Is Sahitya Akademi President Under Pressure ?
अराजकता का लाइसेंस नहीं स्वायत्ता
~ अनंत विजय
साहित्य अकादमी के कार्यकारी मंडल की बैठक में पारित प्रस्ताव पर पांच लेखक-संगठनों - जलेस, जसम, प्रलेस, दलेस, साहित्य-संवाद - की प्रतिक्रिया :
प्रेस-बयान
जहां तक ग़लतबयानी का सवाल है, आज के ‘दी इंडियन एक्सप्रेस’ में छपी एक खबर से अकादमी के प्रस्ताव में आये दावों की कलई उतर गयी है. प्रो. एम. एम. कलबुर्गी के पुत्र श्रीविजय कलबुर्गी ने कहा है कि उनकी हत्या के दो महीने होने को आये, अभी तक अकादमी की ओर से कोई फोन-कॉल या शोक-संवेदना उनके परिवार को नहीं मिली है. “अंततः उनकी हत्या के दो महीने बाद भारत के इस उच्चतम साहित्यिक फोरम ने मुंह खोला है और एक बयान जारी किया है.” ज़ाहिर है कि अध्यक्ष और उपाध्यक्ष ने अकादमी के कार्यकारी मंडल को यह सूचना देकर गुमराह किया है कि प्रो. कलबुर्गी के परिवार से अविलम्ब संपर्क किया गया था या ऐसा प्रयास किया गया था. प्रस्ताव में कहा गया है, “कार्यकारी मंडल अपनी बैठक में स्वीकार करता है कि प्रो. कलबुर्गी की हत्या के बाद साहित्य अकादमी के अध्यक्ष ने उपाध्यक्ष से फोन पर बात की कि वे प्रो. कलबुर्गी के परिवार से संपर्क करें और इस हत्या के ख़िलाफ़ अकादमी की ओर से संवेदनाएँ अर्पित करें।” संवेदनाएं तो अर्पित नहीं ही की गयीं, जैसा कि श्रीविजय कलबुर्गी के वक्तव्य से पता चलता है, यह भी दुखद रूप से आश्चर्यजनक है कि लेखक की जघन्य हत्या के बाद अकादमी के अध्यक्ष शहीद के परिवार को फोन कर अपनी सम्वेदना देना तक जरूरी नहीं समझते, बल्कि उपाध्यक्ष को फोन पर संदेश देते हैं कि वे सम्पर्क करें. स्वयं अकादमी द्वारा आधिकारिक रूप से दर्ज अध्यक्ष का यह रवैया सामन्ती मनोवृत्ति और नौकरशाहाना कार्य पद्धति का स्पष्ट उदाहरण है. इसमें एक लेखक की सम्वेदनशीलता दूर दूर तक नज़र नहीं आती. बावजूद इसके, कार्यकारी मंडल ने अपने प्रस्ताव में अध्यक्ष की भूमिका की सराहना करना आवश्यक समझा है, इसे विडम्बना ही कहा जाएगा.
प्रस्ताव के इस अंश के आशय को भी समझने की ज़रूरत है – “साहित्य अकादमी माँग करती है कि केंद्र और सभी राज्य सरकारें हर समाज और समुदाय के बीच शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व का माहौल बनाए रखें और समाज के विभिन्न समुदायों से भी विनम्र अनुरोध करती है कि जाति, धर्म, क्षेत्र और विचारधाराओं के आधार पर मतभेदों को अलग रखकर एकता और समरसता को बनाए रखें।” इस वाक्य का अंतर्निहित पाठ यह है कि वर्तमान अशांति का मूल कारण समुदायों के बीच शांतिपूर्ण सहअस्तित्व की भावना का कमज़ोर पड़ना है. यानी अशांति की ज़िम्मेदारी पीड़ित समुदायों के मत्थे डाल दी गयी है, और सरकार को दारोगा की भूमिका सौंप दी गयी है. इस तरह अशान्ति के असली कारकों को छुपा और बचा लिया गया है. ये कारक हैं, बहुसंख्यकवाद का विस्तार और उसे मिल रहा शासकीय संरक्षण. यह प्रधानमंत्री के उस बयान के अनुरूप है जो दादरी काण्ड के कई दिनों बाद दिया गया था, जिसमें सभी समुदायों से मिलजुल कर रहने का आह्वान किया गया था, जैसे कि वे समुदाय स्वयं लड़ने पर आमदा हों और उन्हें लड़ाने के पीछे किसी राजनीतिक समूह की भूमिका न हो. यह एक ऐसी थियरी है जो बहुसंख्यकवादी उन्माद और हिंसा को सैद्धांतिक रक्षा कवच प्रदान करती है.
