लगाया था। तकिए और चादर ने शायद सालों से धूप न देखी थी। उनमें अजीब-सी हमक भरी थी। चादर के किनारे पर रेशमी धागों से कढ़े गुल-बूटों के बीच लाल डोरे से धीरा और प्रमोद कढ़ा था। यह पच्चीसों साल पुरानी धीरा के दायजे में आई चादर थी। मामी गिलास में दूध रख लालटेन की लौ नीची कर चली गई। मैं तकिए में मुँह गाड़कर सोने की कोशिश करने लगी। अचानक लगा जैसे सीलन भरी बोसीदा चादर से धीरा के कस्तूरी इत्र की सुवास उठ रही है। तकियों और चादर पर कढ़े हुए फूल महकने लगे थे। मेरी आँखों में दूर तलक नींद न थी।

अगहन की ठंडी बौखलाई-सी वह रात गुज़रनी भारी हो रही थी। जाड़ों की रात और जेठ की दोपहर कैसी सूनी और स्तब्ध होती हैं। ऐसे सूनेपन में किसी कुत्ते के भौंकते ही कुत्तों के लगातार भौंकते जाने की आवाज़ें, किसी रात के पंछी की बेसुरी टेक बेचैन कर देती है। हारकर मैं खुली अँगनाई में निकल आई।

बरामदे में नानी अब भी जाग रही थी। बीमार की रात पहाड़ बराबर होती है। बाहर ख़ूब चांदना था। मगर मेरे मन पर अंधकार छाया था। हवा में अजीब सनक थी जैसे बर्फ़ छूकर लौटी हो। मैं किसी ख़ल्वत में दूध का गिलास उठाए आसमान को ताकने लगी। क्या किसी तूफ़ान के आसार हैं? प्याला ख़ाली होने तक भी आसमान ने अपना हाल न कहा। जैसे नानी चुप थी। जैसे मामी और मेरे भीतर की हलचल मेरी शक़्ल पर शाया न हुई थी। मैं मामी की बातों से अपनी स्मृति का सिलसिला जोड़ रही थी। कड़ियाँ जोड़ते मन फिर विगत में भटकने लगा। इस भटकाव में मैं नीरजा से फिर निज्जो हो गई। और यह सोचकर अचंभित होती गई कि कैसे अपनी सारी चेतना को एक बिंदु पर एकजुट कर देने भर से मेरी याद पर पड़े परदे उघड़ने लगे हैं।

