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👉 हम न मरहिं मारहि संसारा - मैत्रेयी पुष्पा (आत्मकथा गुड़िया भीतर गुड़िया से) | Rajendra Yadav from Maitreyi Pushpa's Autobiography


पता नहीं लोग क्यों राजेन्द्र जी को स्त्रियों के लिए बदनाम करते हैं, मुझसे तो उन्होंने केवल इतना कहा, सिर उठाकर बात करिए मैत्रेयी पुष्पा, कहानी लिखती हो, हमसे कहानी पर बहस करनी होगी ...

~ मैत्रेयी पुष्पा


अब समापन की ओर बढ़ रही हूँ। इस किताब के बारे में क्या सोचूँ? क्या कहूँ? ऐसे ही जैसे कि मेरा जीवन क्या बनेगा, मैं कहाँ जानती थी? जिन्दगी से गुजरते हुए किन मुकामों तक पहुँचूँगी? या चलते हुए ठोकर खाकर कितनी बार गिरूँगी? गिरकर उठ पाऊँगी भी? बदन की धूल झाड़ने की हिम्मत मिले तो खुदा की नियामत।

यही होता रहा तो मैं भी उन्हीं लेखकों की जमात में शामिल हो जाऊँगी जो असलियत को अपने शब्दों से ऐसा जटिल बना देते हैं कि उसका यथार्थ रूप ही गायब हो जाए। कला का नाम देकर जटिलतर ‘बेहतर’ का पर्याय माना जाए। 

मैंने इस किताब में अपनी समूची सामर्थ्य लगाकर सुन्दर कम और सत्य ज्यादा लिखा है, इस बात का विश्वास कैसे दिला सकती हूँ? कुम्हार की तरह अपने गढ़े पात्र को उँगलियों की गाँठों से टनाटन बजाकर दिखाऊँ, मगर कुम्हार का भी यकीन कौन करता है, जब तक कि अपने हाथों ग्राहक पात्र को जाँच नहीं लेता।

मैंने यह पुस्तक पूरे मन से लिखी है, लेकिन जब तक इसमें पाठकों का मन न रमे, मनोरम कैसे हो सकती है? बिलकुल ऐसे ही जैसे मेरी माँ ने मेरे जीवन का वृक्ष रोपा, विकसित किया। शिक्षा विद्या के फूल खिलाए। अब उस वृक्ष पर रचनाओं के फल लगे हैं, जो मुझे प्यारे से प्यारे लगते हैं, जैसे कि मैं माताजी को लगती थी, लेकिन मेरे गुण-दोषों का आकलन तो निष्पक्ष भाव से ही हो पाएगा, जो शिक्षक, साथी और पड़ोसी करेंगे। बस, ऐसे ही इस पुस्तक के गुण-दोषों का ब्यौरा पाठक देंगे। अब यह जीवन मेरा नहीं, मैं जितनी अपने लिए हूँ, उससे ज्यादा दूसरों के लिए। किताब भी कितनी ही स्वांतः सुखाय क्यों न हो, दूसरों के जीवन को प्रभावित न करे तो किस काम की?

मैं इस पांडुलिपि को उलटती-पलटती हूँ। अपनी लापरवाहियों को पकड़ना चाहती हूँ। कभी आलस्य तो कभी आत्ममुग्धता मुझे ही क्या, बड़े-से-बड़े रचनाकार को भरमाकर भटका देती है। मन की विचलित अवस्था और अनियन्त्रित आवेग भी लेखक को आलतू-फालतू लिखने के लिए उकसाते हैं। मैं ऐसे ही दोषों को खोजती हुई लगातार अपने श्रम और ध्यानावस्था के जुड़े तारों को जाँच रही हूँ कि कहीं सूत्र टूटे तो नहीं? शब्दों की बुनावट में कोई झोल ही रह गई हो... बहुत सम्भव है क्योंकि मैंने लेखकीय जीवन में झटके भी कम नहीं खाए।

अभी ज्यादा दिन नहीं बीते सन् 2003 की बात है, अगस्त का महीना था दलित लेखक संघ द्वारा आयोजित किया गया राजेन्द्र यादव का अमृत महोत्सव (75वाँ जन्मदिवस) मनाया जा रहा था। संघ की अध्यक्ष सुश्री विमल थोराट के आग्रह पर मैं उस आयोजन में मंच से बोलने के लिए राजी हुई। मैं मंच पर जिनके साथ थी, उनमें डॉ. नामवर सिंह और प्रसिद्ध कथाकार कमलेश्वर जी थे। आज साहित्य के साथ अपने आत्मीय साथ को सभागार में सुनाना था, संस्मरण बताने बोलने थे।

जैसी कि मेरी आदत है, अच्छी या बुरी, जब बोलती हूँ तो श्रोताओं के सामने मेरी जुबान मेरा दिल निकालकर रख देती है। और लिखती हूँ तो कलम हृदय से जुड़ जाती है।

क्या बोला था? यही कि राजेन्द्र यादव से मेरा परिचय कैसे हुआ (यह मैं इस पुस्तक में पहले ही लिख आई हूँ)। यह भी कहा कि जो इलजाम लेखिकाएँ या कवयित्रियाँ राजेन्द्र जी पर लगाती हैं, उनका मुझे पता न था। हुआ यह भी कि मेरा ऐसा कोई अनुभव नहीं कि राजेन्द्र जी ने मुझ पर डोरे डाले हों या छापने का लालच देकर अपनी पुरुष प्रवृत्ति के लिए लुभाया हो। यों तो मैं कोई फूहड़ वेश में नहीं गई थी। डॉक्टरों की दुनिया से आई थी, रहन-सहन का सलीका ही नहीं, सजने-सँवरने के नुस्खे भी जानती थी, जानना जरूरी क्यों हो गया था? क्योंकि हम स्त्रियों को सजावट के संस्कार में पारंगत किया जाता है, सिंगार-पटार के लिए उकसाया जाता है। कमोबेश मेरा संस्कार ऐसा ही था कि अपने अच्छे से अच्छे वेश में बाहर निकलो। मैं उसी तरह ‘हंस’ के ऑफिस गई थी और इसके लिए अतिरिक्त सजग भी नहीं थी।
मैत्रेयी, हम जिसको लाख कोशिशों के बाद भी अपने काबू में नहीं कर पाते, उसके बारे में झूठी-सच्ची कहानियाँ प्रचारित करते हैं। स्त्री हो तो उसको अश्लील और बदचलन कहना बड़ा आसान हो जाता है। तुम लिखने से बाज नहीं आओगी और नए बिन्दु तलाशती जाओगी, तुम्हारी ‘सहेलियाँ’, तुम्हें जिन्दा न छोड़ें तो ताज्जुब क्या है?
पता नहीं लोग क्यों राजेन्द्र जी को स्त्रियों के लिए बदनाम करते हैं, मुझसे तो उन्होंने केवल इतना कहा, सिर उठाकर बात करिए मैत्रेयी पुष्पा, कहानी लिखती हो, हमसे कहानी पर बहस करनी होगी।

आगे ऐसी ही कुछ बातें... बस!

मगर कुछ दिनों बाद जोर का हंगामा मचा, मौखिक नहीं, लिखित तूफान उठे। मेरे घर कोरियर से एक पत्रिका आई ‘प्रथम प्रवक्ता’ जिसका इस बार विषय था -  ‘आज की औरत: मुकम्मल जहाँ की तलाश’।

‘साहित्य और स्त्री विमर्श’ स्तम्भ में मेरी तस्वीर सबसे ऊपर कोने में छपी हुई थी। शीर्षक था - ‘सनसनी फैलाने का जोखिम’। और जिसने यह चर्चा आयोजित की थी, उसने अपने शब्दों में लिखा था - मैत्रेयी पुष्पा ने राजेन्द्र यादव के अभिनन्दन समारोह में अपने लेखकीय अनुभव को जिस तरह सम्पूर्ण स्त्री जाति से जोड़ा, वह न केवल निन्दनीय है, बल्कि लेखिकाओं की अस्मिता को कठघरे में खड़ा करता है।

आगे लिखा - जिस तरह हम औरतें सजधज कर सिंगार-पटार करके पुरुष सम्पादकों को रिझाती हैं, उसी तरह मैं भी पूरी तैयारी के साथ सजधज कर ‘हंस’ सम्पादक के कमरे में कहानी लेकर पहुँची। लेकिन यह देखकर मुझे हैरानी हुई कि मेरी देहयष्टि को देखने की बात तो दूर, इस विश्वामित्र ने मुझ जैसी मेनका की ओर नजर उठाकर देखा तक नहीं।

चर्चा आयोजित करनेवाली कोई साधना थी, जिसने अपनी ओर से यह भी कोष्ठक में दिया - (गलत, राजेन्द्र जी हिन्दी साहित्य में काले चश्मे के पीछे से स्त्री देह को भेदने के लिए ही बदनाम हैं)। यह भी लिखा कि हंस जैसी प्रतिष्ठित पत्रिका के सम्पादक राजेन्द्र यादव, जिन्होंने पहले सजी-धजी महिला की ओर नजर नहीं उठाई, उनकी रचना छपने पर खुद हंस का अंक लेकर उनके घर तक पहुँचाने गए। इससे जुड़ा छोटा-सा सवाल यह भी है कि क्या मन्नू जी (मन्नू भंडारी) ने मैत्रेयी को राजेन्द्र यादव के पास पहुँचाया?

चर्चा आयोजिका की इसी टिप्पणी पर लेखिकाओं ने अपने-अपने वक्तव्य दिए, जबकि सिर्फ डॉ. निर्मला जैन को छोड़कर उस सभागार में कोई भी लेखिका मौजूद नहीं थी।

मैं स्तब्ध, मैं हतप्रभ!

मन्नू भंडारी कहती हैं - मैत्रेयी पर मैं कोई टिप्पणी नहीं कर सकती। मैंने उससे कभी नहीं कहा कि तुम राजेन्द्र के पास जाओ। वैसे भी तब मैं उज्जैन में रहती थी।

प्रतिष्ठित आलोचक प्रो. निर्मला जैन - वे न केवल उत्तेजित ही हुईं, बल्कि मैत्रेयी पर बात करने के लिए तैयार ही नहीं हुईं। पर उन्होंने कहा, मैत्रेयी ईमानदार प्रतिक्रिया बर्दाश्त नहीं करती। ‘इदन्नमम’ और ‘गोमा हँसती है’ से उसने अच्छी शुरुआत की थी, लेकिन आज वह स्त्री-विमर्श ‘खुली खिड़कियाँ’ से जिस तरह की बातें करती है, उसका कोई मतलब नहीं। वह खराब स्तम्भ है। उसके बाद के लेखन में कोई दम नहीं। बल्कि कहना चाहिए कि ‘कस्तूरी कुंडल बसै’ और अभी-अभी प्रकाशित ‘कही ईसुरी फाग’ उपन्यास के नाम पर धोखा है। वैसे मेरा संवाद कृष्णा सोबती या मन्नू भंडारी से तो हो सकता है, लेकिन मेरी दृष्टि में मैत्रेयी ऐसी बड़ी लेखिका नहीं जिसके लेखन पर मैं टिप्पणी करूँ। उनकी रुचि सनसनी फैलाने और राजेन्द्र यादव की तरह विवाद में बने रहने की है।

मृदुला गर्ग - मैं इसे बिलकुल बचकाना मानती हूँ। मैत्रेयी पुष्पा को कौन अपना प्रतिनिधि लेखक समझता है? मुझे नहीं मालूम। मुझे तो कभी ऐसी परिस्थितियों से गुजरना नहीं पड़ा। हर किसी के अपने अलग अनुभव होते हैं।

चित्रा मुद्गल - आखिर देखने लायक चीज को ही तो कोई देखेगा। लेकिन वह तो कहीं से देखने लायक नहीं। मैत्रेयी की माया वही जाने। मैं इस तरह की बेहूदी और बचकानी बात पर टिप्पणी नहीं कर सकती। वह अपने को क्रान्तिकारी महिला समझती है। चर्चा में बने रहने का यह सस्ता हथकंडा हो सकता है। राजेन्द्र जी और मैत्रेयी दोनों महान हैं।

चन्द्रकान्ता - क्या मंच पर कोई पुरुष लेखक मौजूद नहीं था, जो उसके वक्तव्य पर विरोध करता। राजेन्द्र जी स्वयं स्त्री-विमर्श के पुरोधा बनते हैं, सबसे पहले उन्हें ही विरोध करना चाहिए था। यह उसका निजी अनुभव हो सकता है, लेकिन मेरे जानते कोई भी लेखिका पुरुष सम्पादकों को रिझाकर लेखिका नहीं बन सकती। मैं तो मैत्रेयी को एक औसत लेखिका समझती हूँ। लेकिन जिस तरह उसने सार्वजनिक मंच से लेखिकाओं का अपमान किया, वह शर्मनाक है। उसके खिलाफ निन्दा प्रस्ताव तो कम है, उसे सार्वजनिक रूप से अपने वक्तव्य के लिए माफी माँगनी चाहिए। खेद की बात तो यह है कि मैत्रेयी का स्त्री-विमर्श एकमात्र देह और सेक्स पर खड़ा है।
गुड़िया भीतर गुड़िया पर अनंत विजय की समीक्षात्मक टिप्पणी
14, दिसम्बर 2008

