
जनसत्ता के दीवाली साहित्य विशेषांक 2012 में प्रेम भारद्वाज की कहानी "कवरेज एरिया से बाहर" प्रकाशित हुई है। कहानी चर्चा में है और होनी भी चाहिये , प्रेम भारद्वाज से एक आधुनिक कहानी की उम्मीद थी और वो उसी तरह पूरी भी हुई जिस तरह से पाखी का हर अंक करता है ... "शब्दांकन" अपना योगदान कर रहा है ..... कहानी आपके लिये यहाँ ला कर ..... प्रेम भारद्वाज को कहानी मुहैया कराने के लिये आभार
थरथराती प्रत्यंचा पर चढ़ी जिंदगी। उदासी का
गर्दो-गुबार। गर्म-सर्द सफ़र। बेरौनक। कुछ हद तक बेमकसद। रिश्तों के रेगिस्तान में
सिमटती परछाई।
काश! दुनिया का यह महावैज्ञानिक यह भी बता पाता कि
खुद से बाहर जीने का मतलब होता क्या है? कई बार ‘खुद’ और ‘बाहर’ के फांक में फंसी जिंदगी छटपटाती रह जाती है। आदमी हाथ-पैर मारता है।
अवरुद्ध कंठ से मदद को तलाशती एक पुकार उठती है। सुनते सब हैं। मगर कोई नहीं सुनता
है। और इस तरह आवाजें फ़ना हो जाती हैं... आवाजों के बीच। बस, कहने को ही आवाज भी
एक जगह है।
‘खुद’ का दायरा और जीने की हद है क्या?
भीतर से उठे इस सवाल ने दिलो-दिमाग को उलझा दिया।
चूक कहां हुई? और क्या वह वाकई चूक ही थी?
मैं खुद से बाहर ही तो जीता रहा था। जीवन शुरू हुआ
या नहीं, यह तो यकीनी तौर पर नहीं समझ पाया मगर जीवन, समाज, परिवार और अपने
चाहने वालों से बाहर कर दिया गया।
अब मेरा किसी भी चीज में जी नहीं लगता। लोग अच्छे
नहीं लगते। सबसे मोहभंग हो गया, सत्ता-व्यवस्था, संगठन, रिश्ते-नाते, दोस्त सबसे। उम्मीद ने बहुत पहले दामन छोड़ दिया था। अब बारी लोगों की है। लेकिन
विरोधाभास यह है कि बेचैनी के पलों में मैं लोगों का साथ भी चाहता हूं।
मैं अच्छा इंसान नहीं।
शायद बुरा हूं। ऐसे लोगों की कमी नहीं जो
मुझे आदमी ही नहीं मानते। मुझसे नफ़रत करते हैं। घृणा भरी आंखों से देखते हैं मेरी
ओर। कई बार वे आंखें आत्मा को बेध जाती हैं। यह सब यूं ही नहीं है। इसकी माकूल
वजहें हैं।
मैं हत्यारा हूं। मैंने
बीस हत्याएं की हैं। ये हत्याएं मैंने एक निजी सेना में रहते हुए संगठन के लिए
कीं। प्रतिशोध लेने के वास्ते। पकड़ा नहीं गया। कानून मुझे गिरफ्त में नहीं ले
सका। ये हत्याएं आम हत्याओं से इसलिए अलग थीं,
क्योंकि इनके पीछे स्वार्थ नहीं, संगठन की प्रतिबद्धता
थी। वह ‘खुद’ से बाहर का जीवन प्रयोजन था। मगर थी तो हत्याएं हीं!
