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कृष्णा अग्निहोत्री - 90 प्रतिशत पुरुष सामंती धारणा के हैं


कृष्णा अग्निहोत्री - 90 प्रतिशत पुरुष सामंती धारणा के हैं #शब्दांकन

पक्षपात का शिकार तो हुई, परंतु सम्मान पूरे देश में मिला

- कृष्णा अग्निहोत्री


वरिष्ठ साहित्यकार कृष्णा अग्निहोत्री जी से हुई डॉ ऋतु भनोट की इस लम्बी बातचीत को शब्दांकन पर आपके लिए प्रकाशित करते हुए यह सोच रहा हूँ कि आख़िर क्यों ऐसा है कि हिंदी साहित्य जगत अपने-ही साहित्यकारों के साथ कई दफ़ा दोगला व्यवहार करता है? एक लेखक जिसे पाठकों का भरपूर प्यार मिलता हो उसे-ही आलोचक नज़रअंदाज़ किये जाए ... ज्यादा क्या कहूं आप सब समझदार हैं हाँ इतना ज़रूर कहना चाहुँगा कि कम से कम हम बीती ताहि बिसार दें और आगे की सुधि लें - और ऐसा न होने दें.

भरत तिवारी


Krishna Agnihotri Interview


ऋतु: कृष्णा, द्रोपदी को भी कहते हैं और जो कृष्ण प्रेम में तदाकार होकर कृष्णमय हो जाये उसे भी कृष्णा कहते हैं। जहाँ तक मैं आपको जानती हूं, आपके जीवन में प्रेमपक्ष तो क्षीण ही रहा क्योंकि आपके जीवन में आने वाले पतिनामधारी दोनों पुरुष प्रेम की परिभाषा तक से भी अपरिचित थे। तो क्या मैं यह समझूं कि देवी माँ की अनुकम्पा की छत्रछाया ने ही आपको आज की कृष्णा बनने का सम्बल दिया?

कृष्णा अग्निहोत्री : कृष्णा द्रौपदी का भी नाम है और कृष्णा राजस्थान की एक देशप्रेमी राजकुमारी का भी नाम था जिसने देश को बचाने हेतु विष का प्याला पिया था। जहाँ तक मेरी बात है, प्रेम मेरे लिये आज तक अपरिभाषित ही है। वैसे यह कहना तो असत्य होगा कि कभी भी, किसी भी क्षण में मैंने उसे अनुभूत नहीं किया। 16 वर्ष की थी, तब तो नहीं समझी थी जब शिवकुमार ने प्रेम व विवाह का प्रस्ताव रखा, वह जिज्ञासा का विषय रहा। डर-भय ने उसे समझने व अनुभूत होने का समय ही नहीं दिया।

विवाह पश्चात् मां की संस्कारी भावनावश भी मैं अजनबी, अनजाने, रूखे पति से प्यार नहीं कर सकी। तानाशाह, माँ व परिवार को ही सत्य मानने वाले पति ने प्यार नहीं किया अपितु एक दिन कह ही दिया कि वे मुझे प्यार नहीं करते तो अंतःमन की किसी कृष्णा ने धीरे से अन्याय के विरुद्ध सोचना आरंभ किया व जो मुझे अप्रिय माने और शक्ति प्रदर्शन करे, उसके विरुद्ध मैंने खामोशी से विद्रोह कर दिया। प्यार न पाने की व्यथा पाने के पूर्व ही अहसासी।

श्रीकांत के समय में उनकी नाटकीयता मेरे लिये कुछ समय तक अनोखी थी। न चाहकर भी मैंने यही अनुभूत किया कि जो एक चाहत है व भीतर पनपी है, वही प्यार है। कुछ समय बाद श्रीकांत के स्वार्थ, बच्चों के माध्यम से कही बातें, झूठ, तिरस्कार, अपमान, प्रतिष्ठा छीनने का प्रयास, लेखन को मिटाने के प्रयास, रुपये का लालच, मेरी एक-एक पल की चाहत को कुचलते ही गये। दुःखी, तिरस्कृत कृष्णा ने स्वयं व अपनी बच्ची को एक नरक से दूसरे नरक में रहने से बचाने का कठोर मन बना लिया। वो कदम उठाया जो बेहद कांटों भरा था। कह दिया, “मैं आपसे नहीं मिलना चाहती”। दुष्परिणाम भोगे, दो पतियों से अलग होने की सज़ा भरपूर भोगी। उस दुर्भाग्य के छींटे मेरी बेटी ने भी सहे।

मेरी अन्तर्रात्मा ने नाटकीयता, झूठ व आरोपित शोषण की पुनरावृत्ति से छुटकारा ले लिया। आप ठीक समझ रही हैं कि दुर्गा माँ की अदृश्य छाया के तले मैं उनकी अनुकम्पा से खाई व कुएं दोनों से बाहर आ आज की कृष्णा बन गई।


ऋतु: महिला आत्मकथा लेखन बेहद चुनौतीपूर्ण तथा जोखिम भरा है। अपनी आत्मकथा लिखते समय क्या आपको कभी दुविधा अथवा संकोच का सामना करना पड़ा? क्या आप कभी यह सोचकर द्विधाग्रस्त हुईं कि एक स्त्री के जीवन की नग्न सच्चाइयों पर पाठकों की प्रतिक्रिया कैसी होगी?

कृष्णा अग्निहोत्री : मुझे आत्मकथा हेतु मेरे मित्र वीरेन्द्र सक्सेना ने प्रेरित किया। उस समय सारी आत्मकथाएं पढ़ीं तो मेरे मन में सच्चाई से सच लिखने की हौंस, उत्साह था, जो कई आत्मकथाओं में नहीं है। मेरी दोनों आत्मकथाएं सच और सच से भरी हैं। उस समय जोश में कुछ लोगों के नाम भी लिख दिये, बचपन की घटनाएं साफगोई से लिखीं ताकि दूसरे उसे समझें व उनके बच्चे बचें।

कुछ पुरुषों ने व मेरे साथ की लेखिकाओं ने कहा, ‘‘आपको नाम लेकर नहीं लिखना था।’’ मुझे आश्चर्य है कि लेखिकाएं ही शोषणकर्ता का नाम नहीं जानना चाहतीं या उसे रुष्ट नहीं करना चाहतीं जबकि राजेन्द्र यादव, अवस्थी जी ने ही बुरा नहीं माना। हां प्रभाकर क्षोत्रिय, नामवर जी, हिमांशु नाराज़ है और मेरे लेखन को पसंद नहीं करते। मैं समझौतावादी नहीं रही।

मेरी बेटी को भड़काया गया, सूर्यकांत नागर ने मुझे अश्लील व दिनेश द्विवेदी जैसे अवसरवादी ने सिनिकल तक कह दिया। पाठकों ने सराहा और मेरी आत्मकथा पर जम्मू से लेकर कुमाऊँ तक पी-एच. डी हो रही है।


ऋतुः प्रकाशन से पुरस्कृत होने की राजनीति के बारे में आप क्या कहना चाहेंगी? साहित्यिक खेमेबाजी, गुटबंदी का क्या आपको कभी शिकार होना पड़ा? यदि हाँ, तो इस पैंतरेबाजी से विलग रहकर साहित्य में अपनी पहचान बनाने की यात्रा आपने कैसे तय की?

कृष्णा अग्निहोत्री : प्रकाशकों की गुटबाजी व तानाशाही का पूरी तरह शिकार रही जिसके कारण विलम्ब से मेरा मूल्यांकन हो रहा है। इस संदर्भ में अरविंद बाजपेयी जी, अमन प्रकाशन, अलग हैं, उन्होंने न मुझे देखा, न मिले, तब भी वे मुझे प्रोत्साहन देकर छाप रहे हैं व प्रसार, प्रचार भरपूर है।

उनके प्रयास से ‘आना इस देश’ कोल्हापुर विश्वविद्यालय के तीसरे वर्ष में पाठ्यक्रम के कोर्स में लगा है। गुटबाजी से तो अलग हूं ही। परन्तु ठप्पेबाजी ने तो सताया। इन्दिरा गांधी पर उपन्यास लिखा ‘बित्ता भर की छोकरी’ जो निहायत अच्छा बना पर क्रांग्रेस के ठप्पे ने उसे पछाड़ दिया।

पक्षपात का शिकार तो हुई, परंतु सम्मान पूरे देश में मिला। अब लिखना तो भीतर से संबंधित है। छोटे से छोटे प्रकाशक ने किताबें छापीं और मैं अनवरत् लिखती जा रही हूं।

पक्षपात का शिकार तो हुई, परंतु सम्मान पूरे देश में मिला- कृष्णा अग्निहोत्री #शब्दांकन


ऋतुः महिला रचनाकार अपनी रचनाओं में जब भी शारीरिक संबंधों की चर्चा करती हैं तो अधिकतर उनके लेखन को ‘बोल्ड’ अथवा ‘अश्लील’ कहकर खारिज करने की कोशिश की जाती है। महिला लेखन के संदर्भ में आप बेबाक बयानी और अश्लीलता के महीन अंतर को कैसे परिभाषित करेंगी?

कृष्णा अग्निहोत्री : स्वतन्त्रता के पश्चात् भी भारत के पुरुष समाज में आज भी 90 प्रतिशत पुरुष सामंती धारणा के हैं। अब तक वे ही नारी के नख-शिख का जैसा चाहे विवरण कर आनंद उठाते रहे और उसे शृंगार भावना के अंतर्गत तौलते रहे, अब उन्हें अपना यह अधिकार पुरुषों के अतिरिक्त स्त्री को सौंपते बुरा लगता है, इसीलिये उन्हें हमारा छोटा सा भी विवरण काटता है कि यह चौके की दासी हमसे भी अच्छा चित्रण करती है, मेरी कहानी ‘अंतिम स्त्री’ को नागर ने अश्लील कहा पर मैं भारत के कुछ तटस्थ समीक्षकों से प्रार्थना करुंगी कि वे मेरे 17 कहानी संग्रहों में से रोमानी चित्र के अतिरिक्त कोई अश्लीलता ढूंढ दें

यही कथन उपन्यास तईं है, लेकिन कुछ तो लोग कहेंगे, तो कहना है, आरोपित करना ही है तो करो, कुछ भी बोलो, बिना पढ़े बोलो। अश्लीलता के खुले चित्रण से भावनाएं प्रभावित होती हैं जैसे पागल नग्न घूमेगा तो हम उसे अश्लील नहीं कहेंगे परन्तु छोटे, झीने, उभारने वाले वस्त्र पहने युवती का चित्रण अश्लीलता होगी।


ऋतुः कृष्णा जी, आप वैचारिक धरातल पर किस राजनीतिक पार्टी के साथ जुड़ी हैं?

कृष्णा अग्निहोत्री : किसी राजनीतिक पार्टी के साथ मेरा कोई जुड़ाव नहीं रहा। मेरे माता-पिता कांग्रेस से जुड़े थे इसलिये लोगों ने सोचा कि मैं भी कांग्रेस से हूँ, परंतु वास्तविकता यही है कि कांग्रेस के प्रति मेरा झुकाव कभी नहीं था ।


ऋतुः आपका उपन्यास ‘बित्ता भर की छोकरी’ श्रीमती इंदिरा गांधी के जीवन व व्यक्तित्व पर केन्द्रित है, इंदिरा जी पर आधारित उपन्यास लिखने के पीछे क्या विशेष कारण रहे?

कृष्णा अग्निहोत्री : इंदिरा जी मेरी प्रिय राजनेत्री रहीं हैं, जिसका सम्बंध उनके व्यक्तित्व से अधिक है। मेरा उनकी राजनीतिक पार्टी के साथ कोई लगाव नहीं था। मेरा विचार है कि भले ही वे किसी भी राजनीतिक दल से क्यूँ न जुड़ी होतीं, उनका किरदार ऐसा ही शानदार होता। श्री राजेन्द्र यादव ने किसी प्रसंग में एक बार कहा था कि महिला रचनाकार किसी राजनेता पर उपन्यास क्यूं नहीं लिखती? उनके शब्दों ने भी अवचेतन में ‘बित्ता भर की छोकरी’ का बीजवपन होने में अपनी भूमिका निभाई। राजेन्द्र जी ने प्रस्तुत उपन्यास को बहुत सराहा व इसकी समीक्षा भी ‘हंस’ में छापी।


ऋतुः हिन्दी साहित्य में सर्वाधिक पुस्तकों का योगदान देने वाली महिला लेखिका होने पर भी आपका वैसा मूल्यांकन नहीं हो पाया, जिसकी आप अधिकारिणी हैं, इस विषय में आप क्या कहना चाहेंगी?

कृष्णा अग्निहोत्री : एक कड़वी सच्चाई है कि प्रचार-प्रसार उन साहित्यकारों का होता है, पुरस्कार उन्हें मिलता है जो राजनीति से जुडे़ हैं। यद्यपि यह बात सब पर लागू नहीं होती परंतु अधिकतर लोग इस श्रेणी में आते हैं। मानती हूँ, अपने समर्थकों की कमी से जितना मूल्यांकन होना था- नहीं हो रहा- क्योंकि आज की समीक्षा व पत्रकारिता अपने-अपने ही को रेवड़ी बांट रही है - तब भी माँ दुर्गा की दया है कि मैं चुप नहीं, बौखलाती हूं गलत से, कुछ देर तक धराशायी हो जाती हूँ, पुनः उठ खड़ी होती हूं और लिखने के लिए तख्ती हाथ में उठा लेती हूं।

मेरे सर पर कभी कोई वरदहस्त नहीं रहा। बड़ी लम्बी संघर्षपूर्ण लेखन यात्रा है मेरी- पता नहीं लोग कैसे एक कहानी- एक लेख लिखकर विज्ञप्ति पा लेते हैं। मैं तो इतना लिखकर भी अपने आस-पास सही मूल्यांकन की दृष्टि भी नहीं पा सकी। मेरा लेखन परंपरावादी नहीं पूर्ण मानव मूल्यों से भरा है और शनैः-शनैः उसका मूल्यांकन हो रहा है और आगे भी होता रहेगा।




ऋतुः कृष्णा जी, आपको समकालीन महिला रचनाकारों से विलग करके कैसे आँका जा सकता है? लेखन के क्षेत्र में आपकी कौन सी ऐसी उपलब्धि है जो आपको विलक्षण अथवा अद्वितीय बनाती है?

कृष्णा अग्निहोत्री : आपने सही पूछा कि लेखिकाएं अच्छा लिख रही हैं, फिर मैं उनसे अलग कैसे कही जा सकती हूँ? आपके प्रश्न के उत्तर में मैं इतना ही कहना चाहूंगी कि मेरे लेखन में विविधता बहुत है। अधिकतर महिलाओं ने प्रेम संबंधों, स्त्री-पुरुष सम्बन्धों पर साहित्य रचना की परंतु मैंने अपनी रचनाओं में मानव जीवन के सभी रंग समेटे हैं।


ऋतुः मैं चाहूंगी कि आप अपनी कुछ मुख्य रचनाओं के आधार पर अपनी बात को थोड़ा और विस्तार से स्पष्ट करें?