सन् 2002 में जब चर्चित उपन्यासकार मैत्रेयी की आत्मकथा का पहला खंड छपा था तो उसके शुरू में लेखिका की टिप्पणी थी - इसे उपन्यास कहूं या आपबीती......? तब इस बात को लेकर खासा विवाद हुआ था कि ये आत्मकथा है उपन्यास । लेकिन ये विवादज करने वालों ने शायद ये ध्यान नहीं दिया इस तरह का प्रयोग कोई नई बात नहीं थी ।
हिंदी में इस तरह का पहला प्रयोग भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने 1876 में पहली बार - एक कहानी, कुछ आपबीती, कुछ जगबीती में किया था । लेकिन जब छह साल बाद जब उनकी आत्मकथा का दूसरा खंड- गुडिया भीतर गुडिया- प्रकाशित हुआ तो लेखिका ने इस बात से किनारा कर लिया और पाठकों के सामने पूरी तौर पर इसे आत्मकथा के रूप में प्रस्तुत किया, और एक अनावश्यक विवाद से मुक्ति पा ली।
पहले खंड - कस्तूरी कुंडल बसै- में लेखिका ने मैं के परतों को पूरी तरह खोल दिया लेकिन दूसरे खंड में मैं को खोलने में थोड़ी सावधानी बरती गई है, ऐसा लगता है। पहले खंड में मैत्रेयी और उनेक मां के संघर्षों की कहानी है और दूसरे में सिर्फ मैत्रेयी का संघर्ष है या कुछ हद तक उनके पति डॉक्टर शर्मा का द्वंद । पहला खंड इस वाक्य पर खत्म होता है - घर का कारागार टूट रहा है।
उससे ही दूसरे खंड का क्यू लिया जा सकता है और जब दूसरा खंड आया तो न केवल कारागार टूटा बल्कि घर का कैदी पूर्ण रूप से आजाद होकर सारा आकाश में विचरण करने लगा । 'गुडिया भीतर गुडिया' में शुरुआत में तो उत्तर प्रदेश के एक कस्बाई शहर से महानगर दिल्ली पहुंचने और वहां घर बसाने की जद्दोजहद है, साथ ही एक इशारा है पति के साथी डॉक्टर से प्रेम का का भी।
लेकिन दिलचस्प कहानी शुरू होती है दिल्ली से निकलनेवाले साप्ताहिक हिन्दुस्तान के सह संपादक की रंगीन मिजाजी के किस्सों से। किस तरह से एक सह संपादक नवोदित लेखिका को फांसने के लिए चालें चलता है, इसका बेहद ही दिलचस्प वर्णन है । साथ ही इस दौर में लेखिका की मित्र इल्माना का चरित्र चित्रण भी फ्रेंड, फिलॉसफर और गाइड के तौर पर हुआ है, कहना ना होगा कि इल्माना के भी अपने गम हैं और इसी के चलते दोनों करीब आती हैं।
मैत्रेयी पुष्पा और राजेन्द्र यादव के बारे में इतना ज्यादा लिखा गया कि मैत्रेयी की आत्मकथा की उत्सुकता से प्रतीक्षा करनेवाले पाठकों की रुचि ये जानने में भी थी कि मैत्रेयी, राजेन्द्र यादव के साथ अपने संबंधों को वो कितना खोलती हैं । लेकिन मैत्रेयी पुष्पा और राजेन्द्र यादव के संबंधों में सिमोन और सार्त्र जैसे संबंध की खुलासे की उम्मीद लगाए बैठे आलोचकों और पाठकों को निराशा हाथ लगेगी।
हद तो तब हो जाती है जब राजेन्द्र यादव राखी बंधवाने मैत्रेयी जी के घर पहुंच जाते हैं, हलांकि मैत्रेयी राखी बांधने से इंकार कर देती हैं। राजेन्द्र यादव को लेकर मैत्रेयी को अपने पति डॉक्टर शर्मा की नाराजगी और फिर जबरदस्त गुस्से का शिकार भी होना पड़ता है।
लेकिन शरीफ डॉक्टर गुस्से और नापसंदगी के बावजूद राजेन्द्र यादव की मदद के लिए हमेसा तत्पर दिखाई देते हैं, संभवत: अपनी पत्नी की इच्छाओं के सम्मान की वजह से। लेखिका ने अपने इस संबंध पर कितनी ईमानदारी बरती है, ये कह पाना तो मुश्किल है,लेकिन मैं सिर्फ टी एस इलियट के एक वाक्य के साथ इसे खत्म करूंगा- भोगनेवाले प्राणी और सृजनकरनेवाले कलाकार में सदा एक अंतर रहता है और जितना बड़ा वो कलाकार होता है वो अंतर उतना ही बड़ा होता है।
अगर मैत्रेयी पुष्पा की आत्मकथा- गुडिया भीतर गुड़िया- को पहले खंड- कस्तूरी कुंडल बसै -के बरक्श रखकर एक रचना के रूप में विचार करें तो दूसरा खंड पहले की तुलना में कुछ कमजोर है। लेकिन इसमें भी मैत्रेयी जब-जब गांव और अपनी जमीन की ओर लौटती हैं तो उनकी भाषा, उनका कथ्य एकदम से चमक उठता है।
अंत में इतना कहा जा सकता है कि गुड़िया भीतर गुड़िया यशराज फिल्मस की उस मूवी की तरह है, जिसमें संवेदना है, संघर्ष है , जबरदस्त किस्सागोई है. दिल को छूने वाला रोमांस है , भव्य माहौल है और अंत में नायिका की जीत भी - जब राजेन्द्र यादव अस्पताल के बिस्तर पर पड़े हैं और मैत्रेय़ी को फोन करते हैं तो डॉक्टर शर्मा की प्रतिक्रिया - क्या बुड्ढा अस्पताल में भी तुम्हें बुला रहा है?
लेकिन वही डॉ. शर्मा कुछ देर बाद यादव जी के आपरेशन के कंसेंट फॉर्म पर दस्तखत कर रहे होते हैं । इस आत्मकथा में एक और बात जो रेखांकित करने योग्य है वो ये कि मैत्रेयी पुष्पा ने अपनी आपबीती के बहाने दिल्ली के संपादकों और लेखक समुदाय के स्वार्थों बेनकाब किया है ।

Gudia Bhitar Gudiya
Maitriye Pushpa
Hardbound: Rs. 355
Paperback: for Rs. 265
Pages: 352p
Year: 2009
Language: Hindi
Publisher:
Rajkamal Prakashan
1-B, Netaji Subhash Marg,
Daryaganj,
New Delhi-02
info@rajkamalprakashan.com
Phone:
+91 11 2327 4463/2328 8769
Fax: +91 11 2327 8144

कमल कुमार - औरत को औरत पाठ नहीं करना चाहिए, साहित्यिक पाठ करना चाहिए। उसके झूठ की मैं दाद देती हूँ। सारी दुनिया कहती ही नहीं, जानती भी है कि राजेन्द्र यादव ने उन्हें लेखिका बनाया है और अब जब वे यह कहती हैं कि वे सजधज कर गईं और राजेन्द्र यादव ने देखा तक नहीं, कौन विश्वास करेगा? अगर आज वह इस स्थिति पर पहुँच गई है तो राजेन्द्र यादव को ‘यूज’ कर सकती है। तो यह अच्छी बात है। सीढ़ी के रूप में राजेन्द्र यादव का इस्तेमाल किया, और अब इस कटी पतंग की डोर राजेन्द्र यादव के हाथ में है, बस तरस खाया जा सकता है।

नासिरा शर्मा - मैत्रेयी के तजुर्बों  से मैं इनकार नहीं करती। मेरा ख्याल है, मेैत्रेयी के जेहन में उन्हीं लेखिकाओं का ध्यान आया होगा, जो उनके घेरे में आती हैं या फिर जिनको वे जानती हैं। हकीकत यह है कि उनके उपन्यासों के पात्रों में उनका खुद का ही अनुभव और चरित्र है। यह मैत्रेयी का अपना सच हो सकता है।


मेरा कलेजा मुँह को आने लगा। एक ही वाक्य बार-बार अन्दर से भाषा की तरह उठता - हज जानेवाली बिल्लियाँ!

कमलेश्वर जी मिले थे तभी, बोले - ‘‘मैत्रेयी, यह क्या हो रहा है? मेरे पास कोरियर द्वारा कुछ लेखिकाओं की टिप्पणियाँ आई हैं। कैसा अनर्गल बक रही हैं!’’

‘‘आप तो थे वहाँ। आपने भी तो सुना था मेरा वक्तव्य। क्या जो मेरे नाम पर छपा है, ऐसा फूहड़ कुछ कहा था मैंने?’’

‘‘अजीब हालत है इन औरतों की।’’

अब कमलेश्वर जी से मैं फोन पर बात कर रही थी - ‘‘मुझे क्या करना चाहिए?’’

‘‘चुप रहना चाहिए। देखो, साहित्य की दुनिया में विवाद उठते हैं, यह कोई नई बात नहीं। लेकिन नुकसान की बात यह है कि विवाद लेखक को इस या उस गुट से जोड़ देते हैं। इससे रचनाशीलता बाधित होती है। ऊर्जा छीजने लगती है। मेरी बात ध्यान से सुनो मैत्रेयी, समझो कि जिस तरह हम गर्मी में खुद को राहत देने के लिए ठंडी जगह खोजते हैं, पंखा, कूलर का इस्तेमाल करते हैं, सर्दी में खुद को बचाने के लिए गर्म कपड़े पहनते हैं, उसी तरह रचनात्मकता को बचाने के लिए मन के मौसम को सन्तुलित रखना होगा।’’

कमलेश्वर जी की सलाह पर मैं खुद को नियन्त्रित करके अमल कर रही थी, मगर सबसे ज्यादा आहत हुई थी मन्नू भंडारी के वक्तव्य पर।

नहीं माना मन, उनको फोन किया और पूछा - मन्नू दी, आप क्या कह रही हैं? ये लोग मुझे घेर रही हैं, आप समझ नहीं रहीं? आप याद कीजिए कि जब आपने मुझे राजेन्द्र जी के हंस कार्यालय का फोन नम्बर दिया था, कहानी देने का प्रस्ताव रखा था, आप उज्जैन में नहीं थीं, यहीं थीं दिल्ली में। मैं जब आपसे पहली बार मिली हूँ, और आपका फोन मेरे घर आया है, वह समय 1990 का नवम्बर महीना था। आप उज्जैन के ‘प्रेमचन्द पीठ’ पर तो 1992 में गई हैं। अपने कागज देख लीजिए। यह बात कहूँ तो अब बेमानी होगा क्योंकि अब तो आप अपनी आत्मकथा ‘एक कहानी यह भी’ में सही सन बता चुकी हैं, लिखित रूप में।

मन्नू दी ने उस समय कहा था, मेरे फोन के जवाब में - मैत्रेयी, हो सकता है, मैं भूल गई हूँ। बीमारी के कारण परेशान रहती हूँ।

मुझे बार-बार यह ख्याल आता है, आयोजिका स्त्री ने कृष्णा सोबती से क्यों नहीं टिप्पणी ली? अनामिका से क्यों नहीं पूछा कुछ? राजी सेठ भी इस चर्चा में शामिल नहीं हुईं या की नहीं गईं? क्षमा शर्मा को चटखारे लेने की अभ्यस्त आयोजिका क्यों नहीं हिला पाई? क्या इन लेखिकाओं की कोई अहमियत नहीं थी? या वे इतनी मजबूत हैं कि आयोजिका की हिम्मत पस्त हो गई? क्षमा ने मुझे क्यों पहले ही फोन किया? बाकियों ने क्यों मुझसे पूछने की जहमत नहीं उठाई? क्या ये सभी किसी ऐसे ‘सुनहरे’ मौके की तलाश में थीं कि अपने भीतर की कालिख निकाल सकें। क्या कुंठा इतनी जमा हो गई थी कि वमन करना जरूरी हो गया?

मेरे पास उस दिन के वक्तव्य का कैसेट है, मैं उनको सच बता सकती थी। मैंने साहित्य में आने से पहले साहित्यकारों की कैसी-कैसी महान मूर्तियाँ गढ़ ली थीं। लेखिकाएँ तो मेरे लिए और भी महत्त्वपूर्ण होती थीं, खासतौर पर मन्नू भंडारी जैसी लेखिकाएँ। मगर क्या किया जाए, वे हमारी बातें भूल जाती हैं। अब भी भूल रही हैं कि सन् 1990 में मिलने के बाद उज्जैन जाने 1992 तक वे मुझसे मिली नहीं। कितनी ही बार वे हमारे घर आई हैं, बहुत-बहुत बार मैं उनके घर गई हूँ। मुझे यहाँ तक याद है कि मोहिता की शादी (1991) के चार-छह दिन बाद उनसे मेरा साड़ियों का आदान-प्रदान हुआ था और यह भी याद है कि अपनी आत्मकथा ‘एक कहानी यह भी’ लिखने के दौरान उन्होंने मुझसे पूछा था, तुम मेरी बीमारी में रात में आई थीं न? मैंने सही-सही बता दिया और अतिरिक्त उत्साह में आ गई। मन्नू दी ने ही मेरे आवेग पर विराम लगा दिया था - मैत्रेयी, तुम से मेरी दोस्ती डॉक्टरों के कारण थी। ‘आं ऽऽ...’ करके रह गई मैं फोन के दूसरी ओर।

यह सब मैं क्यों लिख रही हूँ? इसलिए कि समझ चुकी हूँ, लेखिकाएँ और लेखक कोई देवी-देवता नहीं होते, उनकी अपनी जरूरतों के हिसाब से उदारताएँ, सद्भावनाएँ, कुंठाएँ और टुच्ची हरकतें भी होती हैं।

समीक्षक: रामचन्द्र शुक्ल, रामविलास शर्मा, नामवर सिंह के नाम पर हम उन्हें ऐसे देखते हैं, जैसे उनका लिखा/बोला वेदवाक्य हो। सत्य और अमर-अजर। डॉ. निर्मला जैन से बड़ी कोई समीक्षक महिला नहीं, जो कह दें, पत्थर की लकीर...। मगर चुनौती देता हुआ नए से नया साहित्य?

पत्थर की लकीरें पानी के बुलबुलों में कब डूब जाएँ, वे भी नहीं जानते। स्थापित व उभरते आते समीक्षक अपने कद में डॉ. मैनेजर पांडेय हों, डॉ. विजय बहादुर सिंह, वीरेन्द्र यादव, मधुरेश के साथ रोहिणी अग्रवाल की प्रखरता अपने आप में कम तो नहीं। डॉ. परमानन्द श्रीवास्तव का ज्ञान क्षीण तो नहीं हुआ, भले पक्षपात का आरोप लगता रहे। ये लोग आज के साहित्य को ठीक तोल रहे हैं।

मैं अक्सर ही कुचक्रों में फँस जाती हूँ, मरीचिका की भँवरों के अपने तेवर होते हैं। ऐसे दमघोंटू माहौल में तालमेल कैसे बिठाऊँ? चलते आ रहे ढर्रे को महान परम्परा कहूँ तो मेरे लेखकीय स्वाभिमान का क्या होगा? हमारा साहित्य-समाज अपनी ‘महान’ छवि में इस तरह कैद है कि जड़ीभूत सा लगता है। मैं क्या करूँ, यह तो ऐसा मुद्दा है, जिसमें उठा-पटक होने की बहुत जरूरत है। गहराई तक खोदने और तोड़ने का कितना-कितना काम बाकी है। टूटन-फूटन हर हाल में जरूरी है, नया तभी बनने के आसार होंगे। इसी बात की सजा के रूप में मेरे बारे में गलत बयानी की जाती है। अफवाहें फैलाई जाती हैं। झूठ दर्ज किए जाते हैं। मुझे गुस्सा आता है, लड़ने के लिए तैयार हो जाती हूँ, ये लोग कौन होते हैं, जो किसी रचनाकार की अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का हनन करें?

उफ! यह रवैया कब से जारी है...इस दमन का विरोध क्यों नहीं किया जाता? यह कौन-सी सभ्यता है?

