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सुरेन्द्र मोहन पाठक #PulpSeries 1 | जासूसी उपन्यासकारों की जासूसी, यशवंत व्यास ~ भरत तिवारी

सुरेन्द्र मोहन पाठक #PulpSeries



अगर आपकी उम्र 50-70 के बीच है, और आप हिन्दी के पाठक रहे हैं तो मैं बहुत हद तक तय मानूँगा कि आपने कभी न कभी हिन्दी के जासूसी उपन्यास पढ़े होंगे। आपने इब्ने सफी - जेम्स हैडली चेज़ -- वेद प्रकाश कांबोज -- कर्नल रंजीत -- वेद प्रकाश शर्मा -- सुरेन्द्र मोहन पाठक -- ये लिस्ट लंबी है और हो सकता है कि जिस जासूसी उपन्यासकार को आप पढ़ते रहे हों उनका नाम यहाँ न लिखा हो। 

राजेन्द्र लड़ते थे पर संबंध तोड़ते कभी नहीं थे। ~ मन्नू भंडारी | Mannu Bhandari interview by Vivek Mishra

अच्छा हुआ कि मित्र विवेक मिश्र से उनका मन्नूजी वाला यह इंटरव्यू मांग लिया। यह दरअसल एक टिपिकल इंटरव्यू नहीं है इसमें मन्नू भंडारीजी ने कई बातों का खुलासा तो किया ही है, साथ विवेक मिश्र ने अपनी कथाकार दृष्टि से बहुत रोचक बना दिया है। राजेन्द्र यादवजी भी इसे पढ़कर ज़रूर खुश होते, ठहाका लगाते ~ सं0   

जब जब नेता को राजा बनाओगे, गर्भवती सीता को बनवास मिलेगा ~ मृदुला गर्ग | Mridula Garg - Must Watch Interview

मृदुला गर्ग का यह एक मानीख़ेज़ इंटरव्यू है। साहित्य, लेखन, पाठन, विदेश नीति से लेकर वर्तमान सत्ता और भविष्य पर शमशेर सिंह के साथ हुई उनकी यह बातचीत सुनें अवश्य।  ~ सं0 

असल में तो ये एक साहित्यिक विवाह है - भूमिका द्विवेदी अश्क | Bhumika Dwivedi Ashk - Interview

भूमिका द्विवेदी अश्क की साहित्यिक यात्रा का 2023 दशक वर्ष है। उनकी पहली कहानी 2013 में प्रकाशित हुई थी। भूमिका के 'श्रीमती अश्क' यानी श्री उपेंद्रनाथ अश्क जी की पुत्रवधू, नीलाभ अश्क की पत्नी बनने का भी यह दसवाँ साल है। इस अवसर पर पर डॉ अरविंद कुमार से हुई उनकी बातचीत पढ़िए और जानिए, समझिए। ~ सं०  

Dr Shashi Tharoor interviews one of the greatest artists of India Anjolie Ela Menon

Dr Shashi Tharoor interviews Anjolie Ela Menon

To The Point: Anjolie Ela Menon, Contemporary Artist & Muralist

In this episode, renowned former diplomat and three times Member of Parliament, Dr Shashi Tharoor interview one of the greatest artists of India Anjolie Ela Menon. 81 years old Anjolie has been painting for over 65 years now. She had her first painting exhibition in 1958 when she was only 18. Dr Zakir Hussain was the first collector of Anjolie's work. Anjolie was mentored by M F Husain. Women characters dominate Anjolie's paintings. Her themes include windows, crows, goats and chairs. Anjolie's preferred medium is oil and masonite. 


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हम सिर्फ योगियों की बात करते रहे हैं इसलिए इस किताब में मैंने.... — देवदत्त पट्टनायक


हम सिर्फ योगियों की बात करते रहे हैं इसलिए इस किताब में मैंने.... — देवदत्त पट्टनायक 
आज के हिंदी दैनिक हिंदुस्तान में देवदत्त पट्टनायक की भरत एस तिवारी से हुई प्रस्तुत बातचीत का अंश प्रकाशित हुआ है.  http://epaper.livehindustan.com/epaper/hindustancity/hindustancity/2019-07-20/311/Page-5.html


देव योग 

— भरत एस तिवारी


लेखक का ख़ुद के लेखक होने की ज़िम्मेदारी समझना और अपने लेखन को अपने पाठकों की समझ और पसंद को ज़ेहन में रखते हुए लिखना कितना आवश्यक है, यह लम्बे समय से लेखकीय कलम की राह तक रही, भारत की पौराणिक कथाओं को मिलने वाले लेखक देवदत्त पट्टनायक के लेखन में देखा जा सकता है. देवदत्त को हमारे समय में हर वर्ग के लोगों, ख़ासकर युवाओं तक उनकी ही 21वीं सदी की समझ, सोच और जीवन की भाषा में पौराणिक कथाओं को पहुँचाने का श्रेय जाता है. उनसे हुई एक हालिया मुलाकात में क्या चर्चा हुई, आप भी जानिए:

देवदत्त माइथोलॉजी यानी पुराणशास्त्र पर ही क्यों लिखते हैं ?

पुराण शास्त्र में कहानियों के माध्यम से वह ज़रूरी बातें बतायी जाती हैं, जिन्हें अन्यथा समझ पाना मुश्किल है. वेद बीज हैं जिसमें रस और स्वाद नहीं होता, वह बीज फल बन जाने पर पुराण बन जाता है, जिसमें रस और भाव होता है, जिसका अनुभव करते हुए है वैदिक सत्य समझ आता है. रसास्वादन किया जाता है. इसलिए मेरा झुकाव आख्यानों में अधिक है.

वर्तमान समय में माइथोलॉजी की क्या आवश्यकता है?    

यह अभी की आवश्यकता नहीं है...सनातन है. जैसे हम कहते हैं कि भारतीय ज्ञान सनातन है. यह अभी भी समझा जायेगा. सौ वर्षों पूर्व भी समझा गया. सौ वर्षों, हज़ार वर्षों बाद भी समझा जायेगा. यह तत्व ज्ञान है जो पुराणों का फल है इसका रूप बदल सकता है लेकिन अर्थ सनातन है. 

आप जिस दृष्टि से माइथोलॉजी दिखाते हैं, उसकी इस समय क्या आवश्यकता है?

मुझे समय से कोई लेनादेना नहीं है. मुझे इसमें रूचि है इसलिए मैं इसपर लिखता हूँ. लोग पढ़ते हैं और अगर न भी पढ़ें तो मुझे क्या फर्क पड़ेगा. मैं बीस वर्षों से लिख रहा हूँ, लोग तो अभी आठ-दस वर्षों से मुझे पढ़ने लगे हैं. वह पढ़ें न पढ़ें, सुनें न सुनें मैं आख्यान का विश्लेषण करूँगा क्योंकि इससे मुझे आत्मरति मिलती है. भगवान की कृपा से लोगों को मेरा लिखा पसंद है जिससे मेरे घर में लक्ष्मी आ रही हैं. लेकिन मैंने यह  लक्ष्मी के लिए नहीं किया है.

पौराणिक नायकों नायिकाओं को पुनः परिभाषित किये जाने की क्या आवश्यकता हो गयी, आप भी और आपके समकालीन भी राम, सीता, हनुमान और हाल ही में रावण पर लिखते रहते हैं?

माइथोलॉजी फिक्शन और माइथोलॉजी अलग-अलग लेखन हैं. इस फिक्शन में लेखक अपने विचार को -- रावण, राम, कंस आदि पात्रों के माध्यम से -- प्रकट करता है यह हमारी प्राचीन विधा है, मैंने एक ही उपन्यास ‘प्रेग्नेंट किंग’ ऐसा लिखा है. मेरी रूचि यह जानने में है कि मसलन, वाल्मीकिजी या व्यासजी हमें क्या बताना चाह रहे हैं? अपनी समझ कि शायद हमें वाल्मीकिजी जो बताना चाह रहे हैं वह मैं आसान भाषा में लोगों तक पहुँचाने की कोशिस कर रहा हूँ. जैसे लोगों को नहीं पता कि रामायण, महाभारत कितने प्रकार के हैं या राम की पहली मूर्ति कब और कहाँ बनी थी

कहाँ बनी थी राम की पहली मूर्ति?

मथुरा में 1900 वर्ष पूर्व.

आपकी कोई नयी किताब ?

योग के आसनों और उनकी कहानियों पर अभी छपी है ‘योगा माइथोलॉजी, 64 आसन एंड देयर स्टोरीज’. लोगों को योग के अभ्यास, दर्शन और वेदांत के विषय में तो कुछ पता है लेकिन योग के विषय में पुराण शास्त्र है जो कहानियाँ है वह नहीं पता हैं. जैसे वीरभद्र आसन में वीरभद्र कौन है. क्या मत्स्य आसन विष्णु से सम्बंधित है? क्या कोई आसन जैन या बुद्ध बौध धर्म से जुड़ा हुआ है?

यानि आप पुराणों में छिपी हुई, योग से जुड़ी कहानियों को अपने पाठकों के लिए लाये हैं?  

(मुस्कुराते हुए) अरे… और उसको ऐसे बनाया है कि आपको समझ में आये. आप जब इसे पढ़ेंगे तो आपको समझ में आएगा कि देवी का मतलब क्या है. ब्रह्मा, विष्णु, महेश क्या है यह आसनों के माध्यम से भी व्यक्त किया गया है .

हम सिर्फ योगियों की बात करते रहे हैं, माताओं की बात करते हैं, इस किताब में मैंने योगिनियों पर बात की है: उनकी कलाएं, मंदिर, एक ध्वंस हो गयी परंपरा.
(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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रुद्रवीना के भाई सुरबहार वादक डॉ आश्विन दलवी



डॉ अश्विन दलवी से सवाल-जवाब

राजस्थान ललित कला अकादमी के चेयरमैन डॉ अश्विन दलवी देश के प्रसिद्ध एवं स्थापित सुरबहार वादकों में से एक हैं. वे “नाद साधना इंस्टिट्यूट फॉर इंडियन म्यूजिक एंड रिसर्च सेंटर” के सचिव भी हैं. उन्होंने सुरों को साधा है और अब राजस्थान ललित कला अकादमी का भार भी उनके कंधो पर है. उनसे सुरों और रंगों भरे जीवन के बारे में एक बातचीत.

आपकी कलात्मक पृष्ठभूमि के बारे में बताइए. आप विज्ञान के विद्यार्थी होते हुए संगीत से कैसे जुड़े? 

मेरे पिता श्री महेश दलवी देश के प्रसिद्ध तबला वादक थे, इसीलिए संगीत से मेरा पहला परिचय तबले के द्वारा हुआ. मैं तबला बजाया करता था. मेरी माता जी सितार बजाया करती थीं. इसलिए मैं कह सकता हूं कि सितार की मेरी पहली गुरु मेरी माँ थीं. संगीत को कैरियर के रूप में लेना है, ऐसा मैंने कभी नहीं सोचा था. प्रोफेशनली मैं लॉन टेनिस खेलता था और विज्ञान का स्टूडेंट था. मेरे पिता कल्चरल एक्सचेंज प्रोग्राम के तहत विदेश जाते रहते थे. ऐसे में बारह्र्वी तक की शिक्षा मेरी भारत से बाहर ही हुई. भारत आने के बाद मैंने महाराजा कॉलेज में दाखिला लिया. वह समय मेरे जीवन का एक संक्रमण काल था जब मुझे निर्णय लेना था की जीवन में क्या करना है. मुझे धीरे धीरे अहसास होने लगा कि मैं अपने जीवन में सिर्फ संगीत के साथ ही न्याय कर सकता हूँ. उसके बाद मैंने राजस्थान युनिवेर्सिटी से सितार में ग्रेजुएशन, पोस्ट ग्रेजुएशन और फिर पीएचडी किया. मेरे माता-पिता का इसमें जो सहयोग रहा है उसके लिए कृतज्ञता अभिव्यक्त करने को मेरे पास शब्द नहीं है. वो अपनी रातों की नींद खराब करते, मुझे रात के दो बजे या ये कह लीजिये सुबह के दो बजे मुझे उठाते ताकि मैं रियाज कर सकूं. उन दिनों मैं १० से १२ घंटे रियाज़ किया करता था. घर का माहौल बहुत आध्यामिक और संगीतमय था, साधना के लिए कड़ा अनुशासन था. उसके बाद संगीत में घरानेदार उच्च शिक्षा के लिए पिताजी ने इटावा घराने के विश्व प्रसिद्ध सितार वादक पंडित अरविन्द पारीख का शिष्यत्व ग्रहण करवाया. उन्होंने मुझे पहले सितार वादन की और बाद में सुरबहार वादन की विधिवत शिक्षा दी.

मैं पंडित निखिल बनर्जी से बहुत प्रभावित था, पर उनसे मिलने का मौका नहीं मिल पाया. मेरी पीएचडी उनके संगीत पर है, जिसे मैंने अपने दृष्टिकोण से लिखा.

