सिनेमा के सौ साल की अनकथ कथा - डॉ. सुनीता

samsamyik srijan review shabdankan by dr sunita समसामयिक सृजन समीक्षा डॉ. सुनीता      सिनेमा के सौ साल पूरे होने की ख़ुशी में हो रहे आयोजनों में हिंदी पत्र पत्रिकाएं भी अपनी जिम्मेवारी से दूर नहीं हैं, हाँ कुछ पत्रिकाओं ने इसे बहुत संजीदगी से निभाया है जिनमें महेंद्र प्रजापति के सम्पादन में प्रकाशित होने वाली 'समसामयिक सृजन' का नाम प्रमुख है. डॉ. सुनीता ने इसे एक शिक्षक की नज़र से पढ़ा और अपने विचार हम तक भेजे. शब्दांकन महेद्र को साधुवाद देता है और डॉ. सुनीता को धन्यवाद   - प्रस्तुत समीक्षा के लिए.

     हाल ही में भारतीय सिनेमा सौ साल की उम्र पूरा किया है. इस सफ़र को सिनेमा में करियर बनाने और इसको प्रचारित-प्रसारित करने वाले अपने-अपने अंदाज़ में सिनेमाई जश्न मनाये. सिनेमा गासिप पर ज़िन्दा बहुतेरे फ़िल्मी-कला-संस्कृति की पत्र-पत्रिकाओं भी इसका गुन गया.
     इसके इतर युवा साहित्यिक-संस्कृतिकर्मी महेंद्र प्रजापति के संपादन में प्रकाशित पत्रिका ‘समसामयिक सृजन’ (अक्तूबर-मार्च 2012-013) का अंक हिंदी सिनेमा के 100 साल पर केंद्रित है.
     यह पत्रिका न केवल सिनेमा के सौ साल के जीवन की अनकथ कथा कहती है,बल्कि इसके उतार-चढ़ाव की गवाह भी बनती दिखती है.
     पत्रिका में फ़िल्मी दुनिया से लगायत मीडिया, समाज, साहित्य-संस्कृति, कला, मनोविज्ञान और मानव विज्ञान पर गहरी पकड़ रखने वाले ख्यात लोग सिनेमा के विविध पहलुओं पर प्रकाश डाले हैं.
     पत्रिका में मौजूदा सिनेमा में तकनीकी दख़ल और गिरावट का भी पोस्टमार्टम किया गया है. भारतीय सिनेमा में खूंखार पूँजीवाद का कसता शिकंजा सिनेमाई कला के लिए अवसर और खतरा दोनों लेकर आया है.बहुतेरे लेख इस सवाल को गहराई से उठाते हैं.
     एक दौर था जब खेत-खलिहान, मेहनत, शोषण, देश भक्ति, आज़ादी और सामाजिक सरोकारों पर केंद्रित फ़िल्में बनती और चलती थीं. जल्दी ही व्यावसायिक सिनेमा ने कला के सरहदों को तोड़ा और मनोरंजन को अपने फायदे को मुख्य लक्ष्य बनाया.
     शिक्षा, सूचना और स्वस्थ्य मनोरंजन का दीवाल डांककर भारतीय सिनेमा धीरे-धीरे शीला की जवानी पर फ़िदा हो गया.जहाँ मुन्नी बदनाम हुई और ‘हलकट जवानी’ बहुतों को लहकट बनाने के लिए प्रेरित करने लगी.
     अब के प्रेम गीतों में ‘चौदहवीं की चाँद’ के मधुर स्वर नहीं सुनाई देते. अतीत की तरह अब न हीरो इंतजार करता है न हिरोइन. अब तो हिरोइन कहती है 'तंदूरी मुर्गी हूँ यार, गटका ले सैंया एलकोहोल से'. यह जल्दबाजी सिनेमा को कहाँ ले जाकर पटकेगी,जानने के लिए 'समसामयिक सृजन' का अवलोकन करना पड़ेगा. सिनेमा का यह अंक न केवल संग्रहणीय है,बल्कि विमर्श की नई जमीन भी तैयार करती है. 
     इसकी बानगी संपादकीय (अपने हिय की बात) में देखने को मिलती है.संस्थापक ने सिनेमा के प्रति अपनी मोहब्बत का बखूबी इज़हार किया है. बीते सौ साल के सिनेमाई सफर को चार पन्नों में बेहद गहराई, खूबसूरती और सूझबूझ के साथ उल्लेखित किया गया है. यह बारीक़ निगाह को भी प्रदर्शित करता है.
     इस अंक में गीत-संगीत, भाषा, समाज, सम्बन्धों, रोग, प्रेम, लोक जीवन, स्त्री आदि सन्दर्भों को जोड़कर देखने का प्रयास है.कृष्ण मोहन मिश्र, शीला झुनझुनवाला, नवल किशोर शर्मा सिनेमा के इतिहास को एक गंभीर निष्कर्ष देते हैं. साथ में सिनेमा का अंतर्राष्ट्रीय संदर्भ, एनिमेशन, हास्य आदि की भी विस्तार से चर्चा शामिल है.
     निर्देशक आधारित लेख व फिल्म समीक्षा ज्वलंत सवाल उठाते हैं. टाइटल विशेष लेख के अंतर्गत आये सभी लेख सिनेमा को पैनी नजर और गहरी से समझाने में मदद करते हैं.जितेश कुमार व कुलदीप सिन्हा का लेख प्रमुख है.
     ‘विरासत’ शीर्षक के मध्यम से विगत पुरोधाओं के स्मृतियों को सहेजने का सफल प्रयास है.जिसमें ‘कमलेश्वर का हिन्दी सिने लेखन’ साहित्य अनुभव के जरिये सिनेमाई दुनिया को अंगुली पकड़कर बताता है.
प्रति ना प्राप्त हो रही हो तो हमें लिखें - संपादक sampadak@shabdankan.com
     सिनेमा से जुड़ी हस्तियों मसलन श्याम बेनेगल, अमिताभ बच्चन, प्रसून जोशी, चन्द्र प्रकाश दिवेदी, इरफ़ान खान सरीखे लोगों का साक्षात्कार पत्रिका को दस्तावेज में तब्दील करते हैं.चित्रों के माध्यम से विषय को नयी दृष्टि मिलती है.
     हर सिक्के के दो पहलू होते हैं.इसके दूसरे पहलू पर गौर करना आवश्यक है. साहित्य के बिना सिनेमा की कल्पना और बेहतर सिनेमा की चाह बेमानी लगती है.इसी कारण पत्रिका में सिनेप्रेमी साहित्यकारों की अनुस्पस्थिति कुछ खलती है.
     बावजूद इसके ‘समसामयिक सृजन’ सिनेमा के सौ साल के सृजन का दस्तावेज है.सिनेमा में गहरी रूचि और दृष्टि रखने वाले सिनेप्रेमियों, शिक्षकों छात्रों और शोधार्थियों के लिए काफी सहयोगी और उपयोगी साबित होगी.
dr sunita kavita डॉ. सुनीता .
.
.

