विज्ञापन लोड हो रहा है...
कृपया एडब्लॉक बंद करें। हमारा कंटेंट मुफ्त रखने के लिए विज्ञापन ज़रूरी हैं।

होली आई रे - आर्ची मिश्रा पचौरी

आर्ची मिश्रा पचौरी Archie Mishra Pachauri
आर्ची मिश्रा पचौरी
गुड़गाँव
ईमेल - archie0701@gmail.com

होली आई रे

होली आई रे ..... आई रे .......होली आई रे

मद मस्तो की टोली देखो
खेले रंग भर भर होली रे .......होली आई रे

holi greetings shabdankan 2013 २०१३ होली की शुभकामनायें शब्दांकन सखियाँ ले कर राधा पहुची
कान्हा संग खेलन होली रे ..... होली आई रे

श्याम रंग में रंगी राधा
रंगरेज़ की दीवानी होई रे .......होली आई रे

देख रंग यह नीला लाल गुलाबी
सजना से सजनी शरमाई रे .....होली आई रे

होली आई रे .....आई रे ......होली आई रे

दोहे और कुण्डलियाँ - संतोष त्रिवेदी


संतोष त्रिवेदी

दूलापुर, नीबी,
रायबरेली
मो: 09818010808

कुण्डलियाँ (होली-विशेष)

फागुन गच्चा दे रहा, रंग रहे भरमाय ।
आँगन में तुलसी झरे, आम रहे बौराय ।।
आम रहे बौराय, नदी-नाले सब उमड़े ।
सुखिया रहा सुखाय, रंग चेहरे का बिगड़े ।।
सजनी खम्भा-ओट, निहारे फिर-फिर पाहुन ।
अपना होकर काट रहा ये बैरी फागुन ।। ... (१)

होली में देकर दगा, गई हसीना भाग ।
पिचकारी खाली हुई, नहीं सुहाती फाग ।।
नहीं सुहाती फाग, बुढउनू खांसि रहे हैं ।
पोपले मुँह मा गुझिया, पापड़ ठांसि रहे हैं ।
अखर रहे पकवान, नीकि ना लगै रंगोली ।
चूनर लेती जान, कहे आई अस होली ।। ... (२)

फागुन के इस समय में, रोया, हँसा न जाय ।
पिचकारी में रंग भरें, वो भी गवा बिलाय ।।
वो भी गवा बिलाय, बढी अतनी मँहगाई ।
देवर खाली हाथ, तकै मुँहु सब भौजाई ।।
होरी कइसे मनी, कहैं सजनी ते साजन ।
बिपदा भारी लिए, खड़ा मुस्काए फागुन ।। ... (३)
holi greetings shabdankan 2013 २०१३ होली की शुभकामनायें शब्दांकन

दोहे

गुझिया, पापड़ छन रहे, रामदीन के संग ।
होरी में सब मिल गए, चटख-स्याह एक-रंग ।। ... (१)

आसमान में उड़ रहा, केसर रंग, गुलाल ।
साली को जीजा रँगे, उसको नहीं मलाल ।। ... (२)

रंग काटने दौड़ते, होली में इस बार ।
हरिया के बरतन बिके, घरवाली बीमार ।। ... (३)

फगुवा टोली देखकर, मन में उठे तरंग ।
साजन हैं परदेस में, नाचूँ किसके संग ।। ... (४)

पीली चूनर उड़ रही, आसमान की ओर ।
धरती पटी गुलाल से, जियरा डोले मोर ।। ... (५)


बुरा न मानो होली है - पद्मा मिश्रा

PADMA MISHRA पद्मा मिश्रा
पद्मा मिश्रा
जमशेदपुर
टाटा नगर (झारखण्ड)
ईमेल: padmasahyog@gmail.com

होली में

चारो तरफ मंदी की छाई मार होली में,
मुसीबत हो गई इस फागुनी त्यौहार होली में

है फीकी चाय की प्याली,भरी यह जेब भी खाली,
हैं खाली राशनों के अब सभी भंडार होली में,
मुसीबत हो गई इस फागुनी त्यौहार होली में

कभी शुगर सताता है, कभी गठिया रुलाता है
बने कैसे पुआ ,गुझिया सभी पकवान होली में
जो अम्मां साथ में रहती,तो फिर किस बात का डर था
अकेली जान ,कितने काम ,सौ फरमान होली में
मुसीबत हो गई इस फागुनी त्यौहार होली में

पति मंहगाई से पीले, क्रोध से लाल हैं बच्चे
हरे हैं पत्नियों के घाव मचा घमसान होली में
स्वयं रंगीन हो जाओ, तो उलझन दूर हो जाये
मँहगे हो गये हैं रंग और गुलाल होली में
मुसीबत हो गई इस फागुनी त्यौहार होली में

जब चेहरे के उड़े हैं रंग ,तो क्या रंग होली में
भुला दें वो सभी झगड़े ,पिला दो भंग होली में
करे सुरसा सी मंहगाई यों हाहाकार होली में
मुसीबत हो गई इस फागुनी त्यौहार होली में

हुई कायापलट फिटनेस की सबको हो गई चिंता
अब फैशन ने किये फीके सभी पकवान होली में
इधर सहमे हैं मुर्गे, मुर्गियां है चिंता जान जाने की
उधर खुशियाँ हैं होली की, तले पकवान खाने की
बीमारी के बहाने हैं, सभी सत्कार होली में
मुसीबत हो गई इस फागुनी त्यौहार होली में

वो दिन कितने भले थे, आते थे मेहमान होली में
अब न रिश्तों में गर्माहट, न खुशियों से भरे चेहरे
गले मिलना हुआ मजबूरी और अहसान होली में
जली ज्यों होलिका तुम भी जला दो हर बुराई को
करो इंसानियत पर प्रेम की बौछार होली में
मुसीबत रह न पाए स्नेह के त्यौहार होली में

बुरा न मानो होली है

बुरा न मानो होली है ...

रंग हुए बेरंग आज क्यों , क्यों हर राह अकेली है
किस आंगन में प्यार बाँट दें ,रूठा हर हमजोली है
बुरा न मानो होली है ...

मन से मन की बढ़ी दूरियां , कदम कदम पर दीवारें
रंगो में घुल गई कालिमा , किस दर्पण में रूप निहारें
इंसानी रिश्तों में किसने विष की गागर होली है
बुरा न मानो होली है ...

बाँट दिया धरती को हमने, छोटी छोटी दीवारों में
प्यार भरे रिश्ते भी बांटे, रेशम की इन जंजीरों में
इधर घोलते रंग गुलाल हम , उधर खून की होली है
बुरा न मानो होली है ...

जाने किसकी बाट जोहती , माँ भी कितनी भोली है
जीवन की इस गोधुली में, जीना - एक पहेली है
दीदी ,अम्मा ,बाबा ,भैया ,रिश्ते आज ठिठोली हैं
बुरा न मानो होली है ...

ओढ़े सच्चाई की चादर ,सबको राह दिखाते हैं
holi greetings shabdankan 2013 २०१३ होली की शुभकामनायें शब्दांकन
बरसती मेंढक जैसे ये समय देख टर्राते हैं
संग में राम बगल में छुरी , मुख में मिसरी घोली है
बुरा न मानो होली है ...

भैया के पांवों पर रखते , भौजी को मलते गुलाल हैं
रिश्तों में भी हुई मिलावट , हर आंगन का यही हाल है
मन में भरे विकार घूमते , बाहर रंग रंगोली है
बुरा न मानो होली है ...

अलग धर्म हैं, जाति भी अलग , अलग अलग भाषाएँ हैं
इंसानों ने खुद ही गढ़ लीं , कितनी परिभाषाएं हैं
माँ को भी जो बाँट रहे हैं , नीयत जिनकी पोली है
बुरा न मानो होली है...


फागुन का हरकारा - गीतिका 'वेदिका'

गीतिका 'वेदिका'

शिक्षा - देवी अहिल्या वि.वि. इंदौर से प्रबन्धन स्नातकोत्तर, हिंदी साहित्य से स्नातकोत्तर
जन्मस्थान - टीकमगढ़ ( म.प्र. )
व्यवसाय - स्वतंत्र लेखन
प्रकाशन - विभिन्न समाचार पत्रों में कविता प्रकाशन
पुरस्कार व सम्मान - स्थानीय कवियों द्वारा अनुशंसा
पता - इंदौर ( म.प्र. )
ई मेल - bgitikavedika@gmail.com

फागुन का नवगीत - फागुन का हरकारा

भंग छने रंग घने
फागुन का हरकारा …….!

टेसू सा लौह रंग
पीली सरसों के संग
सब रंग काम के है
कोई नही नाकारा
फागुन का हरकारा …….!

बौर भरीं साखें है
नशे भरी आँखें है
होली की ठिठोली में
चित्त हुआ मतवारा
फागुन का हरकारा ………!

जित देखो धूम मची
टोलियों को घूम मची
कोई न बेरंग आज
रंग रंगा जग सारा
फागुन का हरकारा …….!

मुठी भर गुलाल लो
दुश्मनी पे डाल दो
हुयी बैर प्रीत, बुरा;
मानो नही यह नारा
फागुन का हरकारा ………!

मन महके तन महके
वन औ उपवन महके
महके धरा औ गगन
औ गगन का हर तारा
फागुन का हरकारा ………!

जीजा है साली है
देवर है भाभी है
सात रंग रंगों को
रंगों ने रंग डारा
फागुन का हरकारा ……..!

चार अच्छे कच्चे रंग
प्रीत के दो सच्चे रंग
निरख निरख रंगों को
तन हारा मन हारा
फागुन का हरकारा ……..!

इत उत रंग में रंग हुआ


इत उत रंग में रंग हुआ
रंग में रंग सब रंग
कोई न बेरंग रह सका
रंग रंगे सब अंग…..!

