आज अचला बंसल का जन्मदिन है, उनकी बड़ी बहन मृदुला गर्ग को उनकी कहानी 'वैनिला आइसक्रीम और चॉकलेट सॉस' बहुत पसंद है। अचलाजी को बधाई देते हुए पढ़ें -
हिन्दी अनुवाद: प्रियदर्शन

रत्ना सेठ को खाना पकाना अच्छा लगता था, उससे भी अच्छा लगता था खाना। मेज़ की सफ़ाई शुरू करते हुए वह संतोष के साथ मुस्कुरायी। खाना बढ़िया था। होना ही था, आखिर यह उसका आखिरी खाना था। उसने देर तक मेनू पर सिर खपाया था। कई चीजें उसे खूब पसंद थीं- चिकन बिरयानी, मलाई कोफ्ता, शाही पनीर... लिस्ट अनंत थी। लेकिन वह एक ही दिन में सारी चीजें खा तो नहीं सकती थी। खा सकती थी क्या? इसलिए एक बार निर्णय कर लेने के बाद वह पूरे हफ्ते पकाती और खाती रही। आज, जब काफी उद्वेग के साथ उसने अपना वज़न लिया और पाया कि उसके डरावने मोटापे में दो किलो का इज़ाफा हो चुका है, तो उसने मन बना लिया। आज ही ये करना है, अब वह और देर नहीं कर सकती।
ऐसे ही उसने डाक्टर के पास जाने की नहीं सोची थी। हाल में उसे कुछ कमजोरी महसूस हो रही थी, और उसने डॉक्टर के क्लिनिक में प्रवेश करने से पहले सोचा था, 'बस कुछ विटामिन से दुरुस्त हो जाएगी।' लेकिन डाक्टर ने विटामिन नहीं दी, उसने पूछा था, 'परिवार में डायबिटीज़ की कोई हिस्ट्री?'
'मेरे पापा...' वह धीरे से बोली, 'क्या आपको लगता है...?'
'पहले ये टेस्ट करा लें, फिर देखते हैं,' डॉक्टर ने सहजता से कहा था। बाहर निकलते ही वह घबरा गई थी। 'मुझे कुछ नहीं हुआ है,' वह खुद को दिलासा दे रही थी। लेकिन वह परेशान थी। 'क्या होगा, अगर पापा की तरह उसे भी...' उसने जाकर सारे टेस्ट कराए।
'आपको डायबिटीज़ है,' डॉक्टर ने फैसला सुना दिया। उसे लगा, ये सज़ाए मौत है। वह कुर्सी पर निढाल हो गई। चेहरा सफेद हो चुका था, पसीने से लथपथ।
'घबराने की बात नहीं है,' डॉक्टर ने समझाया, 'हम आपका ध्यान रख लेंगे। बस आपको कोऑपरेट करना होगा। आप बुरी तरह ओवरवेट हैं। मैं चाहता हूँ...' वह बतलाता रहा।
'अगर मैं आपकी हिदायतें न मानूं तो?' उसने हिम्मत जुटाते हुए कहा था।
'इस तरह तो आप ज्यादा दिन बचेंगी नहीं।' डॉक्टर ने कंधे झटकते हुए कहा।
'मुझे मौत से डर नहीं लगता।' उसने ढिठाई से कहा।
'आपको हार्ट अटैक हो सकता है। पैरालिसिस हो सकता है,' उसने रूखेपन से कहा। उसका खून जम गया। 'लेकिन ऐसा नहीं होगा, अगर आप वो करें जो मैं कहता हूँ।' वह क्लिनिक से फौरन निकल आई थी।
उसने डॉक्टर के साथ हुई बातचीत को किसी बुरे सपने की तरह भुलाने की कोशिश की। यह सच नहीं था। यथार्थ की यह गंध उसके नथुनों पर छा जाती, जब भी वह लज़ीज़ केक बनाती या फिर चिकन बिरयानी पकाती। लेकिन जब भी वह खाने बैठती और दूसरी-तीसरी बार परोसती, डाक्टर के शब्द उसके कानों में गूंजते। उसने बहुत कोशिश की, लेकिन इसे मिटा नहीं सकी।
कमबख्त कैसे वो मुझसे इतना वज़न घटाने की उम्मीद रख रहा है, वह भन्ना रही थी। उसने एक्सरसाइज और डाइटिंग करने की सलाह दी थी। उसकी सुझाई हुई खुराक पर तो उसके लिए ज़िंदा रहना भी मुश्किल हो जाता। लेकिन तब, अगर उसकी मां की भविष्यवाणी सच हो गई तो?