तब लगता था मैं एक बड़ा कार्य कर रहा हूं। अपनी
जाति-समाज का महान रक्षक हूं मैं। ऐतिहासिक योद्धा। नक्सली संगठन मेरी जाति वालों
पर हमला बोलते थे और गांव के गांव, लोगों को मार कर खलिहान कर देते थे। एक रात, एक गांव में सौ
लोगों को मार डाला उन्होंने। गांव में सिर्फ़ बच्चे और विधवाएं ही बचे रह गए। मरने
वालों में मेरे अपने मामा थे। मामा से बेहद लगाव था, बहुत मानते थे मुझे। बचपन से लेकर अब तक ढेर सारी
स्मृतियां जुड़ी थीं उनसे...। मामा की मौत ने मेरे भीतर प्रतिशोध की ज्वाला भड़का
दी...। तब मैं शहर में रहकर पढ़ाई करता था। एम.ए. के फाइनल इयर में था। मार्क्स मार्क्स, लेनिन, एंगेल्स को पढ़ता
था। क्लास को समझ रहा था। अचानक इस घटना ने मुझे क्लास से कास्ट की ओर धकेल दिया।
अब मेरे लिए वर्ग नहीं, अपनी जाति अहम थी। उसकी रक्षा मेरा फ़र्ज था। मैं जाति की लड़ाई में
कूद पड़ा। अपनी जाति की निजी सेना कमांडर बन गया, सिर्फ़ इस योग्यता के आधार पर कि मैं एक खास जाति
से संबंध रखता हूं और मेरे भीतर दुश्मन जाति से प्रतिशोध की आग, ज्वाला बन चुकी है।
ज्वाला इस कदर भयावह थी कि मैं अपने हाथों से दुश्मन जाति के लोगों की हत्या कर
अपने मामा की हत्या का बदला लेना चाहता था। वैसे भी इस देश में हत्या के लिए किसी
योग्यता की जरूरत नहीं पड़ती।
मैं अपने जातीय संगठन
यानी रणवीर सेना के तीन जनसंहारों में शरीक हुआ। अपने हाथों से बीस हत्याएं कीं।
ऐसा करने से पहले दस्ते के बाकी साथियों के साथ मैंने भी खूब शराब पी थी। पता नहीं
किसने यह थ्योरी दी थी कि शराब पीने से हत्या करने का काम आसान हो जाता है। वैसे
मुझको लगता था कि अगर मैंने शराब नहीं भी पी होती तो भी किसी अनजान की हत्या करने
में मुझे जरा भी हिचक नहीं होती।
मुझे ठीक तरह से याद है कि दलित जाति के प्रति मेरे
भीतर घृणा के भाव का बीजारोपण तब हो गया था,
जब मैं
बारहवीं में पढ़ता था। मेरे गांव में एक दलित नौकर काम करता था, झुलना। नाच में
नाचता था। लौंडा नाच में। एक दिन दालान के अंधेरों में मैंने उसे मेरी बहन सलोनी
के साथ आलिंगनबद्ध देख लिया। मेरा खून खौल गया। मगर मैं चुप रहा। दिल से नहीं, दिमाग से काम लेना
जरूरी था। तब तक मेरे दोस्तों की अच्छी-खासी मंडली बन चुकी थी। एक दोस्त था अनवर।
उसकी जीप में झुलना को बिठाकर तीन अन्य दोस्तों के साथ उसको नाच दिखाने के बहाने
मढौरा ले गया। वहां एक सुनसान बांसवाड़ी में उसके भेजे में तीन गोलियां दाग दी ‘‘साला चमार... हमारी
बहन को फंसाने की हिम्मत का इनाम है यह। अपनी औकात भूलने का यही अंजाम होता है...’’