ऐसी होली माई बाबा की होली
हाथ किये पीले, बिठा दी डोली
चार कदम रोती दुल्हन
फिर हंसी पिया जी के संग …..!

ऐसी होली ससुर घर होली
सूनी माँग भरी रंग रोली
डोर कटी मैया घर से
हत्थे चढ़ी पिया की पतंग……!

बैरी न हमजोली है


बचते बचाते
छुपते छुपाते
छिपी कहीं पीछे
किबाड के

सजना चतुर
छुपे पीछे आये
देख लिए, छुपी
जहाँ आड़ के

जोर से पकड़ लिए
रंगे जबरदस्ती से
मौके पे चौका
पछाड़ के

मुंह से बोल फूटे नही
पक्का रंग छूटे नहीं
चाहे हो जलन बड़ी
पर कोई रूठे नही

प्यार वाली होली है
हंसी है ठिठोली है
जिसने रंगा है रंग
बैरी न हमजोली है

पिया रंग रंग दीनी ये होली


पिया रंग रंग दीनी
ये होली
चंपा चमेली सी
नार नवेली सी
चल दी पिया घर
बैठी जो डोली

पिया हरसाए
प्यार लुटाये
अगले बरस ही
गोरी सुत जाये
नन्हे से बोलों की
तुतलाती बोली

कौन रंग चाँदी
तो कौन रंग सोना
हमें नहीं भाये
कोई धातु की रंगोली

हम तो पिया के है
पिया ही हमारे है
बीते जीवन यूँ ही
करते ठिठोली

तन अगन लगी मन जले

तन अगन लगी मन जले
और फागुन आये ............!
holi greetings shabdankan 2013 २०१३ होली की शुभकामनायें शब्दांकन

हर ओर से झांके रंग रंग
करे व्यंग और मुस्काए
और फागुन आये ...........!

पिया बिनु क्या बसंत गोरी
क्या इकली मन भाये होरी
रंग गिरे तो भीगे तन, मन सकुचाये
और फागुन आये ............!

चम्पा और चमेली डाली
टेसू डाल लो भरी निराली
बीता जाये बसंत हाय जिय धडकाए
और फागुन आये .......... .!

पीली सरसों भी फूली
अमराई अमवा में झूली
क्यों पेंग बढ़ा के मेरा मन बस तरसाए
और फागुन आये ..........!

होली के मुक्तक - सुधेश


सुधेश
३१४ सरल अपार्टमेंट्स , सैक्टर १०
नई दिल्ली ११००७५
फ़ोन ०९३५०९७४१२०

होली के मुक्तक


रंग का त्योहार होली है ,
प़ेम का व्यवहार होली है ,
तुम कहाँ घर में छिपे बैठे
निकल आओ यार होली है ।
     विविध वर्णी यह रंगोली है ,
     चुनर भीगी साथ चोली है ,
     अगर तन के साथ मन भीगे
     तभी समझो आज होली है ।
रंग में पूरी शकल धो ली ,
holi greetings shabdankan 2013 २०१३ होली की शुभकामनायें शब्दांकन
भंग में टोली बहुत डोली ,
यह घड़ी क्या रोज़ आती है ,
आज होली हो महज़ होली ।
     यह न केवल रीत रह जाये ,
     रीत के संग प़ीत रह जाये ,
     होली मनाओ इस तरह से
     प्यार की बस जीत रह जाये ।

खेलूंगी ई-होली! - सुमन सारस्वत

suman saraswat सुमन सारस्वत
सुमन सारस्वत
ए-५०४, किंगस्टन, हाई स्ट्रीट, हीरानंदानी गार्डेन्स,
पवई, मुंबई-४०० ०७६
मो. : ९८६९२०२४६९
ईमेल - sumansaraswat@gmail.com

अबके बरस मैं खेलूंगी

ई-होली!


    मैं ना खेलूं रे होली - पिछली बार कितनी मिन्नातें की थीं, कितनी दुहाई दी थी, यहां तक कि अखबार में भी लिख कर सबको एडवांस में रिक्वेस्ट भी की थी - मैं ना खेलूं होली रे... फिर भी कोई माना नहीं. सबने रंग पोते - काले-पीले-नीले, सारे के सारे! वो तो अच्छा है कि मैं मुंबई में हूं, कहीं किसी गांव में होती तो होली के बहाने गोबर और राख से सान दिया होता लोगो ने. लोगों ने नहीं अपनों ने ही....वो भी खास अपने ने. शुरूआत ही पतिदेव ने की, उसके बाद मौका मिल गया लोगों को रंगने का या कहें अपनी कुढ़न निकालने का. होली के दिन कौन छोड़ता है?

    मैं तो पक्की नारीवादी हूं. जहां भी, जब भी मौका मिले पुरुषों को कोसना शुरू कर देती हूं... मगर होली के दिन उलटा हो गया. सभी नारियों ने मिलकर मुझे ऐसा रंगा कि राधा भी इतनी न रंगी होगी श्याम रंग में... कबीर की झीनी-झीनी चदरिया भी कभी इतनी न मैली हुई होगी....जितनी कि मेरी सहेलियों ने कर दी.


    एकता कपूर के सीरियल देख-देखकर मेरा भी मन ललचा जाता है सजने-धजने का. आखिर मैं भी एक औरत हूं. मैंने होली के लिए डिजाइनर साड़ी खरीदी और पहनी भी. पति के डेबिट कार्ड से शॉपिंग भी की. उस दिन मॉल में घूमते हुए मेरी आत्मा को कितना सुकून मिला था. आहा.. मगर बुरा हो इन सहेलियों का.

    मेरा गेटअप देख कर सब जल-भुन गई थीं. होली तो रात में जली थी और अब ये मुझे देखकर जल रही थीं. सौतिया डाह नहीं, पड़ोसिया-डाह में आकर इन नासपीटियों ने पहले तो खूब सारा रंग पोता, फिर रंग भरी बाल्टी उड़ेल दी. एक - दो नहीं पूरे बीस बाल्टी. वैसे तो इन मुइयों से घर में एक गिलास नहीं उठाया जाता, सब काम, बाइयां करती हैं मगर मेरी डिजाइनर साड़ी की जलन में बाल्टी भर-भर के पानी डाला मुझपे.

    उस पर भी जी न भरा तो आइल पेंट चुपड़ दिया मेरे नाजुक गालों पर, रेशमी बालों पर. दो दिन पहले ही ब्यूटीपार्लर में घंटों सिटिंग कर के आई थी. मेरे सारे ब्यूटी केयर, हेयर केयर की वाट लगा दी. मेरी डिजाइनर साड़ी से जली-भुनी पड़ोसनों जी भर कर भड़ास निकाली. 'होली के दिन दुश्मन भी गले मिल जाते हैं...' गाने से इंस्पायर्ड होकर मैंने अपनी एक झगड़ालू पड़ोसन को रंग लगा कर दोस्त बनाना चाहा तो वह मुझ पर बिदक गई. मन हुआ कि उस लुच्ची की चुटिया खींच लूं. पर वह मुझसे हट्टी-कट्टी थी. मन मसोस कर रह गई मैं. आगे एक बुढ़ऊ अंकलजी ने मुझे घेर लिया. महीनों से मुझे लाईन मार रहे थे. आज मौका मिला तो मुझ पर आइल पेंट लगा दिया. जी में आया एक लात जमा दूं पर सबर कर गई. मैं तो हर्बल इकोफ्रेंडली कलर्स लाई थी होली खेलने के लिए. मगर इन शहरी गंवार, जाहिल पड़ोसिनों ने जाने कौनसे सड़े रंग लगाए कि जबान कड़वी हो गई आंखें जलने लगीं. ठंडई बांटने वाले पड़ोसी ने मेरी ठंडई में इतनी भंग मिलाई कि मुझे चढ़ गई. एक बार जो मैं हंसी तो हंसती रही. कभी पेट पकड़ कर, कभी गाल पकड़ कर, कभी सिर पकड़ कर... जान बचाकर घर पहुंची तो वहां नया सीन एिट हो गया - पतिदेव मेरी शॉपिंग की वजह से मुंह फुलाए बैठे थे. बेटे ने दरवाजा खोला और देखते ही डर गया. शिनचैन की तरह चीखकर बोला - 'पापा, देखो कोई चुड़ैल आ गई है, बच्चे चुराने वाली खूसट बुढ़िय़ा.' और उसने मेरे मुंह पर दरवाजा दे मारा. जी में आया कि कान के नीचे बजाऊं उसके. मगर गम खाकर रह गई. लाख समझाने के बाद बड़ी मुश्किल से मुझे अंदर आने दिया. नहाने गई तो फिर मुसीबत. बीच में ही पानी चला गया. अगले दो दिन तक पानी कटौती चलती रही. बुरा हो इन मुंसीपाल्टीवालों का ....ये भी दुश्मन निकले मेरे....दिनों निकल गए होली के रंग छुड़ाने में...
    इसलिए अपन ने तो सोच लिया है इस बार अपन 'हार्ड होली' नहीं खेलेंगे, खेलेंगे तो 'सॉफ्ट होली'. नहीं समझे 'ई-होली' यानी इंटरनेट पर होली खेलेंगे. पिछले साल का गिन-गिन के बदला लूंगी. सारी सहेलियों के आई डी मेरे पास हैं. पहले ही एक फेक आई डी बनाली है मैंने. अब उसी से सबको होली के ऐसे-ऐसे ई-कार्ड मेल करूंगी कि सब सन्ना रह जाएंगी.

holi greetings shabdankan 2013 २०१३ होली की शुभकामनायें शब्दांकन    नेट यूजर तो सारी सहेलियां हैं यही नहीं उनके पति भी. इस फेक ई-मेल से जाएंगे उनके पतियों को लव मेसेजेस और पत्नियों को वॉर्निंग कि उनके हसबैंड का किसी से लफड़ा चल रहा है. ऐसे स्क्रैप भेजूंगी कि उनका दिमाग स्क्रैप हो जाएगा. उनके वॉल पर ऐसा पोस्ट करूंगी कि पूरी दीवाल बदरंग हो जाएगी. इतना ब.ज करूंगी कि सब बजबजा जाएंगी, इतना ट्वीट करुंगी कि लाइफ ट्विस्ट हो जाएगी. फिर नीचे लिखूंगी - बुरा न मानो होली है.