भारत में सुरबहार वादक उँगलियों पर गिने जा सकते हैं. सुरबहार के साथ एक कलाकार के रूप में आपकी यात्रा के बारे में बताइए? सुरबहार की उत्पत्ति कैसे हुई इस बारे में भी कुछ जानकारी दीजिये.
डॉ आश्विन दलवी
सुरबहार, देखने में भले ही सितार जैसा लगता हो पर वाद्य और वादन शैली दोनों सितार से काफी अलग हैं. सुरबहार कैसे आया इसके भी दो-तीन मत हैं. पुराने समय में एक वक्त ऐसा भी आया जब गुरु लोग अपनी कला को लेकर बहुत पजेसिव हो गए थे. वह अपनी कला को अपने परिवार में तो रखना चाहते थे पर शिष्यों में नहीं देना चाहते थे. कहा जाता है कि रुद्रवीणा वादक उस्ताद उमराव खान बीनकार के एक बहुत टैलेंटेड स्टूडेंट थे गुलाम मोहम्मद खान. अपने परिवार की चीज (बीन) उनको ना सिखाकर उन्होंने उस समय प्रचलित वाद्य “कछुआ” का एक बड़ा रूप निर्मित करके एक नया साज़ बनाया जिसकी वादन शैली रुद्रवीणा जैसी ही रखी. इस यंत्र को “सुरबहार” नाम दिया गया. दूसरे मत के अनुसार इटावा घराने के उस्ताद साहिबदाद खान ने सुरबहार बनाया. सुरबहार को रुद्रवीना का भाई भी कहा जा सकता है. इसकी चाल धीर गंभीर और लय विलम्बित होती है. पखावज के साथ संगत में सुरबहार पर ध्रुपद बजाये जाते हैं. सुरबहार में बजने की संभावनाएं रूद्र वीणा से कहीं ज्यादा हैं.

मैं सुरबहार से कैसे जुड़ा ये भी एक दिलचस्प किस्सा है. मुझे सुरबहार शुरू से पसंद था. मैंने अपना सुरबहार बनवाया और इसे बजाना शुरू किया. एक कार्यक्रम में बजाने के बाद मेरे गुरु पंडित अरविन्द पारीख ने कहा –“आश्विन तुम सितार ही अच्छा बजाते हो, सुरबहार रहने दो”.

गुरु की आज्ञा मान मैंने सुरबहार बजाने का ख़याल छोड़ दिया. परन्तु मन में कारण जानने की जिज्ञासा के साथ संकोच भी था की गुरुजी से कारण कैसे पूछूं. हिम्मत जुटा कर पूछने पर गुरुजी ने eye opener जवाब दिया. उन्होंने कहा की तुमने सुरबहार वैसे ही बजाय जैसे सितार बजाते हैं. उस दिन एहसास हुआ की दोनों वाद्य पूरी तरह से भिन्न हैं और दोनों की वादन शैली पृथक है. उसके बाद मैंने उनके बताये अनुसार सुरबहार का अभ्यास शुरू किया. कुछ दिनों बाद एक बड़े कार्यक्रम में किसी सुरबहार वादक के न पहुँच पाने पर मुझे बुलवाया गया. गुरु की आज्ञा लेकर मैंने वहां सुरबहार बजाया, जिसे बहुत पसंद किया गया.

उसके बाद गुरु जी ने मुझे विधिवत तरीके से सुरबहार में प्रशिक्षित किया. धीरे धीरे मैंने सितार के स्थान पर पूरी तरह सुरबहार पर ही ध्यान केंद्रित किया. मेरी सारी यात्रायें मेरे वाद्य के साथ बेहद सुखद रहीं हैं, जहाँ ये ले जाता है मैं वहीं जाता हूँ.

अपने प्रोफेशनल करियर के विषय में जानकारी दीजिये 
ईश्वर की अनुकम्पा से मैं उन चुनिंदा संगीतकारों में रहा जिन्हें संगीत के प्रायोगिक पक्ष के साथ साथ शास्त्रीय पक्ष भी अध्ययन करने का अवसर मिला. राजस्थान विश्वविद्यालय से पीएचडी करने के उपरांत मुझे उदयपुर के मीरा गर्ल्स कॉलेज में पढ़ाने का अवसर मिला. फिर कई वर्षों तक वनस्थली विद्या पीठ में प्राध्यापक रहा. और फिर देश के प्रसिद्ध महाराजा सायाजी राव विश्वविद्यालय में प्राध्यापक रहा. इतने वर्षों तक पढ़ते हुए स्वयं का भी अध्यापन सतत चलता रहा और इसी दरमियान संगीत का एक रिसर्च सेंटर बनाने की परिकल्पना हुई जिससे संगीत के अन्यान्य आयामों का अन्वेषण किया जा सके. २०१० में नादसाधना इंस्टिट्यूट फॉर इंडियन म्यूजिक एंड रिसर्च सेंटर की स्थापना इसी लक्ष्य को लेकर की गई जिससे संगीत में प्रस्तुतियों के साथ साथ शोध प्रविधियों को भी बढ़ावा मिल सके. नादसाधना में संगीत के वाद्य यंत्रों का एक म्यूजियम भी बनाया गया जिसे हाल ही में sahaapedia ने वर्ल्ड museums के साथ मैप किया है. यहाँ पर लगभग 19000 घंटे की ऑडियो और वीडियो रिकॉर्डिंग्स का संग्रह है जो की विश्व से आये शोधार्थियों के शोध में मददगार सिद्ध होता है. इसके अतिरिक्त नादसाधना अनेकानेक संगीत के कार्यक्रम, सेमिनार, सीम्पोसिए, कार्यशाला इत्यादि आयोजित करवाती है. यहाँ काम करके मुझे ऐसा महसूस होता है की मैं अपने जीवन के लक्ष्य को पूरा कर रहा हूँ. अंततः संगीत की सेवा करना ही तो मेरे जीवन का लक्ष्य है. जीवन का जुनून अगर आपका कार्यक्षेत्र बन जाये तो इससे बड़ी परमात्मा की कृपा और कोई नहीं हो सकती, ऐसा मेरा मानना है.

आप संगीत की पृष्ठभूमि से हैं तो संगीत और ललित कला को जोड़ने की किस तरह कोशिश करेंगे ?


मेरी पृष्ठभूमि निश्चित रूप से संगीत की रही है पर मेरी जो कॉलेज की एजुकेशन हुई है वह ललित कला संकाय में हुई. हमारा सिलेबस इस तरह से डिजाइन किया गया था कि संगीत के छात्रों को फाइन आर्ट्स पढ़ना पड़ता था और फाइन आर्ट्स के छात्रों को संगीत पढ़ना पड़ता था. ताकि ललित कलाओं में जो भी विषय हैं, उनके परस्पर संबंध पर भी स्टडी की जा सके. तो संस्कार तो मुझमें कला के हैं ही !

 ललित कला अपने आप में सभी को समाहित करती है चाहे वो दृश्य कला हो, नाट्य कला हो, संगीत कला, चित्र, मूर्ति, वास्तु कला हो.

अकादमी की दृष्टि से मैं संगीत और चित्रकला को जोड़ने का प्रयत्न भी नहीं करूंगा क्योंकि अगर मुझे ललित कला अकादमी का दायित्व दिया गया है तो मैं फोकस ललित कला और उससे जुड़ी एक्टिविटीज पर ही करूंगा. मैं संगीतकार हूं, यह महज संयोग है.

नई पीढ़ी का शास्त्रीय संगीत के प्रति रुझान बढ़ा है या घटा है? उन्हें भारतीय संगीत की परंपरा से जोड़ने के क्या प्रयास किए जाने चाहिए

नई पीढ़ी का शास्त्रीय संगीत के प्रति निश्चित रूप से रुझान बढ़ा है. इसका एक छोटा सा उदाहरण देना चाहूंगा कि आप किसी भी म्यूजिक रियलिटी शो को देखेंगे तो पता चलेगा की उसके टॉप लेवल के प्रतिभागी सभी कहीं ना कहीं किसी गुरु से शास्त्रीय संगीत की शिक्षा ले रहे होते हैं. इससे दर्शकों में भी बच्चे और उनके पेरेंट्स तक यह संदेश जाता है कि उस स्तर तक जाने के लिए शास्त्रीय संगीत सीखना जरूरी है.

हां, साधना तत्व जो शास्त्रीय संगीत के प्राण हैं, उसमें जरूर कमी आई है. आजकल जो भी सीख रहा है, उसकी थोड़ा सा सीखते ही मंच पर जाने की लालसा रहती है. जबकि पुराने समय में जब गुरु सिखाता था तब शिष्य को ना तो कोई दूसरा संगीत सीखने सुनने की अनुमति होती थी और ना ही दूसरे संगीत की नकल करने की अनुमति होती थी और शिष्य पूरी तरह साधना में लीन रहता था. गुरु जैसी आज्ञा देता था, शिष्य उसका पालन करता था. अब गुरु शिष्य की परंपरा वैसी नहीं रह गई है.

टैलेंट तो बहुत है बच्चों में लेकिन जिस तरह की साधना की उम्मीद शास्त्रीय संगीत में की जाती है आज के जमाने में उसकी कमी है.

शास्त्रीय संगीत से समाज को जोड़ने का प्रयास हर स्तर पर होना चाहिए चाहे वह सरकार हो या संगीत के गुरु हो. गुरु की जिम्मेदारी होती है कि वह अपनी कला का प्रचार- प्रसार करें, विस्तार करें और खुले हृदय से अपने पात्र शिष्यों को सिखाये. सरकार को भी विचार करना चाहिए की शास्त्रीय संगीत जो भारतीय संस्कृति की विशेषता है और पहचान भी है, उसके प्रचार प्रसार के लिए क्या-क्या कदम उठाए जा सकते हैं जिससे उसकी उन्नति हो सके.


(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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हम सब फ़कीर हैं : ए आर रहमान — भरत तिवारी | #IndianMusic





मैं एक नया मुकाबला दूंगा — ए आर रहमान

— भरत तिवारी



(आज के नवोदय टाइम्स में प्रकाशित)
http://epaper.navodayatimes.in/1355186/Navodaya-Time-Magazine-/The-Navodaya-Times-Magazine#issue/1/1



'पिया हाजी अली', फिज़ा, जिस फिल्म के लिए ए आर रहमान ने अपनी पहली क़व्वाली गायी थी, और 'ख़्वाजा मेरे ख़्वाजा', जोधा अकबर, ए आर रहमान के इन दो सूफी नग्मों को गायन-शैली और भाषा के कारण भले ही मुस्लिम धर्म की सूफी शाखा का भक्ति गायन होने के कारण क़व्वाली कहा जायेगा — क़व्वाली को भारत उपमहाद्वीप में जाने और सुने जाने का श्रेय अमीर ख़ुसरो को जाता है, जिन्होंने अपने गुरु हज़रत निजामुद्दीन औलिया के लिए इन्हें रचा — लेकिन भारतीय उपमहाद्वीप में यह दोनों कव्वालियाँ अपनी भावना, जो ए आर रहमान की आवाज़ और संगीत के कारण दिल को सुकून देती है, हर संगीत प्रेमी की पसंद में शामिल हैं। बीते दिनों ए आर रहमान से मुलाक़ात हुई, रहमान क़ुतुब मीनार परिसर में होना तय हुए सूफी संगीत समारोह ‘सूफी रूट’ के सिलसिले में दिल्ली में थे।



उनसे एक छोटी लेकिन बड़ी बातचीत हुई; जिसका फ़ायदा उठाते हुए मैंने उनसे, उनके खुद के, 'पिया हाजी अली', और 'ख़्वाजा मेरे ख़्वाजा' कव्वालियों पर, खयाल, अनुभव आदि के बारे में पूछा।

रहमान ने बताया, “जब फिज़ा के निर्देशक खालिद महमूद उनसे फिल्म में गाने के सिलसिले में मिले तो खालिद ने मुझसे कहा, मैं आपसे दूसरा 'मुकाबला' (ए आर रहमान का चर्चित गीत) चाहता हूं।

इस पर उन्होंने खालिद महमूद से पूछा, “फिल्म के अन्य गीतों के बारे में बताएं?

खालिद ने कहा, “एक क़व्वाली है, जिसके लिए वह संगीतकार खय्याम के बारे में सोच रहे हैं।


खालिद महमूद, बस्ती निजामुद्दीन, 3/9/2011 



तिस पर उन्होंने फिज़ा के निर्देशक से कहा, “आप उनके (खय्याम) लिए कुछ और सोच लें...मैं एक नया मुकाबला दूंगा, इसी से अपनी पहली क़व्वाली कंपोज़ करूंगा”...