उसी बांसवाड़ी में उसकी लाश के दो टुकड़े किए। सिर
वहीं मढौरा के डबरे में फेंक दिया और धड़ को 80 किलोमीटर दूर सोनपुर गंडक नदी में। पुलिस आज तक उस मर्डर मिस्ट्री को
नहीं सुलझा पाई, लाश मिली नहीं। झुलना की गुमशुदगी आज भी थाने में दर्ज है। केवल हम
चार दोस्त ही जानते थे कि उसकी हत्या हमने कैसे की? यह मेरी पहली हत्या थी। हिंसा के इस बीज को जैसे
निजी सेना से जुड़ने पर खाद-पानी मिला।
मामा की हत्या के बाद
रणवीर सेना से जुड़ा। एक उन्माद। उतेजना। खून के बदले खून। हिंसा-प्रतिहिंसा का खेल।
सिर के बदले सिर। लाश के बदले लाश। तुम दस मारोगे तो हम तीस मारेंगे। हमने मारा
भी। कलम छोड़कर हथियार थामा। रातों को पार्टी की बैठकें होतीं। हथियार के लिए चंदे
इकट्ठे किए जाते। गांव के साधारण भूमिहार से लेकर बड़े नेता-मंत्री तक बिना मांगे
हजारों-लाखों की सहयोग राशि देते। हमारे अत्याधुनिक हथियारों का मुकाबला नक्सली
संगठन नहीं कर पाते। हमारी ताकत बढ़ने लगी। आतंक भी कहा जा सकता है इसे। हम अपनी
जाति के नायक और योद्धा थे। कहीं न कहीं मैं इस चीज को इंज्वाय करने लगा। हिंसा के
खेल में मैं मजा लेने लगा। हमारे लिए हर दलित नक्सली था। नक्सली संगठनों के लिए हर
भूमिहार रणवीर सेना का सदस्य। हम अपने सरदार यानी मुखिया उर्फ़ बामेश्वर से मिलते
और अगले जनसंहार की योजना बनाते। और इस सब में मेरी अब तक की पढ़ाई कहीं भी बाधक
नहीं बनती। गया जहां गौतम बुद्ध ने ज्ञान प्राप्त किया और पूरी दुनिया को अहिंसा
का पाठ पढ़ाया, हम उसी इलाके में हिंसा को परवान चढ़ा रहे थे। वे पांच साल कैसे गुजरे
कुछ पता ही नहीं चला।
लेकिन वक्त और इतिहास सीधी लकीर में नहीं चलता।
उसकी चाल घुमावदार होती है। मुखिया अब हिंसा की राह छोड़ राजनीति की राह पकड़ना
चाहते थे। लेकिन संगठन के अधिकतर सदस्य इसके पक्ष में नहीं थे। सेना में दो फांक
हो गया। मुखिया को अप्रासंगिक करने की चालें चली गईं। फिर एक दिन बिल्कुल फिल्मी
अंदाज में मुखिया को पुलिस ने पटना के एक घर से गिरफ्तार कर लिया गया। कुछेक ने
इसे मुखिया का आत्मसमर्पण माना। वे जेल गए। जेल से चुनाव भी लड़े। हारे। सूबे में
निजाम बदला। निजाम के बदलते ही बहुत सी चीजें बदलने लगी। जातीय संघर्ष मद्धम पड़
गया। नक्सली भी सुस्त पड़ गए। रणवीर सेना की प्रासंगिकता खत्म होने लगी। मुखिया
जेल से रिहा कर दिए गए। और एक रोज सुबह सैर के वक्त उनकी हत्या हो गई। तमाम मीडिया
ने मुखिया के तराने गाए, तो कुछ ने तीर छोड़े। किसी ने कातिलों का सरदार कहा तो कुछेक उन्हें
गांधी कहने की मूर्खता करने से भी नहीं बचे। लेकिन किसी ने भी उन लोगों के बारे
में एक पंक्ति नहीं लिखी, जो लोग रणवीर सेना के सिपाही और कमांडर बन जनसंहारों में मुखिया के
साथी थे। उनका क्या हुआ? कहां गए? किन हालात और मनःस्थितियों में वे जी रहे हैं? कुछ नेता बने, कुछ ठेकेदार और बाकी
मेरी तरह नर्क की यातना भुगत रहे हैं? प्रतिशोध से शुरू हुई राह आज पछतावे तक पहुंच गई है। क्या जिंदगी इसी
तरह करवट बदलती है।
बीस हत्याएं। बीस चेहरे। बीस से जुड़ी सौ जिंदगियां अक्सर मेरा पीछा
करती हैं, डग-डग पर- सवाल, तुम हमें जानते नहीं थे... हम कभी आपस में मिले भी नहीं थे... हमने
तुम्हारा कुछ नहीं बिगाड़ा था, न दोस्ती, न दुश्मनी, न कोई वास्ता। फिर क्यों तुमने मारा हमें? कानून की पकड़ में
नहीं आना बेगुनाह होना नहीं होता। तुम्हें अब तक फांसी हो जानी चाहिए थी और तुम
मजे में यहां बैठकर शराब पी रहे हो। तुम्हें मरना होगा... तुम्हें देख हम छटपटाते
हैं... तुम्हें मरना होगा कबीर...