    इस तरह मैं एक कौड़ी भी खर्च किए बिना, होली मना लूंगी. सारे रंग ई-कार्ड के जरिए भी खेलूंगी. रियल में न रंग, न कोई प्रदूषण. ईकोफ्रेंडली होली. यानी कि ई-होली और रंग चोखा. वॉट एन आईडिया सुमनजी.

    शायद अगले साल पर्यावरण बचाने का नोबल पुरस्कार मुझे ही मिल जाए..

    ....बुरा न मानो होली है.

गन्ध : कहानी - श्याम सखा 'श्याम'

shyam sakha shyam story kahani hindi gandh shabdankan cigar गन्ध कहानी श्याम सखा श्याम शब्दांकन सिगार     जी सिग्रेट ! सि्ग्रेट मैं कब से पी रहा हूँ, ठीक से नहीं बतला सकता। पर अब तो सिग्रेट मेरे जीवन मेरे व्यक्तित्व का एक अभिन्न अंग बन बैठी है।
    जी हाँ, सिग्रेट पीना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है, मैं जानता हूँ। मैं क्या, सभी सिग्रेट पीने वाले यह जानते हैं। सिग्रेट की डिब्बी पर भी लिखा होता है, हालांकि ऐसे, कि इसे पढ़ने के लिए उत्तल शीशे की आवश्यकता होती है।
    नमिता, नमिता मेरी स्त्री मित्र है। हाँ, हाँ गर्लफ़्रेंड। लगभग तीन साल से हमारी मित्रता है। खासी गहरी छनती है, हम दोनों में। वह आयुर्विज्ञान में स्नातकोत्तर की छात्रा है, हाँ, एम.डी.पीडियाट्रिक्स की स्टुडेन्ट, पुणे में पढ़ती है।
    मैं अभी फिल्म एवं टी.वी.इंस्टीच्यूट से डिप्लोमा करके मुम्बई आया हूँ, बालीवुड में भविष्य की तलाश में। छुटपुट माडलिंग करके काम चला रहा हूँ। निर्देशक बनने की चाह में भटक रहा हूँ।
    सप्ताहान्त मैं और नमिता इकटठे गुजारते हैं। पुणे से यहीं मेरे डेढ़ कमरे के फ्लैट पर आ जाती है। वैसे तो यह फ्लैट नमिता का ही कहना चाहिए क्योंकि किराया उसी के स्टायफंड से भरा जाता रहा है, अब तक। पर, ये तो गौण बातें हैं।
    असली बात या मुद्दआ तो हमारी दोस्ती है जो चाहत व समझ की ठोस बुनियाद पर डटी है। हालाँकि हमने आपस में भविष्य के बारे में कभी कोई बात नहीं की है, पर लगभग तय है कि नमिता के एम.डी.करते ही हम पति-पत्नी बन जाएँगे, विधिवत। जी हाँ ! क्योंकि वैसे तो हम, जैसे एक साथ रह रहे हैं, वह रिश्ता भी पति-पत्नी जैसा ही है, बल्कि उससे बेहतर क्योंकि पति-पत्नी की तरह हमारी एक-दूसरे से कोई जबरदस्ती की अपेक्षा नहीं कोई दबाव नहीं।
    नमिता सुन्दर लड़की है। सुन्दर चेहरा-मोहरा, अनेक गोलाइयाँ, आँखें, भौएँ , मुखमण्डल, सभी अण्डाकार, मोहक रूप से अण्डाकार, उर्स चाय-सा खिला-रंग। देहयष्टि ऐसी कि माडल लड़कियाँ ईष्र्या से जल मरें।
    पर वह अपने रूप, गुण से एकदम लापरवाह और वस्त्रों के बारे में साहिब उससे बेपरवाह लड़की शायद ही कोई मिले। पर उसकी इस बेरुखी, बेपरवाही ने उसके व्यक्तित्व को अजीब दिलकश बना छोड़ा है।
पेज़ १

    वह भी मेरी सिग्रेट की दुश्मन है। हमारे सम्बन्धों के शुरूआती दिनों में तो वह लम्बे-लम्बे वैज्ञानिक भाषण दे डालती थी। ‘माओकार्डियल इन्फारकशन से एलवियोलर कारसीनोमा आफ लंग्स’ का भय मुझे दिखाया जा चुका है। जिसे मैं बेशर्मी से हँसकर उड़ाता रहा हूँ।
    कई बार तो मामला कुछ अधिक गम्भीर हो आया था। उसने पैस्सिव स्मोकिंग की बात की और ताल्लुकात तरक करने की धमकी दे डाली। पर साहिब, मैंने भी कोई कच्ची गोलियाँ नहीं खेलीं, ऐसे मौकों पर बेदाग बच निकलने की कला मुझमें है।
    आज शाम को जब ताला खोलकर कमरे में दाखिल हुआ तो पाया कि नमिता शावर ले रही है। फ्लैट की एक चाबी उसके पास रहती है ना। मैं आगे आने वाली मादक रात्रि का आभास पाकर प्रफुल्लित हो उठा। कपड़े बदलकर बरमूडा पहन लिया तथा फ़्रिज से बीयर तथा बर्फ निकाल कर टेबल पर नमकीन के साथ सजा दी तथा लगा नमिता के बाहर आने का इन्तजार करने।
    नमिता ऐसे मौकों पर कबाईली हो जाती है। वह अक्सर शावर से इस तरह आ जाती है कि उसके भीगे बदन से पानी की बूँदें टपकती हैं । मैं उसे शरारत से आदिवासिनी जंगली बिल्ली आदि कहता रहा हूँ।
    मैं सिग्रेट सुलगाने ही लगा था कि नमिता बाहर आ गई। भीगी-भीगी, टपकती एक मादा तेंदुए सी लग रही थी जो अपने शिकार को दबोचने के लिए लपकने की मुद्रा में हो। वह मंथर गति से चलती हुई मेरे पास आई और उसने मेरे मुँह में लगी सिग्रेट निकालकर बाहर फैंक दी। फिर टेबल से अपना बैग उठाया और उसमें से एक हवाना सिगार का पैकिट निकाला। पैकिट में से सिगार निकालकर उसने उसके अगले किनारे को मुँह से ऐसे तोड़ा जैसे वह एक अभ्यस्त स्मोकर हो। फिर लाइटर से सिगार सुलगाकर एक लम्बा कश खेंचा और गाढ़ा काला धुआँ अपने नथुनों से बाहर निकाल दिया। मैं मुँह बाये हतप्रभ-सा उसे देख रहा था कि उसने वह सिगार मेरे मुँह में ठूस दिया। सिगार को सम्भालने के लिए मुझे कोशिश करनी पड़ी।
    जब संयत होकर मैंने एक लम्बा कश खैंचा तो, सिगार का गाढ़ा कसैला धुआँ मेरे फेफडों में फैल गया और मुझे जोर से खाँसी आने लगी। काफी देर में ठीक हो पाया मैं। सिगार हालाँकि बढ़िया किस्म का मँहगा आयातित सिगार था, पर मुझे उसकी गन्ध से मतली आ रही थी और नमिता थी कि मेरे पीछे पड़ी थी कि मैं सिगार पीऊं। सारा सप्ताहान्त इसी झगड़े में खराब हो गया।
    नमिता पुणे लौट गई। अगले सप्ताह उसकी वही जिद कि मैं वही सिगार पीऊं। मैंने उसे बहुत समझाया पर उसने मेरी एक न सुनी। अब तो हर बार यही होता कि अगर मैं सिगार पीता तो मेरी बुरी हालत हो जाती। अगर नहीं तो नमिता अपने भीतर सिमट जाती और बकौल फ़्रायड के, फ़्रिजिड हो जाती। बड़े बुरे दिन कटने लगे, हालाँकि उसने दोबारा सिगार नहीं पिया।
पेज़ २