अब निज्जो अम्मा के साथ ईंट-खरंजे की गली में उस पुरानी पक्की हवेली के सामने खड़ी थी। हवेली पर नया रंग-रोगन हुआ था। फिर भी चौमासों में आई सीलन दीवारों से चिपककर बैठ गई थी। कच्चे दगड़े से गुज़रकर आने की वजह से उसके पैर धूल से भरे थे। उसे अम्मा उद्विग्न लग रही थी। वह चिट्ठी भेजकर आए अप्रत्याशित बुलावे पर घबराई हुई थी। दुआरी पार करके अम्मा ने अटैची बरामदे के थमले से टिका दी। बरामदे में पटसन के पीढ़े पर बैठी नानी सारा वजन घुटनों पर तौलकर "अरेsss मेरे रामजी तेरा ही सहारा...“ कहते हुए खड़ी हो गई और ऊँचे सुर में रोने लगी। घर आई मौसियां और मामी भी सुर में सुर मिलाकर विलाप कर रही थीं। निज्जो महीनों पहले हुई किसी मृत्यु के बाद बरसी होने तक हर मिलन पर रूदन के इस रिवाज को नहीं जानती वह इस माहौल से अप्रतिभ होकर ऊपर की मंजिल पर दौड़ गई थी। सीढ़ियों के ठीक सामने एक बड़ी बैठक थी। बैठक के आगे लोहे का बड़ा जाल था। जाल के पार लाल फ़र्श वाला तिदरा बारजा। निज्जो जाल से नीचे झाँकने लगी। वहाँ किसी बात पर ऊँची आवाज़ में जिरह हो रही थी। वह उकताकर लाल फ़र्श पर बने वृत में किसी माहिर नर्तकी की तरह अपनी घेरदार फ़्रॉक को लहराकर गोल-गोल घूमने लगी। उसके पैरों में जैसे चकरघिन्नीयाँ लगी थीं। घूमते-घूमते वह निढाल होकर जाल पर औंधी लेट गई। उसकी आँखों में सब कुछ तेज़ी से गोल-गोल घूम रहा था। अब पूरी दुनिया उसे गोल लग रही थी। गोल...गोल...और बिल्कुल गोल। नानी दरवाज़े के पीछे दुबकी धीरा पर बिगड़ रही थी। दुबली बेहाल हो चुकी धीरा में कुछ तंदरुस्त और बहाल था तो उसका पेट। वह अपने उभरे पेट को अपनी बेरंग साड़ी का पल्लू फैलाकर छिपाने की नकारा कोशिश कर रही थी और पल्लू का दूसरा सिरा रुलाई रोकने को मुँह पर रखा था। इस कोशिश में उसका चेहरा अजीब लग रहा था। उसके पेट को देखकर निज्जो की कल्पना में नन्हें-नन्हें हाथ पाँव उग आए। अब उसकी प्रजा में वृद्धि होगी। किंतु अचानक उसकी अम्मा ऊँचे कन्ठ से बोलने लगी। वह क्रोध से नानी को बँकार रही थी। "पाँचवा महीना चढ़ गया है अम्मा...अब सफ़ाई के माने जानती है? ये मर जाएगी।"

"उत्ती रांड कल की मरती आज मरे...जनम में थुकवा दिया।" नानी झौंहाकर बोली। प्रतिवाद में अम्मा के चेहरे पर घृणा फैल गई थी। वह तल्ख़ हो उठी- "थुकवाया तो तुम्हारे लल्ला ने भी...उसका क्या?"

धीरा डबकौहाँ आँखों से गरजती नानी को देख रही थी। "आदमी को मरे साल ना हुआ...इसके ऐसी आग उठ रई थी कि पूत समान देवर ना छोड़ा। मैं तो सोच रई थी यूँ ही फूल रई है।"

"पूत समान देवर तो माँ समान भौजाई...छोटे को ये पाठ ना पढ़ाया अम्मा...जो हुआ दोनों की राज़ी थी?" अम्मा ने माहौल में जैसे ज़हर उगल दिया हो। बड़ी मामी एकदम से बमक उठी थी। चेचक की दगीली सूरत असम्मति की भड़क से ललिया गई।

"आदमी को भी कहीं दोस लगै है इन्दरानी जीजी!"

मौसियां अलग तन्ना रही थीं। "इज्जत पर ढेले फेंकने आई हो जीजी कि सुलह सफ़ा करने!"

पीढ़े पर बीजना झलती नानी को हौंसला मिल गया। बीजने की डंडी सांट से धीरा की कमर पर पड़ी। उसकी छिलमिलाहट से वह दरवाज़े पर सिर पटककर चीख़ पड़ी। "माताजी मैं अपना बच्चा ना गिराऊं...देखो नन्ही जान पेट में कैसे डोल रई है।"

रेडियो की आवाज़ बढ़ा दी गई। धीरा अपने उभरे हुए उदर पर हाथ रखकर लगातार रिरिया रही थी। पैर पडूँ हूँ मोय बालक खाने वाली डायन मत बनन दो। परमोद जी का हिस्सा दे दो यहाँ से कहीं दूर चली जाऊँगी। कसम उठाऊँ जो कभी दीखूँ। "

"आ तोय तेरा हिस्सा दूँ।" नानी का बीजना फिर घूम गया। इस बार चोट गाल पर पड़ी थी। चोट खाकर धीरा का गाल कल्लाने लगा था। कुछ देर बीजना घूमता ही रहा। अम्मा नानी को धकेलकर चिल्लाने लगी।

