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राज़ हैं पुस्तकों के संस्करण में — अनंत विजय @anantvijay


राज़ हैं पुस्तकों के संस्करण में   — अनंत विजय @anantvijay


Hindi Upanyas aadi aur Uske Sanskaran — Anant Vijay


जिस समय में आंकड़ों पर ही सब तय होता है वहीँ आज भी हिंदी में प्रकाशित साहित्यिक पुस्तकों के प्रकाशन और बिक्री दोनों के आंकड़े हरीसन ताले में बंद रखे जाते हैं... अब अगर आप के मन में यह सवाल उठता है कि ऐसा क्यों है तो आप क्या करेंगे? शशश.... इस जगत में ऐसे सवाल नहीं किये जाते आप चुपचाप अनंत विजय का लेख पढ़िए और स्वस्थ्य रहिये. और सुनिए ... एक बार ऊपर जो कार्टून है उसे दोबारा देखें और मुस्कुरा दें.


भरत तिवारी

प्रकाशन जगत में पारदर्शिता कब ?

पिछले दिनों युवा कथाकार पंकज सुबीर ने फेसबुक पर ये सूचना साझा कि उनके उपन्यास ‘अकाल में उत्सव’ का दूसरा संस्करण प्रकाशित हो गया । वो इस बात को लेकर भावुक हो रहे थे कि इस साल जनवरी में प्रकाशित उनके उपन्यास का मई आते-आते यानी पांच महीने में ही दूसरा संस्करण प्रकाशित हो गया । परंतु पंकज ने अपनी उक्त सूचना में प्रथम संस्करण की प्रतियों का जिक्र नहीं किया अगर वो पहले संस्करण की बिकी हुई प्रतियों का जिक्र कर देते तो हिंदी प्रेमियों को संतोष होता । हिंदी प्रेमियों को संतोष तो इस बात से भी होगा कि पांच महीने में उपन्यास का दूसरा संस्करण छप कर आ गया । हिंदी प्रकाशन जगत में अब संस्करणों की संख्या तीन सौ से लेकर पांच सौ तक की होने लगी है । इसकी बड़ी वजह तकनीक की सहूलियत और गोदामों में रखने की जगह की किल्लत भी हो सकती है । इस लेख का विषय पंकज सुबीर के उपन्यास के संस्करणों की संख्या को विश्लेषित करना नहीं है बल्कि उसके माध्यम से इस बात पर चर्चा करना है कि हिंदी में साहित्यिक कृतियों के संस्करणों की संख्या कम क्यों होती जा रही है । अगर हम कविता संग्रहों पर बात करें तो अस्सी फीसदी से ज्यादा कविता संग्रह लेखकों के खुद के प्रयास से छप रहे हैं । प्रकाशक अपना ब्रांड भर देते हैं और बाकी लेखक का होता है । कहानी और उपन्यासों की स्थिति कविता से थोड़ी बेहतर है परंतु बड़े दावे करनेवाले प्रकाशक भी इस बात को जानते हैं कि पांच संस्करण या दस संस्करण का मतलब डेढ दो हजार प्रतियां ही है । यह भी चिंता की बात है कि अंग्रेजी के जो प्रकाशक हिंदी प्रकाशन के क्षेत्र में उतरे हैं वो कविता की किताबें इतनी कम क्यों छाप रहे हैं ।

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अब एक नई तरह की प्रवृत्ति देखने को मिल रही है । एक नया प्रकाशक बाजार में पांव जमाने की कोशिश कर रहा है नाम है जगरनॉट । ये पहले किताबों को ई बुक्स में सामने लाने की योजना पर अमल कर रहा है और उसके बाद उसको पुस्तक के तौर पर बाजार में पेश करेगा । पिछले दिनों इसकी शुरुआत मशहूर फिल्म अभिनेत्री सनी लियोनी की कहानियों से हुई थी । जगरनॉट हिंदी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं में पुस्तकें प्रकाशित करने के लिए लेखकों से संपर्क कर रहा है । लेखकों को उनकी कृतियों के लिए अग्रिम धनराशि भी दे रहा है और मनपसंद विषय पर किताबें लिखवा भी रहा है । सनी लियोनी से शुरुआत करने वाले इस प्रकाशक की सोच है कि हल्की-फुल्की किताबें प्रकाशित की जाएं । इस सोच से ये संकेत मिलता है कि ऑनलाइन पाठकों की रुचियों पर उन्होंने कोई सर्वे किया होगा जिसमें उनको पता चला होगा कि पाठक हल्के-फुल्के रोमांटिक विषयों को पसंद कर रहा है लिहाजा उनका जोर इस तरह के विषयों के इर्द गिर्द ही दिखाई दे रहा है । हिंदी के कई लेखकों को भी जगरनॉट ने अग्रिम भुगतान का प्रस्ताव देकर मनपसंद विषय पर पुस्तकें लिखने का प्रस्ताव दिया है । अब यह प्रयोग कितना सफल हो पाता है यह देखनेवाली बात होगी । दरअसल हिंदी पाठकों के मन मिजाज को समझने के लिए गहन मेहनत की आवश्यकता है । हिंदी के पाठकों को याद होगा कि चंद सालों पहले रेनबो के नाम से एक प्रकाशक ने हिंदी के लेखकों को जमकर लुभाया था और कई बड़े नामों को अपने यहां से छापा था लेकिन आज रेनबो का हिंदी प्रकाशन जगत में कोई नामलेवा भी नहीं है । इसी तरह से अंग्रेजी के कुछ प्रकाशकों ने भी हिंदी में साहित्यिक कृतियों को छापने का उपक्रम किया था लेकिन उनके सलाहकारों ने ऐसे-ऐसे लेखकों की कृतियां छपवा दीं कि वो योजना परवान नहीं चढ़ सकीं । सवाल फिर वहीं है कि हिंदी प्रकाशन जगत में पारदर्शिता के लिए क्या किया जाना चाहिए ?

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पढ़ने और समझने में आया हो और कुछ कहने लायक स्थित में हों तो नीचे टिप्पणी कीजियेगा. 

लगा साहित्य में इंस्टैंट प्रसिद्धि का रोग — अनंत विजय @anantvijay


Hindi Literary Criticism  Vs  New Generation

Hindi Literary Criticism  Vs  New Generation

— Anant Vijay

आलोचना से बचती युवा पीढ़ी  — अनंत विजय


अभी पिछले दिनों एक अनौपचारिक साहित्यक गोष्ठी में एक लेखक मित्र ने कहा कि इन दिनों हिंदी के युवा लेखक बहुत जल्दबाजी में हैं और वो इंस्टैंट कॉफी और टू मिनट नूडल्स की तरह साहित्य की रचना कर रहे हैं । उनकी यह बात सोलह आने सच ना भी हो तो चौदह पंद्रह आने तो सही है ही । ज्यादातर युवा लेखक थोक के भाव से कहानियां और कविताएं लिख रहे हैं और उनकी चाहत मशहूर होने की भी होती है । साहित्य को अगर साधना कहा गया है तो उसके पीछे कोई ना कोई सोच रही होगी । अगर हम ये मान भी लें कि ये साधना जैसा कठिन कर्म नहीं भी है तो कम से कम श्रमसाध्य तो है ही । साहित्य को हल्के तरीके से नहीं लिया जा सकता है, यह एक बेहद गंभीरकर्म है और इसमें लेखकों को उनका दाय कभी उनके जीवन काल में मिल पाता है तो कभी मरणोपरांत ही उनके लेखन पर चर्चा हो पाती है । इन दिनों हमारे युवा लेखक लिखना शुरू करते ही चाहते हैं कि उनको साहित्य जगत में गंभीरता से लिया जाए और वो स्थान मिले जो उनके वरिष्ठों को हासिल है । यह अपेक्षा और महात्वाकांक्षा सही है लेकिन इसके लिए जितने प्रयास किए जाने चाहिए उतने दिखाई नहीं देते हैं । युवा लेखकों की इस महात्वाकांक्षा को परवान चढाया है कुछ वैसी पत्रिकाओं ने जो लेख की तरह कहानीकारों से कहानियां लिखवाते हैं । आठ सौ शब्दों में दे दीजिए, हजार शब्दों में दे दीजिए या ज्यादा से ज्यादा पंद्रह सौ शब्दों की कहानी होनी चाहिए । पत्रिकाओं की मजबूरी हो सकती है लेकिन लेखकों की क्या मजबूरी है, ये समझ से परे हैं । जब लेखकों की रचनाओं और उसकी कल्पना को शब्द संख्या में बांधा जाने लगे और लेखक उसको स्वीकार भी करने लगे तो माना जाना चाहिए कि साहित्य के सामने संकट काल है । कई युवा लेखकों ने मुझे बताया कि अमुक पत्रिका ने उनसे उतने शब्दों में कहानी मांगी और हमने फौरन उनको लिखकर दे दिया । गोया कहानी ना हो किसी समसमायिक विषय पर लेख हो । जरूरत इस बात की है कि साहित्य को इंस्टैंट प्रसिद्धि की चाहत के इस रोग से मुक्त किया जाए ।

Anant Vijay अनंत विजय
दूसरी बात जो समकालीन साहित्य में रेखांकित की जानी चाहिए वो है युवा लेखकों का अपने साथी लेखकों की रचनाओं पर टिप्पणी करने से बचना । मौखिक या फेसबुकिया टिप्पणियां यदा कदा देखने को मिल जाती है लेकिन ज्यादातर युवा लेखक अपने समकालीनों पर लेख आदि लिखने से बचते हैं । इसका एक नुकसान यह होता है कि नई सोच सामने आने से रह जाती है । नए विमर्श को स्थान नहीं मिलता है । मोहन राकेश, कमलेश्वर और राजेन्द्र यादव का जब कहानी की दुनिया में डंका बज रहा था तो सभी एक दूसरे की रचनाओं पर लिख रहे थे । उसका लाभ तीनों को मिला था और वो लगातार चर्चा में बने रहे थे । युवा लेखक क्यों नहीं अपने साथियों पर गंभीरता से लिखते हैं इसका विश्लेषण किया जाना चाहिए । ऐसा प्रतीत होता है कि युवा पीढ़ी अपने साथियों पर आलोचनात्मक टिप्पणियों से बचना चाहती है । तू पंत, मैं निराला जैसी टिप्पणियां तो यदा कदा देखने को मिल जाती हैं पर किसी रचना को आलोचना की कसौटी पर उसके औजारों से कसता हुए लेख दुर्लभ है । यह सही है कि हिंदी में आलोचनात्मक टिप्पणियों का असर व्यक्ति संबंधों पर पड़ता है लेकिन क्या बिगाड़ के डर से ईमान की बात नहीं कही जानी चाहिए । 
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नाटक लेखन पर भारी इंस्टैंट प्रसिद्धि की चाहत —अनंत विजय @anantvijay


नाटक लेखन पर भारी इंस्टैंट प्रसिद्धि की चाहत —अनंत विजय @anantvijay

Hindi drama writing, an Art form getting extinct. 

— Anant Vijay

इंदिरा दांगी के नाटक 'आचार्य' से मेरा जुड़ाव आत्मीय है, वो ऐसे कि इसके लिखे जाते समय इंदिरा और मेरी नाटक पर चर्चा होती रहती थी, कुछेक चरित्रों (मदिरा सेन) में शायद मैंने अपनी सलाह दी थी, जिसे नाटक ने ग्रहण भी किया.  'आचार्य' में इंदिरा दांगी ने इस समय की वास्तविकता को दर्ज किये जाने का जो काम किया है वह हमसे शायद ही रेखांकित हो सके, यह मानके चल रहा हूँ कि भविष्य इससे इतिहास पढ़ेगा.

बहरहाल समीक्षक मित्र अनंत विजय ने अपने ताज़े लेख में यह बड़ी उल्लेखनीय बात कही है —
"इंस्टैंट प्रसिद्धि की चाहत में नई पीढ़ी के लेखकों में उतना धैर्य नहीं है कि वो नाटक जैसी विधा, जो कि वक्त, श्रम और शोध तीनों की मांग करती है, पर अपना फोकस करें । जितनी देर में एक नाटक लिखा जाएगा उतनी देर में तो दर्जनों कविताएँ और चार छह कहानियां लिख कर हिंदी साहित्य को उपकृत किया जा सकता है । आज के दौर के स्टार युवा लेखकों में नाटक लिखने और उसको साधने का ना तो धैर्य दिखाई देता है और ना ही हुनर । नाट्य लेखन आज के दौर में लिखे जा रहे कविता और कहानी की तरह सहज नहीं है । नाटक लेखन करते वक्त लेखकों को अभिनय, संगीत, नृत्य के अलावा अन्य दृश्यकलाओं के बारे में ज्ञान होना आवश्यक है । इस ज्ञान के लिए बेहद श्रम की जरूरत है क्योंकि जिस तरह से हमारे समाज की स्थितियां जटिल से जटिलतर होती जा रही हैं उसको नाटक के रूप में प्रस्तुत कर दर्शकों को अपनी बात संप्रेषित करना एक बड़ी चुनौती है ।"

सही कहते हैं अनंत जिस धैर्यता की मांग साहित्य करता है वह बड़ी द्रुतगति से कम होती जा रही है. तुरंत प्रसिद्धि की और सोशल मिडिया पर चमकने की चाहतें साहित्य और साहित्यकार दोनों के लिए ही नुकसानदायक हैं.  सोशल मीडिया वरदान हो जाए यदि हमारी सोच से — वह मुझसे ज़्यादा पॉप्युलर (क्यों) है — निकल जाए!


भरत तिवारी


खत्म होती विधा को संजीवनी 

अनंत विजय 


हिंदी साहित्य में कई ऐसी विधाएं हैं जो वक्त के साथ साथ हाशिए पर चली गई जैसे तकनीक के फैलाव ने पत्र साहित्य का लगभग खात्मा कर दिया है । एक जमाना था जब साहित्यकारों के पत्रों के संकलन नियमित अंतराल पर छपा करते थे और उन संकलनों से उस दौर का इतिहास बनता था । उदाहरण के तौर पर अगर देखें तो भदन्त आनंद कौसल्यायन कृत ‘भिक्षु के पत्र’ जो आजादी पूर्व उन्नीस सौ चालीस में छपा था, काफी अहम है । उसके बाद तो हिंदी साहित्य में पत्र साहित्य की लंबी परंपरा है । जेल से लिखे जवाहरलाल नेहरू के इंदिरा गांधी के नाम पत्र तो काफी लोकप्रिय हुए । जानकी वल्लभ शास्त्री ने निराला के पत्र संपादित किए तो हरिवंश राय बच्चन ने पंत के दो सौ पत्रों को संकलित किया । नेमिचंद्र जैन ने मुक्तिबोध के पत्रों को पाया पत्र तुम्हारा के नाम से संकलित किया जो समकालीन हिंदी साहित्य की धरोहर हैं । हिंदी पत्र साहित्य के विकास में साहित्यिक पत्रिका सरस्वती, माधुरी, ज्ञानोदय, साप्ताहिक हिन्दुस्तान आदि का अहम योगदान है । चांद पत्रिका का पत्रांक तो साहित्य की वैसी धरोहर जिसे हर साहित्य प्रेमी सहेजना चाहता है ।

