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आज बुद्धिजीवी होना गर्व का नहीं, लज्जा का विषय बना दिया गया है | Sachet Ka Sadya (Durgaprasad Agrawal)

सदाशिव श्रोत्रिय की यह सुंदर समीक्षा पढ़ने के बाद दुर्गाप्रसाद अग्रवाल की किताब पढ़ने का बहुत मन हुआ, सोचा अभी मँगा लूँ और तब... हिन्दी की नाव कितने पानी में है पता चला - 'साहित्य भण्डार' द्वारा प्रकाशित 'सचेत का सद्य' ऑनलाइन उपलब्ध नहीं है - हिन्दीवालों, अपनी नैया पार करनी है तो प्रकाशकों को घेरें, संपादकों आदि को नहीं! ~ भरत तिवारी (सं)


Sadashiv Shrotriya - Book Review: Sachet Ka Sadya (Durgaprasad Agrawal)


सचेत की व्यथा (समीक्षा‌)

डॉ सदाशिव श्रोत्रिय 

कवि, अनुवादक और गद्यकार, अनेक पुस्तकें। उदयपुर में निवास। आलोचना के लिए राजस्थान साहित्य अकादमी का देवराज उपाध्याय पुरस्कार। सम्पर्क: 5/126, गोवर्धन विलास हाउसिंग बोर्ड कॉलोनी, हिरणमगरी सेक्टर # 14, उदयपुर-313 001 | मोबाइल: 82904 79063 | ई मेल: sadashivshrotriya1941@gmail.com

 
दुर्गाप्रसाद अग्रवाल मेरे बहुत पुराने और अजीज़ मित्र हैं। उनमें वे बहुत से गुण हैं जिनका मैं अपने आप में अभाव पाता हूं। आलस्य उनके स्वभाव में कतई नहीं है जबकि मैं अपने आप में उसकी बहुलता देखता हूं। उनका सबसे बड़ा गुण उनका भरोसेमंद होना है। उन्होंने किसी काम के लिए हां भर ली तो आप मान सकते हैं कि वह हो गया। वे उन पर किए उपकार को कभी नहीं भुलाने वाले उन सज्जनों में से हैं जिनके लिए चाणक्य-प्रणीत एक सूत्र में कहा गया है: “तृणमात्र परप्युकारम शैलवन मन्यते साधु:”। उन्होंने अपनी हिंदी-प्राध्यापक की सरकारी नौकरी हमेशा पूरी कर्तव्यनिष्ठता के साथ की। बाद की अपनी अफ़सरी के दौरान भी वे हर रोज़ सबसे पहले कुर्सी पर आकर बैठने वाले अफ़सरों में से रहे। पुस्तकों से उनका ज़बरदस्त लगाव रहा है और जिस महाविद्यालय में वे रहे उसके पुस्तकालय को उन्होंने पुस्तकों की दृष्टि से समृद्ध बनाने में कोई कसर नहीं रखी। अपनी संस्थाओं के सांस्कृतिक परिष्कार के लिए वे निरंतर प्रयास करते रहे और इसके लिए तरह–तरह के आयोजन करते-करवाते रहे। अपने मित्रों के प्रति वे सदैव अत्यंत उदार और हर तरह से सहयोग करने वाले रहे। उनका जीवन बहुत अनुभव-सम्पन्न रहा है। उन्होंने कई देशों की यात्राएं की हैं और वहां के समाज को काफ़ी क़रीब से देखा है। अपनी तमाम व्यस्तताओं के बावजूद वे अखबारों में आज भी अपना स्तंभ-लेखन नियमित रूप से करते हैं। हमारे समय के बहुत से बदलावों के प्रति वे एक सकारात्मक दृष्टिकोण रखते हैं। इंटरनेट की दुनिया से संपर्क साध कर उसका सार्थक उपयोग करने वाले राजस्थान के साहित्यकारों में वे अग्रणी रहे हैं। अपने मिलने वालों से उनके संबंध काफ़ी मधुर रहे हैं और ‘अजातशत्रु’ जैसा विशेषण उनके लिए आसानी से प्रयुक्त किया जा सकता है। 

