2010 में रवींन्द्र कालिया के संपादन में छप रही पत्रिका ‘नया ज्ञानोदय’ का एक ‘महाबेवफाई अंक’ निकला। उसमें “उसके हिस्से की धूप” का कुछ संक्षिप्त रूप प्रकाशित किया गया था। और जैसा रवींद्र कालिया से अपेक्षित था, उसका प्रथम प्रकाशन वर्ष नहीं दिया गया था। मेरा फोन नंबर अलबत्ता मौजूद था।
Qisse Mridula Garg Ke: Uske Hisse ki Dhoop (Photo: Bharat Tiwari) |
मृदुला गर्ग से हो रही लंबी बातचीत के बीच उन्होंने हमारे साहित्य की पहुँच और रवींद्र कालिया के संपादन से जुड़ी, हिंदीवालों की आँखें पूरी तरह खोलने की ताकत रखने वाली एक घटना सुनाई। मेरे अनुरोध पर उन्होंने उसे लिख भी दिया। अब यह नहीं पता कि इससे आँख खुलेगी या काँख में दर्द होगा। ~ भरत तिवारी (सं0)
एक दिलचस्प किस्सा
:: मृदुला गर्ग
एक दिलचस्प किस्सा बयां कर रही हूं। मेरा पहला उपन्यास ‘उसके हिस्से की धूप’ 1975 में छपा। बरसों तक हमारे हिंदी आलोचक उसे हिंदुस्तान के लिए अप्रासंगिक बतलाते रहे। पर आम जनता पढ़ती रही। आज के संदर्भ में देखें तो नामुमकिन सा लगता है।
एक दिन मेरी बहन, लेखिका मंजुल भगत आटा खरीदने गई तो देखा दुकानदार किताब पढ़ रहा था। आटा मांगा तो नजर उठा कर उसे देखा नहीं, पढ़ता रहा। उसने दुबारा कुछ ऊंची आवाज में मांग दोहराई तो बोला, ”देख रही हैं न, किताब पढ़ रहा हूं। अध्याय खत्म कर लूं तो दे दूंगा।”
उसने झांक कर देखा, पढ़ी जा रही किताब “उसके हिस्से की धूप” थी। उसने बाद में मुझसे कहा, सोचा, चलो बहन की खातिर थोड़ा इंतज़ार सही।
और सुनिए।
कुछ दिन बाद जीजाजी ने एक युवक को बस की पेटी पकड़, खड़े-खड़े “उसके हिस्से की धूप” पढ़ते देखा तो पूछ बैठे,” कैसा है उपन्यास?” जवाब मिला, ”सॉलिड है।”
है न मजे की बात। आज के युवा तो ओंठ सिकोड़ कर कहें, हिंदी उपन्यास कौन पढ़ता है!
खैर, अगला मसला और दिलचस्प है। हुआ यह कि 2010 में रवींन्द्र कालिया के संपादन में छप रही पत्रिका ‘नया ज्ञानोदय’ का एक ‘महाबेवफाई अंक’ निकला। उसमें “उसके हिस्से की धूप” का कुछ संक्षिप्त रूप प्रकाशित किया गया था। और जैसा रवींद्र कालिया से अपेक्षित था, उसका प्रथम प्रकाशन वर्ष नहीं दिया गया था। मेरा फोन नंबर अलबत्ता मौजूद था।
लोगों ने सोचा किसी नवयुवती का लिखा ताज़ा उपन्यास है।
फिर क्या था।
हिन्दुस्तानी युवाओं के धड़ाधड़ फोन आने लगे।
एक से एक रोमानी, फ्लर्ट करने की कोशिश करते,फोन।
मेरी उम्र तब साठ से ऊपर थी।
बहुत मज़ा आया। कॉलेज के दिन याद कर मैं वे फोन सीढ़ियों पर बैठ कर मुकम्मल किया करती।
आप जानते ही होंगे, कॉलेज के दिनों में हर रोमांस का आगाज़ सीढ़ियों पर तशरीफरमा हो कर हुआ करता था। कभी इंतिहा भी वहीं हो जाती!
जवान बेटे ने कई बार पूछा, ये तुम फोन ले कर सीढ़ियों पर क्यों बैठती हो।
है कोई बात। याददाश्त पर जोर दो, समझ जाओगे मैंने कहा।
काफी दिन बीत गए। मैं उस खेल से ऊबने लगी। तभी एक फोन आया। लरज़ती आवाज़ में बंदा इतना रोमानी हो रहा था कि मुझे लगा इंतिहा का सही वक्त आ चुका। उधर उसने कहा, मैं तय नहीं कर पा रहा, मैं जीतेन हूं या मधुकर (उपन्यास के दो पति), इधर मैं, “ओह यह बतलाना तो भूल ही गई कि पहली बार यह उपन्यास 1975 में छपा था।”
सनाका छा गया। ऐसा घनघोर सन्नाटा कि चुप्पी तक सुन सको। फोन कट गया।
मिनट भर बाद फिर बजा। उठाया तो लरज़ गायब संजीदा स्वर ने कहा, ”मैं प्रणाम करना भूल गया था।”
हँसी ऐसी छूटी कि जीते रहो भी न कह पाई।
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