    मैंने कई बार नमिता को समझाना चाहा।सिग्रेट बिल्कुल छोड़ देने का आश्वासन दिया। पर वह टस से मस नहीं हुई, अड़ी रही अपनी जिद पर। उसके इस आकस्मिक परिवर्तन ने हमारे संबंधों में एक अजीब-सी दरार पैदा कर दी। मैंने उसे समझाया कि हमें किसी मनोवैज्ञानिक की सलाह लेनी चाहिए। पर वह नहीं मानी। अब और क्या हो सकता था? हम अलग-अलग हो गए।
    कहते हैं कि मुसीबत कभी अकेली नहीं आती, पर कभी-कभी मुसीबत के बाद भाग्य ऐसे जाग जाता है कि जैसे अमावस की रात के बाद सूरज का निकलना। मेरी पहली फिल्म हिट हो गई और मेरी डिमाण्ड बालीवुड में काफी बढ़ गई। व्यस्तता ने नमिता के विछोह को काफी हद तक भुला दिया था। पर एकान्त के पलों में पुरानी टीस फिर उभर आती थी।
    आज मैं कोवालम बीच पर, एक निर्जन जगह पर, एक लव सांग की शूटिंग कर रहा था। सभी कुछ ठीक-ठाक व्यवस्थित ढंग से हो रहा था। सूरज डूबने वाला था। मन्द-मन्द समीर चल रही थी। नायक-नायिका बिना रीटेक के काम किए जा रहे थे। मौसम भी बेवफाई से कोसों दूर था। अचानक मेरे सीने में एक अजीब सी बेचैनी होने लगी। मैं जितना इस बेचैनी को भूलकर काम में लगना चाहता था, उतनी ही यह पलटकर और परेशान कर रही थी। बेचैनी इतनी बढ़ गई कि मैंने शूटिंग बन्द कर दी और वापिस लौटने की तैयारी करने लगा।
    मुझे बेचैनी का कारण समझ आया। मेरे नथुनों ने पहचान लिया था, उस मरदूद गन्ध को। वह थोड़ी दूर नारियल के झुरमुट से आ रही थी।
    मैं गुस्से में उधर चला। लगभग बीस मीटर जाने के बाद मैंने पाया कि एक अधेड़, गंजा, हॄष्ट-पुष्ट व्यक्ति, जिसकी पीठ मेरी ओर थी, एक छोटी चट्टान पर बैठा वही सिगार पी रहा था। मैं गुस्से में लगभग पागल हो गया। दिल किया कि बड़ा-सा पत्थर उठाकर उसके सिर पर दे मारूँ।
    शायद मेरी पदचाप सुनकर, उसने पलटकर देखा। मैं स्तब्ध रह गया। वह डॉ० बैनर्जी था, नमिता का एम.डी.गाइड। इससे पहले कि मैं उससे कुछ कहता, नीचे समुंदर की तरफ से घुँघरूओं की सी आवाज गूँजी डार्लिंग इधर आओ, देखो मैंने प्रान~झींगा पकड़ा है। मेरी नजर उधर गई तो देखा नमिता अपने उसी कबाईली रूप में नजर आई। उसके नंगे बदन पर जगह-जगह समुद्री फेन चिपका था तथा समन्दर का नमकीन पानी उसकी जुल्फों और बदन से चू रहा था बूंद-बूंद करके, वह मत्स्य कन्या लग रही थी।
    डॉ० बैनर्जी थोड़े परेशान होकर शर्मिन्दगी से कहने लगे, ‘सॉरी, शी इज माई वाइफ।’ इससे पहले कि नमिता मुझे देख पाती मैं लौट पड़ा।
    मुझे अपने सवाल का जवाब मिल गया था। एम.डी. करते करते नमिता को डॉ० बैनर्जी के साथ-साथ रहना पड़ता था तथा वहीं उसे इस सिगार की गन्ध से एक अजीब किस्म का लगाव फेशिनेशन हो गया। गन्ध का लगाव इस सीमा तक बढ़ा कि दीवानगी में बदल गया। जब मैं सिगार अपनाने में नाकाम हो गया तो उसके पास इस गन्ध को पाने का एकमात्र उपाय था, डॉ० बैनर्जी से विवाह रचाना।
    इसे आप ‘तिरिया चरित्र‘ कहेंगे या फिर फ़्रायड के शब्दों में ‘पोजेस्सिव आबशेसन ?
___________________
पेज़ ३

श्याम सखा श्याम शब्दांकन #Shabdank Shyam Sakha Shyam Moudgil

श्याम सखा 'श्याम' 

कवि, शायर और कहानीकार
निदेशक - हरियाणा साहित्य अकादेमी
विस्तृत परिचय 

'मुझे बोन्साई अच्छे नहीं लगते' कवितायेँ : प्राणेश नागरी


Pranesh Nagri Poetry कविता प्राणेश नागरी

प्राणेश नागरी
शिक्षा : प्रबंध तंत्र , शास्त्रीय संगीत एवं दर्शन शास्त्र
जन्म : श्रीनगर कश्मीर
निवास : बंगलूरु

समान्तर रेखाएं

samanantar rekhayen pranesh nagri pnagri@gmail.com
बादलों के आलिंगन से फिसल
एक ठहरी हुई बूंद
होंठों पर आ कर रुक जाएगी,
किसी बिखरे अस्तित्व की परछाई
डूबती आँखों में खो जाएगी।
दिन जब डूब जाएगा तो किसी से कहना नहीं
आकाश ओढ़े शाम की मुंडेर पर
पूछ बैठेंगे वोह सब
हम सब क्यूं आये थे यहाँ
और जानते हो
कोई जवाब न होगा हमारे पास।
हम ने पूरी ज़िन्दगी
यहीं सुझाया होगा अपने आप को
कि धरती और आकाश मिलते हैं वहाँ
जहां तक हमारी नज़र जाती है,
भूल गए होंगे हम कि धरती और आकाश
दो समान्तर रेखाओं पर ठहरे हैं ,
जैसे हमारी दोनों आँखों के अलग अलग सपने
जिन का जोड़ दिन डूबने तक नहीं होता।
कराहती हुई भूख आँखों से उतर
दो पाटों के बीच पिसती रौशनी तक जाती है
शहर अँधेरे में डूब जाता है
एक अकेले कोने तक फिर नज़र जाती है,
ताकत जेब के किसी कोने में गुर्राती है
शाम और सुबह दो रेखाओं पर चलते हैं
समान्तर ,जो कहीं नहीं मिलते
जूठ है यह रौशनी का मंथन
जूठ है यह उजाले से संवाद,
शून्य में मोती नहीं जड़ते
और हमारे पास पूछे गए सवालों के
कोई जवाब नहीं होते।

मुझे बोन्साई अच्छे नहीं लगते

mujhe bonsai achhe nahi lagte pranesh nagri pnagri@gmail.com
मैं तुम्हारी ख़ामोशी को गठरी बाँध
काँधे पर उठा लाया हूँ
मैं इस सफ़र को समय के सीने पर
सनद कर देना चाहता हूँ,
वोह देखो तुम्हारे और मेरे
बहस के अनगिनत मुद्दे
सब पीछे छूट गए हैं,
रह गई हैं कुछ घटनाएं
बौनी सी गमलों में उगी
बोन्साई जैसी ।
तुम्हारी आवाज़ दबी उँगलियों से बह कर
कोरे कागज़ पर फैल रही है
और आने वाला समय
इसे एक अनजान घटना नहीं
इतिहास का अछूता मोड़ मान लेगा
कहीं कोई हीर कोई राँझा जन्म लेगा
और भूख से परास्त चीथड़ों से लिपटे
काया के अवशेष विलाप करते रहेंगे
देव कद समय से हारे
गमलों में पड़े बोन्साई जैसे।
मेरी सोंच के सभी दायरों में
तुम भी एक बोन्साई की तरह उगे हो
सच तो यह है कि
मैं शब्दों से हार गया हूँ
इसीलिए कहता हूँ मैं बदल नहीं सकता
यह बातें बस हम तक ही रह जाती हैं
और यह सामान्य घटना से आगे
कुछ भी नहीं हो पाती,
और आने वाला समय
इसे सनद नहीं कर पाता।
हाँ मुझे बोन्साई अच्छे नहीं लगते
क्यूंकि शब्द बौने नहीं होते
शब्द होते हैं देव कद।

मैं जीत के हारता हूँ

mai jeet ke haarta hoon pranesh nagri pnagri@gmail.com
मेरे साए जब टेढ़े मेढ़े हो जाते है
घबरा कर अंग अंग टटोलता हूँ मैं।
धूप की लकीर के उस पार
यादों की दीवार से टेक लगाये
तुम अक्सर मिलती हो मुझे
और कहती हो ,हाँ सोंच लिया मैंने
मौसमों से क्या डरना
चलो चलें सूखे पत्तों के बीच
खुद को एहसास दिलायें
कि अभी भी जी रहे हैं हम।
तुम्हारा पिघलता अस्तित्व देख
मैं मुस्कुरा देता हूँ
मेरी भुजाएं बांस की सही
आकाश से चाँद उतार तह लगा लेता हूँ
और फटे पुराने झोले में रख
तुम से कहता हूँ
मेरी भूख सदियों पुरानी है
और तुम्हारी मुस्कान नयी नवेली
अब जाते जाते ना मुस्कुराना
इस मिट्टी में किसी बीज के
अंकुरित होने की आशा नहीं मुझे
हाँ मैं जीतने से डरता हूँ
क्यूंकि अक्सर मैं जीत के हारता हूँ।

यात्रा

yatra pranesh nagri pnagri@gmail.com
हर रात जब नर्म तकिये पर
अपना सर रख देता हूँ
तो महसूस करता हूँ मन की थकान
आँखें मूँद कर सोंचता हूँ
यह भी एक अनुष्ठान सम्पन्न हुआ।
अपने दाहिने से उठाता हूँ
यह काया का रहस्यमय धड़कता अंग
और रख देता हूँ अपने दूसरे तरफ,
यहीं बस मूल मन्त्र हो सकता है
नित नयी वासना को भोग लगाने का,
यहीं एक मात्र संकल्प हो सकता है
मनुष्य जैसा कुछ होने का।
उषा की पहली किरण के साथ
तोड़ता हूँ इच्छाएं अपने वक्षस्थल से
और पत्थरों को सोंपता हूँ
जैसे पूजा के पुष्प।
मुझे पांडित्य की लालसा नहीं
पर इच्छाएं अपना मौन न तोडें
इन्हें मंदिरों में चड़ा लेता हूँ
जानता हूँ मंदिरों से पुष्प
बस नदियों में विसर्जित होते हैं
उन से वृक्ष नहीं उगते।
निरंतरता की लालसा में
क्षण प्रतिक्षण नए से जीवित हो उठता हूँ
काया का नव निर्माण पुनः करता हूँ
सांसें ,धडकनें चलते रहना अनिवार्य है
क्यूंकि गतिशीलता ही एक मात्र मानक है
गतिहीनता को नापने का।
चेतनता ही जड़ता से
भिन्नता स्थापित करने में समर्थ है।
यह धर्मयुद जिसे प्रति दिन रचता हूँ
मेरी यात्रा के हर पड़ाव पर
मेरे साथ चलता है।
मुझे काटना, जलाना, मारना, संभव नहीं
मैं हूँ और बस मैं ही रहूँगा।'