राजेन्द्र यादव कहते हैं - ‘‘चुप रहो, कुछ भी कहने की जरूरत नहीं।’’ कमलेश्वर जी समझाते हैं - ‘‘कोई प्रतिक्रिया मत जताना, यही तुम्हारा जवाब होगा। आरोपों का उत्तर देना, समय गँवाना होता है।’’

अरे! वे वक्तव्य... छोटी-छोटी पत्रिकाओं में अश्लीलता के दलदल में पछाड़ी जाती मैं... ऐसी अभद्र गालियाँ कि इन सभ्य औरतों से गाँव की स्त्रियाँ शरमा जाएँ। यही होता रहा तो मैं भी उन्हीं लेखकों की जमात में शामिल हो जाऊँगी जो असलियत को अपने शब्दों से ऐसा जटिल बना देते हैं कि उसका यथार्थ रूप ही गायब हो जाए। कला का नाम देकर जटिलतर ‘बेहतर’ का पर्याय माना जाए। मैं सोचती हूँ, जो कुछ मैंने लिखा या लिखना चाहती हूँ, वह इसी उलझन भरी बेरहम दुनिया के रेशमी पर्दे उघाड़कर/फाड़कर ही तो निकला या निकलना है। मैं सच कहती हूँ, जब कभी इस शील, सुन्दर, सौम्य और शिष्ट मानी जाने वाली तथाकथित दुनिया के बरअक्स अपने आवेग और आनन्द में, इच्छा और आकांक्षा में, सपनों और व्यवहार में दो पैराग्राफ लिख देती हूँ, लगता है सम्मान कमा लिया।

मैं शान्त रही।

कुछ दिनों से मैं जिस दौर से गुजर रही थी, उसे भूलने लगी। मैं उन लोगों में मगन थी, जो स्त्री को लेकर नए लेखकीय व्यवहार पर ध्यान केन्द्रित कर रहे थे। मेरा यह विचार दृढ़ हो रहा था कि मुझे स्त्री-जीवन की वह छवि पेश नहीं करनी है, जो मर्यादा, शील-शुचिता और इज्जत के नाम पर स्त्री की नकली तस्वीर है, दमन और दबाव के कारण आँखें झुकाए हुए... आवाज को घूँटे हुए...हाथ-पाँवों को सेवा में समर्पित किए हुए... मुझे ऐसी जिन्दगी देखकर ठेस लगती है। अपने भीतर मची उथल-पुथल का अंदाजा लगाती हूँ तो थर्राने लगती हूँ। मैं... उनमें से एक... सेवा श्रम और सेक्स के लिए समर्पित... बदलाव चाहिए ही चाहिए।
‘त्रिया चरित्र’ कहो तो कह सकते हो। इस पौराणिक शब्द को मैंने गाली नहीं माना, इसे मैं ‘सर्वाइविल ऑफ फिटेस्ट’ मानती हूँ
पन्द्रह दिन ही गुजरे होंगे कि एक दोपहर को डॉ. साहब घटिया कागज का चार पन्ने वाला अखबार लहराते हुए कमरे में मेरे पास आए। उसे खोलते हुए बोले - ‘‘देखा यह?’’ उनके चेहरे पर विजय भाव भरी हँसी खेल रही थी।

मुझे काटो तो खून नहीं। अब तक जिस जिन्दगी से बेजार थी, उसे बदलने का संकल्प ले रही थी... अचानक भीतर का साहस थराथरा उठा! सामने खड़े पुरुष को अखबार के साथ देखना ऐसा ही लगा जैसे कोई न्यायालय में अभियुक्त के झूठे बयानों पर सच्चे सबूत ले आए। मेरे सामने वे पंक्तियाँ प्रकट होने लगीं, जिनके बूते पर मुझे मुजरिम बनाया गया, लिखित रूप में मेरा बयान... इसी बयान को गढ़कर जलाई गई हमारे मुक्ति-संघर्ष की भावना। चली आ रही ऐसी परम्पराओं के लांछनों ने लिया है स्वाद स्त्री-विलाप का। क्या ऐसे ही क्रूर रवैयों में बँधी हमारी दादी-नानी नहीं चीख रहीं हजारों सालों से?

मैं अखबार हाथ में ले लेती हूँ, ऐसे देखती हूँ, जैसे फिर से आहत होने के लिए देखना जरूरी है। सच में कोई चीज तो है, जो मुझ में पुरुषों की ही नहीं स्त्रियों की भी दिलचस्पी जगा रही है। लोकप्रियता (?) दिनोंदिन बढ़ रही है। कहते हैं, ऐसे पर्चे सारे देश में कोरियर द्वारा भेेजे गए हैं। मेरे यहाँ भी लेखिकाओं के वक्तव्यों भरे अखबार की यह तीसरी किस्त है। मुझे अलग, डॉक्टर साहब को अलग और ‘तिरुपति आइ सेंटर’ के नाम से अलग कि बेटी और दामाद भी देख लें... क्या भेजनेवालों को यह पता है कि बेटी इस अखबार को देखकर पुरुषों की तरह हिंस्र खुशी से पुलकित नहीं होगी, उसकी आँखों में स्त्री की आँखों जैसी उदासी उमड़ आएगी।

मैंने इतना ही सोचा कि आँखें खुद व खुद भर आईं। डॉक्टर साहब मुझे कुछ पढ़कर सुनानेवाले थे और उनकी वक्र मुस्कराहट जता रही थी कि अब हो जाओ लज्जित होने के लिए तैयार।

मैंने आँखें झुका लीं। आँसुओं से युद्ध करने लगी, लेकिन भीतर जमी साहस की शिलाएँ पिघलकर भीतर ही भीतर इस कदर बहने लगीं कि गला भर आया, पलकें भी आँसुओं का वजन लादे हुए... जुबान लाचार हो गई। दुख और गुस्से के लिए सारे शब्द रुदन में डूब गए। अब तक भारी ओढ़ने की तरह लादी दहशत मैंने कब की उतार फेंकी थी, लेकिन आज कहाँ से आकर लद गई? लावा जैसा उमड़ता ताप मुझसे भाषा में न बँधेगा, मैंने मान लिया।

‘‘अरे! तुम रो रही हो!’’

मैं रो रही थी।

‘‘तुम क्या जानती हो कि इसमें क्या लिखा है?’’

मैं चुप, आँसू पीती हुई... चुप्पी के हवाले ही मेरी सारी भूमिका, इसकी आड़ में सन्ताप अपना भंडार छिपाए हुए... यह हुनर मैंने कब सीखा, याद नहीं, आज काम आया तो जाना यह विद्या बहुत जरूरी थी। आज कह सकती हूँ कि अच्छी रचना दुख, यातना और अपमान की चुनौतियों से जन्म लिया करती हैं। हालत यह हुई कि खामोशी आँसुओं में डूबती चली गई।

उन्होंने मेरे सिर पर हाथ धर दिया। अब मैं रोते-रोते फफकते-फफकते ही यह कहना चाहती थी - यह तो मैंने कब का देख पढ़ लिया, तब गुस्सा आया था। लेकिन आज जब तुम लेकर आए तो ऐसा अपमान लगा कि रो दी... दिल ऐसा फटा कि खून पानी कि बस तरल ही तरल...

अब हम कमरे में खड़े आपस में सीने से लगे एक-दूसरे की धड़कन महसूस कर रहे थे। मैं शर्मिन्दा सी सोच रही थी, पति के समाने बेइज्जत होना, सबसे ज्यादा यन्त्रणा देनेवाला है।

ऐसा हाल क्यों बना? डॉ. साहब चुम्बन के बाद पूछ रहे हैं।

मैं निरीह बच्ची सी और भी रो रही हूँ। कहने को बहुत कुछ था मगर कह पाऊँ तब न। कहना चाहती हूँ, इस सबका कारण राजेन्द्र यादव ही हैं, उनके अमृत महोत्सव पर मेरा दिया गया वक्तव्य तो तोड़ा-मरोड़ा बहाना बनाया गया है। यह सब कुछ भी न होता अगर मैंने राजेन्द्र यादव पर एक किताब सम्पादन करनेवाले स्त्री और पुरुष को अपना निजी अनुभव लिखित रूप में दे दिया होता। साहित्य में दादागीरी न माननेवाली स्त्री की अच्छी फजिहत होती है।

हाँ, ऐसा कुछ भी न होता अगर राजेन्द्र यादव के अमृत महोत्सव के लिए मैं उनके चमचों को ढाई हजार रुपये चन्दा के रूप में दे देती। मैंने नहीं दिए, इस पर तो खुद राजेन्द्र जी नाखुश थे। उन्होंने ही कहा - तुम्हारे पास रुपये नहीं थे तो मुझसे लेकर दे देतीं।

मैं हक्का-बक्का रह गई थी और बोल पड़ी थी - फिर आपने ही क्यों नहीं दे दिए?

- मेरे देने से देना माना नहीं जाता।

- और मुझे आपके जन्मदिन पर चन्दा करना सुहाता नहीं, राजेन्द्र जी। जब तक आप जिन्दा हैं, जन्मदिन आपका निजी मामला है। जब आप नहीं रहेंगे, तब आपके पाठक मनाएँ या नहीं मनाएँ, आपका साहित्य तय करेगा। अभी से इतनी चिन्ता क्यों? चन्दा क्यों?

मैं यह संवाद पति से कैसे करती, मैं तो अपनी तौहीन पर राजेन्द्र यादव से मुखातिब थी। सोच रही थी, अपने भक्तों को राजेन्द्र जी ने ही तो नहीं मेरे पीछे छोड़ दिया, क्योंकि जो कुछ मेरे लिए लिखा है, उससे यही बू आती है - हमारी बिल्ली, हम से ही म्याऊँ।

गिरिराज किशोर जैसे जाने-माने रचनाकार ने राजेन्द्र जी से मेरे सामने ही नहीं, अरुण प्रकाश के सामने क्यों कहा था - कहीं साले तुम्हीं तो नहीं मचवा रहे यह बवंडर। खामख्वाह इनको परेशान कर रखा है।

सोचा बहुत कुछ, पति से कुछ नहीं कहा।

मैंने फोन उठा लिया। नम्बर डायल कर दिया।
‘हलो।’’

‘‘राजेन्द्र जी, मुझे आपसे एक बात पूछनी है।’’

‘‘तुम तो अक्सर एक सौ या एक हजार बातें पूछने के मूड में रहती हो।’’

‘‘हँसी की बात नहीं है यह।’’ भरी हुई आवाज को मैंने यथासम्भव सामान्य किया।

‘‘अफसोस की? कब जा रही हो संसार से?’’

‘‘यह पूछने के बाद कि आपके यहाँ मेरा रिकार्ड कैसा है? राजेन्द्र जी, आपके जीवन में बहुत-सी स्त्रियाँ आई हैं, मुझे मालूम है। क्या मेरा जैसा रिश्ता किसी से रहा?’’ कहते हुए मेरा स्वर भर आया फिर से।

‘‘नहीं रहा, तुम मेरी मूर्ख मित्र हो।’’

‘‘यह मेरी बात का जवाब नहीं। आप देख रहे हैं, साहित्य की दुनिया में कैसे बवंडर उठ रहे हैं आपको लेकर मेरे लिए...’’

‘‘तुम कितनी तबाह हो गईं कि आवाज रोने का रूप लग रही है।’’

जैसे उन्होंने गहरा साँस खींचा हो... क्षण भर चुप ही रहे वे।

‘‘डॉक्टरनी, आज समझ लो और हमेशा के लिए गाँठ बाँध लो, जो ऊल-जलूल बक रहे हैं, वे तुम्हारे प्रतिद्वन्द्वी हैं। उन्हें न तुम्हारे रूप-रंग से कुछ लेना-देना है, न तुम्हारे और मेरे सम्बन्धों की पड़ताल से। उन्हें बस भय है तुम्हारे लेखन से। कहूँ कि एकदम नए और महत्त्वपूर्ण लेखन से। और धुँआधार अनवरत लेखन से...। मैत्रेयी, हम जिसको लाख कोशिशों के बाद भी अपने काबू में नहीं कर पाते, उसके बारे में झूठी-सच्ची कहानियाँ प्रचारित करते हैं। स्त्री हो तो उसको अश्लील और बदचलन कहना बड़ा आसान हो जाता है। तुम लिखने से बाज नहीं आओगी और नए बिन्दु तलाशती जाओगी, तुम्हारी ‘सहेलियाँ’, तुम्हें जिन्दा न छोड़ें तो ताज्जुब क्या है? सुन रही हो न?

‘‘रही बात मेरे और तुम्हारे सम्बन्ध की, बहुत सोचा अपने रिश्ते को क्या नाम दूँ? क्या हम आपस में ऐसे ही नहीं, जैसे कृष्ण और द्रौपदी रहे होंगे? बहुत आत्मीयता, बहुत भरोसा और सेक्स का लेशमात्र नहीं...

‘‘फिर हम तुम दोनों यादव।’’ कहकर वे हँस पड़े। जाति को ठहाके में उड़ाते से।

मेरे भीतर नीम रोशनी की छायाएँ स्वस्तिक और पद्मों की शक्ल में फैलने लगीं। मुझे लगा सृजन की मुरझाती आकांक्षा ने पुनर्जीवन पाया है। और यहीं से मुझे तथाकथित बौद्धिक-चेतना-सम्पन्न साहित्य के दरबार में नवरत्न सरीखी लेखिकाओं और एक साधारण शिक्षिका की क्रमशः साहित्यिक प्रतिबद्धता और प्रेम में अन्तर करना आ गया। कल्पना नाम की हिन्दी अध्यापिका मुझे देहली पब्लिक स्कूल के एक समारोह में मिली। जिसे मेरी बेटी की बेटी वासवदत्ता ने मेरा परिचय दिया - मेरी नानी मैत्रेयी पुष्पा।

कल्पना ने बड़ी-बड़ी आँखें करके आश्चर्य भरी खुशी से देखा और कहा - ‘‘क्या मैं सच मानूँ कि मैत्रेयी जी को देख रही हूँ? आपके उपन्यास पढ़े हैं, मैम। मिलना चाहती थी बहुत-बहुत। क्या पता था मेरी इच्छा इतनी गहन है कि लेखिका स्वयं मेरे सामने! वेलकम मैम स्वागत।’’

मेरे हृदय से निकला - तुम साहित्य के प्रबुद्ध संसार की सदस्य नहीं, मगर हजारों विद्यार्थियों के उस भविष्य की मार्ग निर्देशक हो, जो हिन्दी की रचनात्मक प्रकृति से बनता है।

मैं इसी भेंट से प्रेरित फिर से नई किताब लिखने की बात सोच सकती हूँ।

क्या तारीफ मेरी कमजोरी है? मैं हर समय प्रशंसा पाना चाहती हूँ? नहीं तो निन्दाओं, अफवाहों और आलोचनाओं पर तिलमिला क्यों जाती हूँ? अगर कल्पना मेरी तारीफ न करती तो क्या मैं लिखना छोड़ देती? मुझे समझ लेना चाहिए कि जो आत्मविश्वास मैंने अपनी मेहनत, लगन और प्रतिभा से अर्जित किया है, वही मेरी स्वतन्त्रता का वाहक है। और जो मैं तारीफों के जरिए आश्वस्ति पा लेना चाहती हूँ, वह निश्चित ही साहित्यिक पराधीनता है। परमुखापेक्षी रहने की विवशता है।

यदि मैं खुद को दो पल्लेवाली तुला पर न तोलती और काँटा प्रशंसाओं की ओर झुका रहने देती तो निश्चित ही आराम से बैठती। आलस्य का जश्न मनाती। मनोरथों की दुनिया में कैद होकर उद्यम छोड़ देती। सोचकर देखती हूँ तो मुझे बचपन की वह चोरी भी सार्थक लगती है, जिसको बुन्दों के आकर्षण में सम्पन्न किया था। आकर्षण में उद्यम करना अनैतिक हो सकता है, अकर्मण्य नहीं माना जा सकता। अनुचित साहस ही सही, मैं किसी भी कायरता को उचित नहीं मान पाती।

इसलिए ही इस्मत चुगताई को सलाम करती हूँ, अनैतिक माने जाने वाले कोने-अन्तरों को रोशनी में लाकर समाज के सामने रख दिया। दकियानूस और कायरों ने ‘लिहाफ’ से बाहर आते सच को ‘सजा का फरमान’ दिया। मगर उस सत्य से कचहरियाँ हार गईं। आखिर होता यही है, उन लेखक लेखिकाओं के नाम गुम होते जाते हैं, जो नए समय की नब्ज नहीं बनते।

यह मेरी पुस्तक उस सवाल का भी कारण बनेगी, जो मुझसे अक्सर ही साक्षात्कारकर्ता पूछा करते हैं - बाधाओं, रुकावटों, निषेधाज्ञाओं से घिरी हुई आप परेशान होती हैं, मगर ऐसे घर से अलग क्यों नहीं होतीं? क्या आप स्त्री स्वतन्त्रता को इस रूप में नहीं देखतीं कि स्त्री का वजूद निष्कंटक हो।

फिर मैं क्या कहूँगी?