यह बहुत स्वाभाविक है कि व्यक्तिगत जीवन में इतने क़ायदे से चलने वाला और अपने कर्तव्यों का पूरी निष्ठा से निर्वाह करने वाला कोई सज्जन जब इस देश में व्याप्त अनेक प्रकार की लापरवाहियों और अव्यवस्थाओं को आए दिन देखे तो उसका मन काफ़ी व्यथित हो। सचेत का सद्य वस्तुतः विभिन्न संदर्भों में भारतीय जीवन की अनेक विरूपताओं को देख कर डॉ अग्रवाल के मन में उत्पन्न होने वाली व्यथा की ही अभिव्यक्ति है जिसे अपने साप्ताहिक लेखन द्वारा उन्होंने निरंतर अपने पाठकों के सामने रखा है ताकि उनके मन में भी भारतीय जनतंत्र के प्रति अपने नागरिक कर्तव्य का बोध बना रहे। वे देखते हैं कि हमारे यहां नियम-कानून बनते हैं पर उनका कोई गम्भीरता से पालन नहीं करता और न ही हमारे यहां का शासन-तंत्र उनका पालन करवाने की कोई गम्भीर कोशिश करता है। हमारे यहां सरकारी स्कूल-कॉलेज धड़ल्ले से खोल दिए जाते हैं पर उनमें पढ़ाई की समुचित व्यवस्था नहीं होती। अपने एक लेख (पृष्ठ 10) में वे बताते हैं कि 
राजस्थान के जिन 180 राजकीय महाविद्यालयों में करीब साढ़े सात लाख विद्यार्थी उच्च शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं उनमें से करीब पचास यानी एक तिहाई से भी कम में ही पुस्तकालयाध्यक्ष कार्यरत हैं, शेष सब जगह पद रिक्त पड़े हैं।
बिल्ली के गले में घंटी बांधेगा कौन?  शीर्षक अपने एक लेख में वे इस बात की ओर ध्यान दिलाते हैं कि हमारी सार्वजनिक सड़कों के बहुत से भाग का आए दिन तरह-तरह से अतिक्रमण होता रहता है और इसके विरुद्ध सामान्यतः कोई कार्रवाई नहीं होती। नियमपालन और ईमानदारी हमारे यहां अधिकतर लोगों के स्वभाव में नहीं है और अपने फ़ायदे के लिए हम स्वयं भी किसी नियम के उल्लंघन के लिए तैयार रहते हैं। 
मान लीजिए कुछ सामान ख़रीदने के लिए आप बाज़ार जाते हैं। दुकानदार आपके सामने विकल्प रखता है कि अमुक वस्तु अगर आप बिल लेंगे तो इतने की होगी और बिल नहीं लेंगे तो इतने की। दिल पर हाथ रख कर बताएं कि हम में से कितने होंगे जो ज़्यादा दाम चुका कर भी बिल के साथ सामान लेना पसंद करेंगे?
वे अपने पाठकों से पूछते हैं (पृष्ठ 32)। हिसाब लगाने के बाद वे यह बता कर हमें चौंका देते हैं (पृष्ठ 52) कि राजस्थान के कार्यालयों में 
क़रीब-क़रीब एक तिहाई बरस तो ग़ैर कार्य दिवसों का ही होता है। अगर कर्मचारियों को देय छुट्टियों को भी इनमें जोड़ दें तो जो तस्वीर उभरती है उसका कोई तालमेल एक विकासशील देश की ज़रूरतों के साथ नहीं बैठता है

