जीवंत भाषा जनता के कारखाने में ढलती है - राहुल सांकृत्यायन
पुराना मार्क्सवाद सेक्सुअलिटी नहीं समझने देता - अभय दुबे
ग्यारह रचना आभा की
रक्षा में हत्‍या -  मुंशी प्रेमचंद
लोकार्पण:  ‘ख़्वाब ख़याल और ख़्वाहिशें’ - कैप्टन नूर
नव समानान्तर सिनेमा - सुनील मिश्र
टेसू - संजय वर्मा "दृष्टि"
गोल्डी साहब के साथ होली - दिलीप तेतरवे
होली आई रे - आर्ची मिश्रा पचौरी
दोहे और कुण्डलियाँ - संतोष त्रिवेदी
बुरा न मानो होली है - पद्मा मिश्रा
फागुन का हरकारा - गीतिका 'वेदिका'

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इरफ़ान ख़ान, गहरी आंखों और समंदर-सी प्रतिभा वाला कलाकार  — यूनुस ख़ान
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दो कवितायेँ - वत्सला पाण्डेय
हमारी ब्रा के स्ट्रैप देखकर तुम्हारी नसें क्यों तन जाती हैं ‘भाई’? — सिंधुवासिनी
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