यही कि जब हद से गुजर जाने वाले अंकुश, हुक्मनामे और धमकियाँ जिन्दगी को असहनीय बना देते हैं तो मुझे अपना बचपन (कस्तूरी कुंडल बसै) याद आता है। उस समय मुझे अपने अनकिये की सजा मिलती रहती थी। मुझे लड़की का शरीर दिया कुदरत ने, उस शरीर को झपटने, नोंचे-बकोटे जाने और बेइज्जत होने का दंड मैं पाती। आज तो मैं अपने तन से मनचाहा करती हूँ (लिखूँ या घर से बाहर निकलूँ) तभी सुनने-सहने को मिलता है। स्थिति बेहतर ही हुई है। मुझे बड़ी मुश्किल से सर पर छत नसीब हुई है, छोड़ दूँ तो मौसमों की मार में मेरा क्या होगा? भले यह घर मेरे लिए युद्धस्थल बन जाए, मगर मेरे पाँव तो इस जमीन पर जमे हैं। यहाँ खड़ी रहकर ही मैं बाड़ें तोड़ने की ताकत पाती हूँ। रास्ते निकालती हूँ। मेरे लिए रास्ते बनाना जितना मुश्किल होता है, उस रास्ते से लौटना उससे भी ज्यादा मुश्किल होता है, लगभग असम्भव। मैं नहीं जानती कि मेरी इस धुन का क्या होगा? इस जिद को कौन सा किनारा मिलेगा? यह दृढ़ता किसके हाथों टूटेगी? मैं तो इतना ही समझ पाई हूँ कि हमारे गाँव में आँधी आती थी, बड़े से बड़े वृक्ष गिर जाते थे, मगर कुछ अरसे बाद ही नई ललछौंही पत्तियों वाली शाखाएँ ठूँठ से फूट निकलती थीं। कारण कि वहाँ मिट्टी पानी के साथ कूड़े-कचरे और गोबर का खाद भी होता था। मैं अपने मुक्ति-वृक्ष को और कहीं जाकर क्यों रोपूँ? छाया, ताजगी और ऑक्सीजन की जरूरत सबसे पहले मेरे घर को है। हाँ, ऐसा ही वृक्ष हर घर में हो, जिसमें स्त्री रहती है।

यह वजह रही होगी कि ऐसी किताबों की चाह स्त्रियों को रहती है। प्रस्तुत प्रसंग में ऐसी ही झलक है। डॉ. ऋचा शर्मा ने पूना (अहमद नगर) से फोन किया। बताने लगीं, उन्होंने मुझे पत्र लिखे हैं। मैं याद नहीं कर पा रही थी। कहा कि वे मुझसे मिलने दिल्ली (नोएडा) आई थीं। मेरी स्मृति को जगाने के लिए बोलीं, मैं वही, जिसके पति आपकी किताबों से नफरत करते हैं, मगर पढ़े बिना भी रहते नहीं। मैं पढ़ती हूँ तो नाराज होते हैं। बहरहाल मैं आपको इस विश्वविद्यालय में बुलाना चाहती हूँ।

‘‘मैं... नहीं, मैं इस समय...’’ इतना ही कह पाई थी कि उधर से ऋचा ने कहा - ‘‘आप हवाई जहाज से आएँगी कि समय नष्ट न हो और आपकी सेहत भी ठीक रहे। हमारी यूनिवर्सिटी ए.सी. सैकेंड क्लास का रेलवे किराया देती है, मैं आपके लिए अपनी माँग रखूँगी और मनवा लूँगी। इस विश्वविद्यालय की ही नहीं, दूसरी जगहों से अध्यापिकाएँ, शोध छात्राएँ, सामाजिक कार्यकर्ता और आपकी बहुत सी पाठिकाएँ आपको देखने और सुनने आएँगी क्योंकि वे आपकी पुस्तकें पढ़ती हैं। आपको आना है, बस।’’

फोन बन्द हो गया। अब तक झेलीं कठिनाइयाँ, अवरोध, निन्दाएँ और लांछनों की कड़ुआहट फटने लगी। थक्के कणों में बदल गए और कण ऐसे ही तिरोहित होने लगे, जैसे पानी के बुलबुले फूट जाते हैं।

ऋचा जैसी स्त्रियों से मेरा क्या नाता है? छात्राओं से क्या सम्बन्ध है? त्रिवेन्द्रम और हैदराबाद जैसे शहरों को मैंने दूर से देखा है। मेरी पहचान केवल अपनी किताबों के जरिए बनी है। जुड़ाव मेरे लेखन के कारण हो रहा है। ‘औरतों के खिलाफ जुल्म का खुलासा’ सच में ही क्या यह इतना बड़ा मसला है कि मुझ जैसी मामूली स्त्री से स्त्रियाँ जुड़ जाएँ। मेरे अनुभव क्या उन सबके अनुभवों के आसपास हैं? मेरी तरह वे भी आजादी का रास्ता ढूँढ़ रही हैं? नहीं तो कहाँ दिल्ली कहाँ पूना! कहाँ खिल्ली, सिकुर्रा, कहाँ अहमद नगर... हजारों मीलों की दूरी पर रहते हम लोग, मगर निडर एक तरह से ही होना चाहते हैं। शायद यह भी जानते हैं कि हमारा चलन स्वाभाविक नहीं माना जाएगा, हैरत से देखेंगे लोग।

यह दुनिया किताबों ने दिखाई है और हिम्मत इसे व्यवहारिक बनाएगी। मगर तभी बनाएगी, जब हम पढ़ेंगे और सोचेंगे। ऐसा नहीं हुआ तो सामान्य शरीर लेकर भी अपाहिजों की जिन्दगी जिएँगे।

इस अपाहिजपन से मुक्त होने के लिए ही मैं अनामिका के सामने और अनामिका (कवयित्री, गद्य लेखिका) मेरे सामने दिल खोल पाती है। हमारी मित्रता पीड़ा भरी दास्तानों में सामने आती है - नैतिकता के मानसिक कष्ट, ऊपर से थोपी हुई शर्मिन्दगी ढोते-ढोते मौत की इच्छा... हमने पढ़-लिखकर अपना वजूद मर्दों के आसरे डाल रखा है। हम अपने पुरुषों के विश्वास पर आत्मविश्वास खोते चले गए। मैं अहमद नगर में स्त्रियों को बताऊँगी, लेखिका हो या कवयित्री, आप जिसको देखने के लिए लालायित हुईं, सुनने के लिए यहाँ तक चली आईं, उसी दर्दमन्दी की उपज हैं, जो हमारे देश की करोड़ों-करोड़ों स्त्रियों की पीड़ा और यन्त्रणा से पैदा हुआ दुख है।

अब, जब मैं यह पुस्तक लिख रही हूँ तो याद आ रही हैं, वे लेखिकाएँ, जो मुझसे बड़ी और अनुभवशील हैं। क्या वे दुखों की राह चलकर यहाँ तक नहीं आईं? निश्चित आई होंगी तो फिर मुझसे उन्हें नफरत क्यों हुई? क्या वे नहीं जानतीं कि यह समय स्त्री का संघर्षकाल है, नफरत इसे कुन्द कर देगी। हम अपने अभियान में खुद ब खुद जाहिल हो जाएँगे। भूल जाएँगे कि हम कौन थे? आत्मा की सजगता खो जाएगी। हाँ, हम अच्छी स्त्री, सती नारी का रूप हो सकते हैं क्योंकि खानदान और समाज की इज्जत में चुप रहेंगे।

घृणा के मगरमच्छ के जबड़े में कसी लेखिकाएँ कराह-कराहकर मुझे कोस रही हैं। नुक्ताचीनी कर रही हैं। मुझे अज्ञान मानकर पुराने जमाने की माँ-दादियों की तरह बता रही हैं कि मुझे क्या करना था, क्या नहीं। मुझे उनकी सीख से इनकार नहीं करना चाहिए। नहीं तो देशभर में वे मुझे बदनाम कर देंगी।

मैं तड़प उठती हूँ, ऐसी बातों पर कि यही साहित्य की दुनिया की तहजीब है? मैंने इनमें से किस किससे अपनी भावनाएँ जोड़ी थीं... जिनके साथ मैं आत्मीयता और सम्मान के सूत्र में बँधी रही हूँ। वे जितनी मुझसे खफा हैं, मुझे उनकी उतनी ही याद आती है। उन्हें इतना गुस्सा कि आपे से बाहर होकर कुछ भी कहती जाएँ, इसलिए ही आता है क्योंकि वे मुझे प्यार करती थीं। और क्या पता वे अनर्गल बातें उन्होंने इस रूप में कही ही न हों, जिस रूप में छपी हैं। मेरा वक्तव्य भी तो तोड़ा-मरोड़ा गया है। एक शब्द बदल जाए तो सारा अर्थ बदल जाता है। मन्नू दी को लेकर ही देख लिया जाए, मैंने कहा उन्होंने मुझे ‘हंस’ सम्पादक से कहानियों के लिए मिलने को कहा था। उस पत्रिका में लिखा गया - मन्नू भंडारी ने मुझे राजेन्द्र यादव के पास पहुँचाया - इस घटिया मिजाज के वाक्य पर मन्नू दी भड़कतीं न तो क्या करतीं? डॉ. निर्मला जैन, ‘इदन्नमम’ पर सारगर्भित आलेख लिख चुकी हैं।

मेरी पुस्तक, तुम सन्देश देना कि जिनका जिक्र मैंने अपनी लिखावट में किया है, उनसे कहीं न कहीं मैं जुड़ी हूँ। मेरी भावनाएँ अपने पूरे प्रवाह में अभिव्यक्त होने के लिए अकुलाती हैं। नफरत से छुटकारा पाने पर मुझे शान्ति मिलती है। लगता है जीवन प्रेम का सरोवर ही है। और जब इस सरोवर में काई शैवाल और जीव-जन्तु भी होते हैं तो भी यह मानव-हृदय के लिए अस्वाभाविक नहीं हो पाता। मनुष्य का सम्बन्ध तो जल से ही रहता है।

आप कल्पना कर सकते हैं कि दो विरोधी मत रखनेवाले साहित्य के दिग्गज मेरे लेखन को लेकर इस तरह सहमत हों कि आन्तरिक चेतना रिलमिल जाए - 

‘‘अगर मैं कहता हूँ कि स्वतन्त्रता के बाद रांगेय राघव और फणीश्वरनाथ रेणु के साथ मैत्रेयी तीसरा नाम है, जो कथा-साहित्य में धूमकेतु की तरह आया है। तो, न तो किसी पर अहसान कर रहा हूँ, न नए नक्षत्र की खोज का श्रेय लेना चाहता हूँ। सिर्फ उस लेखन से जुड़ना चाहता हूँ, जो हिन्दी के संकुचित फलक का विस्तार कर रहा है।’’
 - राजेन्द्र यादव (हंस)

‘दिल्ली से झाँसी और उरई की यात्रा।’

‘‘यात्रा के दौरान एक बात तो यह समझ में आई कि मैत्रेयी पुष्पा को बुन्देलखंड में अपने लेखक के रूप में व्यापक मान्यता मिली है। हमने उनका घर-गाँव आदि भी देखे और वे स्थान भी, जो उनके उपन्यासों में आए हैं।
 - अशोक वाजपेयी (जनसत्ता)

बेशक मेरी यह पुस्तक इस बात की गवाह होगी कि मैंने यहीं से अपराधबोध जैसी ग्रन्थियों से छुटकारा पा लिया। समझ में यह आ गया कि किसी दल, गुट या बात-बात में ‘राजेन्द्र यादव के गिरोह’ की सदस्यता का ठप्पा साथी रचनाकार ही लगाते हैं। अब तक मैं पागल तो नहीं, लेकिन अज्ञान जरूर रही। ‘हंस’ कार्यालय जाने की जरूरत होती तो भी नहीं जाती, राजेन्द्र यादव के साथ होनेवाली यात्राओं से बचती। ‘हंस’ में लिखने के उनके प्रस्ताव को कभी नजरंदाज करके तो कभी ठुकराकर आत्मतुष्टि प्राप्त करने की कोशिश करती। इस सबके बावजूद यह भी सोचे बिना नहीं रह पाती कि क्या मैं अपनी स्वाभाविकता से कटती नहीं जा रही? निश्चित ही मैं उस मुकाम तक पहुँचा दी गई हूँ, जहाँ कृतज्ञता को अपने हृदय से साफ करती जा रही हूँ, वरन् कृतज्ञता तो मेरी प्रकृति का अहं हिस्सा रही है।

‘उफ्’ करके रह जाती मैं, गहरा साँस खींचती। क्या मैं खुद को पहचान पा रही हूँ? मैं दूसरों की निगाह में अच्छी औरत बनने की प्रक्रिया में... और मेरी रचनात्मकता का रुख नेपथ्य की ओर... नहीं नहीं, मैं अब भी सहृदय स्त्री हूँ, यह सोचकर प्यार की बाढ़ पति की ओर छोड़ देती। लेकिन यह अब कैसा प्यार है? न तू तू, मैं मैं, न मान भरी शिकायतें... मीठे लम्हे कहाँ गुम हो गए? राजेन्द्र यादव से बचने के यत्न में मैं हर ओर से कठोर होती जा रही हूँ। निर्दयता ऐसी तारी हुई कि अपनी कारगुजारियों को कामयाबी मानने की हठ पकड़ बैठी।

लेकिन मेरा यह अभियान कभी कमलेश्वर जी ने तोड़ा, कभी कमला प्रसाद जी ने तो कभी काशीनाथ सिंह ने। राजेन्द्र जी को थोड़ी-सी भी हारी-बीमारी हो, मेरे फोन पर ‘कॉल्स’ की झड़ी लग जाए। मैं झटके खाती रहूँ कि क्या ये सब मुझे अब भी उनकी करीबी मान रहे हैं? इतनी दूरियाँ बनाने का मकसद फिर क्या हुआ? यह ठप्पा या लोगों का विश्वास टूटेगा नहीं तो मैंने अपने स्वभाव से मुठभेड़ क्यों की? गद्दारी पर उतर आई। दुष्टता का चोगा पहनकर जैसे सुरक्षित हो गई। मैंने अपनी आत्मा के साथ जुल्म किया। अपनी बेरुखी दिखाकर राजेन्द्र यादव के सामने अपनी कौन-सी छवि रखना चाहती थी? मैं ‘हंस पत्रिका की लेखिका’ के रूप में प्रचारित अपने लेखकीय चेहरे को उन लोगों के कहने से दागदार मान बैठी, जो खुद उस जनचेतना की पत्रिका में छपने के लिए लालायित रहते हैं। नहीं सोचा कि जब इन लोगों की कलम राजेन्द्र जी के लिए लिखने को लालायित रहती है तो मुझे रोकने के उपाय क्यों किए जा रहे हैं?