विस्थापन

visthapan pranesh nagri pnagri@gmail.com
अब के न भूलना सूत्रधार
गोल परिदृश्य के अर्ध वृत्त से
भूमंच के सीमान्त तक,
मेरा वर्णित अस्तित्व
हर चरित्र के माथे पर अंकित है
हर संवाद मेरी हुंकार का शंखनाद है!
मेरी शिखा मात्र मेरा संकल्प नहीं
इसे मेरे वीरत्व की पताका समझ
महाकाल के त्रिशूल पर धरे हैं मेरे नेत्र
मेरी गाथा अंकित है
इतिहास है साक्षी मेरा
सहस्रों वर्ष से निर्वासन में हूँ मैं
फिर भी अंत नहीं हो पाया मेरा
मैं मिटता नहीं पुनः चला आता हूँ
और हे सूत्रधार मैं भूमंच के
गोल परिदृश्य के अर्ध वृत्त से
फिर हुंकार लगता हूँ
और ग्यारह से ग्यारह करोड़ हो
पांडित्य का ऋण चुकाता हूँ !

काशी चिंतन और चुड़ैल

     बीते वर्ष की सर्दियों में बोधि प्रकाशन से प्राणेश नागरी का पहला कविता संग्रह "काशी चिंतन और चुड़ैल" प्रकशित हुआ. काशी चिंतन और चुड़ैल एक संग्रहणीय काव्यकृति है,  इंसान और विधाता से प्रश्न पूछती रचनाये बार-बार पढने योग्य हैं .

kashi chintan aur chudail bodhi prakashan maya mrig pranesh nagri poetry book online shabdankan

     प्राणेश नागरी जी की इन नयी कविताओं को प्रकशित करने के अवसर पर, मैंने बोधि प्रकाशन के निर्देशक श्री मायामृग जी से बात करी, जानना चाह रहा था कि उनकी क्या राय है संग्रह पर. माया जी ने बताया कि सारी रचनाएँ अच्छी ही नहीं बहुत अच्छी हैं और ये भी बताया कि "उन्हें रिश्तों का आतंक" खास पसंद है. आप सब के लिए संग्रह की वह कविता भी प्रकाशित कर रहा हूँ.

     एक बात और - शब्दांकन को मिल रहा प्यार ही आपका आशीर्वाद है, हमेशा देते रहिएगा. मैं अपने वचन "शब्दांकन : निश्छल निष्पक्ष" पर अटल हूँ.


आपका

भरत

रिश्तों का आतंक

नहीं होता आतंक
सिर्फ बारूद से लिपटा
रिश्तों की चमकीली पोशाक
पहनकर भी आता है आतंक,
मीठा गुड़ की डली जैसा
मंद-मंद पुरवैया में
जैसे फूलों लदा महकता झूला
तपते मौसम में सावन
फुहार जैसा
और एक दिन बेसहारा कर देता है
छीन लेता है सब कुछ
अचानक अतीत और आतंक
एक जैसा लगने लगता है
जैसे इस कमरे में क्या है
जिसके साथ नहीं जुड़ा है
विगत काल।
सभी दीवारें और
उन पर
फिसलते साये
सब की सब खिड़कियां
और खिड़कियों से बरसती
छन-छन रोशनी की पतली लकीरें
कोने में लटका मकड़ी का जाल
किताबें, कलम, कागज़
पसीने से सना बिस्तर
बिस्तर के बीचों-बीच मैं
और मेरी खिंची-खिंची सांसें,
सब तुम्हारा नाम लेती हैं
लगता है इन सबके साथ मिलकर
मैंने खुद अपना अपहरण किया है।
सच है आतंक चल कर नहीं आता
अपने भीतर ही कुछ डरावना हो जाता है
और घुट के रह जाने पर मजबूर करता है।
फिर एक दिन यह यादों का आतंक
अतीत से वर्तमान की परिक्रमा करते-करते
हमको अपने आपसे निष्कासित करता है।
और हम समझ जाते हैं
बारूद से ज्यादा रिश्ते आतंकित करते हैं हमें।

माँ कहती है परी हूँ मैं... आँचल उन्नति


आँचल उन्नति

स्नातक दिल्ली विश्वविद्यालय
ब्लॉग: आँचल
संपर्क: avidaanchal@gmail.com

१. " माँ कहती है परी हूँ मैं..."

माँ की प्यारी नन्ही हूँ मैं
माँ कहती है परी हूँ मैं...
माँ का महकता आँचल हूँ,
माँ से ही तो जुडी हूँ मैं.
माँ कहती भूल बुरी बात,
तू कर एक नयी शुरुआत.
माँ बनती हर वक़्त ढाल,
रखती क्यूँ है इतना ख्याल.
माँ की प्यारी नन्ही हूँ मैं
माँ कहती है परी हूँ मैं...
हर गलती पर माफ़ वो करती,
मांगे पर भी सजा ना देती.
मेरी तो पूरी दुनिया हैं माँ
भोली निराली सबसे प्यारी माँ...
माँ की प्यारी नन्ही हूँ मैं
माँ कहती है परी हूँ मैं...


२. रात में बातें अलबेली होती हैं

यूँ तो रात अकेली होती है
लेकिन इस रात में बातें अलबेली होती हैं
रात का सन्नाटा कई यादें साथ लाता है
कुछ पुरानी,
कुछ नयी,
कुछ अनकही,
कुछ अनसुनी का एहसास लाता है
कभी उदास करती ये यादें दिल को
कभी चेहरे पे एक मीठी मुस्कान छोड़ जाती है
आती रहो ऐसे ही रात तुम
करती रहो ढेर सारी बात तुम
उसी मासूमियत उसी रूमानियत के साथ
ऐ रात!
तुम्हार इंतज़ार
हर रोज़ होता है...


३. देखो तो

अपनी परिपक्वता को कभी
मेरी मासूमियत की चाशनी में घोल के देखो तो...
अपनी समझदारी को कभी
मेरे पागलपन के साथ कैद करके देखो तो...
मेरी बेवकूफाना, बचकाना, उत्साही हरकतें
सिर्फ तुम्हारे लिए है...
अपनी रम्यता को कभी मेरे भोले दीवानेपन के साथ संजो कर देखो तो...

बिट्टू की मुलाकात (संस्मरण) - ड़ॉ प्रीत अरोड़ा

preet arora with Tejendra Sharma

    जीवन में जब हम किसी ऐसे व्यक्ति के सम्पर्क में आते हैं जो किसी क्षेत्र विशेष में अपना अमूल्य योगदान देकर अपने देश ,भाषा ,सँस्कृति व सभ्यता की सेवा करने में तन – मन से समर्पित होता है तो उसके प्रति हमारे हृदय में अगाध श्रद्धा और प्रेम –भाव होता है .ऐसे व्यक्ति से रूबरू होने की उत्सुकता स्वाभाविक ही है . देशकी महान् विभूतियों में साहित्य के क्षेत्र के अन्तर्गत श्री तेजेन्द्र शर्मा न केवल साहित्य जगत में एक प्रसिद्ध लेखक के रूप में जाना –पहचाना नाम है अपितु उन्होंने अभिनय के क्षेत्र में भी सफल पहचान बनाई है और उनके व्यक्तित्व की सबसे बड़ी खूबी ये है कि वे एक अच्छे व नेकदिल इन्सान भी हैं .

    यूँ तो मैं अपने अध्ययन काल से ही तेजेन्द्र शर्मा जी की रचनाएँ अक्सर पढ़ा करती थी परन्तु उनसे इन्टरनेट के माध्यम से दो वर्ष पूर्व ही मेरा सम्पर्क हुआ . सौभाग्यवश मुझे तेजेन्द्र जी का साक्षात्कार लेने का सुअवसर प्राप्त हुआ . साक्षात्कार में लिए गए प्रश्नों के द्वारा मैं उनके जीवन-दर्शन से और भी अधिक प्रभावित हुई . अब तो दिन –प्रतिदिन उनसे मिलने की लालसा मन के भीतर बढ़ती ही जा रही थी . तेजेन्द्र जी हमेशा मुझे ‘ बेटी ’ के रूप में प्यार , अपनत्व और ढ़ेरों आशीर्वाद देते हुए “ बिट्टू” नाम से सम्बोधित करते थे . ये “ बिट्टू ” शब्द जैसे मेरे मन की अतल गहराइयों को छू जाता और फिर मैं तेजेन्द्र जी को लेखन के क्षेत्र में अपना गुरू और मार्ग-दर्शक भी मानने लगी . मेरी ईमेल ,फेसबुक व फोन के जरिये अक्सर तेजेन्द्र जी से बातचीत होने लगी . साक्षात्कार लेने के उपरांत जल्दी ही मुझे उनकी कहानी ‘ अभिशप्त ’ की समीक्षा करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ . मेरे द्वारा लिया गया उनका साक्षात्कार और उनकी कहानी अभिशप्त की गई समीक्षा का ‘ बातेँ ’ व हिन्दी की वैश्विक कहानियाँ ( संदर्भ : तेजेन्द्र शर्मा का रचना संसार ) नामक पुस्तकों में प्रकाशित होना मेरे लिए किसी अमूल्य उपहार से कम न था .