इसी तरह से अगर हम देखें तो हिंदी साहित्य में नाटक लिखने का चलन लगभग खत्म सा हो गया है । साहित्य की हाहाकारी नई पीढ़ी, जो अपने लेखन पर जरा भी विपरीत टिप्पणी नहीं सुन सकती, का नाटक की ओर झुकाव तो दिखता ही नहीं है । कविता लिखना बेहद आसान है, उसके मुकाबले कहानी लेखन थोड़ा ज्यादा श्रम की मांग करता है । नाटक में सबसे ज्यादा मेहनत की आवश्यकता होती है । इंस्टैंट प्रसिद्धि की चाहत में नई पीढ़ी के लेखकों में उतना धैर्य नहीं है कि वो नाटक जैसी विधा, जो कि वक्त, श्रम और शोध तीनों की मांग करती है, पर अपना फोकस करें । जितनी देर में एक नाटक लिखा जाएगा उतनी देर में तो दर्जनों कविताएँ और चार छह कहानियां लिख कर हिंदी साहित्य को उपकृत किया जा सकता है । आज के दौर के स्टार युवा लेखकों में नाटक लिखने और उसको साधने का ना तो धैर्य दिखाई देता है और ना ही हुनर । नाट्य लेखन आज के दौर में लिखे जा रहे कविता और कहानी की तरह सहज नहीं है । नाटक लेखन करते वक्त लेखकों को अभिनय, संगीत, नृत्य के अलावा अन्य दृश्यकलाओं के बारे में ज्ञान होना आवश्यक है । इस ज्ञान के लिए बेहद श्रम की जरूरत है क्योंकि जिस तरह से हमारे समाज की स्थितियां जटिल से जटिलतर होती जा रही हैं उसको नाटक के रूप में प्रस्तुत कर दर्शकों को अपनी बात संप्रेषित करना एक बड़ी चुनौती है । नाटक लेखन का संबंध नाटक मंडलियों से भी है क्योंकि श्रेष्ठ नाटक मंडली का अभाव नाट्य लेखन को निरुत्साहित करता है । मंचन में नए नए प्रयोगों के अभाव ने भी नाट्य लेखन को प्रभावित किया है । मोहन राकेश के नाटकों के बाद संभवतः पहली बार ऐसा हुआ कि हिंदी का नाट्य लेखन पराजय, हताशा और निराशा के दौर से बाहर आकर संघर्ष से परास्त होते आम आदमी को हिम्मत बंधाने लगा । हिंदी साहित्य में उन्नीस सौ साठ के बाद जिस तरह से मोहभंग का दौर दिखाई देता है उससे नाट्य लेखन भी अछूता नहीं रहा । इस दौर में लिखे गए नाटक मानवीय संबंधों की अर्थहीनता को उजागर करते हुए जीवन के पुराने गणितीय फार्मूले को ध्वस्त करने लगा । इनमें सुरेन्द्र वर्मा का नाटक द्रौपदी, मुद्रा राक्षस का सन्तोला, कमलेश्वर की अधूरी आवाज, शंकर शेष का घरौंदा से लेकर मन्नू भंडारी का बिना दीवारों के घर प्रमुख हैं । इसके अलावा हम भीष्म साहनी के कबिरा खड़ा बाजार में, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना के नाटक बकरी और रमेश उपाध्याय के नाटक पेपरवेट को नहीं भुला सकते । इसके बाद एक और प्रवृत्ति देखने को मिली । अच्छे साहित्य को जनता तक पहुंचाने के लिए मशहूर उपन्यासों और कहानियों का नाट्य रूपांतर होने लगा । मन्नू भंडारी के महाभोज का नाट्य रूपांतर काफी लोकप्रिय है । बाद में विदेशी नाटकों के अनुवाद भी होने लगे जिसमें भारतीय परिवेश का छौंक लगाकर स्थानीय दर्शकों को जोड़ने की शुरुआत हुई । इसी दौर में शेक्सपीयर, ब्रेख्त, कैरल, चैपर आदि के नाटकों का अनुवाद हुआ था । रघुवीर सहाय ने तो शेक्सपीयर के नाटक मैकबेथ का हिंदी अनुवाद बरनम वन के नाम से किया था । अन्य भारतीय भाषाओं के लेखकों के हिंदी अनुवाद भी होने लगे । बादल सरकार, गिरीश कर्नाड, विजय तेंदुलकर आदि के अनुवाद खूब पसंद किए गए । इन सभी देसी विदेशी नाटकों ने हिंदी नाटक को नई दिशा तो दी है उसको नई दृष्टि से भी संपन्न किया । लेकिन अनुवादों के इस दौर ने भी हिंदी में नाटक लेखन को हतोत्साहित किया । लंबे वक्त बाद असगर वजाहत का नाटक जिस लाहौर नइ देख्या ओ जम्याइ नइ- छपा तो हिंदीजगत में धूम मच गई।

अभी हाल ही में लमही पत्रिका में हिंदी की युवा लेखिका इंदिरा दांगी का नाटक आचार्य छपा है । सबसे पहले तो इस युवा लेखिका की इस बात के लिए दाद देनी चाहिए उसने इस दौर में कहानी और उपन्यास लेखन के अलावा नाटक लिखा । इंदिरा दांगी अपने दौर की सर्वाधिक चर्चित लेखिका है और उसको कलमकार कहानी पुरस्कार से लेकर साहित्य अकादमी का युवा पुरस्कार मिल चुका है । इंदिरा दांगी के इस उपन्यास को पढ़ते हुए पाठकों के सामने हिंदी साहित्य का पूरा परिदृश्य आपकी आंखों के सामने उपस्थित हो जाता है । यह पूरा नाटक एक साहित्यिक पत्रिका के संपादक विदुर दास और युवा लेखिका रोशनी के इर्द-गिर्द चलती है । इस नाटक का ओपनिंग सीन अंधकार से शुरू होता है जहां नायिका रोशनी आती है और बहुत ही बेसिक से सवाल उठाती है कि साहित्य क्या होता है । जरा संवाद पर नजर डालते हैं – साहित्य क्या होता है ? क्या जिसमें सहित का भाव निहित हो वही साहित्य है ? फिर हंसी । यही तो असली नब्ज है, सरकार सहित । प्रशंसा और प्रशंसकों से शुरू ये कोरा सफर विदेश यात्राओं, मोटी स्कॉलरशिप, हल्के-वजनी अवॉर्डों और हिंदी प्रोफेसर की नौकरी से लेकर अकादमी अध्यक्ष पदों की नपुंसक कर देनेवाली कुर्सियों तक पहुंचते-पहुंचते कितना कुछ सहित ‘लादता’ चला जाता है । उन्हें कृपया ना गिनें । लिखनेवाले का ‘लेखिका होना एक दूसरा ही टूल है सफलता का जिसका प्रयोग हर भाषा, हर काल, हर साहित्य में यकीनन बहुतों ने किया होगा और बहुतों को करना बाकी है । तौबा । इसके बाद नायिका मुंह पर हाथ रखती है और सयानपन से मुस्कुराते हुए कहती है स्त्री विरोधी बात ।

अब इस पहले दृश्य को ही लीजिए तो ये नाटक आज के दौर को उघाड़कर रख देता है । इंदिरा दांगी ने जिस तरह के शब्दों का प्रयोग किया है वो इस दौर पर एक तल्ख टिप्पणी है । स्त्री विरोधी बात कहकर जिसको उसकी नायिका मुंह पर हथेली रख लेती है वो एक बड़ी प्रवृत्ति की ओर इशारा करती है । ये प्रवृत्ति कितनी मुखर होती चली जाती है ये नाटक के दृश्यों के आगे बढ़ते जाने के बाद साफ होती गई है । जब वो कहती है कि लिखनेवाला का लेखिका होना एक टूल है जिसका इस्तेमाल होता है तो वो साहित्य के स्याह पक्ष पर चोट करती है । इसी तरह से शोधवृत्ति से लेकर प्रोफेसरी तक की रेवड़ी बांटे जाने पर पहले ही सीन में करार प्रहार है । अकादमी अध्यक्ष पद की नपुंसक कर देनेवाली कुर्सी से भी लेखिका ने देशभर की अकादमियों के कामकाज पर टिप्पणी की है । इस नाटक को पढ़नेवालों को ये लग सकता है कि यहां एक मशहूर पत्रिका का संपादक मौजूद है, साथ ही मौजूद है उसकी चौकड़ी भी । लेकिन इस नाटक के संपादक को किसी खास संपादक या इसके पात्रों को किसी लेखक लेखिका से जोड़ कर देखना गलत होगा । इस तरह के पात्र हिंदी साहित्य में यत्र तत्र सर्वत्र बिखरे पड़े हैं । जरूरत सिर्फ नजर उठाकर देखने की है । नाट्य लेखन के बारे में मेरा ज्ञान सीमित है लेकिन अपने उस सीमित ज्ञान के आधार पर मैं कह सकता हूं इंदिरा दांगी के इस नाटक में काफी संभावनाएँ हैं और इसके मंचन से इसको और सफलता मिल सकती है । फिलहाल साहित्य के कर्ताधर्ताओं को इस ओर ध्यान देना चाहिए कि एक बिल्कुल युवा लेखिका ने एक लगभग समाप्त होती विधा को जिंदा करने की पहल की है । अगर उसको सफलता मिलती है तो इस विधा को भी संजीवनी मिल सकती है । कुछ और युवा लेखक इस विधा की ओर आकर्षित हो सकते हैं । अगर ऐसा हो पाता है तो हम अपनी एक समृद्ध विरासत को संरक्षित करने में कामयाब हो सकेंगे ।  
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बिहार के कहानीकार रेणु के ढर्रे @anantvijay on contemporary Hindi literature


बिहार के कहानीकार रेणु के ढर्रे पर.. @anantvijay on contemporary Hindi literature

कहानीकार के रूप का वर्तमान 

अनंत विजय 

आख़िर हिंदी का कहानीकार वर्तमान से अपनी दूरी को क्यों कम नहीं करता ? क्यों पुराने के मोह से जुड़ा वह वही दोहराने पर तुला रहता है ? अनंत विजय बता रहे हैं कि समय बदल गया है लेकिन हिंदी के अधिकतर कहानीकार नहीं ! कुछ अपवाद हैं आशा है कि नयी पीढ़ी उन्हें देखेगी और नया लिखेगी ... 
भरत तिवारी 


हिंदी कहानी क्यों दूर पाठक ?

समय बदल गया, समाज बदल गया, भाषा बदल गई, लोगों के मन मिजाज बदल गए लेकिन हिंदी उसके चाल में नहीं ढल पाई

चंद दिनों पहले एक कहानीकार मित्र ने पूछा कि आज कैसी कहानी लिखी जानी चाहिए ताकि पाठकों को पसंद आए । पाठकों को ध्यान में रखकर कहानीकी बात पूछी गई तो मैं चौका क्योंकि हिंदी कहानीकारों ने लंबे अरसे तक पाठकों की रुचियों का ध्यान ही नहीं रखा । यथार्थ के नाम पर नारेबाजी आदि जैसा कुछ लिखकर उसको कहानी के तौर पर पेश ही नहीं किया बल्कि अपने कॉमरेड आलोचकों से प्रशंसा भी हासिल की । हिंदी कहानी के पाठकों से दूर होने की अन्य वजहें के साथ साथ ये भी एक वजह है । हिंदी कहानी में आज कई पीढ़ियां सक्रिय हैं एक छोर पर कृष्णा सोबती हैं तो दूसरे छोर पर उपासना जैसी एकदम नवोदित लेखिका है । इस लिहाज से देखें तो हिंदी कहानी का परिदृश्य एकदम से भरा पूरा लगता है । बावजूद इसके हिंदी कहानी से पाठकों का मोहभंग होने की चर्चा बहुधा होती रहती है । दरअसल कहानी और हिंदी दोनों उसी शास्त्रीयता का शिकार हो गई । समय बदल गया, समाज बदल गया, भाषा बदल गई, लोगों के मन मिजाज बदल गए लेकिन हिंदी उसके चाल में नहीं ढल पाई । जब मैं हिंदी के उस चाल में ढलने की बात करता हूं तो उसकी शुद्धता को लेकर कोई सवाल नहीं उठाता है लेकिन जिस तरह से परंपराएं बदलती हैं उसी तरह से शब्द भी अपना चोला उतारकर नया चोला धारण करते हैं । जैसे सरिता नदी हो गई, जल पानी हो गया, व्योम आकाश हो गया । अब भी हिंदी में एक प्रजाति मौजूद है जो कि इसकी शुद्धता और अपनी पुरातनता के साथ मौजूद रहने की जिद्द पाले बैठे हैं । वो गलत कर रहे हैं ऐसा नहीं कहा जा सकता है लेकिन समय के साथ नहीं बदलने की ये जिद उनकी संख्या को कम करती जा रही है । इसी तरह के कहानी ने आजमाए हुए सफलता के ढर्रे को नहीं छोडा । जब भी कहानी ने अलग राह बनाई तो लोगों ने उसको खासा पसंद किया और वो लोकप्रिय भी हुआ ।

बिहार के कहानीकार रेणु के ढर्रे पर चल रहे हैं

दरअसल कहानी के साथ दिक्कत ये हुई कि वो प्रेमचंद और रेणु के प्रभाव से मुक्त नहीं हो पाई । खासकर बिहार के कहानीकार तो रेणु के ही ढर्रे पर चल रहे हैं । रेणु जिस जमाने में कहानियां लिख रहे थे उस दौर में वो अपने परिवेश को अपनी रचनाओं में उतार रहे थे । रेणु से अपने लेखन से कहानी की बनी बनाई लीक को छोडा भी था । रेणु की सफलता के बाद उनका अनुसरण करनेवालों को लगा कि कहानी लेखन का ये फॉर्मूला सफल है तो वो उसी राह पर चल पड़े । रेणु के अनुयायियों की एक बड़ी संख्या हिंदी कहानी में इस वक्त मौजूद है । इन अनुयायियों की भाषा भी रेणु के जमाने की है, उनके पात्र  भी लगभग वही बोली भाषा बोलते हैं जो रेणु के पात्र बोलते थे । आलोचकों को भी वही बोली भाषा सुहाती रही तो कहानीकारों का भी उत्साह बना रहा लेकिन वो इस बात को भांप नहीं पाए कि आलोचकों को सुहाती कहानियां उनको वृहत्तर पाठक वर्ग से दूर करती चली गई । अब ये जमाना थ्री जी से फोर जी में जाने को तैयार बैठा है और हिंदी कहानी के नायक नायिका तार के जरिए एक दूसरे से संवाद करेंगे तो पाठकों को तो ये अभिलेखागार की चीज लगेगी । अभिलेखागार में रखी वस्तुएं हमको अपने गौरवशाली अतीत पर हमें गर्व करने का अवसर तो देती हैं लेकिन साथ ही ये चुनौती भी देती हैं कि हमसे आगे निकल कर दिखाओ । हिंदी कहानी ने उस चुनौती को स्वीकार करने के बजाए उसका अनुसरण करना उचित समझा । हिंदी कहानी को अब ये समझना होगा कि उदारीकरण के दौर के बाद गांव के लोगों की आकांक्षाएं सातवें आसमान पर हैं । उनकी इस आकांक्षा को इंटरनेट और मोबाइल के विस्तार ने और हवा दी है । अब ग्रामीण परिवेश का पाठक अपने आसपास की चीजों के अलावा शहरी जीवन को जानना पढ़ना चाहता है । वो अपनी दिक्कतों और अपने यथार्थ से उब चुका है लिहाजा वो शहरी कहानियों की ओर जाना चाहता है । लेकिन हम अब भी उनको गांवों की घुट्टी ही पिलाने पर उतारू हैं । इस बात को हमारे हिंदी के ज्यादातर कहानीकार पकड़ नहीं पा रहे हैं । इसको चेतन भगत, रविन्द सिंह और पंकज दूबे जैसे लेखकों ने पकड़ा और गांव से शहर पहुंचनेवालों की कहानी लिखकर शोहरत हासिल की ।

कहानीकारों को भी भोगे हुए यथार्थ के लिखते ही कहानीकार का सर्टिफिकेट मिल जाता रहा है

