अवसान एक युग पुरुष का - अशोक मिश्र | Ashok Mishra on #RajendraYadav Rajendra Yadav

अवसान एक युग पुरुष का 

अशोक मिश्र 

सुबह की पौ फूटते ही जैसे ही मोबाइल फोन को उठाया वैसे ही स्क्रीन पर कई मिस्ड काल और इनबाक्स में मैसेज दिखे। पहला मैसेज दिल्ली से युवा कवि भरत तिवारी का था – `राजेंद्र यादवजी इज नो मोर।` यह मनहूस खबर देने वाला मैसेज देखकर सहसा मन को विश्वास ही नहीं हुआ। टीवी खोल दिया-- आईबीएन सेवन पर समाचार चल रहा था। समाचार से मन सन्न और उदास हो गया। मन के भीतर कई यादें उमड़ने-घुमड़ने लगीं।

       28 अगस्त, 1929 को आगरा में जन्मे राजेंद्र यादव ने वर्ष 1951 में आगरा विश्वविद्यालय से हिंदी में एमए किया था। पूरे विश्वविद्यालय में उन्होंने पहला स्थान पाया था। राजेंद्र यादव ने उपन्यास, कहानी, निबंध, आलोचना, वैचारिक लेख सहित कई विधाओं में लेखन किया। उनके प्रमुख उपन्यास- ‘उखड़े हुए लोग’, ‘सारा आकाश’, ‘अनदेखे अनजान पुल’, ‘कुल्टा’ हैं। सारा आकाश उपन्यास पर फिल्म भी बनी है। उनके करीब एक दर्जन कहानी संग्रह भी प्रकाशित हुए। मन्नू भंडारी के साथ उन्होंने अपनी प्रसिद्ध कृति ‘एक इंच मुस्कान’ लिखी। राजेंद्र यादव ने चेखव समेत रूसी भाषा के कई बड़े साहित्यकारों की पुस्तकों का हिंदी में अनुवाद किया। वर्ष 1999 से 2001 के दौरान वह प्रसार भारती बोर्ड के नामित सदस्य भी रहे।

       हिंदी साहित्य की सर्वाधिक चर्चित पत्रिका 'हंस' के संपादक राजेंद्र यादव क्या नहीं थे अर्थात एक सफल साहित्यकार, संपादक, अनुवादक बल्कि हिंदी में नई कहानी आंदोलन की प्रर्वतक तिकड़ी में से एक थे। दुनियावी स्तर के हिसाब से बेहद सफल कहानीकार, उपन्यासकार और संपादक राजेंद्र यादव का जीवन बहुत सफल नहीं था। वे अपने जीवन में आने वाली तीन स्त्रियों मन्नू भंडारी,  मीता, हेमलता से कुछ हद तक प्रभावित रहे। राजेंद्रजी के महिलाओं से संबंधों को लेकर जितनी मुंह उतनी बातें थी लेकिन सच्चाई तो यह थी कि वे घर में नितांत अकेले होते थे। उनके पास मुगल शासकों की भांति कोई हरम नहीं था। इन सब बातों को लेकर वे आजीवन एक के बाद एक विवादों का सामना करते रहे मगर उन्होंने विवादों से कभी हार मानी हो ऐसा नहीं हुआ। सुप्रसिद्ध कथा लेखिका मन्नू भंडारी के साथ राजेंद्र यादव का विवाह हुआ था पर उनका वैवाहिक जीवन सफल नहीं रहा। बेटी के जन्म के कुछ बरसों के बाद दोनों ने अलग-अलग रहने का फैसला किया। पत्नी का साथ छोड़े एक अरसा हो गया था उन्हें मगर दोनों के बीच संवाद कायम रहे। मुझे अच्छी तरह याद है कि एक बार मन्नूजी उनके लिए खाना लेकर आई मैं समझ नहीं सका कि ये कौन हैं लेकिन तुरंत ही बोले-"अशोक ये मन्नू है"। हालांकि उन्हें बेटी और पत्नी के साथ किए गए व्यवहार का अपराधबोध रहता था। मुझे अच्छी तरह याद है कि एक बार पाखी के राजेंद्र यादव पर केंद्रित अंक में उनकी बेटी रचना यादव ने बड़ी तिक्तता के साथ पिता के बारे में उदगार व्यक्त करते हुए कहा था "मुझे तो कभी पिता का प्यार नहीं मिला या कभी वे मुझे स्कूल लेकर या बाजार लेकर नहीं गए"।  