कृष्णा अग्निहोत्री : टपरेवाले’ उपन्यास में टपरे वालों की छिछलन भरी दुःखद स्थिति है। ‘नीलोफर’ उपन्यास में पहली बार अरब की गुलाम प्रथा, आदिवासी क्षेत्र के अंधकार व विदेशों के मशीनीकरण का चित्रण है। ‘बित्ताभर की छोकरी’ राजनीतिक उपन्यास है जिसमें इंदिरा जी का व्यक्तिगत जीवन वर्णित है, उनके संघर्ष को एक पत्रकार के माध्यम से अंकित करते हुए देश की समकालीन समस्याओं का चित्रांकन कठिन कार्य रहा। ‘मैं अपराधी हूं’ उपन्यास के माध्यम से मैंने यह संदेश देने का प्रयास किया है कि हम हमेशा देश की परिस्थितियों के लिए राजनीति व नेताओं को दोषी ठहराते हैं, जबकि दोषी हम स्वयं हैं क्योंकि हमारी निष्क्रियता ही देश की मौजूदा परिस्थितियों के लिए उत्तरदायी है। ‘बात एक औरत की‘ में एक पत्नी का मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण व महिला अधिकारों को प्रस्तुत किया है तथा ‘कुमारिकाएँ’ में भारत में परिस्थितिवश कुमारी रह जाने वाली लड़कियों की स्थिति का पारिवारिक व सामाजिक चित्र है। ‘आना इस देश’ उपन्यास में भारत-पाकिस्तान की भौगोलिक सरहदों से बंटे परंतु मानवता के सूत्र में बंधे लोगों की पीड़ा का चित्रण है।

डॉ. ऋतु भनोट

एम.ए., पी-एच.डी. (हिंदी) पंजाब विश्वविद्यालय, चंडीगढ़.
यू.जी सी. की ओर से हिंदी विभाग, पंजाब विश्वविद्यालय, चंडीगढ़ में पोस्ट डॉक्टोरेल रिसर्च फेलो
संपर्क:
4485, दर्शन विहार सेक्टर-68, मोहाली
ritubhanot@yahoo.com

इतिहास हो या अंचल या विदेश, बिना पूरा अध्ययन व उसमें डूबे मैं कुछ नहीं लिखती। मैंने मध्यप्रदेश, झाबुआ, जलगाँव का दौरा किया। अरब के आदिवासियों की कहानी भी प्रस्तुत की। मेरा नवीनतम उपन्यास ‘प्रशस्तेकर्माणी’ इसी कड़ी की अगली रचना है जिसमें आदिवासी, कालबेलिया, बसोड़, कुम्हार तक मैंने दलित चेतना को बढ़ाया है। किसी भी महिला रचनाकार का रचना फलक इतना विस्तृत नहीं है। नाटक भी लिखा, बाल साहित्य की रचना भी की, डायरी भी छप रही है, निबन्ध भी प्रकशित हो रहे हैं। मैं चाहती हूँ मेरे साहित्य के मूल्यांकन में इस बात को विशेष रूप से ध्यान में रखा जाये।


ऋतुः  अपनी प्रिय लेखिकाओं के बारे में कुछ बताएं?

कृष्णा अग्निहोत्री :  महिला रचनाकार बहुत अच्छा लिख रही हैं परन्तु यदि मुझे अपनी प्रिय लेखिकाओं के बारे में बताना है तो  मन्नू भंडारी, उषा प्रियंवदा का लेखन मुझे बहुत प्रिय है। मेरी समकालीन लेखिकाओं में से ममता कालिया तथा नासिरा शर्मा मेरी प्रिय लेखिकाएं हैं। आधुनिक लेखिकाओं में से नीलिमा सिंह, नीलिमा कुलश्रेष्ठ, प्रतिभा मिश्र तथा इंदिरा दांगी बहुत अच्छा लिख रही हैं।


ऋतुः आपके लिए साहित्य क्या है, क्या आप साहित्य का उपयोग जीवन यापन हेतु करती हैं?

कृष्णा अग्निहोत्री : साहित्य एक सोद्देश्यपूर्ण संवेदना है, जो अमूल्य है। मैंने आर्थिक संकट वर्षों झेला है परन्तु न तो कभी अर्थ की मांग रखी और ना ही पुरस्कारों की जोड़-तोड़ से उसे कमाने की लालसा रखी। पढ़ी, प्राध्यापक बनीं और लिखती रही। लघु पत्रिकाओं व सभी छोटे प्रकाशकों से अर्थ की आशा न रख प्रकाशन करवाया। बाजारवाद साहित्य का विघटन है, मैं इस दौड़ में शामिल नहीं हूं। लेखन मेरा व्यवसाय नहीं, मेरा जीवन है- और जीवन किसी लाभ की आशा के साथ नहीं जिया जाता। लेखन मेरा प्रियतम, मित्र, आत्मीय है।


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Marlon James - अमेरिकी रेसिस्ट यह नहीं समझ पाते कि वह रेसिस्ट हैं


मार्लोन जेम्स: यूरोपियन लोगों को बौद्धिक रूप से विकसित होने में काफी वक्त लगेगा #शब्दांकन



जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल 2016 में मार्लोन जेम्स  से बातें

- अमित मिश्रा 


वह दिखते रॉक स्टार से हैं और उऩकी बातें करने का अंदाज किसी जुनूनी नेता जैसा है। हम बयां कर रहे हैं 2015 के बुकर प्राइज विनर मार्लोन जेम्स की शख्सियत की। जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल 2016 में अमित मिश्रा ने बात की मार्लोन जेम्स सेः


अमित मिश्रा: आपने लिखने की शुरुआत कब की और इसकी प्रेरणा कहां से मिली ?

मार्लोन जेम्स: जब से मुझे याद है मैं तबसे लिख रहा हूं। मैं एक्स मैन सीरीज की किताबें पढ़ कर बड़ा हुआ हूं और उनका थ्रिल और अंदाज मुझे खूब पसंद आता था। मेरी मां ने अब भी शायद वह कहीं संभाल कर रखी होंगी। शायद वहीं से लेखन मुझमें कुलबुला रहा था और वक्त से साथ यह मैच्योर होकर सामने आया।


अमित मिश्रा: भारत आते ही दिल्ली एयरपोर्ट पर आपके साथ जिस तरह का बर्ताव हुआ उससे देश के बारे में क्या छवि बनती है?

मार्लोन जेम्स: जब से मैंने सोशल मीडिया पर इस घटना के बारे में लिखा है तब से लोग इस घटना को लेकर मुझसे माफी मांग रहे हैं। यह मुझे काफी हास्यास्पद लगा। लगता है मुझे अब लोगों को कुछ ह्यूमर सिखाना पड़ेगा। कोई एक घटना किसी देश की छवि बना या बिगाड़ नहीं सकती। लंबी दूरी की यात्रा के बाद अथॉरिटी का रूखा व्यवहार परेशान करने वाला था लेकिन जयपुर पहुंचते-पहुंचते बुरी यादें पिघलने लगीं और सबकुछ अच्छा लगने लगा। मैं यहां आकर काफी खुश हूं और मुझे किसी से कोई शिकायत नहीं है।


अमित मिश्रा: आपने विचारों को रखने के मामले में आप काफी मुखर है क्या इसकी वजह से आप हमेशा मुश्किल में नहीं फंसते रहते?

मार्लोन जेम्स: मेरे बात करने के अंदाज से कोई मेरे बारे में क्या सोचता है मैं इसकी परवाह नहीं करता। मैं शुरू से ही ऐसा हूं। शायद यह आदत मुझे अपनी माता-पिता से मिली है। वह बचपन से ही खुल कर बात करने वाले थे। मेरी मां काफी सपाट बोलती थीं। मिसाल के तौर पर जब मैं अपने दोस्तों के साथ बाहर जाने की तैयारी कर रहा होता तो वह कहतीं बेहतर होगा तुम ब्रश करके जाओ क्योंकि मुझे तुम्हारी सासों की महक दूर से महसूस हो रही है। वह ऐसी बातें मेरे दोस्तों के सामने ही कह देतीं थीं। शायद ऐसे रहन-सहन ने ही मुझे मुंहफट बना दिया है। इसके अलावा शायद मेरे पास फालतू की बकवास सुनने के लिए धैर्य की भी कुछ कमी है।


अमित मिश्रा: आप का मानना है कि यूरोपियन रेसिज्म को लेकर पूरी तरह से गंवार हैं और उन्हें इसकी रत्ती भर भी समझ नहीं है, ऐसा क्यों.

मार्लोन जेम्स: हां वे ऐसे हैं और शायद उन्हें किसी ने यह पहले बताया नहीं है। ये वो लोग हैं जो खुद को रेसिस्ट कहे जाने पर चौंक जाते हैं लेकिन बराक ओबामा पर जोक बनाते हैं। इनकी फुटबॉल लीग से ही कोई अश्वेत खिलाड़ी जब मैदान पर आते हैं तो उसका स्वागत मैदान में केले फेंक कर करते हैं। मुझे लगता है अभी यूरोपियन लोगों को बौद्धिक रूप से विकसित होने में काफी वक्त लगेगा और फिलहाल मुझे ऐसा होता दिख भी नहीं रहा है।


अमित मिश्रा: अमेरिका को भी आप रेसिस्ट मानते हैं।

मार्लोन जेम्स: अमेरिकी लोगों के साथ दिक्कत यह है कि वह यह जानते हैं कि रेसिज्म बुरा है लेकिन सारे अमेरिकी रेसिस्ट यह नहीं समझ पाते कि वह रेसिस्ट हैं। उन्हें लगता है कि जब तक किसी अश्वेत या एशियन को उसके रंग की वजह से बुरी तरह परेशान न किया जाए तब तक सब ठीक है। रेसिज्म सिर्फ बुरी चीज ही नहीं बल्कि अब यह सिस्टम में घर कर चुकी है। आप दुनिया में सबसे अच्छे इंसान होकर भी रेसिस्ट हो सकते हैं। कहीं न कहीं आप उस रेसिस्ट सिस्टम से फायदा तो उठा ही रहे होते हैं जो किसी खास रंग और रहन-सहन के लोगों को संसाधनों से वंचित कर रहा होता है। अपने से अलग दिखने वाले को सिर्फ देखने भर से जजमेंटल हो जाना रेसिस्ट होने की पहली निशानी है। श्वेतों को यह बात समझ में नहीं आती चाहें जितनी बार भी उन्हें इस बारे में समझाया जाए।


अमित मिश्रा: ऑस्कर पुरस्कारों पर भी इस बार रेसिस्ट होने के आरोप लग रहे हैं, आपका क्या कहना है।

मार्लोन जेम्स: वहां बैठे लोग सिर्फ रेसिस्ट ही नहीं आलसी भी हैं। वो फिल्म देखने की जहमत ही नहीं उठाना चाहते। मैं ऐसे पैनलिस्ट को जानता हूं कि वह थियेटर में जाकर मूवी देखने की बात तो दूर अगर उनके पास डीवीडी भी भेज दी जाए तो उसे भी आलस की वजह से पूरी नहीं देखते। उनेक पास इतना वक्त और दिमाग नहीं है कि वह सोच-समझ कर अश्वेत या एशियन को पुरस्कारों से दूर रखने की साजिश रचें। असल में वह यह सब सोच ही नहीं सकते। मुझे लगता है कि पुरस्कारों का चयन करने वाले ज्यादातर पैनल इस तरह के आलसी लोगों से भरे पड़े हैं।


अमित मिश्रा: आपका लेखन समाज की उस परत को कुरेदता नजर आता है जिसमें ढेर सारे बुरे कैरक्टर्स हैं, क्या ऐसा जानबूझ कर करते हैं।

मार्लोन जेम्स: मैंने जमैका में 70-80 के दशक का वह दौर करीब से देखा है जब आपको अपने आसपास वैसे तो सबकुछ बहुत शांत नजर आता है लेकिन पॉलिटिक्स से लेकर क्राइम तक जिंदगी में शिद्दत से घुलामिला रहता है। डर का एक सम्राज्य लोगों के दिमाग में घर कर चुका था। मेरी कहानियां उसी माहौल से निकली हुई कहानियां हैं।


अमित मिश्रा: अब जब लोग हल्की-फुल्की और साइज में पतली किताबें पढ़ना चाहते हैं लेकिन आप अब भी नैरेशन का काफी डिटेल स्टाइल अपनाते हैं इसका कोई खास कारण।

मार्लोन जेम्स: (मुस्कुराते हुए) मेरे लिखने का यही स्टाइल है। मैं डिटेलिंग में जाता हूं जिसकी वजह से किताब मोटी हो जाती है। शायद यही एक वजह थी कि मेरी पहली किताब को तकरीबन 70 पब्लिकेशंस ने रिजेक्ट कर दिया। मैं अपने कैरक्टर्स की शख्सियत और उनके साथ होने वाली घटनाओं की परत में जाना चाहता हूं। कहानी का असली तत्व वहीं से निकल कर आता है।


अमित मिश्रा: आपकी कहानियों में असल जिंदगी के कई कैरक्टर्स जैसे बॉब मार्ली, जमैकन गैगस्टर विंस्टन बरी बॉय और सीआईए एजेंट नजर आते हैं। क्या ऐसा जानबूझ कर करते हैं जिससे कहानी असल जिंदगी सी नजर आए।

मार्लोन जेम्स: मैंने अपनी किताब  अ ब्रीफ हिस्ट्री ऑफ सेवन किलिंग्स  में मशहूर कल्चर स्टार बॉब मार्ली की हत्या को मेन प्लॉट के तौर पर रखा है। असल में यह कहानी मेरे दिमाग में 1991 से घूम रही थी जब मैं ग्रेजुएशन में था। अभी मेरा लेखन शुरु होने को था। मैंने टिमोथी व्हाइट की एक कहानी पढ़ी जिसमें एक युवा बॉब मार्ली की हत्या की साजिश रचता है। मेरे दिमाग में यह कहानी घर कर गई। उसके बाद बरसों तक यह प्लॉट मेरे दिमाग में घूमता रहा। चूंकि मैंने अपने आसपास खबरों में गैंगस्टर से लेकर सीआईए तक सबको महसूस किया है तो उनका इस कहानी में उतर आना एक स्वाभाविक प्रक्रिया है।


अमित मिश्रा: आपकी कहानी में ढेरों ग्रे शेड के कैरक्टर्स नजर आते हैं। इनको इतनी तफ्सील से कैसे लिख पाते हैं।

मार्लोन जेम्स: मेरे माता-पिता दोनों ही पुलिस सर्विस में रहे हैं। मेरी मां डिटेक्टिव रही हैं। ऐसे में इन कैरक्टर्स को लेकर मेरा अलग तरह का आकर्षण है। ऐसे कैरक्टर्स लोगों को अपनी तरफ खींचते हैं। एक पाठक को भी किताब पढ़ने के बाद अक्सर वे कैरक्टर्स याद रह जाते हैं जिनमें ग्रे शेड ज्यादा होता है। शायद यही मेरे लेखन का आकर्षण है।


अमित मिश्रा: आपके फेवरेट राइटर कौन हैं।

मार्लोन जेम्स: मैं इस मामले में कुछ अलग हूं। मुझे लेखक नहीं लेखन आकर्षित करता है। मैं किताबों को आदर्श बना कर बड़ा हुआ हूं। मैं जॉन ओ हारा की किताब अपॉइंटमेंट इन समारा को पढ़ कर आश्चर्यचकित रह गया था। मैं किताब को आदर्श मानता हूं। हमारे साथ दिक्कत यह है कि हम किताबों से ज्यादा राइटर को पढ़ते हैं। लोग एक महान राइटर की दरमियांना किताब पर घंटो बर्बाद कर देते हैं जबकि एक छोटे राइटर की महान कृति को मिस कर देते हैं।


अमित मिश्रा: जमैका से अमेरिका आने के बाद वहां क्या बदलाव महसूस करते हैं।

मार्लोन जेम्स: वहां कहने को तो बहुत कुछ बदल रहा है लेकिन अब भी वहां बहुत कुछ ऐसा हो जो बदलने का नाम नहीं ले रहा है। मैं बात कर रहा हूं राजनैतिक परिस्थितियों की जो जैसी की तैसी हैं। करप्शन अब भी चरम पर है। आर्थिक रूप से जमैका कहीं पहुंचता नजर नहीं आ रहा, लोग मर रहे हैं सरकार बेमायने कदम उठा कर अपनी जिम्मेदारी पूरी मान लेती है। यह सब काफी निराशाजनक है, शायद उतना ही निराशाजनक जितना 10 साल पहले 20 साल पहले या शायद 50 साल पहले था।


अमित मिश्रा: आपने खुद को गे स्वीकार किया है। ऐसे में आप दुनिया भर में एलजीबीटी राइट्स के बारे में क्या सोचते हैं।

मार्लोन जेम्स: हर इंसान अपनी सोच को लेकर आजाद है और किसी को हक नहीं कि उस पर कोई विचार थोपे। किसी सरकार को भी नहीं। किसी के रहन-सहन पर टोका-टाकी साम्राज्यावाद का पहला लक्षण है। हम अब क्वीन के राज में नहीं रह रहे हैं। क्या अच्छा है क्या बुरा यह हमें क्वीन नहीं बताएंगी। इन बातों से बाहर आने का वक्त आ गया है। रोकटोक से कुछ होने वाला नहीं है। जो जैसा है वो वैसा है।


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अशोक वाजपेयी - अपने किए को अवमूल्यित किए जाते देखना त्रासद है



मेरा साहित्य संसार के अनुराग से उपजता है

अशोक वाजपेयी से मनीषा कुलश्रेष्ठ की बातचीत

 साक्षात्कार


मनीषा कुलश्रेष्ठ का सवाल - महज एक शुरुआती सवाल, बस शुरुआत भर के लिए, आपने कविता पहले शुरू की या आलोचना । दोनों को एक साथ निभाया कैसे ? फिर आलोचना छोड़ क्यूं दी ।

अशोक वाजपेयी का जवाब - शुरू तो कविता से ही किया, उम्मीद है कि अन्त भी उसी से होगा । पहली कविता 9 बरस की उमर में, पहली आलोचना जब 17 बरस का था । अपने समय, अपनी दुनिया को समझने के लिए दोनों जरूरी हैं, उनमें सरोकारों, उत्सुकताओं और तनावों की साझेदारी रही है, सो निभाने में कोई बड़ी दिक्कत नहीं हुई । ऐसा भी हुआ है कि बरसों कविता नहीं लिखी, आलोचना लिखी, आलोचना नहीं लिखी, कविता ही लिखता रहा । छोड़ा कुछ नहीं क्योंकि संसार से अनुराग किसी विराग के लिए अब तक नहीं छोड़ा । आलोचना छोड़ी नहीं, ‘कभी–कभार’ जैसा पिछले 18 वर्षों से अबाध चल रहा, साप्ताहिक स्तम्भ आलोचना की ही एक अधिक लोकप्रिय विधा है ।



सवाल - बचपन में चलें, साहित्य की बारहखड़ी की शुरुआत कब और कैसे ? गद्य और कविता में कविता ने ज्यादा क्यों मोहा ? प्रथम साहित्यगुरु ?