बीच में कहानीकारों की एक पीढ़ी आई थी जिसने अपने नए अंदाज से पाठकों को अपनी ओर खींचा था । उसमें मृदुला गर्ग, चित्रा मुद्गल, नासिरा शर्मा, संजीव, सृंजय, अरुण प्रकाश, शिवमूर्ति, उदय प्रकाश आदि तो थे ही संजय खाती ने भी उम्मीद जगाई थी । पर पता नहीं किन वजहों से उनमें से कई कहानीकारों ने लिखना ही छोड़ दिया । पर अब का परिवेश तो उपरोक्त कथाकारों के दौर से भी आगे बढ़ गया है । हाल के दिनों में एक बार फिर से कुछ कहानीकारों ने अपनी कहानियों में रेणु की लीक से अलग हटने का साहस दिखाया है । समाज के बदलाव को अपनी कहानियों में पकड़ने की कोशिश की है । इन कहानीकारों मे गीताश्री का नाम अग्रणी है । उदय प्रकाश के बाद गीताश्री ने हिंदी कहानी को अपनी रचनाओं के माध्यम से झकझोरा है । गीताश्री की कहानी प्रार्थना के बाहर और गोरिल्ला प्यार दो ऐसी कहानियां हैं जिन्होंने हिंदी के पाठकों की रुचि के साथ कदमताल करने की कोशिश की है । जिस तरह से उदय प्रकाश ने पीली छतरीवाली लड़की में विश्वविद्यालय की राजनीति को उघाड़ा था उसी तरह से गीताश्री ने प्रार्थना के बाहर में महानगर में अपने सपनों को पूरा करनेवाली लड़की की आजादी की ख्वाहिश को उकेरा है । इसी तरह से अगर देखें तो गोरिल्ला प्यार में गीताश्री ने आज की पीढ़ी और समाज में आ रहे बदलाव और बेफिक्री को उजागर किया है । गीताश्री की कहानी में जिस तरह की भाषा को इस्तेमाल होता है वो हमें हमारी विरासत के साथ साथ आधुनिक होती हिन्दी की याद भी दिलाता है । एक तरफ तो उनके पात्र सोशल मीडिया की भाषा में संवाद करती है तो दूसरी तरफ बिंजली के फूल खिलने जैसे मुहावरे का प्रयोग भी करती हैं, जिसका सबसे पहले प्रयोग जयशंकर प्रसाद ने किया था लेकिन दोनों के संदर्भ अलग हैं और अलग अलग अर्थों में प्रयोग हुए हैं । गीताश्री अपनी कहानियों के माध्यम से शहर और ग्रामीण दोनों परिवेश में आवाजाही करती हैं लेकिन उनकी शहरी कहानियां पाठकों को ज्यादा पसंद आती हैं क्योंकि उसमे बदले हुए समय को पकड़ने की महीन कोशिश दिखाई देती है । इसी तरह से अगर हम देखें तो इंदिरा दांगी की कई कहानियों में भी समाज के बदलते हुए परिवेश को पकड़ने की कोशिश की गई है । इंदिरा दांगी की एक कहानी है – शहर की सुबह – उसमें भी शहरी जीवन और वहां रहनेवालों के मनोविज्ञान का बेहतर चित्रण है । जयश्री राय ने भी अपनी शुरुआती कहानियों से काफी उम्मीदें जगाईं थी । जयश्री राय की भाषा, कहानियों का प्लाट और नायिकाओं के साहसपूर्ण फैसले पाठकों को उन कहानियों की ओर आकर्षित कर रहे थे लेकिन जयश्री राय ने अपने लिए जो चौहद्दी बनाई उससे वो बाहर नहीं निकल पा रही हैं । उनमें संभावनाएं हैं लेकिन सफल कहानियों के फॉर्मूले से बाहर निकलकर आगे बढ़ना होगा । इसी तरह ये योगिता यादव ने भी अपनी कहानियों में नए प्रयोग किए हैं, भाषा के स्तर पर भी कथ्य के स्तर पर भी । योगिता यादव निरंतर लिख रही हैं और हिंदी कहानी को उनसे काफी उम्मीदें हैं । दो और कथाकारों ने अपनी काहनियों से मेरा ध्यान आकृष्ट किया – ये हैं राकेश तिवारी और पंकज सुबीर । राकेश तिवारी की कहानी मुकुटधारी चूहा गजब की कहानी है । वो इसके एक पात्र मुक्की के बहाने कथा का ऐसा वितान खड़ा करते हैं पाठक चकित रह जाता है । इसी तरह से महुआ घटवारिन लिखकर पंकज सुबीर ने हिंदी कहानी में अपनी उपस्थिति तो दर्ज कराई ही पाठकों के बीच भी उसको खासा पसंद किया गया । ये चंद नाम हैं हिंदी कहानी के जो अपने समय को पकड़ने में कामयाब हैं । हो सकता है कि इस तरह की कहानियां लिखनेवाले और लेखक होंगे । आवश्यकता इस बात की है कि आलोचकों और कहानी पर लिखनेवालों को भी इन कहानीकारों की पहचान कर उनको उत्साहित करना होगा । आलोचको को भी जंग लगे और भोथरा हो चुके मार्क्सवादी औजारों को अलग रखकर इन कहानियों पर विचार करना चाहिए । इससे भी ज्यादा जरूरी ये है कि आलोचकों को अपने लेखन में प्रगतिशील बेइमानी से बचना होगा क्योंकि ज्यादातर कहानीकारों ने उनकी वाहवाही हासिल करने के लिए ही विषयगत प्रयोग नहीं किए । जिस तरह से राजनीति में नरेन्द्र मोदी और संघ की आलोचना करते ही सेक्युलर होने का सर्टिफिकेट मिल जाता है उसी तरह से कहानीकारों को भी भोगे हुए यथार्थ के लिखते ही कहानीकार का सर्टिफिकेट मिल जाता रहा है । कहानी के हित में  इससे अलग हटने की आवश्यकता है ।
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अच्छी और बुरी कहानियों की पहचान @anantvijay | Bad Hindi Kahani


अच्छी और बुरी कहानियों की पहचान - अनंत विजय #शब्दांकन

कविता के बाद कहानी पर नजर

- अनंत विजय


अनंत विजय, नामवर सिंह की बात करते हुए बताते हैं कि नामवर जी ने एक बार कहा था – "हिंदी में अच्छी कहानियां नहीं लिखी जा रही हैं, यह चिंता का विषय नहीं है, बल्कि चिंता का विषय यह है कि उसमें अच्छी और बुरी कहानियों की पहचान लुप्त होती जा रही है..." उसके बाद वह लिखते हैं – "अब तो ये खतरा पैदा होने लगा है कि अच्छी कहानियां बुरी कहानियों दबा ना दें..." पाठकों ! मेरी समझ में जिस ख़तरे की बात अनंत कर रहे हैं वह ख़तरा पैदा हो चुका है और छुटभैया पत्रिकाओं से होता हुआ अब वह उन साहित्यिक पत्रिकाओं में प्रवेश पा चुका है, जिसके प्रवेशद्वार पर एक समय में संपादक स्वयं बैठा होता था. पहले भी हज़ारों कहानियाँ संपादक के पास आती रही हैं लेकिन वे कहानी हैं या नहीं-हैं यही संपादक और पत्रिका का मानक होता है - यह अनायास ही नहीं है कि हम राजेन्द्र यादव और रवीन्द्र कालिया जैसे संपादकों की कमी महसूस कर रहे हैं. अच्छा होगा कि हिंदी के संपादक, वापस संपादक बनें और पाठकों को अपनी पत्रिका और हिंदी साहित्य से दूर न होने दें

भरत तिवारी
   
कविता के बाद कहानी पर नजर

समकालीन साहित्यक परिदृश्य में इस बात को लेकर सभी पीढ़ी के लेखकों में मतैक्य है कि कविता भारी मात्रा में लिखी जा रही है । यह हिंदी साहित्य का सौभाग्य है कि कुंवर नारायण और केदारनाथ सिंह जैसे बुजुर्ग कवि अब भी रचनारत हैं वहीं बाबुषा कोहली जैसी एकदम युवा कवयित्री भी कविता कर्म में लगी है । किसी भी साहित्य के लिए ये बेहतर बात हो सकती है कि एक साथ करीब पांच पीढ़ियां कविकर्म में सक्रिय हैं । लेकिन जब हम कवियों की संख्या पर नजर डालते हैं तो एक अनुमान के मुताबिक इस वक्त करीब पंद्रह बीस हजार कवि एक साथ कविताएं लिख रहे हैं । इंटरनेट और सोशल मीडिया के विस्तार ने हिंदी में कवियों की एक नई पौध के साथ साथ एक नई फौज भी खड़ी कर दी है । जब देश में नब्बे के दशक में आर्थिक उदारीकरण का दौर शुरू हुआ था तो दिल्ली समेत देश के कई हिस्सों में मैनेजमेंट पढ़ानेवाले संस्थानों की भरमार हो गई थी । उस वक्त ये जुमला चलता था कि दिल्ली के भीड़भाड़ वाले बाजार, करोलबाग, में अगर पत्थरबाजी हो जाए तो हर दूसरा जख्मी शख्स एमबीए होगा । कहने का मतलब ये था कि उस वक्त एमबीए छात्रों का उत्पादन भारी संख्या में हो रहा था क्योंकि हर छोटी बड़ी कंपनी में मैनजमेंट के छात्रों की मांग बढ़ रही थी । मांग और आपूर्ति के बाजार के नियम को देखते हुए मैनजमेंट के कॉलेज खुलने लगे थे और उत्पाद की गुणवत्ता पर ध्यान नहीं गया था । नतीजा हम सबके सामने है । नब्बे के दशक के आखिरी वर्षों में पांच से छह हजार के मासिक वेतन पर एमबीए छात्र उपलब्ध थे । बाद में कुकुरमुत्ते की तरह उग आए मैनजमेंट के ये संस्थान धीरे-धीरे बंद होने लगे । सोशल मीडिया और इंटरनेट के फैलाव ने कविता का भी इस वक्त वही हाल कर दिया है । एमबीए छात्रों पर कहा जानेवाले जुमला कवियों पर लागू होने लगा है । साहित्यक गोष्ठियों में कहा जाने लगा है कि वहां उपस्थित हर दूसरा शख्स कवि है । दरअसल सोशल मीडिया ने इसको अराजक विस्तार दिया। साठ के दशक में जब लघु पत्रिकाओं का दौर शुरू हुआ तो कवियों को और जगह मिली लेकिन उनको पत्रिकाओं के संपादकों की नजरों से पास होने के बाद स्तरीयता के आधार पर ही प्रकाशित होने का सुख मिला था । कालांतर में लघु पत्रिकाओं का विस्तार हुआ और हर छोटा-बड़ा लेखक पत्रिका निकालने लगा । यह इंटरनेट का दौर नहीं था । साहित्यक रुझान वाले व्यक्ति की ख्वाहिश साहित्यक पत्रिका का संपादक बनने की हुई । ज्यादातर तो बने भी । चूंकि इस तरह की पत्रिकाओं के सामने आवर्तिता को कायम रखने की चुनौती नहीं होती थी और वो अनियतकालीन होती थी लिहाजा एक अंक निकालकर भी संपादक बनने का अवसर प्राप्त हो जाता था । संपादक को अपनी कविताएं अन्यत्र छपवाने में सहूलियत होने लगी । सत्तर से लेकर अस्सी के अंत तक सहूलियतों का दौर रहा । इक्कीसवीं सदी में जब इंटरनेट का फैलाव शुरु हुआ और फेसबुक और ब्लॉग ने जोर पकड़ा तो कवियों की आकांक्षा को पंख लग गए । संपादक की परीक्षा से गुजरकर छपने का अवरोध खत्म हो गया । हर कोई स्वयं की मर्जी का मालिक हो गया । जो लिखा वही पेश कर दिया । इस सुविधा ने कवियों की संख्या में बेतरह इजाफा कर दिया । एक बड़ी लाइन और फिर एक छोटी लाइन की कविता लिखने के फॉर्मूले पर कविता धड़ाधड़ सामने आने लगी । वरिष्ठ कवि नरेश सक्सेना ने अपने एक साक्षात्कार में कहा भी था कि - हिंदी कविता को लेकर एक तरीके का भ्रम व्याप्त है और इस भ्रम को वामपंथी आलोचकों ने बढ़ावा दिया । वामपंथी आलोचकों ने इस बात पर जोर दिया कि कथ्य महत्वपूर्ण है और शिल्प पर बात करना रूपवाद है । नरेश सक्सेना ने कहा था कि कथ्य तो कच्चा माल होता है और शिल्प के बिना कविता हो नहीं सकती । इन दिनों कविता का शिल्प छोटी बड़ी पंक्तियां हो गई हैं । नरेश सक्सेना के मुताबिक इन दिनों खराब कविताओं की भरमार है । वो साफ तौर पर कहते हैं कि बगैर शिल्प के कोई कला हो ही नहीं सकती है । वो कहते हैं कि सौंदर्य का भी एक शिल्प होता है । नरेश सक्सेना के मुताबिक इंटरनेट और सोशल मीडिया में कोई संपादक नहीं होता, वहां तो उपयोग करनेवाले स्वयं प्रकाशक होते हैं । प्रकाशन की इस सहूलियत और लोगों के लाइक की वजह से लिखने वाला भ्रम का शिकार हो जाता है ।  कवियों की संख्या में इजाफे की एक और वजह हिंदी साहित्य में दिए जानेवाले पुरस्कार हैं । कविता पर जिस तरह से थोक के भाव से छोटे बड़े, हजारी से लेकर लखटकिया पुरस्कार दिए जा रहे हैं उसने भी कविकर्म को बढ़ावा दिया । खैर ये तो रही कविता की बात लेकिन अब साहित्य में एक नई प्रवृत्ति सामने आ रही है ।

हिंदी के ज्यादातर कवियों में अब कहानी लिखने की आकांक्षा और महात्वाकांक्षा जाग्रत हो गई है । कविता के बाद अब कहानी पर कवियों की भीड़ बढ़ने लगी है । दरअसल इसके पीछे प्रसिद्धि की चाहत तो है ही इसके अलावा उनके सामने खुद को साबित करने की चुनौती भी है । कविता की दुनिया से कहानी में आकर उदय प्रकाश, संजय कुंदन, नीलेश रघुवंशी, सुंदर ठाकुर आदि ने अपनी जगह बनाई और प्रतिष्ठा अर्जित की । उदय प्रकाश ने तो एक के बाद एक बेहतरीन कहानियां लिखकर साहित्य जगत में विशिष्ठ स्थान बनाया । उनकी लंबी कहानियां उपन्यास के रूप में प्रकाशित होकर पुरस्कृत भी हुई । इसी तरह से संजय कुंदन ने भी पहले कविता की दुनिया में अपना मुकाम हासिल किया और फिर कहानी और उपन्यास लेखन तक पहुंचे । लेकिन पद्य के साथ साथ गद्य को साधना बेहद मुश्किल और जोखिम भरा काम है । हाल के दिनों में जिस तरह से फेसबुक आदि पर सक्रिय कविगण कहानी की ओर मुड़े हैं उससे कहानी का हाल भी कविता जैसा होने की आशंका पैदा हो गई है । लघु पत्रिकाओं के धड़ाधड़ छपने और बंद होने के दौर में नामवर सिंह ने एक बार कहा था – हिंदी में अच्छी कहानियां नहीं लिखी जा रही हैं, यह चिंता का विषय नहीं है, बल्कि चिंता का विषय यह है कि उसमें अच्छी और बुरी कहानियों की पहचान लुप्त होती जा रही है । नामवर जी की वो चिंता वाजिब थी । बल्कि अब तो ये खतरा पैदा होने लगा है कि अच्छी कहानियां बुरी कहानियों दबा ना दें । 