अकादमी ने जिस तरह चालाकी से इस मामले को निपटाने की कोशिश की है, उससे स्पष्ट है कि वह आरएसएस-भाजपा के दबाव में अपनी स्वायत्तता को बचाने में नाकाम हो रही है. इसका सबूत यह भी है कि वहां पर गिनती के तीन लेखकों के साथ सत्ताधारी दल और आरएसएस के सदस्य शर्मनाक तरीके से लेखकों के शांतिपूर्ण प्रतिरोध को कुचल देने के लिए बुला लिये गये थे। इतने विलम्ब के बावजूद अगर अकादमी अपनी भूलों का निवारण करने के प्रति गंभीर दिखती तो उसका स्वागत किया जाता, किन्तु दुखद है कि उसने लेखक समुदाय को इसका अवसर नहीं दिया. हम अकादमी के इस रवैये की घोर निंदा करते हैं और देशभर के लेखकों, कलाकारों, पत्रकारों और संस्कृतिकर्मियों से अपील करते हैं कि अभिव्यक्ति की आज़ादी और जनवादी मूल्यों की रक्षा के इस अभियान को कमज़ोर न होने दें और एकजुटता की इस लहर को अपना बल प्रदान करें।
मुरली मनोहर प्रसाद सिंह (जनवादी लेखक संघ)
अशोक भौमिक (जन संस्कृति मंच)
अली जावेद (प्रगतिशील लेखक संघ)
हीरालाल राजस्थानी (दलित लेखक संघ)
अनीता भारती (साहित्य-संवाद)
समकालीन भारतीय साहित्य इन दिनों संघर्ष, विरोध, प्रतिरोध, प्रदर्शन, प्रति प्रदर्शन, पुरस्कार वापसी आदि जैसे शब्दों से गूंज रहा है । शुक्रवार को तो इन शब्दों से दिल्ली के रवीन्द्र भवन का परिसर भी गूंजा । कहना ना होगा कि शब्दों में ताकत होती है लिहाजा इस ताकत के आगे साहित्य अकादमी कुछ झुकती हुई नजर आई । साहित्य अकादमी जिसकी स्थापना एक स्वायत्त संस्था के तौर पर की गई थी और इसकी स्थापना करनेवालों ने इस संस्था को लेकर एक सपना देखा था । उनका सपना कितना साकार हो पाया, इसपर लंबी बहस हो सकती है । होनी भी चाहिए । आगे इस लेख में इसपर चर्चा होगी । अबतक करीब तीन दर्जन से ज्यादा लेखक साहित्य अकादमी का पुरस्कार लौटा चुके हैं । इस स्तंभ में इसकी वजहों को लेकर चर्चा हो चुकी है । पुरस्कार लौटानेवाले लेखकों के दबाव में अकादमी की कार्यकारिणी ने कलबुर्गी हत्याकांड की कड़े शब्दों में निंदा की । अकादमी ने तीसरी बार कलबुर्गी की हत्या की निंदा की । यह अच्छी बात है कि एक लेखक की मौत पर साहित्य अकादमी, दबाव में ही सही, तीन बार निंदा करने को बाध्य हुई । हलांकि विरोध कर रहे लेखकों की तरफ से यह बता प्रचारित की गई थी कि अकादमी ने कलबुर्गी की हत्या पर शोक सभा, संदेश आदि नहीं किया । साहित्य अकादमी ने शुक्रवार को कार्यकारिणी की बैठक के बाद जारी बयान में कहा कि – ‘अपनी विविधताओं के साथ भारतीय भाषाओं के एकमात्र स्वायत्त संस्थान के रूप में, अकादमी भारत की सभी भाषाओं के लेखकों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार का पूरी दृढता से समर्थन करती है और देश के किसी हिस्से में, किसी भी लेखक के खिलाफ किसी भी तरह के अत्याचार या उनके प्रति क्रूरता की बेहद कठोर शब्दों में निंदा करती है । हम केंद्र सरकार और राज्य सरकारों से अपराधियों के खिलाफ तुरंत कार्रवाई की मांग करते हैं और यह भी कि लेखकों की भविष्य में भी सुरक्षा सुनिश्चित की जाए ।