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हिंदीभाषी समाज अपने लेखकों को भूलता जा रहा है - अशोक मिश्र Hindi-speaking society is forgetting their writers - Ashok Mishra

पुस्तक मेला के निहितार्थ

अशोक मिश्र (संपादक बहुवचन)

पुस्तक मेले में अशोक मिश्र

एक और नजारा यह देखने को मिला कि मेला आयोजक संस्था नेशनल बुक ट्रस्ट द्वारा संचालित लेखक मंच का अधिकांश समय फेसबुक पर सक्रिय हल्के–फुल्के किस्म का लेखन करने वाले कलमकारों ने अपनी पुस्तकों के लोकार्पण या चर्चा के लिए आबंटित करा लिया जबकि कई खांटी साहित्यकार इधर–उधर घूमते रहे । 
फरवरी 2014 में नेशनल बुक ट्रस्ट के सौजन्य से नई दिल्ली के प्रगति मैदान में आयोजित विश्व पुस्तक मेला में महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा के प्रकाशन विभाग के स्टाल का प्रतिनिधित्व करने का मौका मिला । पिछले दो दशकों से इस मेले को नजदीक से देखने और समझने का मौका राजधानी में रहने के चलते मिलता रहा है । इन दिनों दिल्ली छोड़कर वर्धा रहने के बावजूद विश्व पुस्तक मेला के प्रति आकर्षण कम नहीं हुआ है । मेले की एक बड़ी सफलता तो यह है कि यह कम से कम साल में एक बार हिंदी भाषा और साहित्य के पाठकों को अपनी पसंद की किताबें मुहैया कराने और हिंदी साहित्य के समकालीन सृजन परिदृश्य को विस्तार देने की दिशा में सार्थक हस्तक्षेप करता रहा है । वैसे भी ऐसे समय में जब इलेक्ट्रानिक माध्यमों की जगर–मगर में विचारों की आंच धीमी पड़ रही हो तो इस विश्व पुस्तक मेला का महत्व और अधिक बढ़ जाता है । पिछले कुछ बरसों से मेला हिंदी के लेखकों को लगातार पाठकों के एक बड़े बाजार के बीच खड़े होकर अपनी किताबों के बारे में बोलने और जुड़ने का मौका देता है । ।काशीनाथ सिंह के साथ भगवानदास मोरवाल मेले में आम पाठकों के बीच इस बात पर भी चर्चा रही कि लेखक को लिखने के साथ मेले में चाक–चैबंद दिखना भी जरूरी है इसीलिए हिंदी के कई साहित्यकार लगातार इस या उस स्टाल पर हो रहे अनवरत लोकार्पणों में अपनी उपस्थिति बनाए रहे । एक और नजारा यह देखने को मिला कि मेला आयोजक संस्था नेशनल बुक ट्रस्ट द्वारा संचालित लेखक मंच का अधिकांश समय फेसबुक पर सक्रिय हल्के–फुल्के किस्म का लेखन करने वाले कलमकारों ने अपनी पुस्तकों के लोकार्पण या चर्चा के लिए आबंटित करा लिया जबकि कई खांटी साहित्यकार इधर–उधर घूमते रहे । साहित्य के लिए प्रतिबद्ध नामचीन साहित्यकारों को लेखक मंच पर कार्यक्रमों के लिए समय ही नहीं मिल सका जबकि मंच कई अज्ञात कुलशील वाले लेखकों द्वारा कब्जा लिया गया भविष्य में लेखक मंच का दुरुपयोग न किया जा सके और अगले पुस्तक मेले में यह मंच विमर्श का केंद्र बने इसका ध्यान नेशनल बुक ट्रस्ट के आयोजकों को रखना चाहिए ।

हमारा खाया–पिया अघाया मध्यवर्ग पिकनिक मनाने के जिस अंदाज में सपरिवार मेला घूमने आता है तो क्या उसके एजेंडे में किताब खरीदना शामिल होता है ? सौ–डेढ़ सौ रुपए का एक प्लेट पिज्जा तो यह वर्ग आसानी से आर्डर दे देता है लेकिन सौ रुपए की एक किताब उसे मंहगी लगती है । उनकी प्राथमिकता में कार और मंहगे सेलफोन, आईपैड खरीदना तो है लेकिन किताब खरीदना नहीं । 
पुस्तक मेला में लगभग सात दिनों तक लगातार लेखकों से बहुवचन के लिए रचना संबंधी याचना, मिलने–जुलने और गपियाने का भी मौका रहा । पुस्तक मेले में आए कुछ युवा साथियों का कहना था कि आज ऐसा साहित्य नहीं लिखा जा रहा है जो हमारे मन और समाज पर कोई खास असर छोड़ सके । एक और बड़ा सवाल है कि हमारा खाया–पिया अघाया मध्यवर्ग पिकनिक मनाने के जिस अंदाज में सपरिवार मेला घूमने आता है तो क्या उसके एजेंडे में किताब खरीदना शामिल होता है ? सौ–डेढ़ सौ रुपए का एक प्लेट पिज्जा तो यह वर्ग आसानी से आर्डर दे देता है लेकिन सौ रुपए की एक किताब उसे मंहगी लगती है । उनकी प्राथमिकता में कार और मंहगे सेलफोन, आईपैड खरीदना तो है लेकिन किताब खरीदना नहीं । जाहिर है कि जब तक इस मानसिकता में परिवर्तन नहीं आता तब तक किताबों की बिक्री सामान्य ही रहेगी । पाठकों की एक सामान्य शिकायत यह भी है कि हिंदी के अधिकांश प्रकाशकों द्वारा किताबें सिर्फ सरकारी खरीद के लिए छापी जाती हैं । खरीद में खपने के बाद ये किताबें पुस्तकालय की शोभा बढ़ाती हैं या फिर कभी–कभार शोधार्थी इन्हें उलटते पलटते नजर आते हैं । मेले में पाठकों की रुझान साहित्येतर किताबों की ओर ही अधिक रही या ऐसी किताबें जो उन्हें रोजी–रोजगार की तलाश में मददगार हो सकें । हिंदी के एक बड़े प्रकाशक ने बातचीत के दौरान यह भी कहा कि हम नई पुस्तकें छाप जरूर रहे हैं लेकिन कटु सच्चाई तो यह है कि हिंदी में स्तरीय लेखन बहुत कम हो रहा है जो पाठकों को खींचकर किताबों तक ला सके । पुस्तक मेला में बहुतेरी मुलाकातें और खट्टे मीठे अनुभव हुए लेकिन उन पर फिर कभी ।

पुस्तक मेला के दौरान ही फैजाबाद से कवि मित्र अनिल सिंह के एसएमएस से पता चला कि हिंदी के लोकप्रिय कथाकार अमरकांत नहीं रहे । हिंदी कथा साहित्य की दुनिया को अपनी कहानियों से समृद्ध करने में उनका अप्रतिम योगदान रहा । पूरे नौ दिन के विश्व पुस्तक मेला के दौरान किसी भी कार्यक्रम में उनको श्रद्धांजलि न दिया जाना मुझे दुखद लगा । ऐसा लगता है कि हिंदीभाषी समाज अपने लेखकों को भूलता जा रहा है । साहित्य की दुनिया लगातार सिकुड़ रही है या उसे मूल्यपरक बनाने की दिशा में काम किया जाना चाहिए इस पर विचार किए जाने की जरूरत है ।

पिछले तीन बरसों से लगातार जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल खासी लोकप्रियता अर्जित कर रहा है । मेरा मानना है कि इस पूरे आयोजन पर अंग्रेजी की छाप अधिक हिंदी की कम दिखती है । इस आयोजन की देखादेखी लखनऊ और पटना में भी इसकी शुरुआत हो चुकी है । क्या आने वाले दिनों में साहित्यिक आयोजन बहुराष्ट्रीय कंपनियों के द्वारा प्रायोजित किए जाएंगे और देशी अंदाज में होने वाली हमारी संगोष्ठियों को ये पंचसितारा आयोजन बेदखल करेंगे । हिंदी साहित्य के दिग्गज साहित्यकारों को इन सवालों पर गौर करना होगा ।

बहुवचन के इस अंक में आलोचना की जातीय स्वाधीनता पर वरिष्ठ आलोचक शंभुनाथ का लेख है । रवीन्द्रनाथ टैगोर पर हिंदी में कितना काम हुआ है इसकी पड़ताल करता है बांग्ला साहित्य के अध्येता रामशंकर द्विवेदी का आलेख । सिनेमा में हुए हो रहे बदलाव पर के– हरिहरन और 1857 की 157वीं वर्षगांठ पर परिमल प्रियदर्शी के आलेख हैं । स्मृति में प्रख्यात कथा शिल्पी अमरकांत को याद किया है प्रतुल जोशी ने वहीं मराठी कविता को एक नया तेवर देने वाले नामदेव ढसाल की कविताओं पर मूल्यांकन लेख है । विदेश नीति विशेषज्ञ मुचकुंद दुबे का विश्लेषणपरक महत्वपूर्ण व्याख्यान, दीपक मलिक का तुर्की पर केंद्रित पठनीय यात्रा वृतांत, संस्मरण, कहानियां हैं । कविता खंड में भारतीय कविता के साथ–साथ भाषांतर में पांच अलग–अलग भाषाओं के कवियों की एक–एक कविता है । स्त्री विमर्श के अंतर्गत कथाकार जयनंदन का लेख है, जो कि आज के स्त्री लेखन की विशेषताओं पर केंद्रित है । मीडिया में जनसरोकारों की अनदेखी पर वरिष्ठ पत्रकार अरुण कुमार त्रिपाठी का लेख विचार के कई बिंदु उठाता है । पूर्व की भांति वरिष्ठ कथाकार संजीव का कालम बात बोलेगी भी है । इस बार बहुवचन का बहुविध सामग्री से युक्त यह अंक कैसा लगा यह जिज्ञासा रहेगी ।

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यह विश्वविद्यालय के लिए हर्ष का विषय है कि प्रो– गिरीश्वर मिश्र ने पिछले दिनों विश्वविद्यालय के कुलपति पद का कार्यभार संभाल लिया है । वे दिल्ली विश्वविद्यालय में मनोविज्ञान विषय के प्रोफेसर रहे हैं और पिछले चार दशकों से इसी क्षेत्र में लगातार अपनी सक्रिय उपस्थिति बनाए हुए हैं । कार्यभार ग्रहण करने के साथ ही साथ श्री मिश्र ने विश्वविद्यालय में लगातार आयोजित दो–तीन सार्वजनिक कार्यक्रमों के दौरान शैक्षिक वातावरण को बेहतर बनाने और शोध का स्तर सुधारने के प्रति अपनी प्राथमिकताएं स्पष्ट कर दी हैं । बहुवचन परिवार को यह घोषित करते हुए हर्ष है कि वे पत्रिका के संरक्षक संपादक के रूप में हमारा मार्गदर्शन करेंगे । विश्वविद्यालय परिवार में उनका हार्दिक स्वागत है कि वे अपने और कर्मचारियों के सामूहिक प्रयत्नों से विश्वविद्यालय को नई ऊंचाइयों की ओर अग्रसर करें । 