रहमान जब यह सब बता रहे थे, उनकी आँखों में समर्पण का वह भाव दिख रहा था — जो उन्होंने कुछ देर पहले मेरे सवाल, “आप हज़रत निजामुद्दीन औलिया के भक्त हैं, कुछ बताएँगे?”, के जवाब में यह कहते समय, “हम सब फ़कीर हैं” — जो तब उपजता है जब किसी कलाकार को यह ‘पता’ होता है कि ‘कला’ का उद्गम, वह नहीं, कोई और, कोई दूसरी शक्ति होती है।

मैंने उन्हें और कुरेदा वह बोले,” 'पिया हाजी अली' के विषय में मुझसे डॉक्टरों से लेकर अन्य बहुत लोगों ने अपने अनुभवों को साझा किया है...इंग्लैंड में एक साहब ने मुझे बताया, उनकी कार का ज़बरदस्त ऐक्सिडेंट हुआ, कार पलट गई, लेकिन उन्हें कुछ भी नहीं हुआ। उन सज्जन का कहना था कि ऐक्सिडेंट के समय उनकी कार के स्टीरियो में 'पिया हाजी अली' बज रहा था।



'ख़्वाजा मेरे ख़्वाजा' के विषय में बात करते समय तो रहमान जैसे पूरी तरह भक्ति में लीन हो कर बोले “'ख़्वाजा’ मेरे जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि है”...यह इन्हीं रुहानी गीतों की वजह से है, जिससे हर वर्ग के संगीत प्रेमी ने जुड़ाव और आत्मीय अनुभव महसूस किए, और इन सब की बदौलत मिली दुआओं का ही असर रहा जो मुझे ऑस्कर-सम्मान के रूप में मिला।




और सवालों के बीच मेरा उस शाम का उनसे अंतिम सवाल — इन दोनों गीतों को आये काफी वक़्त हो गया, अब तीसरा गीत कब ? — रहमान पुनः उसी भक्ति-भाव में उतरते हुए बोले, “मैं गानों के साथ ज़बरदस्ती नहीं करता, यदि किसी रचना से जुड़ा संगीत, गायक, शब्द, सुर यानी कुछ-भी मुझे पसंद नहीं आता तो वह रचना मैं वहीँ रोक देता हूँ...”। मेरे प्रश्न का जवाब तो मुझे मिला नहीं था, यह उन्हें दिख गया...बोले “आप फेस्टिवल में आइये...”।





(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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चंपारण : एक ओर शताब्दी-जश्न दूसरी और श्रमिक नेताओं का आत्मदाह


champaran-satyagraha-100-years-celebration

चंपारण: काल सौ साल पहले मानो ठहर गया 

युवा पत्रकार उमेश सिंह की चंपारण से फैज़ाबाद की यात्रा पर निकले गोविंदाचार्य से की गयी महत्वपूर्ण चर्चा पढ़ना प्रारंभ करें इससे पहले यह बता दूं कि आज गोविंदाचार्य जंतर-मंतर पर उन प्रदर्शनकारियों के साथ हैं जो — मोतिहारी के करीब 7000 किसानों और 600 मज़दूरों का मिल में बकाया पैसा जिसके कारण 10 अप्रैल को दो मज़दूर- नरेश श्रीवास्तव और सूरज बैठा ने आत्मदाह कर लिया —  न्याय के लिए प्रदर्शन कर रहे हैं। 




गोविंदाचार्य का नाम आते ही ऐसे विराट व्यक्ति का चित्र उपस्थित हो जाता है जिसने चेतना के गौरीशंकर को स्पर्श कर लिया। छात्र जीवन में ही भारत माता के चरणों में सेवा का व्रत ले लिया, जो अनवरत-अनथक जारी है। वैदिक ऋषियों की वाणी 'चरैवेति-चैरेवेति’ उनकी हर धड़कन में गूंजती रहती है। मूल्यों व मुद्दों की राजनीति के हिमायती।

14 वर्ष की अल्पायु में दक्षिण के तिरुपति नगर से माता पिता के साथ काशी आए तो यहीं के होकर रह गए। काशी हिंदू विश्वविद्यालय से एमएससी करने के बाद शोध छात्र के रूप में रजिस्टर्ड हुए तो तीन माह तक वहां पढ़ाया भी। फिलहाल भीतर तो दूसरी ही धूनी रम रही थी। राष्ट्रीय स्वयं सेवक के लिए वाराणसी, भागलपुर, पटना आदि क्षेत्रों में प्रचारक के रूप में कार्य किया। उसी दौरान जयप्रकाश नारायण ने समग्र क्रांति का बिगुल फूंक दिया। इस आंदोलन में राम बहादुर राय और गोविंदाचार्य की बड़ी भूमिका थी। गोविंदाचार्य मीसा में जेल गए। 1988 सें 2000 तक भाजपा में महामंत्री रहे। वर्ष 2000 से अध्ययन हेतु राजनीति से खुद को पृथक कर लिया। समस्याओं-चुनौतियों से घिरे देश-समाज व इससे निपटने के लिए बौद्धिक, रचनात्मक और आंदोलनात्मक स्तर पर उनका काम जारी है। उद्देश्य अंतिम पात पर बैठे व्यक्ति के चेहरे पर मुस्कान लाना। भारत विकास संगम, कौटिल्य शोध संस्थान और राष्ट्रीय स्वाभिमान आंदोलन के जरिए 'विचारों की लौ’  जलाए हुए है जिससे नए भारत का निर्माण हो सके।

जब दुनिया व उसके लोग विविध प्रकार के सरहदों से घिरते जा रहे हो, ऐसे निर्मम समय में गोविंदाचार्य सरहदहीन नजर आते है। भाजपा के 'थिंक टैंक’  रहे गोविंदाचार्य देश की 'रोशन उंगली’ हैं। प्रकृति ऐसे ही 'रोशन उंगलियों’ वाले विराट मानवों को यदि और तैयार कर देती तो नित फैल रहे अंधेरे का रकबा निश्चित है घटता और देश वास्तविक अर्थों में प्रगति-खुशहाली और आनंद के मार्ग की ओर जाता।

देश महात्मा गाँधी के चंपारण सत्याग्रह का शताब्दी वर्ष का जश्न मना रहा है तो ऐसे वक्त में गोविंदाचार्य वहां की तस्वीर व तासीर को जानने के लिए गांव-गांव खाक छानते हुए इस निष्कर्ष पर पहुंचते है कि सौ साल पहले अंग्रेजों के समय में चंपारण जहां था, वहीं ठिठका है, ठहरा है, उदासी- वेबसी से लिपटा कराह रहा है। विचारक/प्रचारक/ लेखक/ कुशल संगठनकर्ता व प्रखर वक्ता गोविंदाचार्य फैजाबाद आए हुए थे। फैजाबाद से दिल्ली पहुंचते ही चंपारण सत्याग्रह शताब्दी  का सच दिखाने के लिए नरेश व सूरज के अप्रतिम बलिदान व आत्मदाह से उठे सुलगते सवाल और सीबीआई जांच की मांग को लेकर जंतर-मंतर पर धरने में शामिल हुए।

पेश है बातचीत का प्रमुख अंश

आपने चंपारण की यात्रा में पिछले सौ साल में कितना बदलाव महसूस किया?

गोविंदाचार्य : सरकारें चंपारण सत्याग्रह शताब्दी वर्ष का जश्न मना रही है लेकिन जश्न मनाने जैसा कोई भी बदलाव हमें देखने को नहीं मिला। कई दिनों तक घूमा, अध्ययन किया तो मुझे कई स्थानों पर ऐसा लगा कि काल सौ साल पहले ठहर गया है। खेती-किसानी की पद्धति बदल गई है। गोधन समाप्तप्राय है। खेती-किसानी की जो समृद्धि संस्कृति सौ साल पहले चंपारण में थी, उसमें छीजन आ गई है, समाप्ति की ओर है।


निलहे अंग्रेजों के मुकाबले आज तो अपनी सरकार है, फर्क है भी तो किस स्तर का?

गोविंदाचार्य : सौ साल पहले निलहे अंग्रेजों का बोलबाला था। मजदूर किसान पिस रहे थे। पिछले सौ वर्ष में ३० वर्ष गोरे अंग्रेजों का शासन था। अंग्रेजों के जाने के बाद सरकारें तो बदली है, मगर सरकारों का चरित्र नहीं बदला है। अंग्रेजों के समय की मांई-बांप संस्कृति आज भी है।


किसान, मजदूर व कामगारों की स्थितियों में पिछले एक शताब्दी में कितना सुधार आया है?

गोविंदाचार्य : चीनी मिले बंद है या बंद हो रही है। मिलों से जुड़े किसान मजदूर आगे का रास्ता नहीं खोज पा रहे है। मोतीहारी चीनी मिल के दो मजदूर नेताओं ने आत्मदाह कर लिया, मर भी गए। फिर भी विडंबना यह है कि एक तरफ चंपारण सत्याग्रह शताब्दी वर्ष के उपलक्ष्य में सरकारों द्वारा जश्न मनाया जा रहा है और उन्हीं दिनों चीनी मिल के दो मजदूर नेताओं नरेश श्रीवास्तव व सूरज बैठा ने आत्मदाह कर लिया। आत्मदाह के घटना की मीमांसा के साथ ही सीबीआई से आत्मदाह के कारणों की जांच जरूरी।

आत्मदाह करने की जानकारी क्या शासन-प्रशासन को नहीं थी?

गोविंदाचार्य : शासन-प्रशासन का श्रमिकों और अन्नदाताओं से संवेदनहीनता चरम पर थी। मिल मजदूरों से मिलने पर एक स्थानीय निवासी ने बताया कि आत्मदाह के दिन भी थाने को खबर दी गई थी। जिम्मेदार लोग आत्मदाह को बस बनरघुड़की समझ रहे थे। मगर इस बार ऐसा न था। आत्मदाह ने एक बार फिर नेता, अफसर और थैलीशाह के अघोषित सांठ-गांठ को उजागर कर दिया।

आत्मदाह करने वाले मजदूर नेताओं के घर की माली हालत कैसी दिखी?

गोविंदाचार्य : उन दोनों मजदूर नेताओं का घर देखने के बाद लगा कि ये नेता थोड़ा दूसरे तेवर के थे, बिकाऊ नहीं थे। सूरज बैठा का घर छपरैल का है। दूसरे नेता नरेश श्रीवास्तव के घर के छत के आधे हिस्से में खपरैल नहंी है। नरेश की माता की कमर की हड्डी टूटने के कारण बिस्तर पर थी।

महात्मा गांधी के नाम पर सरकारें बड़ा-बड़ा आयोजन की, वहीं दूसरी ओर ऐसी स्याह तस्वीर। क्या गांधी के साथ यह छल नहीं है?

गोविंदाचार्य : महात्मा गांधी के नाम पर दलों के लोगों के बीच अस्वस्थ भौंड़ी प्रतियोगिता हो रही थी। सत्तारूढ़ और विपक्षी दोनों दलों के अपने- अपने गांधी थे। सच्चे व वास्तविक गांधी इस भौंडी प्रतियोगिता में कहीं खो से गए।

ऐसा वहां क्या होना चाहिए जिससे कि मजदूर, किसान की हालत में सुधार आए और महात्मा गांधी के सपने साकार हो सके?

गोविंदाचार्य : चंपारण क्षेत्र का रिसोर्स एटलस बनाना है। बुनियादी शिक्षा को बेहतर बनाना है। पदमश्री से विभूषित कृषि विशेषज्ञ सुभाष पालेकर के मार्गदर्शन में शून्य लागत खेती के प्रशिक्षण के लिए किसानों का शिविर लगे तो वहां की स्थिति में बदलाव आएगा। सत्याग्रह शताब्दी वर्ष में सामाजिक कार्यकर्ता अपनी क्षमता के अनुसार चंपारण में जिले में समय और शक्ति लगाए, यह वक्त की मांग है। मैं भी महीने में एक बार चंपारण क्षेत्र में जाने की कोशिश करूंगा।


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नाम कब तक रहेगा...वह तो ही खो जाना है — विनोद खन्‍ना #VinodKhanna


बंबई में मैं निरंतर लोगों के बीच घिरा रहता था। यहां ओशो ने मुझे अपने निजी उद्यान में बागवानी करने के लिए कहा। बाग़ क्या बिलकुल जंगल था। वहां आप कोई पेड़ नहीं काट सकते। न पत्‍ते तोड़ सकते। ग्रीन मुक्‍ता मेरी बॉस थी। वह मुझे कहां-कहां घुसकर पौधे लगाने के लिए भेजती थी। मेरी छह फुट की देह — मेरे हाथ पांव छिल जाते थे। कांटे चुभ जाते थे। खून निकल आता था। मिट्टी में सन जाता था। — विनोद खन्‍ना

विनोद खन्‍ना (स्‍वामी विनोद भारती) से मां अमृत साधना की बातचीत 

1994 के इस दुर्लभ इंटरव्यू में विनोद खन्ना आचार्य रजनीश 'ओशो' के दिनों को साझा करते हैं

विनोद खन्‍ना (स्‍वामी विनोद भारती) से मां अमृत साधना की बातचीत



मेरा आध्यात्मिक जीवन तब शुरू हुआ जब मैं उस मुकाम पर पहुंच गया था, जहां कोई चीज मेरे लिए मायना नहीं रखती थी। सब कुछ था मेरे पास : पैसा था, अच्‍छा परिवार था, शोहरत थी, इज्जत... जो भी इच्‍छाएं थीं सब पूरी हो चुकी थी। उस वक्‍़त मैंने यह सोचना शुरू कर दिया कि यह जो चेतना है जिसकी सभी गुरु चर्चा करते है। वह क्या है। तो मैं पुस्‍तकों की दुकानों में खोजा करता था। किसी पुस्‍तक में मुझे क्या मिलेगा....