इस पुस्तक के लेख समय की बर्बादी को रोकिये में वे वक़्त की ग़ैर-पाबन्दी के अनेक उदाहरण पेश करते हैं। हमारे यहां के सार्वजनिक कार्यक्रमों की प्रकृति का वर्णन करते हुए वे कहते हैं कि 
समय की बर्बादी का जो क्रम कार्यक्रम शुरू होने के पहले शुरू होता है वह पूरे कार्यक्रम में चलता है। अतिथिगण की अतिरंजित प्रशस्तियाँ और उन्हें खूब सारी मालाओं का पहनाया जाना समय की अश्लील बर्बादी के सिवा और क्या होता है? एक-एक अतिथि को दस-दस मालाएं। न सिर्फ़ मालाएं पहनाना बल्कि उनके कैमरे में क़ैद होने का इंतज़ार भी। और जब विशिष्ट जन बोलने खड़े होते हैं तब तो समय जैसे थम ही जाता है। उन्हें इस बात से कोई मतलब नहीं होता है कि जो वे कह रहे हैं उसकी सार्थकता क्या है ! उन्हें तो बस अनवरत बोलते चले जाना होता है। 

दुर्गाप्रसाद अग्रवाल जैसे विश्वसनीय व्यक्ति के लिए हमारे समय में भरोसे का ख़त्म हो जाना सबसे बड़ी त्रासदी है और वे इसी शीर्षक के एक लेख में अपनी इस व्यथा को अनेक संदर्भों में अभिव्यक्त करते हैं। 
डॉक्टर... हमारे यहाँ ईश्वर के पर्याय माने जाते रहे हैं... और शिक्षक तो ईश्वर से भी बड़ा था: गुरु गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागूं पांय... । लेकिन आज स्थिति यह हो गई है कि न हमें डॉक्टर पर कोई भरोसा रह गया है, न शिक्षक पर। ...कभी न्याय के आसन पर बैठने वालों को परमेश्वर के समतुल्य माना जाता था। आज वह स्थिति नहीं रह गई है। ...पत्रकारिता कभी मिशन हुआ करती थी... लेकिन आज स्थितियां बहुत भिन्न हैं। अखबार और मीडिया संस्थान पूरी तरह व्यावसायिक हो चुके हैं... । व्यापार पहले भी मुनाफे के लिए किया जाता था लेकिन अब हमने समझ लिया है कि हर व्यापार अनैतिकता की नींव पर टिका है। व्यापारी कहे न कहे, आम जन यही सोचता है कि अगर कोई व्यापार कर रहा है तो हेरा फेरी तो करता ही होगा
वस्तुतः तीव्र परिवर्तनों के हमारे इस मारक समय में कई बार तो यह तय करना ही मुश्किल हो जाता है कि हम आने वाले परिवर्तन का स्वागत करें या उसे बिल्कुल अस्वीकार कर दें। भारतीय बाज़ार के नए तौर तरीकों से डॉ अग्रवाल स्वयं बड़े पशोपेश में पड़ जाते हैं। 
कल तक आप गली के नुक्कड-वाले से किराना खरीदते थे, अब मॉल की चमक-दमक, उसका वातानुकूलन और वहाँ के स्मार्ट सेल्सपर्सन आपको आकर्षित करते हैं। आप फौरन इधर से उधर चले जाते हैं। और आप यह परवाह करें भी क्यों कि आपके उधर चले जाने से इधर वाला कोई बेरोज़गार हो सकता है! आपको चुनने का मौका मिला है और अपनी समझ से आप बेहतर को चुन लेते हैं। 
पर यहीं एक दूसरी तरह का नॉस्टेल्जिया उन्हें आ घेरता है, 
मुझे लगता है कि इस विदेशी शैली के व्यापार के मुक़ाबले भारतीय व्यापार की सबसे बड़ी विशेषता और ताकत उसका वैयक्तिक स्पर्श है। आपका दुकानदार आपको, आपके परिवार को, आपकी पसन्द-नापसन्द को, आपकी ज़रूरतों को भली-भाँति जानता है। आपसे उसके रिश्ते आज के नहीं पीढ़ियों के हैं
संक्रमण-काल की इन्हीं विडम्बनाओं के बीच वे अपने लेख ख़तरे में भारतीय बाज़ार को आगे बढ़ाते हैं। दुर्गाप्रसाद अग्रवाल के ये लेख पढ़ते हुए लगता है कि हमारे समय की बहुत-सी बुराइयों से हम लाख कोशिश करके भी पूरी तरह बच नहीं सकते। अपने लेख इस ग़ुलामी से मुक्ति बहुत ज़रूरी है में वे स्वयं मोबाइल के हमारे जीवन में बहुत गहरे प्रवेश कर जाने से बहुत भयभीत लगते हैं और अपने पाठकों को भी इसके संबंध में आगाह करते हैं। 
आज हममें से अधिकांश के लिए जीवन में और सब बातों से ऊपर मोबाइल का स्क्रीन हो गया है। इससे हमारे पारस्परिक रिश्तों की ऊष्मा घटती जा रही है, संवादहीनता बढ़ रही है, हम एकलखुरे होते जा रहे हैं, हमारी आँखों पर प्रतिकूल असर पड़ रहा है – यह तमाम बातें तो हैं ही, इधर हुई बहुत सी शोधों से यह भी पता चलता है कि बहुत ज़्यादा मोबाइल संलग्नता हमारी सेहत के लिए भी हानिप्रद है।
पर इस सबके बावजूद 
भारत में न केवल माँ-बाप मोबाइल के दास हो गए हैं, उन्हें अपने बच्चों की भी परवाह नहीं है। उन्हें अपनी अमीरी इसी बात में लगती है कि छोटे बच्चे के हाथ में महँगा मोबाइल थमा दें। अमीरी भी और संतान प्रेम भी। इस बात की कौन परवाह करता है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन ने यह कहा है कि पांच बरस से कम उम्र वाले बच्चों को प्रतिदिन एक घंटा से अधिक स्क्रीन के सामने नहीं बिताना चाहिए, और एक बरस तक के बच्चों को तो इससे एकदम दूर ही रखना चाहिए।
इन लेखों को पढ़ कर लगता है कि समूची मानवता कहीं तेज़ी से किसी सामूहिक आत्महत्या की ओर तो नहीं बढ़ती जा रही है। 