कहानी - आल इज नॉट वेल - हसन जमाल | Hindi Kahani 'All is not well' by Hasan Jamal

आल इज नॉट वेल

हसन जमाल 


हसन जमाल
संपादक ‘शेष’
पता: पन्ना निवास, लोहारपुरा,
जोधपुर-342002 (राजस्‍थान)
मो० : 098 29 31 4018
.....वक्त तो बदला है, लेकिन सलीम भाई को लगता है, मुल्क का एक टुकड़ा जो अलग हो गया, उसका खामियाजा वे अभी तब भुगत रहे हैं। ये और बात है कि ये फांक, ये दुभांत न सरकार को नजर आती है, न अवाम को। ये जुमला वे कितनी ही बार सुन चुके हैं कि- यहां फिर भी ठीक है वहां होते तो क्या हाल होता? सलीम भाई कहते- ‘वहां हम होते ही क्यूं? क्या ये हमारा वतन नहीं है? पीढि़यां खप गईं इस जमीन में लीडरों की लालची सियासत ने हमें अपनी ही जमीन पर गैर महफूज कर दिया।’
सलीम भाई को आप नहीं जानते। वे जिस शहर में पिछली छह दहाइयों से रहते चले आ रहे हैं, वह भी नहीं जानता! यहां तक कि उनकी अपनी गली के लोग भी। दुनिया में बहुत लोग होते हैं, जो होते तो हैं, पर उन्हें कोई नहीं जानता, पर इससे उसके दुःख-दर्द, गम, महरूमियां और तकलीफें कम तो नहीं हो जातीं।

          सलीम भाई की तकलीफ क्या है? ये साफ तौर पर बताना जरा मुश्किल है इसलिए जब भी वे अपने दर्द को जबान देने की कोशिश करते हैं, तो उनका मुंह बंद कर दिया जाता है- सलीम भाई। आल इज वेल। आप तो नाहक फिक्र करते हो, थोड़ा बहुत तो सब जगह चलता है, हमें ये देखना चाहिए कि ज्यादातर लोग कैसे हैं?
 सलीम भाई कहते हैं कि ज्यादातर लोगों की ब्रेन मेपिंग की जाए, तो कमोबेश सभी इस ख्याल के निकलेंगे कि ये लोग हमसे अलग हैं, गंदे हैं, बेशऊर हैं, लड़ाकू हैं, न खुद चैन से बैठते हैं, न दूसरों को बैठने देते हैं, ये सरासर हमारे यहां बोझ हैं और इनकी तादाद रोज-ब-रोज बढ़ती जा रही है अगर यही रफ्तार रही, तो एक दिन फिर अपने लिए अलग जमीन की मांग करेंगे, इन लोगों ने सारी दुनिया में दहशत फैला रखी है।

          ऐसा नहीं है कि सलीम भाई के मिलने-जुलने वाले जाहिल, कम तालीमयाफता या एक खास सोच रखने वाले लोग हैं। उनमें ज्यादातर वेल एजुकेटेड हैं और कई तो वामपंथी। मगर सलीम भाई के दर्द को महसूस कर पाना या उनकी समस्याओं को सही मायनों में समझ पाना उनके बूते की बात नहीं। इनसान जिस माहौल में जीता है, उस माहौल से बाहर क्या हो रहा है, वह उस की जानकारी से अछूता रह जाता है। दरहकीकत एक ही शहर में रहते हुए लोगों के समूह अलग-अलग टापुओं में रहते हैं कहने को दुनिया ग्लोबल विलेज है देखा जाए, तो हर शहर में कई-कई विलेज हैं। सलीम भाई ने जब से होश संभाला, तब से यही देखा कि आल इज नाट वेल। कदम-कदम पर उन्हें ये महसूस हुआ कि वे दूसरों से अलग हैं, मदरसे में तो नहीं, मगर स्कूल में उन्हें ये सब देखना व भुगतना पड़ा। उनके साथ पढ़ने वाले दौड़ते हुए प्याऊ में जाते और किसी बाल्टी या मटके में लोटा डाल के पानी भरते ओर गटागट पीने लगते और वे टुकुर-टुकुर देखते रहते, अरे भई। मुझे भी पीना है तब किसी का ध्यान उनकी तरफ जाता और वह बहुत ऊंचाई से पानी गिराता और सलीम भाई ओक से पानी पीते और कोशिश करते कि जल्दी-जल्दी पी लें और कहीं पिलाने वाला भाग न जाए। इस चक्कर में कई बार पानी नाक के अंदर घुस जाता। जब रेसिस में दो-चार छात्र मिलकर कुछ खा-पी रहे होते, तो सलीम भाई को उनका हिस्सा अलग कागज में दे दिया जाता। अव्वल तो कोई उन्हें अपने घर ले जाता ही नहीं था। कभी जाना पड़ जाता, तो उनके लिए शीशे का गिलास लाया जाता, क्योंकि उन्हें मालूम था कि ‘ये लोग’ मुंह लगाके पीते हैं और गोश्त भी खाते हैं। ये वह दिन थे जब देश में पहले चुनाव हो रहे थे। दलितों के साथ ही नहीं, मुसलमानों के साथ भी छुआछूत आम बात थी। सलीम भाई को याद है कि जब वे लड़कपन में सार्वजनिक नल पर पानी लेने जाते थे, तब मटका उठाते ही उसके बाद वाली साड़ी या लंहगेवाली कोई औरत या लड़की मिट्टी से रगड़-रगड़ कर टोंटी को धोती ओर फिर अपने बर्तन में पानी भरती। हरिजनों का तो और भी बुरा हाल था। वे दीवार पर खाली मटके रखकर घिघियाते रहते- ‘बाबूजी म्हारे को भी पानी भरना है।’ कभी उनकी सुनवाई होती, कभी नहीं होती। तब से अब तक नालियों में बहुत पानी बह चुका है। अब तो घर-घर में नल लग चुके हैं। होटल, रेस्टोरेंट, बाजार, दफ्तर मजाल है कि कोई उनके साथ हिकारत से पेश आए। कानून का चाबुक सामने लटका हुआ नजर आता है, जबान फिसली नहीं कि गए बारह के भाव।

          वक्त तो बदला है, लेकिन सलीम भाई को लगता है, मुल्क का एक टुकड़ा जो अलग हो गया, उसका खामियाजा वे अभी तब भुगत रहे हैं। ये और बात है कि ये फांक, ये दुभांत न सरकार को नजर आती है, न अवाम को। ये जुमला वे कितनी ही बार सुन चुके हैं कि- यहां फिर भी ठीक है वहां होते तो क्या हाल होता? सलीम भाई कहते- ‘वहां हम होते ही क्यूं? क्या ये हमारा वतन नहीं है? पीढि़यां खप गईं इस जमीन में लीडरों की लालची सियासत ने हमें अपनी ही जमीन पर गैर महफूज कर दिया।’

          कोई और बात करो मियां, वर्ना बात बढ़ जाएगी, फौरन ही कोई टोकता और पतली गली से निकल जाता, विषयांतर, संवेदनशील मस्अले को मत उठाओ, वर्ना बात दूर तक चली जाएगी। इसीलिए तो कहता हूं कि भाई। आल इज नाट वेल। और सलीम भाई के दर्द को सुनने वाले हँसी में उड़ा देते सलीम भाई कुछ कहना व समझाना चाहते, मगर वह सब कुछ उनके दिल में ही रह जाता।

          अब तो सलीम भाई रिटायरमेंट के करीब हैं। उनकी जब नौकरी शुरू हुई थी, तो दफ्तर में भी उन्होंने स्कूल का माहौल देखा था। वे दूसरों की तरह मटके में लोटा डालकर पानी नहीं पी सकते थे। उनके लिए अलग शीशे का गिलास था, उसी मे पीना पड़ता। पीने के बाद अपनी अलमारी में रख देते, ताकि गफलत में दूसरों के हाथ न लगे। वे दलित नहीं थे, मलेच्छ तो थे ही। ये मांस-मछली खाने वाले लोग लोटे-गिलास को मुंह लगाकर पानी पीते हैं, इसलिए इनके साथ ज्यादा घालमेल अच्छा नहीं मांस-मछली की बात पर सलीम भाई अड़ जाते अरे भाई। मांस-मछली तो कुछ शाकाहारियों को छोड़कर सभी खाते हैं, उनसे तो परहेज नहीं, हमीं से क्यूं? इस क्यूं का जवाब परहेज करने वालों के पास नहीं होता था ज्यादा बाजपुर्स करने पर रटा-रटाया जवाब दोहराया जाता कि मुसलमान गंदे होते हैं।

          सलीम भाई देखते थे जब कोई टोपी, दाढ़ी या तहमद वाला अपने किसी काम से उनके दफ्तर में आता था, तो अकसर लोग उनको नजरअंदाज कर देते थे। जब वे आजिजी करने लगते, तो बाबुआना बहानों से उन्हें टरकाने की कोशिश करते थे और मामूली-मामूली कामों के लिए भी कई-कई चक्कर लगवाते थे। ऐसे वक्तों में सलीम भाई की सिफारिश ही अकसर काम आती थी। उन लोगों की बहानेबाजी से कुढकर सलीम भाई उनसे उलझ पड़ते, पर उनको अपने रवैये पर न तो शर्मिंदगी होती और न अपने बहानों को गलत तसव्वुर करते। उल्टा सलीम भाई पर बिगड़ते कि मियां अपने काम से काम रखो, हमसे मत उलझो। सलीम भाई सब्र का घूंट पीकर रह जाते वे कर भी क्या सकते थे? 1947 के बाद दिलों में जो फर्क आया, वह बावजूद दस्तूरे-हिंद की गारंटी के अपनी जगह कायम था, बल्कि जड़ें जमा चुका था। खूनी रथ-यात्रा के बाद तो जैसे हर दिल में जहर भर गया था। इनका वश नहीं चलता, वर्ना इन चौदह-पंद्रह करोड़ गैरों को उधर ही धकेल दें या दरियाबुर्द कर दें। मुल्क के टुकडे करवा दिए, अब काहे को हमारी छाती पर मूंग दल रहे हैं। प्रशासन हो, पुलिस हो, अस्पताल हो, स्कूल-कालेज हों, सभी जगह दुभांत की फांक साफ नजर आने लगी थी। ये एक लावा था, जो अंदर ही अंदर पक रहा था और अकसर दंगे-फसाद की शक्ल में फूट निकलता था। जुर्म कोई करे, गिरफ्तार वे ही होंगे जिनका हाली-वली कोई नहीं।
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          मुल्क की तमाम जेलें उन लोगों से भरी पड़ी हैं जिनकी ठीक तरह पैरवी करने वाला कोई नहीं। उनमें से तो अकसर बेकुसुर होते हैं और पुलिस उनको आसान शिकार समझकर अपनी खाल बचाने के लिए झूठे मुकद्दमों में जेलों में ठूंस देती है। सैंकड़ों नौजवानों की जिंदगी पुलिस की दरिंदगी की वजह से तबाह व बरबाद हो जाती है। उनसे नाकर्दा जुर्म को कबूलवाने के लिए पुलिस किस हद तक टार्चर करती होगी, उसकी खबर कभी मीडिया में नहीं आती, क्योंकि वहां भी ऐसे ही लोग बैठे हैं। इसके बावजूद कहा जाता है कि सब कुछ ठीक-ठाक है। ज्यादा कुरेदो, तो पड़ोसी मुल्कों की ज्यादतियां बखानने लगते हैं। आप कह सकते हैं कि ऐसा सलीम भाई की इकतरफा सोच के कारण हो गया है। जुल्मो-सितम और नाइंसाफियां जात-पात, धर्म-संप्रदाय नहीं देखतीं, एक सिस्टम जो मध्य युग से, बल्कि अंग्रेजों के जमाने से चला आ रहा है, वह हजार एतराजों व सुधारों के बावजूद दायम व कायम है।