       राजेंद्र यादव ने प्रेमचंद संपादित हंस का पुर्नप्रकाशन शुरू करने के बाद अगस्त 1986 से खुद को संपादक की भूमिका में शिफ्ट कर लिया था। राजेंद्र यादव को लेखक, संपादक और विचारक के अलावा विमर्श, बहसों और असहमतियों का पैरोकार माना जाता है। धीरे-धीरे उनका लिखना कम होता गया लेकिन हंस साहित्य के आकाश का सिरमौर बन गया। नए कहानीकारों के तो वे गाडफादर थे। पिछले तीन दशकों के दौरान जितने भी अच्छे कथाकार साहित्य जगत में आए वे हंस और राजेंद्र यादव की ही देन कहे जा सकते हैं। वे हंस में शिकायती पत्रों को सबसे अधिक स्थान देते थे। वे हंस के माध्यम से कई बार नया विवाद खड़ा करते थे। हंस में हनुमान पर की गई उनकी टिप्पणी 'रावण के दरबार में हनुमान पहला आतंकवादी था', के लिए उन पर मुकदमे चले और धमकियां भी मिलीं।


       मुझे याद आता है कि मेरी राजेंद्र यादव से नियमित मुलाकात वर्ष 2001 के अंत में शुरू हुई जिन दिनों दिल्ली में मेरे पास कोई नौकरी नहीं थी और मैं फ्रीलांसर के रूप में दर बदर भटका करता था। उन्हीं दिनों राजेंद्र यादव से मेरी मुलाकात दरियागंज स्थित उनके अक्षर प्रकाशन के दफ्तर में हुई। अंसारी रोड़ दरियागंज का उनका दफ्तर बाहर से दिल्ली आने वाले हर नए पुराने लेखक का मक्का- मदीना हुआ करता था। शनिवार को वहां लोगों की भारी भीड़ लगती थी। हालांकि इससे पहले वर्ष 1997 में लखनऊ में आयोजित कथाक्रम संगोष्ठी में मैं उनसे मिल चुका था। मुझे लगा कि इतने बड़े संपादक और साहित्यकार से क्या बात करूंगा? उन्होंने कुछ इस बेलौस अंदाज में बात करनी शुरू की कि मेरा सारा भय जाता रहा। उन्होंने कहा कि ‘जब मन करे आया करो यहां कोई आने पर कोई टिकट नहीं लगता।‘ और वाकई शायद ही कभी ऐसा हुआ हो कि उन्होंने किसी को इंतजार कराया हो। शायद ही कभी उनके दरियागंज दफ्तर में चाय न पीने को मिली हो लेकिन अब कौन पूछेगा? मुझे अच्छी तरह याद है कि जब मेरा लघुकथा संग्रह ‘सपनों की उम्र’ प्रकाशित हुआ तो मैंने कहा कि मैं चाहता हूं कि आप इसका लोकार्पण करें उन्होंने कहा कि कर दूंगा तारीख तय कर हाल बुक कर लो। मैंने कहा कि सर हाल बुक करा पाना मेरे बूते से बाहर है। इस पर उन्होंने कहा कि ठीक है यहीं हंस कार्यालय में गोष्ठी होगी और हुई भी पच्चीस तीस लोग आए और असगर वजाहत, उदयप्रकाश, रूप सिंह चंदेल, महेश दर्पण, हीरालाल नागर, शकील सिददीकी, कमलेश भट्ट कमल सहित कई मित्रों की उपस्थिति रही। अगले दिन कई अखबारों में अच्छी खबर छपी उसका कारण मेरी पत्रकारिता और हर अखबार में बैठे मित्र थे। फिर तो वे मुझे विशेष स्नेह देने लगे।
उनके कुछ तकियाकलाम – मार डाला, तुम बहुत बदमाश आदमी हो, फोन पर मर गए क्या, आए हाय, तुम बहुत नीच आदमी हो, क्या बात है---  बहुत याद आते हैं। मुझे याद आता है कि साप्ताहिक पत्रिका इंडिया न्यूज का जब वर्ष 2007 में प्रकाशन शुरू हुआ तो उनका हमेशा सहयोग मिला। वे दो पत्रिकाएं आउटलुक जिसमें मित्र गीताश्री कार्यरत थीं और दूसरी इंडिया न्यूज का बेहद बेसब्री से इंतजार करते थे और न मिलने पर फोन कर देते थे। मैंने एकाध बार उनके सालाना आयोजन और किताबों पर प्रतिकूल टिप्पणी की इसके बावजूद वे कभी भी नाराज नहीं हुए। इंडिया न्यूज की टीम जिसमें संपादक सुधीर सक्सेना और कवि मित्र मजीद अहमद इस बात के गवाह हैं कि हम सभी को राजेंद्रजी का कितना अधिक स्नेह प्राप्त था। उन्होंने वर्धा आने से पहले तक हंस में पत्र पत्रिकाओं पर केंद्रित समीक्षा का मेरा कालम भी प्रकाशित किया।