हमारे समय की बहुत-सी बातों को लेकर कभी-कभी तो दुर्गाप्रसाद अग्रवाल मन ही मन अत्यंत दु:खी हो जाते हैं जो कि उनके जैसे संवेदनशील व्यक्ति के लिए बहुत स्वाभाविक है। यह समय मामूली नहीं में वे कहते हैं: 
आज बुद्धिजीवी होना गर्व का नहीं, लज्जा का विषय बना दिया गया है। संवेदनशीलता पर निर्ममता हावी हो गई है, विनम्रता पर दबंगई सवार है, कर्कशता ने माधुर्य को विस्थापित कर दिया है, सुरुचि की जगह कुरुचि का बोलबाला है।... 
अगर आप टेलीविज़न देखते हों... तो आपको यह बताने की ज़रूरत नहीं रह जाएगी कि वहां तर्क की, अक्ल की, विवेक की बात पर बेतुकी, मूर्खतापूर्ण और अविवेकपूर्ण बातों का वर्चस्व रहता है। कोई कितने ज़ोर से चीख सकता है, कोई कितनी अभद्रता कर सकता है, कोई कैसे मूल विषय को पास भी नहीं फटकने देने का कौशल दिखा सकता है, वहाँ जैसे सारा प्रदर्शन इसी बात का होता है... 
... हिटलर के प्रचार मंत्री जोसेफ़ गोयबल्स... ने कहा था कि ‘किसी झूठ को इतनी बार कहो कि वह सच बन जाए और सब उस पर यकीन करने लगें।‘’ यही आजकल हमारे चारों तरफ़ हो रहा है और पूरे दमखम से हो रहा है।