जवाब - अपने माता–पिता की पहली सन्तान था । अकेला महसूस करता था । शब्दों से खेलना शुरू किया, सो कविता उसका अच्छा माध्यम लगी । यों तो बाद में पर्याप्त आलोचनात्मक गद्य लिखा या बोला पर शुरू में कविता की लयात्मक अभिव्यक्ति और संभावना ने ही मोहा । पहले साहित्यगुरु तो मेरे नवमी–दसवीं कक्षाओं के अध्यापक लक्ष्मीधर आचार्य थे, जिन्होंने पन्त, अज्ञेय आदि की कविता पढ़वायी । फिर अज्ञेय से बहुत सीखा ।



सवाल - युवावस्था में क्या मार्क्स ने मोहा ? हां तो क्यूं ? नहीं, तो क्यूं नहीं ?

जवाब - बहुत सारे मार्क्सवादी विचार जैसे समता, शोषण विहीनता, न्याय आदि ने तब मोहा था और मैं उन्हें आज भी बहुत मूल्यवान मानता हूं, लेकिन बाद में, इन विचारों के नाम पर जो नृशंस तानाशाहियों, हिंसा, नरसंहार आदि हुए और लेखक–संगठनों ने अत्याचार–अनाचार किए, उनसे मोहभंग भी होता रहा ।



सवाल - आप जब युवा थे, मुक्तिबोध दुनिया से जा रहे थे । किसी कवि के ऐसे संघर्ष और मृत्यु ने क्या असर डाला, विस्तार से बताएं, उस समय और कविता को लेकर ।

जवाब - मुक्तिबोध की स्थिति और मृत्यु दोनों ने गहरा प्रभाव डाला । 47 वर्ष का होने से पहले वे दिवंगत हुए और उनके जीते उनका एक कविता संग्रह तक प्रकाशित नहीं हो पाया । अपनी कविताओं में लम्बा–जटिल रूपाकार चुनकर वे अपने सत्य पर अटल रहे, मुक्तिबोध हमारे समय के एक बड़े सत्याग्रही थे । मैंने यथासमय, यथासम्भव बाद में कोशिश की । निजी स्तर पर ‘पहचान’ पत्रिका में 15 युवा कवियों के पहले संग्रह छापकर और सार्वजनिक स्तर पर मध्यप्रदेश में पुस्तक खरीद में कविता को वरीयता देकर । अपने यत्किंचित सच पर अड़ा रहकर मैं समवर्ती कविता का शायद लगभग प्रतिलोम बन गया ।




सामयिक सरस्वती


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सवाल - आप मुक्तिबोध के निकट रहे, विनोद कुमार शुक्ल के आप अनन्य प्रशंसक हैं। आपने स्वयं कवि होते हुए, इन दो सर्वहारा कवियों पर बहुत लिखा है और उन्हें हाईलाइट किया । इसके पीछे क्या प्रेरणा रही ? लोग कहते हैं कि मुक्तिबोध को मिथ बनाकर पेश किया गया ।

जवाब - अब तो इन दोनों कवियों के प्रशंसकों और उन पर गम्भीरता से लिखने वालों की बड़ी संख्या हो गई है लेकिन इन पर गम्भीरता से आलोचना पहले लिखने वालों में मैं था प्रेरणा थी दो जटिल कवियों को आलोचना के द्वारा थोड़ा सम्प्रेष्य बनाने का उपक्रम । हालांकि मैंने अपने पहले निबन्ध ‘भयानक खबर की कविता’ में मिथ बनने के प्रति आगाह किया था, मुक्तिबोध कई कारणों से मिथ बनकर रहे । कई और लेखक थोड़ी देर के लिए मिथ बने हैं पर मुक्तिबोध और अज्ञेय अभी तक मिथ बने हुए हैं तो यह उनके कालजयी सत्व का ही साक्ष्य है ।



सवाल - आप स्वयं को कितना सफल कहेंगे एक कवि के तौर पर ? कलाविद् के तौर पर आलोचक के तौर पर ?

जवाब - अपनी सफलता का आकलन मैं नहीं कर सकता, वह करना अनैतिक होगा पर मेरा आग्रह सफलता पर नहीं, सार्थकता पर रहा है और उसका निर्णय भी दूसरे ही कर सकते हैं । मैं बुनियादी रूप से कवि हूं और आलोचना, कलाप्रेम आदि सब उसका ही विस्तार या रूपान्तर रहे हैं ।



सवाल - आपकी आलोचकीय दृष्टि ने कथा साहित्य से दूरी बरती, गद्य से अरुचि की वजह ? हालांकि निर्मल वर्मा और वैद साहब के लेखन के आप मुरीद रहे हैं।

जवाब - गद्य से मेरी कोई दूरी या उसमें कोई अरुचि नहीं है, मैंने बहुत सारा कथा साहित्य पढ़ा है । विदेशी भी लेकिन मुझे लगा कि आलोचना में कुछ सार्थक शायद कविता और कलाओं के बारे में ही कर सकता हूं । एकाध बार सोचा था कि कभी हिम्मत जुटा पाऊं तो निर्मल वर्मा, कृष्ण बलदेव वैद और कृष्णा सोबती के कथासाहित्य के बारे में कुछ लिखूं । तीनों में मुझे कथा में गहरी कविता दिखाई देती रही है और तीनों ने अपने–अपने ढंग से कथाभाषा और शिल्प का निर्भीकता से स्थापत्य बदला है पर हिम्मत नहीं जुटा पाया ।



सवाल - आपका सरोकार हालांकि कलाओं के समस्त स्वरूपों के प्रति सघन रहा है । कला और बाजार के बीच भी आपने खुद को पाया है । लोगों ने आपके दिए प्रा्राइस टैग भी लिए हैं लेकिन कला के प्रति इतना करके भी आप हिन्दी में कोई दूसरे आर्ट क्रिटिक नहीं बना सके जो कला और साहित्य के बीच सामंजस्य बिठा सकें । हिन्दी पत्रकारिता तो उस स्तर पर खरी ही नहीं उतरती ।

जवाब - यह कहना अधिक सही होगा कि शास्त्रीय संगीत और नृत्य, ललित कलाएं मेरे ध्यान और अनुराग में प्रमुखता से रही है । बाजार तो ललित कलाओं में ही, वह भी लगभग डेढ़ दशक पहले आया है । उसने कलालोचना को निश्चय ही प्रभावित किया है पर वह उसे भ्रष्ट या विपथगामी नहीं कर पाया है । ऐसे आलोचक बनाना मेरा कर्तव्य तो नहीं था । फिर भी उदयन वाजपेयी, यतीन्द्र मिश्र आदि ने इसी क्षेत्र में सार्थक काम किया है ।



सवाल - आप एक पूर्णकालिक आलोचक और रचनाकार अंशकालिक आलोचक में से किसे बेहतर मानते हैं? क्या एक रचनाकार सुघड़ आलोचना लिखकर, लीक से बंधी बंधाई आलोचना को खारिज कर रहा होता है ? ‘रचनात्मक समीक्षा’ की परिभाषा आखिर क्या हो ?

जवाब – पूर्णकालिकता और अंशकालिकता अपने आपमें कई बार शुद्ध भौतिक कारणों से होती है यानी रुचिवश नहीं, विवशता की तरह । उनमें अगर कुछ सार्थकता हो पाए तो उसकी सीमा का अतिक्रमण हो जाता है । रचनाकार जब आलोचना लिखता है तो वह अक्सर लीक से बंधी आलोचना की सीमाएं लांघ रहा होता है । यह साहस उसे रचना से मिलता है । हमारे यहां अज्ञेय, मुक्तिबोध, निर्मल वर्मा, मलयज आदि इसके उजले उदाहरण हैं ।



सवाल - आज का युवा पाठक अशोक जी के आलोचकीय स्वरूप से नावाकिफ है, कभी–कभार के बहाने जरूर वह उस बौद्धिक और कलाविद् दृष्टि से एक वैश्विक कला और साहित्यिक खिड़की से झांक लेते हैं। क्या कविता पर आगे कोई आलोचकीय किताब पाइप लाइन में है ?

जवाब - अपने प्रिय तीन बड़े कवियों अज्ञेय, शमशेर, मुक्तिबोध, पर अब तक मैंने जो लिखा है, उसके साथ–साथ तीन नये निबन्धों को शामिल कर एक नयी पुस्तक ‘कविता के तीन दरवाजे’ जनवरी, 2016 के उत्तरार्द्ध में प्रकाशित होने जा रही है ।



सवाल - मेरे सवाल एक आलोचक या कवि से ही नहीं, बल्कि हिन्दी के समकालीन परिदृश्य पर एक सतत दृष्टि रखनेवाले आकलनकर्ता से भी हैं। आपने हाल ही में युवा कवियों पर कुछ विवादास्पद कहा जिससे सारे युवा कवि निराश हैं। एक समकालीन युवा कविता से आपकी क्या अपेक्षाएं हैं?

जवाब - अगर मैं ज्यादातर युवा कविता से निराश हूं जैसा कि अपने समय और पीढ़ी की भी कविता से रहा हूं तो उनका मन बहलाने के लिए तो कुछ नहीं कह सकता । मैंने सिर्फ एक पुरस्कार के सिलसिले में उसकी निर्धारित अवधि के दौरान निर्धारित आयु सीमा में किसी पत्रिका में प्रकाशित कविता को उसके योग्य नहीं पाया था । वह समूची युवा कविता पर निर्णय नहीं था । मेरी अपेक्षा साहस, कल्पनाशीलता, शिल्प और भाषा में प्रयोगशीलता की है - अगर वह नहीं है जैसा कि मुझे सिर्फ युवा ही नहीं, प्रौढ़ कविता में भी लगता है तो अपनी निराशा या हताशा को छुपाना मुझे अनावश्यक लगता है । अलबत्ता हो सकता है कि मेरी समझ गलत ही हो ।



सवाल - आपने अकसर बल्कि शुरू ही से अपनी कविताओं में, भाषणों में त्वरित प्रज्ञा से नये अनूठे, सटीक शब्द हिन्दी जगत को दिए हैं, लोगों ने चाव से इस्तेमाल किया है । इसकी पारंपरिकता में अपने से पहले आप किसको पाते हैं। संस्कृत में ही कोई हो ।

जवाब - मुझे भले इस कारण कुछ प्रसिद्धि मिल गयी हो लेकिन अनेक नये और सटीक शब्द और पद अज्ञेय, मुक्तिबोध, मलयज, रमेशचन्द्र शाह, मदन सोनी, वागीश शुक्ल आदि ने भी दिए हैं । संस्कृत जानने से शब्द–निर्माण का कौशल स्वायत्त करने में बड़ी मदद मिलती है ।



सवाल - आपने पुरस्कार लौटाया, लोगों ने आरोप लगाया यह कांग्रेस रुझान है, बिहार चुनाव से पहले परिणाम प्रभावित करने की कवायद या सच ही आप स्वयं खुद को इस माहौल में सफोकेटेट महसूस कर रहे हैं।

जवाब - पुरस्कार लौटाने वाले, विरोध करने वाले लगभग एक हजार लोग हैं । लेखक, कलाकार, वैज्ञानिक, इतिहासकार, समाजशास्त्री, फिल्मकार आदि । उनमें से अनेक एक–दूसरे की वैचारिक दृष्टि से विरोधी रहे हैं । उनमें वामपन्थी, वामविरोधी, स्वतंत्रचेता अनेक तरह के लोग शामिल हुए हैं । जो कुछ हुआ, यह नोट करना चाहिए, स्वत-स्फूर्त ढंग से हुआ । अभी कुछ दिनों पहले जब हम कुछ लोग राष्ट्रपति जी से मिले तो उन्होंने स्वयं कहा कि पुरस्कार–वापसी विरोध का एक ढंग है और सब कुछ स्वत-स्फूर्त ढंग से हुआ है । उन्होंने यह भी कहा कि इस विरोध के कारण असहिष्णुता राष्ट्रीय एजेंडे पर आ गई है और उस पर व्यापक बहस हो रही है । हमारा आकलन है कि असहमति की जगह कम हो रही है, आप क्या खाएं, कहें, सोचें, इस पर तरह–तरह से प्रतिबन्ध लग रहे हैं, धर्म, विश्वास और अभिमत तथा विचार की अल्पसंख्यकता को देशद्रोही करार दिया जा रहा है, बहलता को एकात्मकता से दबोचने की कोशिश हो रही है आदि, यह सब बेहद बेचैन करने वाला है ।



सवाल - आप एक सहिष्णु समाज की कैसी आदर्श कल्पना करते हैं? क्या पिछली सरकारों को आप बरी कर सकते हैं, दाभोलकर और सफदर की हत्याएं किस असहिष्णुता के तहत हुर्इं ?