वैसे तो में जब आठ साल का था तभी से में साधुओं के पास जाया करता था। किसी को हाथ दिखाता था , किसी के पास आंखें बंद करके, ध्यान में बैठ जाता था। फिर मेरी पढ़ाई शुरू हुई, कॉलेज गया तो मेरा यह हिस्‍सा पीछे की और चला गया। मेरे अंदर ख्‍वाहिश जाग उठी कि मैं अभिनेता बनूं। उस दिशा में मेरे कदम चल पड़े। जब मेरा कैरियर कामयाब हो गया तो बचपन की वो चीजें फिर वापस आई। मैं एक दुकान में गया और मैंने परमहंस योगानंद की वह मशहूर किताब खरीद ली: ऑटोबायोग्राफी ऑफ़ अ योगी — एक ही रात में पूरी पुस्तक पढ़ गया। योगानंदजी की फोटो देख कर मुझे लगा मैं इस आदमी को जानता हूं।
महेश भट्ट भी ओशो को सुनते बहुत थे...उनके साथ में पूना आया और ओशो की कुछ कैसेट खरीदे...उन प्रवचनों में मुझे उन सारे प्रश्‍नों के उत्‍तर मिल गए जो मेरे मन में चलते थे।
फिर मेरी ध्यान की खोज शुरू हुई। डेढ़-दो साल तक मैंने टी. एम. (Transcendental Meditation) किया। लेकिन उसमें एक जगह जाकर लगा, अब दिवाल आ गई। थोड़ी बहुत शांति आ जाती है लेकिन उसके बाद कुछ नहीं है। उस बीस मिनट के दौरान थोड़े रंग दिखाई देते थे। दृश्य तैरते थे लेकिन आगे क्या? इसे समझाने वाला कोई नहीं था। उन दिनों हमारे क्षेत्र के विजय आनंद ओशो से संन्‍यास ले चुके थे। महेश भट्ट भी ओशो को सुनते बहुत थे। ये दोनों मेरे अच्‍छे दोस्‍त थे। उनके साथ में पूना आया और ओशो की कुछ कैसेट खरीदे। आश्चर्य की बात, उन प्रवचनों में मुझे उन सारे प्रश्‍नों के उत्‍तर मिल गए जो मेरे मन में चलते थे।

इस वक्‍त आपकी उम्र क्या रही होगी? (जाने क्‍यों आत्‍मा की उड़ान को मैं समय की सीमाओं में बाध रही थी। विनोद जी न उन दिनों की याद को ताजा करते हुए कहा)

कोई पच्‍चीस-छब्‍बीस साल। दिसंबर 1974 की बात है। मैं ओशो के शब्‍दों को तो सुनता रहा लेकिन अस्‍तित्‍व चाहता था, यह संबंध सिर्फ दिमागी न रह जाये। उसने मुझे सीधे जिंदगी की जलती हुई सच्‍चाई का सामना करवा दिया: मौत। मेरे परिवार में छह-सात महीने में चार लोग एक के बाद एक मर गए। उनमें मेरी मां भी थी। मेरी एक बहुत अजीज बहन थी। मेरी जड़ें हिल गई। मैंने सोचा, एक दिन मैं भी मर जाऊँगा और मैं खुद के बारे में कुछ भी नहीं जानता हूं।

ओशो ने कहा तुम संन्‍यास ले लो। तुम तैयार हो। बस, मैंने संन्‍यास ले लिया।


दिसंबर 1975 में एकदम मैंने तय किया कि मुझे ओशो के पास जाना है। मैं दर्शन में गया। ओशो ने मेरे से पूछा: क्या तुम संन्‍यास के लिए तैयार हो? मैंने कहा: मुझे पता नहीं। लेकिन आपके प्रवचन मुझे बहुत अच्‍छे लगते है। ओशो ने कहा तुम संन्‍यास ले लो। तुम तैयार हो। बस, मैंने संन्‍यास ले लिया।

उन्‍होंने आपकी कोई पूछताछ नहीं की कौन हो, कहां से हो?

नहीं कुछ नहीं, विनोद ने कहा,यूं लगा कि मैं इन्‍हें अच्‍छी तरह जानता हूं। कई जन्‍मों से हमारी पहचान है। उन्‍हें देखकर मुझे लार्जर दैन लाइफ का अहसास हुआ। और मैं ठीक जगह आ गया हूं—अपने घर।

इतना बोल कर विनोद होम कमिंग की भाव दशा को पुन: याद कर उसमें खो गये। कमरे में सधन चुप्‍पी उतर आई। सद्गुरू की बातें करने बैठो तो और क्या होगा। जुबान लड़खडाएगी नही? बाहर पेड़ पर पक्षी बोल रहे थे, इस चुप्‍पी को पैना करने के लिए।
मैंने ध्यान का दामन नहीं छोड़ा। मेरे भीतर ध्यान की लौ भभक गई थी।
ओशो ने मुझे नाद ब्रह्म ध्यान करने के लिए कहा, विनोद जी स्‍मृतियों के खजानें को खोलते हुए बोले: अब मुझे लगता है कि शायद उस वक्‍त मैं बहुत सक्रिय था। मेरे अंदर शारीरिक ऊर्जा बहुत ज्यादा थी इस वजह से उन्‍होंने कहा होगा। “अब तुम बैठ जाओ।“ मजे की बात यह है कि मेरा मन इतना सक्रिय नहीं था। मुझे बीच-बीच में नि:शब्द अंतराल अनुभव होते थे। लेकिन मैं सोचता था कि यह अच्छा नहीं है। हमने जो सीखा हुआ है। कि एंप्‍टी माइंड इज़ डैविल्स वर्कशाप। वह मेरे दिमाग में घुसा था। इन निर्विचार अंतरालों से मैं घबरा जाता था। फिर जब ध्यान शुरू किया तब और भी डरावने अनुभव होते थे। शरीर में रासायनिक बदलाहट होने लगी। लेकिन मैंने ध्यान का दामन नहीं छोड़ा। मेरे भीतर ध्यान की लौ भभक गई थी।

वह वक्‍त ऐसा था कि मैं सुबह छह से रात बारह बजे तक काम करता था। शूटिंग पर जाने से पहले घर से ध्यान करके जाता था। रात को आने के बाद करता था और शूटिंग के बीच जब भी समय मिले, मेकअप रूम में जाकर ध्यान करने लगता। बस ओशो के प्रवचन सुनना और ध्यान करना। मेरे साथ कितने लोगों ने ओशो को सुना होगा इसका हिसाब नहीं है।

उन दिनों गेरूआ पहनना आग से खेलने जैसा था। ओशो का नाम आग्‍नेय हो गया था। इसलिए मैंने पूछा: आप संन्‍यास लेकर बंबई वापस गए होगें तो आपने गेरूऐ कपड़े पहनने शुरू कर दिये होंगे। लोगों पर इसका क्या असर हुआ।
मेरे आसपास एक बवंडर खड़ा हो गया। पत्‍नी बच्‍चे बिछुड़ गए। फिल्‍म जगत के लोग नाराज हो गये। यार-दोस्तों ने मुझे पागल करार दे दिया।
असर क्या होना था, मुझे सब लोग पागल समझने लगे थे। परिवार वालों को बहुत धक्‍का लगा। उस वक्‍त ओशो भी बहुत विवादास्पद थे। लेकिन एक बात मैं कहना चाहूंगा। फिल्‍म इंडस्‍ट्री ने कभी मुझे अस्‍वीकृत नहीं किया। वे मेरे से हमदर्दी रखते की इसे शॉक लगा है। इसने संन्‍यास क्‍यों लिया होगा। इस तरह की बातें सोचते थे।

धीरे-धीरे मैं फिल्‍म जगत से ऊब रहा था। और मुझे बड़ी कशिश होती थी कि मैं सब कुछ छोड़कर पूना आश्रम में रहूँ। लेकिन जब मैंने ओशो से पूछा तो उन्‍होंने कहा, अभी तुम तैयार नहीं हो। तुम समग्र होकर काम नहीं कर रहे हो। जब तक तुम किसी काम को समग्रता से नहीं करते तब तक उससे बाहर नहीं हो सकते। अतिक्रमण तभी होता है। जब तुम समग्र होते हो। उस वक्‍त उन्‍होंने मुझे एक कहानी भी सुनाई थी, विनोद जी ने सहज ही उस प्रसंग पर संजीवनी छिड़कते हुए कहा।

कौन सी कहानी थी, याद है कुछ? ओशो की कही हुई कहानियां तो हम सभी जानते है लेकिन किसी शिष्‍य को विशिष्‍ट संदर्भ में कही हुई कहानी उसके लिए पथ प्रदर्शक बन जाती है। मानों कहानी न हुई, जीवन के रहस्य की कुंजी।

वो कहानी एक ज़ेन गुरु की... एक चोर भागता हुआ निकल जाता है। वहां पर एक ज़ेन गुरु ध्यान में बैठा हुआ था। पुलिस आकर इस गुरु को ही चोर समझकर पकड़ ले जाती है। और जेल में बंद कर देती है। गुरु कहता है, जैसी उसकी मर्जी वह यह भी नहीं कहता कि मैंने चोरी नहीं की यह सोचता है उसमें अस्‍तित्‍व का कोई राज है। अब जेल में भी गुरु ध्यान में लीन रहने लगा। उसके कारण और कैदी भी ध्यान करने लगे। 3-4 साल बाद असली चोर पकड़ा गया। पुलिस ने ज़ेन गुरु को छोड़ दिया; कहने लगे, हमें माफ कर दें। गुरु ने कहा, नहीं, अभी मुझे मत छोड़ो। मेरा काम पूरा नहीं हुआ है।

मेरी कई ग्रंथियां खुल गई और मेरी उर्जा मस्‍ती से बहने लगी। मैं संसार में पूरी तरह से था पर संसारी नहीं था


यह कहानी सुना कर ओशो ने कहां हम सभी जेल में है। कोठरी में है। हम एक सी सात बाई सात की कोठरी है। चाहे वह जेल के अंदर हो चाहे बाहर हो। जब तक हम समग्रता से अपना काम नहीं करते तब तक कोठरी से बाहर नहीं आ सकते।

यह कहानी मेरे भीतर गहरे प्रवेश कर गई। मैं अपने को और दूसरों को भी कोठरी में बंधा देखने लगा। मुझे यह भी दिखाई दिया कि मैं अभिनय में सब कुछ दांव पर नहीं लगता। मेरी रेसिस्टेंस हुआ करती थी फिल्‍मी गीतों के प्रति। मुझे भीतर से लगता था, क्या बकवास है। तो पूरी तरह से उनमें उतर नहीं सका। मेरे किरदार हों, मेरी फिल्‍मों की कहानी हो, डाइरक्शन हो, हर चीज में मेरी नापसंदगी बनी रहती थी।

अब मुझे पहली बार लगा कि हर आदमी की अपनी स्‍पेस होती है। और मेरी तरह वह भी उससे बंधा हुआ है। इसलिए मुझे हर व्‍यक्‍ति का सम्मान करना चाहिए। बस इतना सा फर्क करते ही काम में मुझे इतना मज़ा आने लगा कि क्या बताऊँ। जैसे ही मैं काम से टोटल हुआ, मुझे बहुत आनंद आने लगा। हर एक के प्रति स्वीकार भाव आ गया। मेरे आनंद का असर लोगों पर भी होने लगा।

फिर मैंने ओशो को यह अनुभव बताया। तो उन्‍होंने कहा, अब तुम ग्रुप्‍स करो। उससे मुझे बहुत फायदा हुआ। मेरी कई ग्रंथियां खुल गई और मेरी उर्जा मस्‍ती से बहने लगी। मैं संसार में पूरी तरह से था पर संसारी नहीं था।

यदि आपने संसार और संन्‍यास के बीच मध्यम निकाय खोज लिया था तो आप सब कुछ छोड़ कर आश्रम में क्‍यों आ गए?  एक बात माननी पड़ेगी कि कुछ भी हो जाए आप विनोद भारती को डावा डोल नहीं कर सकते। कोई भी प्रश्न पूछे... उनका तराजू स्‍थिर परिपक्‍व सम हो गया था, वह समाधान की गहरी खाईयों में उतर गए था। शायद समाधि की सुगंध उनके नथनों के करीब हो।

उन्‍होंने बिना झुंझलाए जवाब दिया। आश्रम में ओशो के पास रहने की मेरी गहरी तमन्ना थी। यह तो ओशो ने मुझे आजमाने के लिए संसार में भेज दिया था। फिर एक दिन अचानक ओशो ने कहा: अब तुम आश्रम में रहने आ जाओ। मैं दूसरे ही दिन बंबई गया, जोरदार प्रेस कांफ्रेंस ली और अपना संन्‍यास घोषित कर दिया। उस वक्‍त मेरा कैरियर शिखर पर था। कई निर्माता मेरी फिल्‍मों में पैसा लगा चुके थे। मेरे परिवार मेरे दोस्‍त, सब के लिए यह बहुत बड़ी दुर्घटना थी। मेरे आसपास एक बवंडर खड़ा हो गया। पत्‍नी बच्‍चे बिछुड़ गए। फिल्‍म जगत के लोग नाराज हो गये। यार-दोस्तों ने मुझे पागल करार दे दिया। जो समय नाम और पैसा कमाने का था उस समय मैं सब छोड़ रहा था। शायद ओशो को दुनिया में नहीं तो कम से कम भारत में सबसे ज्यादा बदनाम मैंने किया। ये कालिख तो मैंने अपने गुरु पर लगा ही दी और मैं जानता था वो मुझे क्या दे रहे है और बदले में गुरु को मैं क्या दे रहा हूं। मुझे पैसे का, नाम का, परिवार का इतना बुरा नहीं लगा ये तो छूटना ही है। नाम कब तक रहेगा। वह तो ही खो जाना है। पर ओशो को जो मैंने दिया... इतना कह विनोद गहरे में कहीं खो गये। वह भाव विभोर हो गये। शब्‍द कुछ देर के लिए मौन हो गये। उनका गला भर आया। कुछ देर केवल गुरु और निशब्‍द नीरवता छाई रही।

यदि यह सच है तो पत्रकारों ने आपके खिलाफ इतना तूफान क्यों उठाया कि आपने कितनों के पैसे डुबो दिए, निर्माताओं को मझधार में छोड़ दिया।


आपको पत्‍नी, बच्‍चों को लेकर कोई अपराध भाव नहीं हुआ?