          सलीम भाई की बेचैनी की एक और वजह भी थी। वे उर्दू के अख़बार पढ़ने का शौक रखते हैं। उर्दू के अखबार वे खबरें देते हैं, जो हिंदी, अंग्रेजी, या दूसरी इलाकाई जबानें नहीं दे पाती हैं या देना नहीं चाहती हैं। एक खा़मोश सेंसरशिप अल्पसंख्यकों की समस्याओं पर लागू है। ये और बात है कि उर्दू अखबारात बाज औकात मुसलमानों के जज्बात को भड़काने का भी काम करती हैं जिस तरह दक्षिणपंथी मीडिया करता है। इस इंतिहापसंदी और अफवाही खबरों से आग इधर भी लगती है और उधर भी। ऐसे में अमनपंसद आम इनसान कहां जाए और किस पर भरोसा करें? उम्र बढ़ने के साथ सलीम भाई के दिलो-दिमाग पर मुस्लिम मुखालिफ माहौल से बुरा असर पड़ता जा रहा था। वे बड़ी तेजी से दिमागी मरीज बनते जा रहे थे। वे ये बखूबी जानते थे कि उनके हाथ में कुछ नहीं है। आन की आन में हालात किस कदर बदल जाएंगे, कोई नहीं जान सकता। सिर्फ जाती तौर पर फिक्रमंद होने से सूरत नहीं बदलती है। इनसान को ही बदलते हालात के मुताबिक खुद को ढालना पड़ता है।

          आप जानते हैं, जब किसी शख्स का जेहन किसी शै से मुतास्सिर होता है, तो वह किसी बहलावे से नहीं बहलता है। इसीलिए सलीम भाई हर वक्त शक व शुब्हों में घिरे रहते। अकसर वे खुदा का शुक्र अदा करते कि उनके खानदान में कोई ऐसा मस्अला पैदा नहीं हुआ जिसकी वजह से वे पुलिस के हत्थे चढ़ते और सुबूत के तौर पर अपना जाती तज्रिबा बयान करते। सलीम भाई का एक मस्अला ये भी था कि जिस बात की वे शंका करने लगते या खैरियत के लिए खुदा का शुक्र अदा करते, तो वे किसी न किसी परेशानी में गिरफ्तार हो जाते। अगर अचानक उनके ख्याल में क्रब्रिस्तान आ जाता, तो उन्हें अगले दो-चार रोज में जरूर कब्रिस्तान जाना पड़ता। अस्पताल का ध्यान आता, तो किसी न किसी को देखने के लिए अस्पताल के चक्कर लगाने पड़ते। गोया उनका ख़्याल ही उन्हें भटकाने लगा। इसे इल्हाम तो नहीं कह सकते कि वे पैगंबरों से मंसूब है, पर उनके स्वभाव में कुछ ऐसा था कि उन्हें होने वाले वाकिए का ख्याल अचानक जेहन में आ जाता चाहे वह एक्सीडेंट ही क्यों न हो। वे बुरा सोचने से अकसर बचना चाहते, पर ख्याल तो ख्याल है इस पर इनसान का बस कहां? उनका ये सोचना ही मुसीबत का बाइस बन गया कि वे ऐसे अनुभवों से नहीं गुजरे जिनमें पुलिस एक खास सोच से मुआमले को निबटाती है जिसमें अमूमन मुसलमानों व कमजोरों के साथ अकसर अन्याय होता है।

          रशीद के मुआमले में ये भी नहीं कह सकते कि सीआईडी ने उसे जानूबूझकर फंसाया। कानून तो कानून है, नियमों का पालन तो करना ही चाहिए। आप पूछेंगे, रशीद कौन? रशीद सलीम भाई का भानजा था, जो पाकिस्तान से अपनी मां के साथ आया था। सलीम भाई की अपनी हैसियत तो मामूली थी, लेकिन उनका भानजा करोड़पति घराने का था। हैदराबाद में बहनोई का बड़ा कारोबार था। वे सियासत में भी दखल रखते थे। बहन-बहनोई ने शुरू मुहाजिरी में गरीबी के दिन काटे थे लेकिन उनकी औलाद बड़ी हुई, तब तक अमीरी उनकी चौखट तक आ चुकी थी। अमीर और रुतबे वाले खानदान के बच्चों में जो लापरवाही, खिलंदड़ापन और दौलत की खुमारी होती है, वही रशीद में थी। तफरीह के लिए निकले, तो ये न सोचा कि हर शहर में पहुंच व रवानगी का इंद्राज कराना निहायत जरूरी है और सिर्फ उन्ही मकामों पर जा सकते हैं, जहां का वीजा मिला है। रशीद साहब ने अहमदाबाद के लिए एंट्री करवाई। कुछ दिन वहां रहकर मुंबई पहुंच गए। भारत में आए हैं, तो कराचीनुमा मुंबई की सैर जरूरी ठहरी। अहमदाबाद से मुंबई की रवानगी करवाई नहीं, और पहुंच गए सीधे मुंबई से मामू के शहर। उनको मालूम नहीं था कि ये उनका मुल्क नहीं है, जहां उनकी अमीरी और सिफारिशें आड़े वक्तों में काम आती हैं। यहां एक बार गलती से या धोखे से चिडि़या जाल में फंसी नहीं कि उसके आजाद उड़ने के ख्वाब फुर्र हो जाते हैं। पांचवें दशक में जिन लीडराने-वतन ने अपनी गोटियां खेली थीं, उसका खम्याजा बेगुनाह, बेकुसूर और मासूम नागरिकों को भुगताना ही था। हां, अगर आप अमेरिका से आते, तो आपको सर आंखों पे बैठाते। वहां से दहशतगर्द भी आ जाएं, तो उन्हें कोई नहीं पूछता और पड़ोसी मुल्कों के शरीफ शहरी भी आ जाएं, तो जेल के कैदियों की तरह उनकी हाजिरी होती है।

          सलीम भाई की निगाह में रशीद की ये हरकत महज लौंडापन थी, मगर पासपोर्ट अधिनियम के तहत संगीन जुर्म। अगर आपके तार दहशतगर्द तंजीम से जुड़े हों और आप कोई संगीन वारदात करने वाले हों, तो आपको कोई नहीं बचा सकता। फिर कानून अपना काम करेगा और हमारा कानून चिउंटियों की चाल चलता है हमें किसी की परेशानियों, बेवकूफियों, जज्बात ओर इज्जत-आबरू से क्या लेना-देना? आ जाओ पिंजरे में।
 रशीद मशकूक दहशतगर्द ठहरा और सलीम भाई बरसों से जिन आशंकाओं को पाल रहे थे, वे उनकी अपनी जिंदगी में अंधड़ बनकर आ गईं। बी.पी. शुगर और दिल की मरीज रशीद की मां पर बार-बार बेहोशी के दौरे पड़ने लगे। होश में आती, तो हाय-तौबा करने लगती-अब मैं वहां क्या मुंह दिखाऊंगी? बरसों बाद भाई से मिलने मायके गई थी और बेटे को गंवा आई। हाय अल्लाह। मैं क्या करूं? तीन दिन बचे हैं, ये मुए छोड़ते क्यूं नहीं मेरे बेटे को?

          रशीद की मां की भोली पुकार सीआईडी अफसरों को सुनाई कहां पड़नी थी। पूछताछ का लंबा सिलसिला चल निकला। सलीम भाई दफ्तर से छुट्टियां लेकर रोज कचहरी परिसर जाने लगे। बहन की हालत देखी न जाती थी और रशीद इस तरह बेफिक्र नजर आ रहा था, जैसे कुछ हुआ ही न हो। हालांकि टार्चर के निशान उसके चेहरे पर नुमायां थे। सलीम भाई जान चुके थे कि परिंदा जाल में फंस चुका है। वे पूरी ताकत लगा देंगे, नामी वकील करेंगे और रशीद को खैरियत से रवाना कर देंगे। मगर ये उनकी खाम ख्याली साबित हुई, उन्होंने बहन का वीजा बढ़वाना चाहा, लेकिन वीजा नहीं बढ़ा। बहन रोती-बिसूरती अपने मुल्क सिधार गईं। सलीम मियां साइकिक तो पहले ही थे अब उनके जेहन ने काम करना बंद कर दिया। रशीद सलाखों के पीछे पहुंच चुका था और खुद सलीम भाई? खैरियत मानते, खुदा का शुक्र अदा करते-करते आठवें दिन धर लिए गए उनका जुर्म?... दहशतगर्द को पनाह देना कोई छोटा जुर्म है कानून की निगाह में? वे कुर्सियों, मेजों के बीच धूल भरे फर्श पर बेजबान जानवर की तरह बैठे हुए थे कि उनका एक परिचित अपने किसी रिश्तेदार की आमद दर्ज करवाने आया था। सलीम भाई को ऐसी हालत में देखकर पूछ बैठा, ‘सलीम भाई, यहां कहां? यूं कैसे?’
 सलीम भाई टुकुर-टुकुर परिचित को देखते रहे। जरा देर बाद रुंधे गले से बोले, ‘मुलजिम हूं भाई, मेहमान को घर में ठहराने की सजा मिल रही है। ये अपना वतन है साहिब। हजारों बेगुनाहों का खून बहाने वाले की यहां वाहवाही और ताजपोशी होती है और अपने खून को घर में ठहराने वाले को जेलें मिलती हैं।’

          परिचित कुछ बोलता, उससे पेश्तर पास खड़े, खैनी मलते हुए एक हेड कांस्टेबल ने घुड़का, ‘मियां। ज्यादा न उड़ो। यहां हो इब्तिदा है, आगे-आगे देखिए, होता है क्या? हमारे यहां सूखे-गीले सभी को जलना पड़ता है, बेकसूर हो तो छूट जाओगे।’

          ‘और जो हम पे गुज़रेगी।’ सलीम भाई ने कहना चाहा, मगर लफ्ज होंठों पर आकर रह गए. बकौल हेड कांस्टेबल, ये वाकई इब्तिदा थी। आगे की कहानी पाठकों पर छोड़ी जाती है कि वे खुद समझदार हैं। अलबत्ता इतना बताना जरूरी है कि सलीम भाई अब बाकाइदा ‘केस’ बन चुके थे अब उनकी एक टांग जेल में रहती थी, दूसरी मेंटल हास्पीटल में और दोनों पांव अदालत के कठघरे में। वे फूट-फूटकर रोने लगते थे। तब उन्हें कहीं से आवाज सुनाई देती थी या कान बजने लगते थे ‘इब्तिदाएं इश्क है रोता है क्या...।’

          वे चौंककर सर उठाते तो सामने रशीद को खड़ा पाते शार्मिंदा-शार्मिंदा- ‘सारी मामूं। मेरी वजह से...।’ और वे भानजे के सीने पर सर पटकने लगते।

(लेखक सुपरिचित कथाकार और ‘शेष’ पत्रिका के संपादक हैं) साभार 'बहुवचन' अप्रैल-जून 2014

मीडिया - भारी–भरकम पूंजी का हरकारा : अशोक मिश्र Media - Ponderous Harbinger of Capital : Ashok Mishra