और मैं क्यों सोचने लगी कि वे स्त्रियाँ किस्मतवाली हैं, जिनके पुरुष अपनी पत्नियों, प्रेमिकाओं या बहन-भाभियों को राजेन्द्र जी की ग्रहण-छाया से दूर ले गए। किसी ने वे सन्त महात्माओं के यहाँ दीक्षा दिलवाकर पवित्र कीं तो किसी ने अपने कब्जे में लेकर कुँआरी का सत्त बचाया और किसी ने राजेन्द्र यादव को गालियाँ दिलवाकर चैन पाया। वे कंठी पहनें, मंगलसूत्र गले में बाँधें या हीरे-मोतियों के गहनों से सजें, हंस की दुनिया से निकलकर वे भारत देश की सती और सुखी स्त्रियाँ हैं।

समझ में नहीं आता कि मैं कैसे उस घाट लगूँ, जहाँ रोली, चन्दन, अक्षत और बैसान्दुर की पवित्रता में स्त्री का वास निवास है? ऐसा मेरे पति भी नहीं कर पाए कि मेरे लिए कोई रास्ता निकालें, उपाय सोचें।

राजेन्द्र यादव के भयानक विरोधी, मेरे चरित्र पर हमला करते हैं, मेरे कागज-कलम को दुश्मन की निगाह से देखते हैं। इससे क्या होगा? कागज-कलम से दूर रखने का पुराना मंत्र झूठा पड़ चुका। नया मंत्र खोजना होगा। इस खोज में कितना समय लगे, कौन जानता है। फिलहाल तो मेरे ऊपर से लेखन का भूत उतरता दिखता नहीं। मेरी आँखों में दृढ़ता भरी चुनौती-सी उतर आती है। मेरा रूप कठोरता धारण कर लेता है।

पति की निगाहें बार-बार उठती हैं, मुझे समझाती हैं - तुम मेरे कब्जे में रहोगी तभी पत्नी मानी जाओगी। मेरे घर में रची-बसी गृहलक्ष्मी सी।

कब्जे में कैसे रहूँ? तुम तो हमारी समकालीन लेखिकाओं के पतियों जैसे चतुर सुजान नहीं, सीने में मोम का दिल लिए फिरते हो। जिन्हें दुश्मन मानकर अपने बयान जारी करते हो, उनके सामने आते ही पिघलने लगते हो। क्या ख्याल है राजेन्द्र यादव के बारे में? कभी सोचती हूँ, मेरी तरह तुम्हें भी उनको देखकर कोई अपना याद आता है। आखिर वे उसी भूमि से आए हैं, जहाँ तुम्हारे पैतृक घर की खिड़कियाँ खुलती हैं, जहाँ तुम्हारी माँ ने दीपक जलाए थे। उन दीयों की रोशनी में तुमने अपने रास्ते देखे थे, उन दीपकों की लौ जलती है, अँधेरे कटते हैं और तुम हमवतनों को पहचानते हुए दो पल ठहर जाते हो।

और निश्चित ही तुम मेरी तरक्की पर न्यौछावर हो, नहीं तो वीरेन्द्र यादव तुम्हें क्यों अजीज हैं? विजय बहादुरसिंह तुम्हें क्यों मोहते हैं, मैनेजर पांडेय से क्यों घनिष्ठता लगती है? इसलिए कि वे प्रमाण देकर बताते हैं, तुम्हारी पत्नी आगे बढ़ रही है। यह बात तुम सुनते हो वात्सल्य प्रवण माता-पिता की तरह! आखिर तुम क्या हो मेरे? दोस्त या दुश्मन? सच मानो में कभी स्वाभाविकता की नजर से देखती हूँ तो कभी आश्चर्यजनक भूमिका में पाकर कौतूहल से भर जाती हूँ। क्या तुम्हारी चतुराइयाँ ऐसी हैं, जो मुझे दुखित और चकित करती हैं?

डॉक्टर साहब...

क्या अपने दिल की बात कहूँ? कुछ पूछूँ आमने-सामने पड़कर?

‘अब तुम मेरी कहाँ...’ जैसा कुछ तो नहीं कहोगे? समझते तो हो कि जब कोई युवक, कोई युवती वैवाहिक जीवन आरम्भ करते हैं तो गृहस्थ की बहुत सारी जिम्मेदारियाँ ले लेते हैं। मैंने और तुमने भी लीं, कहो कि नया जीवन प्रारम्भ किया था, लेकिन क्या मैंने कभी तुम से तुम्हारे घर-परिवार, तुम्हारी बोली-बानी, तुम्हारे रहन-सहन या तुम्हारे मीत सखा/सखियों को भूल जाने के लिए कहा? नहीं न! क्या मैंने तुम्हारे आगे बढ़नेवाले रास्तों पर संदेहों के जाल बिछाए? मैं तो यही सोचती हूँ कि हम दोनों ने एक-दूसरे के भाव, भाषा, आकांक्षाओं और सपनों में उतर जाने की कोशिश की।

मगर आज हकीकत यह है कि जब न तब आमने-सामने निखालिस पति (मालिक) पत्नी (दासी) की तरह... महान पारम्परिक संस्कृति ने हमें जागरूकता और चेतना सम्पन्नता के नए मिजाज से पीछे नहीं धकेल दिया?
मैं तो समझती थी, पहली बार कलम हाथ में ली, कागज पर कुछ शब्द उकेरे, शब्दों की ध्वनि बजी, तुम्हारे पास होती हुई दूर तक गई। दूर गाँव से दूर शहर से, देश से दूर तक...

तुमने क्या कुछ नहीं सुना? मैं कब से तुम्हें सुनाने को उत्सुक... तुम्हारे पास खुद ही चली आई थी।

मैं अब किसी भी डर भय के बिना एकटक उनको देख रही थी।

‘‘आखिर तुम मेरे कौन हो?’’

उन्होंने मुझे मेरी तरह ही देखा, मगर आँखों से लगा दिल में न जाने क्या-क्या कर डालने का जज्बा है।

और उन्होंने न जाने क्या कहना चाहा, जो एक बात मुझे याद रह गई है, शायद वही अकेली बात कही होगी।
‘‘तुम आखिर क्या हो?’’

‘‘मैं तुम्हारी मोहब्बत जानम।’’

‘‘मोहब्बत! ऐसा कब से?’’ अविश्वास सा करती हुई मैं...

उनकी स्वाभाविक धीमी आवाज - ‘‘तभी से मेरी जान, जब तुम्हें अपनी दुल्हन बनाकर बैलगाड़ी में विदा कराकर लाया था। ‘अनोखी रात’ फिल्म कितनी कितनी बार देखी। कैसेट खरीद लिया। अब सीडी है मेरे पास। मैं फिल्म का हीरो संजीव कुमार और तुम जाहिदा, माथे तक घुँघट खींचे, नाक में नथ पहने मुस्कराती हुई! मेरे मन में गीत बजता है - ओह रे ताल मिले नदी के जल में, नदी मिले सागर में, सागर मिले कौन से जल में, कोई जाने ना...

‘‘जीवनगीत तुम्हारे गाँव सिकुर्रा से चला, कहानी अलीगढ़ तक आ गई। अलीगढ़ का काफिला पैसेंजर ट्रेन से दिल्ली तक आया। अपना किस्सा आगे चलता चला गया और जिन्दगी की दास्तान की डोर तुम्हारे हाथ में आ गई। अब क्या... सुना है तुम अगले हफ्ते हवाई जहाज से किसी यूनिवर्सिटी में व्याख्यान देने जा रही हो। क्या शानदार चेहरा निकला मोहब्बत का!’’

डॉक्टर साहब... मेरे पति, नहीं साथी, स्मृतियों के कई झरोखे खुल गए। झरोखों में से किसी पर्दे की लहराने वाली छाया नहीं, सच की धूप, ईमानदारी की चमक अपनी रोशनी में मुझे कितने ही नजारों के आसपास ले गई।

वे जिन साहित्यकारों से अपनी नापसंदगी दिखाते हैं, क्या सच में ही वे उन्हें पसन्द नहीं? जवाब में मैं क्या कह सकती हूँ?

राजेन्द्र यादव बीमार हुए, डॉक्टर साहब उन्हें एम्स लेकर दौड़ रहे हैं। व्हीलचेयर खुद ही धकेलते हुए इस विभाग से उस विभाग तक।

सत्यप्रकाश जी के साथ ई.एन.टी. वार्ड में खड़े हैं। हर बृहस्पतिवार डॉ. आलोक ठक्कर को अभिवादन करते हुए।

चित्रा और मृदुला गर्ग के बेटी-बेटे... डॉ. साहब मॉर्चिरी के आगे... पोस्टमार्टम... माँ-बाप कैसे देखेंगे?

मार्कण्डेय जी बीमार हैं, जाना है। परिचय नहीं तो क्या हुआ? ऐसे ही न जाने कितनी-कितनी स्थितियाँ! विजयकिशोर मानव जानते हैं उनकी हमदर्दी।

अब इन दिनों।

एक फोन कॉल।

सवेरे के साढ़े पाँच बजे थे। मैंने ही फोन उठाया।

‘‘हलो!’’

‘‘राजेन्द्र जी! क्या हुआ?’’

‘‘डॉक्टरनी!’’

‘‘हाँ, हाँ, राजेन्द्र जी।’’

‘‘डॉक्टरनी, ऑपरेशन होने जा रहा है। तुम्हें मालूम है। मैं तैयार कर दिया गया।’’

‘‘आप घबरा रहे हैं! नहीं न?’’

‘‘नहीं! लेकिन यहाँ ऑपरेशन के लिए अपनी कंसेंट (रजामंदी) देनेवाला कोई नहीं।’’

‘‘कोई नहीं? क्यों? मन्नू दी या रचना या दिनेश या और कोई रिश्तेदार? आपकी बहन...?’’

‘‘नहीं, कोई नहीं। इसलिए अब यह काम तुमको ही करना होगा, डॉक्टरनी।’’

‘‘मैं... मुझे?’’

डॉ. साहब चौकन्ने हुए। कहूँ कि यह? डॉक्टर साहब जो मेरी मोहब्बत है, मेरे रग-रेशों के जानकार। मेरे मन का अल्ट्रासाउंड करने वाले।

‘‘किस का फोन था?’’

मैं चुप! सोच में डूबी सी - फोन का चोगा हाथ में लिए हुए।

‘‘क्या बुड्ढा अस्पताल में भी तुम्हें बुला रहा है?’’ आवाज में आशंकाओं के तार खिंचे। होंठों पर भी कड़ुआहट सी।

ओ मेरी मोहब्बत! तभी तक जब तक मैं इनके लिए मरती-मिटती रहूँ। अपनी इच्छा से सरकना भी गुनाह...

न जाने इस संकटकाल में मैंने क्या सोचा, मुझे क्या हुआ, एकदम बात पलट दी।

‘‘मुझे नहीं, तुम्हें बुला रहे हैं राजेन्द्र यादव।’’

क्यों बोली मैं ऐसा? सच की जगह झूठ क्यों बोला? किसके साथ न्याय किया? किसे धोखा दिया? मैं तिकड़म कर गई?

जो भी हुआ, यही मेरी जिन्दगी का रूप है। यही सम्बल है। यही जीवन का आधार... ‘त्रिया चरित्र’ कहो तो कह सकते हो। इस पौराणिक शब्द को मैंने गाली नहीं माना, इसे मैं ‘सर्वाइविल ऑफ फिटेस्ट’ मानती हूँ। जिन्दगी को बचाकर रखने का तरीका। ...मान लीजिए, यह हमारी खरगोश-वृत्ति, ताकतवरों से भिड़ जाने का या अपने ही जैसों को बचाने के नुस्खे... नहीं जानती कि क्या हैं, लेकिन जो है फिलहाल यही हमारा उद्देश्य... मेरे स्त्री-जीवन की यह तस्वीर अपनी मासूमियत, चालबाजियों और संवेदना के नुस्खों को लेकर हाजिर-नाजिर... हाँ, मेरा बेनकाब चेहरा आपके सामने है, क्योंकि जीवन में बन्धन बहुत हैं। हमदर्दी पर सौ-सौ पहरे... मन की यह भावना आगे बढ़ने के लिए शरीर का सहयोग माँगती है और मेरे शरीर पर पतिव्रत का कब्जा है। क्या मैंने खुद को इसलिए ही कभी पत्नी नहीं माना? क्या मैं जान गई थी कि संवेदना और प्यार बहुत सुन्दर भावनाएँ हैं, मगर इनको व्यावहारिक रूप से अपनाने के लिए स्त्री को पूरा का पूरा युग बदलना पड़ेगा। अभी तो हालत यह है कि यदि मालिक को चुनौती ही दे दी तो मरदाने अहंकार से टकराहट होनी निश्चित है। तलवार की धार पर चलने का हुक्म स्त्री के लिए पूर्वनियोजित है।

उफ्! मैं वृक्ष के सहारे खड़ी बेल... तभी तो मेरे भीतर पत्ता-पत्ता हिलता है। वजूद में डगमगाहट है। कौन काँप रहा है? मैं या मेरा अभिप्राय?

दृश्य में मेरी मोहब्बत!

डॉक्टर साहब गहन सहानुभूति और अनुराग से भरे हुए और मैं इन क्षणों में असम्पृक्त सी अपने ही रूप में रंग भरने लगी। विश्वास पैदा होता गया। अपने ‘त्रिया चरित्र’ का भरोसा कर लिया और मरदाने संस्कारों (अहंकार, स्वामित्व, बलिष्ठताबोध) को भावात्मक विवेक से समेट लिया। ऊष्मा थी कि कठोर से कठोर संस्कार पिघल गए। यह पिघलना और नए में ढालना और व्यक्ति को मनुष्य बनाना मेरे खयाल में स्त्री का नैसर्गिक गुण है। इस गुण को वह चली आ रही शारीरिक निर्बलता और सामाजिक असुरक्षा के गर्भ में तपाकर बाहर लाती है।

अब नई कथा लिखी जा रही थी।

जो अब तक संदेहों, आशंकाओं और अन्ततः लांछनों में घिरा पर-पुरुष था, वही ‘प्रिय और भरोसेमंद’ मित्र के रूप में सामने था।

जल्दी से जल्दी।

जितनी तेजी से चल सकें, हमें फॉर्टिस अस्पताल पहुँचना था, जहाँ राजेन्द्र यादव का ऑपरेशन...।

गाड़ी तेज रफ्तार से रास्ते पर रास्ता पार करती जा रही है। इस संकट की घड़ी में यह कम दिलासावाली बात नहीं। इससे भी बड़ी बात यह कि मैं अपनी जिम्मेदारी डॉ. साहब को सोंपकर खुद को काफी हलका महसूस कर रही हूँ। जानती हूँ, पहले कई बार ऐसा हो चुका है, बस लोगों का भरोसा बढ़ता गया। और मैं डॉ. साहब के दिल से जा मिली। स्त्री का भय अब कहाँ है? कहाँ है वह दहशत, जिसने मुझे कुशल राजनीतिकार बना दिया है।

ज्यों-ज्यों अस्पताल पास आ रहा है, हम दोनों को चिन्ता समान रूप से घेरती जा रही है। हम बारी बारी गहरी साँसें लेते हैं। एक-दूसरे को सूझबूझ भरी नजर से टटोलते हुए सांत्वना देते से...। यों तो सवेरा होता चला आ रहा है और धुँधलका छटने लगा। फिर भी ‘ऑपरेशन’ शब्द आँखों के आगे अँधेरों के गोले उड़ाता है। दिल धड़क जाता है। आशंकाएँ बुरी तरह भीतर ही भीतर खोंट रही हैं। ‘जनरल एनस्थिसिया’ राजेन्द्र जी को किस करवट... उनकी हाई शुगर और ब्लड प्रैशर... ओह, ये बीमारियाँ ऐन समय पर सुरसा मुँह फाड़े खड़ी हैं।

डॉक्टर साहब (मेरी मोहब्बत) इस समय उसी रूप मेें तैयार होकर आए हैं, जैसे मन्नू भंडारी आतीं, रचना आतीं, दिनेश आते... निश्चित ही मैंने पुरुष की परपुरुष के लिए संवेदना को जीता है, जो अपनी स्त्री के माध्यम से उस तक आया है। मैं आशा से भरी हुई, डॉक्टर साहब राजेन्द्र जी को हर खतरे से बचाएँगे।

और अब!