नहीं, विनोद जी ने आत्मविश्वास से कहा, एक तो मैं कोई गलत काम नहीं कर रहा था। गुरु के पास ही जा रहा था। दूसरी बात मैंने उनको साथ लेने की बहुत कोशिश की लेकिन उनकी ओशो में कोई रुचि नहीं थी। तो बात स्पष्ट हो गई कि अब हमारे रास्ते अलग थे। रहा निर्माताओं का सवाल,तो मैंने जो वादे किए थे। सारे पूरे किए, मैं शूटिंग के लिए पूना से बंबई जाया करता था।

मैंने 1978 में संन्यास की घोषणा की थी लेकिन मैं 1981 तक पुरानी फिल्में खत्म करने के लिए पूना से बंबई जाया करता था। सिर्फ दो फिल्में अधूरी थी। वे पूरी नहीं कर सके। फिर ओशो ने कहा, तुमने उन्हें काफी समय दिया है। अब तुम्हारी कोई जिम्मेदारी नहीं है।

यदि यह सच है तो पत्रकारों ने आपके खिलाफ इतना तूफान क्यों उठाया कि आपने कितनों के पैसे डुबो दिए, निर्माताओं को मझधार में छोड़ दिया।

विनोद को असंतुलित करना असंभव है। उन्होंने इस स्वर में कहा जैसे बुजुर्ग बच्चे के बारे में कहते हे। फिल्मी पत्रकारों की कौन कहे? उन्हें मिर्च मसाला चाहिए बस। मेरे जीवन की घटनाएं ही ऐसी थी कि उन्हें उछालने का खूब मौका मिला। संन्यास इतनी निजी और आंतरिक घटना है, इसे बाहर से कैसे समझा जा सकता है।


अच्‍छा अब आपकी आश्रम की दिनचर्या के बारे में कुछ बताएंगे?

आश्रम में मेरा जो जीवन था वह पुराने ढाँचे से हर तरह से उलटा था। बंबई में मैं निरंतर लोगों के बीच घिरा रहता था। यहां ओशो ने मुझे अपने निजी उद्यान में बागवानी करने के लिए कहा। बाग़ क्या बिलकुल जंगल था। वहां आप कोई पेड़ नहीं काट सकते। न पत्‍ते तोड़ सकते। ग्रीन मुक्‍ता मेरी बॉस थी। वह मुझे कहां-कहां घुसकर पौधे लगाने के लिए भेजती थी। मेरी छह फुट की देह — मेरे हाथ पांव छिल जाते थे। कांटे चुभ जाते थे। खून निकल आता था। मिट्टी में सन जाता था। पर ये काम था अनूठा और ह्रदय गामी। मेरे अहंकार की जड़ों तक को खोद गया। वरना तो यह बीज घास की तरह है। बरिश हुई नहीं की सूखा रेगिस्तान सा दिखने वाला स्‍थान भी पल में हरा हो जाता है। शायद यही मेरे दोस्‍त विजय आनंद और महेश के साथ हुआ काश वो बोधिकता से आगे जा ध्यान का समर्पण का रस स्‍वाद ले लेते। फिर आप मेरा कमरा देखिये वह मेरे नाप का ही थी। पूरा पैर फैला ही नहीं सकता था। मुझे पब्‍लिक टायलेट में जाना पड़ता था। यहीं नहीं मुझसे यह भी कहा गया था कि इस कमरे में दो लोगों की मृत्यु हो चुकी है। मेरे भीतर मौत का गहरा डर जो था। विनोद ने हंस कर कहां। वहीं खिलते-बिखरते हुए फूल सी हंसी जो हम पर्दे पर देखते है।

ओशो का संन्यास उलटे संसार को और मजबूती से झेल सकता है। आश्रम के बाहर जाना-आना मेरे लिए कोई मुश्किल नहीं था


यह तो आपके अहंकार पर सब तरफ से सीधी चोट थी। उससे आपके अंदर क्रोध नहीं उठता होगा? 

मुझे बहुत मजा आ रहा था, विनोद ने उस स्थिति का जायका लेते हुए कहा। ‘मैं इतना मस्‍ती में था कि मुझे ओशो के पास रहने का मौका मिल रहा है। मेरे मन की सारी उथल पुथल शांत हो गई थी। शायद इस फकीरी की ही मुझे तलाश थी। मैं खूब काम करता था ओर खूब ध्यान करता था। समाधि टैंक मुझे बहुत अच्‍छा लगता था। उसमें मां के गर्भ जैसी स्थिति बनाई जाती है। वहां पर मुझे अपने जन्म का अनुभव भी हुआ।

आश्रम के इतने गहरे अनुभवों के बाद शूटिंग के लिए बंबई जाना भारी नहीं पड़ता था?

नहीं। ओशो ने आश्रम का माहौल कुछ ऐसा बना रखा है कि यहां भरा पूरा संसार है। यह कोई उदास और शांत संन्‍यास नहीं है। यहां तो हर वक्‍त चहल-पहल और कुछ न कुछ उपद्रव होता ही रहता है। और कुछ नहीं हुआ तो वे ही कोई चक्‍कर चला देंगे, है न? तो मैं समझता हूं, ओशो का संन्यास उलटे संसार को और मजबूती से झेल सकता है। आश्रम के बाहर जाना-आना मेरे लिए कोई मुश्किल नहीं था।

विनोद ने ओशो के संन्‍यास का अनुभव का अनूठापन इत्र की तरह निचोड़ कर रख दिया। बात सच है, ओशो के बुद्ध क्षेत्र की आंधी में जो जी लिया उसने भँवर में साहिल को पा लिया।

रजनीशपुरम में आप रहे थे। उस अनुभव के बारे में आप क्या कहेंगे।

रजनीशपुरम ओशो का बहुत बड़ा प्रयोग था। मनुष्‍य चेतना को विकसित करने की खातिर। वहां भी मुझे ओशो के बग़ीचे में ही काम दिया गया था। इतना काम करना पड़ता था कि बयान करना मुश्‍किल है। पूरा शहर बसाना था। ओशो के बग़ीचे में मोर थे, उनका सब कुछ मैं करता था। सफाई, पेड़-पौधे की देखभाल में मुझे बहुत मजा आता था। कभी ओशो मुझे अपने कमरे में बुलवा लेते थे। वो चाहते थे कि मैं बाकी अभिनेताओं को वहां बुलाऊँ। और यहां क्या हो रहा है और क्या मिल रहा है। उन्‍हें दिखाओं।

खैर, रैंच के आखिरी साल माहौल बदल गया। वहां हर व्‍यक्‍ति पर इतना गहरा काम हो रहा था। कि जिसके भीतर जो दबा पडा था वह उभर कर बहार आ रहा था। मेरा देखना यह है कि सद्गुरु के पास रहना हो तो अटूट भरोसा चाहिए। और विरोधाभास यह है कि तुम्हारा भरोसा जैसे-जैसे बढ़ता है तुम्‍हारी चेतना की गहरी पर्तें उघड़ने लगती है। वहीं मेरे साथ हुआ। रजनीशपुरम बिखरा उससे पहले मेरे अंदर बहुत से भय जाग गये थे। भय अपराध भाव।

विनोद जिस निर्मलता से अपना ह्रदय खोल रहे थे वह घटना दो संन्‍यासियों के बीच ही घट सकती है। हम सभी एक ही तरहा के हमसफर जो है। मन के अंधकार को उलीचने के लिए श्रद्धा की आधारशिला अति आवश्यक है।

यह अपराध भाव किसी खास घटना को लेकर या एक सामान्‍य भाव की तरह था?

ऐसा कह सकते है ये भाव बादल की तरह मेरे दिल पर छाए रहते थे। जैसे कोई काली छाया आती थी वैसे वे अचानक मुझे घेर लेते थे। उस समय मैं बहुत असहाय हो जाता था। मैं घंटो रोता रहता था। एक तरफ मैं इसे साक्षी भाव से देखता भी था। लेकिन इस संवेग पर मेरा कोई नियंत्रण नहीं होता था। मैं मेरे ही मन के किसी अज्ञात लोक में प्रवेश कर गया था। वह क्या है, कहां से आता है। मुझे कुछ पता नहीं चल रहा था।

यदि आप इस गहराई में उतर गए थे तो फिर फिल्‍मों में वापस क्‍यों चले गए? 

विनोदजी के पास इसकी बहुत स्पष्टता नहीं थी। उन्‍होंने स्‍वयं को टटोलते हुए कहा, ‘ एक तो मैं इस स्‍थिति से पूरी तरह गुजरना चाहता था, बिलकुल अकेले। फिर मुझे बच्‍चों का ख्‍याल हुआ कि मेरा उनके प्रति कोई कर्तव्य है। मैंने फिल्‍मों में वापस जाने की सोची। स्‍वयं ओशो कर रहे थे। जब मनाली में ओशो से पूछने गया तो उन्‍होने कहा, तुम वापस उसी दुनिया में जा सकोगे? मैंने कहा: जा सकूंगा।

इधर मैं एक बात बता दूँ कि ओशो से मैं इस कदर जुड़ा हुआ था कि वे मेरे सर्वस्व थे। मेरी हालत बिलकुल छोटे बच्‍चे की थी। ओशो ने कहा, तुम पूना जाकर वहां का आश्रम संभाल लो। और एशिया का पूरा काम तुम देखो। मैंने कहा, मैं इसके लिए योग्‍य नहीं हूं। न तो मुझे राजनीति की समझ है न प्रशासन की। ओशो बोले, वह सब तुम सीख जाओगे। मैंने ओशो से कहा, मैं सोचकर आपको जवाब देता हूं। और मैं बंबई चला आया।

अब मन की इस विडंबना को क्या कहे? उसने गुरु को इनकार कर खुद के लिए और बड़ी खाई खोद ली। इस इनकार की कीमत विनोद को चुकानी पड़ी।

बंबई आने के बाद मेरी ग्लानि में एक बात और जुड़ गई, मैंने ओशो को मना क्‍यों किया। मुझे एक फिल्म मिल गई, मैं शूटिंग पर जाने लगा। वहाँ अजीब घटना घटती। जब तक मैं कैमरे के सामने होता, मैं बिलकुल अच्‍छी हालत में होता। जैसे ही मेकअप रूम में जाता रोना फूट पड़ता। मेरा अचेतन मेरे ऊपर हावी हो जाता। एक तरफ मैं केंद्र पर स्‍थित होता था सारा तूफान चलता रहता था। किसी भी वक्‍त किसी भी जगह मेरा रोना फूट पड़ता था। दिमाग भंयकर उलझन में था लेकिन दिल में भरोसा था कि मैंने ठीक किया है। उसी दौरान पत्रकारों ने सारी अफवाहें फैलाई कि मैंने ओशो को छोड़ दिया, मैं विक्षिप्त हो गया। संन्‍यासी भी कहने लगे कि मैं नाटक कर रहा हूं। आखिर अभिनेता जो हूं। ओशो के पास रहना भी मेरा नाटक था, यह भी नाटक है। जब संन्‍यासी मेरे पर छींटाकशी करने लगे तो पहले तो मुझे बड़ी चोट लगी लेकिन फिर मैंने सोचा कि इन्‍होंने इस तल का अनुभव नहीं किया होगा। तो वे कैसे समझेंगे? कुछ लोग मुझे मनोचिकित्सक के पास जाने की सलाह देने लगे। लेकिन जिस के अंदर ओशो बसे हुए है वह किसी वैद्य के पास क्‍यों जाये? हर पल ओशो मेरे साथ थे। मेरे भीतर उनसे बिछुड़ने का कोई भाव ही नहीं था। इसीलिए बाहर से मैं उनसे दूर रह सका।

आदमी के अचेतन कक्ष में जन्‍मों-जन्‍मों का भंडार है। आमतौर से लोग इस बीहड़ में प्रवेश नहीं करते। यह तो किसी दिलेर का ही काम है। इस अज्ञात लोक से गुजरने के बाद विनोद के ध्यान की जड़ें इतनी मजबूती से जम चुकी है कि उनके पास बैठकर मुझे लग रहा था किसी विशाल दरख़्त के साये में बैठी हूं। जिसके सारे नकाब उतर चुके हो ऐसा कोई गुमनाम चेहरा — जो सिर्फ “है”। जैसे झरना है, पहाड़ है, आकाश है। बस होना मात्र और कुछ नहीं। आदमी को पूर्ण और प्रगाढ़ और सरल और सहज बना देता है।


विनोद जी के साथ मैं भी उस गुफा में हो आई थी। खुली हवा में सांस लेकर मैंने पूछा: फिर इस स्‍थिति से आप बाहर कैसे आए ?