‘ अकादमी का बयान यहां तो ठीक था लेकिन उसके बाद उसने अपने अधिकारों का अतिक्रमण करते हुए मांग कर डाली कि – केंद्र और राज्य की सभी सरकारें हर समाज और समुदाय के बीच शांतिपूर्ण सहअस्तित्व का माहौल बनाए रखें । साहित्य अकादमी लेखकों की राजनीति के बीच में पार्टी बनती नजर आ रही है । अकादमी इशारों में वो बातें करना चाहती है जो कहीं ना कहीं राजनीति से जुड़ती हैं । अशोक वाजपेयी, नयनतारा सहगल और कई लेखकों ने अखलाक की हत्या का मुद्दा भी उठाया था । समाज में सहिष्षणुता आदि की मांग करना उसी दबाव का नतीजा है । साहित्य अकादमी का केंद्र और राज्य सरकारो से ये मांग करना अपने दायरे से बाहर निकलने जैसा है । लोकतंत्र में हर संस्था की एक निश्टित मर्यादा होती है । इस मर्यादा का अतिक्रमण कर साहित्य अकादमी ने एक खतरनाक परंपरा की शुरआत कर दी है जिसका रास्ता उसको राजनीतिकरण की तरफ ले जा सकती है ।
अकादमी ने अपने बयान में अध्यक्ष प्रोफेसर विश्वनाथ तिवारी का समर्थन भी किया- कार्यकारी मंडल, अकादेमी के अध्यक्ष के सतर्क और कर्मठ नेतृत्व में साहित्य अकादेमी की गरिमा, परंपरा और विरासत को बरकरार रखने के लिए उनके प्रति सर्वसम्मति से अपना समर्थन व्यक्त करता है ।‘ <#कलबुर्गी_रेसोल्यूशन> अब इन दो पंक्तियों पर गौर करने की जरूरत है । इस वक्त यह आवश्कता क्यों महसूस की गई कि कार्यकारिणी अध्यक्ष विश्वनाथ तिवारी के पक्ष में समर्थन का प्रस्ताव पारित करे । क्या विश्वनाथ तिवारी पर कोई खतरा है या फिर उनको लेकर सरकार में कुछ चल रहा है जिसको कार्यकारिणी के इस प्रस्ताव के जरिए संदेश देने की कोशिश की गई है । कुछ तो है जिसकी परदादारी है । साहित्य अकादमी के अध्यक्ष की ही अध्यक्षता में हुई कार्यकारिणी की बैठक ने उनके ही समर्थन में प्रस्ताव पारित कर दिया । इतिहास ने एक बार फिर से अपने को दुहराया । कोलकाता में वर्तमान सामान्य सभा के सदस्यों के चुनाव की अध्यक्षता भी प्रोफेसर तिवारी ने ही की थी । उनकी ही अध्यक्षता में हुई बैठक में उनको अध्यक्ष चुना गया था । उस वक्त इसको लेकर सवाल भी उठाए गए थे लेकिन चुनाव संपन्न होने के बाद ये बातें दब कर रह गई थी । अब वक्त आ गया है कि साहित्य अकादमी के संविधान में बदलाव किया जाए । सामान्य सभा के सदस्यों के चुनाव को मतपत्रों के जरिए चुना जाना चाहिए । हाथ उठाकर हर भाषा के अपने अपने चहेतों को चुन लेने की परंपरा को खत्म किया जाना चाहिए । इसी तरह से सामान्य सभा के सदस्यों को लेकर भी एक बड़ी खामी है । इस वक्त सामान्य सभा में असम, गुजरात, नगालैंड, तमिलनाडू और पश्चिम बंगाल से के सदस्यों की जगह खाली है । अकादमी में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है कि इन जगहों को भरा जाए । अगर किसी भी कारणवश किसी भी राज्य के किसी नुमाइंदे की जगह खाली रहती है तो वो पूरे पांच साल तक खाली रहेगी । अकादमी के वर्तमान अध्यक्ष आदि को कई बार व्यक्तिगत और संस्थागत तौर पर इस बारे में अनुरोध किया गया लेकिन इस विसंगति पर ध्यान नहीं दिया गया । इसकी क्या वजह हो सकती है यह तो अकादमी के कर्ताधर्ता ही जानें । इसके पहले कि साहित्य अकादमी फिर से किसी विवाद में घिरे सामान्य सभा के सदस्यों को इस बाबत विचार करना चाहिए ।