मीडिया का अतिरेकी आचरण  - अशोक मिश्र



देखते ही देखते वर्ष 2013 धीरे से विदा हो गया और एक नए साल के साथ ही हम वर्ष 2014 में आ पहुंचे हैं । अगर हम सोचें तो लगता है कि साल ही बदल रहा है न हम बदल रहे हैं न हमारा समाज । आजादी के बाद से कम से कम छह दशक का वक्त गुजर चुका है लेकिन आज देश अपने समय के सबसे खराब दौर से गुजर रहा है । देश में ही दो देश साफ दिखते हैं पहला भारत और दूसरा शाइनिंग इंडिया ।
क्या मीडिया अपने इस अतिरेकी आचरण में कोई बदलाव लाएगा या फिर टीआरपी के खेल के लिए लोगों को मरने पर मजबूर करता रहेगा ? क्या मीडिया को अपनी सीमा का ज्ञान नहीं है कि वह जज या कोर्ट के अंदाज में काम नहीं कर सकता है ।
          नई शताब्दी इस मायने में पिछली कई शताब्दियों से भिन्न रही है कि इस दौर में संचार और संप्रेषण और तकनीक ने हमारी दुनिया बिल्कुल बदलकर रख दी है । आज तकनीक का इस्तेमाल करके किसी भी व्यक्ति के खिलाफ दुष्प्रचार का काम या अफवाह फैलाने या उसका चरित्र हनन कुछ मिनटों में किया जा सकता है । अब तो यह संचार दंगा भड़काने में भी काफी काम आ रहा है । तकनीक का बेहतर उपयोग कर हम सकारात्मक दिशा में आगे जाते हैं लेकिन समाज के कुछ खुराफाती दिमाग इसका गलत इस्तेमाल कर रहे हैं जिससे एक नए तरह के अपराध का जन्म हो रहा है जिसका किसी भी कीमत पर समर्थन नहीं किया जा सकता । तकनीक आधारित झूठा और मनगढ़ंत प्रचार कई बार सच को पीछे ढकेलने का काम भी कर रहा है । सबसे बड़े दु:ख की बात यह है कि मीडिया जिसके ऊपर समाज को सचेत, साक्षर और जागरूक बनाने की जिम्मेदारी थी वह निवेशित भारी–भरकम पूंजी का हरकारा बन बैठा है । जाहिर है कि यह दौर मिशन पत्रकारिता का नहीं है । इन वजह है कि मीडिया में भारी पूंजी निवेश लाभ कमाने के उद्देश्य से किया जा रहा है । अभी हाल में ही यह देखने में आया कि दिल्ली में एक सामाजिक कार्यकर्ता के खिलाफ दुराचार के आरोपों को टीवी चैनलों ने बेहद गैरजिम्मेदारना अंदाज में परोसा और परदे के पीछे या अंदरूनी सच्चाई की तह तक पहुंचे बिना अपना फैसला इस तरह से सुनाया कि एक संवेदनशील आदमी ने आत्महत्या कर ली । इस इनसान की मौत की जिम्मेदारी कौन लेगा ? क्या मीडिया अपने इस अतिरेकी आचरण में कोई बदलाव लाएगा या फिर टीआरपी के खेल के लिए लोगों को मरने पर मजबूर करता रहेगा ? क्या मीडिया को अपनी सीमा का ज्ञान नहीं है कि वह जज या कोर्ट के अंदाज में काम नहीं कर सकता है । यह जिम्मेदारी न्यायपालिका के कंधों पर है और उसे ही इसका निर्वाह करने दिया जाए तो ज्यादा अच्छा है । मीडिया को अपनी भूमिका पर विचार करने की जरूरत है । मुझे लगता है कि आज ऐसे संपादकों का भी अभाव है जो मीडिया को जिम्मेदारी का पाठ पढ़ा सकें । ऐसे लोग आज भी हैं लेकिन बाजार का हिस्सा बन चुका मीडिया सामाजिक सरोकारों की पत्रकारिता करने वाले संपादकों को अपने संस्थान का हिस्सा नहीं बनाना चाहता । यह कुछ ऐसा ही है जैसे मेरे यहां तो सलमान खान जैसा बच्चा जन्मे और क्रांतिकारी भगत सिंह जैसा बच्चा तो पड़ोसी के घर जन्म ले । जाहिर है कि देश का मानस बदलेगा तो मीडिया को भी अपनी जिम्मेदारी और कर्तव्य का अहसास करना होगा और तदनुकुल आचरण करना होगा ।
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          एक और सच यह है कि मुक्त बाजार व्यवस्था ने जिस तरह आर्थिक असंतुलन की लकीर खींची है वह समाज में गहरे क्षोभ और आक्रोश को जन्म देने का काम कर रही है । हमारे समाज में तेजी से बढ़े नव धनाढ्य वर्ग के आचरण ने हमारे सारे सामाजिक मूल्यों को ध्वस्त करने का काम किया है । आज हमारे अपने परिवार हों या पूरा समाज एक किस्म की अराजकता और अपसंस्कृति की दिशा में तेजी से बढ़ता चला जा रहा है । इस पर हम अपनी पीठ खुद ठोंक ले रहे हैं । लाखों के पैकेज लेने वाली पीढ़ी के कई जन्मदाता मां–बाप या तो रैनबसेरों के मोहताज हैं या वृद्ध आश्रमों में रहकर बची खुची जिंदगी का शेष समय काट रहे हैं । जाहिर है कि समाज में पुराने मूल्यों को बचाने और उन्हें नई पीढ़ी तक हस्तांतरित करने की भी जरूरत है । यह चुनौतियों से भरा समय है और ऐसे अंधेरे समय में साहित्य की मशाल टिमटिमा तो रही है लेकिन उसे और अधिक प्रज्वलित करने की जरूरत है ।

          वर्ष 2013 के दौरान हिंदी के कई वरिष्ठ साहित्यकार हमारे बीच नहीं रहे । जाहिर है कि इस पर शोक के अलावा कुछ प्रकट नहीं किया जा सकता । हम कह सकते हैं कि बीता साल हिंदी साहित्य को समृद्ध करने के बजाए रिक्तता देकर चला गया । वरिष्ठों के असामयिक निधन से जो शून्य उपजा उससे साहित्य संस्कृति की दुनिया में एक सन्नाटा सा पसर गया जिसकी भरपाई कर पाना लगभग असंभव है । अक्टूबर में राजेंद्र यादव से कुछ पहले वरिष्ठ आलोचक शिवकुमार मिश्र से यह सिलसिला शुरू हुआ तो परमानंद श्रीवास्तव, ओमप्रकाश वाल्मीकि, विजयदान देथा, हरिकृष्ण देवसरे और केपी सक्सेना तक चलता ही रहा । इत्तफाक से राजेंद्र यादव से मेरा काफी करीबी रिश्ता रहा । कह सकता हूं कि लेखन और सांस्कृतिक पत्रकारिता की दुनिया से सक्रिय रूप से जुड़े रहने के कारण यह संभव हुआ । संपादक के रूप में राजेंद्र यादव ने एक लंबी पारी खेली और हिंदी साहित्य की बंद संकुचित दुनिया को नए विमर्शों की ओर उन्मुख किया । राजेंद्र यादव की सिर्फ संपादक की भूमिका इतनी बड़ी है कि उसका मूल्यांकन करने में अभी काफी समय लगेगा । अपनी रचनाओं और संपादकीय लेखों के माध्यम से वे हमारे बीच रहेंगे ही । मैं कह सकता हूं कि शायद हमारे वरिष्ठजनों ने यह संदेश दे दिया है कि नौजवान साथियों अब साहित्य की दुनिया संभालो हम तो सफर करते हैं । दिवंगत अग्रज साहित्यकारों का अनकहा संदेश यह भी है कि हम लोगों ने एक लकीर खींची है उस पर चलना और उसे बनाए और बचाए रखने के साथ–साथ आगे बढ़ाने का काम भी तुम्हारे कंधों पर है । बहुवचन के प्रस्तुत अंक में दिवंगत साहित्यकारों पर आदरांजलि स्वरूप सामग्री दी जा रही है दूसरी तरह से यह अंक स्मृति शेष अंक है ।

          नए साल में हिंदी भाषा और भाषाई साहित्य मजबूत, हो विश्व मंच पर हिंदी का प्रसार बढ़े और साहित्य में समाज की समस्याओं की अनुगूंजें ध्वनित हों और साहित्य की लोकप्रियता का वातावरण बने और रचनात्मकता नई बुलंदियों पर पहुंचे इसी कामना के साथ नव वर्ष की ढेरों शुभकामनाएं । नया साल हमारी उम्मीदों का साल हो और बदलाव का भी, यही कामना है ।

अवसान एक युग पुरुष का - अशोक मिश्र | Ashok Mishra on #RajendraYadav Rajendra Yadav

अवसान एक युग पुरुष का 

अशोक मिश्र 

सुबह की पौ फूटते ही जैसे ही मोबाइल फोन को उठाया वैसे ही स्क्रीन पर कई मिस्ड काल और इनबाक्स में मैसेज दिखे। पहला मैसेज दिल्ली से युवा कवि भरत तिवारी का था – `राजेंद्र यादवजी इज नो मोर।` यह मनहूस खबर देने वाला मैसेज देखकर सहसा मन को विश्वास ही नहीं हुआ। टीवी खोल दिया-- आईबीएन सेवन पर समाचार चल रहा था। समाचार से मन सन्न और उदास हो गया। मन के भीतर कई यादें उमड़ने-घुमड़ने लगीं।

       28 अगस्त, 1929 को आगरा में जन्मे राजेंद्र यादव ने वर्ष 1951 में आगरा विश्वविद्यालय से हिंदी में एमए किया था। पूरे विश्वविद्यालय में उन्होंने पहला स्थान पाया था। राजेंद्र यादव ने उपन्यास, कहानी, निबंध, आलोचना, वैचारिक लेख सहित कई विधाओं में लेखन किया। उनके प्रमुख उपन्यास- ‘उखड़े हुए लोग’, ‘सारा आकाश’, ‘अनदेखे अनजान पुल’, ‘कुल्टा’ हैं। सारा आकाश उपन्यास पर फिल्म भी बनी है। उनके करीब एक दर्जन कहानी संग्रह भी प्रकाशित हुए। मन्नू भंडारी के साथ उन्होंने अपनी प्रसिद्ध कृति ‘एक इंच मुस्कान’ लिखी। राजेंद्र यादव ने चेखव समेत रूसी भाषा के कई बड़े साहित्यकारों की पुस्तकों का हिंदी में अनुवाद किया। वर्ष 1999 से 2001 के दौरान वह प्रसार भारती बोर्ड के नामित सदस्य भी रहे।

       हिंदी साहित्य की सर्वाधिक चर्चित पत्रिका 'हंस' के संपादक राजेंद्र यादव क्या नहीं थे अर्थात एक सफल साहित्यकार, संपादक, अनुवादक बल्कि हिंदी में नई कहानी आंदोलन की प्रर्वतक तिकड़ी में से एक थे। दुनियावी स्तर के हिसाब से बेहद सफल कहानीकार, उपन्यासकार और संपादक राजेंद्र यादव का जीवन बहुत सफल नहीं था। वे अपने जीवन में आने वाली तीन स्त्रियों मन्नू भंडारी,  मीता, हेमलता से कुछ हद तक प्रभावित रहे। राजेंद्रजी के महिलाओं से संबंधों को लेकर जितनी मुंह उतनी बातें थी लेकिन सच्चाई तो यह थी कि वे घर में नितांत अकेले होते थे। उनके पास मुगल शासकों की भांति कोई हरम नहीं था। इन सब बातों को लेकर वे आजीवन एक के बाद एक विवादों का सामना करते रहे मगर उन्होंने विवादों से कभी हार मानी हो ऐसा नहीं हुआ। सुप्रसिद्ध कथा लेखिका मन्नू भंडारी के साथ राजेंद्र यादव का विवाह हुआ था पर उनका वैवाहिक जीवन सफल नहीं रहा। बेटी के जन्म के कुछ बरसों के बाद दोनों ने अलग-अलग रहने का फैसला किया। पत्नी का साथ छोड़े एक अरसा हो गया था उन्हें मगर दोनों के बीच संवाद कायम रहे। मुझे अच्छी तरह याद है कि एक बार मन्नूजी उनके लिए खाना लेकर आई मैं समझ नहीं सका कि ये कौन हैं लेकिन तुरंत ही बोले-"अशोक ये मन्नू है"। हालांकि उन्हें बेटी और पत्नी के साथ किए गए व्यवहार का अपराधबोध रहता था। मुझे अच्छी तरह याद है कि एक बार पाखी के राजेंद्र यादव पर केंद्रित अंक में उनकी बेटी रचना यादव ने बड़ी तिक्तता के साथ पिता के बारे में उदगार व्यक्त करते हुए कहा था "मुझे तो कभी पिता का प्यार नहीं मिला या कभी वे मुझे स्कूल लेकर या बाजार लेकर नहीं गए"।  

