जब ढ़ह रही हों आस्थाएंजब भटक रहे हों रास्तातो इस संसार में एक स्त्री पर कीजिए विश्वासवह बताएगी सबसे छिपाकर रखा गया अनुभवअपने अंधेरों में से निकाल कर देगी वही एक कंदील-कुमार अंबुज
अन्तत: सारे मर्द एक जैसे होते हैं, चाहे बलिया के पांडेय जी हों या गोरखपुर के गुप्ता जी, पटना के सिन्हा जी, लखनऊ के मिश्रा जी, दिल्ली के खन्ना जी या फिर रुस जैसे देश के राष्ट्रपति पुतिन।
एक घटना ने इस जुमले को सही साबित कर दिया। वह(ल्यूडमिला) बेबाक थी और वह (पुतिन) चाहते थे उसकी चुप्पी। जैसे कि ज्यादातर मर्द अपनी पत्नियों से चाहते हैं। एक बेबाक स्त्री या तो शिकंजे में रहती हैं या संदेह के घेरे में रहती है। पतियों को हजम नहीं होती, बोलती हुई अधीनस्थ स्त्री। दिमागी स्त्री के संकट कम नहीं। फिर भुगतेगा कौन। सबसे पहला आक्रामणकारी, दमनकारी होता है पति। बाप, भाई के साये से बच कर निकली हुई स्त्री अपने साथी के दम पर कुंलाचे भरना चाहती है कि नुकीले पंजे उसकी गर्दन में चुभ जाते हैं। ल्यूडमिला के साथ भी यही हुआ।

अब्राहम लिंकन का कथन याद करें कि विवाह न तो स्वर्ग है न नर्क, वो तो सिर्फ एक यातना है।
ल्यूडमिला इस लंबी यातना से मुक्ति के बाद चैन की सांस लेती हुई वह फिर वापस अपनी दुनिया में लौट गईं। जिस प्यार ने उन पर डोरे डाले, उन्हें गुलाम बनाया, उन्हें बदलने की काशिश की, जैसी कोशिशे आम भारतीय घरो में की जाती है, पतियों के द्वारा। ये कोशिश बेहद क्रूर और हिंसक होती है, जहां एक स्त्री की मौलिकता को अपने सांचे में ढालने की कवायद की जाती है। स्त्रियों की बेबाकी से डरने वाले मर्दो को अभी तक गूंगी गुड़िया की चाहत बरकरार है। सब जानते हैं कि मर्द दूध के धुले नहीं हैं फिर भी पत्नी शक के घेरे में है आज। हौलीवुड की असाधारण नर्तकी-अभिनेत्री इजाडोरा डंकन ने अपनी आत्मकथा में वैवाहिक जीवन की त्रासदी के बारे में स्पष्ट लिखा है कि विवाह संस्था की नियम-संहिता को निभा पाना किसी भी स्वतंत्र दिमाग की स्त्री के लिए संभव नहीं है। ये अलग बात है कि उन्हें निभाना पड़ता है। निभाने वाली स्त्रियों ने इस दुख को खुद चुना है। डेविड म्यूरर ने कहा है कि सफल विवाह वह है जिसमें पति पत्नी एक दूसरे के मतभेदो में खुशी ढूंढ लेते हैं। लेकिन कुछ मुल्को में तो मतभेद तक की इजाजत नहीं होती। हां में हां मिलाते रहो तो विवाह सफल, ना मिलाया तो रास्ते अलग या बंदीगृह में जिओ।
कई आधुनिक स्त्रियों के लिए उनका घर बंदीगृह सरीखा है। अपने समय (1878-1927) में अविवाहित इजाडोरा डंकन, विवाह के खिलाफ, स्त्रियों की दशा सुधारने के लिए जब हुंकार भर रही थी, उसी दौरान उन्होंने मां की विवाहित सहेलियों के चेहरे जुल्म और दास्तां के निशान देखें। ये निशान आज भी विकासशील मुल्को की स्त्रियों के चेहरे पर मौजूद हैं। गौर से देखिए तो सही।
ये सब लिखते हुए कई कारणो से मन भारी है। हादसे हैं कि हमारा पीछा नहीं छोड़ते। विमर्शो, बहसो, मोर्चो, आंदोलनो, कैंडिल मार्चो और कानूनो के बावजूद।
प्रीति राठी जैसी मासूम, निरपराध लड़कियों के चेहरे पर तेजाबी हमले अब तक जारी है। आखिर प्रीति अब नहीं रही। कल तक वह हमारे बीच थी। जिया खान ने भी खुदकुशी कर ली। एक तो बिल्कुल निपराध थी, दूसरी ने प्रेम करने का दुस्साहस किया था। बदले में दोनों को मिली पीड़ादायी मौत जो हमें गहरे स्तब्ध करती है। इन दोनों का होना, हमारे बीच एक सपने का होना था। उनका होना, हमारे बीच एक मिशन का होना था। उनका होना, हमारे बीच एक साहस-संकल्प का होना था। उनका होना, एक संभव-संभावना का होना था। क्या था प्रीति का गुनाह। क्या था जिया खान का गुनाह। ये दो संभावनाओं से भरी लड़कियां कई सवाल अपने पीछे छोड़ गई हैं।
बहरहाल, अब कुछ और बाते कर लें। इन्हीं अंधेरो से स्त्रियां ही मर्दो को कंदील देंगी उजाले के लिए। बस रिश्तो में विश्वास बचाए रखना जरुरी है।
उम्मीद है आपकी छुट्टियां मजे में कटी होंगी, घूमते फिरते, रिश्तेदारो से मिलते मिलाते..।
भीड़ से अलग अपनी पहचान बनाने वाली आपकी प्रिय पत्रिका बिंदिया हाजिर है, नई और दिलचस्प सामग्री लेकर, हमेशा की तरह। आपने बिंदिया को बदलते हुए देखा और सराहा है। आपके पत्रों और फोन कौल्स ने हमें अहसास कराया कि हम कुछ लीक से हटकर काम कर रहे हैं। हल्की फुल्की समाग्री के साथ कुछ बौध्दिक खुराक भी आपको मिले, यही कोशिश रही है।
आपके स्नेह की नरमाई फिर मिलेगी...इसी उम्मीद के साथ विदा।
आपकी गीताश्री
(सम्पादकीय: 'बिंदिया' जुलाई २०१३)
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भरत तिवारी
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