जवाब - ऐसे समाज सहिष्णु कहलाएगा जो हर तरह की दृष्टि को जगह देगा, असहमति का सम्मान करेगा, स्वतंत्रता, समता, न्यास के मूल्यों को सक्रिय और सशक्त करेगा अभिव्यक्ति और आचरण दोनों में । 1 नवम्बर, 2015 को हुए अपने आयोजन में हमने जो वक्तव्य खुले अधिवेशन में सर्वसम्मति से पारित किया, उसमें साफ कहा गया था, ‘हम सभी राजनीतिक दलों, केन्द्र और राज्य सरकारों से मांग करते हैं कि वे अपने संवैधानिक दायित्व का निर्वाह करें और ऐसे तत्त्वों को प्रोत्साहित या कर्म करने और उन्हें संरक्षण देने से बाज आएं । वे ऐसी संस्थाओं, समूहों और व्यक्तियों के खिलाफ कार्रवाई करें जो अभी नफरत, हिंसा का माहौल बनाकर भारत की संवैधानिक आत्मा को जख्मी कर रहे हैं । हम उन्हें याद दिलाना चाहते हैं कि राजनीतिक दल और सरकारें भारतीय संविधान से ही अपनी वैधता पाती हैं और इसलिए उनकी जिम्मेदारी है कि वे संविधान के मूल सिधान्तों और दृष्टि को दरकिनार या नष्ट न करें ।



सवाल - संस्कृत को आजकल एक अंग्रेजीदां वर्ग के पूर्वाग्रह के तहत हिन्दुत्व से जोड़क़र देखा जा रहा है । आगे क्या ऐसी भय जगाने वाली सम्भावना तो नहीं कि हिन्दी इस श्रेणी में आ जाए । क्या वैदिकता और वैदिक संस्कृति को आप भी कट्टरता से जोड़ते हैं? क्या इसे हम हैरिटेज मानकर सहेज सकते हैं? निरपेक्ष होकर, इसका सुंदर–स्वस्थ स्वरूप लेकर, बुरी चीजों को हटाकर ।

जवाब - इस समय परम्परा की दुर्व्याख्या का एक अभियान ही चला हुआ है । जो परम्परा हजारों वर्षों से बहुलता, संवाद और विवाद को प्रश्रय देती आई है, उसे एकात्म बनाने की चेष्टा की जा रही है । संस्कृत एक महान भाषा है - हमारा बहुत उजला उत्तराधिकार है । जैसे हमारी परम्परा में वैसे ही संस्कृत । ऐसा भी बहुत है जो आज हमारे काम का नहीं है । उसे तजना ही होगा पर संस्कृत, अपने श्रेष्ठ रूप में, हमें निर्भय, विनयशील और प्रश्नवाची, बनाती है पर अलग उसके सिर्फ कर्मकांडी रूप लादे जाएंगे तो उसे लेकर गलतफहमियां जागेंगी, बढेंगी । यही हिन्दी के साथ भी हो सकता है ।



सवाल - विभिन्न कलाओं के आपसी सामंजस्य के लिए आपने कई समारोहों, संस्थाओं, पत्रिकाओं की नींव डाली । मसलन भारत भवन, खजुराहो महोत्सव, कलावार्ता लेकिन इन्हीं से आपने कालांतर में स्वयं को निर्वासित पाया । इसकी वजहें क्या थीं ? आपका अपना मोहभंग या बदलती सरकारें। अब ये संस्थाएं विनिष्टप्राय- हैं, अपनी जायी इन संस्थाओं की अकालमृत्यु या विचलन का दुख तो होता होगा ?

जवाब - यह सही है कि मैंने एक हजार से अधिक आयोजन किए, बीसियों संस्थाएं बनार्इं जिनमें से अधिकांश कलाओं से संबंधित हैं । उनमें से अनेक ने व्यापक प्रतिष्ठा अर्जित की लेकिन इनमें से अधिकांश सरकारी पहल और पोषण पर आधारित थीं क्योंकि एक सिविल सेवक के रूप में ऐसी पहल कर सकने का मुझे अवसर मिलता रहा और मैं उनका भरपूर उपयोग करता रहा । कालान्तर में सिविल सेवा की पद्धति से मेरा तबादला आदि हुआ । भाजपा सरकार ने 1990 में मुझे भारत भवन से हटाकर उसे हथियाया और अन्तरराष्ट्रीय ख्याति और प्रतिष्ठा प्राप्त एक संस्था को नष्ट कर दिया, आज उसका स्तर लगभग स्थानीय हो गया है । अपने किए को इस तरह नष्ट या अवमूल्यित किए जाते देखना मेरे जीवन के उत्तरकाल का सबसे दुखद–त्रासद मुकाम है । मैं रिटायर होकर इसलिए भी भोपाल नहीं गया जहां यह सत्यानाश सबसे अधिक हुआ है ।



सवाल - रजा और अपनी दोस्ती के बारे में बताएं । रजा की कला पर आपकी पुस्तक के बारे में भी कि वह किस आयाम को रेखांकित करती है ?
रजा फाउंडेशन बहुत उल्लेखनीय काम कर रही है कला के माध्यम से । आर्ट मैटर और बहुत से कला, साहित्य, सिनेमा को लेकर संवादपरक कार्यक्रम । रजा फाउंडेशन के माध्यम से और आप क्या करना चाहते हैं?



जवाब - रजा साहब से दोस्ती हुए लगभग चार दशक होने को आए । उनसे अधिक उदारचरित व्यक्ति मुझे जीवन में कोई और नहीं मिला । कलाकर्म के प्रति उनकी निष्ठा भी गहरी, अटल और अनूठी है । उनकी रुचि हिन्दी कविता में गहरी रही है और उन्होंने कई कवियों की, जिनमें मैं तक शामिल हूं, पक्तियों का अंकन अपने चित्रों में किया है । स्वयं शुरू में कठिन जीवन संघर्ष करते हुए भी उनकी दूसरे की, खासकर युवाओं की मदद करने की अचूक प्रवृत्ति रही है । मैंने उनके 85 वर्ष पूरे होने पर अंग्रेजी में एक पुस्तक लिखी - ‘रजा ए लाइफ इन आर्ट’ उनके साथ मिलकर आत्मवृत्तात्मक एक पुस्तक हिन्दी और अंग्रेजी में लिखी, ‘आत्मा का ताप’ । दोनों उनकी कला–साधना और जीवनसंघर्ष की गाथाएं हैं ।

रजा फाउंडेशन रजा साहब द्वारा दूसरों के लिए एकाग्र संस्थान है । उससे तीन पत्रिका भी निकलती है - ‘समास’, ‘स्वरमुद्रा’ और अंग्रेजी में ‘अरुप’ । हम बहुत सारी संस्थाओं को वित्तीय सहायता भी देते हैं । जिनमें खोज, सहमत, दिल्ली और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, पुनश्च आदि शामिल हैं । कई प्रयोगधर्मी आयोजनों की भी हमने सहायता की है । कई पुस्तकों के प्रकाशन में हमने पेंगुइन इंडिया, बोधना, मुंशी मनोहर लाल आदि की मदद की है । संवाद के कार्यक्रम हम कोलकाता, बेंगलुरु में भी आयोजित कर रहे हैं । मुम्बई, चेन्नई, गोवा आदि में भी जल्दी ही शुरू होंगे ।



सवाल - आप उस समय के बारे में बताएं, जब कविता और कथा साहित्य में आज सी फांक नहीं थी । आप निर्मल वर्मा, कृष्ण बलदेव वैद आदि के साथ संवादरत थे । अब यह समय ऐसा क्यों हो चला है ?

जवाब - वह बहुत अच्छा समय था । कथाकार और कवि एक–दूसरे को पढ़ते, समझते और सराहते थे । मेरी ‘कल्पना’ में कुछ कविताएं 1958 में छपी थीं तो सबसे अधिक प्रशंसा निर्मल वर्मा से मिली थी । कृष्ण बलदेव वैद भारत भवन में अपने युवा लेखक शिविरों में कवियों को जरूर बुलाते थे । उन्होंने अर्जेण्टीना के एक कवि के हिन्दी अनुवाद किए थे । तब यह समझ थी कि साहित्य एक साझा उपक्रम है । कहानी की बल्कि कथा की बढ़ती लोकप्रियता ने शायद कविता को हाशिये की विधा मानने की वृत्ति उकसाई जिसे, दुर्भाग्य से, राजेन्द्र यादव जैसे संपादक– आलोचक ने एक अभियान सा बना दिया ।



सवाल - आपके बच्चों में किसका रुझान नृत्य और कविता के प्रति है ? नहीं है तो क्या है उनके विकर्षण की वजह ?

जवाब - यों तो किसी का नहीं पर बेटा वास्तुकार है और बेटी सामाजिक कार्यकर्ता । दोनों ही कलाओं में सुरुचि रखते हैं । कबीर तो इधर कविता भी लिखने लगा है और दूर्वा कमजोर वर्ग के बच्चों को रंगमंच में लाने का उपक्रम करती है ।



सवाल - आप स्वयं को प्रे्म का कवि कहलवाने में रोमांच महसूस करते हैं। प्रे्म में देह की सजग उपस्थिति को आप जरूरी मानते हैं। स्त्री देह का निर्वसन स्वरूप आपकी कविता में कलात्मक सघनता के साथ उपस्थित है । आप स्त्री देह को क्या मानते हैं? उसके अस्तित्व का हिस्सा या एक पुरुष के होने को पूरूरक करता दूसरा अवयव ?

जवाब – कई बार कह चुका हूं कि कम से कम मेरा साहित्य संसार के अनुराग से उपजता है और मैं उसकी अनेक विडम्बनाओं के साथ उसका गुणगान ही करता रहा हूं । रति, श्रृंगार, देह आदि पर रचने की भारत में लम्बी और प्राचीन परम्परा है, मैंने अपने समय में उसे पुनरायत करने की कुछ चेष्टा की है । आधुनिकता ने हमारे यहां अक्सर और इन दिनों तो अधिक ही पुरुष में विद्यमान स्त्री और स्त्री में समाए पुरुष को दबाने–धकियाने की कोशिश की है । दोनों स्वतंत्र हैं और पूरक भी । एक दूसरे के बिना अधूरा है ।




सवाल – संस्कृतिकर्मी एवं थियेटर के पुरुरोधा नेमीचंद्र जैन जी आपके श्वसुर रहे हैं। उनके बारे में कुछ बताएं, कोई संस्मरण । उनके सान्निध्य से कोई आयाम जुड़ा हो आपकी बहुआयामितता में ?

जवाब - स्वगीर्य नेमिचन्द्र जैन बुनियादी रूप से तो कवि–आलोचक थे पर उनकी रंगकर्म में गहरी दिलचस्पी और विशेषज्ञता थी । वे संगीत और नृत्य के भी अच्छे जानकार थे । वे सम्यक बुद्धि थे और रचनात्मक या आलोचनात्मक काम बहुत जिम्मेदारी से करते थे । किसी तरह के अतिवाद से दूर रहते थे । उनकी और रेखा जी की जीवनशैली और पद्धति में कलाएं बहुत घुली–मिली थीं । उनकी प्रतिक्रियाएं कई बार तीव्र और सघन होती थीं पर कभी भी उग्र नहीं । उनमें अपार धीरज था और वे कई बार सहजता से अपने से अलग दृष्टि या विचार को समझ पाते थे । उनसे कई बातें सीखीं और कई नहीं भी सीख पाया ।




सवाल - आपकी लेखनी प्रवाहमयी है, आने वाले साल में क्या लिखने वाले हैं ? कविता या गद्य ? आजकल सिरहाने कौन–सी पुस्तक है ? या कई पुस्तकों का पठन एकसाथ चल रहा है ? जवाब - जनवरी, 2016 में एक नया कविता संग्रह, संख्या में पन्द्रहवां, ‘नक्षत्रहीन समय में’ और अज्ञेय, शमशेर, मुक्तिबोध पर तीन नये निबन्धों के साथ उन पर अब तक लिखे को संचयित करते हुए एक आलोचना पुस्तक भी आ रही हैं - ‘कविता के तीन दरवाजे’ । फिर सोचता हूं बहुविलंबित कबीर और गालिब पर अपनी पुस्तक अगले वर्ष पूरी कर लूं ।



सवाल - आजकल हर छोटा–बड़ा़ शहर अपने स्तर पर लगभग असाहित्यिक मिडियाकर सैलिब्रिटीज और कुछेक लेखकों का मजमा लगाकर ‘लिटरेचर फेस्टिवल’ का नाम दे रहा है, जिनमें कईयों में आप नजर आते हैं। कहीं कष्ट होता है आपको शैलेष लोढ़ा़ के बरक्स अशोक वाजपेयी की या चेतन भगत के बरक्स किसी विनोद कुमार शुक्ल की कमतर लोकप्रियता देखकर ? होता है तो क्या उनका बहिष्कार का ख्याल मन में आता है ? या यह लगता है कि ‘ससुरी हिन्दी’ की वर्तमान स्थिति में कुछ तो धक्का लगा ही रहे हैं ये फेस्टिवल ?

जवाब - इसलिए जाता हूं कि अंग्रेजी के वर्चस्व और चकाचौंध में हिन्दी बुद्धि और जटिलता की आवाज भी सुनी जाए । हर जगह नये श्रोता होते हैं और उनकी प्रतिक्रिया जानकर उत्साह बढ़ता है । हम अपने साथी ऐसे आयोजनों में अक्सर नहीं चुन सकते । अपनी बात दृढ़ता से कहें, इतना ही आपके बस में होता है ।




सवाल - इन ‘लिटरेचर फेस्टिवलों के बरक्स आपने एक बार मुझसे बड़े पैमाने पर एक अलग ढंग से ‘हिन्दी उत्सव’ की सम्भावना पर बात की थी । आपके सांकृतिक सरोकार अब भी सजग हैं, आपके एजेंडा में नया क्या है साहित्य को लेकर ?

जवाब - हिन्दी उत्सव करने का इरादा छोड़ा नहीं है लेकिन उसके लिए आवश्यक संसाधन जुटाने के लिए बहुत भाग–दौड़ करने की जरूरत है, खासकर जब हम किसी सरकार से कुछ मदद नहीं लेना चाहते । उसके लिए फुरसत निकाल पाना कठिन होता जाता है ।

75 के अशोक ... महेश भारद्वाज


सवाल - अंत में, 16 जनवरी, 2016 को आप 75 वर्ष पूरे करेंगंगे । अपने जीवन के इन 75 वर्ष को आप किस रूप में देखते हैं?

जवाब – यों तो यह एक अंक है–आयु का अनिवार्य अंक । अपनी सक्रियता और कल्पना में कोई धीमापन महसूस नहीं होता । लगता है कि साहित्य और कलाओं को लेकर पढ़ने, सपने छोड़ने का मुकाम नहीं आया है । अब भी कुछ न कुछ किया जा सकता है । अपने लिए उतना नहीं, जितना दूसरों के लिए । इसका भी ख्याल रहता है कि एक मर्गे–नागहानी और है । सो जब होगी तब होगी, उसकी चिंता या प्रतीक्षा क्यों/क्या करना!


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मैत्रेयी पुष्पा - सेक्स प्रेम की मृत्यु है | Interview Maitreyi Pushpa


नववर्ष की शुभकामनाओं के साथ आपके लिए हिंदी अकादमी उपाध्यक्ष मैत्रेयी पुष्पा का साक्षात्कार. हाल में ही दिनेश कुमार से हुई उनकी यह बातचीत 'कथाक्रम' में प्रकाशित हुई है, इसे उपलब्ध कराने के लिए शैलेन्द जी का आभार. मित्रो शब्दांकन पर प्रकशित साक्षात्कार में कुछ बातें और भी जुड़ी हैं जिन्हें मैंने कोष्ठक [ ] में लिखा है ये वो बातें हैं जो आज सुबह मैत्रेयीजी से हुई मेरी बातचीत का अंग हैं.

आप सबको 2016 की ढेर सारी शुभकामनाएं, आपका साहित्य प्रेम और बढ़े...

भरत तिवारी
1 जनवरी 2016

मैत्रेयी पुष्पा - सेक्स प्रेम की मृत्यु है #शब्दांकन

सुविधा और सम्पन्नता का साहित्य नहीं होता। वह दरबारी साहित्य होता है

- मैत्रेयी पुष्पा

जिन किताबों का बहुत ज्यादा विज्ञापन किया जाता है उन किताबों को मैं पढ़ती ही नहीं हूँ


आप हिन्दी अकादमी दिल्ली की पहली महिला उपाध्यक्ष बनी हैं। एक स्त्री का किसी साहित्यिक संस्था का प्रमुख बनना एक बड़ी परिघटना है। आप इसे कैसे देखती हैं?