डॉ. सुनीता 

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ

ये पढ़ी हैं आपने?

Hindi Story आय विल कॉल यू! — मोबाइल फोन, सेक्स और रूपा सिंह की हिंदी कहानी
कहानी : भीगते साये — अजय रोहिल्ला
गिरिराज किशोर : स्मृतियां और अवदान — रवीन्द्र त्रिपाठी
कोरोना से पहले भी संक्रामक बीमारी से जूझी है ब्रिटिश दिल्ली —  नलिन चौहान
मैत्रेयी पुष्पा की कहानियाँ — 'पगला गई है भागवती!...'
काली-पीली सरसों | ज्योति श्रीवास्तव की हिंदी कहानी | Shabdankan
Harvard, Columbia, Yale, Stanford, Tufts and other US university student & alumni STATEMENT ON POLICE BRUTALITY ON UNIVERSITY CAMPUSES
तू तौ वहां रह्यौ ऐ, कहानी सुनाय सकै जामिआ की — अशोक चक्रधर | #जामिया
मन्नू भंडारी: कहानी - एक कहानी यह भी (आत्मकथ्य)  Manu Bhandari - Hindi Kahani - Atmakathy
मन्नू भंडारी की कहानी — 'रानी माँ का चबूतरा' | Manu Bhandari Short Story in Hindi - 'Rani Maa ka Chabutra'