       राजेंद्र यादव ने प्रेमचंद संपादित हंस का पुर्नप्रकाशन शुरू करने के बाद अगस्त 1986 से खुद को संपादक की भूमिका में शिफ्ट कर लिया था। राजेंद्र यादव को लेखक, संपादक और विचारक के अलावा विमर्श, बहसों और असहमतियों का पैरोकार माना जाता है। धीरे-धीरे उनका लिखना कम होता गया लेकिन हंस साहित्य के आकाश का सिरमौर बन गया। नए कहानीकारों के तो वे गाडफादर थे। पिछले तीन दशकों के दौरान जितने भी अच्छे कथाकार साहित्य जगत में आए वे हंस और राजेंद्र यादव की ही देन कहे जा सकते हैं। वे हंस में शिकायती पत्रों को सबसे अधिक स्थान देते थे। वे हंस के माध्यम से कई बार नया विवाद खड़ा करते थे। हंस में हनुमान पर की गई उनकी टिप्पणी 'रावण के दरबार में हनुमान पहला आतंकवादी था', के लिए उन पर मुकदमे चले और धमकियां भी मिलीं।


       मुझे याद आता है कि मेरी राजेंद्र यादव से नियमित मुलाकात वर्ष 2001 के अंत में शुरू हुई जिन दिनों दिल्ली में मेरे पास कोई नौकरी नहीं थी और मैं फ्रीलांसर के रूप में दर बदर भटका करता था। उन्हीं दिनों राजेंद्र यादव से मेरी मुलाकात दरियागंज स्थित उनके अक्षर प्रकाशन के दफ्तर में हुई। अंसारी रोड़ दरियागंज का उनका दफ्तर बाहर से दिल्ली आने वाले हर नए पुराने लेखक का मक्का- मदीना हुआ करता था। शनिवार को वहां लोगों की भारी भीड़ लगती थी। हालांकि इससे पहले वर्ष 1997 में लखनऊ में आयोजित कथाक्रम संगोष्ठी में मैं उनसे मिल चुका था। मुझे लगा कि इतने बड़े संपादक और साहित्यकार से क्या बात करूंगा? उन्होंने कुछ इस बेलौस अंदाज में बात करनी शुरू की कि मेरा सारा भय जाता रहा। उन्होंने कहा कि ‘जब मन करे आया करो यहां कोई आने पर कोई टिकट नहीं लगता।‘ और वाकई शायद ही कभी ऐसा हुआ हो कि उन्होंने किसी को इंतजार कराया हो। शायद ही कभी उनके दरियागंज दफ्तर में चाय न पीने को मिली हो लेकिन अब कौन पूछेगा? मुझे अच्छी तरह याद है कि जब मेरा लघुकथा संग्रह ‘सपनों की उम्र’ प्रकाशित हुआ तो मैंने कहा कि मैं चाहता हूं कि आप इसका लोकार्पण करें उन्होंने कहा कि कर दूंगा तारीख तय कर हाल बुक कर लो। मैंने कहा कि सर हाल बुक करा पाना मेरे बूते से बाहर है। इस पर उन्होंने कहा कि ठीक है यहीं हंस कार्यालय में गोष्ठी होगी और हुई भी पच्चीस तीस लोग आए और असगर वजाहत, उदयप्रकाश, रूप सिंह चंदेल, महेश दर्पण, हीरालाल नागर, शकील सिददीकी, कमलेश भट्ट कमल सहित कई मित्रों की उपस्थिति रही। अगले दिन कई अखबारों में अच्छी खबर छपी उसका कारण मेरी पत्रकारिता और हर अखबार में बैठे मित्र थे। फिर तो वे मुझे विशेष स्नेह देने लगे।
उनके कुछ तकियाकलाम – मार डाला, तुम बहुत बदमाश आदमी हो, फोन पर मर गए क्या, आए हाय, तुम बहुत नीच आदमी हो, क्या बात है---  बहुत याद आते हैं। मुझे याद आता है कि साप्ताहिक पत्रिका इंडिया न्यूज का जब वर्ष 2007 में प्रकाशन शुरू हुआ तो उनका हमेशा सहयोग मिला। वे दो पत्रिकाएं आउटलुक जिसमें मित्र गीताश्री कार्यरत थीं और दूसरी इंडिया न्यूज का बेहद बेसब्री से इंतजार करते थे और न मिलने पर फोन कर देते थे। मैंने एकाध बार उनके सालाना आयोजन और किताबों पर प्रतिकूल टिप्पणी की इसके बावजूद वे कभी भी नाराज नहीं हुए। इंडिया न्यूज की टीम जिसमें संपादक सुधीर सक्सेना और कवि मित्र मजीद अहमद इस बात के गवाह हैं कि हम सभी को राजेंद्रजी का कितना अधिक स्नेह प्राप्त था। उन्होंने वर्धा आने से पहले तक हंस में पत्र पत्रिकाओं पर केंद्रित समीक्षा का मेरा कालम भी प्रकाशित किया।

मैं ईमानदारी से कह सकता हूं कि मेरे रचनाकार और संपादक के निर्माण में कहीं न कहीं राजेंद्र यादव का हाथ है। 

       राजेंद्र यादव के भीतर कितने और राजेंद्र बसते थे। घर छोड़ा, पत्नी-बेटी सबका साथ छूट गया, वह हमेशा एकांत भोगते रहे लेकिन अधिकतर खुश दिखने का ढोंग करते रहे। हालांकि उनके भीतर एक उदासी या चुप्पी भी तैरती थी। मुझे सैकड़ों बार उनसे मिलने का मौका मिला जहां मैंने उन्हें अपने अकेलेपन को किसी पत्रिका या किताब या फिल्म या टीवी पर खबरें देखकर काटते देखा। वे मित्रों के बीच ठहाके लगाते थे और साहित्य की दुनिया को कैसे समृद्ध बनाया जाए यही सोचते रहते थे।

       राजेंद्र यादव सदैव अपने प्रखर बेबाक संपादकीय ‘मेरी तेरी उसकी बात’ के लिए जाने जाएंगे। उन्होंने हिंदी पट्टी को नए सामाजिक विमर्श से जोड़ा। वे अपने संपादकीय लेखों में कई बार समाजशास्त्री और चिंतक की भूमिका में नजर आए। उन्होंने कहानी, कविता और उपन्यास, आलोचना के आसपास घूमते हिंदी साहित्य को नई दिशाओं की ओर मोड़ा। आज हिंदी साहित्य में स्त्री विमर्श, अल्पसंख्यक, दलित, आदिवासी विमर्श को अलग से रेखांकित किया जाता है। जाहिर है कि इसके प्रवर्तक राजेंद्र यादव हैं। उन्होंने एक बार बातचीत में कहा था कि हमारा साहित्य कुलीन लोगों का साहित्य रहा है, इसमें हाशिए पर खड़े लोगों की आवाज छूट गई है। यह भी एक इत्तफाक है कि 28 अगस्त 1929 को जन्मे राजेंद्र यादव ने 28 अक्टूबर की रात अंतिम सांस ली। आज वे हमारे बीच नहीं हैं लेकिन एक युग निर्माता, एक युग पुरुष साहित्यकार और एक साहित्य निर्माता संपादक के रूप में हमारे बीच हमेशा उपस्थित रहेंगे। साहित्य का पिछले पचास बरसों का इतिहास उनके बिना लिखा जाना असंभव ही नहीं बेमानी भी होगा। उन्हें मेरा शत-शत नमन।

(अशोक मिश्र कथाकार और बहुवचन त्रैमासिक के संपादक हैं)
संपर्क:
संपादक बहुवचन
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय
गांधी हिल्स, पोस्ट- हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा- 442005  (महाराष्ट्र)
मो. 9422386554
ईमेल: amishrafaiz@gmail.com
 

दूसरे समय में कहानी - अशोक मिश्र

बहुवचन की प्रति प्रेषित करने के साथ ही संपादक अशोक मिश्र ने मुझे अपनी निष्पक्ष राय देने का आदेश भी दिया... अब कहाँ उनके जैसा वरिष्ठ अनुभवी संपादक और कहाँ मैं ! बहरहाल उस दिन की डाक में एक भारी लिफ़ाफ़ा भी था, उसने अपनी ओर मेरा ध्यान आकर्षित कराया - जैसे कह रहा हो "मुझ से बच कर कहाँ जाओगे !" ... अन्दर से तीन रंगों के पंखों सी सजी बहुवचन निकली - मेरे अन्दर का डिज़ाइनर ये देख कर खुश हुआ कि आवरण पर भीड़ नहीं है और स्तर - प्रचलित अंतर्राष्ट्रीय फ्लैट प्रारूप का है. बधाई !

अगले पृष्ठ पर सम्पादक जी की मेरे लिए लिखी पंक्ति को कई बार पढ़ने के बाद जब अनुक्रम देखा तो पाया - कथाकारों की सूची, अंक के नाम "कहानी का दूसरा समय" को प्रमाणित कर रही है। आज के समय के ज्यादातर कथाकारों को एक साथ देख कर लगा कि जैसे कहानीकारों के किसी जमावड़े में मुझे भी आमंत्रित करा गया है - कि आयें और कहानियाँ सुने !

खैर उसके बाद सम्पादकीय "दूसरे समय की कहानी" पढ़ने पर अहसास हुआ कि ये जमावड़ा करने के लिए संपादक को खासी मसक्कत करनी पड़ी होगी (अशोक जी आपको ज़रूर ही बेटी की शादी करने जैसा ही कुछ-कुछ लगा होगा ?) । सम्पादकीय अपने में एक महत्वपूर्ण दस्तावेज़ है और मैंने पढ़ने के साथ ही सोचा कि संभव हुआ तो इसे "शब्दांकनगण" तक ज़रूर लाऊंगा, ख़ुशी है कि आज ये संभव हो सका और आप तक ला पाया. इसके लिए अशोक जी का आभारी हूँ।

बहरहाल पहली कहानी मैंने पढ़ी, अपने प्रिय कहानीकार प्रेम भारद्वाज की "प्लीज़ किल मी मम्मी" और हमेशा की तरह प्रेम जी फ़िर कमाल का लिखे ही मिले... उन्हें फ़ोन कर उनसे कहानी माँगी और आप तक पहुंचाई जिसे आपने पसंद भी करा। बाकी की कहानियाँ एक-एक कर पढ़ रहा हूँ, यहाँ ये बता दूं कि ज्यादातर अच्छी लग रही हैं और वक़्त के साथ उनको आप तक पहुँचाने का प्रयास करूँगा।

पत्रिका में, वरिष्ठ कथाकार अशोक गुप्ता द्वारा लिया गया सुश्री अर्चन वर्मा का साक्षात्कार, हिंदी साहित्य के लिए एक धरोहर है।

एक-दो बातें और - अशोक जी आवरण अच्छा है, लेकिन अभी और बेहतर होने की गुंजाईश है, आशा है कि अगले अंक का आवरण एक मानक होगा और हिंदी साहित्य की पुस्तक के आवरण पर पायी जाने वाली अनावश्यक भीड़ को कैसे कम करा जाए, ये सिखाएगा. पत्रिका में पद्य की कमी खली - ऐसा ना करें भाई ! कहानियों के बीच में कविता, गज़लें पढ़ने का भी अपना एक लुत्फ़ है, हम पाठको को उससे ना वंचित करें.