अस्पताल के एक गहन कक्ष में कंसेंट फॉर्म भरा जा रहा है  I here-by authorized for ‘Fortis Hospital’ to perform surgery of left knee. I hereby give my consent for the operation with the full knowledge of possible complications, which have been explained to me in my mother-tongue. I am fully aware that surgery is being performed in good faith and no guarantee has been given about the result.

—R.C. Sharma

ओह... मेरी ओर देखती हैं दो आँखें... कि दिल में उतरती चली जाती है गहन भावना, मन की पारदर्शी रंगत नजरों में और आत्मीयता का उन्मेष मेरी साँसों में। छलकती नजर ने भरोसे गहरे कर दिए। इन क्षणों को यों ही सह जाना किसके बस की बात है?

खड़ी, बुत की तरह बेहरकत, देखती रहती हूँ... राजेन्द्र जी को स्टेªचर पर ले जाते हुए वार्ड बॉय के साथ तेज कदमों से आगे बढ़ते जाते और बीच रास्ते हाथ थामकर ऑपरेशन जोन में प्रवेश दिलाकर वापिस आते डॉक्टर साहब...

इस उषाकाल में मेरे निकट खड़े डॉक्टर साहब, एक हाथ में राजेन्द्र जी का सिगार-पाइप और दूसरे हाथ में उनकी बैसाखी सँभाले हुए हैं। जिन अँधेरों को आँखों में भरे हुए हम यहाँ तक आए थे, उनमें से ही रोशनी के छोटे-छोटे चँदोबे नजरों के आगे बिखरने लगते हैं। क्या मैं धरती के सितारों के बीच खड़ी हूँ?

हाँ, खड़ी हूँ। उन्हीं के प्रकाशमान लम्हों में चल रही हूँ।

मैं कहाँ से कहाँ तक पहुँच गई! इस जगह को क्या नाम दूँ? शीश झुकाए हुए एक प्रार्थना बस, क्योंकि कितनी-कितनी दुआएँ कबूल हुईं।

क्या पाया और हमारा क्या-क्या नष्ट हुआ, सब कुछ इस कहानी में है। अब हम वैसे कहाँ रहे, जैसे कि हुआ करते थे। सम्भवतः यही रचनात्मक जीवन-दृष्टि है और यही है साहित्य की शक्ति।

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मैत्रेयी पुष्पा को रचना यादव का जवाब | Rachana Yadav's reply to Maitreyi Pushpa


राजेन्द्र यादव का सहारा लेकर बहुतों ने यश कमाया 

~ रचना यादव

राजेन्द्र जी के जन्मदिन पर फेसबुक पर अपना बयान लिखते समय मैत्रेयी जी को शायद रचना यादव से जवाब की उम्मीद नहीं रही होगी; उन्ही को क्या शायद किसी को नहीं रही होगी... शायद हम भूल गए थे कि रचना , मन्नू भंडारी और राजेन्द्र यादव की रचना हैं, उनसे यह नाउम्मीदी रखना कि वह लिख नहीं सकतीं या उनके पास जवाब देने के लिए भाषा नहीं होगी - गलत है. वैसे मैत्रेयीजी को धन्यवाद कहना चाहुँगा क्योंकि यदि वह ऐसा निजी-हमला नहीं करतीं तो हमें रचना जी की लेखन-शैली की धार का पता नहीं चलता. मैत्रेयीजी हम सबकी प्रिय हैं, अब दिल्ली हिंदी अकादमी की उपाध्यक्ष हैं, उनसे बड़ी उम्मीदें हैं और कम से कम मेरी समझ में, इन उम्मीदों में उनके हालिया फेसबुक बयान बिलकुल फिट नहीं बैठते... बहरहाल 28 अगस्त को मैत्रेयीजी ने अपने फेसबुक अकाउंट पर लिखा - 

Maitreyi Pushpa | August 28 at 8:53am
 
आज आपका जन्मदिन है राजेन्द्र जी !!
काश आप देख सकते होते कि जिस परिवार की ओर अपने लिये एक छोटी सी क्षमा -दृष्टि के लिये याचक की तरह देखते रहे वही परिवार आप की मृत्यु के बाद आपकी तस्वीर लगाकर गर्व के साथ जन्मदिन मना रहा है । जो लोग आपका नाम गुनाह के खाते में डालते रहे हैं , वे अब यश गा रहे हैं । इस सब के लिये मृत्यु ज़रूरी थी राजेन्द्र जी ...कि हमारे लिये दुनिया वीरान ...

उनके लिखे पर कई टिप्पणियाँ महत्वपूर्ण हैं लेकिन जिस परिवार के लिए उन्होंने इसे लिखा था वहां से आया जवाब पारदर्शी होने के साथ कुछ सवाल भी लिए हुए है और इस उम्मीद के साथ दिया गया है कि मैत्रेयीजी जवाब देंगी... 

आपका 
भरत तिवारी

मैत्रेयी पुष्पा को रचना यादव का जवाब | Rachana Yadav's reply to Maitreyi Pushpa

राजेन्द्र यादव के और हंस के असली शुभचिन्तक कौन हैं 

~ रचना यादव



Hindi Academy Vice Chairperson , Maitreyi Pushpa posted a very derogatory post against my family on the 28th of august. Though I dont like to get into the politics of Hindi Literary world , but since it was a personal attack, I feel the need to give a reply. I have posted the reply under her post also on her page but I am just copying it here as well .
This is for Maitreyi ji :
(अनुवाद: हिंदी अकादमी उप अध्यक्ष, मैत्रेयी पुष्पा ने अगस्त 28 को मेरे परिवार के खिलाफ एक बहुत ही अपमानजनक टिप्पणी पोस्ट की। यद्यपि मुझे  हिंदी साहित्य की दुनिया की राजनीति में शामिल होना पसंद नहीं है, लेकिन चूंकि यह एक व्यक्तिगत हमला था, मैं इसका जवाब देने की जरूरत महसूस करती हूँ। मैंने यह जवाब उनकी पोस्ट (फेसबुक) पर दिया है और उसे ही यहाँ (अपनी फेसबुक वाल) कॉपी कर रही हूँ ।
यह मैत्रेयी जी के लिए है :)

28 अगस्त को फेसबुक पर लिखी आपकी पोस्ट काफी व्यक्तिगत थी, इसलिए कम से कम एक बार उसका जवाब देना ज़रूरी समझती हूँ।

आप मुझसे बड़ी हैं, अतः सादर यह जानना चाहूँगी कि आप किस परिवार की बात कर रही हैं? क्या आपका संकेत मेरे और मेरी माँ (मन्नू भंडारी) की ओर है? या उन समस्त लोगों की ओर- जैसे हंस के कार्यकर्ता;... उनके कुछ बहुत आत्मीय मित्र और शुभचिंतक। क्योंकि उनका परिवार तो बहुत बड़ा था। खैर, जिसकी ओर भी हो, मैं सिर्फ. यह बताना चाहूँगी कि यह वही परिवार है जो हर दुःख-सुख के क्षणों में उनके साथ खड़ा रहा था। चाहे वो बीमारी और हस्पताल का दौर हो; या आर्थिक संकट हो; या कुछ और निजी परेशानियाँ। उनका यह परिवार ही था जो दिन-रात उनकी एक बुलाहट पर मुस्तैदी से हाज़िर हो जाता था ! और यह वही परिवार है, जो आज हंस को उसी स्तर पर कायम रखने, बल्कि उसको और आगे बढ़ाने में जी-जान से जुटा पड़ा है। केवल इसलिए क्योंकि ‘हंस’ राजेन्द्रजी का सपना था। आसान काम नहीं है यह मैत्रेयीजी, यह तो आप भी समझती होंगी। 

काम कर रहा है यह परिवार मैत्रेयीजी- केवल जन्मदिन पर आकर यश और गर्व नहीं लूट रहा। राजेन्द्रजी की एक-एक इच्छा को पूरा करने में ईमानदारी से लगा हुआ है। क्योंकि यह हम सब का वादा था उनसे।

और हाँ, यह वही परिवार है जिसके सारे सदस्य मिलकर उनका जन्मदिन मनाते थे- जब वे जीवित थे तब भी, और उसे परम्परा मानकर अब भी। उसी गर्व से, उसी हक़ से। और जब तक संभव होगा, मनाते रहेंगे।

वैसे, यह जरूर कहूँगी कि यदि आपको लगता है कि राजेन्द्र यादव द्वारा यश बटोरने के लिए हमें उनके जन्मदिन की पार्टी की आवश्यकता है, तो हमारी नहीं, आप राजेन्द्र यादव की तौहीन कर रही हैं।

रही बात मन्नूजी की (क्योंकि मैं समझती हूँ कि आपका इशारा बहुत स्पष्ट रूप से उस तरफ भी है), तो राजेन्द्रजी की हर तकलीफ़ और जरूरत के समय, मौजूद होने के बावजूद, वे इन जन्मदिन की पार्टियों में न पहले कभी आईं (केवल मेरे बहुत ज़िद करने पर शायद एक बार के अलावा), ना ही अब आती हैं। 

यह शायद हिन्दी जगत का हर व्यक्ति जानता होगा कि राजेन्द्र यादव का सहारा लेकर बहुतों ने यश कमाया (नाम नहीं गिनाना चाहूँगी), पर सब यह भी अच्छी तरह जानते हैं कि उस सूची में मन्नू भंडारी का नाम न कभी शामिल था और न अब है। मुझे आश्चर्य होगा, यदि आपको यह लगता है कि मन्नूजी को यश कमाने के लिए राजेन्द्र यादव की जन्मदिन की पार्टी का सहारा लेना पड़ रहा है।

खैर, आपने किसी सज्जन की पोस्ट के जवाब में ठीक ही कहा कि आप इस परिवार का हिस्सा नहीं थीं, इसलिए शायद आप तक सारे तथ्य पहुंच भी नहीं पाए। और इसलिए भी, कि इस परिवार ने राजेन्द्रजी के लिए जो किया- उसे जताने की आवश्यकता कभी महसूस नहीं की। जो किया- अपनी और उनकी खुशी के लिए किया।

तो मैत्रेयीजी, आपसे मेरा विनम्र निवेदन है कि तथ्यों को पूरी तरह जाने बिना किसी के परिवार पर इस तरह उंगली उठाना कितना उचित है, यह बात खुद आप जानती होंगी।

आप आज एक महत्वपूर्ण पद पर हैं, कृपया अपनी सोच को भी उस पद की गरिमा के अनुसार रखिए। 

मुझे जो कहना था, मैंने दिल से कह दिया। आप चाहे इस पर रिस्पॉन्ड करें या न करें, मैं और कुछ नहीँ कहना चाहूँगी। बस इतना ही कि जब परिवार का कोई एक व्यक्ति पीड़ा से गुजरता है, तो उतनी ही पीड़ा अन्य सदस्यों को भी होती है। खासकर जब परिवार आपस में बहुत मजबूती से जुड़ा हो। जो कि हम लोग थे और हमेशा रहेंगे।और इसे आपको साबित करने की आवश्यकता मैं नहीं समझती। 

हाँ, आपकी एक बात से जरूर कुछ सहमत हूँ- राजेन्द्र यादव के और हंस के असली शुभचिन्तक कौन हैं, इस तथ्य को सामने लाने के लिए शायद उनकी मृत्यु ज़रूरी थी।

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युवा, हिंदी अकादमी और मैत्रेयी पुष्पा - अनंत विजय | Anant Vijay on Maitreyi Pushpa Controversy


कहीं ऐसा तो नहीं कि युवा कहकर युवाओं से जुड़ने की जुगत में लेखक खुद को या आयोजक लेखक को या आलोचक लेखक को युवा घोषित कर देता है ?