आज लिखी जा रही कहानियों को देखें तो दो तीन तरह की फॉर्मूलाबद्ध कहानियां आपको साफ तौर पर दिखाई देती हैं । एक तो उस तरह की कहानी बहुतायत में लिखी जा रही है जो बिल्कुल सपाट होती है । इन कहानियों में रिपोर्ताज और किस्सागोई के बीच का फर्क धूमिल हो गया है । भोगे हुए या देखे हुए यथार्थ को नाम पर घटना प्रधान कहानी पाठकों के सामने परोसी जा रही है जिसके अंत में जाकर पाठकों को चौंकाने की तकनीक का प्रयोग किया जा रहा है । इसके अलावा कुछ कहानियों में भाषा से चमत्कार पैदा करने की कोशिश की जाती हैं। ग्राम्य जीवन पर लिखनेवाले कहानीकार अब भी रेणु की भाषा के अनुकरण से आगे नहीं बढ़ पाए हैं । ग्राम्य जीवन चाहे कितना भी बदल गया हो हिंदी कहानी में गांव की बात आते ही भाषा रेणु के जमाने की हो जाती है । इस दोष के शिकार बहुधा वरिष्ठ कथाकार भी हो जा रहे हैं । सुरेन्द्र चौधरी ने एक जगह लिखा भी था कि – रचनाधर्मी कथाकार जीवन के गतिमान सत्य से अपने को जोड़ता हुआ नए सत्यों का निर्माण भी करता है । नए सत्यों के निर्माण पर कुछ लोग मुस्कुरा सकते हैं । उनके अनुसार सत्य का निर्माण तो वैज्ञानिकों का क्षेत्र है साहित्यकार का नहीं ।  सत्य के निर्माण से हमारा तात्पर्य भाव-संबंधों के निर्माण से है, वस्तु निर्माण से नहीं । रचनाधर्मी कथाकार समाज द्वारा गढ़े गए नए सत्यों से भावात्मक संबंध स्थापित करता हुआ उन्हें नए परिप्रेक्ष्य के योग्य बना देता है । सामयिकता का शाब्दिक रूप से पीछा करनेवाले लोग रचनाधर्मी नहीं होते ।‘ सुरेन्द्र चौधरी ने ये बातें काफी पहले कही थीं लेकिन आज भी वो मौजूं है । ग्राम्य जीवन से इतर भी देखें तो आज की कहानी में आधुनिकता के नाम पर वर्तमान का पीछा करते हुए कहानीकार लोकप्रिय बनने की चाहत में दिशाहीन होता चला जा रहा हैमानवीय संबंधों को नए सिरे से परिभाषित करने के चक्कर में ऊलजूलल लिखकर पाठकों और आलोचकों का ध्यान खींचने की जुगत शुरू हो गई है ।  जिसकी वजह से आज हिंदी कहानी के सामने पठनीयता का संकट खड़ा होने की आशंका बलवती हो गई है । दरअसल साहित्य में इस तरह के दौर आते जाते रहते हैं लेकिन इस बार ये दौर सोशल मीडिया के अराजक प्लेटफॉर्म की वजह से गंभीर खरते के तौर पर सामने है । यह देखना दिलचचस्प होगा कि अच्छी कहानी खुद को किस तरह से बचा पाती है ।
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थोक के भाव से छद्म पुरस्कार - अनंत विजय @anantvijay


थोक के भाव से छद्म पुरस्कार - अनंत विजय #शब्दांकन

हिंदी के ‘छद्म’ पुरस्कार

 - अनंत विजय


हिंदी के लेखकों को पद्म पुरस्कार तो कम मिलता है लेकिन यहां थोक के भाव से छद्म पुरस्कार बांटे जाते हैं । हिंदी में पुरस्कारों का लंबा इतिहास है और उतना ही लंबा अतीत उन पुरस्कारों में गड़बड़ियों का भी है । हिंदी में सरकारी पुरस्कारों में पसंदीदा लेखकों से लेकर अपने कैंप के लेखकों को पुरस्कार तो दिया ही जाता है लेकिन हिंदी में प्राइवेट संस्थाओं द्वारा दिए जानेवाले पुरस्कारों पर भी यदाकदा अंगुली उठती रही है । हिंदी साहित्य में पुरस्कारों का खेल इतना बढ़ा कि अब तो कई लोग व्यक्तिगत स्तर पर भी पुरस्कार बांटने लगे हैं । इन व्यक्तिगत पुरस्कारों में चयन समिति आदि की औपचारिकता का निर्वाह तो किया जाता है लेकिन ना तो उसमें पारदर्शिता होती है और ना ही चयन समिति के सदस्यों की अनुशंसाएं सामने आ पाती हैं । व्यक्तिगत स्तर पर दिए जानेवाले पुरस्कारों को लेकर बहुधा ये आजादी रहती है कि जिस वर्ष मन हुआ दिया जब मन नहीं हुआ तो नहीं दिया यानि कि साहित्य की आड़ में प्राइवेट लिमिटेड कंपनियों की तरह इसका संचालन किया जाता है । पिछले वर्ष कथा यूके का अंतराष्ट्रीय इंदु शर्मा कथा सम्मान नहीं दिया गया । कथा की बजाए गजल को सम्मानित किया । इस बात की कोई सूचना हिंदी जगत को नहीं है कि कथा पर दिया जाने वाला ये मशहूर सम्मान बंद हो गया या जारी रहेगा । हिंदी साहित्य जगत में इस पुरस्कार को लेकर खासी उत्सुकता रहती थी । इसी तरह से दो तीन साल तक सीता पुरस्कार दिया गया और फिर वो बंद होगा । सीता पुरस्कार के बंद होने के पीछे हिंदी साहित्य की राजनीति थी । उसको देनेवाले लोग चाहते थे कि पुरस्कार की साख बेहतर रहे लेकिन उसके निर्णयकों ने साख बढ़ाने की कोई कोशिश नहीं की थी ।

दरअसल ज्यादातर व्यक्तिगत पुरस्कार देनेवालों की मंशा खुद को साहित्य की चर्चा के केंद्र में रखने की भी होने लगी है । हिंदी के बहुत सारे पुरस्कार पिपासु लेखकों को किसी ना किसी तरह से कोई भी पुरस्कार हासिल करने की लालसा इस तरह के पुरस्कारों के लिए प्राणवायु का काम करती है । इन व्यक्तिगत पुरस्कारों में पांच हजार से लेकर ग्यारह हजार तक की राशि दी जाती है । कई बार तो सिर्फ शॉल और श्रीफल से काम चलाना पड़ता है । मध्यप्रदेश से दिया जानेवाले एक पुरस्कार तो बजाप्ता इसके लिए निविदा आमंत्रित करता है और लेखकों को एक निश्चित राशि के बैंक ड्राफ्ट के साथ आवेदन करने को कहता है । हद तो तब हो जाती है कि इन पुरस्कारों को हासिल करने के बाद लेखक उसको अपने परिचय में प्रतिष्ठापूर्वक शामिल करता है । इन दिनों हिंदी में युवा लेखकों को दिए जानेवाले पुरस्कारों की संख्या काफी है । इन युवा पुरस्कारों की अगर पड़ताल की जाए तो यह बात सामने आती है कि एक तो युवा की कोई तय उम्र सीमा नहीं होती है । पचास वर्ष की आयु को छू रहे लेखकों और लेखिकाओं को भी इससे पुरस्कृत कर उपकृत किया जाता है । इस बात पर हिंदी जगत में गंभीरता से विमर्श होना चाहिए कि किस पुरस्कार के पीछे मंशा क्या है । बातचीत में एक बार हिंदी के वरिष्ठ कहानीकार हृषिकेश सुलभ ने कहा था कि कई बार पुरस्कार देनेवालों की मंशा पुरस्कृत लेखक के बहाने से खुद को या फिर पुरस्कार को क्रेडिबिलिटी हासिल करना होता है । ह्रषीकेश सुलभ की ये बात सोलह आने सच लगती है । यहां वैसे पुरस्कार का नाम गिनाकर बेवजह विवाद खड़ा करना मकसद नहीं है लेकिन साहित्य से जुड़े लोग इस बात को अच्छी तरह से जानते हैं कि कौन सा पुरस्कार प्रदाता किस मंशा से पुरस्कार दे रहा है । क्या हम हिंदी के लोग इन छद्म पुरस्कारों को लेकर कभी विरोध कर पाएंगे ।

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साहित्य अकादमी पुरस्कार या लाइफटाइम अचीवमेंट - अनंत विजय


साहित्य अकादमी पुरस्कार या लाइफटाइम अचीवमेंट - अनंत विजय #शब्दांकन

सेक्लयुर चैंपियनों की असलियत !

- अनंत विजय




समाज सुधारक और धर्मनिरपेक्ष होने का तमगा...

हाल के दिनों में पूरे देश में दो मुद्दे की खासी चर्चा हुई । सबसे पहले तो लेखकों, फिल्मकारों और कलाकारों ने देशभर में असहिष्णुता का मुद्दा उठाकर खूब शोर-शराबा किया । असहिष्णुता पर मचे कोलाहल के उस दौर में कन्नड़ लेखक कालबुर्गी, कॉमरेड पानसरे आदि की हत्या के साथ साथ अखलाक की हत्या का भी मुद्दा उठाकर माहौल बनाने की कोशिश की गई थी । बिहार चुनाव में बीजेपी की हार के बाद असहिष्णुता का मुद्दा थोड़ा शांत पड़ गया था लेकिन गाहे बगाहे कोई ना कोई इसको उठाकर मुद्दा बनाने की फिराक में रहने लगा था । इस बीच हैदराबाद विश्वविद्यालय के छात्र रोहित वेमुल्ला की आत्महत्या में असहिष्णुता के मसीहाओं को फिर से एक बार सियासत की संभावना दिखी और वो जोर शोर से इसको दलित उत्पीड़न से जोड़कर शोर मचाने लगे । यह ठीक है कि लोकतंत्र में वैसी परिस्थितियां नहीं बननी चाहिए कि किसी को भी आत्महत्या जैसा कदम उठाने को मजहबूर होना पड़े । रोहित की मौत लोकतंत्र के चेहरे पर एक बदनुमा दाग है । लेकिन उससे भी ज्यादा व्यथित करनेवाली प्रवृत्ति है उसको भुनाने की कोशिश करना । उसपर सियासत करना । दलित और मुसलमानों को लेकर साहित्य और संस्कृति से जुड़े लोग खासे उत्तेजित हो जाते हैं । आक्रामक भी । लेकिन ये उनकी सियासत का हिस्सा है । वो दलितों और मुसलमानों को आगे करके अपनी चालें चलते हैं । इसका एक फायदा यह होता है कि आप समाज सुधारक और धर्मनिरपेक्ष होने का तमगा एक साथ हासिल कर लेते हैं । लेकिन जब दलितों और मुसलमानों के योगदान को रेखांकित या सम्मानित करने का वक्त आता है तो चैंपियन उनके खिलाफ ही काम करते नजर आते हैं । लेकिन ये खिलाफत इतनी खामोशी से होता है किसी को पता भी नहीं चलता है । इसके कई प्रमाण और दृष्टांत हिंदी साहित्य जगत में यहां वहां बिखरे हुए हैं लेकिन उनको सामने नहीं लाया जाता है ।

साहित्य अकादमी पुरस्कार या लाइफटाइम अचीवमेंट...

पिछले साल का साहित्य अकादमी पुरस्कार हिंदी के वयोवृदध लेखक रामदरश मिश्र को उनके कविता संग्रह पर दिया गया । असहिष्णुता के मुद्दे पर साहित्य अकादमी पुरस्कार वापसी के कोलाहल के बीच रामदरश मिश्र से बेहतर चयन शायद ही कोई होता । साहित्यक हलके में यह बात लगभग सबको मालूम भी थी कि इस बार रामदरश जी को पुरस्कृत किया जाना है । बानवे साल के रामदरश मिश्र जी को पुरस्कार देने पर कोई विवाद तो नहीं हुआ लेकिन यह सवाल जरूर उठा कि साहित्य अकादमी पुरस्कार हाल के दिनों में लेखकों की उम्र को देखकर दिया जाने लगा है । यह बात भी कही गई कि साहित्य अकादमी पुरस्कार अब कृति पर देने की बजाए लाइफटाइम अचीवमेंट के तौर पर दिया जाना चाहिए । रामदरश मिश्र जी को उनके कविता संग्रह ‘आग पर हंसी’ के लिए पुरस्कृत किया गया, जो कि उनके ही रचे साहित्य में तुलनात्मक रूप से कमजोर कृति है । इस बात पर भी गौर किया जाना चाहिए की रामदरश जी को अगर इस उम्र में साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला तो फिर किस उम्र में उनके कद के लेखकों को अकादमी की महत्तर सदस्यता से सम्मानित किया जाएगा ।

अकादमी में गड़बड़झाले...

 दरअसल साहित्य अकादमी पुरस्कारों को लेकर अकादमी के संविधान में आमूल चूल सुधार की आवश्यकता है । सुधार की आवश्यकता तो अकादमी के संविधान में साधारण सभा की सदस्यता को लेकर भी है लेकिन फिलहाल हम अकादमी पुरस्कार की बात कर रहे हैं । साहित्य अकादमी पुरस्कारों में सत्तर के दशक से गड़बड़ियां शुरू हो गई । अगर ठीक से साहित्य अकादमी के इतिहास का विश्लेषण करें तो पाते हैं कि मार्क्सवादियों के साथ ही अकादमी में गड़बड़झाले का प्रवेश हुआ । 12 मार्च 1954 को तत्कालीन उपराष्ट्रपति सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने कहा था कि साहित्य अकादमी का उद्देश्य शब्दों की दुनिया में मुकाम हासिल करनेवाले लेखकों की पहचान करना, उन लेखकों को प्रोत्साहित करना और आम जनता की रुचियों का परिष्कार करना है । इसके अलावा अकादमी को साहित्य और आलोचना के स्तर को बेहतर करने के लिए भी प्रयास किया जाना चाहिए । 1954 में साहित्य अकादमी पुरस्कार देने के प्रस्ताव पर चर्च हुई थी और 1955 में पहला साहित्य अकादमी पुरस्कार दिया गया था । हिंदी के लिए पहला साहित्य अकादमी माखनलाल चतुर्वेदी को उनकी कृति ‘हिम तरंगिणी’ पर दिया गया था । आश्चर्य की बात है कि पहले पुरस्कार से लेकर अबतक किसी भी मुसलमान लेखक को हिंदी में लेखन के लिए पुरस्कृत करने योग्य नहीं माना गया । यह साहित्य अकादमी की कार्यप्रणाली और संकीर्णतावादी दृष्टिकोण को उजागर करनेवाली बात है या फिर उसके कर्ताधर्ताओं की सोच का प्रदर्शन ।

शानी, रजा, मंजूर एहतेशाम, असगर वजाहत...

यह सही है कि साहित्य, जाति, धर्म वर्ण, संप्रदाय आदि से उपर होता है और रचनाओं को किसी खांचे में बांधना उचित नहीं होगा । लेकिन अगर साठ साल के लंबे अंतराल में एक खास समुदाय के लेखकों की पहचान और सम्मान ना हो तो प्रश्न अंकुरित होने लगते हैं । हिंदी में लिखनेवाले मुस्लिम लेखकों की एक लंबी फेहरिश्त है । ‘काला जल’ जैसा कालजयी उपन्यास लिखनेवाले गुलशेर खां शानी, ‘आधा गांव’ जैसे बेहतरीन उपन्यास के लेखक राही मासूम रजा, ‘सूखा बरगद’ जैसे उपन्यास के रचयिता मंजूर एहतेशाम को भी साहित्य अकादमी ने सम्मानित करने के योग्य नहीं माना । ‘झीनी झीनी बीनी चदरिया’ के लेखक अब्दुल बिस्मुल्लाह के अलावा नासिरा शर्मा और असगर वजाहत अपने लेखन से लगातार हिंदी साहित्य को समृद्ध कर रहे हैं लेकिन अकादमी इनको लेकर भी उदासीन ही नजर आती है । क्या वजह है कि हिंदी में लिखनेवाले मुस्लिम लेखकों की तरफ साहित्य अकादमी का ध्यान नहीं गया । अगर यह संयोग मात्र है तो बहुत दुखद है । अकादमी के क्रियाकलापों को देखकर, खासकर सत्तर के बाद, लगता है कि यह संयोग नहीं है । सत्तर के दशक के बाद साहित्य अकादमी पर धर्मनिरपेक्षता के चैंपियनों का कब्जा रहा । सहिष्णुता के उस कथित बेहतर माहौल में किसी भी मुस्लिम लेखक को पुरस्कार नहीं मिलना बेहद अफसोसनाक है । अगर हम गहराई से विचार करें तो अल्पसंख्यकों के नाम पर अपनी दुकान चलानेवालों ने उनके नाम की तख्ती तो लगाई लेकिन कभी भी उस तख्ती को सम्मान नहीं दिया । दरअसल साहित्य अकादमी पर इमरजेंसी के बाद जो भी शख्स हिंदी भाषा के कर्ताधर्ता रहे उनमें से ज्यादातार ने खास विचारधारा के ध्वजवाहकों को सम्मानित किया । मेधा और प्रतिभा पर अपने लोगों को तरजीह दी गई । ये पीरियड काफी लंबे समय तक चला और मुस्लिम लेखकों के साथ अन्याय होता चला गया । अपनों को रेवड़ी बांटने के चक्कर में इनका सांप्रदायिक चेहरा दबा रहा लेकिन अब वक्त आ गया है कि उनके चेहरे से नकाब उठाया जाए और उन सभी से ये सवाल पूछा जाए कि शानी, रजा, मंजूर एहतेशाम, असगर वजाहत को क्यों नजरअंदाज किया । साहित्य अकादमी के कथित सेक्युलर लेखकों ने साहित्य अकादमी ने उर्दू में लिखने वाले गोपीचंद नारंग, गुलजार जैसे हिंदू लेखकों को सम्नानित किया लेकिन हिंदी कर्ताधर्ता वो दरियादिली नहीं दिखा सके । उपर जिन लेखकों का नाम लिखा गया है उनमें से किसी की भी कृति अबतक साहित्य अकादमी प्राप्त किसी भी कृति से किसी भी मानदंड पर कमजोर नहीं है । फिर आखिर क्यों कर ऐसा हुआ । सुरसा के मुंह की तरह ये सवाल साहित्य अकादमी के सामने खड़ा है ।

योग्य मुस्लिम और दलित लेखकों को मरणोपरांत पुरस्कृत किया जाए...