कमरे में अंधेरा था।
अंधेरे में मैं। मेरा जीवन। टेबल पर रखी शराब भरी गिलास मुझे नजर नहीं आ रही थी।
मैं टटोल कर पी रहा था। कतरा-कतरा। घूंट-दर-घूंट।
निराशा के गहरे क्षणों में इस देश की सबसे सस्ती शराब ही मेरा साथ दिया
करती है।
बहरहाल मैंने अब मरने का तय कर लिया है। जरूरी
नहीं कि मर ही जाऊं। क्या पता हिन्दी फिल्मों की तरह जिंदगी से मौत की ओर लगाई
जाने वाली आखिरी छलांग से ठीक पहले कोई ‘अपना’ आकर मुझे बचा ले। और सच तो यह है कि मैं बचना भी चाहता हूं।
कुछ घंटे पहले देखे
बादल सरकार के नाटक ‘बाकी इतिहास’ का दृश्य आंखों के सामने ठहर गया। नाटक का नायक आत्महत्या के बाद वापस
अपने लोगों के बीच आता है। लोग पूछते हैं,
‘क्यों की तुमने आत्महत्या नायक के जवाब का
लब्बो-लुआब यह है कि जो बदतर हालात हैं, जीने के लिए तमाम तरह के समझौते हैं... भ्रष्टाचार, बेईमानी, अनैतिकता, अमानवीयता... इन
सबके खिलाफ़ था मैं... आत्महत्या कर मैंने अपना प्रतिशोध व्यक्त किया है...
प्रतिशोध का केवल यही तरीका बचा रह गया था मेरे पास। ‘हम’ का प्रतिरोध जनसंहार
था। ‘मैं’ का प्रतिरोध आत्महत्या। ‘हम’ से ‘मैं’ के मोड़ पर पहुंच गया मैं, हत्या से आत्महत्या की ओर।
नाटक देखने के बाद बाहर निकलते ही सतीश मिल गया, ‘क्या हाल है दादा।’
‘नाटक देखने आया था’
‘अब दिन में भी शुरू
हो गए?’ सतीश ने उसके मुंह से शराब की दुर्गंध महसूस कर ली थी।
‘रात का इंतजार कौन
करे, कि दिन में क्या-क्या नहीं होता?’
‘आप जिंदगी में
हल्केपन के शिकार हो गए हैं।’
‘वान गाग को जानते हो’ मैं अपनी धुन में
था।
‘जानता हूं... तो...’ सतीश समझ नहीं पाया।
‘वान गाग दुनिया का महान चित्राकार... खाने के लिए पैसे नहीं, भूखे रहा। उसे
आत्महत्या करनी पड़ी। ओल्ड मैन एंड द सी’ जैसे उपन्यास के जरिए दुनिया को जिजीविषा का पाठ पढ़ाने वाला
होमिंग्वे साल भर तक गर्दन पर राइफ़ल रखकर आत्महत्या का रिहर्सल करता रहा और एक दिन
फाइनल शो... गुरुदत्त, गोरख पाण्डेय। समझ नहीं पा रहा हूं रचनाशीलता-संवेदनशीलता का
आत्महत्या से कोई रिश्ता है या अपने समय से विद्रोह का एक कारुणिक रूप है यह।’’
‘दादा घर जाइये। लगता
है ज्यादा पी ली है आपने।’
...कई दफे ऐसा होता...
गिलास में शराब की जगह खून दिखाई देने लगता... उन लोगों के खून जिन्हें जनसंहारों
में मारा था मैंने... मेरे लिए तय करना कापफी कठिन था कि मैं शराब पी रहा हूं या
खून।
मैं तन्हा वापस घर लौटा आया।। फिर से शराब पीने लगा। विदेशी लेखक फ़रनांदो
पैसोआ की पंक्ति याद आई, किसी भी व्यक्ति के लिए ईमानदारी से यह स्वीकार करने के लिए बौद्धिक
साहस की जरूरत है कि वह एक मानवीय क्षुद्र तत्व से अधिक नहीं है, वह एक ऐसा गर्भपात
है जो होने से बच गया।
क्या मैं भी होने से बचा कोई गर्भपात हूं?