    हाल ही में ड़ी .ए .वी गर्ल्स कालेज , यमुनानगर (हरियाणा ) में आयोजित ‘दूसरे अन्तरराष्ट्रीय प्रवासी साहित्य सम्मेलन ’ में मुझे तेजेन्द्र जी के भारत आने और इसमें शिरक्त करने की खबर पता चली . इस खबर से मेरी प्रसन्नता का ठिकाना न रहा क्योंकि इस सेमिनार में मुझे भी पत्र – वाचन के लिए अजय नवरिया जी द्वारा आमंत्रण पत्र मिला. मैं अक्सर जिस व्यक्ति से मिलने के सपने बुना करती थी . उन सपनों को साकार होने में अब देरी न थी . इस सेमिनार में मैं अपने पिता जी के साथ गई . वहाँ मेरी मुलाकात विदेशों से आए अनेक साहित्यकारों से हुई परन्तु मेरी आँखें सिर्फ और सिर्फ तेजेन्द्र जी को ढ़ूँढ़ रही थी . अचानक मेरे कानों में वही चिर –परिचित तेजेन्द्र जी की मधुर आवाज़ सुनाई पड़ी . मैंने पलट कर देखा एक हँसता –खिलखिलाता , तेजस्वी चेहरा भीड़ में सबसे अलग ही था . बड़े खुले दिल और गर्मजोशी से तेजेन्द्र जी ने हमारा स्वागत किया . तेजेन्द्र जी ने वहां उपस्थितअपने ही अक्स यानी कि अपनी बेटी दीप्ति और सुप्रसिद्ध लेखिका जाकिया जुबैरी जी से परिचय करवाया. दो दिन के इस कार्यक्रम में मैंने तेजेन्द्र जी को सबसे सहज भाव प्रेमपूर्वक बातचीत करते देखा . मैं चकित थी कि दुनिया में क्या ऐसे भी इन्सान हो सकते हैं जो बुलन्दियों पर पहुँचने पर भी अहं भाव नहीं रखते . देखने में तो लेखक भी दूसरे व्यक्तियों की तरह साधारण व्यक्ति होता है परन्तु उसका आन्तरिक व्यक्तित्व कुछ ऐसी विशेषताएं लिए होता है जो उसे आम जनमानस से अलग करती हैं . तभी तो उनकी मेहनत , अथक प्रयास , लगन व अदम्य साहस दूसरों के लिए एक मिसाल कायम कर देती है . तेजेन्द्र जी के व्यक्तित्व में उनकी स्नेहिल प्रकृति , जिन्दादिली व खुशमिज़ाजी और उनके कृतित्व में कठोर परिश्रम , भाषायी प्रेम व साहित्य-साधना निश्चित रूप से हमारे लिए प्ररेणा स्त्रोत है .

    मूलतः भारतीय होते हुए भी तेजेन्द्र जी विदेश में रहकर अपनी लेखनी के माध्यम से समाज को एक नई दिशा प्रदान कर रहे हैं . मेरा मानना है कि एक लेखक व साहित्यकार किसी भी परिवेश परिधि में बँधा हुआ नहीँ होता क्योंकि उसका मूल उद्देश्य समाज व देश को सही दिशा देना है . आज विदेश में रह रहे भारतीय रचनाकारों को ‘ प्रवासी रचनाकार ’ उन्हें अलग से श्रेणीबद्ध करना कहाँ का न्याय है ? इसलिए आज प्रवासी साहित्य को किसी दायरे में सीमित करने या भारत में लिखे जा रहे साहित्य से अलग करके देखने की जरूरत नहीं है अपितु जरूरत है उस मानवीय सम्वेदनाओं से रूबरू होकर उन्हें महसूस करने की जिनका ज्रिक ये भारतीय रचनाकार विदेशों में रहकर कर रहे हैं .इसका बेमिसाल उदाहरण हैं श्री तेजेन्द्र शर्मा जी . तेजेन्द्र शर्मा जी से हुई ये पहली मुलाकात मेरे हृदय पर अमिट छाप छोड़ गई जिसे मैं कभी नहीं भूल सकती .

ड़ॉ प्रीत अरोड़ा मोहाली Dr-Peet-Arora

डॉ.प्रीत अरोड़ा

मोहाली
पँजाब — 140301
फोन: 08054617915
ब्लॉग:

डॉ सरस्वती माथुर की कवितायेँ

डॉ सरस्वती माथुर

डॉ सरस्वती माथुर

प्राचार्य - पी .जी. कॉलेज
एम. एस. सी. (प्राणिशास्त्र) पीएच.डी , पी. जी .डिप्लोमा इन जर्नालिस्म (गोल्ड मेडलिस्ट)

... विस्तृत परिचय 







नारी भी होती है एक गुलाब सी !


dr_saraswati_mathur_jaipur_kavitayen_shabdankan डॉ सरस्वती माथुर जयपुर कवितायेँ शब्दांकन
नारी भी होती है
एक गुलाब सी
अलग अलग रंगों में
आभा बिखेरती है
सुगंध बांटती है
प्रकृति महकाती है
गुलाब-जल सी ठंडक देती है
गुलाब का सौन्दर्य
सभी को लुभाता है
लाल, पीले, सफ़ेद, रंग
एक नयी अनुभूति की
भाषा गढ़ते हैं
प्रकृति की धारा में
बुलबुले सी उठती गिरती
रंगीन गुलाब की
पतियों का भी
एक अलग ही रस होता है
सच गुलाब
मन को कितना मोहता है ?
अलग अलग रूपों में
रंगों में, महक में
तभी तो कहते हैं हम कि
नारी भी होती है
एक गुलाब सी
जो अलग अलग रंगों में
रूपों में,
माँ बेटी पत्नी बहिन सी
प्रकृति में महकती हैं और
पक्षियों की मीठी बोली सी
हमारे घर आँगन में
चह्कती है और
गुलाब की पत्तियों सी
वह भी जब झरती है तो
सुगंध की पुरवा हमारे
इर्द गिर्द बिखेर कर
वातावरण को
सुवासित कर
स्वर्गीय आनंद से
हमें भर देती है
तो आओ इसकी महक को
महसूस करें और
जीवन में भर कर
इस सुवास को
फैलने दें, फैलने दें,
बस फैलने दें !


पिता के ख़त !


dr_saraswati_mathur_jaipur_kavitayen_shabdankan डॉ सरस्वती माथुर जयपुर कवितायेँ शब्दांकन
पिता तुम्हारे ख़त
खिले गुलाब से
मेरे मन आँगन में
आज भी महक रहे हैं
जब भी उदासी की बारिश में
भीगती हूँ
छतरी से तन जाते हैं
सपना देखती हूँ तो
उड़न तश्तरी बन
मेरे संगउड़ जाते हैं
जादुई चिराग से
मेरी सारी बातें
समझ जाते हैं
पिता तुम्हारे ख़त
मेरी उर्जा का स्त्रोत हैं
संवादों का पुल हैं
कभी भी मेरी उंगली थाम
लम्बी सैर पर निकल जातें हैं
पिता तुम्हारे ख़त
पीले पड़ कर भी
कितने उजले हैं
रातरानी से
आज भी महकते हैं
पिता तुम्हारे ख़त
अनमोल
रातरानी के
फूलों से
खतों के शब्द
ठंडी काली रातों में
एक ताजा अखबार से हैं
पिता तुम्हारे ख़त
ख़त समाचार भरें हैं
उसमे परिवार ,समाज ,देश
एक कहानी से बन गए हैं
इतिहास से रहते हैं
उनके भाव
हमेशा मेरे पास/ जिन्हें
सर्दी में रजाई सा ओढ़ती हूँ
गर्मी में पंखा झलते हैं
पिता तुम्हारे ख़त
बारिश में टपटप
वीणा तार से बजते हैं
इसके संगीत की ध्वनित तरंगें
मेरा जीवन रथ है
इसके शब्दों को पकडे
तुम सारथी से मुझे
सही राह दिखाते हो
इन्हें सहेज कर रखा है
आज भी मैंने
कह दिया है
अपने बच्चों से कि यह
मेरी धरोहर हैं
जो आज भी मेरा
विश्वास है /कि
मेरे पिता मेरे जीवन का
सारांश हैं
बहुत खास है
पिता तुम्हारे ख़त


एक अजन्मी बेटी का निवेदन !


dr_saraswati_mathur_jaipur_kavitayen_shabdankan डॉ सरस्वती माथुर जयपुर कवितायेँ शब्दांकन
माँ
वक्त आ गया है
अब तुम्हारी परीक्षा का
मेरी सुरक्षा का
अजन्मे व्यक्तित्व को अब
गरिमा देनी होगी क्यूंकि
मैं भी तो हूँ/ ब्रह्म का अंश
बेटे जन कर देती हूँ वंश
फिर बेटे बेटी की कसौटी पर
क्यों करता है समाज
मेरा मूल्यांकन/ क्यूँ नहीं करता
मेरी क्षमताओं का आकलन
माँ तेरे आँचल में तो
ममता है
फिर इस परिवेश में
क्यूँ नहीं समता है ?
मेरा निवेदन बस
इतना भर है
तेरी कोख अभी
मेरा घर है
तू मेरी पैदाइश कर दे
मेरे जन्म को अपनी
ख्याइश कर दे
इतनी बस समझाइश कर दे
चुनौतियों की इस डगर पर
नई शुरुआत कर सकूँ
सरस्वती ,लक्ष्मी और दुर्गा का
साक्षात् रूप धर सकूँ इसलिए
अब वक्त आ गया है कि
सीपी बन कर तुम
संपुट की आभा दे दो
फिर मोती बन कर निकलूंगी
सूरज सी चमकूंगी
,माँ, मुझ पर तुम्हारा
कर्ज रहेगा पर
तुम्हारे विश्वास की
किश्तें चुकाना
मेरा फ़र्ज़ रहेगा
फ़र्ज़ रहेगा
फ़र्ज़ रहेगा !