उन्‍होंने चुटकी बजाकर कहा: बस यूं ही। एक सुबह वह सारा गायब हो गया। उसके बाद फिर कोई भाव आवेग लौटकर नहीं आया। फिर तो मन के अंदर एक सन्‍नाटा छा गया जैसे प्रकृति में भयंकर आंधी तूफान के बाद होता है। सब कुछ धुल गया। बादल बरसे, बिजली चमकी, बड़े-बड़े पेड़ उखड गये, और दूसरे ही क्षण ऐसी धुली हुई खामोशी जैसे कुछ हुआ ही नहीं हो। उस खामोशी में बहुत उर्जा पैदा हुई, वह घड़ी ऐसी थी की मैं एकदम सड़क पर आ गया था। न परिवार, न संग, न दोस्‍तों का साथ। आश्रम और संन्‍यासियों से भी मैं टूट चुका था। बिलकुल अकेला। लेकिन अंदर कोई अडिग केंद्र था जहां ओशो का सहारा था और था गहन मौन।

उसके बाद मेरी पहली फिल्‍म प्रदर्शित हुई। इंसाफ। यह फिल्‍म सुपरहिट हुई। मेरे दर्शक अभी तक मेरा इंतजार कर रहे थे। मुझे भूले नहीं थे। फिर तो एक के बाद एक फिल्‍म मिलीं और डेढ़ साल में मैंने नया घर खरीदा जो कि पहले घर से ज्यादा शानदार था। मेरा जितना लुट गया था उससे दस गुणा लौटकर आया। यह ओशो का कायदा है। और जब जो मेरे दोस्‍त है उनमें से नब्‍बे प्रतिशत लोग। ओशो के प्रवचनों में ध्यान विधियों में उत्‍सुक हो गए है। मेरे भीतर जो बदलाहट हुई है उससे उन्‍हें लगता है कि ओशो की बातों में कुछ दम है।


जिस दिन ओशो ने शरीर छोड़ा उस दिन आप कहां थे? यह आघात आपने कैसे झेला?

उस शाम को मैं घर पर ही था। मुझे ओशो की बड़ी याद आ रही थी। सो मैंने उनकी एक किताब उठा ली और पढ़ने लगा। यह वे क्षण थे जब उन्‍होंने देह छोड़ी। मेरी बेचैनी कम नहीं हो रही थी इसलिए मैं कुछ देर के लिए बाहर गया। घर आया तो पूना से फोन आ चुका का। पहले तो मुझे बड़ा सदमा लगा, फिर मैं अपने कमरे में गया, ध्यान संगीत का टेप चलाया। बड़ी देर तक मैं नाचता रहा और रोता रहा। दोनों चीजें एक साथ हो रही थी।

जैसे ही उन यादों के गुलाब ताजा हुए, उन कांटों ने भी सर उठा लिया। बोलते-बोलते विनोद जी रूक गये। हमने कुछ पल आंसुओं के नाम चढ़ा दिये।

मैंने देखा, इस नए विनोद के ऊपर आंसुओं की बहुत अधिक पकड़ नहीं थी। कुछ ही क्षणों में वे प्रकृतिस्‍थ हो गए। उनकी भाव दशा की धूप-छांव को देखते हुए मैंने पूछा: इतने गहरे ध्यान से गुजरने के बाद अब आप अभिनय करते है तो उसमें कौन सा बुनियादी फर्क पाते है।

विनोद ने सहज मन से कहा: ‘अब मेरा साक्षी इतना प्रखर हो गया है कि मैं कुछ भी करू, मेरी सजगता खोती नहीं। अब अभिनय सिर्फ फिल्मों तक ही सीमित नहीं है। वह पूरे जीवन पर फैल गया है। मेरा जीवन ही मुझे पूरा का पूरा अभिनय जैसा ही लगता है। तो मैं कह सकता हूं की अभिनेता तो आसानी से ध्यान में उतर सकता है। वह इतनी बार रोल बदलता है, चेहरे बदलता है कि उसके लिए उसका ओरिजिनल फेस, मूल चेहरा खोजना कोई मुश्किल काम नहीं। थोड़ी ही समझ की जरूरत है।


ओशो भी कहते है कि फिल्‍म जगत के लोगों में  बहुत संभावना है और वे लोग मेरी बात को ज्‍यादा समझेंगे। क्या आप भी ऐसा मानते और महसूस करते है?

बिलकुल, विनोद जी ने बहुत दृढ़ता से कहा, मैं तो मानता हूं कि फिल्‍म जगत के कई लोग ध्‍यानी हैं ही। फर्क इतना है कि उन्‍हें यह बात पता नहीं है। कैमरे की पैनी आँख के सामने खड़े होना कोई खेल नहीं है। वह आदमी की आँख से बेहद शक्‍तिशाली है। आपकी छोटी से छोटी हरकत को बड़ी करके दिखा सकता है। कैमरे के सामने आपको बहुत होश-पूर्ण होना पड़ता है। उसी होश को ध्यान से जोड़ दो लोक बदल जायेगा।

फिर ओशो की स्‍मृति में भीगे हुए स्‍वर में विनोद बोले, देखो, होश ऐसा तत्‍व है जो हर किसी चीज की क्‍वालिटी बदल देता है। एक ही चोट जब गुरु करता है तो हम उसे डिवाइस कहते है, कोई साधारण आदमी करता है तो हम उसे बदला कहते है। तो होश से पूरी बात बदल जाती है। हमारे फिल्‍मी लोग बड़े प्‍योर हैं, संवेदनशील है, क्रिएटिव हैं, वे ध्यान में बड़ी जल्‍दी छलांग लगा सकते है।

यदि विनोद खन्‍ना जैसे और संन्‍यासी सितारे फिल्‍म जगत में पैदा हुए तो सुरा, सुंदरी और धन की चमक-दमक में चुँधियाती ये फिल्‍मी नगरी। आज उस विराट बुलंदियों और आर्दशों को छू रही होती जिससे सारा समाज, और आधुनिक मानव के आदर्श हीरो कुछ और नया कर रहे होते। और इस वैभव के बीच ध्यान की अपूर्व शांति उसे महान बना देती। उनकी अंदर और बहार का जीवन देखने जैसा होता।

विनोद जी को ओशो ने जो ज़ेन गुरु का उदाहरण दिया था। वह निष्‍प्रयोजन नहीं था। संन्‍यास और संसार के परिपक्व संतुलित समन्‍वय से बने हुए वर्तमान विनोद को देखकर मुझे लगा, कितनी आग से गुजर कर यह रसायन सिद्ध हुआ। सच विनोद ने जो किया कोई करोड़ो में एक कर सकता है। इतने नाम शौहरत को छोड़-छाड़ कर एक अज्ञात जीवन ही नहीं बदनामी और पीड़ा भी सहनी पड़ी। इस दुनिया में धन भी आसानी से छोड़ा जा सकता है। पर नाम और यश की जिस ऊँचाई से विनोद जी ने छलांग लगाई है। वह विरल है। आज उन्‍हें गहरी ध्यान की सुरम्‍य घाटियों का अनुभव भी आह्लादित किये रहता है। जितनी ऊँचाई उतनी ही गहराई। पेड़ जितना ऊपर जायेगा। जड़ें उतनी गहरी तो होनी ही चाहिए। इसे कोई विरला ही बुझ सकता है।

विनोद खन्‍ना (स्‍वामी विनोद भारती) से मां अमृत साधना की बातचीत. 
ओशो टाइम्‍स इंटरनेशनल ,अप्रैल, 1994 में प्रकाशित.


(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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शरीर के अंदर वह क्या है जो खुद को 'मैं' कहता है? : मूजी



हमारा दुश्मन यह दुनिया नहीं, बल्कि हमारा अपना मन है।

न मन मारें, न मन सुधारें: मूजी


एक ही समय में हम बहुत-कुछ कर रहे हैं - पूजा से लेकर परपंच तक...साहित्य से लेकर क्रिकेट मैच तक...दूसरों को और कुछ दें न दें ज्ञान हम ज़रूर दे रहे हैं. नाराज़ न होइए, दरअसल एक निवेदन है आपसे - सन्डे नवभारत टाइम्स के संपादक राजेश मित्तल द्वारा लिए गए इस इंटरव्यू को पढ़ने का... निवेदन है अस्वीकार न कीजिये।

भरत तिवारी

Rajesh Mittal's Interview of Spiritual Saint Mooji


मूजी जाने-माने आध्यात्मिक गुरु हैं। मूल रूप से जमैका (वेस्ट इंडीज) से हैं। भारतीय दर्शन अद्वैत की शिक्षा देते हैं। अद्वैत यानी ब्रह्म और जीव दो नहीं, एक हैं। मूजी रमण महर्षि के शिष्य हरिलाल पूंजा (पापा जी) के शिष्य हैं। 63 साल के मूजी का असल नाम ऐंथनी पॉल मू-यंग है। मू नाम के साथ सम्मान से जी लगाने के कारण मूजी नाम पड़ गया। कई साल लंदन में रहे। आजकल पुर्तगाल में अपने आश्रम में रह रहे हैं। वह दुनिया भर के देशों में घूम-घूमकर सत्संग करते हैं। भारत में भी कई बरसों से सत्संग कर रहे हैं। इन दिनों ऋषिकेश में हैं। राजेश मित्तल ने उनसे अध्यात्म के विभिन्न पहलुओं पर लंबी बातचीत की। पेश हैं इस बातचीत के खास हिस्सेः


भारत में बहुत सारे लोग आपसे वाकिफ नहीं हैं। क्या आप सिर्फ 5 पॉइंट में अपनी शिक्षाओं का सार दे सकते हैं?


  1. साधना चाहे किसी धर्म विशेष में रहकर की जाए या किसी आध्यात्मिक गुरु के पास जाकर, आत्म साक्षात्कार या आत्मज्ञान बाहर कहीं नहीं, इंसान के भीतर ही होता है। यह अद्वैत दर्शन है। साधना का सबसे सीधा और आसान रास्ता।

  2. आत्मज्ञान में कुछ पाना नहीं है। कुछ करने की भी जरूरत नहीं। कुछ भी बदलना नहीं है। आप पहले से ही परफेक्ट में हो - बस इस सचाई को समझने की और उसकी अनुभूति करने की जरूरत है

  3. खोज इस बात की करो कि मैं कौन हूं। यह रास्ता खुद की खोज का है। जो हम सोचते हैं, हम वह हैं नहीं। खोज करो कि असल में हम कौन हैं। हमने अपनी पहचान शरीर और मन के साथ जोड़ रखी है - यह गलत है। असल में हम समंदर हैं लेकिन हमने खुद को लहरों के साथ जोड़ लिया है।

  4. हमें अपनी कंडिशनिंग से, अपने संस्कारों से खुद को खाली करना है।

  5. रोज कुछ देर के लिए ध्यान में बैठें। मन में कुछ भी उमड़े, उसे पकड़ना नहीं। उसमें उलझना नहीं। अब इस खालीपन को महसूस करें। जब हम खाली हो जाते हैं तो हमारे अंदर कोई दूसरी ही ताकत काम करती है।


आपने अभी कहा कि असल बात भीतर खोज करना है। इसे कैसे किया जाए?

सबसे अच्छा तो यही रहेगा कि किसी ऐसी गुरु की खोज की जाए जो आत्म साक्षात्कार कर चुका हो, जो शरीर और मन से जुड़ाव की वजह से पैदा हुए भ्रम को दूर कर चुका हो।


लेकिन अगर गुरु होगा तो शोषण के भी आसार होंगे। क्या गुरु के बिना काम नहीं चल सकता?

मेरा मानना है कि अगर कोई शख्स अध्यात्म के रास्ते पर किसी गुरु की मदद के बिना चलता है, चाहे बेहतरीन किताबों का सहारा ले, उसका कामयाब होना बेहद मुश्किल है। असल में हमारा दिमाग बेहद शातिर है। उसकी चालाकियों से निबटने के लिए गुरु का होना जरूरी है। ऐसा गुरु जो मन की बदमाशियों से वाकिफ है और उसी हिसाब से वह साधक को रास्ता दिखाता है। वह देख सकता है कि साधक अटक या भटक गया है और साधक नहीं जानता कि वह अटका हुआ है। गुरु उसे बताता है और उसकी मदद करता है। अगर मैं कहता हूं कि गुरु की जरूरत नहीं तो मन को तो अच्छा लगेगा, लेकिन साधक का नुकसान हो सकता है। सही गुरु की मदद से एक दिन या एक सेशन में भी आत्मज्ञान संभव है।



आपने कहा कि गुरु अनिवार्य है लेकिन सही गुरु कैसे पहचानें? इन दिनों बहुत सारे लोग गुरु होने का दावा करते हैं और दावे बड़े बड़े करते हैं।

सही-गलत गुरु का मिलना आपकी समझ पर निर्भर करता है। जैसी आपकी समझ होगी, आपको वैसा ही गुरु मिलेगा। हो सकता है कि आपको गुरु गलत मिल जाए लेकिन एक मायने में अच्छा ही है क्योंकि उसके जरिए आपको अपने खोखलेपन का एहसास होगा। बहुत सारे लोग आते हैं और कहते हैं कि मुझे बेहतरीन पत्नी या बेहतरीन पति मिलना चाहिए था लेकिन मेरा कहना है कि आपका खुद का लेवल वैसा नहीं है कि आपको बेहतरीन मिले। आपको जो तथाकथित गलत जीवनसाथी मिला है, आप उसी के लायक हो। आप खुद तो अपने भीतर बड़ी-बड़ी कमियों को लेकर फिर रहे हो और जीवनसाथी आप दुनिया भर में बेहतरीन चाहते हो। आपको लगता है कि आप उसके लायक हो लेकिन आपमें जो बुरी आदतें हैं, उनके चलते वैसा जीवनसाथी आपके साथ ज्यादा देर तक टिक नहीं सकता, बल्कि वैसा जीवनसाथी आपके पास फटकेगा तक नहीं। जिंदगी में आप वही पाते हो, जैसी आपकी वाइब्रेशंस हैं, जैसे आप भीतर से हैं। बाहरी मन की पकड़ से परे ताकतें तय करती है कि जिंदगी में किस-किससे हम मिलेंगे, वे हम पर क्या असर डालेंगे। जिंदगी हमें वही देती है जिसे सीखने की हमें जरूरत होती है और कभी-कभी यह सीखना दुख के जरिए होता है। तो सही गुरु खोजने के बजाय ज्यादा वक्त और ताकत हम अपने भीतर की सफाई में लगाएं।


लेकिन ऐसे भी लोग हैं जो ताउम्र गलत गुरु के जाल में फंसे रह जाते हैं?

