कहानी: लूडो - निहाल पराशर


निहाल पराशर

मूल निवासी: पटना
काम-काज: दिल्ली में पिछले पाँच वर्ष से रंग-मंच से अभिनेता एवं लेखक की तरह जुड़ा हुआ हूँ| कविता और कहानी लिखना पसंद है|
पढ़ाई: फिलहाल भारतीय जनसंचार संस्थान में अंग्रजी पत्रकारिता के छात्र| इससे पहले लेडी श्री राम कॉलेज से अंतरराष्ट्रीय राजनीती में पी. जी. डिप्लोमा, और दयाल सिंह कॉलेज (दिल्ली विश्वविद्यालय) से अंग्रेजी साहित्य में स्नातक |
लिखने- पढ़ने का शौक| संगीत और सिनेमा में विशेष रूचि|
संपर्क: nihalparashar24@gmail.com

लूडो 

“आप चलिए| अब आपका चांस है|”

“हाँ पता है| रुकिए, हम जरा चाय चढ़ा कर आते हैं| तब तक आप गोटी इधर-उधर मत कर दीजियेगा| हम सब देख रहे हैं|”

और गोमती चाय चढ़ाने किचन में चली गयीं| सिन्हा जी ने जैसे ही देखा की गोमती जी किचन में गयीं, उन्होंने अपनी दो लाल गोटियों को कुछ कदम आगे बढ़ाया, कुछ पोजीशन बदला ताकि गोमती जी की पीली गोटियाँ उन्हें काट ना सके| पीली गोटियों को भी थोड़ा सा कंविनिएंट पोजीशन में रख दिया| अब खेल वो जीत रहे थे| फिर वो अखबार पढ़ने लगे ताकि गोमती जी को कोई शक ना हो सके|

ये सिलसिला कई सालों से चल रहा है| सिन्हा जी को रिटायर हुए सात साल हो गए हैं| वो बिहार सरकार के बिजली विभाग में हेड क्लर्क हो कर रिटायर हुए थे| सीधे सादे व्यक्तित्व वाले इंसान थे| करियर में कभी किसी ऐसे चक्कर में नहीं पड़े जिसके कारण उन्हें शर्मिंदा होना पड़ा हो| वही सब कुछ करते थे जो उनके दफ्तर के बाकि सभी साथी करते रहे| स्वभाव के चिडचिडे नहीं थे| सुगर की दिक्कत थी उन्हें, फिर भी चाय में चीनी डलवा लेते थे| गोमती उन्हें कभी चीनी वाली चाय नहीं देती थी, तो वो सिर्फ दफ्तर में ही ये शौक पूरा कर पाते थे| जबसे रिटायर हुए, ये शौक भी जाता रहा| और सात सालों में बिना चीनी वाली चाय की आदत हो गयी है|

“लीजिए|” गोमती ने चाय पकड़ाते हुए कहा| “फिर से बदमाशी कर दिए| गोटी सब ठीक कीजिये| हमको सब याद है कौन गोटी कहाँ पर था|” और सिन्हा जी मुस्कुराने लगे|

“तो तुम्ही जीतोगी हमेशा? हमको भी जीतने दो|”

“तो जीतिए| मना कौन किये हुए है| लेकिन गलथेतरई मत कीजिये| हम जीतने लगे तो पूरा खेल बिगाड़ दीजियेगा| खुद से चाय काहे नहीं बनाते हैं|”

“अच्छा| चलो ना भाई, तुम्हारा चांस है|”

“पहले गोटी ठीक कीजिये|”

सिन्हा जी को कभी भी लूडो खेलना अच्छा नहीं लगता था| जबकि गोमती लूडो खेलना पसंद करती थीं| जब सिन्हा जी ऑफिस जाते थे तब वो घर में काम करने वाली दाई के साथ बैठ कर खूब लूडो खेलती थीं| बच्चे पढ़ाई करने के लिए दिल्ली में रहते थे| छुट्टियों में आते तो माँ का पूरा दिन बच्चों की देखरेख में गुज़र जाता| स्वाति और अविनाश लूडो खेलने को समय की बर्बादी समझते थे, तो उनके आते ही गोमती जी का लूडो खेलना बंद| उन्हें भी ध्यान नहीं रहता था, और बाकी सब काम में वक्त कट जाता था|

अब बच्चे बड़े हो गए हैं| शादी हो गयी है दोनों की| अविनाश दिल्ली में ही रहने लगा है, और स्वाति बेगुसराय में| बेगुसराय पटना से बहुत दूर नहीं है, तो महीने दो महीने में सिन्हा जी और गोमती से आकर मिल लेती है अपने बच्चों के साथ| अविनाश का आना थोड़ा कम होता है| जब कभी कोई पर्व-त्यौहार हुआ, वो भी अपने परिवार के साथ आ जाता है| बस पर्व-त्यौहार ही हैं जब सम्पूर्ण परिवार का मिलन होता है| बाकी वक्त घर में सिन्हा जी, गोमती और लूडो|