मैत्रेयी पुष्पा: उपाध्यक्ष के लिए मेरे नाम की सूचना जारी होते ही बधाइयों का तांता लग गया। इसी क्रम में एक फोन अमेरिका का आया। फोन करने वाले ने बताया कि वे एक डॉक्टर है और आम आदमी पार्टी से जुड़े हुए है। उन्होंने खुशी जाहिर करते हुए कहा कि आप बहुत बड़ी साहित्यकार हैं इसलिए आपको उपाध्यक्ष बनाया गया। मैंने उनसे कहा कि साहित्यकार तो मैं पहले से थी लेकिन ‘आप’ नहीं थे। यह मैं राजनीति की बात नहीं कर रही हूं। मैं भावना की बात कर रही हूं। दिल्ली सरकार ने मेरे साहित्यिक काम और साहस का सम्मान किया है। इस तरह की ‘जेनुइनिटी’ पहले से निभाई गई होती तो न जाने कितनी महिलाओं को साहित्यिक संस्थाओं में जगह मिल गई होती। कितनी विडम्बना है कि रचनात्मक उत्कृष्टता के बावजूद देश और राज्य दोनों स्तर की साहित्यिक संस्थाओं से महिलाएं बाहर हैं। अच्छा होगा कि अगर दूसरी पार्टियां भी नारेबाजी से ऊपर उठकर महिलाओं के बारे में सोचें।



पिछले कुछ सालों से हिन्दी अकादमी की गतिविधियां बहुत सीमित हो गई हैं। इसकी सक्रियता गोष्ठियों तक सिमट गई है। अकादमी के कायाकल्प को लेकर कोई योजना है? 

मैत्रेयी पुष्पा: गोष्ठियां कराना कोई बड़ी बात नहीं है। दिल्ली जैसे शहर में यह बहुत होती हैं। कई बार लेखक अपने से ही तो कई बार प्रकाशक भी गोष्ठियां कराते रहते हैं। ये अधिकांश गोष्ठियां सिर्फ निंदा या प्रशंसा के लिए होती हैं जिनका कोई महत्व नहीं होता। मैं तो चाहूंगी कि साहित्यिक गतिविधियों का ऐसा समायोजन हो, जहां कोई सार्थक लेखन करने वाला अपने आपको अपमानित उपेक्षित महसूस न करे। हताश होकर लौट न जाए। अकादमी ईमानदार लोगों के पक्ष में माहौल बनाने का काम करेगी। अकादमी की पत्रिका ‘इन्द्रप्रस्थ भारती’ में बहुत सुधार की गुंजाइश है। वर्तमान साहित्यिक परिदृश्य में उसे एक हस्तक्षेपकारी पत्रिका बनाया जा सकता है। कुल मिलाकर मैं कहना यह चाहती हूं कि अकादमी के कामकाज में व्याप्त अनियमितता और भ्रष्टाचार पर रोक लगे। इससे बेहतर साहित्यिक माहौल बनेगा। ‘जेनुइन’ लोग सामने आएंगे और अकादमी का कायाकल्प अपने आप शुरू हो जाएगा।

[इसी गुंजाइश को लेकर हमने अकादमी के जरिये दिल्ली के विश्वविद्यालयों में पड़ते हुए हिंदी के छात्रों के बीच ‘भाषा दर्पण’ नाम से कवितायेँ लिखने की प्रतियोगिता करायीं। हजारों-हज़ार छात्रों ने भाग लिया और हमारी उस धारणा को गलत सिद्ध किया कि आज का छात्रवर्ग हिंदी और साहित्य में रुचि नहीं लेता है। जो चुनी गयी वे कवितायेँ किसी भी उत्कृष्ट कविता के सामने रखी जा सकती हैं. प्रतियोगिता में प्रथम आने वाली छात्रा मंजू को ११,००० का पुरस्कार दिया गया है और लालकिले के कवि सम्मेलन में हिस्सा लेने का आमन्त्रण दिया गया है

मैं उस महिला के पक्ष में नहीं हो सकती जो अनाप-शनाप बातें करे और जिसे एक पुरुष के लिए दूसरे पुरुष का प्रमाणपत्र चाहिए

आपके साहित्यिक लेखन और साहस के महत्व को एक राजनीतिक पार्टी ने तो समझा पर साहित्यिक संस्थाओं ने आपको प्रायः नजरअंदाज किया। अच्छी रचनाओं के बावजूद आपको कोई बड़ा साहित्यिक पुरस्कार नहीं मिला।

मैत्रेयी पुष्पा: साहित्य में मैं जब आई थी तो मुझे पता नहीं था कि जो मैं लिखूंगी या जो लिखा जाता है उस पर पुरस्कार भी मिलता है। मैं तो पात्रों के रूप में उन स्त्रियों को लेकर आयी थी जो निष्कवच, वंचित और साधनविहीन होने के कारण तमाम तरह के अत्याचार सहती रहती थीं। मैं और कुछ कर नहीं सकती थी पर उनकी आवाज को शब्द दे सकती थी? मैंने उन्हें शब्द के साथ साहस और शक्ति दी। कुछ लोगो ने ‘इदन्नमम्’, ‘चाक’, ‘अल्मा कबूतरी’ जैसे उपन्यासों को स्त्री की स्वाधीनता के लिए साहसपूर्ण कदम के रूप में देखा। जब पुरस्कारों की बात आती है तो मुझे ताज्जुब हुआ कि साहित्य अकादमी के लिए उन रचनाओं की लाइन में मेरी वे स्त्रियां भी हैं जिन्होंने यहां तक सफर किया था। वे हर साल लाइन में रहीं पर जब नतीजे आए तो मुझे पता चला कि उन्हें हर बार ढकेल दिया गया। मैं अपने लिए प्रोत्साहन नहीं चाहती थी किंतु मेरे मन में उन वंचित और संघर्षशील स्त्रियों के लिए प्रोत्साहन की भावना जरूर थी इसलिए मुझे ठेस लगी। मुझे महसूस हुआ कि एक बड़ा कोना उपेक्षा का भी होता है जहां टिककर खड़े रहना साहित्य सृजन के संकल्प को और दृढ़ करता है।



हिन्दी की स्त्री रचनाकारों में ‘एक्टिविज्म’ का तत्व बहुत न्यून है। आपने लेखन के साथ-साथ एक्टिविज्म को भी बराबर महत्व दिया है। एक रचनाकार के लिए आंदोलन धर्मिता को कितना जरूरी मानती हैं।

मैत्रेयी पुष्पा: मेरा अपना मानना है कि बिना ‘एक्टिविस्ट’ हुए लेखन या तो रीतिकालीन होगा या एकदम एकेडमिक होगा या आदर्शवादी हो जाएगा। मनुष्य के वास्तविक जीवन का चित्रण बिना ‘एक्टिविज्म’ के संभव नहीं है। सामान्य मनुष्य के दुख और संकट ही साहित्य के स्त्रोत होते हैं। सुविधा और सम्पन्नता का साहित्य नहीं होता। वह दरबारी साहित्य होता है। वास्तविक साहित्य तो दुखदर्द का ही होता है। संवेदना के साथ वेदना क्यों जुड़ा है? समसुख क्यों नहीं होता? इसलिए मैं कहती हूं कि साहित्य का स्त्रोत तो वृहतर मनुष्य का दुख-दर्द ही है। बिना एक्टिविस्ट हुए आम आदमी के दुखदर्द को कैसे महसूस किया जा सकता है? निजी दुख/बीमारी अलग चीज़ है पर जीवन जीने की पीड़ा को वही समझ सकता है जिसने स्वयं उस जीवन को देखा या भोगा है।



राजनीतिक सत्ता से रचनाकारों के संबंध को लेकर हमेशा बहस होती रही है। साहित्यकार और राजनीति के रिश्ते को आप कैसे देखती हैं?

मैत्रेयी पुष्पा: वैसे जानबूझकर नहीं स्वतःस्फूर्त ही सही मैंने जो लिखा है उसमें राजनीति ही आयी है। आज आदिवासी का जीवन कैसा हो, किसान का जीवन कैसा हो, पूंजीपति का जीवन कैसा हो यह सबकुछ राजनीति ही तय कर रही है। हमारा सारा समय राजनीति की धुरी पर घूम रहा है। साहित्य भी तो इन्हीं मजदूरों, किसानों, आदिवासियों, स्त्रियां, दलितों आदि से ही संबंधित होता है। इनसे अलग कहां होता है। इस तरह साहित्य राजनीति से अपने आप जुड़ जाता है। रही बात साहित्यकार की तो वह देखता है कि इन वंचित तबकों की लड़ाई कौन पार्टी लड़ रही है और वह उसका साथ देता है। जब मैं छोटी थी तो यह नारा खूब चलता था-मांग रहा है हिन्दुस्तान/रोटी कपड़ा और मकान। आजादी के सड़सठ साल बाद क्या आज भी यही स्थिति नहीं है? नारे तो सब लगाते हैं लेकिन स्थितियां नहीं बदलती हैं। जो भी ईमानदारी से काम करे मैं उसके पक्ष में खड़ी हूं। यह तो सबको दिखता ही है कि कौन वंचितों का साथ दे रहा है और कौन उद्योगपतियों के पक्ष में है?



हाल ही में कुमार विश्वास से संबंधित एक महिला का जो विवाद सामने आया उसमें आपने उस महिला का पक्ष न लेकर कुमार विश्वास का पक्ष लिया। इसे लेकर कई लोगों ने आप पर स्त्री विरोधी होने का आरोप तक लगा दिया। इस पर आपका क्या कहना है?

मैत्रेयी पुष्पा: कुमार विश्वास ने सार्वजनिक रूप से उस महिला के साथ किसी तरह के संबंध का खंडन किया है। कितनी विचित्र बात है कि वह महिला चाहती है कि कुमार उसके पति के पास आकर सफाई दें। प्रश्न यह है कि जो पति अपनी पत्नी की बात नहीं मान रहा है वह कुमार विश्वास की बात कैसे मान लेगा? मैं उस महिला के पक्ष में नहीं हो सकती जो अनाप-शनाप बातें करे और जिसे एक पुरुष के लिए दूसरे पुरुष का प्रमाणपत्र चाहिए। उसे तो अपने पति पर घरेलू हिंसा का केस दर्ज करना चाहिए। मेरा स्त्री-विमर्श इसकी इजाज़त नहीं देता।

क्या स्त्री का एजेंडा यही है कि जिसके खिलाफ वह लड़ रही है उसी (पुरुष) जैसी बन जाए

आप जनवादी लेखक संघ से जुड़ी हैं। क्या आपको लगता है कि लेखक संगठन साहित्य में कोई सार्थक या हस्तक्षेपकारी भूमिका निभा पा रहे हैं?

मैत्रेयी पुष्पा: ये लोग सोचते और बोलते तो बहुत हैं पर काम नाम का ही दिखाई देता है। दरअसल समस्या यह है कि इनका खजाने पर वर्चस्व नहीं है। ये किसी को कुछ दे नहीं सकते हैं इसलिए लोग इनसे जुड़ते नहीं है। दूसरी बात यह भी है कि इनके पास अपने देश के आम आदमी किसानों मजदूरों से जुड़ने की भाषा नहीं है। भारतीय स्तर पर देशी सिद्धान्त नहीं है। स्त्री-पुरुष को आर्थिक ढांचे में नहीं समझा जा सकता है। स्त्री मुक्ति का प्रश्न सिर्फ आर्थिक आत्म निर्भरता से जुड़ा हुआ नहीं है। वर्गीय सोच से भारतीय समाज का विश्लेषण संभव नहीं है। इन्हें भी इस बात को समझना चाहिए। तभी वे समाज की नई शक्तियों-महिलाओं दलितों को अपने आप से जोड़ सकते हैं और एक सार्थक भूमिका निभा सकते हैं।



हिन्दी की कुछ लेखिकाओं के लिए स्त्री मुक्ति का सवाल यौन स्वतंत्रता का सवाल बनकर रह गया है। उनका मूल तर्क होता है कि पुरुष ऐसा करता है तो हम क्यों नहीं? इस संबंध में आपका क्या मानना है?

मैत्रेयी पुष्पा: यौन संबंधों में पुरुष ऐसा करता है तो हम क्यों नहीं- इस पर मेरा कहना है कि हम मनुष्यगत अधिकार या नागरिकता का अधिकार तो वैसा ही चाहते हैं जैसे पुरुष को मिला हुआ है। पर इसका मतलब यह नहीं है कि हम पुरुषों की नकल या अनुकरण करना शुरू कर दें। अगर हम नकल ही कर रहे हैं तो फिर नया क्या करेंगे। क्या स्त्री का एजेंडा यही है कि जिसके खिलाफ वह लड़ रही है उसी जैसी बन जाए। यौन संबंध तो परिस्थिति विशेष की बात है। जब ये बन जाते हैं इससे मैं इनकार नहीं करती। किंतु एक बड़ा प्रश्न यह है कि केवल हम इसी की आजादी लेने आए हैं क्या? राजेन्द्र यादव कहते कि देह मुक्ति स्त्री की सबसे बड़ी मुक्ति है। मैं उनकी बात को पूरी तरह नहीं मानती थी। शरीर में पांच ज्ञानेन्द्रियां और पांच कर्मेन्द्रियां हैं। हम तो अंधे बहरे और लंगड़े थे। हमारे ये अंग मालिकों के हुक्म पर काम करने को विवश थे। स्त्री के लिए तो इन सभी की मुक्ति आवश्यक है। स्त्री की गुलामी व्यापक है इसलिए उसकी आजादी का संघर्ष भी व्यापक होना चाहिए।



आपकी रचनाओं में भी यौन प्रसंगों का चित्रण हुआ है। आप पर यह आरोप लग रहा है कि स्वयं तो आपने यौन प्रसंगों का चित्रण किया किंतु जब नई लेखिकाएं वैसा कर रही हैं तो आप उनका विरोध कर रही हैं?

मैत्रेयी पुष्पा: जो ऐसा सोचते हैं उन्होंने मेरी रचनाओं को ध्यान से नहीं पढ़ा है। उन्होंने उन प्रसंगों को भी मौज-मस्ती का प्रसंग मानकर पढ़ा है जैसा कि आजकल की रचनाओं में होता है जबकि वे घटनाएं जानलेवा स्थितियों में घटित हुई हैं और उन्हें जिंदगी के किसी भी तरह बचा लेने की कोशिश के रूप में देखना चाहिए। महादेवी जी ने कहीं लिखा है कि युद्ध में जब सिपाही मर रहा है तो उसे नर्स की योग्यता से क्या मतलब होगा? उसे तो नर्स का स्पर्श और संवेदना चाहिए। मैंने न तब यौन सुख के लिए लिखा था न अब मानती हूं। मेरे प्रसंग और चित्रण पुरुषों की होड़ में नहीं है। समस्या यौन प्रसंगों के चित्रण से नहीं बल्कि चित्रण की दृष्टि से है।
[जिसे योनि-प्रसंग कहा गया है वह जीवन से जुड़ा हुआ तो है लेकिन लिखते समय बगैर मकसद इन प्रसंगों का आना उचित नहीं है मेरी नायिकाओं के मकसद अश्लील हरगिज नहीं थे। हमें ही सावधान रहना होगा कि साहित्य, साहित्य ही रहे पॉर्न न हो जाए।]



कुछ समय पहले ‘जनसत्ता’ में आपने एक लेख लिखा था। उस लेख में आपने नई पीढ़ी की लेखिकाओं की साहित्येत्तर गतिविधियों की चर्चा करते हुए उनकी रचनात्मक उत्कृष्टता पर सवाल उठाया था। उस लेख को पढ़कर लगा कि आप यह मानने को तैयार नहीं है कि स्त्री रचनाकारों की यह नई पीढ़ी कुछ बेहतर रच रही है। आप ऐसा कैसे कह सकती हैं?