“तू कहीं न जाएगी धीरा। तेरा इकली का दोष ना है।"...इस उमर में क्यों पाप कमा रही है अम्मा...एक काम कर चद्दर डलवाकर इसे छोटे को बिठवा दे। जिसकी करनी उसके माथे...इस बेचारी को भी आसरा होगा।"

अम्मा ने जैसे सलाह नहीं बम फेंका था। नानी गश खाकर धड़ाम से गिर पड़ी थी। "जीते जी हवेली के माथे नील का टीका ना लगन दूँ।"

नानी के दाँत भिंच गए थे। आँखों की पुतलियाँ उलट गई थीं। बाक़ी लोग उनके हथेलियां और तलुवे रगड़ रहे थे। पानी के छींटे मारती बड़ी मामी अम्मा को गरियाने लगी थी।

"कुछ तो लोक लिहाज रक्खो जीजी। तुमने तो दुनिया पेट में धर ली। चौके की रांड बालक जनेगी!" मामी की भद्दी सूरत पर सधवा होने का दर्प चिलकने लगा था। वह धीरा को खा जाने वाली नज़र से घूर रही थी।

"मोरी की ईंट कँगूरे पर ना चिनी जाती। पंडज्जी चलन-कलन देख गए हैं। नहान पीछे लल्ला जी का लगन है।"

अम्मा ने तुरंत थमले से सटी अटैची उठा ली। निज्जो की बाँह खींचती बोली "तो समझ लो इंद्राणी मर गई। अब इस देहरी कभी पाँव ना धरूँ। "

अचाक ही मेरे क़रीब एक सरसराहट हुई। बड़ी मामी शायद पेशाब के लिए उठी थी। मुझे जागते देख मेरे क़रीब चली आईं थीं।

"अरे सोईं ना निज्जो बीबी! यहाँ काएको जड़ाई मर रई हो?"

"नींद नहीं आ रही।" धीरा अब भी मेरे ज़ेहन को जकड़े हुए थी।

"माताजी की नाक बज रई होएगी।" मामी हंसते हुए मेरे पास ही खोर की ठंडी मुँडेर पर बैठ गई। मैंने उनकी अलसाई आँखों में अपनी आँखें गाड़ दीं।

"धीरा के उस बच्चे का क्या हुआ?"

मामी का चेहरा एकदम फ़क्क पड़ गया। "कौन-सा बच्चा! कहाँ सुनयाईं! कानों और आँखों में चार अंगुल का फरक होवे।"

“बनो मत मामी। वही बच्चा जिसने सारा वंश खा लिया। धीरा डायन बन गई।" मेरी बेचैनी फनफनाकर बेलगाम हो रही थी। आवाज़ में ज़हर भर गया था मानो मेरे अंदर अम्मा की रूह उतर गई हो। मामी के चेहरे की मुर्दनी अंधेरे में भी दीख रही थी।

“माताजी ने कुछ कही?...कसम धरा लो बीबी...जिस रात उसे दरद उठे मैं पीहर गई थी।

मामी मेरे हाथ पकड़कर सिसकने लगीं।

"इंदरानी जीजी ने ठीक कही थी। धीरा को छोटे लल्ला जी को बिठा दो पर माताजी ना मानी। लल्ला जी बी मुकर गए। उनै कोरी लौंडियाँ चईये थी।"

मेरे मन में घृणा घुमड़ रही थी। मैंने मामी की दिलासा के लिए कोई यत्न न किया। वह ग्लानि थी या ग़ुबार बोलते-बोलते मामी की सिसकारियां रुदन में बदल गई थीं।

"धीरा को इस घर में कोई सुख ना मिला। जाते जाते परमोद जी अपना मरज बी दे गए...उनकी तरह ही रोज़ बुख़ार चढ़न लगा था। खाँसते खाँसते बेदम हो जावे थी। जो छोटे लल्ला जी के गैल बैठ जाती तो घर का नास काएको होता। काएको सारे बालक मरते।"