रिटायरमेंट के बाद घर में बैठे-बैठे सिन्हा जी को बोरियत होने लगी थी| आदत थी सुबह उठने की, वो तो जाने से रही| घर के काम-काज में गोमती का हाथ बटाने लगे तो दाई को हटा दिया गया| कुछ पैसे भी बचने लगे और दम्पति के लिए कुछ काम निकल आया अपने आपको व्यस्त रखने के लिए| टीवी भी खराब होने लगी थी| जब नौकरीशुदा थे तब ही खरीदा था| अब टीवी में ना तो रंग साफ़ पता चलते ना ही आवाज़ ही ठीक से आती| अच्छा खासा हीरो भी गूँगा और बदसूरत नज़र आता था उन्हें| टीवी खरीदने की इक्षा तो कई बार हुई, लेकिन सिन्हा जी के पास कोई बचत राशि थी नहीं तो गोमती ने कभी बोला नहीं| जो भी कुछ पेंशन आता उससे घर का किराया, राशन और दवा का ही इंतज़ाम हो पाता था| थोड़ा बहुत जो बचता उसे गोमती जमा कर देती थी अपने गुल्लक में| कहती बुरे वक्त में काम आएगा| सिन्हा जी हमेशा मुस्कुरा देते|

रिटायरमेंट के साल भर बाद ही गोमती को लूडो खेलने की सूझी| घर में बैठे-बैठे क्या करते, तो सिन्हा जी भी खेलने लगे| शुरुआत में बड़े जल्दी ऊब जाते थे| कहते ये क्या तरीका है वक्त काटने का| “आप यही सब करती थी जब हम ऑफिस में रहते थे?” गोमती शरमाते हुए मुस्कुराती| वो मुस्कराहट एक पाँच साल के अबोध बच्चे सी थी| सिन्हा जी ने ऐसी मुस्कराहट कभी देखी नहीं थी गोमती के चेहरे पर| बस लूडो का सिलसिला शुरू हो गया|

पहले-पहल तो दिन में कोई तीन-चार बार लूडो खेलते दोनों| सुबह के चाय के साथ, दोपहर के वक्त सोने से पहले, शाम में नाश्ते के साथ और फिर रात में अगर इक्षा हुई तो| फिर धीरे-धीरे ये दिनचर्या का हिस्सा हो गया| जब मौका मिलता दोनों लूडो खेल लेते|

सिन्हा जी ने गोमती के बारे में वो सब जाना जो वो पहले कभी जान नहीं सके थे| चालीस साल की शादीशुदा जिंदगी में कितने ही पल साथ बिताए थे, लेकिन उन्हें ये कभी पता नहीं चला था कि जब गोमती की पीली गोटी सिन्हा जी की लाल गोटी को काटती है तो वो गोमती के लिए अदभुत पल होता है| कितनी ही बार गोमती ने लाल गोटी काटते ही ठहाके मारे हैं, और कितनी ही बार खुशी से नाच पड़ी हैं| ऐसा प्रतीत होता जैसे सिर्फ एक गोटी काटने से गोमती अपनी हर दबी इक्षाओं को बहार निकाल देती| बहुत कुछ था जो वो सिन्हा जी से नहीं कह सकी थीं| जब पीली गोटी लाल गोटी को काटती, तो हौले से लाल गोटी के कान में सालों से बेजुबान लम्हों को बयां कर देती| वो कहती कि जब शादी के तीन साल हो चुके थे तो वो कितना चाहती थीं सिन्हा जी के साथ आगरा जाना जब वो अपने दोस्तों के साथ जा रहे थे| सिन्हा जी ने बस एक बार ही उनसे पूछा था, वो भी अनमने मन से| और जब उनकी ननद उनको ताने मारती, वो चाहती थीं कि सिन्हा जी अपनी बहन से झगडा करें| झगडा ना भी तो कम से कम गोमती का पक्ष रखें| लेकिन सिन्हा जी अपनी बड़ी बहन के सामने हमेशा मुस्कुरा कर रह जाते|

सिन्हा जी को गोटी काटने में वो खुशी नहीं मिलती जो उन्हें गोमती के खुश चेहरे को देख कर मिलती है| इंसान कितना अजीब है, वो सोचते| कितनी बड़ी-बड़ी खुशियों की हम उम्मीद करते हैं| वो आती भी हैं, लेकिन कई बार बड़ी खुशियाँ खुशी नहीं देती| वो पल उनको सँभालने में ही निकल जाता है| और लूडो में गोटी काट कर जो खुशी मिलती है, वो कितनी सहज है, कितनी सरल है, अनमोल है, अदभुत है| उनकी गोटी कटती तो वो नाराज़ भी होते| लेकिन वो नाराज़गी कितनी ही खुशियों पर भारी पड़ती| सालों बाद वो खुद को मासूम महसूस कर रहे थे|

“भक्! फिर आप जीत गयीं| हम समझ रहे हैं आप पासा में कुछ कर देती हैं| बार-बार छक्का कईसे आ जाता है जी?”