स्वप्न सृष्टि !


dr_saraswati_mathur_jaipur_kavitayen_shabdankan डॉ सरस्वती माथुर जयपुर कवितायेँ शब्दांकन
आसमान पर मंडराती
चिड़िया मुझे
कभी कभी बहुत लुभाती है
सपनो में आकर
अपने पंख दे जाती है
मैं तब उड़ने लगती हूँ
गगनचुम्बी इमारतों पर
निरंतर शहर में
विस्तरित होते गाँवों
,खेतों ,खलिहानों पर
हवाओं की लहरों संग
बतियाते फूलों पर
आकाशी समुन्द्र की
बूंदों से अठखेलियाँ करती
आत्मस्थ होकर
उड़ते उड़ते मेरी
मनचाही उड़ान
मुझमें विशवास की
एक रौशनी भर देती है /और
मैं उड़ जाती हूँ
अनंत आकाश में
धरती से दूर वहां
जिन्दगी को
गतिमान रखने को
सपने पलते हैं और
मैं उतर कर उड़ान से
एक नीड ढूँढती हूँ
जहाँ सुरक्षित रहें
जंगलों का नम हरापन
बरसाती चश्मा
ऊँचें पहाड़
गहरी ठंडी वादियाँ
पेड़ ,नदी ,समुन्द्र और
पेड़ों पर चह्चहाते -
गीत गाते रंग बिरंगे परिंदे
नित्य और निरंतर
गतिशील लय की
अनंतता में बस
अनंतता में !


आओ बेटी !


dr_saraswati_mathur_jaipur_kavitayen_shabdankan डॉ सरस्वती माथुर जयपुर कवितायेँ शब्दांकन
मन के झुरमुट के
उस पार से
एक अनुगूँज है आती कि
बेटी होती है
गुलाब की पंखुड़ियों सी
घर आँगन है महकाती
तभी तो दुर्गा रूप कहलाती
आओ बेटी सच
झरना ही तो हो तुम
मीठे पानी का
कलकल बहती जाओ
मरुस्थल के जल सी
सबकी प्यास बुझाओ
पाखी सी दूर गगन तक
पंख पसार कर
उन्मुक्त उडो तुम और
आच्छादित कर लो
सतरंगी आभा से
अपने जीवन का
सुंदर आसमान
भर कर वहां
तने इन्द्रधनुष के रंग
अपने जीवन में भर लो
याद रखना बेटी
मैं माँ हूँ पर एक
दोस्त की तरह हमेशा
तुम्हारे साथ रहूंगी
एक परछाई सी
संग चलूंगी
तुम मेरे जीवन नभ का
झिलमिलाता एक चाँद हो
तुम्हारी चांदनी से आओ
मैं अपना घर भी
रोशन कर लूं
जब सुबह हो तब तुम
भोर किरण सी
मेरे आँगन में
धूप सी फ़ैल जाना
और नीम डाली पर बैठ कर
मुझे आशा का
नवगान सुनाना
प्यारी बेटी
राजरानी हो तुम मेरी
एक मौसम हो तुम
बसंत का, देखना तुम
महसूस करोगी कि
हवा के ठंडे झोंके सी
इर्द गिर्द फैली हूँ
मैं तुम्हारे
एक पारदर्शी आवरण सी !
सृज़न के उन्माद में
सकपकाई सी
एक चिड़िया आई
ताकती रह देर तक
पतझड़ के झड़े
भूरे पतों को
हवा बुहार रही थी
तब सन्नाटा
अटक गये थे चिड़िया के
सुर भी कंठ में पर
मौसम के गलियारों में
महक थी सूखे पत्तों क़ी
उम्मीद थी जल्दी ही
फिर फूल आयेंगे
तितलियों उनमे
ताजगी तलाशती मंडराएगी
कोयलें कूकती
हरियाली पी लेंगी
सृज़न के उन्माद में
फिर फूटेंगे अंकुर
फुलवारी में उगेगा
इन्द्रधनुष
रंग - बिरंगी तितलियों का
चिड़िया ने भी
अपने से संवाद किया कि
अब आ गया है वक्त
घरोंदा बनाने का
इस विश्वास के साथ
उल्लासित हो
वो उड़ गयी
बसंत के बारे में
सोचेते हुये !


सच !


dr_saraswati_mathur_jaipur_kavitayen_shabdankan डॉ सरस्वती माथुर जयपुर कवितायेँ शब्दांकन
सच की रंग बिरंगी चिड़ियां
मुझे बहुत भाती है
सच मुझे बहुत प्रेय.है
उसकी महक मुझे
फूल सी महकाती है
सच अपने आप में
एक इश्वर है
जो पत्थर की अहल्या को
मानवी बना देता है
सच का ओज अग्नि तत्व
स्वयं एक शक्ति है
श्रेय है
केवल समिधा नहीं
पूर्ण महायज्ञ है !


साथ निभाना !


dr_saraswati_mathur_jaipur_kavitayen_shabdankan डॉ सरस्वती माथुर जयपुर कवितायेँ शब्दांकन
दिन ढलते ह़ी
ड्योढ़ी पर सांकल
खटखटाती रही हवा
घर पर सुस्ताते
थके मांदे लोगों से
जाने क्या क्या
बतियाती रही हवा
दूर खड़ा था कोलाहल
मनुहार करता सन्नाटे से कि
अब तुम करो पहरेदारी
मैं समेटे आवाज़ों को सोता हूँ
शहर -गाँव थके पसरे से
नींद की तारों वाली
बंधेज ओढा इन्हें
छवांता हूँ आँगन में
चाँद की कंदील टांग
तब तक जागना दोस्त
जब तक कि भोर की
पंखुडियां बरसा कर
फिरकनी सी चिड़ियाँ
चहक कर फिर से
मुझे न जगा दें
तब तक साथ निभाना दोस्त !


रिश्तों के पन्ने पलटते हुए !


dr_saraswati_mathur_jaipur_kavitayen_shabdankan डॉ सरस्वती माथुर जयपुर कवितायेँ शब्दांकन
हस्ताक्षर न बन पाए हम तो
अंगूठे बन कर रह गये
सत्य ने इतनी चुराई आँखे कि
झूठें बन कर रह गये
बेबसी के इस आलम को क्या कहें
बांध नहीं सके जब किसी को
तो खुद खूंटे बन कर रह गये
रिश्तों के पन्ने पलटते हुए
दर्द कि तलवारों के हम
बस मूढे बन कर रह गये
सत्य ने चुराई इतनी आँखें
कि बस झूठें बन कर रह गये
कांच की दीवारें खींच कर
रिश्तों के पन्ने पलटते रहे
अपनों ने मारे जब पत्थर
तो किरचों के साथ
टूटे फूटे बनकर रह गये
लहुलुहान भावनाओं से
ज्वारभाटे उठने लगे
हम शांत समुंदर
बन कर रह गये
सत्य ने चुराई इतनी आँखें
बस झूठे बन कर रह गये !


नन्ही चिड़िया !


dr_saraswati_mathur_jaipur_kavitayen_shabdankan डॉ सरस्वती माथुर जयपुर कवितायेँ शब्दांकन
वह नन्ही चिड़िया थी
धूप का स्पर्श ढूँढती
फुदक रही थी
अपने अंग प्रत्यंग समेटे
सर्दी में ठिठुर रही थी
रात भर अँधेरे में
सिकोड़ती रही अपने पंख
पर रही
प्रफुल्लित, निडर और तेजस्वी
जैसे ह़ी सूरज ने फेंकी
स्नेह की आंच
पंख झटक कर
किरणों से कर अठखेलियाँ
उड़ गयी फुर्र से
चह्चहाते हुए
नई दिशा की तलाश में !


तुम मौसम बुला लो


dr_saraswati_mathur_jaipur_kavitayen_shabdankan डॉ सरस्वती माथुर जयपुर कवितायेँ शब्दांकन
तुम मौसम बुला लो
में बादल ले आऊं
थोड़ी सी भीगी शाम में
फूलों से रंग चुराऊं
तुम देर तक गुँजाओ
सन्नाटे में नाम मेरा
मैं पहाड़ पर धुआं बन
साये सी लहराऊं
वक्त रुकता नहीं
किसी के लिये
यह सोच कर
मैं जीवन का काफिला बढ़ाऊं
तुम लहरों की तरह बनो बिगडो
मैं चिराग बन आंधी को आजमाऊं
तुम मौसम बुला लो
मैं बादल ले आऊं
तुम परात में भरो पानी
मैं चाँद ले आऊं!'
तुम मौसम बुला लो
मैं बादल ले आऊं !


नव स्पर्श से !


dr_saraswati_mathur_jaipur_kavitayen_shabdankan डॉ सरस्वती माथुर जयपुर कवितायेँ शब्दांकन
मेरे सपनों के जंगल में
मैं लगातार देख रही थी
झुण्ड के झुण्ड झरे पत्ते
यूँ लग रहे थे
मानों हार गये हों युद्ध
अपनी चरमराती आवाज में
उड़ जाने को तैयार
पार्श्व में दिख रहा था`
अभिलाषाओं से भरा जीवन
और तभी नींद टूट गयी
अपने नव स्पर्श से
छू रही थी मुझे भोर
और फिर एकाएक
मेरे सपने पृथ्वी हो गये
चक्कर काटने लगे
अभिलाषाओं के उदित होते
सूर्य के चारों ओर !