बात सिर्फ मुस्लिम लेखकों की ही नहीं है । साहित्य अकादमी ने संभवत: अबतक किसी दलित लेखक को भी सम्मानित नहीं किया । इसके पीछे क्या वजह हो सकती है । जब भी जो भी हिंदी भाषा के संयोजक रहे उन्होंने अपने हिसाब से पुरस्कारों का बंटवारा किया । वर्तमान अध्यक्ष विश्वनाथ तिवारी जब हिंदी भाषा के संयोजक के चुनाव में खड़े हुए थे तब हिंदी के ही एक अन्य लेखक ने दावेदारी ठोकी थी लेकिन तब उनको यह समझा दिया गया कि संयोजक होने से पुरस्कार नहीं मिल पाएगा, लिहाजा वो नाम वापस ले लें । हुआ भी वही । जब सौदेबाजी, क्षेत्रवाद, जातिवाद के आधार पर पुरस्कार दिए जाते रहे तो फिर दलितों और मुसलमानों के मुद्दों के चैंपियन क्यों खामोश रहे । साहित्य के इन मठाधीशों के खिलाफ किसी कोने अंतरे से आवाज नहीं उठी थी, जो भी आवाज उठाने की हिम्मत करता उसको हाशिए पर धकेल दिया जाता था । इस परिस्थिति को देखते हुए अलेक्सांद्र सोल्झेनित्सिन के कथन का स्मरण होता है – ‘यह एक नियम है कि शिक्षित लोग मशीनगन के सामने भी उतना कायरतापूर्ण व्यवहार नहीं करते जितना बड़बोले वामपंथी लफ्फाजों के सामने ।‘ यह अकारण नहीं है कि अलेक्सांद्र सोल्झेनित्सिन इस तरह की बात करते थे । दरअसल इन बड़बोले वामपंथी लफ्फाजों ने वर्षों तक सही बात कहनेवालों का मुंह बंद करके रखा । सोवियत संघ के पतन के बाद से जिस तरह से इनके प्रकाशन और संस्थान आदि बंद हुए तो उनकी लफ्फाजी थोड़ी कमजोर हुई । वक्त आ गया है कि साहित्य अकादमी में इन्होंने जो गलतियां की उसको सुधारा जाए । अकादमी के संविधान में संशोधन करके तमाम योग्य मुस्लिम और दलित लेखकों को मरणोपरांत पुरस्कृत किया जाए ।

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अनंत विजय: पेशेवरों के साहित्यिक सर्वे | Best Hindi Books 2015 ?


अनंत विजय: पेशेवरों के साहित्यिक सर्वे #शब्दांकन

साहित्यक सर्वे में लापरवाही का “खेल’

~ अनंत विजय



आज से करीब सोलह साल पहले की बात है । दिल्ली के एक प्रतिष्ठित दैनिक में साहित्यिक पुस्तकों के प्रकाशन का सालाना लेखा-जोखा छपा था । उस अखबार के सालाना लेखा जोखा का पूरे हिंदी जगत को इंतजार रहता था । वर्ष 1999 के उस साहित्यिक सर्वे में उपन्यासकार भगवानदास मोरवाल के पहले उपन्यास काला पहाड़ का भी उल्लेख सर्वेकार ने किया था । सर्वे करनेवाले लेखक ने लिखा था कि भगवानदास मोरवाल का ये उपन्यास काला पहाड़ पहाड़ी जीवन पर लिखा गया बेहतरीन उपन्यास है । इस टिप्पणी को पढ़ने के बाद उस समय हिंदी के सजग पाठकों ने अपन सर धुन लिया था क्योंकि ये टिप्पणी उपन्यास पर ना होकर उसके शीर्षक को ध्यान में रखकर लिखा गया था । दरअसल भगवानदास मोरवाल का उपन्यास काला पहाड़ हरियाणा के मेवात इलाके की सामाजिक और राजनीतिक पृष्ठभूमि पर लिखा गया उपन्यास है. उस उपन्यास नमे पहाडी जीवन कहां है या फिर समीक्षक महोदय की वो कौन सी दिव्य दृष्टि थी जिसने उसमें पहाड़ी जीवन ढूंढ निकाला ये बात उपन्यास के लेखक भी नहीं बता पाए ।   सालभर प्रकाशित पुस्तकों का लेखा-जोखा करनेवाले माननीय लेखक को लगा कि शीर्षक में पहाड़ है तो कहानी पहाड़ से संबंधित होगी, लिहाजा उन्होंने बगैर उसको पढ़े लिख दिया और वो छप भी गया । करीब डेढ़ दशक बाद इस प्रसंग की याद इस वजह से आई कि इस साल भी अखबारों और बेवसाइट्स पर प्रकाशित सालाना साहित्यिक लेखा-जोखा को पढ़ने के बाद यह लग कि टिप्पणीकारों ने या तो किताब को पढ़ा नहीं है या फिर जल्दबाजी में अपने पहचानवालों का नाम लेने में पुस्तक का प्रकाशन वर्ष तक भी भुला कर घालमेल कर दिया है । दरअसल अखबारों में होनेवाले इस आयोजन की अपनी एक अहमियत है । इन आयोजनों में की गई गलतियां भविष्य में किए जानेवाले शोध को प्रभावित करते हैं और गलत इतिहास पेश करने का आधार तैयार करते हैं । इस साल भी साहित्यिक सर्वे को देखकर यही लगता है कि टिप्पणीकारों ने बहुत  कैजुअल तरीके से इस तरह की टिप्पणियां की या लिखीं । इस वर्ष के सर्वे में थोक के भाव में बगैर पढ़े किताबों की सूची पेश कर दी गई । अखबारों में इस तरह के सर्वे में टिप्पणी लिखने में एक सहूलियत रहती है कि किसी भी कृति के बारे में दो या तीन लाइन से ज्यादा नहीं लिखना पड़ता है । दो हजार पंद्रह मे प्रकाशित सर्वे में भी इस तरह की कई असावधान टिप्पणियां गई हैं जिसको रेखांकित किए जाने की जरूरत है । एक आलोचक ने अल्पना मिश्र के उपन्यास अन्हियारे चलछट में चमका को दो हजार पंद्रह में प्रकाशित कृति करार दे दिया । यह एक  भयंकर भूल है जो कि यह दिखाता है कि हिंदी के वरिष्ठ लेखक और आलोचक प्रकाशित कृतियों को लेकर कितने अगंभीर हैं । इस कृति को लेकर दो एक लोगों को और भ्रम हुआ । इसी तरह से एक  मशहूर अंतरराष्ट्रीय बेवसाइट ने भी हिंदी साहित्य के साल दो हजार पंद्रह का लेखा जोखा प्रस्तुत किया । उसको पढ़कर ये प्रतीत हो रहा था कि लेखक साहित्य की इस परंपरा से अनभिज्ञ हैं । इसके अलावा इस तरह के सर्वे में यह भी देखा गया कि पंद्रह बीस दिन पहले प्रकाशित पुस्तक भी चर्चित पुस्तकों की श्रेणी में आ गया । जो कहानी संग्रह पटना पुस्तक मेला में पिछले वर्ष दिसंबर में विमोचित हुआ और ठीक से पाठकों के बीच पहुंच भी नहीं पाया उसको भी टिप्पणीकारों ने उल्लेखनीय कृति के रूप में रेखांकित कर दिया । यह असावधानी है या अज्ञानता या फिर पक्षपात इसका फैसला हिंदी साहित्य के सुधीजनों को कर देना चाहिए । इसी तरह के करीब महीने भर पहले छपी एक आत्मकथा को भी टॉप टेन आत्मकथा में शुमार कर दिया गया । ये जल्दबाजी क्यों । संभव है इन किताबों का प्रकाशन वर्ष भी सही नहीं हो क्योंकि दिसंबर में छपनेवाली अधिकांश किताबों में प्रकाशन वर्ष अगले ही साल का होता है ।



पिछले दिनों हिंदी साहित्य में समीक्षा लिखनेवालो पर उंगली उठी थी जब एक युवा आलोचक ने युवा लेखिका के उपन्यास पर समीक्षा लिखी थी । उस समीक्षा में आलोचक महोदय ने उपन्यास की उस पृष्ठभूमि की चर्चा की थी जो वहां मौजूद नहीं है । इसके अलावा भी अखबार में लिखी जानेवाली समीक्षाओं में असावधानियां या लापरवाहियां की बातें सामने आती रहती हैं । समीक्षा एक गंभीर कर्म है वहां छूट नहीं ली जा सकती हैसमीक्षा लिखनेवाले तमाम समीक्षक - पेशेवर समीक्षकों की असावधानी या लापरवाहियों से संदेह के घेरे में आ जाते हैं साहित्यिक सर्वे लिखनेवालों को यह सहूलियत रहती है कि लेखक ब्लर्ब लिखकर टिप्पणी कर दे । ज्यादातर मामलों में यही होता भी है लेकिन यह साहित्यिक बेईमानी है । इस बार तो कई लेखकों ने सोशल मीडिया पर इन लापरवाह सर्वेकारों और सर्व में टिप्पणी करनेवालों की खासी लानत मलामत की । सोशल मीडिया के दौर में इस तरह की चूक को सार्वजनिक होने में जरा भी देर नहीं लगती है । सोशल मीडिया पर सार्वजनिक होने के बाद पाठकों को ठगे जाने का एहसास होता है । पाठकों को साहित्य की राजनीति से कोई लेना देना नहीं है । मतलब तो उनको इस बात से भी नहीं होता है कि कोई लेखक किसी को उठाने या गिराने के लिए नाम लेता या नहीं लेता है । वो तो बस लेखकों को सही मानकर उनपर भरोसा करता है । जब आलोचक का तमगा लगाए लोग इस तरह की लापरवाहियों में चिन्हित किए जाते हैं तो साहित्य की साख को धक्का लगता है । पाठकों का विश्वास दरकता है । जब पाठकों का साहित्यकारों को लेकर विश्वास दरकता है तो वो स्थिति साहित्य क विकास में बाधा बनती है । इस साल की घटनाओं को देखकर चिंता होती है । अखबारों की भी ये जिम्मेदारी है कि वो सर्वेकारों या टिप्पणीकारों की लापरवाही सामने आने के बाद गलतियों को प्रकाशित करे और भविष्य में उनको इस काम से अलग रखें । जिस तरह से चुनावों के सर्वेक्षणों को लेकर लोगों के विश्वास में कमी आई है उसी तरह से साहित्य के इन सर्वेक्षणों में भी पाठकों का विश्वास घटने लगा है । सालभर के साहित्य का सर्वेक्षण करना अपने आप मे एक श्रमसाध्य काम है और सर्वेकार को सालभर सजग रहना पड़ता है । साहित्यिक घटनाओं से लेकर चर्चित प्रकाशनों तक का खाता-बही संभालना पड़ता है । सैकड़ों किताबें पढ़नी पड़ती हैं तब जाकर सर्वेक्षण संभव हो पाता है ।

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नेमाडे और गांधी की गाली - अनंत विजय | Bhalchandra Nemade Hindu



साहित्य में अश्लीलता

- अनंत विजय

नेमाडे और गांधी की गाली - अनंत विजय / Bhalchandra Nemade Hindu
साहित्य में भाषा का सवाल गाहे बगाहे उठता रहा है । जब भी कोई ऐसी कृति आती है जिसमें भाषा की स्थापित मर्यादा टूटती है तो साहित्य जगत में उसपर व्यपक विचार विमर्श होता है । कृतियों के अलावा भी अगर कोई लेखक या साहित्यकार अपने साक्षात्कार में कथित तौर पर आपत्तिजनक शब्दों का प्रयोग करता है तो उसपर भी साहित्यक जगत में प्रतिक्रिया होती है । बहुधा लेख आदि लिखकर तो कभी कभार धरना और विरोध प्रदर्शन भी होते रहे हैं । साहित्यक पत्रिका नया ज्ञानोदय में उस वक्त के महात्मा गांधी अंतराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के कुलपति विभूति नारायण राय ने अपने साक्षात्कार में छिनाल शब्द का प्रयोग किया था तो मामला सरकार और मंत्री तक पहुंचा था । धरना और विरोध प्रदर्शन तो हुआ ही था और उनको खेद प्रकट करना पड़ा था । अभी कुछ दिनों पहले मराठी के मशहूर लेखक भालचंद नेमाड़े की किताब हिन्दू, जीने का समृद्ध कबाड़ अनुदित होकर प्रकाशित हुआ है । नेमाड़े मराठी के बेहद सम्मानित लेखक हैं और उनको ज्ञानपीठ पुरस्कार से भी सम्मानित किया जा चुका है । नेमाडे अंग्रेजी के शिक्षक रहे हैं और लंदन के मशहूर स्कूल ऑफ ओरिएंटल एंड अफ्रीकन स्टडीज में अध्यापन कर चुके हैं । कुछ दिनों पहले उनका सलमान रश्दी से विवाद भी हुआ था । रश्दी ने अपने एक ट्वीट में उनके बारे में लिखा था- ग्रम्पी ओल्ड बास्टर्ड, जस्ट टेक योर प्राइज एंड से थैंक यू नाइसली । आई डाउट यू हैव इवन रेड द वर्क यू अटैक । दरअसल नेमाडे ने एक कार्यक्रम में सलमान रश्दी की किताब मिडनाइट चिल्ड्रन को औसत साहित्यक कृति करार दिया था । नेमाडे ने कहा था कि सलमान रश्दी और वी एस नायपॉल पश्चिम के हाथों खेल रहे हैं । सलमान रश्दी को नेमाडे की बातें नागवार गुजरीं थी और उन्होंने भाषिक मर्यादा को ताक पर रखते हुए गाली गलौच की भाषा में ट्वीट किया था । उसके बाद समकालीन साहित्यक परिदृश्य में उबाल आया था और सलमान रश्दी की जमकर लानत मलामत की गई थी । इस प्रसंग को बताने का मकसद सिर्फ इतना है कि भालचंद्र नेमाड़े के कहने का वैश्विक साहित्य जगत में असर होता है ।