मैत्रेयी पुष्पा: अब मैं इस प्रश्न के जवाब में तुमसे प्रश्न करती हूं। क्या तुम इनकी कोई ऐसी रचना बता सकते हो जिसने ‘कलिकथा वाया बाइपास’ की तरह अपनी कोई छाप छोड़ी? ‘कठगुलाब’ जैसा कोई उपन्यास आया है क्या? क्या बड़े कैनवास की रचना का अभाव तुम्हें नहीं दिखता? अगर तुम सहमत नहीं हो तो किसी रचना का नाम बताओ। मैं यह नहीं कह रही हूं कि पूरा रचनात्मक परिदृश्य सूखा पड़ा है। रचनाएं लिखी जा रही हैं। पर मेरा सवाल यह है कि ऐसी कोई रचना क्यों नहीं आ रही है जो अपने समय की घटना बन जाए? अगर हमारे समय से आगे की स्त्रियां ऐसा कुछ नहीं रच पा रही है तो मैं कैसे कहूं कि यह समय रचनात्मक उत्कृष्टता का है। अभी तो वही दोहराया जा रहा है। जो कृष्णा सोबती मित्रों मरजानी में कर आयी हैं। साहित्य में दोहराव रचनाकार का सबसे बड़ा अवगुण है। भले ही हम उसे नए फार्म में कहें पर बात तो वहीं कह रहे हैं।
[नयी पीढ़ी अगर मेरी बात माने तो मैं कहना चाहूंगी कि अपनी दृष्टि का विस्तार करे और सांस्कृतिक सामाजिक और राजनैतिक परिपेक्ष्य को गहराई में देखते हुए अपनी रचनाशीलता को विकसित करे। इसके लिए उन्हें पुराना साहित्य ज़रूर पढ़ना पड़ेगा क्योंकि राजेन्द्र यादव कहते थे - जो पढ़ेगा नहीं वो लिखेगा कैसे? राजेंद्रजी ने मुझे एक उपन्यास लिखने के लिए बीसियों उपन्यास जिनमें भारतीय और विदेशी दोनों शामिल थे, पढ़वाये। क्योंकि इन्हें पढ़के हमारी लेखन शैली विकसित होती है इसलिए मेरा यह सन्देश नए रचनाकारों को है कि हो सके तो मेरी इन बातों पर ध्यान दें]

साहित्य में दोहराव रचनाकार का सबसे बड़ा अवगुण है। 


क्यों मनीषा कुलश्रेष्ठ के उपन्यास ‘शिगाफ’ की चर्चा नहीं हुई । राजेन्द्र यादव ने भी उसकी खूब तारीफ की थी।

मैत्रेयी पुष्पा: राजेन्द्र जी ने ज्योति कुमारी की भी तारीफ की थी। इससे ही सब कुछ निर्धारित नहीं होता कि कोई क्या कहता है। असल बात यह है कि पाठक क्या कहते है? क्या वहां के निवासी (कश्मीर) उस रचना में अपनी छवि देख पाते हैं? क्या यह रचना वहां के सामाजिक-सांस्कृतिक ताने-बाने को प्रामाणिकता के साथ सामने ला पाती है? अगर ऐसा नहीं है तो उसमें गहराई की कमी तो है। राजेन्द्र जी की माने तो उन्होंने ‘चाक’ को हिन्दी के दस क्लासिक उपन्यासों में माना था। यह उनका दृष्टिकोण था। उससे मैं खुश तो हो जाऊं पर मान भी लूं यह जरूरी तो नहीं। मेरे सामने ‘मैला आंचल’ और प्रेम के मामले में ‘न हन्यते’ एक आदर्श के रूप में हमेशा रहे हैं। मैं तो आज भी इनकी ऊँचाइयों तक पहुंचना चाहती हूं।



हिन्दी में स्त्री रचनाकारों की इतनी संख्या पहले कभी नहीं थी। संख्या की दृष्टि से उन्होंने पुरुषों की बराबरी कर ली है। यह कैसे मान लिया जाए कि लेखिकाएं कुछ भी नहीं लिख रही हैं?

मैत्रेयी पुष्पा: मैं यह नहीं कहती कि ये लिख नहीं रही हैं पर क्या लिख रही हैं और कैसा लिख रही है, प्रश्न इसका है। इसमें कोई शक नहीं कि समय बदला है। समय के साथ हमने कई भ्रम भी पाले हैं। जिन किताबों को लिखकर हम पाठकों के हवाले छोड़ देते थे आज हम निजी ‘प्रोडक्ट’ की तरह सुरक्षा के घेरे में लोगों को दिखाते फिरते हैं। अब प्रचार-प्रसार के द्वारा ही कृति को पाठकों के समक्ष लाया जा रहा है। ऐसे में हमारी प्राथमिकता प्रचार प्रसार ही हो जाता है। जैसे विज्ञापन की बदौलत खराब से खराब सामान तौलिया टूथ पेस्ट आदि बिक जाते हैं, वैसा ही मामला किताबों का हो गया है। अब किताबें गुणवत्ता से नहीं विज्ञापन के सहारे महत्वपूर्ण या कमजोर साबित हो रही हैं। मुझे लगता है कि एक भ्रम का वातावरण निर्मित हो गया है। किताबें विज्ञापन नहीं होती। वे जिन्दगी होती हैं। विज्ञापनी संस्कृति के कारण किताबों का हश्र आज की फिल्मों की तरह हो गया है जिसकी जीवन लीला आठ दस दिनों में समाप्त हो जाती है।

[जो किताबें महत्वपूर्ण होती हैं वह अपना असर बिना विज्ञापन के भी ज़रूर कायम करती हैं , देर ज़रूर लगती है इसलिए तो कहते हैं – साहित्य तुरत-फुरत का मसला नहीं होता उसे तो सदियों की यात्रा करनी होती है। जिन किताबों का बहुत ज्यादा विज्ञापन किया जाता है उन किताबों को मैं पढ़ती ही नहीं हूँ।]



अगर आपकी बात सही है कि इस पीढ़ी के पास कोई बड़ी रचना नहीं है और इनकी विज्ञापन पर निर्भरता अधिक है तो फिर चित्रा मुद्गल ने इस मसले पर आपका विरोध क्यों किया?

मैत्रेयी पुष्पा: मुझे चित्रा मुद्गल से न तो कोई दिक्कत है और न ही मेरा उनसे कोई विरोध है। मुझे उनकी रचनाशीलता से भी कोई शिकायत नहीं है। ऐसा लगता है कि वे मुझे अपना प्रतिस्पर्धी समझती हैं पर, ऐसा है बिल्कुल नहीं। उनके सरोकार दूसरे हैं मेरे दूसरे। उनकी शैली के आस-पास मेरी शैली भी नहीं है। वैसे, यह प्रश्न उनसे ही पूछा जाता तो अधिक अच्छा होता। शायद उन्होंने मेरा इसलिए विरोध किया कि लेख में मैंने उस नाच का जिक्र किया था जिसमें बड़ी से छोटी लेखिकाएं नाच रही थीं और सारे लेखक देख रहे थे। गाना भी बहुत आपत्तिजनक था। ऊपर से प्रकाशक का यह कमेंट था- ‘मैंने चित्रा मुद्गल से लेकर सोनाली सिंह तक को नचा दिया।’ यह कोई गरिमापूर्ण टिप्पणी नहीं थी। चित्राजी ने लिखा कि मैत्रेयी नाच का क्यों विरोध कर रही हैं? मेरा उत्तर यह है कि मैंने किसी प्रकाशक के मुंह से ऐसी अभद्र बात नहीं सुनी। ऐसी बातें सुनने की शायद मुझे आदत नहीं।



आपने कई बार कहा है कि प्रेम और विवाह दोनों साथ-साथ चल सकते है। भारतीय सामाजिक संरचना में तो यह संभव नहीं दिखता कि एक स्त्री विवाह के बाद किसी दूसरे पुरुष से अपना प्रेम संबंध भी बरकरार रखे।

मैत्रेयी पुष्पा: मैं यह कहती भी हूं और मानती भी हूं। असल समस्या हमारी प्रेम की अवधारणा में है। देखो, विवाह जो होता है वह प्रेम नहीं हैं। विवाह में हमें सेक्स की सामाजिक अनुमति मिलती है। प्रेम में नहीं मिलती है। अगर हम सेक्स करते हैं तो नाजायज ही माना जाता है। मेरे ख्याल से प्रेम में सेक्स की जरूरत ही नहीं होती। विग्रह में पति से उस तरह का प्रेम नहीं होता जैसा प्रेमी से होता है। प्रेमी को पति बनाना ही नहीं चाहिए। प्रेम में हम पति थोड़े खोजते हैं? प्रेम और विवाह में विरोध या अड़चन वहां होती है जब हम प्रेम को सेक्स से जोड़ देते हैं। कुछ लोग कहते हैं कि प्रेम अंततः सेक्स में ही ‘कन्वर्ट’ होता है या पूर्णता प्राप्त करता है। मैं कहती हूं सेक्स के प्रवेश के साथ ही प्रेम खत्म होता है। ‘द एंड...’। प्रेम की चरम परिणति सेक्स नहीं है। सेक्स प्रेम की मृत्यु है। शरीर ढ़लने के साथ सेक्स खत्म हो जाता है प्रेम नहीं। प्रेम शाश्वत है, सेक्स दैहिक जरूरत है। आखिर ऐसा क्यों देखने में आता है कि प्रेम तो दस साल चलता है लेकिन जैसे ही वह प्रेम विवाह में बदलता है तो तीन साल में ही टूटने की नौबत आ जाती है। सेक्स कहीं मजबूरी के लिए होता है कहीं रिश्ते के लिए होता है लेकिन प्रेम सिर्फ प्रेम के लिए होता है। अक्सर होता है कि स्त्रियां प्रेम कहीं और करती है और उनकी शादी कहीं और हो जाती है। तो फिर स्त्रियां उस प्रेम को ताउम्र क्यों याद रखती है? पति से तो सेक्स ही रहा है जबकि उस प्रेम में तो सेक्स नहीं है। मैं शहरों में देखती हूं कि जैसे कपड़े बदलते हैं वैसे ही प्रेमी बदलते हैं। अगर तुम इसे प्रेम कहते हो तो प्रेम की तुम्हारी अवधारणा में समस्या है। मैं इसे प्रेम नहीं कहती। मेरे लिए प्रेम ऐसी निजी संपति है जिसका बंटवारा नहीं किया जा सकता है। अब मेरी परिभाषा से कितने सहमत होंगे, नहीं जानती। यह काफी उलझा हुआ सवाल है जिसे समझना बहुत मुश्किल है।





आपने कहा कि प्रेम में सेक्स नहीं होता या प्रेम का सेक्स से कोई संबंध नहीं है। आप मुझे बताइये कि आपके उपन्यास ‘चाक’ में सारंग और श्रीधर के बीच क्या है? वहां प्रेम से सेक्स कैसे आ गया?

मैत्रेयी पुष्पा: सारंग और श्रीधर के बीच प्रेम है। सेक्स होता तो चार दिन बाद ही चालू हो जाता और चलता ही रहता। मैं यह नहीं कहती कि सेक्स नहीं हुआ, पर वह सिर्फ एक बार घटित हुआ जब श्रीधर का जीवन खतरे में था। पुरुष भी जानते हैं और स्त्रियां भी जानती हैं कि सेक्स कमजोर पड़े आदमी में ऐसा आत्मविश्वास पैदा कर देता है कि वह जिजीविषा से भर उठता है। जैसे कि मैंने पूर्व में महादेवी जी का उदाहरण दिया है। सारंग और श्रीधर के बीच जो सेक्स घटित हुआ वह किसी मौज-मनोरंजन के लिए नहीं हुआ। ऐसे ही कलावती चाची और कैलाशी सिंह के बीच सेक्स एक ट्रीटमेंट के रूप में हुआ। सेक्स ने उस नपुंसक आदमी में ऐसा आत्मविश्वास भर दिया कि वह उतना बड़ा पराक्रम कर बैठा। इतनी तो समझ होनी ही चाहिए। सेक्स कब और कैसे घटित होता है।



‘चाक’ में आपने दिखाया है कि सारंग और श्रीधर के प्रेम संबंध को लेकर उसके ससुर गजाधर सिंह की सहमति है। गांव का एक जाट ससुर ऐसा कैसे हो सकता है? वह तो ऐसी बहु की हत्या कर दे। यह बड़ा विचित्र है कि आपने दिखाया है कि वह अपने बेटे रंजीत का साथ न देकर सारंग का साथ देता है।

मैत्रेयी पुष्पा: मैंने सहमति नहीं क्षमाशीलता दिखाई है। इसका कारण यह है कि सारंग के ससुर गजाधर सिंह समझ चुके हैं कि स्त्री के प्रेम संबंध को नाजायज संबंध मानकर उसे यह सजा नहीं देनी चाहिए कि उसका वजूद ही खत्म हो जाए। गजाधर सिंह अपनी पत्नी पर शक करके उसे ऐसी क्रूर सजा दे चुके थे जिससे कि उसकी मौत हो गई। वे रंजीत से कहते भी हैं कि तू ऐसा न कर। मैंने तेरी मां को खो दिया। उस समय मैं संभल जाता तो तेरी मां बच जाती। सारंग के प्रति क्षमाशीलता का भाव उनके खुद की जीवनानुभव की उपज है। वे यह भी कहते हैं कि रंजीत हम जाट हैं। हमारा धर्म दुश्मनों से लड़ना है औरतों की लहंगों की रखवाली करना नहीं। ऐसा नहीं है कि गजाधर सिंह कोई अस्वाभाविक चरित्र हैं।



आपकी लगभग सभी रचनाओं में स्त्री की ताकत का मूल स्रोत प्रेम है। किंतु आपके नवीनतम उपन्यास ‘फरिश्ते निकले’ में प्रेम बेला बहु की मुक्ति का नहीं बल्कि उनके दुख और उत्पीड़न का कारण बन जाता है क्योंकि प्रेम में उन्हें धोखा मिलता है। क्या प्रेम के प्रति आपका विश्वास डिगा है?

मैत्रेयी पुष्पा: देखो, प्रेम तो प्रेम ही रहेगा और वह हमेशा ताकत ही देता रहेगा। मैंने इस उपन्यास के माध्यम से यह दिखाना चाहा है कि राजनीति और बाजार ने जितना समाज को बदला है उतना ही प्रेम को भी यानी, राजनीति और बाजार ने उस प्रेम को बदल दिया जिस पर मेरी आस्था रही है। आज प्रेम का स्वरूप बदल गया है। वह पूरी तरह भौतिकवादी हो गया है। प्रेम स्त्री की ताकत का मूल स्रोत है। आज वह मूल स्रोत सूख रहा है। वहां उसे छल मिल रहा है। आखिर बेला बहु ने तो अपनी तरफ से तो भरत सिंह से प्रेम ही किया था। लेकिन वह छली गयी। बाजार और राजनीति ने प्रेम को इतना बदल दिया अब वह भी स्त्री के प्रतिकूल हो गया है।



आपकी एक किताब है ‘तबदील निगाहें’। इसमें आपने हिन्दी की महत्वपूर्ण रचनाओं का विश्लेषण करते हुए यह आरोप लगाया है कि स्त्री पात्रों को रचनाकारों ने पुरुष दृष्टि से ही रचा है। वहां स्त्री दृष्टि का घनघोर अभाव है। यह सवाल तो स्त्री रचनाकारों की स्त्री पात्रों पर भी उठाया जा सकता है। आपने उनपर क्यों नहीं लिखा?

मैत्रेयी पुष्पा: स्त्री रचनाकारों पर यह बात पूरी तरह लागू नहीं होती। मैंने तो पुरुषों पर आरोप लगाया कि उन्होंने स्त्रियों के बारे में स्वयं ही अनुमान लगा लिया। उन्हें बोलने ही नहीं दिया। स्त्रियों की रचनाओं में स्त्रियां बोलतीं तो बहुत है पर कर्म कुछ नहीं करती हैं। हमारी लेखिकाओं में काफी बौद्धिकता है, भाषा विन्यास भी जबर्दस्त है पर मूल प्रश्न तो यह है कि आपकी नायिका तोड़ती-फोड़ती कितना है और बदलती कितना है। वे चलती तो है झंडा उठाकर पर फिर झंडा फेंककर लौट आती है। मन्नू भंडारी की कहानी है- ‘यही सच है’। मेरा सवाल है कि यही सच क्यों है? पहला सच क्यों नहीं है? आपका प्रेम तो उसी से था। स्थानापन्न पाकर अपने प्रेम को तिलांजलि क्यों दी? यहां मुझे शिकायत होती है। ऐसी कई-कई शिकायतें हैं दूसरी लेखिकाओं की रचनाओं से भी। हिम्मत हुई तो मैं उनपर भी लिखूंगी।



आप राजेन्द्र यादव पर एक किताब लिख रही हैं। क्या है उसमें?