गीत गोविन्द लिखे !


dr_saraswati_mathur_jaipur_kavitayen_shabdankan डॉ सरस्वती माथुर जयपुर कवितायेँ शब्दांकन
बसंत के कोरे पृष्ठों पर
फागुन पीले गीत लिखे
मौसम में फूल खिला कर
बगिया के अनुकूल
हर पल नया संगीत लिखे
कूके कोयल डाली डाली
शब्दों को बांध कर सुर में
हरी भरी धरती पर
हतप्रभ मौसम को निहारती
चिड़ियां पंख फड़फड़ा कर
शस्य डाल पर
खुशबू की तरह
नववर्ष का नव सृजन का
मंगलदीप जला कर
गये साल की विदाई पर
अभिनन्दन शुभागमन का
फिर फागुनी गीत गोविन्द लिखे !


बसंत - बसंत !


dr_saraswati_mathur_jaipur_kavitayen_shabdankan डॉ सरस्वती माथुर जयपुर कवितायेँ शब्दांकन
मैं बसंत हूँ
बसंत- जो तितली की तरह
उडता है
आम अमरूदों के
दरख्तों पर
फागुनी दोपहर में
एक चित्र बनाता है
धूप की कलम से
गुनगुन संगीत का
सृजन करता है
सुबह की पहली किरण सा
जाग कर चहचहाता है
पक्षियों सा
कभी फूलचुही सा
मंडराता है फिजां में
महकता है गुलाब सा
और फिर कभी सूरज सा
चढ़ते हुए आसमान पर
बिखर जाता है
धूप के टुकड़े सा
फैला कर फूलों पर
इन्द्रधनुषी रंग
दस्तक देकर
फागुनी मौसम की
दूर कहीं कोयल भी
गा उठती है
मधुर स्वर में
बसंत... बसंत...!


स्वागत सर्दी का !


dr_saraswati_mathur_jaipur_kavitayen_shabdankan डॉ सरस्वती माथुर जयपुर कवितायेँ शब्दांकन
गुनगुनी धूप में
धुआँ धुआँ सी
घूम रही है
मुखरित सी पुरवाई
नववर्ष के द्वारे देखो
मनभावन सी
सर्दी आई
अलाव की लहरों पर
पिघलती कोहरे की परछाई
तितली तितली मौसम पर
गीत सुनाती
शरद ऋतु की शहनाई
नववर्ष के द्वारे देखो
मनभावन सी सर्दी आई
प्रकृति की नीरवता में
आसमान है जमा जमा सा
पुष्पित वृक्षों पर सोया है
सुबह का कोहरा घना घना सा
उनींदे सूर्य से गिरती ओस की
बूंदों से लिपटा
सुरमई सा थमा थमा सा
जाग उठा मुक्त भाव से
मौसम ने कसमसा कर
अमराई में ली अंगडाई
नववर्ष के द्वारे देखो
मनभावन सी सर्दी आई !


मन की किताब में !


dr_saraswati_mathur_jaipur_kavitayen_shabdankan डॉ सरस्वती माथुर जयपुर कवितायेँ शब्दांकन
कुछ मौसम मैंने संभाल रखें हैं
मन की बगिया में उतार रखें हैं
जो रंगीन तितलियों से उड़ते हैं
टिटियाती चिड़ियों के सुरों में
मधुर गीत भी बुन के रखें हैं
जो दिन भर मंजीरों से बजते हैं
रंगीन रिश्तो के आइनों के भी
रंग किर्चों से निकाल रखें हैं
बिखरे पंख यादों के पाखी के
मन - किताबों में संभाल रखें हैं !


नदी हूँ मैं मिठास भरी !


dr_saraswati_mathur_jaipur_kavitayen_shabdankan डॉ सरस्वती माथुर जयपुर कवितायेँ शब्दांकन
मैं भी हूँ एक नाव सी
तेज हवा में चलती हूँ
शाम का सूरज हूँ मैं
सागर में जा ढलती हूँ
सावन की भीगी रात में
चंचल पुरवा सी बहती मैं
तरुओं से बातें करती हूँ
जीवन की बरसती बरखा में
सीली सीली सी रहती हूँ
दीवार पे टंगा कैलेंडर हूँ मैं
तारीख सी रोज बदलती हूँ
आसमा को मुट्ठी में बाँध सकूँ
तो पैरों को ऊँचा करती हूँ
दूर मंजिल तक जाना हो तो
विश्वास के डग मै भरती हूँ
आँधियों में भी मैं हरदम
एक लौ बन करके जलती हूँ
नदी हूँ मै मिठास से भरी
खारे सागर जा घुलती हूँ!


एक बुजुर्ग !


dr_saraswati_mathur_jaipur_kavitayen_shabdankan डॉ सरस्वती माथुर जयपुर कवितायेँ शब्दांकन
अकेलेपन के सूरज को
रुक कर देखता
एक बुजुर्ग
क्षण और घंटे गुजरते जाते हैं
समय की आराम कुर्सी पर
किताबों को पलटते हुए
रुक कर देखता है
एक बुजुर्ग
उस दरवाजे की ओर
जहाँ से शायद आये
उसका बेटा या बहू ,
बेटी या पोता और
हाथ में हो चश्मा
जिसकी डंडी
बदलवाने के लिए
पिछले महीने वो
जब आये थे तो
यह कह कर ले गए थे कि
कल पहुंचा देंगे
हर आहट पर
चौंकता है एक बुजुर्ग
दरवाजा तो दीखता है पर
बिना चश्मे किताब के अक्षर
देख नहीं पाता
हाँ "ओल्ड होम" की निर्धारित
समय सारिणी के बीच
समय निकाल कर
पास बैठे दूसरे बुजुर्ग का
हाथ पकड कर
उस इंतज़ार का
हिस्सा जरुर बनता है!


उनकी मुस्कान !


dr_saraswati_mathur_jaipur_kavitayen_shabdankan डॉ सरस्वती माथुर जयपुर कवितायेँ शब्दांकन
और अब वे अपने
अंतिम चरण में थी
,बुजुर्ग जो थीं
उन्हें मालूम था कि
यह नियति है और
वे इंतज़ार में थी
अब देर तक बगीचे में
काम करती हैं
स्कूल से लौटे
पोते पोतियाँ के जूतों से
मिटटी हटा कर खुश होती हैं
उनके धन्यवाद को पूरे दिन
साथ लिए, मुड़े शरीर के साथ
लंगडाते हुए, इधर- उधर घूमती हैं
याद करती हैं ,तालियों की
उन गूंजों को
जो समारोह में उनकी
कविताओं के बाद
देर तक बजती थीं
अपने हमउम्र दोस्तों के साथ
सत्संग में बैठ कर
भजन सुनते हुए सोचती थीं
उन दिनों को
जब घडी की सुइयां
तेज दौडती थीं और
वे उसे रोक लेना चाहती थीं
अब वे अपने कमरे की
खिड़की से दिखते
समुन्द्र को देर तक
निहारते सोचतीं थीं कि
वक्त कहाँ बाढ़ की तरह
बह गया और
यह सूरज भी
कितना कर्मठ है
रोज थक कर
डूबता है और
तरोताजा होकर
उगता है
यह सोचते ही
उनके पूरे शरीर में
सूरज की प्रथम
किरणों की तरह
जीने की उमंग
कसमसाने लगती है और
पूरे दिन एक
मुस्कान की तरह
उनके होंठों पर
तैरती रहतीं है !


जीना इसी का नाम है !


dr_saraswati_mathur_jaipur_kavitayen_shabdankan डॉ सरस्वती माथुर जयपुर कवितायेँ शब्दांकन
वो इतने बूढ़े थे कि
उनकी हड्डियाँ
उनकी त्वचा में
तैरती थीं
मैं उनमे अपने आपको
डूबता सा महसूस करती थी
वो इतने कमजोर थे
जितने नवजात शिशु के पैर
पर उनकी मुस्कान
इतनी गहरी थी कि
उसमे मैं नदी की सी
कलकल सुनती थी
जो उनके होठों के चारों तरफ
सांसों से गुजरती थी और
वो इतने तैयार थे कि
मुझे समुन्द्र से भी गहरे
गंभीर और अथाह दिखते थे,
सच- मुझे लगता था कि
जीना इसी का नाम है !


चिड़िया सा मन !


dr_saraswati_mathur_jaipur_kavitayen_shabdankan डॉ सरस्वती माथुर जयपुर कवितायेँ शब्दांकन
सुरमई मौसम
भीगी हवाएं
चिड़िया सा मन
उड़ उड़ जाये
नदी की कलकल
गीत बुने तो
सागर सा मन
झर झर जाये
प्रीत रिश्ते
लगाव के क्षण
तेरी याद तो
हर पल आये
रेत आँचल में
सांझ भीगी सी
डूबते सूरज से
घुल मिल जाए


सपने सजाना है !


dr_saraswati_mathur_jaipur_kavitayen_shabdankan डॉ सरस्वती माथुर जयपुर कवितायेँ शब्दांकन
जीवन नदी
मन मंदिर
बजते हैं जिसमे
घंटे यादों के
एक चहकती
श्याम गौरैया से
फूल पे महकती
हवा जुगनू से
मन रोशन हैं
मुरादों के
लेकिन कुछ पाना है
सब भूल जाना है
मासूम नींद में
सपने सजाना है
कुछ बन दिखाना है
साथ वादों के
शीशे से जीवन को
पत्थर करना है
समय हाशियों पे
संग इरादों के


श्रम का अभिमन्यु !


dr_saraswati_mathur_jaipur_kavitayen_shabdankan डॉ सरस्वती माथुर जयपुर कवितायेँ शब्दांकन
घर उदास
रिश्ते मलंग
देर तक लड़ी
समय की जंग
चक्रव्यूह धन
श्रम का अभिमन्यु
राह ढूंढता
बाहर आने की
मिल गयी सुरंग
अनुभव की किताब
पढने से पहले
पढना होगा
प्राक्कथन
मन हुआ दबंग
जीवन में
जो भी पाया
मन में भरा रंग