~ अनंत विजय

साहित्यक विवाद होने चाहिए... लेकिन जब विवाद के बीच व्यक्तिगत हमले होने लगते हैं, किसी के चरित्र से लेकर व्यक्तित्व पर सवाल खड़े होने लगते हैं तब साहित्य बीमार पड़ने लगता है

युवा, हिंदी अकादमी और मैत्रेयी पुष्पा - अनंत विजय | Anant Vijay on Maitreyi Pushpa Controversy

विवादों के बवंडर में ‘युवा’ लेखक

इन दिनों हिंदी साहित्य जगत में ‘युवा लेखन और लेखक‘ को लेकर घमासान मचा हुआ है । दरअसल पूरा प्रसंग ये है कि दिल्ली की हिंदी अकादमी ने युवा कहानी और युवा कविता पर दो दिनों का आयोजन किया । हिंदी की वरिष्ठ और चर्चित लेखिका मैत्रेयी पुष्पा के हिंदी अकादमी का उपाध्यक्ष बनने के बाद अकादमी का ये पहला बड़ा आयोजन था । कविता पर जो आयोजन हुआ था उसका नाम - कविता के नए रूपाकार, युवा कवियों के साथ एक शाम । कहानी पर हुए आयोजन को नाम दिया गया था – हमारे समय की हिंदी कहानियां, स्वरूप और संभावनाएं । सरकारी कार्यक्रम के लिहाज से देखें तो आयोजन बेहतर था । पूरे आयोजन पर मैत्रेयी पुष्पा की छाप दिख रही थी, उनकी पसंद और नापसंद दोनों की । कविता पर हुए आयोजन पर जिन कवियों को बुलाया गया था उसको लेकर सोशल मीडिया पर खूब हो हल्ला मचा । कवियों की उम्र को लेकर भी छींटाकशी की गई । विरोधस्वरूप दिल्ली के दर्जनभर से ज्यादा युवा कवियों ने एक अलग आयोजन किया और अपनी कविताएं पढ़ीं । यह सब तो साहित्य में हमेशा से चलता रहा है । सरकारी आयोजनों में जो उसके कर्ताधर्ता होते हैं उनकी ही चलती है लेकिन इस बार हिंदी अकादमी का चयन अपेक्षाकृत कम विवादित रहा । हिंदी अकादमी की उपाध्यक्ष मैत्रेयी पुष्पा ने सोशल मीडिया पर अपने अनेकानेक पोस्ट में इस बात को रखा कि अकादमी का यह पहला आयोजन है और उसको उसी कसौटी पर कसा जाना चाहिए । लेकिन युवा को लेकर सोशल मीडिया पर विरोध जारी रहा । युवा शब्द पर हुए इस विवाद की भी वजह है जिसका जिक्र इस लेख में आगे आएगा । फेसबुक आदि पर मचे हो-हल्ला के बीच आयोजन के दौरान हिंदी अकादमी की उपाध्यक्ष मैत्रेयी पुष्पा ने मंच से एलान किया कि अगले आयोजन से युवा शब्द हटा दिया जाएगा । इसको हिंदी के युवा लेखक और कवि अपनी जीत के तौर पेश कर रहे हैं । उन युवा लेखकों को ये सोचना होगा कि साहित्य में जीत या हार नहीं होती है। बहुत दिनों बाद हिंदी अकादमी को एक सक्रिय उपाध्यक्ष मिला है । हमें उम्मीद करनी चाहिए कि वो वस्तुनिष्ठ होकर साहित्य के लिए काम करेंगी । उनको थोड़ा मौका भी दिया जाना चाहिए । हलांकि उनको जो टीम मिली है उससे बहुत ज्यादा उम्मीद बेमानी है, चंद लोगों को छोड़कर उनमें से ज्यादातर के साहित्यक अवदान को हिंदी साहित्य के सामने आना शेष है । हैरानी की बात है कि कहानी पर हुए आयोजन की अध्यक्षता वरिष्ठ आलोचक मैनेजर पांडे को सौंपी गयी । कहानी पर हुए आयोजन का अध्यक्ष पांडे जी को किस आधार पर बनाया गया ? कम से कम मेरे जैसा पाठक अब तक मैनेजर पांडे के कहानी पर किए गए काम से अनभिज्ञ है । कार्यक्रम में मैनेजर पांडेय ने मेरी आशंका को सही साबित किया । उन्होंने इस आयोजन में ना तो कहानी के स्वरूप और ना ही संभावना पर गंभीरता से कोई अवधारणा प्रस्तुत की । एक अनाम सी पक्षिका के विशेषांक लेकर पहुंचे और उसके ही आधार पर कहानी के वर्तमान पर भाषण दे दिया । मैनेजर पांडे को बुलाने की वजह समझ से परे है । मैत्रेयी पुष्पा को मैं करीब डेढ़ दशक से ज्यादा वक्त से जानता हूं, वो जो ठान लेती हैं उसपर चलती हैं । तमाम विरोध और झंझावातों के बावजूद । इस वजह से ही शायद उन्होंने मैनेजर पांडे को नहीं बदला होगा । अगर चयन में थोड़ी बहुत खामी रह जाए या फिर अपने अपने लोगों को बुलाया जाए तो किसी नतीजे पर पहुंचने के पहले सोशल मीडिया पर सक्रिय लेखकों को धैर्य रखना चाहिए । सावधान तो उपाध्यक्ष को भी रहना चाहिए, उन्हें अब काफी लोग तारीफ करनेवाले मिलेंगे । आनेवाले दिनों में उनपर संचयन, पत्रिकाओं के विशेषांक आदि भी निकलेगे । अगर इस तरह के लोगों को बढ़ावा मिलता है तो जाहिर तौर पर वो घिरेंगी लेकिन हमें ये मानकर नहीं चलना चाहिए कि ऐसा ही होगा । खैर ये एक अवांतर प्रंसग है, जिसपर भविष्य में चर्चा होगी ।

बात हो रही थी हिंदी में युवा लेखकों पर । साहित्य में युवा कहने की कोई सीमा नहीं है । पचास पार या पचास को छूते लेखक को हिंदी साहित्य समाज में युवा माना जाता है । साहित्य अकादमी जो युवा सम्मान देती है उसके मुताबिक लेखक की उम्र पैंतीस साल से अधिक नहीं होनी चाहिए । लेकिन इस वक्त हिंदी में एक साथ इतनी पीढ़ी सक्रिय है कि सब गड्डमड् हो गया है । जिसके जो मन हो रहा है वो लिख रहा है । इस तरह के अराजक माहौल में चालीस पचास साल पार के लेखक लेखिका भी युवा हुए जा रहे हैं । इस संदर्भ में एक बेहद दिलचस्प प्रसंग याद आता है । सन दो हजार की बात होगी । हंस पत्रिका के दफ्तर में उसके संपादक राजेन्द्र यादव से मिलने गया था । हंस का ताजा अंक आया था जो यादव जी ने मेरी तरफ बढ़ाया । मैंने पन्ने पलटने के बाद उनसे पूछा कि बुढा़ती लेखिकाओं की आप जवानी के दिनों की तस्वीर क्यों छापते हैं । उन्होंने हल्के फुल्के अंदाज में गंभीर बात कह दी । उन्होंने कहा कि हिंदी के कई पाठक लेखिकाओं की तस्वीर देखकर हंस खरीद लेते हैं । अब जब युवा लेखक की उम्र को लेकर जब एक बार फिर से विवाद हो रहा है तो राजेन्द्र यादव की बात जेहन में कौंधी । कहीं ऐसा तो नहीं कि युवा कहकर युवाओं से जुड़ने की जुगत में उदारता के साथ लेखक खुद को या आयोजक लेखक को या आलोचक लेखक को युवा घोषित कर देता है । हलांकि यह बहुत दूर की कौड़ी है लेकिन कौड़ी है अच्छी ।

कुछ दिनों पहले मैत्रेयी पुष्पा जी ने भी स्त्री विमर्श को लेकर एक लंबा लेख लिखा था । उस लेख में मैत्रेयी जी ने लिखा था – ‘इक्कीसवीं सदी में जबसे ‘युवा लेखन’ का फतवा चला है, लेखन की दुनिया में खासी तेजी आई है। लेखिकाओं की भरी-पूरी जमात हमें आश्वस्त करती है। किताबें और किताबें। लोकार्पण और लोकार्पण। इनाम, खिताब, पुरस्कार जैसा बहुत कुछ। प्रकाशक, संपादक भी अपने-अपने स्टाल लेकर हाजिर। अपने-अपने जलसों की आवृत्तियां। कैसा उत्सवमय समां है। कौन कहता है कि यह दरिंदगी और दहशत भरा समय और समाज है? साहित्य जगत तो यहां आनंदलोक के साथ है। नाच-गाने और डीजे। शानदार पार्टियां और आपसी रिश्तों के जश्न। ऐसा लगता है जैसे कितनी ही कालजयी रचनाएं आई हैं। मगर इस समय की कलमकार के अपने रूप क्या हैं? युवा के सिवा कुछ भी नहीं, यह युवा लेखिका का फतवा किस दोस्त या दुश्मन ने चलाया कि इस समय की रचनाकार अपनी उम्र का असली सन तक अपने बायोडाटा में दर्ज नहीं करतीं, क्योंकि उम्र जगजाहिर करना युवा लेखन के दायरे से खारिज होना है। वे लेखन के हल्केपन की परवाह नहीं करतीं, जवानी को संजोए रखने की चिंता में हैं। इसी तर्ज पर कि रचना में कमी-बेसी से डर नहीं लगता साब, वयस्क कहे जाने से डर लगता है। परवाह नहीं उम्र पैंतालीस से पचास पर पहुंच जाए, युवा कहलाने का अनिर्वचनीय सुख मिलता रहे । लगता है मैत्रेयी जी जब हिंदी अकादमी के आयोजनों के लिए लेखकों का चयन कर रही थीं तो उन्होंने अपनी ही कही इस बात को भुला दिया । युवा के नाम पर चालीस पार की लेखिकाओं और लेखकों को युवा घोषित करते हुए कार्यक्रम में जगह दे दी । क्या वो अपना कहा ही भूल गईं कि जो लेखिका अपने बायोडाटा में अपनी उम्र दर्ज नहीं करती क्योंकि उम्र जाहिर करना युवा लेखन के दायरे से खारिज होना है । क्या वो भी आमंत्रित लेखक लेखिकाओं को वयस्क कहने से डर गईं । दरअसल सरकारी आयोजनों में एक कमेटी प्रतिभागियों का चुनाव करती हैं । संभव है उपाध्यक्ष ने चुनाव करते समय कमेटी के सदस्यों को छूट दी होगी । उस छूट का ही नतीजा है कि कुछ ऐसे लेखकों का चयन हो गया जिनपर और जिनके लेखन पर विवाद उठ खड़ा हो गया । यह भी संभव है कि युवाओं को जोड़ने का अनिर्वचनीय सुख हिंदी अकादमी भी लेना चाहती हो । हिंदी में युवा कहलाने का जो फैशन है उसपर गाहे बगाहे विवाद होता रहा है । मेरा मानना है कि साहित्यक विवाद होने चाहिए । इससे साहित्य की सेहत अच्छी बनी रहती है लेकिन जब विवाद के बीच व्यक्तिगत हमले होने लगते हैं, किसी के चरित्र से लेकर व्यक्तित्व पर सवाल खड़े होने लगते हैं तब साहित्य बीमार पड़ने लगता है । साहित्य में विवादों की एक लंबी परंपरा रही है लेकिन जिस तरह से उसको सोशल मीडिया ने मंच और हवा दोनों दी वो चिंता की बात है । लेखन पर सवाल खड़े होने चाहिए तर्कों और तथ्यों के साथ, फिर चाहे वो कितना भी बड़ा लेखक क्यों ना हो । युवाओं के लेखन को खास तौर पर कसौटी पर कसना चाहिए ।  

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मैं कभी किसी गुटबाजी का हिस्सा नहीं बनी - मैत्रेयी पुष्पा | I Never Did Groupism - Maitreyi Pushpa


सेक्स सिर्फ एक पहलू-भर है, संपूर्ण स्त्री विमर्श नहीं। पर आजकल लगता है कि स्त्री-विमर्श का मतलब सिर्फ सेक्स-भर ही है...


मैं कभी किसी गुटबाजी का हिस्सा नहीं बनी

- मैत्रेयी पुष्पा

अपने लेखन में स्त्री-स्वर को मुखरता से उठाती रहीं वरिष्ठ साहित्यकार मैत्रेयी पुष्पा हाल ही में हिन्दी अकादमी के उपाध्यक्ष पद पर चयनित हुई हैं। प्रस्तुत है, नवभारत टाइम्स के लिए दामिनी की उनसे हुई लंबी बातचीत  - 

दामिनी : अकादमी के अब तक के कामकाज के तौर-तरीकों के बारे में आप क्या राय रखती हैं?

मैत्रेयी पुष्पा: जब मैं अब से पहले समिति की नीतियों में शामिल ही नहीं रही हूं तो क्या कहूं। अभी तो मैं अकादमी एक ही बार गई हूं। पिछले कुछ अरसे से तो यहां कोई उपाध्यक्ष रहा भी नहीं। इस वजह से काफी उदासीनता का माहौल रहा। अभी अकादमी के और सदस्यों की समिति बन रही है। जहां तक पहले के लोगों की बात है तो दूसरे लोगों के बारे में सुनती रही। जनार्दन द्विवेदी के बारे में सुनती थी और लोगों के बारे में भी सुना। अच्छा रहा पिछला कामकाज भी। अकादमी जो कार्यक्रम कराती रही, जो पुरस्कार दिए जाते रहे हैं, उन से भी मैं वाकिफ हूं। फिलहाल बस इतना ही कहूंगी कि जब तक अकादमी काम नहीं करेगी, लोगों तक नहीं पहुंचेगी, उन्हें जोड़ेगी नही तो लोग भी इसके बारे में कैसे जान पाएंगे। अभी बहुत काम किया जाना बाकी है।


दामिनी : अकादमी की किन नीतियों से सहमति नहीं रखतीं?

मैत्रेयी पुष्पा: ये पूछना अभी थोड़ा जल्दबाजी हो जाएगा। मैं थोड़ा अंदर का काम देखूं तो जानूं। अभी जो मुझ से कह रहे हैं, बधाई। आप से बहुत उम्मीदें हैं तो मैं उन से जानना चाहूंगी कि नाउम्मीदी किन बातों से है उनकी। ये मैं लोगों का कहा ही कह रही हूं। लोग चाहते हैं कि पुराना ढर्रा बदले। सब मानते हैं कि हिन्दी के लिए कुछ होना चाहिए, जैसे किसी कमजोर के लिए कुछ हो मानो। अभी तो जैसे एक दिन महिला दिवस मनाया जाता है, एक दिन बाल दिवस मनाया जाता है, वैसे ही एक दिन हिन्दी दिवस भी मना लिया जाता है। बताइए कौन सा टॉनिक पिलाएं हिन्दी को। फिर भी कोई नयापन बताना हो तो अभी बहुत काम करने की जरूरत है यहां। जैसे अकादमी की पत्रिका ‘इंद्रप्रस्थ भारती’ को ही ले लीजिए, जो कि सुप्तावस्था में पड़ी हुई है, जबकि इसमें हिन्दी का मुख-पत्र बनने की क्षमता है। ये बेहतर कर सकती है, जैसे ‘हंस’ करती रही है। कई दूसरी पत्रिकाएं कर रही हैं। यहां मैं सरकार से भी कहना चाहूंगी कि अगर गंभीरता से काम करना है तो उसके लिए पर्याप्त संसाधन भी होने चाहिए। अब अकादमी की बिल्डिंग को ही ले लीजिए यह जिस जगह है, वहां साहित्यकारों का आना ही मुश्किल है। स्टाफ की अपनी समस्याएं हैं। और भी बहुत सारे विषय हैं, जिन पर काम होना है।


दामिनी : हिन्दी अकादमी आरंभ से ही नए रचनाकारों को सामने लाने का कार्य करती रही है। आप इस सिलसिले को कैसे आगे ले जाएंगी?


मैत्रेयी पुष्पा: उसमें कई चीजें हैं। नए लेखकों के साथ सबसे बड़ी समस्या यह आती है कि कोई प्रकाशक उन्हें छापने को तैयार नहीं होता, इसीलिए किसी अच्छे रचनाकार की पहली किताब सामने लाने के लिए अकादमी ने अनुदान रखा है। अब यहां याद रखने की जरूरत है कि जहां पैसा होता है, वहां गड़बड़ी की पूरी संभावना रहती है। संबंधों के चलते कई बार कोई कुपात्र सफल हो जाता है और पात्र रह जाता है। उसे बचाना है। मैं सोचती हूं कि कोई हकमारी न हो। रचना का चयन खुलेआम हो और सब-कुछ एक ईमानदारी, पारदर्शिता पर निर्भर हो। साहित्य के नाम पर लाइब्रेरियों में क्या भरा जा रहा है, वह भी स्पष्ट हो।



दामिनी : स्त्री-अधिकारों को आपने अपने साहित्य में बखूबी उठाया है। वर्तमान में जो स्त्री-लेखन हो रहा है, उसे आप कैसे देखती हैं?