अंत में एक बार फ़िर आपको अशेष बधाईयां .

आपका
भरत तिवारी


दूसरे समय में कहानी - अशोक मिश्र


अशोक मिश्र सम्पादक बहुवचन कहानी विशेषांक ashok misra mishra bahuvachan       नए वर्ष की शुरुआत के साथ ही मुझे लगा कि क्यों न आज के हिंदी कहानी परिदृश्य का अवलोकन करने के लिए बहुवचन का एक भरा पूरा कहानी विशेषांक निकाला जाए और यह पड़ताल करने की कोशिश की जाए कि वर्ष 2001 से लेखन का आरंभ करने वाले नए कथाकारों ने कौन से नए मूल्य जोड़़ें हैं, कहानी की दुनिया में कितना फेरबदल किया है और क्या कुछ छोड़ा है। हिंदी कहानी किन नए रास्तों पर आगे बढ़ी है और पहले से चली आ रही परंपरा को कितना समृद्ध कर रही है। सवाल बहुत से हैं। बहरहाल इस दिशा में कदमताल करते हुए हमने करीब सौ से अधिक नए पुराने कहानीकारों को बिना किसी भेदभाव के पत्र भेजे। हमारे पत्र का अधिकतर कहानीकारों ने ठीक-ठीक संज्ञान लिया जबकि युवा पीढ़ी के कुछेक अति चर्चित रचनाकार इससे कन्नी काटते भी नजर आए।

      आज की हिंदी कहानी की परंपरा कोई 112  साल पुरानी है। हालांकि इस विषय पर हमारे यहां आलोचकों के मध्य पूर्ण मतैक्य नहीं है। हमारे कई आलोचकगण हिंदी कहानी का प्रस्थान बिंदु भारतेंदु काल को मानते हैं और कुछ उससे भी आगे बढ़कर द्विवेदी युग को। इसके आगे हम देखते हैं कि अधिकतर आलोचकों ने हिंदी की पहली कहानी ‘एक टोकरी भर मिट्टी’ (माधवराव सप्रे) को स्वीकार किया है। हिंदी कहानी पर बात करते हुए हम आज दावे के साथ कह सकते हैं कि साठोत्तरी पीढ़ी से लेकर बाद की कई पीढियां एक साथ सृजनरत हैं, जिनमें एकदम युवतर चेहरे भी हैं। यह हिंदी कहानी का विधागत आकर्षण ही है कि वह सभी को अपनी ओर खींच ही लेती है। अगर हम कहानी आलोचना की बात करें तो पाते हैं कि इस दिशा में शुरुआती पहली पुस्तक 1956 में प्रकाशित जगन्नाथ प्रसाद शर्मा की ‘कहानी का रचना विधान’ मानी जाती है। इसके बाद आगे चलकर वरिष्ठ आलोचक नामवर सिंह की पुस्तक ‘कहानी नयी कहानी’ न सिर्फ नयी कहानी आंदोलन की पड़ताल करती है बल्कि उस दौरान के नयी कहानी आंदोलन से उभरे कई कथाकारों की रचना प्रवृत्तियों पर एक नए दृष्टिकोण के साथ बात करती है। इस बीच आठवें, नौवें और शताब्दी के अंतिम दशक के दौरान कथा आलोचना का काम सुस्ती और छिटपुट रूप से चलता रहा। इस बीच आए कहानीकारों का मूल्यांकन ही नहीं हुआ। इक्कीसवीं शताब्दी के पहले दशक में कथा आलोचना की कमान युवा आलोचकों ने संभाली है और अब इस दिशा में तेजी से काम हो रहा है। वर्ष 1991 में सोवियत समाजवाद का पतन और इसी के साथ भारत में उदारवाद की शुरुआत हुई। इसी के साथ भारत में सांप्रदायिकता का उभार विशेषकर मंदिर और मंडल आंदोलन एक साथ चले, जिसका परिणाम यह हुआ कि भारतीय समाज जातियों में और भी बंट गया। इसकी परिणति बाबरी मस्जिद के ध्वंस के रूप में सामने आई। जाहिर है यहीं से साहित्य की दुनिया में भी बदलाव की प्रक्रिया तेजी से शुरू हुई। हिंदी के कहानीकारों को मंच देने में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका हंस संपादक राजेंद्र यादव की है जिन्होंने 1986 के बाद से लगातार संभावनाशील कहानीकारों को हंस में प्रकाशित किया।

महात्‍मा गांधी अंतरराष्‍ट्रीय हिंदी विश्‍वविद्यालय, वर्धा सदस्‍यता आवेदन-पत्र Mahatma Gandhi Antarrashtriya Hindi Vishwavidyalaya, Wardha subscription form       इसके बाद कहानी विधा में नए कहानीकारों का प्रवेश बहुत तेजी से नए दशक की शुरुआत के साथ होता है। यही वह महत्वपूर्ण मोड़ है जहां रवीन्द्र कालिया के संपादन में प्रकाशित ‘वागर्थ’ के नवलेखन विशेषांक (2004) और बाद में नया ज्ञानोदय के विशेषांकों ने हिंदी में कहानीकारों की एक नयी युवतर पीढ़ी को प्रकाशित कर सामने लाने में महती भूमिका का निर्वाह किया। जाहिर है बिना शक इसका पूरा श्रेय नया ज्ञानोदय के भविष्योन्मुखी संपादक रवीन्द्र कालिया को ही है। इसी कड़ी में हम देखते हैं कथाक्रम, वसुधा, परिकथा, लमही के कहानी अंकों ने कहानी विधा की परंपरा को आगे बढ़ाने में अपने- अपने तरीके से योगदान दिया।

      कहानी के परिदृश्य पर बात करते समय हमें ध्यान रखना होगा कि इक्कीसवीं सदी के पिछले तेरह सालों में हमारा समाज पूरी तरह से बदल चुका है। उदारीकरण के बाद हमारी सरकारों ने जिस तरह निजीकरण को बढ़ावा दिया है और बहुत से सार्वजनिक रहे आए क्षेत्रों को जिस तरह से मुक्त अर्थव्यवस्था के लिए खोला है उसने हमारे शहरों का यथार्थ बदला है। बहुत सारे नए रोजगार युवाओं के सामने आए हैं तो बहुत सारे अधेड़ लोगों ने अपनी नौकरियां बड़ी तादाद में बंद हुई फैक्ट्रियों की वजह से गंवाई भी हैं। बदले हुए समाज को देखने के लिए किसी शहर के रात में जगमगाते शॉपिंग माल की सैर करना काफी नहीं है बल्कि महानगरों में फ्लाईओवर के नीचे भयंकर ठंड में रात गुजार रहे लोगों को देखना किसी कड़ुवे सच से रूबरू होने के समान है। ठीक इसी तरह गांवों का यथार्थ भी पहले जैसा नहीं रहा है। जाहिर है आज खेती ट्रैक्टर से होती है, उपज को सही दाम नहीं मिलते किसान हताशा में है। खेती दिनोंदिन घाटे का सौदा बनती जा रही है। जाहिर है कि हमारा समय बेहद जटिल और चुनौतियों से भरा है। आज हमारे चारों ओर संचार क्रांति का शोर है, चमक-दमक है, टीवी पर सेक्स परोसते कार्यक्रम हैं; अखबार राजनीतिक बयानबाजियों, पेज थ्री पार्टियों, फैशन शो से भरे पड़े हैं; जबकि इसके ठीक उलट किसानों और बेरोजगारों की आत्महत्या की खबरें अखबार के कोनों में दम तोड़ रही हैं। समय के भयावह यथार्थ की जो अनुगूंजें आज समाज को मथ रही हैं। जाहिर है कि यह सब कहानी में दर्ज हो रहा है लेकिन बहुत मद्धम स्वर में। यदि हम आज की कहानी की बात करें तो हमें स्वीकार करना होगा कि आज कहानियां सोवियत रूस के विखंडन और भूमंडलीकरण के बाद लिखी जा रही हैं। कहानी और समाज दोनों की बात करें तो साफ दिखता है कि वर्ष 1991 से लेकर 2010 तक का समय पूरी दुनिया और भारतीय समाज व जनमानस में भारी उलट पुलट करने वाला रहा है। इस बीच न सिर्फ हमारा आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक ढांचा बदला है बल्कि साहित्य और संस्कृति की दुनिया भी उससे प्रभावित हुए बिना नहीं रह पायी है। निजीकरण और उदारीकरण की आंधी ने न सिर्फ जीवन का यथार्थ बदलकर रख दिया बल्कि उसे देखने का नजरिया भी बदल दिया है। पहले हमारे अधिकतर साहित्यकार दुनिया को बेहतर बनाने की बात करते थे और रचनाओं का संदेश भी कुल मिलाकर यही होता था। इसके बरक्स आज यह सच स्वीकार कर लिया गया है कि दुनिया जैसी बननी थी वह बन चुकी है। अब तो सिर्फ अपना जीवन बेहतर बनाने की होड़ है। भारतीय संस्कृति, कृषि संस्कृति रही है, जिसे हमेशा श्रम स्ंस्कृति कहा जाता रहा है, जिसकी बुनियाद सामूहिकता, सहिष्णुता, सहकार और सह अस्तित्व की भावना रही है। आज वैश्वीकरण के इस दौर में सब कुछ विखंडन का शिकार हो चुका है। भूमंडलीकरण और बुद्धू बक्से ने समाज को इस तरह बदला कि सामूहिकता की भावना समाप्त हो गई और हम आज अपने घर परिवार की खोल में सिमटकर रह गए हैं। जाहिर है कि इस सारे बदलाव को हिंदी कहानी के नए और पुराने दोनों ही कथाकार बारीकी के साथ दर्ज कर रहे हैं। शुरू से ही हिंदी कहानी में शहरी मध्यवर्ग और ग्रामीण चेतना की धारा साथ-साथ चलती रही है। कहानी में गांव केंद्रित कहानियां और प्रतिरोध के स्वर इन दिनों कुछ काफी हद तक मद्धम हैं लेकिन एकदम सिरे से गायब हों ऐसा नहीं है । मुझे विशेषांक का संपादन करते हुए यह जरूर लगा कि इन दिनों गांव की पृष्ठभूमि और सामाजिक चेतना से लैस कम कहानीकार आ रहे हैं शायद यह भी एक वजह हो।