दुर्गाप्रसाद अग्रवाल परम्परावादी नहीं हैं और वे हर नए और अच्छे परिवर्तन के स्वागत के लिए तैयार रहते हैं। अपने लेख सोशल मीडिया को सोशल बना रहने दें ! के प्रारम्भिक भाग में वे उस राहत का ज़िक्र करते हैं जो सोशल मीडिया ने एक दूसरे से दूर होते जा रहे लोगों को पहुंचाई। पर इसी लेख में आगे वे कहते हैं कि जब इसका दुरुपयोग शुरू हुआ तो 
भाषा और शालीनता की तमाम मर्यादाएं ध्वस्त कर दी गईं।... ऐसा लगा जैसे सोशल मीडिया सोशल न होकर एंटी सोशल मीडिया हो गया। तमाम तरह की भाषिक अभद्रताएं देखने को मिलीं।... यह सब फेसबुक पर हुआ, ट्विटर पर हुआ और एक हद तक व्हॉट्सएप पर भी हुआ। व्हॉट्सएप का ज़्यादा इस्तेमाल घृणित और मिथ्या सामग्री के प्रचार-प्रसार के लिए किया गया। लगा जैसे कारख़ाने लगे हुए हैं जो हर वक़्त शरारती सामग्री रच रहे और निंदनीय तस्वीरें निर्मित कर रहे हैं।

दुर्गाप्रसाद अग्रवाल की यह पुस्तक पढ़ने पर मुझे भी कुल मिला कर यही लगता है कि हमारे समय में जो अधिकांश परिवर्तन हो रहे हैं वे किसी शरीफ़, सच्चे और कर्मनिष्ठ व्यक्ति को दुखी और परेशान ही कर सकते हैं। इसे पढ़ कर यह भी लगता है कि चीज़ें चाहे किसी भी दिशा में जाएं एक खरा आदमी अपनी बात कहे बिना रह नहीं सकता। जो शिवेतर है उसमें कमी के लिए वह अपनी तरफ़ से जो भी प्रयत्न कर सकता है, करता रहेगा। यह स्वाभाविक ही है कि दुर्गाप्रसाद अग्रवाल जिस मंच से भी अपनी बात कह सकते हैं कहने की पूरी कोशिश करते हैं। अपने लेखों में वे हमारे समय की अनेक नई समस्याओं की ओर अपने पाठकों का ध्यान आकर्षित करने की चेष्टा करते हैं। यदि हमें अपने देश में जनतंत्र को जीवित रखना है तो यह नितांत आवश्यक होगा कि हमारे देश का हर मतदाता हमारे समय में हो रहे परिवर्तनों के हर पहलू पर गम्भीरता से विचार करे। एक लेखक के रूप में दुर्गाप्रसाद अग्रवाल इस संबंध में अपने लेखकीय धर्म का जिस निष्ठा और लगन से पालन कर रहे हैं उसके लिए वे निश्चय ही हमारी प्रशंसा के अधिकारी हैं। 

उनकी इस पुस्तक को पढ़ते हुए कोई इस निष्कर्ष पर भी पहुंच सकता है कि एक शरीफ़ आदमी के लिए आज की दुनिया कठिन से कठिनतर होती जा रही है। हमारे मन में यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से उठता है कि हमारे देश और समूची मानवता के विकास का जो सपना हम लोग हमेशा से देखते रहे हैं उसके साकार होने की संभावना आज हो रहे परिवर्तनों की बदौलत दिनों-दिन बढ़ रही है या कम हो रही है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं।)

सचेत का सद्य 
दुर्गाप्रसाद अग्रवाल,
साहित्य भण्डार, 50, चाहचंद (ज़ीरो रोड), प्रयागराज-211 003. 
प्रथम संस्करण, 2022. पृ. 158, सजिल्द. 450.00 
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2 टिप्पणियाँ

  1. सदाशिव श्रोत्रिय की दुर्गा प्रसाद अग्रवाल जी की पुस्तक सचेत का सद्य की समीक्षा बहुत संतुलित और अर्थ गर्भित है।डी पी साहब की चिंताएं हम सब की चिंताएं हैं लेकिन आज की अंधी दौड़ में हम खुद रास्ता नहीं देख पा रहे।किताब पढ़ने की इच्छा हुए जा रही है।किताब का शीर्षक सुंदर है

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