बीते दिनों राजधानी के प्रगति मैदान में आयोजित विश्व पुस्तक मेले में राजेन्द्र यादव जी के लेखों के नए संकलन है 'वे हमें बदल रहे हैं ...' का विमोचन हुआ ।'वे हमें बदल रहे हैं ...' को संकलित व सम्पादित किया है बलवन्त कौर ने और प्रकाशक है महेश भारद्वाज (सामायिक प्रकाशन, नई दिल्ली)।
राजेन्द्र यादव जी की हर सम्पादकीय वो दस्तावेज़ हैं, जो इतिहास में दर्ज़ हो रही हैं। ये वो किताब है जो उनके चाहने वाले और ना चाह कर भी चाहने वालों के पास होनी ज़रूरी है। बलवन्त कौर को इस संकलन को हम तक लाने का धन्यवाद, अधिक जानकारी के लिए आप शब्दांकन से sampadak@shabdankan.com पर संपर्क कर सकते हैं।
लीजिये अब पढ़िए 'वे हमें बदल रहे हैं ...' की बलवन्त कौर लिखित "भूमिका"...
'वे हमें बदल रहे हैं . . .' राजेन्द्र यादव के लेखों का नया संकलन है। ये सभी लेख हंस के सम्पादकीयों के रूप में 2007 से 2011के बीच लिखे गए हैं। इससे पूर्व के सम्पादकीय 'काँटे की बात' के बारह खंड़ों तथा 'काश मैं राष्ट्र-द्रोही होता' में पहले ही संकलित हो चुके हैं। ये सभी लेख हंस की वैचारिक नीतियों को समझने में जितने मददगार है, उससे कहीं ज्यादा राजेन्द्र यादव की सोच व नजरिये से परिचित होने का माध्यम भी हैं। इस रूप में ये सिर्फ सम्पादकीय ही नहीं राजेन्द्र यादव की वे मान्यताएँ हैं जिन पर वह बज़िद अड़े हुए है और अक्सर यह ज़िद विवादों का कारण भी बनती रही है। वैसे भी विवादों और राजेन्द्र यादव का पूराना दोस्ताना है। और यह दोस्ताना यहाँ भी देखा जा सकता है। चाहे वह नया ज्ञानोदय पत्रिका का 'छिनाल' प्रसंग हो या फिर 'हिन्दू देवी देवताओं' पर की जा रही टिप्पणियाँ हो, राजेन्द्र जी हर बार अपनी टिप्पणियों से कुछ ना कुछ विवाद खड़ा करने में माहिर हैं। यह जानते हुए भी कि "कल को यह सब उनके ख़िलाफ ही इस्तेमाल होगा" वह ज़रा भी विचलित नही होते। बल्कि ये विवाद, ये हंगामें उन्हें नयी ऊर्जा ही देते हैं।
संकलन में प्रभाष जोशी की मृत्यु पर लिखे बेहद आत्मीय लेख 'कागद कोरे…:' भी शामिल किया गया है,
'बेबाकी और संवादधर्मिता' इन सम्पादकीयों की विशेषता है। और सवाल उठाना उनकी प्रवृति। बेबाकी का तो ये आलम है जब हिन्दुस्तान के सारे साहित्य प्रेमी जयपुर लिटरेरी फेस्टिवल का एक सुर से गुणगान कर रहे थे, तब राजेन्द्र यादव उस के भीतर छिपे भाषायी वर्चस्व, आयोजन में इस्तेमाल पूंजी, आदि पर भी सवाल उठाने से भी परहेज़ नहीं करते। इसी प्रकार प्रसार-भारती में सत्ता का हस्तक्षेप, मीडिया की भूमिका यहाँ तक कि अन्ना हजारे के आन्दोलन को लेकर भी उनके भीतर का विचारक तुरन्त उंगली उठा देता है। दरअसल राजेन्द्र यादव अपनी राहें खुद बनाने में विश्वास करते रहे हैं इसलिए लीक पर चलना या लीक पर चलने वाले लोग उन्हें कभी पसन्द नहीं आते। दरअसल राजेन्द्र यादव की यह वैचारिक यात्रा "साधारण से विशिष्ट" बनने की यात्रा है। यह जानते हुए भी कि' विशिष्ट' होने का मतलब कहीं अकेला पड़ जाना भी है। इसके बावजूद वह निरंतर अपने वैचारिक लेखन के जरिये एक नया लोकतांत्रिक समाज गढ़ने की कोशिश कर रहे हैं।
संकलन का बनना असंभव था यदि, वीना जी, किशन तथा दुर्गाप्रसाद ने इतने कम समय में सारे सम्पादकीय न उपलब्ध करवाए होते। हमेशा मदद के लिए उपस्थित इन तीनों के लिए आभार शब्द बहुत छोटा है। और राजेन्द्रजी द्वारा इस कार्य के लिए चुना जाना मेरे लिए गौरव का विषय है।
फोटो: भरत तिवारी
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