ऐसे लोग खुद गलत होंगे। आजकल बनावटी साधक भी बड़ी तादाद में दिखते हैं। उन्हें गुरु की खोज तो होती है लेकिन गलत वजहों से। उन्हें आत्मज्ञान नहीं, कुछ और ही चाहिए होता है। उन्हें ऐसे गुरु की तलाश होती है जो अपने आशीर्वाद या चमत्कार या संपर्कों से दौलत, शोहरत या ओहदा दिला दे। ऐसे लोगों को इसी के मुताबिक गुरु मिल भी जाते हैं। यह कुदरत बड़ी समझदार है। यहां गलती नहीं होती। सच्चे गुरु की पहचान के मापदंड देना बेहद मुश्किल है लेकिन मैं आपको एक नुक्ता देता हूं। अगर आप किसी गुरु से मिलो और उसकी मौजूदगी में मन अपने आप शांत हो जाए, मन में उसके लिए इज्जत उमड़े तो वह सही गुरु है। हो सकता है, जो वह कह रहा हो, वो आपके ऊपर से निकल रहा हो, पर आपको भीतर से कुछ अच्छा महसूस हो। आपका मन करे कि उसके साथ मैं ज्यादा वक्त गुजारूं। यह भी बहुत संभव है कि आप सही गुरु से मिलें और उसकी मौजूदगी में अच्छा महसूस ना करें। वह आपके अहंकार को चोट पहुंचाए और आपका वहां से भाग जाने का मन करें लेकिन भीतर कुछ ऐसा है जो आपको वहीं रहने के लिए कहे। ऐसा गुरु आपके लिए सही है। अगर आप गलत कारणों से गुरु की खोज नहीं कर रहे तो आपको सही गुरु देर-सवेर मिल ही जाएगा।


आपने गुरु चुनने के बारे में बताया, आप शिष्य कैसे चुनते हैं?

मैं लोगों को नहीं, लोग मुझे चुनते हैं। मैं उन्हें सीधे नहीं चुनता। मेरे सत्संग में सिर्फ वही लोग आते हैं, जो मुझसे तादात्म्य महसूस करते हैं, जो मेरे शब्दों को यूट्यूब के जरिए महसूस कर चुके होते हैं। मैं इस मामले में खुशकिस्मत हूं कि यूट्यूब सत्संगों की मदद से छंटाई हो जाती है। नहीं तो मेरे पास ऐसे लोगों की भारी तादाद हो जाती जो गुरु से करोड़पति, अरबपति होने का आशीर्वाद चाहते हैं। तब उनको ऐसे यहां आने के बाद एहसास होता कि यह गुरु सही नहीं है। किसी और के पास चलते हैं। यह तो खुद को खाली करने की बात कर रहा है, आत्मज्ञान पर जोर दे रहा है।



आत्मज्ञान की घटना क्या अचानक घटती है, कोई फ्लैश आता है या धीरे-धीरे इस स्टेज पर पहुंचा जाता है?
आत्मज्ञान तो अचानक ही होता है और फ्लैश की तरह होता है। शर्त यही है कि ऐसी स्थिति की अनुभूति के लिए आपकी तैयारी भरपूर हो।

क्या यह मुमकिन है कि एक बार आत्म साक्षात्कार पा लेने के बाद इंसान फिर से पुरानी स्थिति में लौट आए, उस दर्जे को खो बैठे?

इंसान की फितरत पुराने अभ्यास के कारण ऐसी हो गई है कि वह शरीर और मन से अपनी पहचान गांठता है। उदाहरण के लिए आपका नाम राजेश है। एक बार आप राजेश नाम रख लो तो इसे भूल कर कोई दूसरा नाम धारण कर लेना बेहद मुश्किल हो जाता है। एक दूसरी मिसाल। मान लो, किसी देश में करंसी यूरो से बदलकर पौंड कर दी जाए। ऐसे में पुराने सिस्टम से नए में जाने में कुछ वक्त लगता है। कुछ दिनों तक आप दोनों तरह से सोचते हैं - पौंड के हिसाब से भी और यूरो के हिसाब से भी। नई करंसी की आदत डलने में कुछ वक्त लगता है। इस दौरान मन पुराने तरीके से ही बार-बार सोचता है लेकिन एक बार जब आप अज्ञान की बीमारी से पूरी तरह मुक्त हो जाते हो, एक बार जब आप सच्चे तौर पर जाग जाते हो तो आपका काम मुकम्मल हो जाता है। यह तकरीबन ऐसा है कि कोई मर गया और फिर उसका नया जन्म हो गया। तब वापस जाना मुमकिन नहीं होता। शुरू-शुरू में ऐसा होता है, ऐसा होना लाजमी है। धीरे-धीरे जागृत चेतना मजबूत होती जाती है और अज्ञान मिटता चला जाता है।

लेकिन रोजमर्रा की जिंदगी में मैं कैसे भूल सकता हूं कि मैं राजेश हूं जबकि रोजमर्रा की जिंदगी में मेरी यही तो पहचान है?

दरअसल बदलाव राजेश के स्तर पर नहीं, चेतना के गहरे स्तर पर होता है। वह जो जाग चुका है, उसके रोजमर्रा के कार्यकलाप बदस्तूर जारी रहते हैं। जरूरत सिर्फ मन के शिकंजे से मुक्त होने की है। हमारा दुश्मन यह दुनिया नहीं, बल्कि हमारा अपना मन है।


अगर मुझे पता ही नहीं है कि मैं अपने मन के कब्जे में हूं, मैं सोशल कंडिशनिंग का शिकार हूं, तो मैं उससे मुक्ति की कोशिश क्यों करूंगा?

यही तो इस सारे खेल की खूबसूरती है। इस खेल का यह नियम है कि अगर आप आत्मज्ञानी नहीं हो तो आप अक्सर दुख में रहोगे और यह दुख आपमें मन से मुक्ति की तड़प पैदा करेगा।

तो आध्यात्मिक तरक्की के लिए क्या दुख का होना अनिवार्य है?

चंद लोग ही लगातार दुख भोगे बिना आत्मज्ञानी बन पाते हैं। ज्यादातर लोगों के लिए दुख का होना अनिवार्य है।


वह शख्स जो आत्मज्ञान पा चुका है, शरीर-मन की पहचान में नहीं फंसा है, क्या वह भी गुस्से का शिकार होता है?

आत्मज्ञान होने के बाद भी हर किस्म की भावना मन में आती है लेकिन उससे कोई जुड़ाव नहीं होता। गुस्सा आता है और जल्द ही चला भी जाता है। उसकी कोई याद भीतर जमा भी नहीं होती।


कंडिशंड मन से मुक्ति पाना, मन को किसी भी तरह की कंडिशनिंग (संस्कारों) से मुक्त करना यानी मन को खाली करना कोई आसान काम नहीं है?

हां, यह मुश्किल है और इसमें काफी लंबा वक्त भी लग सकता है। तब, जब साधक अपनी खुद की इमेज और कंडिशनिंग से संघर्ष करता है। लेकिन यह सही रास्ता नहीं है। सबसे पहले तो हमें यह समझना होगा कि वह असल में है क्या, जो कंडिशंड (संस्कारित) होता है। सचाई यही है कि हमारा मन कंडिशंड होता है। इस बात को समझने की जरूरत है।

सार रूप में कहें तो हर इंसान विशुद्ध आत्मा है लेकिन ज्यादातर लोग खुद को एक इंसान के तौर पर देखते हैं। इंसान इस सीमित सोच के साथ पूरी जिंदगी बिता देता है कि मैं पुरुष हूं, 42 साल का हूं, हिंदू या मुस्लिम या ईसाई हूं, मैंने साइंस पढ़ी है। कोई भी उससे यह नहीं पूछता, भाई, तुम तो यह बता रहे हो कि तुमने क्या किया है, तुम क्या मानते हो लेकिन यह तो बताओ कि तुम असल में हो कौन। दरअसल रोजमर्रा की जिंदगी गुजारते हुए हमारे मन में ख्याल ही नहीं आता कि हम अपने भीतर गहरे उतरें, अपनी असल पहचान से रूबरू हों। ख्याल तब आता है जब दुख के हालात से हमारा सामना होता है। तब ऐसे आसार बनते हैं कि हम अपनी कंडिशनिंग से परे जाकर खुद के आत्म स्वरूप का कुछ एहसास कर सकें।


यह तो ठीक है कि दुख हमें हमारे असल स्वरूप की याद दिला देता है लेकिन रोजमर्रा की जिंदगी में इसे लगातार याद रखना मुश्किल लगता है। गाड़ी बार-बार पटरी से उतर जाती है।

सबसे पहले यह समझें कि यह जो हमारा मन है, कंडिशनिंग का शिकार होता है और इसी मन से हम अपनी पहचान गांठ लेते हैं
। मैं इस बात पर जोर नहीं डालता कि आपको जरूर कोशिश करके मन को बदलना है। मैं उस लेवल पर किसी के साथ काम करने पर यकीन नहीं करता, क्योंकि ऐसे में मैं एक ऐसी पहचान को मजबूत करूंगा जो सच नहीं है और आप देखेंगे कि यह सच नहीं है। मैं बस यह कहता हूं कि आप यह देखो कि मैं असल में कौन हूं? वह कौन है जिसकी कुछ आदतें हैं, कुछ मान्यताएं हैं, कुछ प्रवृत्तियां हैं? वह कौन है जो कंडिशनिंग का शिकार हुआ है? अब तक की जिंदगी के सफर में हमारी सोच पहले कुछ और थी, अब उससे बिलकुल अलग है। आदतें बदलीं, मान्यताएं बदलीं और हमें इस बदलाव का एहसास है। वह जो इन सब बदलावों के प्रति जागरूक है, क्या वह भी बदल रहा है? इस सवाल पर चिंतन किए जाने की जरूरत है और इसका जवाब खोजने की भी।

मैं शरीर नहीं हूं , मन भी नहीं। मैं आत्मा हूं। इस तरह के मंत्र का जाप कुछ लोग करते हैं। क्या इसका कुछ फायदा होता है?

आप क्यों कह रहे हो कि मैं शरीर नहीं हूं? इसलिए कि आपका विश्वास है कि आप शरीर हो। ऐसा कहना 'मैं शरीर नहीं हूं' भी अपने को समझाने की तरह है कि आप वह नहीं हो, जो आप सोच रहे हो। यह फायदेमंद नहीं है क्योंकि अब भी एक 'आप' है जो कह रहा है, 'मैं यह नहीं हूं'।

क्या ध्यान के सचमुच उतने फायदे होते हैं, जितने गिनाए जाते हैं?

पहली बात तो आप जानें कि ध्यान करता कौन है। ध्यान का मकसद ऐसे मुकाम पर पहुंचना होता है जहां पर इंसान सब कुछ देख रहा है, पर खुद वह बिना किसी विचार के है। जिस चेतना को आप ढूंढ रहे हैं, वह वही चेतना है जिसके द्वारा आप खोज कर रहे हैं। ध्यान मन को शुद्ध करने में मददगार है, लेकिन ध्यान के साथ-साथ जो असल में सहायक है, वह है आत्म-विचार। आत्म-विचार बेहद कारगर है क्योंकि यह दर्पण का काम करता है। इसकी मदद से आप यह देख पाते हैं कि आप क्या-क्या नहीं हो। पर वह सचाई जो आपके भीतर है, उसे आप देख नहीं सकते, सिर्फ हो सकते हो।

इस आत्म-विचार वाले ध्यान में क्या-क्या सवाल पूछे जाने चाहिए?

शुरुआत कुछ बुनियादी तथ्यों से करनी चाहिए। यह सच है ना कि आप अपने विचारों को जान सकते हो, अपनी भावनाओं को, सुख-दुख को, वक्त के बीतने को — यह सब आप जान सकते हो। इनको जानते हो, तभी तो इनके बारे में बात करते हो लेकिन जो यह सब जान रहा है, क्या उसे जाना जा सकता है? वह जिसे ज्ञानेंद्रियां बाहरी दुनिया का हाल बताती हैं, क्या उसे देखा जा सकता है? क्या उसका कोई आकार है? क्या उसका कोई गुण है? वह कौन है जो यह सब अनुभूति कर रहा है? यह आपको खोजना ही पड़ेगा! जो कुछ भी मैं देखता हूं, वह मैं नहीं हो सकता — यह तो एकदम साफ बात है। यह ऐसा कुछ है जो सिर्फ मेरी चेतना के क्षेत्र में उजागर हो रहा है और जो अपने आप से साक्षी हो रहा है। इसका आना, कुछ समय के लिए रहना और फिर चले जाना — इस सबको देखा जाता है। मैं उनमें से कुछ भी नहीं हो सकता क्योंकि मैं इसके होने और इसके न होने, दोनों का साक्षी हूं। तो फिर मैं कौन हूं? इस शरीर के अंदर वह क्या है जो खुद को 'मैं' कहता है? क्या इसे पहचाना जा सकता है? अगर इसे जाना जा सकता है तो किसके द्वारा? ये बहुत गहरे और अहम सवाल हैं। इन सवालों में मन रूपी समूचे बरगद को उखाड़ फेंकने का माद्दा है।

मन को यह सब बड़ा उलझाऊ लगता है।

यह उलझाऊ लग सकता है। वजह यह कि भीतर जाना और ऐसे सवाल पूछना हमारी आदत में शुमार नहीं है। सचाई को जानने के मामले में हमारा मन बेहद आलसी है। इंद्रियों और मन के जरिए बाहर देखते रहने की हमारी पुरानी आदत है। ध्यान अंदर की ओर ले जाने का कोशिश करेंगे तो शुरू में मन इससे भागेगा, बगावत करेगा। लेकिन जुटे रहने पर कामयाबी जरूर मिलती है।



खुद की पहचान कराने वाले इस ध्यान को करने का सही तरीका क्या है?