उनकी ताजा किताब- हिन्दू, जीने का समृद्ध कबाड़, जो मूल कृति का हिंदी अनुवाद है, की खासी चर्चा रही लेकिन उनके इस किताब में कई प्रसंगों में इस्तेमाल किए गए शब्द अलक्षित रह गए । इस किताब के ब्लर्ब पर लिखा है – ‘देसी अस्मिता का महाकाव्य यह उपन्यास भारत के जातीय ‘स्व’ का बहुस्तरीय, बहुमुखी, बहुवर्णी उत्खनन है । यह ना गौरव के किसी जड़ और आत्मुग्ध आख्यान का परिपोषण करता है, न ‘अपने’ के नाम पर संस्कृति के रगों में रेंगती उन दीमकों का तुष्टीकरण, जिन्होंने ‘भारतवर्ष’ को भीतर से खोखला कर दिया है । यह उस विराट इकाई को समग्रता में देखते हुए चलते हुए देखता है जिसे भारतीय संस्कृति कहते हैं ।‘ ब्लर्ब लेखक का नाम नहीं होने से यह माना जाता है कि लेखक और प्रकाशक दोनों इससे सहमत होंगे और ये पाठकों को कृति की ओर खींचने के लिए लिखा गया है । इस कृति को देसी अस्मिता का महाकाव्य बताया गया है । नेमाड़े जी से यह सवाल पूछा जाना चाहिए कि इस कृति में करीब आधा दर्जन जगहों पर आपने जिस तरह की भाषा का इस्तेमाल किया है वो किस देसी अस्मिता को प्रतिबिंबित करता है । अगर एक बार को यह मान भी लिया जाय कि इस तरह की भाषा कभी कभार निजी बातचीत में बोली जाती है तो क्या उसको हम अपने देश की संस्कृति के तौर पर पेश कर सकते हैं जिसका दावा भालचंद नेमाड़े करते हैं । एक जगह पुलिस वाले गश्ती के दौरान युवकों को मां की गाली देते हैं जिसको अक्षरश: प्रकाशित कर दिया है । उसी बातचीत के क्रम में लेखक ने लिखा है कि- उसे पारधी लड़कों ने बताया था कि पुलिसवाले थाने ले जाकर गXX में डंडा घुसेड़ते हैं । इसी तरह से एक दूसरा प्रसंग कहार बस्ती की एक औरत का संवाद है । यहां तो हद कर दी गई है । अपने और लड़के की जननांगों के बारे में कहते कहते लेखक का पात्र महात्मा गांधी के जननांगों का हवाला देते हुए उसकी बहन के साथ संबंध बनाने की गाली देने लग जाता है । यह अंश बेहद आपत्तिजनक है और पात्रों की आपसी बातचीत में सहजता से आनेवाली बातचीत से ज्यादा प्रचार पाने के लिए ठूंसा गया प्रसंग अधिक लगता है । गाली में महात्मा गांधी का प्रयोग अबतक साहित्य में नहीं देखा गया था और इस मामले में भालचंद्र नेमाड़े को इसका प्रणेता कहा जा सकता है ।


नेमाड़े को और इस किताब के प्रकाशक, राजकमल प्रकाशन, को लगता है कि हाल के सुप्रीम कोर्ट के फैसले की जानकारी नहीं है । इस साल मई में सुप्रीम कोर्ट ने एक संपादक के खिलाफ आरोप हटाने से इंकार कर दिया था । एक पत्रिका ने उन्नीस सौ चौरानवे में महात्मा गांधी के बारे में एक अश्लील और भद्दी कविता प्रकाशित की थी । सुप्रीम कोर्ट के दो जजों की बेंच ने साफ तौर पर कहा था कि अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर देश के ऐतिहासिक आदरणीय महापुरुषों के खिलाफ आपत्तिजनक भाषा के इस्तेमाल की इजाजत नहीं देता है । सुप्रीम कोर्ट ने बांबे हाईकोर्ट के फैसले को बरकार रखा था जिसमें संपादक की याचिका खारिज करने की मांग को रद्द कर दिया गया था । इसके अलावा भी सुप्रीम कोर्ट कई मौकों पर इस तरह की टिप्पणी कर चुका है । गांधी हमारे पूरे देश में समादृत हैं और उनको लेकर इस तरह की घोर आपत्तिजनक टिप्पणी भालचंद्र नेमाड़े और उनके प्रकाशक को मुश्किल में डाल सकती है । लगभग साढे पांच सौ पन्नों के इस उपन्यास में नेमाड़े ने भाषा की मर्यादा को तार-तार किया है ।


हिंदी में साहित्यक कृतियों में अश्लीलता के सवाल पर कई बार लंबी लंबी बहसें भी हुई हैं । द्वारका प्रसाद मिश्र की कृति -घेरे के बाहर- की भाषा और उसके विषय को लेकर उसको प्रतिबंधित भी किया गया था जो काफी बाद में प्रकाशित हुआ । अज्ञेय की कृति -शेखर एक जीवनी - भी जब प्रकाशित हुई थी तब भी उसमें भाई-बहन के संबंधों के चित्रण को लेकर खासा हंगामा मचा था । उसी तरह से कृष्णा सोबती को अपने उपन्यास में एक शब्द के इस्तेमाल पर बोल्ड लेखिका करार दे दिया गया था । मृदुला गर्ग के उपन्यास चितकोबरा के प्रकाशन के बाद सेक्स संबंधों और उसके उपन्यासों में चित्रण को लेकर हिंदी साहित्य में खासा विवाद हुआ था । मैत्रेयी पुष्पा के उपन्यास इदन्नमम और अलमा कबूतरी में वर्णित सेक्स प्रसंगों को लेकर अब भी उनकी लानत मलामत की जाती है । शरद सिंह ने अपने एक उपन्यास पिछले पन्ने की औरतों में भी एक प्रसंग में स्त्री के निजी अंगों के बारे में लिखा था जिसको लेकर भी बहस हुई थी । कृष्णा अग्निहोत्री की आत्मकथा में संबंधों को लेकर विवाद उठा था । हिंदी साहित्य में इस पर लंबे समय से वाद-विवाद होता रहा है कि भाषा कैसी हो । कई लेखक तो अपनी कृतियों में उसी तरह से जबरदस्ती सेक्स प्रसंगों को ठूंसते हैं जिस तरह से कहानी की बगैर मांग के हिंदी फिल्मों में नायक नायिका के बारिश में भीगते हुए गाने फिल्माए जाते हैं । हाल के दिनों में सस्ती लोकप्रियता हासिल करने के लिए कहानी और उपन्यासों में जबरदस्ती सेक्स प्रसंग ठूसने की प्रवृ्ति ने जोड़ पकड़ा है । जिस तरह से फिल्म में काम करनेवाली नायिकाओं को लगता है कि कम कपड़े पहनने से वो जल्द से जल्द स्टारडम हासिल कर लेगी उसी तरह से हिंदी के चंद युवा लेखकों को भी लगता है कि कथित तौर पर बोल्ड प्रसंगों को लिखकर स्थापित हो जाएंगे । अभी हाल ही में हिंदी की एक वयोवृद्ध लेखिका रमणिका गुप्ता की आत्मकथा आपहुदरी प्रकाशित हुई है जिसमें सेक्स प्रसंगों की भरमार है जो जुगुप्साजनक है । पोर्न साहित्य का भी एक सौंदर्यशास्त्र होता है लेकिन रमणिका गुप्ता ने तो पता नहीं क्या लिखा है । उसको परिभाषित करने के लिए वक्त देना वक्त जाया करने जैसा है ।
बावजूद इसके उक्त कृतियों में किसी महापुरुष को लेकर भद्दी टिप्पणी नहीं की गई है । नेमाड़े ने महात्मा गांधी पर तो टिप्पणी की ही है गालियों में भी उन शब्दों को लिख डाला है जो अबतक वर्जित रहे हैं और सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ भी हैं । काशी का अस्सी में काशी नाथ सिंह ने भी गालियों का इस्तेमाल किया है, राही मासूम रजा ने आधा गांव में गालियों का उपयोग किया है लेकिन इस तरह से नहीं जिस तरह से नेमाड़े ने अपने उपन्यास में किया है । नेमाड़े ने तो फुटपाथ पर पीली पन्नी में बिकनेवाली किताबों की भाषा का इस्तेमाल कम से कम आधे दर्जन जगहों पर किया है ।  नेमाड़े के इस उपन्यास में उन शब्दों के उपयोग के बाद एक बार फिर से ये सवाल खड़ा हो गया है कि अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर लेखकों को कितनी और कहां तक जाने की छूट मिली चाहिए ।

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अनंत विजय: आलोचना कैसे सुनें | How to Listen Criticism- Anant Vijay


लेखकीय असहिष्णुता पर सवाल

~ अनंत विजय


 आलोचनात्मक टिप्पणी करनेवाले 
और 
रचनाकार के बीच 
बातचीत बंद हो जाना तो आम बात है  




“To avoid criticism say nothing, do nothing, be nothing.” 


― Aristotle
आलोचना से बचने के लिए ना कुछ कहिये, ना कुछ कीजिये, ना कुछ होइए
अरस्तू 
समकालीन हिंदी साहित्य के अलावा अन्य भारतीय भाषाओं के साहित्यकारों के बीच देश में फैल रही असहिष्णुता और  कट्टरता के खिलाफ बहस चल रही है । देश में बढ़ रही कट्टरता और प्रधानमंत्री की चुप्पी को आधार बनाकर कई लेखकों ने साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाने का एलान किया है । हालांकि पुरस्कार वापसी अभियान पर लेखक समुदाय बंटा हुआ है  । इस लेख का विषय पुरस्कार वापसी नहीं है । हम बात करेंगे लेखक समुदाय में अपनी रचना की आलोचना को लेकर बढ़ती असहिष्णुता पर, खास कर हिंदी लेखकों के बीच बढ़ रही इस प्रवृत्ति पर।  
किसी भी कृति पर आलोचनात्मक टिप्पणी करने से पहले कई बार सोचना पड़ता है
समकालीन हिंदी साहित्य के परिदृश्य पर अगर हम बात करते हैं तो यह बात साफ तौर पर उभर कर सामने आती है कि कवियों से लेकर कथाकारों तक में अपनी आलोचना सुनने सहने की क्षमता का उत्तरोत्तर ह्रास हो रहा है । किसी भी कृति पर आलोचनात्मक टिप्पणी करने से पहले कई बार सोचना पड़ता है । अगर आप तर्क के साथ भी किसी कृति की स्वस्थ आलोचना करते हैं तो लेखक उसको अपनी आलोचना मानकर टिप्पणीकार से खफा हो जाते हैं । उसके बाद खफा लेखक इस ताक में रहते हैं कि रचना की आलोचना करनेवाले टिप्पणीकार से कैसे बदला चुकाया जाए। आलोचनात्मक टिप्पणी करनेवाले और रचनाकार के बीच बातचीत बंद हो जाना तो आम बात है । यह हिंदी साहित्य समाज में लेखकों के बीच बढ़ रही असहिष्णुता का संकेत है । इसको सोशल मीडिया खासकर फेसबुक ने और हवा दी । फेसबुक पर आलोचकों को आमतौर पर निशाना बनाया जाता है और फिर माफिया की तरह घेरकर उसपर हमले होते हैं । आलोचक के अतीत से लेकर वर्तमान तक को खंगालकर उड़ेल दिया जाता है । घर परिवार, नातेदार-रिश्तेदारों की बातें शुरू हो जाती हैं । कई मसले पर तो यह भी देखा गया है कि चरित्र हनन का खेल भी शुरू हो जाता है । सोशल मीडिया पर इसके पीछे की वजह साफ तौर पर रेखांकित की जा सकती है । 
आज इस वजह से हिंदी में समीक्षा की हालत बहुत खराब हो गई है । समीक्षक सत्य कहने से डरने लगे हैं । काफी पहले अपने एक लेख में हिंदी की वरिष्ठ आलोचक निर्मला जैन ने भी इस बात का संकेत किया था । कालांतर में कई लेखकों ने लेखकों के बीच बढ़ती इस असहिष्णु प्रवृत्ति को पुख्ता किया ।  आज ज्यादातर लेखकों की अपेक्षा होती है कि उनकी रचनाओं को कालजयी इत्यादि घोषित कर दिया जाए । दो चार कहानी लिखकर, एकाध संग्रह छपवाकर, दंद-फंद से पुरस्कार आदि हासिल करनेवाले कहानीकारों की अपेक्षा होती है कि उसकी कहानियों को प्रेमचंद की कहानियों के बराबर मान लिया जाए । अगर ये न हो सके तो कम से कम प्रेमचंद और रेणु की परंपरा का लेखक तो घोषित कर ही दिया जाए । इसी तरह से उपन्यासकारों की आकांक्षा होती है कि उनको भी रेणु, अमृतलाल नागर के बराबर ना भी माना जाए तो कम से कम कमलेश्वर, मोहन राकेश या फिर राजेन्द्र यादव के बराबर तो खड़ा कर ही दिया जाए । ऐसा नहीं होने पर बात बिगड़ने लगती है ।



लेखकों के बीच बढ़ती इस प्रशंसा-पिपासा के उदाहरण इस वक्त हिंदी में यत्र-तत्र-सर्वत्र मिल जाएंगे । इन दिनों हिंदी में व्हाट्सएप पर कई साहित्यिक ग्रुप सक्रिय हैं । वहां भी आलोचना की कोई गुंजाइश नहीं है । अगर आप व्हाट्सएप पर चलनेवाले समूहों के सदस्य हैं तो आपतो इस बात का अंदाज होगा कि वहां किस तरह से तू पंत मैं निराला का दौर चलता है । खुदा ना खास्ता अगर किसी ने किसी रचना पर सवाल खड़े कर दिए तो उनकी खैर नहीं । आपको नकारात्मक सोच से लेकर हर वक्त मीन मेख निकालनेवाला करार दे दिया जाएगा । फेसबुक आदि की तरह इन समूहों में भी लेखक संगठित होकर आलोचना करनेवालों पर वार करते हैं और उसको इतना अपमानित करते हैं कि वो समूह छोड़ने पर मजबूर होता है । अगर फिर भी हिम्मत करके आलोचनात्मक टिप्पणी करनेवाला शख्स इन समूहों में बना रहता है तो गाहे बगाह उसके विवेक पर सवाल खड़ा किया जाता रहता है । अपनी आलोचना ना सहने की प्रवृत्ति का विकास हाल के दिनों में युवा लेखकों के बीच वायरल की तरह फैला है । अब अगर हम इसके पीछे के वजह की पड़ताल करें तो पाते हैं कि सोशल मीडिया के फैलाव और फेसबुक के लाइक बटन ने रचनाकारों की अपनी आलोचना सुनने की क्षमता ही विकसित नहीं होने दी । कोई भी रचनाकार फेसबुक पर अपनी रचना डालता है तो उसको सौ दो सौ लोग लाइक कर देते हैं । सौ पचास टिप्पणियां वाह वाह के मिल जाते हैं । लेखकों को यह लगने लगता है कि वो हिंदी का महान लेखक हो गया । इस मानसिकता से गुजर रहे लेखक का समाना जब आलोचनात्मक टिप्पणी से होता है तो वो इसको बर्दाश्त नहीं कर पाता है और टिप्पणीकार को अपनी सफलता की राह में बाधा की तरह देखने लगता है । फिर वो वही सारे काम करता है जो कोई भी अपनी राह के रोड़े को हटाने के लिए करता है । इसके अलावा हिंदी में थोक के भाव बंट रहे पुरस्कारों ने भी कई युवा लेखकों का दिमाग खराब कर दिया है । जुगाड़ से हासिल पुरस्कार को वो अपने लेखन से जोड़कर छद्म की जमीन पर खड़े होना चाहता है । छद्म की जमीन को सबसे बड़ा खतरा आलोचना या समीक्षा से ही रहता है ।


आज अगर हिंदी में समीक्षा पर सवाल उठ रहे हैं तो उसके पीछे की वजहों को जानने की जरूरत है । एक वजह तो यही है जिसपर ऊपर विस्तार से लिखा गया । समीक्षक खुलकर अपनी बात कहने से घबराने लगे हैं । कोई भी अपने व्यक्तिगत रिश्ते खराब नहीं करना चाहता है । नतीजा यह होता है कि किताब के बारे में परिचयात्मक लेख लिखे जाते हैं । पहले लेखक के बारे में एक पैरा फिर किताब का सारांश और अंत में बगैर कुछ कहे या फिर बीच का रास्ता निकालते हुए समीक्षक अपनी बात खत्म कर देता है । यह स्थिति हिंदी साहित्य के लिए अच्छी नहीं है । लेखकों के बीच बढ़ रही असहिष्णुता से एक विधा पर उसके खत्म होने का खतरा मंडराने लगा है । इसको बचाने की आवश्यकता है । लेखकों को उदार और सकारात्मक तरीके से स्वस्थ आलोचना का स्वागत करना चाहिए । अगर किसी समीक्षक ने तर्कों के साथ अपनी बात रखी है तो उसकी बातों का सम्मान होना चाहिए । विमर्श हो तो और भी बेहतर है ।
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अनंत विजय: विश्वनाथ तिवारी पर खतरा? | Sahitya Akademi President


Is Sahitya Akademi President Under Pressure ?