मैत्रेयी पुष्पा: मैंने ‘गुड़िया भीतर गुड़िया’ में उनपर बहुत कुछ लिखा है। बहुत बातें जो रह गई हैं, उसे दर्ज कर रही हूं। ‘गुड़िया भीतर गुड़िया’ लिखने का बाद भी बहुत चीजें हुई हैं। जिस राजेन्द्र यादव की हर बात पर मैंने हां में सिर हिलाया उन्हीं की दलीलों और आग्रहों का पुरजोर विरोध भी किया। विरोध क्यों किया? जब माना तो हर बात माना क्यों? अंतिम समय आते-आते फिर एक साथ जुड़े क्यों? इन सब बातों पर लिख रही हूं। मैंने उनके लिए जो किया है उसका जिक्र मैं नहीं करुंगी क्योंकि उन्होंने भी मेरे लिए किया है। वे आज नहीं है, मैं यहां तक हूं। मैं उन्हें श्रद्धांजलि के रूप में क्या दे सकती हूं सिवाय किताब के। उन्होंने मुझे किताब लिखना ही सिखाया है। मेरी तरफ से तो यह किताब एक महीने में पूरी हो जाएगी। प्रकाशक कितना देर लगाएंगे कह नहीं सकती।

[किताब अब पूरी हो गयी है और ‘राजकमल प्रकाशन’ से छप कर आएगी] 




सुना है इसमें कुछ कड़वी बातें भी आने वाली हैं?

मैत्रेयी पुष्पा: राजेन्द्रजी तो ऐसी बातों से खुश होंगे। इसे तो वे अच्छी श्रद्धांजलि मानेंगे। सीधी-सीधी बातों से तो वे नाराज हो जाते। बाकी तो पढ़ने पर ही पता चलेगा कि क्या है और कैसा है? 

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Chitra Mudgal Interview चित्रा मुद्गल साक्षात्कार


अल्पना मिश्र, वंदना राग, मनीषा कुलश्रेष्ठ, शरद सिहं और इंदिरा दागीं बेहतर लिख रही हैं

- चित्रा मुद्गल 

चित्रा मुद्गल जी का ‘सामयिक सरस्वती’ (अक्टूबर-दिसम्बर 2015) में प्रकाशित साक्षात्कार कितना महत्वपूर्ण है यह आप उसे पढ़ने के बाद समझ जायेंगे. मैंने ‘शब्दांकन’ पर इसे प्रकाशित करने से पहले चित्रा जी को उसे सुनाना उचित समझा – और इस दौरान हुई बातचीत ने साक्षात्कार में कुछ-एक वाक्यों-आदि की बढ़ोतरी की है – जिसे यहाँ चित्रा मुद्गल जी की सहमति के बाद ही प्रकाशित किया है... हमारे समय के एक महत्वपूर्ण साक्षात्कार के लिए दिनेश कुमार को बधाई. 

भरत तिवारी

कृष्णा सोबती, मन्नू भंडारी और ममता कालिया हैं... चित्रा मुद्गल की पसंदीदा लेखिकाएं #शब्दांकन

स्त्री केवल योनि नहीं चित्रा मुदगल से दिनेश कुमार की बातचीत




दिनेश कुमार: आपकी पहली कहानी 1964 में छपी थी। 1980 में आपका कहानी-संग्रह ‘जहर ठहरा हुआ’ प्रकाशित हुआ यानी पहली चर्चित कहानी और संग्रह के बीच सोलह साल का लम्बा अंतराल है। इतने लम्बे अंतराल का क्या कारण रहा?

चित्रा मुद्गल: मैं शायद बिल्कुल अलग ढंग की लेखिका हूँ । मेरा रुझान शुरू से ही सोशल एक्टिविज्म की तरफ अधिक रहा है । हायर सेकेंडरी की पढ़ाई के दौरान महाराष्ट्र-गुजरात विभाजन से एक सामाजिक हलचल पैदा हुई। हम लोग जे.पी., लोहिया, मार्क्स, डांगे आदि को पढ़ते थे। उस दौर में सामाजिक आन्दोलन भी बहुत हो रहे थे। पूरा जोर विद्यार्थियों को जागरूक बनाने पर था। दूसरी तरफ मेरा परिवेश भी मुझे सामाजिक गतिविधियों की तरफ मोड़ने में सहयोगी बना। मुंबई के मजदूर इलाके में एक बड़े से बँगले में हम रहते थे। आस-पास की झोंपड़-पट्टी में बिहार, उत्तर प्रदेश, आंध्र प्रदेश आदि विभिन्न जगहों से आए हुए मजदूर रहते थे। एक विषमता जो घर से निकलते ही दिखाई पड़ती थी, उसका गहरा असर मुझ पर पड़ा। मैं सोचती थी कि यह विषमता समाज का स्वाभाविक अंग नहीं है । इसके लिए जिम्मेवार वह व्यवस्था है जो ईमानदार नहीं है । मैं मानने लगी कि इस व्यवस्था में बदलाव आवश्यक है और पूरी तरह सामाजिक कार्यों से जुड़ गयी। इसलिए उस समय लिखना प्राथमिक नहीं था। इस बात को लेकर भी कोई उत्सुकता नहीं थी कि कहानियां छपें तो उनका संग्रह भी आना चाहिए।


दिनेश कुमार: 1980 से 2002 यानी ये दो दशक आपकी साहित्यिक सक्रियता का दौर है। आपके तीनों उपन्यास और कहानी संग्रह इसी दौर में प्रकाशित हुए। इसके बाद तो आपके लेखन में एक विराम की स्थिति है। तेरह साल बाद (2014) अभी आपका नया कहानी संग्रह आया है। आपकी साहित्यिक यात्रा इतनी अल्पकालिक क्यों दिखाई देती है

चित्रा मुद्गल : मेरी साहित्यिक यात्रा अल्पकालिक है, ऐसा मैं नहीं मानती। मैंने 1964 से लिखना शुरू किया और तब से लगातार लिख रही हूँ । किताबें मेरी देर से आइए पर मेरा लेखन कभी स्थगित नहीं रहा है । कहानियां समय-समय पर छपती रही हैं। स्वतंत्र पत्रकारिता भी मैंने की है । विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लेख और ‘कवर स्टोरी’ छपती रही हैं। मैंने अनुवाद कार्य भी बहुत किया है । गुजराती, मराठी और अंग्रेजी से ढेरों लेख और कहानियों का अनुवाद किया है। यह भी तो मेरी साहित्यिक सक्रियता का ही रूप है । जहां तक उपन्यास की बात है, मैं आज भी कहती हूँ कि जब तक कोई ठोस बात न हो तो मैं उपन्यास नहीं लिख सकती। औरत-पुरुष वाला उपन्यास मैं नहीं लिखना चाहती।


दिनेश कुमार: अस्सी के दशक से ही भारतीय समाज व्यवस्था, राजनीति और अर्थव्यवस्था में बुनियादी परिवर्तन आने शुरू हो गए जिसका चरम रूप हमें आज दिखाई देता है। आपका साहित्य इन परिवर्तनों को बहुत ही गहराई और सूक्ष्मता से पकड़ता है। इसी दौरान गांव-देहात भी बहुत बदले हैं लेकिन आपके कथा-साहित्य में गांव नहीं है। गांव आपके चिंतन और सरोकार से अनुपस्थित क्यों है?

चित्रा मुद्गल: तुम यह कैसे कह सकते हो? तुम्हारी बात पूरी तरह गलत है । मेरे साहित्य में हर जगह गांव आया है अलग-अलग रूपों में। दलित, शोषित, मध्यवर्ग, निम्न मध्यवर्ग सभी मेरे कथा-साहित्य में हैं। दरअसल मेरा सरोकार गांव से पलायन करके बाहर आए उस आदमी से था जो रिक्शा चला रहा था, दारू के ठेके पर काम कर रहा था, ऑटो चला रहा था, दूसरों के घरों में काम कर रहा था। मेरा सरोकार इन शोषितों और वंचितों से था जो गांव के ही आदमी थे। मेरी कई कहानियां सीधे-सीधे गाँव से संबंधित हैं। ‘दुलहिन’, ‘जगदंबा बाबू आ रहे हैं आदि कई कहानियां गाँव की हैं। हां, मैंने खांचा बनाकर नहीं लिखा। मरे पास वह गाँव नहीं है जहां स्त्री आधी रात को पति और बेटे को छोड़कर अपने प्रेमी के पास स्वायतत्ता भोगने चली जाती है । यह अनुभव से उपजी हुई स्त्री नहीं है, यह लेखक की दृष्टि से उपजी स्त्री है । मेरे पास यादव जी का गाँव नहीं है । मैं वैसा गाँव चाहती भी नहीं क्योंकि मेरा मानना है कि स्त्री जब मस्तिष्क से स्वतंत्र नहीं होगी तो कमर के नीचे से स्वतंत्र होने से कुछ नहीं होगा।



दिनेश कुमार: आपकी रचनाओं जैसे ‘गिलिगडु’ उपन्यास आदि में संयुक्त परिवार के प्रति प्रबल आकर्षण दिखता है मानो आज की अनेकानेक समस्याओं है मानो आज की अनेकानेक समस्याओं की जड़ में संयुक्त परिवार का विघटन है। क्या स्त्री की दृष्टि से भी आपने संयुक्त परिवारों का आकलन किया है? क्या यह सच नहीं है कि संयुक्त परिवार स्त्री के बलिदान पर ही टिके होते हैं?

चित्रा मुद्गल: संयुक्त परिवार की आपकी अवधारणा मेरी अवधारणा से अलग है । जब संयुक्त परिवार है तो इसमें पितृसत्ता और स्त्री सत्ता नहीं होती। संयुक्त परिवार का मतलब पितृसत्ता और स्त्रीसत्ता का संतुलन। दिक्कत यह है कि इस संतुलन का क्रमशः विघटन हुआ है । इसलिए मैं कहती हूँ कि संयुक्त परिवार स्त्री के विरोध में नहीं है लेकिन स्त्री के जो हक मारे गए हैं, वह गलत है । मैं उन रूढ़ियों के खिलाफ हूँ जिन्हें पितृसत्ता ने अपने शासन को बचाने का औजार बनाया, जैसे कि सास बहू पर शासन करे। मर्द ने सत्ता दे दी औरत को। सास ने बहू पर शासन किया और बहू सास बनने का इंतजार करने लगी। यह परिपाटी चल पड़ी। इस तरह पितृसत्ता ने स्त्री को अनुकूलित कर लिया और औरत ही औरत के विरोध में हो गई। मैं इस परिपाटी के खिलाफ हूँ । संयुक्त परिवार के नहीं ।


दिनेश कुमार: आपने अपनी रचनाएं शोषितों और वंचितों को केन्द्र में रखकर लिखी हैं। आपने स्वयं उनके बीच काम भी किया है। फिर भी, एक बड़ा तबका आप पर दक्षिणपंथी होने का आरोप लगाता है, ऐसा क्यों?

चित्रा मुद्गल: इस दुष्प्रचार के जन्मदाता राजेन्द्र यादव हैं। जब मैं प्रसार भारती में थी तब उनको लेकर मुशर्रफ आलम जौकी साहब ने साहित्य पर आधारित एक सीरियल दूरदर्शन के लिए बनाया था, जिसका नाम था ‘किताबों के रंग राजेन्द्र यादव के संग’ चूंकि गाइड-लाइन के हिसाब से सीरियल के नाम में व्यक्ति का नाम सिर्फ तब ही हो सकता है जब वह कार्यक्रम में आद्योपांत उसे संचालित करता है। इसलिए उनके नाम पर आपत्ति हुई क्योंकि राजेन्द्र भाई का उसमें सिर्फ सात मिनट का सेगमेंट था और इसलिए सीरियल का नाम सिर्फ ‘किताबों के रंग’ रह गया। उन्होंने दुष्प्रचार शुरू कर दिया। उन्होंने संपादकीय लिखकर मुझे मुसलमान विरोधी साबित करने की कोशिश की। दरअसल, एक लेखिका विशेष को आगे बढ़ाने के लिए उन्होंने उस दौर में सभी लेखिकाओं के कद को कम करने का काम किया। यहां तक कि मन्नू भंडारी को खांटी घरेलू औरत कहा जबकि दूसरी तरफ एक लेखिका विशेष की गाँव की औरत को बहुत पसन्द करते थे। मेरे विरोध का एक बड़ा कारण यह भी था कि उन्हें यह बरदाश्त नहीं हो रहा था कि कोई ऐसी स्त्री प्रसार भारती की सदस्य कैसे बन गई जो उनके द्वारा ‘प्रमोट’ की गई नहीं है । मैं पहली स्त्री थी जो उनके लिए चुनौती बनी थी।



दिनेश कुमार: क्या इसमें तनिक भी सच्चाई नहीं है कि आपका भाजपा के प्रति थोड़ा झुकाव रहा है?

चित्रा मुद्गल: नही, बिल्कुल नही। मैं कभी भी न तो आरएसएस और न ही भाजपा की सदस्य रही हूँ । हाँ, मैं अटल बिहारी वाजपेयी की प्रशंसक रही हूँ । प्रसार भारती के लिए जब सुषमा जी ने मुझे फ़ोन कर प्रस्ताव किया तो मैंने स्वीकार कर लिया। इससे पूर्व मेरा भाजपा से कोई परिचय नहीं था लेकिन राजेन्द्र यादव ने मुझे भाजपाई प्रचारित करना शुरू कर दिया। पकंज बिष्ट ने ‘समयातंर’ में वही लिखा जो राजेन्द्र यादव ने उन्हें बताया। मैं अच्छे काम का समर्थन करती हूँ और अपनी बात ईमानदारी से रखती हूँ । अगर कोई काम अच्छा हो रहा है और उसे बीजेपी कर रही है तो मैं उसे अच्छा ही कहूंगी। सिर्फ बीजेपी के कारण उसे बुरा नहीं कहने लगूंगी।



दिनेश कुमार: आपकी राजनीतिक विचारधारा?

चित्रा मुद्गल: लोहिया का समाजवाद।



दिनेश कुमार: राजेन्द्र यादव के साथ आपका इतना विरोध कैसे हो गया? आपको उनकी किस बात पर सबसे अधिक आपत्ति थी।

चित्रा मुद्गल: 1986 में हंस निकला, तब तक कोई विरोध नहीं था। तीसरे ही अंक में मेरी कहानी छपी थी। शुरुआती दस साल हंस का ‘गोल्डन पीरियड’ था। तब तक उन्हें स्त्री विमर्श की छूत भी नहीं लगी थी। हमारा उनसे कहना था कि आप साहित्य को और स्त्री विमर्श को जिस दिशा में हांक रहे हैं, वह बहुत गलत है । आप स्त्री का सिर्फ योनि में अवमूल्यन कर रहे हैं। स्त्री केवल योनि है, यह मानना अपने आपमें बहुत खतरनाक है । हमारा विरोध इस बात को लेकर था कि सामाजिक जीवन में हम जो तमाम तरह की गैर बराबरी और पितृसत्ता के विरुद्ध लड़ाई लड़ रहे थे, उनकी दिशा को उन्होंने भटका दिया। स्त्री स्वतंत्रता को उन्होंने यौन स्वतंत्रता तक सीमित कर दिया। बाद में तो वे एक लेखिका विशेष के नाम के सिवा कुछ सुनना ही नहीं चाहते थे। वे मुझसे कहते थे कि तुम हंस दफ्तर नहीं आती कि मैं एक लेखिका विशेष को महत्व देता हूँ । एक बात जरूर है कि तमाम लड़ाइयों के बावजूद उन्होंने सबंध्ं बरकरार रखे, बराबर अवध को देखने, मुझसे मिलने घर आते रहते थे और कहते थे, “चित्रा तुम मुझसे क्यों नाराज़ रहती हो”? मैं उनसे एक लेखिका विशेष के कारण नाराज नहीं थी। मैं उनकी स्त्री विमर्श की उस परियोजना से नाराज थी जो स्त्री को सिर्फ योनि मान रही थी और किसी के साथ सोने को ही स्त्री की सबसे बड़ी क्रांतिकारिता के रूप में परिभाषित कर रही थी।





दिनेश कुमार: आपकी बात एकदम सही है पर मुझे यह समझ में नहीं आया कि कुछ समय पहले ‘जनसत्ता में मैत्रेयी पुष्पा ने एक लेख लिखकर इस मान्यता का विरोध किया कि स्त्री सिर्फ योनि है और नयी पीढ़ी की लेखिकाओं को प्रश्नांकित किया कि उनके लेखन से स्त्री का बहुविध संघर्ष गायब है और मौज-मस्ती का आलम है, तब आप उनके विरोध में क्यों खड़ी हो गई? आपको तो उनका समर्थन करना चाहिए था क्योंकि वे तो इसका विरोध कर ही रही थी कि स्त्री की सारी क्रांतिकारिता सोने में ही हैं?