“हाँ| हम जीत जाते हैं तो दुनिया भर का इल्जाम लगा दीजिए| हम कभी गाल नहीं बतियाते हैं| आप गोटी इधर-उधर करते हैं तो भगवान जी सजा देते हैं, और नहीं तो का!”

“चलिए, एक ठो और गेम खेलते हैं| इ बार एकदम से हरा देंगे आपको|”

“हाँ, देखते हैं...” कहते-कहते गोमती खाँसने लगी|

“अरे, दवाई फिर नहीं ली| रुकिए, दवाई लाते हैं| इतना लापरवाह कईसे हो सकती हैं जी?” कहते हुए सिन्हा जी दवाई लेने चले गए| सिन्हा जी थोड़े आलसी किस्म के सरकारी मुलाजिम रहे थे| लेकिन उनका सारा आलसपन गोमती की एक खाँसी में उड़नछु हो जाता, और वो दौड़ जाते उनकी दवाई लेने के लिए| और गोमती खाँसते हुए कहती, “ रुकिए ना, हम ले रहे हैं ना दवा तुरंत| अपना चांस चलिए|”

“पगला गयी हो एकदम्मे|” कहते हुए सिन्हा जी गोमती को दवा देते| ये सब एक रिवाज़ की तरह कई महीनों से, कई सालों से चल रहा है|

समय के साथ-साथ दोनों की सेहत भी बिगड़ती जा रही है| लेकिन लूडो उसी उत्साह और जोश के साथ खेलते दोनों| अब ऐसा होता कि हर वक्त लूडो के बोर्ड पर गोटियाँ बिछी होती| सुबह उठकर पहला काम यही होता कि लाल और पीली गोटियों के बीच रेस लगाई जाए| एक मैराथन है जो कई सालों से दोनों खेल रहे हैं|

सुबह का वक्त है| सिन्हा जी हमेशा गोमती के उठने के बाद ही उठते हैं| गोमती उन्हें दो बातें सुना कर उठाती हैं| आज गोमती ने उन्हें नहीं उठाया| सिन्हा जी ने देखा तो गोमती अब तक सो रही थीं| आठ बज चुके हैं| अब तक तो चाय और लूडो के दो गेम हो चुके होते| सिन्हा जी ने गोमती के बदन को छुआ तो वो जकड़ा हुआ और ठंडा पड़ा था| सिन्हा जी सन्न रह गए|

अविनाश और स्वाति को फोन करके सबकुछ बताया|

धीमे क़दमों से जब बैठक में पहुचें तो लूडो के बोर्ड पर लाल और पीली गोटियाँ बिछी देखीं| बोल पड़े, “सुनिए ना, आज आप पहले चांस लीजिए| हम गलथेतरई नहीं करेंगे|”



एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ

ये पढ़ी हैं आपने?

Hindi Story आय विल कॉल यू! — मोबाइल फोन, सेक्स और रूपा सिंह की हिंदी कहानी
गिरिराज किशोर : स्मृतियां और अवदान — रवीन्द्र त्रिपाठी
कोरोना से पहले भी संक्रामक बीमारी से जूझी है ब्रिटिश दिल्ली —  नलिन चौहान
चित्तकोबरा क्या है? पढ़िए मृदुला गर्ग के उपन्यास का अंश - कुछ क्षण अँधेरा और पल सकता है | Chitkobra Upanyas - Mridula Garg
ज़ेहाल-ए-मिस्कीं मकुन तग़ाफ़ुल Zehaal-e-miskeen makun taghaful زحالِ مسکیں مکن تغافل
मन्नू भंडारी की कहानी — 'रानी माँ का चबूतरा' | Manu Bhandari Short Story in Hindi - 'Rani Maa ka Chabutra'
मन्नू भंडारी: कहानी - एक कहानी यह भी (आत्मकथ्य)  Manu Bhandari - Hindi Kahani - Atmakathy
अखिलेश की कहानी 'अँधेरा' | Hindi Kahani 'Andhera' by Akhilesh
समीक्षा: अँधेरा : सांप्रदायिक दंगे का ब्लैकआउट - विनोद तिवारी | Review of writer Akhilesh's Hindi story by Vinod Tiwari
मन्नू भंडारी, कभी न होगा उनका अंत — ममता कालिया | Mamta Kalia Remembers Manu Bhandari