गन्धवाह-सा
बौराया मन
आहत स्वर उभरे।
*
विस्मृत्तियों का
गर्भ चीरकर
जन्मा सुधियों का
मृगछौना ,
ज्यों कुहरे से
ढकी झील में
प्रतिबिंबित हो
चाँद सलौना ,
निंदियारी
पलकों पर सहसा
अनगिन स्वप्न तिरे .
**
रूपायित हो
ढली चेतना
जिस दिन
ऋतुपर्णा छाहों में ,
कोई मेरा
सहभागी था
नागपाश रचती
बांहों में ,
शिथिल हो गई
स्वप्निल काया
रोम रोम सिहरे .
***
पराभूत
मन का हर संभव
भटकी हुई
साधनाएं हैं ,
प्रतिपल जलते
हुए सूर्य-सी
निर्व्यतीत यातनाएं हैं ,
ठोस
धरातल से टकरा कर
बिम्ब सभी बिखरे .
प्रेम शर्मा
('कादम्बिनी', मई , १९६४)
बौराया मन
आहत स्वर उभरे।
*
विस्मृत्तियों का
गर्भ चीरकर
जन्मा सुधियों का
मृगछौना ,
ज्यों कुहरे से
ढकी झील में
प्रतिबिंबित हो
चाँद सलौना ,
निंदियारी
पलकों पर सहसा
अनगिन स्वप्न तिरे .
**
रूपायित हो
ढली चेतना
जिस दिन
ऋतुपर्णा छाहों में ,
कोई मेरा
सहभागी था
नागपाश रचती
बांहों में ,
शिथिल हो गई
स्वप्निल काया
रोम रोम सिहरे .
***
पराभूत
मन का हर संभव
भटकी हुई
साधनाएं हैं ,
प्रतिपल जलते
हुए सूर्य-सी
निर्व्यतीत यातनाएं हैं ,
ठोस
धरातल से टकरा कर
बिम्ब सभी बिखरे .
प्रेम शर्मा
('कादम्बिनी', मई , १९६४)
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