अराजकता का लाइसेंस नहीं स्वायत्ता

~ अनंत विजय

साहित्य अकादमी के कार्यकारी मंडल की बैठक में पारित प्रस्ताव पर पांच लेखक-संगठनों - जलेस, जसम, प्रलेस, दलेस, साहित्य-संवाद - की प्रतिक्रिया :

प्रेस-बयान

कल दिनांक 23.10.2015 को साहित्य अकादमी के कार्यकारी मंडल ने लेखकों-कलाकारों के ज़बरदस्त विरोध के दवाब में जो प्रस्ताव पारित किया है, वह न सिर्फ़ चिंताजनक रूप से अपर्याप्त, बल्कि ग़लतबयानी का एक निर्लज्ज नमूना भी है. पांच लेखक-संगठनों -- जलेस, जसम, प्रलेस, दलेस और साहित्य-संवाद -- के आह्वान पर लेखकों, पाठकों और संस्कृतिकर्मियों का जो बड़ा समुदाय मौक़े पर मौन जुलूस की शक्ल में पहुंचा था, उसके द्वारा सौंपे गए ज्ञापन में चार मांगें रखी गयी थीं. उनमें से दो मांगों को साफ़ दरकिनार कर दिया गया. एक यह कि “कार्यकारी मंडल अकादमी के अध्यक्ष श्री तिवारी के उस रवैये के निंदा स्पष्ट शब्दों में करे जो उनके साक्षात्कारों और बयानों में सामने आया है.” ऐसे बयानों का हवाला भी ज्ञापन में दिया गया था और यह मांग की गयी थी कि “अगर श्री तिवारी लेखकों के प्रति अपने शर्मनाक रवैये और अपमानजनक बयानों के लिए स्पष्ट शब्दों में क्षमायाचना न करें तो उनके विरुद्ध प्रस्ताव पारित कर उनके इस्तीफ़े की मांग की जाए.” लेकिन अकादमी के प्रस्ताव में ऐसी निंदा और क्षमायाचना तो दूर, श्री तिवारी के नेतृत्व की भूरि-भूरि प्रशंसा की गयी है और उन्हें अकादमी की विरासत और गरिमा का रक्षक बताया गया है. दूसरे, प्रो. कलबुर्गी की हत्या की, देर से ही सही, निंदा तो की गयी है, पर लेखकों की इस मांग को एक बार फिर अनसुना कर दिया गया है कि “कार्यकारी मंडल दिल्ली में अकादमी की ओर से प्रो. कलबुर्गी की हत्या पर शोक-सभा रखने का फ़ैसला ले और इस रूप में हिंसक असहिष्णुता के ख़िलाफ़ तथा अभिव्यक्ति की आज़ादी की हिफ़ाज़त के पक्ष में अपना दृढ़ मत व्यक्त करे.” इससे ज़ाहिर है कि तथाकथित रूप से अकादमी की विरासत और गरिमा के रक्षक श्री तिवारी अभी भी कोई ठोस क़दम उठाने के लिए तैयार नहीं हैं.
जहां तक ग़लतबयानी का सवाल है, आज के ‘दी इंडियन एक्सप्रेस’ में छपी एक खबर से अकादमी के प्रस्ताव में आये दावों की कलई उतर गयी है. प्रो. एम. एम. कलबुर्गी के पुत्र श्रीविजय कलबुर्गी ने कहा है कि उनकी हत्या के दो महीने होने को आये, अभी तक अकादमी की ओर से कोई फोन-कॉल या शोक-संवेदना उनके परिवार को नहीं मिली है. “अंततः उनकी हत्या के दो महीने बाद भारत के इस उच्चतम साहित्यिक फोरम ने मुंह खोला है और एक बयान जारी किया है.” ज़ाहिर है कि अध्यक्ष और उपाध्यक्ष ने अकादमी के कार्यकारी मंडल को यह सूचना देकर गुमराह किया है कि प्रो. कलबुर्गी के परिवार से अविलम्ब संपर्क किया गया था या ऐसा प्रयास किया गया था. प्रस्ताव में कहा गया है, “कार्यकारी मंडल अपनी बैठक में स्वीकार करता है कि प्रो. कलबुर्गी की हत्या के बाद साहित्य अकादमी के अध्यक्ष ने उपाध्यक्ष से फोन पर बात की कि वे प्रो. कलबुर्गी के परिवार से संपर्क करें और इस हत्या के ख़िलाफ़ अकादमी की ओर से संवेदनाएँ अर्पित करें।” संवेदनाएं तो अर्पित नहीं ही की गयीं, जैसा कि श्रीविजय कलबुर्गी के वक्तव्य से पता चलता है, यह भी दुखद रूप से आश्चर्यजनक है कि लेखक की जघन्य हत्या के बाद अकादमी के अध्यक्ष शहीद के परिवार को फोन कर अपनी सम्वेदना देना तक जरूरी नहीं समझते, बल्कि उपाध्यक्ष को फोन पर संदेश देते हैं कि वे सम्पर्क करें. स्वयं अकादमी द्वारा आधिकारिक रूप से दर्ज अध्यक्ष का यह रवैया सामन्ती मनोवृत्ति और नौकरशाहाना कार्य पद्धति का स्पष्ट उदाहरण है. इसमें एक लेखक की सम्वेदनशीलता दूर दूर तक नज़र नहीं आती. बावजूद इसके, कार्यकारी मंडल ने अपने प्रस्ताव में अध्यक्ष की भूमिका की सराहना करना आवश्यक समझा है, इसे विडम्बना ही कहा जाएगा.
प्रस्ताव के इस अंश के आशय को भी समझने की ज़रूरत है – “साहित्य अकादमी माँग करती है कि केंद्र और सभी राज्य सरकारें हर समाज और समुदाय के बीच शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व का माहौल बनाए रखें और समाज के विभिन्न समुदायों से भी विनम्र अनुरोध करती है कि जाति, धर्म, क्षेत्र और विचारधाराओं के आधार पर मतभेदों को अलग रखकर एकता और समरसता को बनाए रखें।” इस वाक्य का अंतर्निहित पाठ यह है कि वर्तमान अशांति का मूल कारण समुदायों के बीच शांतिपूर्ण सहअस्तित्व की भावना का कमज़ोर पड़ना है. यानी अशांति की ज़िम्मेदारी पीड़ित समुदायों के मत्थे डाल दी गयी है, और सरकार को दारोगा की भूमिका सौंप दी गयी है. इस तरह अशान्ति के असली कारकों को छुपा और बचा लिया गया है. ये कारक हैं, बहुसंख्यकवाद का विस्तार और उसे मिल रहा शासकीय संरक्षण. यह प्रधानमंत्री के उस बयान के अनुरूप है जो दादरी काण्ड के कई दिनों बाद दिया गया था, जिसमें सभी समुदायों से मिलजुल कर रहने का आह्वान किया गया था, जैसे कि वे समुदाय स्वयं लड़ने पर आमदा हों और उन्हें लड़ाने के पीछे किसी राजनीतिक समूह की भूमिका न हो. यह एक ऐसी थियरी है जो बहुसंख्यकवादी उन्माद और हिंसा को सैद्धांतिक रक्षा कवच प्रदान करती है.
अकादमी ने जिस तरह चालाकी से इस मामले को निपटाने की कोशिश की है, उससे स्पष्ट है कि वह आरएसएस-भाजपा के दबाव में अपनी स्वायत्तता को बचाने में नाकाम हो रही है. इसका सबूत यह भी है कि वहां पर गिनती के तीन लेखकों के साथ सत्ताधारी दल और आरएसएस के सदस्य शर्मनाक तरीके से लेखकों के शांतिपूर्ण प्रतिरोध को कुचल देने के लिए बुला लिये गये थे। इतने विलम्ब के बावजूद अगर अकादमी अपनी भूलों का निवारण करने के प्रति गंभीर दिखती तो उसका स्वागत किया जाता, किन्तु दुखद है कि उसने लेखक समुदाय को इसका अवसर नहीं दिया. हम अकादमी के इस रवैये की घोर निंदा करते हैं और देशभर के लेखकों, कलाकारों, पत्रकारों और संस्कृतिकर्मियों से अपील करते हैं कि अभिव्यक्ति की आज़ादी और जनवादी मूल्यों की रक्षा के इस अभियान को कमज़ोर न होने दें और एकजुटता की इस लहर को अपना बल प्रदान करें।
मुरली मनोहर प्रसाद सिंह (जनवादी लेखक संघ)
अशोक भौमिक (जन संस्कृति मंच)
अली जावेद (प्रगतिशील लेखक संघ)
हीरालाल राजस्थानी (दलित लेखक संघ)
अनीता भारती (साहित्य-संवाद)


समकालीन भारतीय साहित्य इन दिनों संघर्ष, विरोध, प्रतिरोध, प्रदर्शन, प्रति प्रदर्शन, पुरस्कार वापसी आदि जैसे शब्दों से गूंज रहा है । शुक्रवार को तो इन शब्दों से दिल्ली के रवीन्द्र भवन का परिसर भी गूंजा । कहना ना होगा कि शब्दों में ताकत होती है लिहाजा इस ताकत के आगे साहित्य अकादमी कुछ झुकती हुई नजर आई । साहित्य अकादमी जिसकी स्थापना एक स्वायत्त संस्था के तौर पर की गई थी और इसकी स्थापना करनेवालों ने इस संस्था को लेकर एक सपना देखा था । उनका सपना कितना साकार हो पाया, इसपर लंबी बहस हो सकती है । होनी भी चाहिए । आगे इस लेख में इसपर चर्चा होगी । अबतक करीब तीन दर्जन से ज्यादा लेखक साहित्य अकादमी का पुरस्कार लौटा चुके हैं । इस स्तंभ में इसकी वजहों को लेकर चर्चा हो चुकी है । पुरस्कार लौटानेवाले लेखकों के दबाव में अकादमी की कार्यकारिणी ने कलबुर्गी हत्याकांड की कड़े शब्दों में निंदा की । अकादमी ने तीसरी बार कलबुर्गी की हत्या की निंदा की । यह अच्छी बात है कि एक लेखक की मौत पर साहित्य अकादमी, दबाव में ही सही, तीन बार निंदा करने को बाध्य हुई । हलांकि विरोध कर रहे लेखकों की तरफ से यह बता प्रचारित की गई थी कि अकादमी ने कलबुर्गी की हत्या पर शोक सभा, संदेश आदि नहीं किया । साहित्य अकादमी ने शुक्रवार को कार्यकारिणी की बैठक के बाद जारी बयान में कहा कि – ‘अपनी विविधताओं के साथ भारतीय भाषाओं के एकमात्र स्वायत्त संस्थान के रूप में, अकादमी भारत की सभी भाषाओं के लेखकों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार का पूरी दृढता से समर्थन करती है और देश के किसी हिस्से में, किसी भी लेखक के खिलाफ किसी भी तरह के अत्याचार या उनके प्रति क्रूरता की बेहद कठोर शब्दों में निंदा करती है । हम केंद्र सरकार  और राज्य सरकारों से अपराधियों के खिलाफ तुरंत कार्रवाई की मांग करते हैं और यह भी कि लेखकों की भविष्य में भी सुरक्षा सुनिश्चित की जाए ।‘  अकादमी का बयान यहां तो ठीक था लेकिन उसके बाद उसने अपने अधिकारों का अतिक्रमण करते हुए मांग कर डाली कि – केंद्र और राज्य की सभी सरकारें हर समाज और समुदाय के बीच शांतिपूर्ण सहअस्तित्व का माहौल बनाए रखें । साहित्य अकादमी लेखकों की राजनीति के बीच में पार्टी बनती नजर आ रही है । अकादमी इशारों में वो बातें करना चाहती है जो कहीं ना कहीं राजनीति से जुड़ती हैं । अशोक वाजपेयी, नयनतारा सहगल और कई लेखकों ने अखलाक की हत्या का मुद्दा भी उठाया था । समाज में सहिष्षणुता आदि की मांग करना उसी दबाव का नतीजा है । साहित्य अकादमी का केंद्र और राज्य सरकारो से ये मांग करना अपने दायरे से बाहर निकलने जैसा है । लोकतंत्र में हर संस्था की एक निश्टित मर्यादा होती है । इस मर्यादा का अतिक्रमण कर साहित्य अकादमी ने एक खतरनाक परंपरा की शुरआत कर दी है जिसका रास्ता उसको राजनीतिकरण की तरफ ले जा सकती है ।


अकादमी ने अपने बयान में अध्यक्ष प्रोफेसर विश्वनाथ तिवारी का समर्थन भी किया- कार्यकारी मंडल, अकादेमी के अध्यक्ष के सतर्क और कर्मठ नेतृत्व में साहित्य अकादेमी की गरिमा, परंपरा और विरासत को बरकरार रखने के लिए उनके प्रति सर्वसम्मति से अपना समर्थन व्यक्त करता है ।‘  <#कलबुर्गी_रेसोल्यूशन> अब इन दो पंक्तियों पर गौर करने की जरूरत है । इस वक्त यह आवश्कता क्यों महसूस की गई कि कार्यकारिणी अध्यक्ष विश्वनाथ तिवारी के पक्ष में समर्थन का प्रस्ताव पारित करे । क्या विश्वनाथ तिवारी पर कोई खतरा है या फिर उनको लेकर सरकार में कुछ चल रहा है जिसको कार्यकारिणी के इस प्रस्ताव के जरिए संदेश देने की कोशिश की गई है । कुछ तो है जिसकी परदादारी है । साहित्य अकादमी के अध्यक्ष की  ही अध्यक्षता में हुई कार्यकारिणी की बैठक ने उनके ही समर्थन में प्रस्ताव पारित कर दिया । इतिहास ने एक बार फिर से अपने को दुहराया । कोलकाता में वर्तमान सामान्य सभा के सदस्यों के चुनाव की अध्यक्षता भी प्रोफेसर तिवारी ने ही की थी । उनकी ही अध्यक्षता में हुई बैठक में उनको अध्यक्ष चुना गया था । उस वक्त इसको लेकर सवाल भी उठाए गए थे लेकिन चुनाव संपन्न होने के बाद ये बातें दब कर रह गई थी । अब वक्त आ गया है कि साहित्य अकादमी के संविधान में बदलाव किया जाए । सामान्य सभा के सदस्यों के चुनाव को मतपत्रों के जरिए चुना जाना चाहिए । हाथ उठाकर हर भाषा के अपने अपने चहेतों को चुन लेने की परंपरा को खत्म किया जाना चाहिए । इसी तरह से सामान्य सभा के सदस्यों को लेकर भी एक बड़ी खामी है । इस वक्त सामान्य सभा में असम, गुजरात, नगालैंड, तमिलनाडू और पश्चिम बंगाल से के सदस्यों की जगह खाली है । अकादमी में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है कि इन जगहों को भरा जाए । अगर किसी भी कारणवश किसी भी राज्य के किसी नुमाइंदे की जगह खाली रहती है तो वो पूरे पांच साल तक खाली रहेगी । अकादमी के वर्तमान अध्यक्ष आदि को कई बार व्यक्तिगत और संस्थागत तौर पर इस बारे में अनुरोध किया गया लेकिन इस विसंगति पर ध्यान नहीं दिया गया । इसकी क्या वजह हो सकती है यह तो अकादमी के कर्ताधर्ता ही जानें । इसके पहले कि साहित्य अकादमी फिर से किसी विवाद में घिरे सामान्य सभा के सदस्यों को इस बाबत विचार करना चाहिए ।