हर बार की तरह,
भीतर से आवाज आई, हत्यारा हूं... भले ही कानून ने नहीं पकड़ा, सजा नहीं दी...
मुझको खुद ही खुद को सजा देनी चाहिए।
जलती सिगरेट। उठता धुंआ। कसैला होता माहौल। वान गाग, हेमिंग्वे, गुरुदत्त, गोरख पाण्डेय, आत्महत्या से ठीक
पहले इतने ही तन्हा, बेचैन, दुविधाग्रस्त भावावेग में रहे होंगे?
उसने अपनी
मीनाक्षी को फोन लगाया। वह बिहार के जनसंहारों और निजी सेनाओं पर रिसर्च कर
रही है। इसी सिलसिले में उससे परिचय हुआ।
‘मैं कबीर बोल रहा
हूं।’
‘प्रणाम सर, सब ठीक तो है।’
‘कुछ भी ठीक नहीं है।’
‘क्या हुआ?’
‘तुम्हारे सहारे की
जरूरत है।’
‘मैं क्या मदद कर
सकती हूं।’
‘तुम अभी इसी वक्त
मेरे पास चली आओ... तुम्हारी गोद में सिर रखकर रोना चाहता हूं।’
‘क्या बोल रहे हैं
सर... ऐसा पासिबल नहीं है।’
‘तुमको ऐसा करना होगा
मीनाक्षी वरना मैं मर जाऊंगा।’
‘लगता है आप बहुत
ज्यादा नशे में हैं...कल बात करते हैं...’ मीनाक्षी ने फोन काट दिया।
वह लगातार मीनाक्षी
को फोन करता रहा। पचास से ज्यादा कॉल। मोबाइल पहले रिंग होता रहा। फिर आवाज आने
लगी, जिस व्यक्ति से आप संपर्क करना चाहते हैं वह आपकी पहुंच से बाहर है।
मेरी बेचैनी पागलपन के दायरे में दाखिल होने लगी
है। रात बारह का समय। करूं भी तो क्या? कहां जाऊं? घर में कोई भी नहीं। मां रहती थी। वह भी तीन दिनों के लिए बनारस गई है, अपने भाई के पास।
लगता है आत्महत्या तो तय है। क्यों न सतीश को फोन
किया जाए... वह जरूर साथ देगा। और शायद मरना टल जाए। कॉल किया। काफी देर से फोन
उठा, ‘क्या हो गया दादा।’
मैं बहुत अकेला महसूस कर रहा हूं... मीनाक्षी को फोन
किया था। उसने फोन काट दिया... प्लीज उसे समझाओ कि वह मेरे पास चली आए...’
‘अभी आप सो जाइए, कल बात किया जाएगा...
‘नहीं, अभी उसे तुम समझाओ’
‘कल समझाऊंगा, आप सो जाइए।’
‘तो तुम ही चले आओ...’
‘आकर क्या करूंगा...
क्या तबियत खराब है, हास्पिटल पहुंचाना है...’
‘नहीं अकेलेपन से डर
लग रहा है...’
‘कोई बात नहीं... आप सो जाइए कल मिलते हैं। कल मेरा बैंक का एग्जाम है...’ ज्यादा अकेलापन लग
रहा है तो फेसबुक लाग-इन क्यों नहीं करते हैं?
इतना कहकर उसने फोन काट दिया।
मैं सतीश को लगातार कॉल करता रहा। सतीश ने मोबाइल को
साइलेंट मोड में डाल दिया। उधर से आवाज आती,
‘जिस व्यक्ति से आप संपर्क करना चाह रहे हैं वह
कोई रेस्पांस नहीं दे रहा है।’
अवसाद की खूंटी पर टंगा मन। भावावेग की लहरें।
लहरों की सवारी करते विचार। मौत के विचार। अकेलेपन की पीड़ा। मन में चुभी
प्रायश्चित की कील। वह मरना चाहता है, और जीना भी। अजीब सा द्वंद्व जीवन और मृत्यु की एक ही समय में चाहत। डॉ.