चित्रा मुद्गल: उनका विरोध मैंने इसलिए किया कि वे पूरी नयी पीढ़ी को खारिज कर रही थीं जिनके पास कई अद्वितीय कहानियां हैं। मैं ऐसी पचासों कहानियों का नाम ले सकती हूं। इन स्त्रियों ने अपने शुरुआती दौर में ही ऐसी कहानियां लिख दी हैं जो स्वयं मैत्रेयी के पास भी नहीं हैं। अगर आप पहले देखें तो कृष्णा जी ने ‘मित्रो मरजानी’ और मृदुला गर्ग ने ‘चितकोबरा’ लिखा है फिर इन्हें ही क्यों दोष दिया जाए? सबसे बड़ा सवाल यह है कि अगर ये देह-विमर्श कर रही हैं तो आप भी तो इसी के सहारे आगे बढीं, तो सबसे पहले अपने को खारिज कीजिए, फिर इन्हें खारिज कीजिएगा। उन्होंने जनरल स्टेटमेंट दिया। मुझे उनका उपदेश कुछ अच्छा नहीं लगा। नयी पीढ़ी की लेखिकाएं जैसे अल्पना मिश्र, वंदना राग, मनीषा कुलश्रेष्ठ, शरद सिहं और इंदिरा दागीं बेहतर लिख रही हैं। ये देह-विमर्श ही नहीं समाज विमर्श की भी बात कर रही हैं। आज की पीढ़ी हमसे बहुत आगे है, अभी और आगे जाएगी। मैं आश्वस्त हूँ ।


दिनेश कुमार: मृदुला गर्ग ने मुझसे एक साक्षात्कार में नाम लेकर लेखिकाओं को चुनौती दी है कि अगर वे ‘चितकोबरा’ जैसी कोई रचना लिख दें तो मैं अपना साहित्य अकादेमी अवार्ड लौटा दूंगी। उसमें आपका भी नाम है। क्या आपको उनकी चुनौती स्वीकार हैं?

चित्रा मुद्गल: पहले तो मेरी जैसी साँचे की महिला ‘चितकोबरा’ को उत्कृष्ट साहित्य नहीं मान सकती। मैंने अब जाकर ‘लेडी चैटेर्लीज़ लवर’ पढ़ा है जब अमेरिकी न्यायालय ने उसे अश्लीलता के आरोप से मुक्त कर दिया है । मृदुलाजी जी इस तरह के लेखन की एक्सपर्ट हैं। ऐसे लेखन के मामले में मैं निश्चय ही नाकाबिल हूँ । सेक्स और उसका चित्रण मेरी जिन्दगी का ध्येय नहीं है । मैं सफल या असफल जो भी हूँ लेकिन मेरे लिए दुनिया की और समस्याएं महत्त्वपूर्ण हैं। मैं इसे समाज की केन्द्रीय समस्या नहीं मानती हूँ । स्त्री-पुरुष सम्बन्धों का जो रूप मैंने देखा है, वह दूसरा है । इसलिए मैं न तो वैसा उपन्यास लिख सकती हूँ, न लिखना चाहती हूँ ।

सामयिक सरस्वती

दिनेश कुमार 
ईमेल:
dineshkumarbp@gmail.com
मोबाईल
09013699157


दिनेश कुमार: एक समय में लेखक संगठनों की बड़ी भूमिका होती थी। अब वे धीरे-धीरे अप्रासंगिक होते जा रहे हैं। आप हिन्दी के लेखक संगठनों के बारे में क्या सोचती हैं?

चित्रा मुद्गल: लेखक सगंठन जरूरी हैं और चाहे वह प्रगतिशील लेखक संगठन हो या नयी कहानी का दौर या समंतार आन्दोलन या जनवादी लेखक संगठन हो साहित्य में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका है. लेकिन यह बहुत दुखद है कि वे इतने निरंकुश हो जाएं कि उनकी मान्यता के अतिरिक्त किसी भी अन्य तर्क को त्याज्य मानने लगें। हिन्दी में लेखक संगठनों के साथ ऐसा ही है. मसलन कोई दक्षिणपंथी अगर कोई महत्वपूर्ण रचना देता है तो रचना को रचना के लिए खुले दिल से मूल्यांकित करना चाहिए. अब इनकी कोई भूमिका नहीं बची है । ये सिर्फ गिरोह बनकर रह गए हैं। इन लोगों की प्रगतिशीलता देखकर दुःख होता है । इनकी कथनी और करनी में आसमान-जमीन का अंतर है । आन्दोलनधर्मी लेखक व संस्कृतिकर्मी तो मुझे महाराष्ट्र में मिले । हिन्दी में तो अधिकतर अवसरवादी ही दिखाई दिए। ये लोग बाहर भाषण कुछ और देते हैं और घर में कुछ और होते हैं। हिन्दी के इन तथाकथित प्रगतिशीलों में असहिष्णुता इतनी है कि अगर कोई सही बात कह दे जो इनके अनुकूल न हो तो बुरी तरह उसके पीछे पड़ जाएंगे। उसे हर तरह से हर जगह से ध्वस्त करने की कोशिश करेंगे ।


दिनेश कुमार: आपकी पसंदीदा लेखिकाएं?

चित्रा मुद्गल: कृष्णा सोबती, मन्नू भंडारी और ममता कालिया।


दिनेश कुमार: हिन्दी में देह-विमर्श की शुरुआत किससे मानती है?

चित्रा मुद्गल: कृष्णा सोबती (मित्रो मरजानी) और उसके बाद मृदुला गर्ग (चितकोबरा) से।


दिनेश कुमार: साहित्य समाज से सबसे बड़ा दुःख?

चित्रा मुद्गल: गुटबंदी और साहित्यकारों का दोहरापन एवं तिहरापन। एक झटके में रातोंरात प्रगतिशील और प्रतिक्रियावादी बनाना।

दिनेश कुमार: अवध जी के नहीं रहने पर अब कैसा महसूस होता है?

चित्रा मुद्गल: अपने-आपको बहुत अकेला पाती हूँ । मैं अभी उस सदमे से उबरी नहीं हूँ । एक-एक चीज की यादें हैं। उनकी कही बातें याद आती हैं। वे कहते थे कि चित्रा तुम्हारा माथा बहुत चौड़ा है । उस पर बड़ी बिंदी अच्छी लगेगी। मैं बड़ी बिंदी लगाती थी, आगे भी लगाना जारी रखूंगी। मेरी बिंदी मेरे साथ रहेगी। अवध के पत्र, प्रेम पत्र, साहित्यकारों के पत्र, सबको प्रकाशित कराऊंगी। मैं वे सारे काम करना चाहती हूँ जो हम दोनों ने सोचे थे।


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इंटरव्यू : पाखी संपादक प्रेम भारद्वाज की पटना में अमित किशोर से बकैती


हर जगह की तरह पटना पुस्तक मेले में भी पाखी संपादक प्रेम भारद्वाज अपनी छाप छोड़ना नहीं भूले. बिहार के प्रेम भरद्वाज के कल और आज में एक बड़ा परिवर्तन यह भी है - बिहार भी और दिल्ली भी दोनों उन्हें अपना बता रहे हैं...  जबकि हैं वो सिर्फ साहित्य के, ये मैं जानता हूँ.

ये साक्षात्कार शब्दांकन में ऐसे लगा कि अभी फेसबुक पर उन्होंने अपनी वाल पर 'हिंदुस्तान' अखबार की वो कतरन लगायी हुई थी जिसमे उनका ये इंटरव्यू था. उनके चाहने वाले (वालियां) वहाँ जमा थे. मैं प्रेम भाई के लेखन का पुराना आशिक़ ... खैर मैंने सोचा आप सब के लिए उसे शब्दांकन पर प्रकाशित कर दूं... तारीख़ पूछने पर प्रेम जी ने 8 दिसम्बर बतायी, और  खबर 9 के अखबार में मिली....

बहरहाल पढ़िए उनका इंटरव्यू और जैसा की उन्होंने इसमें कहा है 'लाइक्स से किसी रचना का साहित्यिक मूल्यांकन नहीं होता...' वो इस पर लागू नहीं हो रहा आप जी भर के लाइक कीजिये...

भरत तिवारी

इंटरव्यू : पाखी संपादक प्रेम भारद्वाज की पटना में अमित किशोर से बकैती

लेखक जरूर दूसरों को भी पढ़ें ।

- प्रेम भारद्वाज


अमित किशोर: आप साहित्यिक पत्रिका के संपादक हैं , बिहार के साहित्यकारों की रचनाओं पर आपकी प्रतिक्रिया?


प्रेम भारद्वाज: बिहार चेतना और संघर्ष के तौर पर उर्वर भूमि है । यहां की रचनाओं में गतिशील यथार्थ है । रचनात्मकता को यहां जमीन मिलती है । बिहार के लेखक जो बाहर रह कर भी लिख रहे हैं उन्हें बिहार का विषय और यहां की पीड़ा ही लोगों से जोड़ती है। यहां की सामाजिक विषमता, स्त्री संघर्ष जैसे मौजू विषय रचनाओं में जान डाल देते हैं । अनामिका, वंदना राग जैसी लेखिकाओं की कहानियों में बिहार की कई छवियां दिखती हैं । पाठक ऐसी रचनाओं को काफी पसंद करते हैं ।


अमित किशोर: रचनाकारों की नई पीढ़ी पर क्या कहेंगे?

प्रेम भारद्वाज:  इसमें केवल देखने का फर्क है । कुछ लोग जो यू ही एक सिरे से नए रचनाकारों की आलोचना कर देते हैं वह गलत है । नई पीढ़ी ने दस्तक दी है । गीताश्री, पंखुरी, उमा शंकर चौधरी, मनोज कुमार झा, निखिल आनंद, शिवेन्द्र समेत कई नए रचनाकार रहे हैं जिनकी रचनाओं में आक्रोश के साथ छटपटाहट भी है । नए लोग समाज को बिल्कुल नए नजरिए से देख रहे और अपनी रचनाओं में व्यक्त कर रहे ।


अमित किशोर: साहित्यिक पत्रिका के संपादक के तौर पर क्या चुनौतियां होती हैं ?

प्रेम भारद्वाज:  छपने के लिए जो सामग्री आती है उन्हें देख यही लगता है कि अब सृजन कम और निर्माण ज्यादा हो रहा है । अच्छे साहित्य पर बुरा साहित्य हावी है । हंस पत्रिका ने दलित व स्त्री विमर्श का दौर चलाया तो रवीन्द्र कालिया ने युवा लेखकों को अवसर दिया। साहित्य सिर्फ कथा-कहानी नहीं है । इस समस्या को दूर करने के लिए हमने पुराने और नए रचनाकारों को साथ ला गंभीर चर्चा भी की, ताकि साहित्य में रचनात्मकता के स्तर पर एक -दूसरे को समझने की परंपरा बढ़े ।


अमित किशोर: सोशल साइट से आज का साहित्य कैसे प्रभावित हुआ है ?

प्रेम भारद्वाज:  साहित्य के लिए सोशल साइट अभिशाप और वरदान दोनों है । ऐसे लोग जिनमें प्रतिभा तो है लेकिन किसी कारणवश मंच नहीं मिल पाया उनके लिये यह वरदान है । अपनी रचनाओं को पोस्ट कर देते हैं । उ न्हें लाइक भी मिल जाते हैं । यहीं से परेशानी भी शुरू हो जाती है । लाइक्स से किसी रचना का साहित्यिक मूल्यांकन नहीं होता। हां, जो सचमुच गंभीर लेखक हैं , वे सामने आ रहे हैं और आएंगे। यह एक स्पेस है , इसका लाभ उन्हें मिल रहा है । तमाम लोग कवि और लेखक बने हैं । सोशल साइट पर कविता या कहानी पोस्ट कर रहे लेखकों में सबसे बड़ी कमी होती है कि इनमें से ज्यादातर ने कभी प्रसिद्ध साहित्यकारों को नहीं पढ़ा। लेखक जरूर दूसरों को भी पढ़ें ।


अमित किशोर: आज के दौर की कहानियों का मूल स्वर क्या है ?

प्रेम भारद्वाज:  पिछले 20 साल में रची गई कहानियों पर बाजार वाद और भूमंडलीकरण हावी है । इसके अलावा सांप्रदायिकता विषयक कहानियों ने काफी पैठ बना ली है । सबके पास सांप्रदायिकता की एक अलग कहानी है । भूख और गरीबी जैसे मुद्दे आज की कहानियों में अब बिरले ही मिलते हैं । अब कहानियों में कठोर यथार्थ की कमी भी आई है ।


अमित किशोर: लोकप्रिय और गंभीर साहित्य पर क्या कहेंगे?

प्रेम भारद्वाज:  बाजार , सत्ता या साहित्य सभी को लोक प्रिय होना ही होगा। चेतन भगत की रचनाओं की आलोचना गलत है । तुलसीदास, दिनकर भी अपने समय में काफी लोक प्रिय थे। हां साहित्य को बाजार के उत्पाद के तौर पर पेश क र ना गलत है । साहित्य तो लोक से ही जुड़ा होता है । उसे लोक में ही प्रियता हासिल करनी होगी। यह तभी होगा जब साहित्य लोकोन्मुख होगा।


अमित किशोर:  नये साहित्यकारों पर चर्चा की परंपरा खत्म सी हो गई है ?

प्रेम भारद्वाज:  साहित्यकार अल्पसंख्यकों की तरह हैं । दो दशकों में स्थिति ऐसी बन गई है कि उन्हें बुरी तरह नजरंदाज कि या जा रहा है । अखबारों में भी पहले जैसी जगह मिलती थी वैसी स्थिति अब नहीं है । साहित्यकारों के विचारों के टकराव का सबसे सार्वजनिक और सटीक मंच तो अखबार ही है । जहां ऐसी गतिविधियां नगण्य हो गई हैं ।


अमित किशोर: बिहार के साहित्यकारों की रचनाशीलता को कैसे देखते हैं ?

प्रेम भारद्वाज:  बिहार में जिस तरह से साहित्य का समग्र विकास हो रहा है , उससे काफी उम्मीद जगती है । साहित्य के विकास में लगे लोगों में आधे से ज्यादा रचनाकार बिहार से जुड़े हैं । उनकी रचनाओं में यथार्थ साफ झलकता है । यहां एक साथ कई पीढ़ियां काम कर रही हैं । ऐसी रचनाएं जहां सीधे तौर पर बिहार नहीं आ रहा वहां भी यहां के लोगों का दर्द झलक जाता है । बिहार मेरे लिए सिर्फ भूगोल-इतिहास नहीं, मेटाफर की तरह है । जख्म, जंग और जुनून है । यही इसकी ताकत है और बिहार का लेखन इसी से अलग पहचान पाता है ।

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