मैत्रेयी पुष्पा: हमारी पांच कर्मेद्रियां हैं और पांच ज्ञानेंद्रियां। इनका संतुलन हमारे पूरे अस्तित्व को कसावट देता है। जब हम स्त्री-अधिकारों पर लेखन की बात करते हैं तो उसमें बहुत गहराई, बहुत विस्तार में जाने की जरूरत है। हम क्या सुनें, क्या देखें, क्या बोलें, कहां जाएं, यह सब हमेशा से पिता, भाई, पुत्र के रूप में पुरुष ही तय करते आए हैं। यहां आवाज उठाने की जरूरत है। जहां परंपरा, रिवाज हमारे मनमाफिक नहीं हैं, वहां हस्तक्षेप की जरूरत है। उसकी बात नहीं होती। सारी बात आकर स्त्री-पुरुष की अंतरंगता पर आकर ठहर जाती है। अब देखिए, राजेन्द्र यादव ने स्त्री विमर्श चलाया। उसमें उन्होंने संपूर्ण स्वतंत्रता की बात कही, मगर सारी की सारी बात को सिर्फ सेक्स से जोड़कर देखा गया। सेक्स सिर्फ एक पहलू-भर है, संपूर्ण स्त्री विमर्श नहीं। पर आजकल लगता है कि स्त्री-विमर्श का मतलब सिर्फ सेक्स-भर ही है।



दामिनी : लेखन को अनेक वर्गों में विभक्त किए जाने को आप किस प्रकार से देखती हैं? जैसे-महिला लेखन, दलित लेखन वगैरह।


मैत्रेयी पुष्पा: ये विभक्तियां बना नहीं दी गईं, ये हैं। कुछ लोग इसको सिरे से खारिज करते हैं कि लेखक की कोई जाति, रंग, लिंग नहीं होता, लेकिन ये विभक्तियां उभरकर खुद अपना पक्ष रखती हैं, क्योंकि पहले जो लेखन होता था, वह अनुमानजनित होता था और अब इन्हीं विभक्तियों के द्वारा जो लेखन सामने आता है, वह अनुभवजनित होता है। स्त्री ने कलम क्यों उठाई? पहले अपने नाम से खुलकर लिखना दहशत की बात थी, डर काम करता था कि बदनामी न हो जाए। कुदरती भाव सभी के अंदर होता था, मगर युगों तक स्त्रियां इसको दबाकर रखती रहीं। सब सीता-सावित्री बनकर लिखती रहीं। कोई कैकयी-सूपर्णखा बनकर नहीं लिखना चाहती थी। उन पर जो अनुमान से लिखा गया, वह पढ़िए और जो अनुभव से लिखा गया, वह पढ़िए। देखिए कि जो गोदान लिखा गया, उसमें धनिया अपने हक के लिए नहीं लड़ी, अपने बच्चे के हक के लिए लड़ी। मेरी धनिया वह हो ही नहीं सकती, जो प्रेमचंद की है। यह कोई तुलना नहीं है, केवल एक पक्ष है, जो अनुभव की उपज है। यही बात दलित लेखन पर भी लागू होती है।



दामिनी : वर्तमान राजनीति काफी उठा-पटक के दौर से गुजर रही है। इसका आप साहित्यिक संस्थाओं पर क्या प्रभाव देखती हैं?


मैत्रेयी पुष्पा: कई खाने बने हुए हैं और राजनीतिक पार्टियां, मीडिया, साहित्य सब-कुछ इन खानों में बंटा हुआ है। अपने अनुभव से बताती हूं। मैं फेसबुक पर हूं। अगर मैं किसी अच्छे काम का किसी को श्रेय देती हूं या किसी न्यायसंगत बात पर किसी का पक्ष लेती हूं, वह भी बिना किसी पार्टी, किसी नेता का नाम लिए, तब भी लोग उसे किसी न किसी दल के साथ जोड़कर देखने-दिखाने लगते हैं। लोगों ने तो यहां तक कहा कि मुझे यह पद भी किसी नेता-विशेष का पक्ष लेने के प्रसाद स्वरूप मिला है, जबकि मैंने अब तक की अपनी जिंदगी में ना तो कभी किसी से कुछ मांग कर लिया, ना ही गुटबाजियां कीं।



दामिनी : अब तक यही देखा जाता रहा है कि जब तक पद नहीं होता, तब तक योजनाओं की बात की जाती है, क्रांति की, नएपन की बात की जाती है, मगर पद मिलते ही लोग गुटबाजियों के इतिहास को दोहराते नजर आते हैं।


मैत्रेयी पुष्पा: मुझे राजेन्द्र यादव के गुट से जोड़कर देखा जाता रहा है। अगर आज वे होते तो यही कहा जाता कि यह पद उन्होंने ही दिलाया है। जो कहते थे कि मैं राजेन्द्र यादव के बाद खत्म हो जाऊंगी तो आज वे बताएं कि क्या मैं हुई? ना तो मुझे इस पद का लालच है, न मैं कभी किसी गुटबाजी का हिस्सा बनी। कोई मुझे अपने अनुरूप या अपनी इच्छा से चलाए, यह हो नहीं सकता। हां, सामंजस्य बिठाने में, सबको साथ लेकर चलने में मैं विश्वास रखती हूं। यहां भी पच्चीस व्यक्तियों की समिति है। मैं यहां भी सामंजस्य बिठाऊंगी, पर अपना पक्ष छोड़ूंगी हरगिज नहीं।



दामिनी : इन दिनों आपकी लेखकीय व्यस्तताएं क्या हैं?


मैत्रेयी पुष्पा: अभी मैंने थोड़ा विराम दिया हुआ है। 2014 में एक उपन्यास आया था। फिलहाल मैंने सोचा कि खुद भी थोड़ा सांस लूं और पाठकों को भी लेने दूं। हो रहे बदलावों को देखूं, भांपूं। ‘वनिता’ पत्रिका में एक कॉलम चल रहा है। किसी भी पत्रिका में अगर स्त्रियों के नाम पर सोचकर एक पन्ना दिया जाता है तो मैं उससे चूकना नहीं चाहती। दस साल हो गए इस कॉलम को। ये रोजमर्रा का लेखन कहानी, उपन्यास से ज्यादा प्रभावी होता है।

साभार नवभारत टाइम्स 
१३ जून २०१५
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सबसे बड़ा सवाल ईमानदारी का होता है - मैत्रेयी पुष्पा | The biggest question is of integrity - Maitreyi Pushpa


साहित्य-संस्कृति से जुड़ी संस्थाएं सिफारिश,
दलाली के झांसों में आकर गलत काम करती हैं 

- मैत्रेयी पुष्पा

शब्दांकन पर मैत्रेयी जी के चाहने वालों की संख्या और मेरा ख़ुद-का उनका प्रशंसक होना कारक बना कि हरिभूमि से यह बातचीत साभार आप तक पहुँच रही है।

अकादमी की गरिमा बनाए रखना मेरी प्राथमिकता होगी - मैत्रेयी पुष्पा

हाल ही में प्रख्यात साहित्यकार मैत्रेयी पुष्पा को दिल्ली सरकार के अधीनस्थ कार्यरत संस्था हिंदी अकादमी का उपाध्यक्ष नियुक्त किया गया है। कहने की जरूरत नहीं कि मैत्रेयी जी की छवि एक बेबाक रचनाकार की रही है। ऐसे में यह सवाल सबसे पहले उठता है कि हिंदी भाषा, साहित्य और संस्कृति के संवर्धन के लिए सक्रिय इस संस्था से जुड़कर उनकी प्राथमिकताएं क्या होंगी? वह किस तरह की कार्यशैली अपनाएंगी? ऐसे ही कुछ और सवालों पर मैत्रेयी पुष्पा ने अपने स्पष्ट विचार साझा किए हरीभूमि  राष्ट्रीय हिन्दी दैनिक समाचार पत्र  के विज्ञान भूषण के साथ। 


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विज्ञान :हिंदी साहित्य में आप वर्षों से सक्रिय हैं लेकिन भाषा, साहित्य और संस्कृति के संवर्धन की दिशा में कार्यरत किसी संस्था से आप पहली बार जुड़ी हैं। आपको क्या लगता है कि हिंदी भाषा, साहित्य और संस्कृति के संरक्षण-संवर्धन में सरकारी संस्थाओं की कितनी कारगर भूमिका हो सकती है?

मैत्रेयी पुष्पा: सभी सरकारी संस्थाएं अपने उद्देश्य की पूर्ति की दिशा में कारगर भूमिका निभाने के लिए ही स्थापित की जाती हैं। इसके लिए भवन, योजनाएं और बजट दिया जाता है। हिंदी भाषा, साहित्य और संस्कृति के संरक्षण-संवर्धन के लिए स्थापित सभी संस्थाएं भी इसी उद्देश्य से स्थापित की जाती हैं कि इससे भाषा, साहित्य का विकास होगा, जनता के बीच में साहित्य-संस्कृति के प्रति लगाव बढ़ेगा और समाज में नई चेतना आएगी। लेकिन संस्थाओं से जुड़े लोगों की मनुष्यगत कमजोरियां और प्रवृत्तियां भी अपना काम करती हैं। आमतौर पर लोग आसान रास्ते को अपनाना चाहते हैं, अपने हित साधने लगते हैं। इसी के चलते ऐसी संस्थाएं अपनी उस भूमिका को कई बार नहीं निभा पातीं, जिसके लिए उन्हें स्थापित किया गया होता है। तो कहने का मतलब है कि किसी भी सरकारी संस्था को स्थापित करते समय तो यही अपेक्षा की जाती है कि वो पूरी श्रद्धा से अपने दायित्व निभाएगी लेकिन उससे संबद्ध कुछ लोगों की कार्यशैली की वजह से ऐसा नहीं हो पाता है।



विज्ञान :क्या आप मानती हैं कि इस उद्देश्य से स्थापित सभी संस्थाएं अपनी भूमिका पूरी गंभीरता से निभा रही हैं?

मैत्रेयी पुष्पा: जैसा मैंने पहले कहा कि संस्था से जुड़े कुछ लोग जब उस संस्था के उद्देश्य और प्रतिबद्धता के बजाय अपने स्वार्थ, अपने लोभ में लग जाते हैं, तो उस संस्था की साख में दीमक लगने लगती है। ऐसा नहीं है कि सभी संस्थाओं में दुर्गुण फैल जाते हैं। उसमें कई लोग अच्छा काम भी करते हैं। लेकिन जहां तक मेरे देखने में आया है तो बहुत मुश्किल से ही कोई ऐसी संस्था दिखाई देती है, जो पूरी ईमानदारी, विश्वसनीयता और प्रतिबद्धता से अपना काम करती है। मैं किसी एक संस्था की बात नहीं करती देश भर के कई संस्थानों में यह देखने में आता है। बड़े-बड़े प्रतिष्ठित संस्थानों द्वारा भी पक्षपात किया जाता है, उपेक्षाएं की जाती हैं। इससे ज्यादा अनाचार और क्या होगा कि साहित्य-संस्कृति से जुड़ी ऐसी संस्थाएं सिफारिश, दलाली के झांसों में आकर गलत काम करती हैं। वरिष्ठ को उपेक्षित कर, अपने जानने वालों को सम्मानित करते हैं, ओबेलाइज करते हैं।



विज्ञान :संस्थाओं के जरिए कुछ खास और अपने पहचान वालों को लाभ पहुंचाने के पीछे किस तरह की मानसिकता काम करती है?

मैत्रेयी पुष्पा: सबसे बड़ा सवाल ईमानदारी का होता है। और आज के दौर में अगर सबसे कठिन कोई काम है तो वह ईमानदार आदमी को खोजना ही है। इससे भी बड़ी विडंबना तो यह है कि अपनी रचनाओं में ईमानदारी, सम्मान और मनुष्यता के पक्ष में हमेशा खड़े रहने की बात करने वाले साहित्यकार भी इस तरह के अनैतिक कामों में सक्रिय दिखते हैं। यानी वो जिस तरह की बातें अपने लेखन में करते हैं, उसे ही अपनी कर्तव्य के द्वारा खारिज करते हैं। यह तो मनुष्यगत विरोधाभास ही कहा जाएगा। लोभ, व्यक्तिगत लाभ, आलस्य जैसी कमजोरियों से न उबर पाना और ईमानदारी पर कायम न रह पाने के कारण ही बड़े उद्देश्यों को लेकर स्थापित की गई संस्थाओं की छवि खराब होती है।



विज्ञान : हिंदी अकादमी के उपाध्यक्ष के तौर पर आपकी प्राथमिकताएं क्या होंगी? किन प्रमुख योजनाओं पर आप विशेष रूप से कार्य करेंगी?

मैत्रेयी पुष्पा: अकादमी की कार्यशैली में ईमानदारी को हर स्तर पर कायम करना मेरी पहली प्राथमिकता होगी। बात चाहे संस्था द्वारा दिए जाने वाले सम्मान की हो, अनुदान के द्वारा लेखकों को पुस्तक प्रकाशित करने में प्रोत्साहित की हो या फिर संस्था के मंच से कोई एक रचना पाठ करने की ही हो, मैं पूरी तरह से निष्पक्ष और उचित ढंग से कार्य करूंगी। मैं कई ऐसे वरिष्ठ लेखकों को जानती हूं, जो स्वयं सक्षम होते हुए भी संस्थाओं द्वारा अनुदान लेकर अपनी पुस्तकें छपवाते हैं। ऐसा करना किसी नए आर्थिक रूप से कमजोर लेकिन प्रतिभावान रचनाकार का हक मारने जैसा है। मेरे कार्यकाल में ऐसा न हो, इसकी पूरी कोशिश करूंगी। योग्य को उपेक्षित करना भी अनाचार है। संस्था की गरिमा को बनाए रखने के लिए, उसकी विश्वसनीयता को कायम रखने का भरसक प्रयास करूंगी।



विज्ञान :यानी हम मान लें कि जिस तरह आपकी कहानियों, उपन्यास के पात्र, अव्यवस्था, विद्रूप के विरुद्ध मसाल लेकर खड़े हो जाते हैं, कुछ उसी तरह आप अपनी सीमाओं में रहकर इस पद पर कार्य करेंगी?

मैत्रेयी पुष्पा: बिल्कुल! मेरी कहानियों और उपन्यासों में पात्र सिर्फ आदर्शों की बात नहीं करते जमीनी तौर पर अव्यवस्था का विरोध भी करते हैं। वो सब पात्र मेरी कलम से ही तो निकले हैं। पात्र जब बदलाव की बात करते रहे हैं तो अब मुझे ऐसा करना ही होगा। जो अवसर मुझे मिला है, उसे पूरी ईमानदारी-प्रतिबद्धता से निभाऊं, इसकी पूरी कोशिश करूंगी। हालांकि यह एक सरकारी संस्था है, इसमें सरकार का भी दखल होगा लेकिन  चूंकि यह दायित्व उन्होंने मुझे स्वयं दिया है। मैंने इसके लिए कोई सिफारिश नहीं की, न ही उनसे मांगा। तो मैं पूरी निष्पक्षता और निर्भीकता से काम करूंगी। किसी भी कीमत पर बेईमानी, अनैतिकता नहीं चलने दूंगी।

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