विमल को फोन लगाया, वह मेरा इलाज करते हैं, मनोवैज्ञानिक है। देश के नामी साइकेट्रिक। कई बार कोशिश की। जवाब एक
ही मिला, ‘आप जिससे संपर्क करना चाह रहे हैं वह अभी व्यस्त है।’
आखों में आंसू छलक आए, अकेला हो गया हूं, बातें करना चाहता
हूं... किसी के कंधे पर सिर रखकर रोने का मन है... अरबों-खरबों की भीड़ में
तन्हा... पास बैठने वाला कोई नहीं... सुनने वाला कोई नहीं... हुजूम को साथ लेकर
चलने वाला कबीर अकेला पड़ गया है... कैसे हो गया यह सब?
मुसीबत और अकेलेपन से घायल के दिल को मां की आवाज
राहत देती है। उसकी आवाज मुझे जरूर बचा लेगी।
जमाने से मायूस होकर मैंने सबसे अंत में मां को फोन
लगाया। फोन नहीं उठा। वह स्विच ऑफ था। बार-बार कोशिश करने पर एक ही जवाब मिलता रहा, जिस व्यक्ति से आप
संपर्क करना चाह रहे हैं वह कवरेज एरिया से बाहर है, कृपया बाद में प्रयास करें। और वह ‘बाद में’ कभी नहीं आया। मां
भी दूर चली गई। मेरे पहुंच क्षेत्र से बाहर। बार-बार कॉल। हर बार वही तयशुदा जवाब।
शराब न बोतल में बची है, न गिलास में। सिगरेट
का डिब्बा भी खाली। बची है तो राख, बुझी हुई सिगरेट। खाली गिलास। माचिस की तीलियां। दुकानें बंद हो गई
होंगी। सुबह ही खुलेंगी और अब सुबह का इंतजार किसको है?
मीनाक्षी ने उसका फेसबुक एकाउंट खुलवा दिया था। चार
हजार से ज्यादा उसके फेसबुक मित्र भी बन गए थे।
कबीर को सहसा फेसबुक मित्रों की याद आई। उसने
तुरंत कम्प्यूटर ऑन किया। फेसबुक लाग-इन कर पोस्ट किया, दोस्तो, मैं इस क्षण खुद को
बेहद अकेला महसूस कर रहा हूं... मुझे आपका साथ चाहिए आपमें से कोई भी मेरे घर
तुरंत आ जाए या फोन करे। मैं मर भी सकता हूं,
मैं इंतजार कर रहा हूं, मेरा पता है...।
इसे पोस्ट किया। दस मिनट के अंदर पचासों ने इसे
लाइक किया। दस कमेंट भी आ गए... बधाई... नीत्शे ने भी कहा था, आदमी अंततः अकेला है, आप इस दुनिया को एक
बहुत बड़े सच को अनुभव कर रहे हैं बधाई हो...। आप ही क्या, दुनिया का कोई भी
आदमी कभी भी मर सकता है और वह अंतिम पल तक किसी न किसी का इंतजार ही कर रहा होता
है... इसी पल के लिए रवीन्द्रनाथ टैगोर ने कहा है-एकला चलो रे...।
वह हैरान था। कमेंट्स और लाइक की संख्या बढ़ती जा
रही थी... मगर कोई घर नहीं पहुंचा। उसने फिर अगला पोस्ट किया, ‘मैं हैरान हूं मेरे
साढे चार हजार मित्रों में मेरे पास किसी का भी फोन नहीं आया, कोई भी घर नहीं आया
और अब मैं आत्महत्या करने जा रहा हूं। मैंने जहर की गोलियां खा ली हैं... जहर असर
करने लगा है... मेरी आंखें बंद हो रही हैं। हो सकता है किसी भी क्षण अंतिम सांस...