वह देर तक टहलने लगी। लेकिन जब लौटती तो भुक्खड़ हो जाती। पहले से ज्यादा खाती। और मिठाई के बिना उसका काम नहीं चलता। बीते दस साल से, अपने पति के देहांत के बाद, वह इसी में डूबी रही थी। उसे मीठा अच्छा लगता है, बचपन से ही सुनती आई थी। और पापा? वह सिहर गई। वह भूल नहीं सकती... साल दर साल, बिस्तर पर पड़ा पिता का लकवाग्रस्त शरीर और ऐंठा हुआ चेहरा।
कितने मज़बूत और खुशमिजाज शख्स थे वे, हंसने-हंसाने वाले। मां इससे चिढ़ जाती, जो शायद ही कभी हंसती। 'इसमें हंसने लायक क्या है,' वह झल्ला कर पूछती। यह आश्चर्य ही था कि उनके बावजूद उनका हंसना जारी रहा। उस दिन तक... रत्ना कभी वह खौफ़नाक दिन भूल नहीं सकी। वह स्कूल से लौटी थी, भूखी, और सीधे किचन में घुस गई थी, खाना मांगती हुई। मां वहां नहीं थी। बल्कि वह बेडरूम से निकली, पीछे फैमिली डॉक्टर थे। 'क्या हुआ,' उसने पूछा था। किसी ने जवाब नहीं दिया। घबराई सी, वह बेडरूम की तरफ दौड़ी। भौंचक, वह अपनी रोती हुई बहनों को देख रही थी। अगर उनको कुछ नहीं हुआ तो किसे... वह बिस्तर पर निस्पंद पड़ी आकृति को देखने के लिए झुकी। एक ऐंठे हुए चेहरे से जो आंखें उसे घूर रही थीं, वे उसके पिता की थीं।
ज़िंदगी फिर कभी वैसी नहीं हो सकी। पिता की लंबी बीमारी ने उन सबको शारीरिक और आर्थिक दोनों तरह से निचोड़ लिया। हमेशा से चिड़चिड़ी स्वभाव वाली उसकी मां और तुनकमिजाज हो उठी। उसका गुस्सा इन लोगों पर निकलने लगा, खासकर रत्ना पर, जिसके लिए खाना बहुत अहमियत रखता था। 'जितना खाती हो, उससे तुम्हारा भी यही हाल हो जाएगा।' वह डपटती। उसकी लगातार मनाही ने रत्ना को और ढीठ खाने वाली बना डाला।
वह अपने पापा की लाड़ली थी और उसकी मां हमेशा इस बात से नाराज़ रहती कि वह अपनी सबसे छोटी बेटी की तरफदारी करते हैं। वे हमेशा कहा करते कि उसकी शादी एक राजकुमार से करेंगे। और मां ने क्या किया? उसकी शादी एक विधुर से कराई, जिसे पेप्टिक अल्सर था। जब उसने विरोध करने की कोशिश की तो मां ने ताना मारा। 'तुम जैसी मोटी से और कौन शादी करेगा?'