साहित्य अकादमी भले ही स्वायत्त संस्था है पर ये करदाताओं के पैसे से चलती है । स्वायत्तता का मतलब यह नहीं होता है कि उसकी जबावदेही किसी के प्रति नहीं है । जिस तरह से संसदीय समिति ने अकादमी के क्रियाकलापों पर सवाल खड़े किए थे वो किसी भी संस्था की जांच के लिए पुख्ता आधार प्रदान करती है । यहां यह आरोप भी नहीं लगाया जा सकता है कि केंद्र में सरकार बदलने के बाद साहित्य अकादमी पर कब्जे को लेकर सरकार कोशिश कर रही है । उक्त रिपोर्ट तो सीताराम येचुरी की अध्यक्षता वाली कमेटी ने तैयार की थी । उस रिपोर्ट के बाद बनी हाईपॉवर कमेटी की सिफारिशों पर क्या निर्णय लिया गया यह ज्ञात होना शेष है । साहित्य अकादमी पर लंबे समय तक प्रगतिशील साहित्यकारों का कब्जा रहा । उस दौरान साहित्य अकादमी चंद लोगों की मर्जी की गुलाम बनकर रह गई थी। प्रगतिशील लेखकों ने जो परंपरा शुरू की थी वो अब भी बरकार है । सांस्कृतिक यात्राओं के नाम पर विदेश यात्रा में लेखकों के चुनाव को लेकर भी पारदर्शिता होनी चाहिए । अध्यक्ष इस बारे में अंतिम फैसला करते हैं लेकिन कई बार अध्यक्ष और सचिव मिलकर नाम को तय कर लेते हैं । पिछले दिनों सामान्य सभा के कई सदस्यों ने विदेश यात्राएं की । विदेश यात्राओं के नाम पर अपने अपने को दे कि परंपरा को खत्म किया जाना चाहिए । इसके अलावा अकादमी विदेशों में आयोजित होनेवले पुस्तक मेलॆं में भागीदारी करती है । यह अच्छी बात है लेकिन इन पुस्तक मेलों में क्या हासिल होता है इस बारे में दस्तावेज अकादमी की बेवसाइट पर अपलोड किए जाने की आवश्यकता है । जैसे आगामी महीनों में फ्रैंकफर्ट में पुस्तक मेला होगा । उसमें अकादमी का प्रतिनिधि मंडल जाएगा । अकादमी की बेवसाइट पर प्रतिनिधिमंडल के सदस्यों के नाम होने चाहिए और वहां उन लोगों ने क्या किया और क्या नतीजा रहा इस बारे में विस्तार से जानकारी मुहैया करवाई जानी चाहिए । सूचना तो सामान्य सभा की बैठकों में लिए गए फैसलों और चर्चाओं की भी होनी चाहिए । लेकिन इसके लिए इस तरह के बैठकों में चर्चा करनी होगी । पिछले दिनों अकादमी की सामान्य सभा की एक बैठक गुवाहाटी में हुई थी । बताया जाता है कि वो बैठक बमुश्किल आधे घंटे चली । देशभर से चौबीस भाषाओं के प्रतिनिधियों के अलावा करीब सौ सवा सौ लोगों को वहां बुलाया गया और आधे घंटे में बैठक खत्म । करदाताओं के लाखों रुपए फूंकने से हासिल क्या होता है इसपर विचार होना चाहिए । गतिविधियों को अगर बेवसाइट पर अपलोड किया जाए तो उसको रोका जा सकता है ।
दूसरी बात यह कि अकादमी में युवाओं का प्रतिनिधित्व नहीं के बराबर है । सामान्य सभा में युवाओं की भागीदारी बिल्कुल नहीं है । इस वक्त भारत विश्व के सबसे ज्यादा युवाओं वाला देश है । इस बात को ध्यान में रखते हुए सामान्य सभा में य़ुवा लेखकों की भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए अकादमी के संविधान में संशोधन किया जाना चाहिए । दरअसल अकादमी में काबिज चंद लोग इसको होने नहीं दे रहे । सदस्यों और अफसरशाहों का गठजोड़ अकादमी के लिए घातक सिद्ध हो रहा है । इस गठजोड़ को तोड़ने के लिए कदम उठाए जाने की आवश्यकता है । प्रगतिशील जमात कुछ नहीं पा रही है क्योंकि गड़बड़ियों की जनक वही है । इस वजह से ही अकादमी के अध्यक्ष सीना ठोंककर अपने एक साक्षात्कार में कहते हैं कि मेरे पास कहने को बहुत कुछ है । मैं जुबान खोलूंगा तो भूचाल आ जाएगा । तिवारी जी आप हिंदी भाषा से पहले अध्यक्ष हुए हैं, कृपया जुबान खोलकर पूर्व में हुई गड़बड़ियों को उजागर करिए । अगर आप ऐसा नहीं करते हैं तो ये मान लिया जाएगा कि आप भी उसी रास्ते पर चल रहे हैं ।
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