आंखें झपकने लगी... प्लीज आ जाओ...’ अब जबकि मौत मेरे मुहाने पर खड़ी,
मुझे अपनी बांहों में भरने ही वाली है... मौत से
डर लगने लगा है, मैं जीना चाहता हूं... नए सिरे से अपनी जिंदगी की शुरुआत करना चाह रहा
हूं... अब तक की रफ़ जिंदगी को फेयर करना चाहता हूं काश! मुझे इसके लिए एक मौका मिल
जाए... मैंने बहुत बड़ी गलती की। प्लीज... कोई मुझे बचा ले।’ किसी तरह से इसे
पोस्ट किया।
इस पोस्ट को भी लोगों ने लाइक करना शुरू किया। संख्या सैकड़ों में पहुंच गई। कमेंट भी आने लगे... तरह-तरह के कमेंट। मसलन... आप बहादुर हैं जो जीवन को ठोकर मार रहे हैं... मृत्यु जीवन का ही एक रूप है... क्या यह कदम आपका प्रतिरोध है?... काश! आप मृत्यु के बाद के अनुभवों को भी शेयर कर पाते... आप गलत कर रहे हैं, इसे पलायन कहा जाएगा...। कमेंट की संख्या तेजी से बढ़ रही थी और लाइक करने वालों की भी। आपको और इंतजार करना चाहिए था...।
इस पोस्ट को भी लोगों ने लाइक करना शुरू किया। संख्या सैकड़ों में पहुंच गई। कमेंट भी आने लगे... तरह-तरह के कमेंट। मसलन... आप बहादुर हैं जो जीवन को ठोकर मार रहे हैं... मृत्यु जीवन का ही एक रूप है... क्या यह कदम आपका प्रतिरोध है?... काश! आप मृत्यु के बाद के अनुभवों को भी शेयर कर पाते... आप गलत कर रहे हैं, इसे पलायन कहा जाएगा...। कमेंट की संख्या तेजी से बढ़ रही थी और लाइक करने वालों की भी। आपको और इंतजार करना चाहिए था...।
अगली सुबह कमरे में लाश पड़ी थी कबीर की। बेकफ़न।
करीब ही खड़े चार लोग-मीनाक्षी, सतीश, कुमार विमल और मां। चारों ही कबीर की मौत का जिम्मेदार खुद को मान रहे
थे। अगर रात को उन्होंने बात कर ली होती तो अभी सामने कबीर होता-उसकी लाश नहीं।
लाश के हाथ में एक चिट थी। उसमें लिखा था, ‘मैं निपट अकेला करता
भी तो क्या? जिंदगी बेमानी हो जाने पर जिया ही क्यों जाए? जानता हूं लोग इसे मेरी
हार और पलायन ही मानेंगे... पलायन बेहतरी के लिए किया जाता है गांव से कस्बे, कस्बे से शहर, महानगर... कई दफे
पलायन मजबूरी में होता है... हम हम सब खुद ही अपनी हालातों-परिणतियों के लिए
जिम्मेदार हैं। खैर... तुम्हारी है, तुम्ही संभालो ये दुनिया।’
सहसा उस मातमी सन्नाटे को चीरता एक व्यक्ति वहां
दौड़ता-हांफ़ता पहुंचा। उसने पूछा-आपमें से कबीर कौन है... आज सुबह मैंने फेसबुक
में पढ़ा...।
सतीश ने बिना कुछ बोले कबीर की लाश की ओर इशारा कर
दिया।
संपर्क: बी-107, सेक्टर-63, नोएडा, गौतमबुद्धनगर, उ.प्र.
3 टिप्पणियाँ
कहानी अच्छी है .........हमेश हमें खुद से ही जूझना पढ़ता है .......फेसबुक, मोबाइल या कोई भी साधन हो ...अकेलापन तो मन के अंदर है .......बहुत बढिया ....... खरी कहानी ....
जवाब देंहटाएंबेंहतर यही होगा कि मैं 'शब्दांकन' की एक प्रति ही खरीद लूँ। कम्प्यूटर के पर्दे पर इतनी लम्बी कहानी पढ पाना मेरे लिए तो अत्यधिक दुरुह काम है।
जवाब देंहटाएं"मैं" की शैली में हिंदी कहानियों में एक बेहतर कहानी। शब्दांकन को धन्यवाद इसे हम तक पहुचाने के लिए।
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