जी भर रोने के बाद मामी कुछ संभलने लगी थीं।

“बच्चा गिराने में धीरा मर मरा जाती तो सगले गाम में हल्ला हो जाता। सो चार महीने वो कोठे में मूँदे रक्खी। जापे को चार गाम पार से दाई बुलाई। लड़की हुई थी। मैंने पूछी तो माताजी बोलीं दाई को ई दे दी। चार बीघा ज़मीन भी वाके नाम लिख दी।"

"वो दाई कहाँ मिलेगी?" अंधेरे में एक आस किरण चमकी थी जिसे मामी ने ठीक अगले ही पल बुझा दिया।

“मोय ख़बर नाय। अब तो मर मरा गई होएगी।...माताजी धीरा को लड़की का मोह दिखाके ई काबू रक्खे थीं। कहवै थीं बड़ी हो जान दे हवेली में लियाऊंगी। बस काई को ख़बर ना हो तेरी लौंडिया है। धीरा वाई दिन की बाट देख रई थी। पर एक दिन पता ना क्या देख लिया कि आधी रात माताजी की छाती पे चढ़ बैठी। दोनों हाथों से गला दाब लिया। डकरा-डकरा के रोई। लबरी कसाइन आज तुजे ना छोड़ूंगी मेरी बच्ची खा गई। बड़ी मुस्किल छुड़ाई। उस दिन से ई घर के दुरदिन आ गए। एक एक कर घर के सगले बालक खतम हो गए।"

मैं सन्नाई बैठी थी मगर दुविधा की धुंध पूरी तरह छँट चुकी थी। मैंने बरामदे में खर्राटे भरती नानी को झिंझोड़ डाला।

"धीरा की बेटी कहाँ है नानी?" नानी मरी मिट्टी-सी अवाक पड़ी रही जैसे बहरा गई हो। मामी ने मेरा हाथ पकड़ लिया।

"मेरा जी ना मानता वो जीती होगी। जिसे छुपाने को इनोने इतने जतन करे उसे हवेली के बाहर निकलन देतीं भला!"

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अगली सुबह मैं ऊजड़ हवेली के सामने खड़ी थी। मामी ने चाबी थमाते हुए ताक़ीद की थी। "देखके पैड़ी चढ़ियों। छजली अछुआई हो रई है। पार साल असाढ़ के हल्लन में पिछल्ला कोठा ढै गया।"

गली में किसी की आहर-जाहर न थी। चबूतरे पर सूखी हुई काई के छिलके जमा थे। हवेली की दीवारों में पीपल फूट आए थे जो चौमासों के बाद और हरे हो गए थे। दीवारों पर उकेरी हुई शेरों, मोरों, हाथियों और फूलों की आकृतियाँ बिगड़ गई थीं। दरवाज़े के ऊपर जालीदार मेहराब में कबूतरों के कुनबे बस गए थे। सूनी गली में उनकी गुटकन गूँज रही थी। सालों से बंद पड़े ज़ंग खाए ताले को खोलने में मुझे खासी मशक़्क़त लगी। लकड़ी का बोझल दरवाज़ा कई धक्कों के बाद उग्र चरमराहट के साथ खुला था। उस बंद दरवाज़े के पार जैसे कितने साल और मौसम रुके हुए थे। मुझे लगा हवेली के हरेक कोने में परछाइयां भटक रही हैं। रीते घर में मेरी पहचान की आवाज़ें निर्वात में तिरती आती हैं। सेहन से एक पुलक उठकर मुझे गोद में भर लेती है- "अय मेरी निज्जो आ गई अब नानी नतनी की ताल बाजेगी।"

बंदूक की गोली-सी दनदनाती कोई पुकार चीख़ती है- "धी---राsss...अरी जले पाँव की बिलैया।"

एक मुर्दार हकलाहट सीढ़ियों से उतरती आती है- "आ---ग---ई---ल लल्ला जी ने चखरी थमा रक्खी थी।"

कोई धिक्कार पैनी कटार की तरह गड़ती है- "चौके की रांड बालक जनेगी!"