महात्‍मा गांधी अंतरराष्‍ट्रीय हिंदी विश्‍वविद्यालय, वर्धा सदस्‍यता आवेदन-पत्र Mahatma Gandhi Antarrashtriya Hindi Vishwavidyalaya, Wardha subscription form       हरेक संपादक का स्वप्न होता है कि उसके संपादन में ऐसी रचनाएं प्रकाशित हों जो रचनात्मक उत्कृष्टता की मिसाल बनकर रह जाएं लेकिन यह एक ऐसा सपना है, जिस तक पहुंचना कई बार असंभव बनकर रह जाता है। विशेषांक का नामकरण `कहानी का दूसरा समय` क्यों रखा उस पर मैं सिर्फ इतना कहना चाहता हूं कि कहानी का पहला समय अगर वर्ष 2000 तक है तो इससे आगे का समय निश्चित रूप से दूसरे समय के रूप में दर्ज हो रहा है इसीलिए अंक के केंद्र में कहानी का दूसरा समय है। प्रस्तुत कहानी विशेषांक में पच्चीस कहानियां हैं। अंक में युवतर पीढ़ी के साथ-साथ पुराने प्रतिष्ठित कथाकार भी हैं। दूसरी ओर आज के कहानी लेखन की पड़ताल के क्रम में चार प्रमुख आलोचकों के लेख हैं। एक और प्रसन्नता का विषय है कि दुनिया की आधी आबादी कहानी विशेषांक में अपने पूरे संख्या बल के साथ उपस्थित है। इसी क्रम में हिंदी कहानी की अध्येता अर्चना वर्मा से कथाकार अशोक गुप्ता द्वारा की गयी बातचीत दी जा रही है। बहुवचन द्वारा आयोजित एक परिचर्चा भी है जिसके लिए मनोज मोहन ने काफी श्रमपूर्वक हिंदी कहानी पर कहानी से जुड़े संपादकों और अध्येताओं से विचार एकत्रित किए हैं। हमने अपने स्तर पर कोशिश की है कि विशेषांक में हर तरह की रचनात्मकता और कहानीकारों को स्थान मिले और यह विशेषांक सिर्फ दिल्ली केंद्रित बनकर न रह जाए। अंक के लिए विजयमोहन सिंह को भी लिखना था लेकिन वे कहकर भी नहीं लिख पाए। अंक के लिए स्वीकृत की गई कुछ कहानियां हमें रोकनी पड़ रही हैं और कई रचनाकारों ने अंतिम समय में शामिल होने की इच्छा जताई, उनसे सिर्फ इतना कि यह मौका फिर कभी। बहरहाल जो भी, जैसा भी बन पड़ा बहुवचन का कहानी विशेषांक पाठकों के आस्वाद के लिए प्रस्तुत है। यह अंक कैसा लगा आप हमें मेल कर या चिट्ठी भेजकर या एसएमएस कर जरूर बताएं।


रक्षा में हत्‍या - मुंशी प्रेमचंद

कथा-सम्राट प्रेमचंद की दुर्लभ एवं असंदर्भित कहानी पुनर्प्रस्तुति – प्रदीप जैन

    ऐसे समय में जब संपादक अपनी सहूलियत के हिसाब से कहानीकार पैदा कर रहा हो और फिर उसकी पैदाइश ही उसके खिलाफ़ खड़ी उसे नकार रही हो, “बहुवचन”, श्री अशोक मिश्र और श्री प्रदीप जैन बधाई के पात्र हैं कि कथा-सम्राट प्रेमचंद की दुर्लभ एवं असंदर्भित कहानी "रक्षा में हत्‍या" हम तक ले कर आये  – शब्दांकन अपने समस्त पाठकों के साथ उन्हें शुभकामनाएं देता है कि भविष्य में और भी ऐसी दुर्लभ कृतियाँ हम तक पहुंचें ।
    प्रेमचंद के जीवन-काल में उनकी अनेक कहानियों के अनुवाद जापानी, अंग्रेजी आदि विदेशी भाषाओं में तो हुए ही, साथ ही अनेक भारतीय भाषाओं में भी उनकी कहानियां अनूदित होकर प्रकाशित हुईं।

     प्रेमचंद ने 1928 में नागपुर (महाराष्‍ट्र) के श्री आनंदराव जोशी को अपनी कहानियों का मराठी अनुवाद पुस्‍तकाकार प्रकाशित कराने की अनुमति प्रदान की थी। प्रेमचंद के देहावसान के पश्‍चात् ‘हंस’ का मई 1937 का अंक ‘प्रेमचंद स्‍मृति अंक’ के रूप में बाबूराव विष्‍णु पराड़करजी के संपादन में प्रकाशित हुआ था, जिसमें आनंदराव जोशी का लेख ‘प्रेमचंदजी की सर्वोत्‍तम कहानियां’ (पृष्‍ठ 927-929) शीर्षक से प्रकाशित हुआ था। इस लेख में प्रस्‍तुत विवरण से स्‍पष्‍ट है कि अनुवाद हेतु कहानियों का चयन करने के लिए प्रेमचंद और आनंदराव जोशी के मध्‍य लंबा पत्राचार हुआ था और प्रेमचंद ने अपने पत्रों में अपनी लोकप्रिय कहानियों के शीर्षक एवं स्रोत की स्‍पष्‍ट सूचना आनंदराव जोशी को उपलब्‍ध कराई थी। परिणामस्‍वरूप आनंदराव जोशी ने प्रेमचंद की 14 कहानियों को मराठी में अनूदित करके जून 1929 में पूना के सुप्रसिद्ध चित्रशाला प्रेस से ‘प्रेमचंदाच्‍या गोष्‍ठी, भाग-1’ शीर्षक से प्रकाशित कराया था, जिसमें सम्मिलित कहानियां निम्‍नांकित हैं:- 1. राजा हरदौल, 2. रानी सारंधा, 3. मंदिर और मस्जिद, 4. एक्‍ट्रेस, 5. अग्नि समाधि, 6. विनोद, 7. आत्‍माराम, 8. सुजान भगत, 9. बूढ़ी काकी, 10. दुर्गा का मंदिर, 11. शतरंज के खिलाड़ी, 12. पंच परमेश्‍वर, 13. बड़े घर की बेटी और 14. विध्‍वंस।

     ‘हंस’ के प्रेमचंद स्‍मृति अंक में प्रकाशित आनंदराव जोशी के उपर्युक्‍त संदर्भित लेख में उद्घृत प्रेमचंद के पत्रांशों से सुस्‍पष्‍ट है कि ‘प्रेमचंदाच्‍या गोष्‍ठी, भाग-1’ के प्रकाशनोपरांत आनंदराव जोशी, इस संकलन के द्वितीय भाग हेतु प्रेमचंद की कतिपय अन्‍य कहानियों के मराठी अनुवाद करने की दिशा में सक्रिय हो गए थे। इस हेतु कहानियों का चयन करने के लिए प्रेमचंद से उनका पत्राचार होता रहा था। इसी क्रम में आनंदराव जोशी ने अपने 14 मई, 1930 के पत्र में प्रेमचंद को लिखा- ‘I have already translated ‘पश्‍चाताप’ and ‘पाप का अग्निकुंड’ From ‘नवनिधि’ I also wish to include two stories meant for children ‘रक्षा में हत्‍या’, and ‘सच्‍चाई का उपहार’, The first one was already published in ‘आलाप अंक’, but it could not be included in part 1 for want of space.’ (प्रेमचंद का अप्राप्‍त साहित्‍य, भाग-2, पृ.141)

    उपर्युक्‍त उदाहरण से स्‍पष्‍ट है कि प्रेमचंद की एक कहानी ‘रक्षा में हत्‍या’ का मराठी अनुवाद करके आनंदराव जोशी ने ‘प्रेमचंद गोष्‍ठी, भाग-1’ के प्रकाशन से पूर्व अर्थात् जून 1929 से पूर्व ही ‘आलाप’ अंक में प्रकाशित करा दिया था। इसका सीधा सा अर्थ है कि ‘रक्षा में हत्‍या’ शीर्षक कहानी जून 1929 से पूर्व ही हिंदी में प्रकाशित हो चुकी थी, परंतु आश्‍चर्य का विषय है कि आनंदराव जोशी के प्रेमचंद के नाम लिखे उपर्युक्‍त संदर्भित पत्र को ‘प्रेमचंद का अप्राप्‍त साहित्‍य में संकलित करते समय डॉ. कमल किशोर गोयनका प्रेमचंद की इस कहानी को खोजने की दिशा में प्रवृत्त होने के स्‍थान पर कहानी पर मात्र निम्‍नांकित पद टिप्‍पणी प्रकाशित कराकर अपने कर्तव्‍य की इतिश्री मान लेते हैं- ‘इस नाम की कोई कहानी उपलब्‍ध नहीं है- डॉ. गोयनका’ (प्रेमचंद का अप्राप्‍य साहित्‍य, भाग-2, पृ. 141)

    वास्‍तविकता यह है कि हिंदी पुस्‍तक भंडार, लहेरियासराय से श्रीरामवृक्ष शर्मा बेनीपुरी के संपादन में प्रकाशित होने वाले मासिक पत्र ‘बालक के माघ 1983 (जनवरी 1927) के अंक में प्रेमचंद की यह कहानी पृष्‍ठ संख्‍या 2 से 8 तक प्रकाशित हुई थी। विगत 85 वर्षों से ‘बालक’ के पृष्‍ठों में अचीन्‍ही पड़ी, यह दुर्लभ एवं असंदर्भित कहानी ‘रक्षा में हत्या’ प्रेमचंद की दुर्लभ रचनाओं की खोज के प्रति विद्वानों एवं प्रेमचंद विशेषज्ञों की घोर अपेक्षा का ज्‍वलंत प्रमाण है।

कहानी : रक्षा में हत्‍या

    केशव के घर में एक कार्निस के ऊपर एक पंडुक ने अंडे दिए थे। केशव और उसकी बहन श्‍यामा दोनों बड़े गौर से पंडुक को वहां आते-जाते देखा करते। प्रात:काल दोनों आंखें मलते कार्निस के सामने पहुंच जाते और पंडुक या पंडुकी या दोनों को वहां बैठा पाते। उनको देखने में दोनों बालकों को न जाने क्‍या मजा मिलता था। दूध और जलेबी की सुध भी न रहती थी। दोनों के मन में भांति-भांति के प्रश्‍न उठते-अंडे कितने बड़े होंगे, किस रंग के होंगे, कितने होंगे क्‍या खाते होंगे, उनमें से बच्‍चे कैसे निकल आवेंगे, बच्‍चों के पंख कैसे निकलेंगे, घोंसला कैसा है पर इन प्रश्‍नों का उत्‍तर देने वाला कोई न था? अम्मा को घर के काम-धंधों से फुरसत न थी- बाबूजी को पढ़ने-लिखने से। दोनों आपस ही में प्रश्‍नोत्‍तर करके अपने मन को संतुष्‍ट कर लिया करते थे।

    श्‍यामा कहती क्‍यों भैया, बच्‍चे निकलकर फुर्र से उड़ जाएंगे? केशव पंडिताई भरे अभिमान से कहता- नहीं री पगली, पहले पंख निकलेंगे। बिना परों के बिचारे कैसे उड़ेंगे। श्‍यामा-बच्‍चों को क्‍या खिलाएगी बिचारी?

    केशव इस जटिल प्रश्‍न का उत्‍तर कुछ न दे सकता।

    इस भांति तीन-चार दिन बीत गए। दोनों बालकों की जिज्ञासा दिन-दिन प्रबल होती जाती थी। अंडों को देखने के लिए वे अधीर हो उठते थे। उन्‍होंने अनुमान किया, अब अवश्‍य बच्‍चे निकल आए होंगे। बच्‍चों के चारे की समस्‍या अब उनके सामने आ खड़ी हुई। पंडुकी बिचारी इतना दान कहां पावेगी कि सारे बच्‍चों का पेट भरे। गरीब बच्‍चे भूख के मारे चूं-चूं कर मर जाएंगे।

    इस विपत्ति की कल्‍पना करके दोनों व्‍याकुल हो गए। दोनों ने निश्‍चय किया कि कार्निस पर थोड़ा सा दाना रख दिया जाए। श्‍यामा प्रसन्‍न होकर बोली- तब तो चिडि़यों को चारे के लिए कहीं उड़कर न जाना पड़ेगा न?