साहित्य अकादमी भले ही स्वायत्त संस्था है पर ये करदाताओं के पैसे से चलती है । स्वायत्तता का मतलब यह नहीं होता है कि उसकी जबावदेही किसी के प्रति नहीं है । जिस तरह से संसदीय समिति ने अकादमी के क्रियाकलापों पर सवाल खड़े किए थे वो किसी भी संस्था की जांच के लिए पुख्ता आधार प्रदान करती है । यहां यह आरोप भी नहीं लगाया जा सकता है कि केंद्र में सरकार बदलने के बाद साहित्य अकादमी पर कब्जे को लेकर सरकार कोशिश कर रही है । उक्त रिपोर्ट तो सीताराम येचुरी की अध्यक्षता वाली कमेटी ने तैयार की थी । उस रिपोर्ट के बाद बनी हाईपॉवर कमेटी की सिफारिशों पर क्या निर्णय लिया गया यह ज्ञात होना शेष है । साहित्य अकादमी पर लंबे समय तक प्रगतिशील साहित्यकारों का कब्जा रहा । उस दौरान साहित्य अकादमी चंद लोगों की मर्जी की गुलाम बनकर रह गई  थी। प्रगतिशील लेखकों ने जो परंपरा शुरू की थी वो अब भी बरकार है । सांस्कृतिक यात्राओं के नाम पर विदेश यात्रा में लेखकों के चुनाव को लेकर भी पारदर्शिता होनी चाहिए । अध्यक्ष इस बारे में अंतिम फैसला करते हैं लेकिन कई बार अध्यक्ष और सचिव मिलकर नाम को तय कर लेते हैं । पिछले दिनों सामान्य सभा के कई सदस्यों ने विदेश यात्राएं की । विदेश यात्राओं के नाम पर अपने अपने को दे कि परंपरा को खत्म किया जाना चाहिए । इसके अलावा अकादमी विदेशों में आयोजित होनेवले पुस्तक मेलॆं में भागीदारी करती है । यह अच्छी बात है लेकिन इन पुस्तक मेलों में क्या हासिल होता है इस बारे में दस्तावेज अकादमी की बेवसाइट पर अपलोड किए जाने की आवश्यकता है । जैसे आगामी महीनों में फ्रैंकफर्ट में पुस्तक मेला होगा । उसमें अकादमी का प्रतिनिधि मंडल जाएगा । अकादमी की बेवसाइट पर प्रतिनिधिमंडल के सदस्यों के नाम होने चाहिए और वहां उन लोगों ने क्या किया और क्या नतीजा रहा इस बारे में विस्तार से जानकारी मुहैया करवाई जानी चाहिए । सूचना तो सामान्य सभा की बैठकों में लिए गए फैसलों और चर्चाओं की भी होनी चाहिए । लेकिन इसके लिए इस तरह के बैठकों में चर्चा करनी होगी । पिछले दिनों अकादमी की सामान्य सभा की एक बैठक गुवाहाटी में हुई थी । बताया जाता है कि वो बैठक बमुश्किल आधे घंटे चली । देशभर से चौबीस भाषाओं के प्रतिनिधियों के अलावा करीब सौ सवा सौ लोगों को वहां बुलाया गया और आधे घंटे में बैठक खत्म  । करदाताओं के लाखों रुपए फूंकने से हासिल क्या होता है इसपर विचार होना चाहिए । गतिविधियों को अगर बेवसाइट पर अपलोड किया जाए तो उसको रोका जा सकता है । 

दूसरी बात यह कि अकादमी में युवाओं का प्रतिनिधित्व नहीं के बराबर है । सामान्य सभा में युवाओं की भागीदारी बिल्कुल नहीं है । इस वक्त भारत विश्व के सबसे ज्यादा युवाओं वाला देश है । इस बात को ध्यान में रखते हुए सामान्य सभा में य़ुवा लेखकों की भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए अकादमी के संविधान में संशोधन किया जाना चाहिए ।  दरअसल अकादमी में काबिज चंद लोग इसको होने नहीं दे रहे । सदस्यों और अफसरशाहों का गठजोड़ अकादमी के लिए घातक सिद्ध हो रहा है । इस गठजोड़ को तोड़ने के लिए कदम उठाए जाने की आवश्यकता है । प्रगतिशील जमात कुछ नहीं पा रही है क्योंकि गड़बड़ियों की जनक वही है । इस वजह से ही अकादमी के अध्यक्ष सीना ठोंककर अपने एक साक्षात्कार में कहते हैं कि मेरे पास कहने को बहुत कुछ है । मैं जुबान खोलूंगा तो भूचाल आ जाएगा । तिवारी जी आप हिंदी भाषा से पहले अध्यक्ष हुए हैं, कृपया जुबान खोलकर पूर्व में हुई गड़बड़ियों को उजागर करिए । अगर आप ऐसा नहीं करते हैं तो ये मान लिया जाएगा कि आप भी उसी रास्ते पर चल रहे हैं ।

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साहित्य की टूटती ठस मानसिकता - अनंत विजय | Hindi Literature coming of age ? - Anant Vijay


बाजार को सही पकड़े हैं...

~ अनंत विजय 

हिंदी के साहित्यकारों के लिए अब तक बाजार एक अछूत की तरह था

गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरित मानस में एक प्रसंग में लिखा है – घन घमण्ड नभ गरजत घोरा / प्रियाहीन डरपत मनमोरा । गोस्वामी जी इस पूरे प्रसंग में मौसम, बारिश और उफनती नदी के बहाने से नीतियों की बात करते हैं । राम और लक्ष्मण के इस संवाद में समाज और राजकाज के बारे में राम अपने विचार प्रकट करते हैं । दरअसल इस तरह की बातें करके राम अपने मन की बात अनुज लक्ष्मण से छिपाना चाहते हैं । लेकिन प्रियतमा का विछोग छुपाना मुश्किल है और मर्यादा पुरुषोत्तम होते हुए भी राम के मुख से उपरोक्त पंक्तियां निकल ही जाती हैं । वो बारिश के मौसम में सीता के वियोग का दर्द उनकी जुबां पर आ ही जाता है । हिंदी के वरिष्ठ लेखकों की हालत भी राम के जैसी ही है । वो भी मन ही मन बाजार की चाहत रखते हैं लेकिन नीतियों, सिद्धांतों और विचारधारा की वजह से उसकी बात करना उचित नहीं समझते हैं । उन्हें लगता है कि सार्वजनिक रूप से बाजार की वकालत करने से उनकी छवि पर विपरीत असर पड़ेगा, ठीक वैसे ही जैसे राम के मन में ये द्वंद चलता है कि अपनी प्रियतमा के विछोह के दर्द को अपने छोटे भाई के साथ कैसे साझा करें । हिंदी के साहित्यकारों के लिए अब तक बाजार एक अछूत की तरह था । बाजार का नाम लेना तक उन्हें गंवारा नहीं था और जब भी उनके लबों पर बाजार आता था तो उसके खिलाफ ही आवाज निकलती थी । यह विरोधाभास हिंदी में लंबे समय तक चलता रहा । विरोधाभास इस वजह से कि लेखक कोई भी रचना लिखता है तो उसकी आकांक्षा होती है कि वो छपे । जैसे ही वो प्रकाशक के पास जाता है वैसे ही वो बाजार में प्रवेश करता है । किताब छपने के बाद हर लेखक की आकांक्षा होती है कि वो हिंदी के विशाल पाठक वर्ग तक पहुंचे । अब ये जो चाहत है वो बाजार के बगैर पूरी नहीं हो सकती । किताब छपने और बिकने के तंत्र में बाजार आवश्यक है । हमारे हिंदी के लेखक इस बात को नहीं समझ पाए और विचारधारा की जकड़न में बेवजह बाजार का विरोध करने लगे । नतीजा यह हुआ कि बाजार भी हिंदी साहित्य के प्रति उदासीन होता चला गया । हाल के दिनों में अलका सरावगी ने फेसबुक के जरिए बाजार में अपनी पैठ बनाने की छोटी सी कोशिश की तो उनकी हिंदी के लोगों ने इतनी लानत मलामल कि दूसरे लेखकों को उस तरह की पहल करने से पहले सोचने को मजबूर होना पड़ेगा । हिंदी साहित्य जगत में अक्सर ये बात सुनी जाती है कि साहित्यक किताबें नहीं बिकतीं । प्रकाशक भी बिक्री नहीं होने की बात करते हुए साहित्यक कृतियों के प्रकाशन के प्रति उत्तरोतर उदासीन होने लगे हैं । कविता के प्रकाशक तो मिलने लगभग बंद हो गए हैं । बाजार और बाजार का विरोध विचारधारा के आधार पर करने को गलत ठहराना इस लेख का मकसद नहीं है । मकसद सिर्फ इतना जाहिर करना है कि इस ठस मानसिकता और विरोध ने साहित्य का कितना नुकसान किया ।

अब  स्थितियां थोड़ी बदलने लगी हैं । बाजार और उसके औजारों का उपयोग लेखक अपनी रचनाओं से लेकर उसकी बिक्री तक में करने लगे हैं । इसके सकारात्मक नतीजे भी मिलने लगे है । हिंदी के युवा लेखकों ने अपनी भाषा बदली, कहानी का विषय वस्तु बदला, परिवेश बदला और सबसे बड़ी बात कि रूढ़ होता जा रहा यथार्थ भी उनके रचनाओं में नए रूप में आने लगा । अब हम अगर इस वक्त के समकालीन साहित्यक परिदृश्य डालते हैं तो जो युवा या युवा होने की दहलीज पार कर चुके हैं उनकी रचनाओं में एक तरह का टटकापन नजर आता है । अगर हम उपन्यास लेखन पर बात करें तो जिस तरह से पंकज दूबे और सत्य व्यास ने अपने पहले ही उपन्यास से हिंदी के पाठकों को ना केवल चौकाया बल्कि उसकी बिक्री ने भी पहली कृति के लिहाज से सफलता के झंडे गाड़ दिए । पंकज दूबे के उपन्यास ‘लूजर कहीं का’ दो भाषाओं में लिखा गया- अंग्रेजी और हिंदी । अंग्रेजी में भी वो काफी सफल रहा । पंकज दूबे ने अपने इस उपन्यास को सफल बनाने के लिए बाजार से दोस्ती की । विषयवस्तु में नयापन था, प्रेम भी वैसा ही था जो कॉलेज के दिनों में होता है, बस कमी थी पाठकों तक पहुंचने की, जैसे ही इस कमी को दूर किया गया पाठकों के साथ साथ बाजर ने उसको हाथों हाथ लिया । इसी तरह से सत्य व्साय के उपन्यास ‘बनारस टॉकीज’ को भी पाठकों ने हाथों हाथ इस वजह से लिया कि उसने अपनी भाषा से, अपने कथानक से अपन किस्सागोई से पाठकों को अपनी ओर खींचा । भाषा को उसकी शुद्धता के जकड़न से मुक्त कर विश्वविद्लाय के छात्रों के बीच बोली जानेवाली भाषा को अपनाया । जैसे ‘बाबा’ शब्द विश्वविद्लायों में काफी चलता है, सत्य ने इस शब्द को अपने एक चरित्र के माध्यम से जीवंत कर दिया । इन दोनों उपन्यासों में लेखकों ने शीर्षक भी पाठकों के साथ साथ बाजार को ध्यान में रखते हुए चुना है । लूजर कहीं का और बनारस टॉकीज । शीर्षक के अलावा दोनों किताबों की कीमत भी कम सवा सौ रुपए के रेंज में है । दोनों लेखकों और उनके प्रकाशकों ने भी इन किताबों को बेचने के लिए सोशल मीडिया से लेकर ऑनलाइन बुक स्टोर्स पर जमकर प्रचार किया । नतीजा मिला । पंकज दूबे का नया उपन्यास ‘इश्कियापा’ भी छपकर आनेवाला है । उस किताब का कवर उसके प्रकाशक ने रिलीज कर दिया है और किताब को लेकर पाठकों के बीच उत्सकुकता का माहौल बनाने का काम भी जारी है । इसी तरह अभी वाणी प्रकाशन से प्रभात रंजन की किताब ‘कोठागोई’ प्रकाशित हुई है । इस किताब में हिंदी के लगभग वर्जित प्रदेश में लेखक घुसता है और वहां से कहानी को उठाता है । बिहार के मुजफ्फरपुर की बदनाम बस्ती चतुर्भुज स्थान में संगीत की एक समृद्ध परंपरा थी जो कि बदनामी में दबी हुई थी । प्रभात ने उसको उठाकर सामने रख दिया । इसके अलावा प्रभात रंजन और उसके प्रकाशक ने भी बाजार से रार नहीं ठानी और उसकी ओर दोस्ती का हाथ बढ़ाया । किताब की बिक्री बढ़ाने के लिए ऑफर से लेकर उपलब्धता तक को इंश्योर किया गया । यासिर उस्मान नाम के एक युवा लेखक ने राजेश खन्ना पर हिंदी और अंगेजी दोनों भाषाओं में एक साथ लिखा – राजेश खन्ना, कुछ तो लोग कहेंगेराजेश खन्ना भारतीय सिनेमा का एक ऐसा किरदार है जिसके बारे में अब भी किवदंतियां चलती हैं । यासिर की इस पहली किताब को भी पाठकों ने हाथों हाथ लिया । हिंदी के एक और प्रकाशक हिंदी युग्म ने भी बाजार को लेखक के साथ जोड़ने का उपक्रम शुरू किया है । कम कीमत की पुस्तकें और ऑनलाइन बिक्री का कॉकटेल । इसका नतीजा भी मिल रहा है । अनु सिंह चौधरी से लेकर निखिल सचान तक की किताबों की जमकर बिक्री हो रही है । प्रकाशक का दावा है कि उनके लेखकों के किताबों की ऑनलाइन प्री बुकिंग भी होती है । यह बहुत अच्छी बात और साहित्य के लिए शुभ संकेत है। हिंदी युग्म ने बिल्कुल नए लेखकों को अपने साथ जोड़ा और उनको ऑनलाइन बिक्री के प्लेटफॉर्म पर पाठकों के सामने पेश कर दिया । उनका दावा है कि उनकी कई किताबें हजारों में बिकी हैं । अब एक दूसरा पक्ष । गीताश्री ने अपने नए कहानी संग्रह- स्वप्न साजिश और स्त्री में अपनी भाषा और नए कथ्य से पाठकों को चौकाया है । गीताश्री के पास चमत्कृत कर देनेवाली भाषा है और  विषय का नयापन भी । अगर इस किताब को प्रकाशक ऑनलाइन स्टोर्स पर उपलब्ध करवा सकें तो यह पाठकों के बीच जबरदस्त लोकप्रिय होने के पूरे आसार हैं ।  साहित्य में युवा लेखकों ने जिस तरह से बाजार की तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ाया है और खुद को विचारधारा आदि की जकड़ने से मुक्त कर पाठकों को ध्यान में रखकर लिखना शुरू किया है वह एक शुभ संकेत हैं । लेखक और प्रकाशक के साझा प्रयास से बाजर पर फतह संभव है । बाजारवाद के इस दौर में बुद्धिमानी यही है कि बाजार का अपने हक में इस्तेमाल करें, इससे साहित्य, साहित्यकार और पाठक तीनों का भला होगा, प्रकाशक का तो होगा ही । 

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