कोई गिड़गिड़ाहट मन को द्रवित कर जाती है- "मोय बच्चा खाने वाली डायन मत बनाओ।"

कोई ठसक ऐंठने लगती है- "हवेली के माथे नील का टीका ना लगन दूँ।"

सेहन में हॉर्मोनियम की आदिम धुन के टुकड़े बिखरे हुए हैं।

कोई दारुण खाँस, कोई दौड़ती पदचाप, कोई हंसी, कोई गीत, कानों में झन-झन बजता है।

मैं निज्जो की काया में उतरने लगती हूँ।

जिस दिन निज्जो ने धीरा को आख़िरी बार देखा था उस दिन बरामदों से सेहन तक जाजिम बिछी थी। दरवाज़ों पर आम्रपत्तों के तोरण सजे थे। पिछवाड़े भट्टियों पर कड़ाह चढ़े थे। हलवाई लड्डू बांध रहा था। मठरियां छन रही थीं। नानी अपनी धराऊ बनारसी पहने मोतीचूर और बताशे बांट रही थी। ढोलक की थाप पर औरतों के संकुल में बैठी धीरा लगातार खाँसते हुए लहक लहककर बन्ने गा रही थी। उसकी आँखों में अजीब वीरानगी थी।

माई री----मैं टोना करिहौं ssss
सुआ की चोंच कबूतर के डैना
उड़त चिरैया के नैन री...मैं टोना करिहौं।
इन तीनन का मैं भसम बनइहों
लगाऊँ बन्ने के पाँव री
भसम लगाय बन्ना पाँव न चलिहै
चढ़े ना पराई सेज री...मैं टोना करिहौं।

अपनी कसम पर क़ायम अम्मा अपने छोटे भाई के ब्याह में नहीं आईं थीं। धीरा का पेट सपाट था। निज्जो की समझ के मुताबिक उसकी गोद में आँचल ढाँपे चुसर चुसर दूध पीता एक बच्चा होना चाहिए था। मगर वह नहीं था। वह क्यों नहीं था! उस रोज़ उसकी खोज में निज्जो की आँखें हवेली के सारे कोने झाँक आई थीं।

कोई कबूतर फड़फड़ाया तो मेरा ध्यान बिखर गया। मैं मांद क़दम चलती कुएँ की जगत पर बैठ गई। आज मैंने कुएँ में झाँककर अपना नाम नहीं पुकारा था। मैं भर्राए कन्ठ से चिल्लाई "धी ssssरा ssss।" और प्रतिनाद में मुझे मानो ब----चा----ओ जैसी कोई गुहार सुनाई पड़ी थी। जाने कितनी देर अपना रीता मन लिए मैं कुएँ की जगत पर बैठी रही।

धीरा पागलपन में कुँए में कूद पड़ी थी या उसे कुएँ में फेंक दिया गया था मुझे यह बात कोई बताने वाला न था। वैसे भी दोनों बातों में कोई बड़ा अंतर नहीं था। मैं ज़ोरों से रोना चाहती थी लेकिन छाती पर भारी बर्फ़ जमी थी। सांझ ढलते मैं थके क़दमों से लौट पड़ी। चौथे पहर का सात्विक सूरज उस घड़ी ना मालूम किस दिव्य कोण पर था कि उजालदानों से आती रौशनी सीधे टूटे किवाड़ों वाली बखारी पर पड़ रही थी। अचानक मेरी चुंधियाई आँखें चिहुंक उठीं। रौशनी की उन नारंगी लकीरों से बखारी में लकड़ी के वजनी लट्ठों के तले दबी वह गराँदार आबनूसी पेटी मुझे मिल गई थी जिसमें नानी का हॉर्मोनियम क़ैद रहता था। उसके कुन्दे में ताला पड़ा था। मगर मुझमें उसे तोड़ने का हौंसला न था। मेरी आँखों में एक सद्यजात बच्ची के गदबदे हाथ पाँव कुलबुला रहे थे।

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