    केशव – नहीं, तब क्‍यों जाएगी।

    श्‍यामा – क्‍यों भैया, बच्‍चों को धूप न लगती होगी?

    केशव का ध्‍यान इस कष्‍ट की ओर न गया था- अवश्‍य कष्‍ट हो रहा होगा। बिचारे प्‍यास के मारे तड़पते होंगे, ऊपर कोई साया भी तो नहीं।

    आखिर यही निश्‍चय हुआ कि घोंसले के ऊपर कपड़े की छत बना देना चाहिए। पानी की प्‍याली और थोड़ा सा चावल रख देने का प्रस्‍ताव भी पास हुआ।

    दोनों बालक बड़े उत्‍साह से काम करने लगे। श्‍यामा माता की आंख बचाकर मटके से चावल निकाल लाई। केशव ने पत्‍थर की प्‍याली का तेल चुपके से जमीन पर गिरा दिया और उसे खूब साफ करके उसमें पानी भरा।

    अब चांदनी के लिए कपड़ा कहां से आए? फिर, ऊपर बिना तीलियों के कपड़ा ठहरेगा कैसे और तीलियां खड़ी कैसे होंगी?

    केशव बड़ी देर तक इसी उधेड़बुन में रहा। अंत को उसने यह समस्‍या भी हल कर ली। श्‍यामा से बोला- जाकर कूड़ा फेंकने वाली टोकरी उठा ला। अम्माजी को मत दिखाना।

    श्‍यामा- वह तो बीच से फटी हुई है, उसमें से धूप न जाएगी?

    केशव ने झुंझलाकर कहा – तू टोकरी तो ला, मैं उसका सूराख बंद करने की कोई हिकमत निकालूंगा न।

    श्‍यामा दौड़कर टोकरी उठा लाई। केशव ने उसके सूराख में थोड़ा-सा कागज ठूंस दिया और तब टोकरी को एक टहनी से टिकाकर बोला- देख, ऐसे ही घोंसले पर इसकी आड़ कर दूंगा। तब कैसे धूप जाएगी? श्‍यामा ने मन में सोचा- भैया कितने चतुर हैं!

    गर्मी के दिन थे। बाबूजी दफ्तर गए हुए थे। माता दोनों बालकों को कमरे में सुलाकर खुद सो गई थी, पर बालकों की आंखों में आज नींद कहां? अम्माजी को बहलाने के लिए दोनों दम साधे, आंखें बंद किए, मौके का इंतजार कर रहे थे। ज्‍योंही मालूम हुआ कि अम्माजी अच्‍छी तरह सो गई, दोनों चुपके से उठे और बहुत धीरे से द्वार की सिटकनी खोलकर बाहर निकल आए। अंडों की रक्षा करने की तैयारियां होने लगीं।

    केशव कमरे से एक स्‍टूल उठा लाया, पर जब उससे काम न चला, तो नहाने की चौकी लाकर स्‍टूल के नीचे रखी और डरते-डरते स्‍टूल पर चढ़ा। श्‍यामा दोनों हाथों से स्‍टूल को पकड़े हुई थी। स्‍टूल चारों पाए बराबर न होने के कारण, जिस ओर ज्‍यादा दबाव पाता था, जरा-सा हिल जाता था। उस समय केशव को कितना संयम करना पड़ता था, यह उसी का दिल जानता। दोनों हाथों से कार्निस पकड़ लेता और श्‍यामा को दबी आवाज से डांटता अच्‍छी तरह पकड़, नहीं उतरकर बहुत मारूंगा। मगर बिचारी श्‍यामा का मन तो ऊपर कार्निस पर था, बार-बार उसका ध्‍यान, इधर चला जाता और हाथ ढीले पड़ जाते। केशव ने ज्‍यों ही कार्निस पर हाथ रखा, दोनों पंडुक उड़ गए। केशव ने देखा कि कार्निस पर थोड़े-से तिनके बिछे हुए हैं और उस पर तीन अंडे पड़े हैं। जैसे घोंसले पर देखे थे, ऐसा कोई घोंसला नहीं है।

    श्‍यामा ने नीचे से पूछा- कै बच्‍चे हैं भैया?

    केशव- तीन अंडे हैं। अभी बच्‍चे नहीं निकले।

    श्‍यामा- जरा हमें दिखा दो भैया, कितने बड़े हैं?

    केशव-दिखा दूंगा, पहले जरा-चीथड़े ले आ, नीचे बिछा दूं। बिचारे अंडे तिनकों पर पड़े हुए हैं।

    श्‍यामा दौड़कर अपनी पुरानी धोती फाड़कर एक टुकड़ा लाई और केशव ने झुककर कपड़ा ले लिया। उसके कई तह करके उसने एक गद्दी बनाई और उसे तिनकों पर बिछाकर तीनों अंडे, धीरे से उस पर रख दिए।

    श्‍यामा ने फिर कहा- हमको भी दिखा दो भैया?

    केशव-दिखा दूंगा, पहले जरा वह टोकरी तो दे दो, ऊपर साया कर दूं।

    श्‍यामा ने टोकरी नीचे से थमा दी और बोली अब तुम उतर आओ, तो मैं भी देखूं। केशव ने टोकरी को एक टहनी से टिकाकर कहा- जा दाना और पानी की प्‍याली ले आ। मैं उतर जाऊं, तो तुझे दिखा दूंगा।

    श्‍यामा प्‍याली और चावल भी लाई। केशव ने टोकरी के नीचे दोनों चीजें रख दीं और धीरे से उतर आया।

    श्‍यामा ने गिड़गिड़ाकर कहा- अब हमको भी चढ़ा दो भैया।

    केशव- तू गिर पड़ेगी।

    श्‍यामा- न गिरूंगी भैया, तुम नीचे से पकड़े रहना।

    केशव- ना भैया, कहीं तू गिर-गिरा पड़े, तो अम्माजी मेरी चटनी ही बना डालें कि तूने ही चढ़ाया था। क्‍या करेगी देखकर? अब अंडे बड़े आराम से हैं। जब बच्‍चे निकलेंगे, तो उनको पालेंगे।

    दोनों पक्षी बार-बार कार्निस पर आते थे और बिना बैठे ही उड़ जाते थे। केशव ने सोचा, हम लोगों के भय से यह नहीं बैठते। स्‍टूल उठाकर कमरे में रख आया। चौकी जहां-की-तहां रख दी।

    श्‍यामा ने आंखों में आंसू भरकर कहा-तुमने मुझे नहीं दिखाया, मैं अम्माजी से कह दूंगी।

    केशव-अम्माजी से कहेगी, तो बहुत मारूंगा, कहे देता हूं। श्‍यामा- तो तुमने मुझे दिखाया क्‍यों नहीं?

    केशव- और गिर पड़ती तो चार सिर न हो जाते?

    श्‍यामा- हो जाते, हो जाते। देख लेना, मैं कह दूंगी।

    इतने में कोठरी का द्वार खुला और माता ने धूप से आंखों को बचाते हुए कहा-तुम दोनों बाहर कब निकल आए? मैंने मना किया था कि दोपहर को न निकलना, किसने किवाड़ खोला?

    किवाड़ केशव ने खोला था, पर श्‍यामा ने माता से यह बात नहीं की। उसे भय हुआ भैया पिट जाएंगे। केशव दिल में कांप रहा था कि कहीं श्‍यामा कह न दे। अंडे न दिखाए थे, इससे अब इसको श्‍यामा पर विश्‍वास न था। श्‍यामा केवल प्रेमवश चुप थी या इस अपराध में सहयोग के कारण इसका निर्णय नहीं किया जा सकता। शायद दोनों ही बातें थीं।

    माता ने दोनों बालकों को डांट-डपटकर फिर कमरे में बंद कर दिया और आप धीरे-धीरे उन्‍हें पंखा झलने लगी। अभी केवल दो बजे थे। तेज लू चल रही थी। अबकी दोनों बालकों को नींद आ गई।

    चार बजे एकाएक श्‍यामा की नींद खुली। किवाड़ खुले हुए थे। वह दौड़ी हुई कार्निस के पास आई और ऊपर की ओर ताकने लगी। पंडुकों का पता न था। सहसा उसकी निगाह नीचे गई और वह उलटे पांव बेतहाशा दौड़ती हुई कमरे में जाकर जोर से बोली-भैया, अंडे तो नीचे पड़े हैं। बच्‍चे उड़ गए?

    केशव घबराकर उठा और दौड़ा हुआ बाहर आया, तो क्‍या देखता है कि तीनों अंडे नीचे टूटे पड़े हैं और उनमें से कोई चूने की सी चीज बाहर निकल आई हैं। पानी की प्‍याली भी एक तरफ टूटी पड़ी है।

    उसके चेहरे का रंग उड़ गया। डरे हुए नेत्रों से भूमि की ओर ताकने लगा। श्‍यामा ने पूछा-बच्‍चे कहां उड़ गए भैया?

    केशव ने रुंधे स्‍वर में कहा-अंडे तो फूट गए!

    श्‍यामा-और बच्‍चे कहां गए?

    केशव-तेरे सिर में। देखती नहीं है, अंडों में से उजला-उजला पानी निकल आया है! वही तो दो-चार दिन में बच्‍चे बन जाते।

    माता ने सुई हाथ में लिए हुए पूछा-तुम दोनों वहां धूप में क्‍या कर रहे हो?

    श्‍यामा ने कहा –अम्माजी, चिडि़या के अंडे टूटे पड़े हैं।

    माता ने आकर टूटे हुए अंडों को देखा और गुस्‍से से बोली-तुम लोगों ने अंडों को छुआ होगा।

    अबकी श्‍यामा को भैया पर, जरा भी दया न आई- उसी ने शायद अंडों को इस तरह रख दिया कि वे नीचे गिर पड़़े, इसका उसे दंड मिलना चाहिए, बोली-इन्‍हीं ने अंडों को छेड़ा था अम्माजी।

    माता ने केशव से पूछा- क्‍यों रे?

    केशव भीगी बिल्‍ली बना खड़ा रहा।

    माता – तो वहां पहुंचा कैसे?

    श्‍यामा- चौकी पर स्‍टूल रखकर चढ़े थे अम्माजी।

    माता- इसीलिए तुम दोनों दोपहर को निकले थे।

    श्‍यामा- यहीं ऊपर चढ़े थे अम्माजी।

    केशव- तू स्‍टूल थामे नहीं खड़ी थी।

    श्‍याम- तुम्‍हीं ने तो कहा था।

    माता- तू इतना बड़ा हुआ, तुझे अभी इतना भी नहीं मालूम कि छूने से चिडि़यों के अंडे गंदे हो जाते हैं- चिडि़यां फिर उन्‍हें नहीं सेती।

    श्‍यामा ने डरते-डरते पूछा- तो क्‍या इसीलिए चिडि़यां ने अंडे गिरा दिए हैं अम्माजी?

    माता- और क्‍या करती। केशव के सिर इसका पाप पड़ेगा। हां-हां तीन जानें ले लीं दुष्‍ट ने!

    केशव रुआंसा होकर बोला- मैंने तो केवल अंडों को गद्दी पर रख दिया था अम्माजी!

    माता को हंसी आ गई।

    मगर केशव को कई दिनों तक अपनी भूल पर पश्‍चाताप होता रहा। अंडों की रक्षा करने के भ्रम में, उसने उनका सर्वनाश कर डाला था। इसे याद करके वह कभी-कभी रो पड़ता था।

    दोनों चिडि़यां वहां फिर न दिखाई दीं!