आत्मज्ञान बेहद आसान है। मैं आत्मा हूं — इसे झटपट महसूस किया जा सकता है। यह एक साधारण, पर असल में गहन प्रक्रिया है जिसके जरिए आप उस चेतना को पहचानना शुरू कर दोगे, जो आप हो। हर इंसान 'मैं' या 'मैं हूं' के एहसास में जीता है। ऐसा होना स्वाभाविक भी है क्योंकि दुनिया में सभी इसी तरीके से खुद को पहचानते हैं। यह बिना सिखाया हुआ तरीका है जिसमें हम खुद-ब-खुद जानते हैं कि हम हैं। लेकिन यह एहसास सच्चे अर्थों में कोई विचार नहीं है। यह अपने होने की एक अवस्था है। अब अभ्यास के दौरान अपने इस होने को किसी विचार या भाव के साथ घालमेल न होने दें। कुछ करने की जरूरत नहीं। बस अपने होने को महसूस करना है। मन में कुछ भी उमड़े, उसे पकड़ना नहीं। उसमें उलझना नहीं। एक के बाद एक विचार आएंगे और खुद में उलझने को न्योता देंगे। फंसना नहीं है। तटस्थ बने रहना है। अब खालीपन का एहसास होगा, हल्कापन लगेगा। शांति और आनंद आने लगेगा। इसी अवस्था में बने रहें। मन इस अवस्था को कोई नाम देने की कोशिश करेगा, लेकिन इस झांसे में नहीं आना है। यही वह स्थिति है जब आप देह-मन की अवस्था से परे जाकर अपने होने में स्थित होते हो। यह आत्मज्ञान की दिशा में अहम कदम है। इस तरह का अभ्यास आप अगर रोज कुछ मिनट करोगे तो आप शांति, प्रेम और आनंद से भरने लगोगे। मोक्ष की ओर आपकी यात्रा शुरू हो जाएगी।


सेक्स पर सही नजरिया क्या होना चाहिए? मॉडर्न एक्सपर्ट कहते हैं कि सेक्स पर परहेज से दिमागी विकृतियां पैदा होती हैं जबकि भारतीय परंपरा में कहा गया है कि आत्म साक्षात्कार के लिए ब्रह्मचर्य का पालन अनिवार्य है।

ब्रह्मचर्य को बस शरीर से जोड़ कर देखना गलत है। इसका ताल्लुक विचारों की पवित्रता से है। लोगों में धारणा है कि ईश्वर में अपनी आस्था साबित करने के लिए उन्हें अपनी मूल प्रवृत्ति के खिलाफ जाना होगा। यह सच नहीं है। मूल प्रवृत्तियों को दबाने की जरूरत नहीं। यह तन-मन, दोनों के लिए हानिकारक है। दरअसल जोर इस बात पर दिया गया है कि आप इन प्रवृत्तियों के गुलाम न बनें। यह आपके अख्तियार में रहें। सचाई तो यह है कि जब हम किसी चीज को दबाने की कोशिश करते हैं तो वह उलटे हम पर हावी हो जाती है। सही तरीका यह है कि आप सेक्स की ऊर्जा से खुद को अलग कर लें। इस समझ के साथ कि हम आत्मा हैं जिसके भीतर तरह-तरह की संवेदनाएं, विचार और भावनाएं उमड़ती रहती हैं। ये स्थायी नहीं हैं। ये आती-जाती रहती हैं। हमें इनमें उलझना नहीं है। जब हम इस समझ के साथ वासना को देखते हैं तो बड़ी जल्दी उसकी जकड़न से छुटकारा मिल जाता है।

आतंकवाद की समस्या का क्या हल है?

दुनिया भर में फैली इस समस्या का कोई फौरी हल नहीं है। समस्या की जड़ क्या है? यह कि मैं शरीर हूं। यही सोच तमाम संघर्षों को जन्म देती है। खुद को शरीर मानने से इसकी शुरुआत होती है और फिर कंडिशनिंग के दूसरे रूप भी आ खड़े होते हैं। खुद की पहचान को शरीर से जोड़ना और खुद को करनेवाला मानना - ये दो शुरुआती वायरस हैं जो बाद में महामारी की वजह बनते हैं। अहम यानी अपनी असल पहचान को न जानना दुनिया में तमाम तकलीफों की बड़ी वजह है। यही पहला और असली आतंकवादी है।


राम का अनुकरण करें या कृष्ण का? 'रामायण' में राम लगभग हमेशा नैतिक काम करते हैं जबकि 'महाभारत' में निर्णायक मौकों पर कृष्ण ने अनैतिक तरीकों और झूठ का भी सहारा लिया?

हम अपनी सीमित समझ के आधार पर फैसला सुना देते हैं। स्थितियां सीधे-सीधे नैतिक या अनैतिक नहीं होतीं। मैं आपको एक कहानी सुनाता हूं। —

एक आदमी सत्संग जाता था। उसे सत्संग जाना पसंद था लेकिन अपनी जिंदगी में बेहद बिजी था। एक दिन वह गुरुजी के पास गया। बोला: 'गुरुजी, आप जो कहते हो, मैं समझने की कोशिश तो करता हूं, पर समझ नहीं पाता। बड़ा बिजी रहता हूं। ढेर सारे कामों में फंसा रहता हूं। लंबी-चौड़ी साधना करने का वक्त मेरे पास नहीं है। क्या आप मुझे आसान तरीके से आत्मज्ञान नहीं दे सकते?' गुरुजी बोले: 'यहां आओ, मैं तुम्हारा हाथ देखता हूं।' गुरुजी ने उसका हाथ देखा और कहने लगे: 'हरे राम!' उसने कहा: 'गुरुजी, कुछ गड़बड़ है?' गुरुजी बोले: 'काश तुम्हारा हाथ पहले देखा होता। तुम्हारे हाथ की लकीरें बता रही हैं कि तुम्हारे पास जिंदा रहने के लिए सिर्फ एक हफ्ता बचा है।' यह सुनकर वह आदमी बुरी तरह टूट जाता है। हताश-निराश होकर घर पहुंचता है। उसकी पत्नी कहती है: 'आओ, खाना खाओ।' वह कहता है: 'कैसा खाना? मेरा कुछ खाने-वाने का मन नहीं। जिंदा रहने के लिए मेरे पास सिर्फ 7 दिन बचे हैं। मेहरबानी करके खाने के बारे में मुझसे मत कहो और मुझे अकेला छोड़ दो।' वह अपने कमरे में जाता है और कमरा अंदर से बंद कर लेता है। हर दिन उसके परिवार के लोग कुछ लेकर आते हैं लेकिन वह हर चीज को मना कर देता है। उसके बच्चे किसी संगीत कार्यक्रम में जा रहे होते हैं। कहते हैं: 'पापा, आप भी क्यों नहीं हमारे साथ चलते?' वह कहता है: 'मुझे माफ करो, मैं नहीं आ सकता। मेरे पास बस 5 दिन बचे हैं।' इस दौरान वह लगातार सोचता रहता है - 'मैं असल में हूं कौन? अभी तो मैं पूरी तरह से जिंदा हूं। फिर वह क्या है जो मर जाएगा? मरने का मतलब क्या होता है?' वह लगातार इसी पर विचार करता रहा। तब सिर्फ 1 दिन रह गया जिंदा रहने का। वह अपने कमरे में था। उसकी पत्नी दरवाजा खटखटाती है। कहती है: 'ऑफिस में आज तमाम डायरेक्टरों की मीटिंग है। आपको वहां होना चाहिए। आपकी लाखों-करोड़ों की पूजी का फैसला होना है।' वह कहता है: 'कोई बात नहीं। मुझे कहीं नहीं जाना। एक दिन बाद मेरे लिए सब स्वाहा हो जाना है। अब तुम्हीं इस सबका ध्यान रखो। अब यह सब तुम्हारा है।' वह अपना ध्यान जारी रखता है। आखिरी दिन भी आ जाता है। गुरुजी उसके घर आते हैं। उसकी पत्नी से पूछते हैं: 'वह कैसा है?' पत्नी बताती है: 'बुरी हालत है। वह 7 दिन से कमरे से बाहर नहीं आए।' गुरुजी उसके कमरे का दरवाजा खटखटाते हैं। वह दरवाजा खोलता है और बाहर आता है। उसके चेहरे पर नया तेज होता है। वह मुस्कुरा के कहता है: 'गुरुजी, आपने झूठ बोला ना। मैं जान गया हूं कि आपने मेरे साथ क्या चमत्कार किया है। आपने मुझे जिंदगी की दलदल से बाहर निकालने के लिए झूठ बोला। आप देख रहे थे कि मैं अपनी जिंदगी, अपना वक्त बेकार की चीजों में जाया कर रहा था। आप जहां कहते थे, वहां फोकस नहीं कर पा रहा था। इसीलिए आपने मुझे बताया कि तुम्हारे पास सिर्फ 7 दिन बचे हैं। आपकी एक इस बात ने चमत्कार कर दिया और मैंने फौरन दुनियावी चीजों में अपना वक्त बर्बाद करना बंद कर दिया। मैंने अपना ध्यान सिर्फ इस पर केंद्रित किया कि वह क्या है जो मरने जा रहा है। मैंने पाया है कि मरता कुछ और है, मैं नहीं।' 

अब इस कहानी में आप कहेंगे कि गुरुजी ने झूठ बोला लेकिन यह अच्छा मकसद के लिए था। कभी-कभार झूठ बोलना समाज के हित के लिए जरूरी हो जाता है। 'महाभारत' में कृष्ण जो कुछ कर रहे थे, वह अपने निजी फायदे के लिए नहीं था। वह समाज की भलाई के लिए था।



क्या नियमित रूप से सत्संग में भाग लेना जरूरी है?

मेरे ख्याल से जितना ज्यादा आप सत्संगों में भाग लेंगे, उतना ही ज्यादा अच्छा है।


आत्मज्ञान का क्या एक ही रास्ता है या कई हैं?

कई रास्ते हैं। सवाल यह है कि आपके पास वक्त कितना है। मैं कौन हूं - इस तरह के सवाल खुद से पूछना आत्मज्ञान का शायद सबसे सीधा रास्ता है।


क्या इंसान का नैतिक होना ही काफी नहीं?

नहीं, आपको नैतिकता के परे जाना होगा, इंसान की बुनियादी फितरत को पहचानना होगा और अपनी असल पहचान से वाकिफ होना होगा। अगर आप महज अच्छे इंसान हैं तो बहुत मुमकिन है कि आप इस दुनिया में दुखी रहें। लेकिन जब आदमी आत्मज्ञानी हो जाता है तो उसकी वाइब्रेशंस बदल जाती है, वह दुखों से परे हो जाता है। लोग उससे मिलते हैं तो वे उसकी एनर्जी को महसूस करते हैं। आत्मज्ञानी की संगत में बुरे लोग भी अच्छा बर्ताव करने लगते हैं।


अध्यात्म में क्या योग मददगार है?

इन दिनों योग का शारीरिक पक्ष ही चलन में है। यूरोप और अमेरिका में भी शरीर की लचक पर ही फोकस है। वे लोग योग का मतलब योगासन और योगा मैट से लेते हैं जबकि योग अपने आप में संपूर्ण पैकेज है। यह तन, मन और आत्मा - सभी के लिए कारगर है। इसमें इस शरीर पर ही नहीं, अज्ञान की स्थिति से मुक्त होने पर भी जोर दिया गया है। ऐसे योग को आपके देश में ज्ञान योग कहते हैं यानी आत्मज्ञान जिसके बारे में ज्यादातर पश्चिमी लोग नहीं जानते। ज्ञान योग योग का सर्वोच्च प्रकार है।


क्या कुंडलिनी जागरण वाकई मुमकिन है?

यह योग का ही एक हिस्सा है, पर मुझे इसके बारे में ज्यादा जानकारी नहीं।


योग सिखाने के लिए, आत्मज्ञान का जानकारी देने के लिए पैसा लेना क्या उचित है?

मेरा मानना है कि पैसा लेने में कोई बुराई नहीं। ठीकठाक बंदोबस्त करने के लिए पैसे की ज़रूरत रहती है। हम सत्संग के लिए कोई पैसा नहीं लेते। सत्संग दुनिया भर में फ्री में प्रसारित होता है। इन सब चीजों में खर्च होता है। जब भारी तादाद में लोग जमा हों, तो सरकार चाहती है कि लोग सुरक्षित रहें, वहां पानी-टॉयलेट आदि का इंतजाम हो। अगर आप दान कर सकते हैं, तो अच्छा है। अगर न कर पाए तो भी कोई बात नहीं।

आजकल आध्यात्मिक गुरु आलीशान आश्रमों में रहने लगे हैं?

स्पेन में हमारे आश्रम की इमारत बेहद सादी है, जंगल में बनी है। मैं खुद एक कुटिया में रहता हूं।




(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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