15 साल तक उसका पति उसे सादा, उबला हुआ खाना खिलाता रहा। उसने कभी जानना नहीं चाहा कि उसे क्या पसंद है। बूढ़ा, झुर्रियाया हुआ रसोइया भी अपने मालिक की पसंद से खुश था। दिन पर दिन, वह खाना निगलती जाती, किसी तरह हलक से नीचे उतारती। खाने का समय उसके लिए यातना हो गया। खाना उसके लिए आनंद की चीज नहीं रह गया। बस यह बचे रहने का ज़रिया था। उसके पति को इस कहावत पर कुछ ज्यादा ही विश्वास था कि जीने के लिए खाओ। उसे नहीं। लेकिन वह ये बात कह नहीं सकी। दरअसल उसने उनसे कभी कुछ कहा ही नहीं। दोनों आपस में बात करते थे, लेकिन बतियाते नहीं थे। उसके लिए यह रहस्य ही था कि उसने दुबारा शादी क्यों की। उसका कोई बच्चा नहीं था जिसे वह देखती। खाने में उसकी दिलचस्पी नहीं थी। न ही उसमें। अगर वह उससे प्यार भी करता तो बस जिस्मानी जरूरत पूरी करने के लिए, इससे ज्यादा नहीं।
ज़िंदगी इसी बंधे-बंधाए ढर्रे पर चलती रहती, अगर अचानक एक दिन नींद में उसके पति का देहांत नहीं हो गया होता। जिन लोगों को उसने कभी नहीं देखा था, वे उसके शोक में शामिल होने की चाहत लिए चले आए थे। लेकिन वह शोक महसूस नहीं कर रही थी। उसके चारों तरफ बैठी महिलाएं विलाप करतीं, लेकिन वह सिर झुकाए बैठी रहती। आंखें बिल्कुल सूखी। उसके होठों पर एक दबी मुस्कुराहट रहती। वह आज़ाद थी, अपनी मर्जी के मुताबिक जीने के लिए आज़ाद। और खाने के लिए। बाद की बात से उसे अपने ऊपर कुछ शर्मिंदगी सी महसूस हुई। लेकिन उसने बहुत कोशिश की, अपने अवचेतन से ये बात निकाल नहीं सकी।
उसने धीरज के साथ शोक मनाने वालों की विदाई का इंतज़ार किया। सबसे पहला काम उसने रसोइये को निकाल बाहर करने का किया। वह उसका खर्च उठा सकती थी- उसका कंजूस पति रईस आदमी की मौत मरा था, लेकिन वह नहीं चाहती थी कि उस पर कोई निगाह रखे।
पहली बार वह अपनी मर्जी की मालिक थी। वह अपने ढंग से जीने लगी, अपनी खुशी के हिसाब से, रोज नए पकवान आजमाती, कभी-कभी तो रात को उठकर 'अच्छी-अच्छी चीजें' खाती। बचपन में भी उसने ये किया था, लेकिन उसकी मां, जिसकी नींद कच्ची थी, हमेशा उसे रंगे हाथ पकड़ने में कामयाब होती। अगले दिन चोर करार दिए जाने की यंत्रणा झेलनी पड़ती। जब वो खड़ी होकर अपना जुर्म स्वीकार करती तो उसकी बहनें खिलखिलातीं। उसके हमेशा से दब्बू पिता, उसे बचाने की कोशिश करते, लेकिन बुरी तरह नाकाम रहते।
अपने पति के घर में - इसे उसने कभी अपना नहीं समझा - खाना इतना बेस्वाद होता कि खाने के खयाल से भी उसे उबकाई आने लगती। उसने एक बार रसोई का जिम्मा लेना चाहा, लेकिन अपने ढर्रे में बंधे उसके पति ने उसके हाथ का बना जायकेदार खाना छूने से भी इनकार कर दिया। यहां तक उसके स्वामिभक्त रसोइये ने भी उसकी कोशिशों पर नाक सिकोड़ ली।
वह ढिठाई के साथ खाने बैठी। लेकिन उसके प्रवचनों के साथ वह खाने का मज़ा नहीं ले सकी। बचा हुआ खाना फेंक दिया गया। 'अगर यही कचरा खाती रही तो बीमार पड़ जाओगी।' उसने फैसलाकुन ढंग से कहा। फिर उसने कभी रसोईघर में पांव नहीं रखे।