मैं ईमानदारी से कह सकता हूं कि मेरे रचनाकार और संपादक के निर्माण में कहीं न कहीं राजेंद्र यादव का हाथ है। 

       राजेंद्र यादव के भीतर कितने और राजेंद्र बसते थे। घर छोड़ा, पत्नी-बेटी सबका साथ छूट गया, वह हमेशा एकांत भोगते रहे लेकिन अधिकतर खुश दिखने का ढोंग करते रहे। हालांकि उनके भीतर एक उदासी या चुप्पी भी तैरती थी। मुझे सैकड़ों बार उनसे मिलने का मौका मिला जहां मैंने उन्हें अपने अकेलेपन को किसी पत्रिका या किताब या फिल्म या टीवी पर खबरें देखकर काटते देखा। वे मित्रों के बीच ठहाके लगाते थे और साहित्य की दुनिया को कैसे समृद्ध बनाया जाए यही सोचते रहते थे।

       राजेंद्र यादव सदैव अपने प्रखर बेबाक संपादकीय ‘मेरी तेरी उसकी बात’ के लिए जाने जाएंगे। उन्होंने हिंदी पट्टी को नए सामाजिक विमर्श से जोड़ा। वे अपने संपादकीय लेखों में कई बार समाजशास्त्री और चिंतक की भूमिका में नजर आए। उन्होंने कहानी, कविता और उपन्यास, आलोचना के आसपास घूमते हिंदी साहित्य को नई दिशाओं की ओर मोड़ा। आज हिंदी साहित्य में स्त्री विमर्श, अल्पसंख्यक, दलित, आदिवासी विमर्श को अलग से रेखांकित किया जाता है। जाहिर है कि इसके प्रवर्तक राजेंद्र यादव हैं। उन्होंने एक बार बातचीत में कहा था कि हमारा साहित्य कुलीन लोगों का साहित्य रहा है, इसमें हाशिए पर खड़े लोगों की आवाज छूट गई है। यह भी एक इत्तफाक है कि 28 अगस्त 1929 को जन्मे राजेंद्र यादव ने 28 अक्टूबर की रात अंतिम सांस ली। आज वे हमारे बीच नहीं हैं लेकिन एक युग निर्माता, एक युग पुरुष साहित्यकार और एक साहित्य निर्माता संपादक के रूप में हमारे बीच हमेशा उपस्थित रहेंगे। साहित्य का पिछले पचास बरसों का इतिहास उनके बिना लिखा जाना असंभव ही नहीं बेमानी भी होगा। उन्हें मेरा शत-शत नमन।

(अशोक मिश्र कथाकार और बहुवचन त्रैमासिक के संपादक हैं)
संपर्क:
संपादक बहुवचन
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय
गांधी हिल्स, पोस्ट- हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा- 442005  (महाराष्ट्र)
मो. 9422386554
ईमेल: amishrafaiz@gmail.com
 

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1 टिप्पणियाँ

  1. एक ऐसा आलेख जो श्री राजेन्द्र यादव जी स्मृति से भरपूर है| आभार इस आलेख के प्रस्तुतीकरण के लिए शब्दांकन!!

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