यह काफी पहले की बात है। दस साल पहले, उसकी मौत हो गई। ज़िंदगी पुरलुत्फ थी। उसे कोई फिक्र नहीं थी। उसे खाना पसंद था और वह जी भर कर खाती। अगर वह मोटी थी तो क्या? कोई उसे डपटने वाला नहीं था। उसकी मां अब परवाह नहीं करती थी और पति मर चुका था। वह ज़िंदा थी। और उसका इरादा देर तक जीने का था। तब तक जब तक वह बिना डॉक्टर की मदद के चल सके। उसे डॉक्टरों से घृणा थी। बचपन में, उसने डॉक्टरों को अपने पिता के असहाय शरीर को छेदते-कोंचते देखा था। वे उन्हें हंसा नहीं पाए। बस वे उन्हें ज़िंदा रख पाए। सात साल तक, अपने बिस्तर पर सडते हुए, गलते हुए। अकेले। उसकी मां ने शुरू में उनकी सेवा की, लेकिन जल्द ही उसने उम्मीद छोड़ दी और उनकी देखभाल के लिए एक नौकर को लगा दिया। हर सुबह, वह नियमित तौर पर उनके कमरे में जाती, कुछ देर रुकती और फिर निकल जाती। उसने एक बार भी उनकी ओर नहीं देखा। अगर देखा होता तो शायद इतनी लापरवाही से पेश नहीं आती। शायद उसका बरताव जायज था। आखिरकार सात साल एक लंबा वक्त होता है। वह हर किसी को कहती। रत्ना को हर किसी से घृणा हो गई थी... अपनी मां से, अपनी बहनों से, और अपनी नानी से, जो अक्सर आती और उसकी मां को साथ ले जाती। वह अपने पिता के कमरे में घंटों बैठती, उनसे बातचीत करती, उन्हें बताती कि एक दिन वे पूरी तरह ठीक हो जाएंगे... फिर हम इन सबको सबक सिखाएंगे, वह गुस्से में बोलती। उनकी आंखें उस पर धंस जातीं, उसे बतलाती हुईं कि उसे नहीं पता, कि क्या और कैसा सबक?
अब वह 50 पार की थी। ठीक उतने ही, जब उसके पापा... नहीं, वह अपनी मां को, मैंने कहा था न, कहने का मौका नहीं देगी। वह उन सबसे तेज निकलेगी--- बददिमाग डॉक्टरों से भी।
क्या उसने डाक्टर से ये नींद की गोलियां नहीं लिखवां ली थीं? उसने उसे झांसा दिया था, कहा था, इन्सोम्निया। पल्ले दर्जे का मूर्ख। उसे खाते और सोते देख लिया होता, तो खुद उसे वह हो जाता- कमबख्त इन्सोम्निया।
उसने अपनी हथेली पर सारी गोलियां उंडेल लीं। कितनी खूबसूरत लग रही थीं, जैसे गहरा सागर। इसीलिए उसने इनका सहारा लेने की सोची थी। फिर कभी नहीं, अपने पति की मृत्यु के बाद उसने कसम खाई थी, कि अब वह कुछ भी बदजायका नहीं निगलेगी। और अपने फैसले पर वह कायम रही। बदबू देती चूहे मारने वाली दवा उसके लिए नहीं है। वह शाही ढंग से मरेगी- रानी की तरह।
उसने गोलियां गटकनी शुरू कीं- एक के बाद एक। अचानक वह रुकी। फ्रिज में पड़े वैनिला आइसक्रीम और चॉकलेट सॉस का क्या होगा? वह जी भर के खा चुकी थी और अब मीठा खाने की हालत में नहीं थी। उसने आधी खाली बोतल को देखा। उसे अच्छा लगा। गुनगुनाती हुई, वह रसोईघर में गई।
वह बैठकर एक-एक चम्मच खाती रही, उसका स्वाद लेती रही। बीच में उसे थकान लगने लगी। और उनींदापन। चम्मच इतना भारी लग रहा था... उनींदेपन में उसने सोचा, शायद बाकी मैं ब्रेकफास्ट में ले पाती। लेकिन अब कोई आने वाला कल नहीं होगा। वह खाती रही, जब तक नींद के आगोश में न चली गई।
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