मनोज कचंगल की कुछ कविताएँ

एक विचित्र चित्र 


शब्दों को सँजोता
संवेदनशील मन की लड़ियों में

रेखाएँ काढ़ता
तूलिका साधता
रंगों को करता संयोजित

बना देता अनायास ही चित्र
जो भेद से होता परे

इतने रंगों में
कैसे हो जाती है तुल्यता
भर जाता है सौरभ दुनिया में

लग जाते हैं पंख मेरे सपनों में
मैं रचता ही जाता हूँ -
एक विचित्र चित्र
क्योंकि
मैं शिल्पी हूँ
┉┉┉┉●┉┉┉┉


डायरी


डायरी लिखते समय
हाशिया के साथ
कुछ जगह और छोड़ दी
रिक्त

आशा है जिसे तुम भरोगी

फिर मेरी डायरी की पंक्ति
शुरू हो जाएगी
तुम्हारे ही शब्दों से
या
सिर्फ शब्द से
┉┉┉┉●┉┉┉┉


तुम्हारा हँसना 


तुम्हारा हँसना
जैसे कि अवसाद में खिल गया आकाश
आकाश में बिखर गया नील
नील समा गया झील में
झील समा गई तुम्हारी आँखों में

नील समा गया नील में

जैसे कि हँसी समा गई अवसाद में
अवसाद बन गया उत्सव
शीर्षकहीन उत्सव

मैं उत्सव तुम उत्सव
मैं अवसाद तुम अवसाद
जैसे अवसाद उत्सव में समा जाता है
क्या यह आशा मैं तुमसे
रख सकता हूँ किसी शीर्ष पर
खड़े हो शब्दहीन प्रार्थना से तुमको
पुकार सकता हूँ कि
तुम आओ

और तुम्हारा हँसना
फिर बन जाएगा उत्सव
प्रेमोत्सव
┉┉┉┉●┉┉┉┉


प्रणय को नमन 

(मांडू के खंडहरों को देखकर )


उस प्रणय को नमन
जिसकी गाथाएँ आज भी गूँजती हैं
उन खंडहरों में
एक लय-संगति की तरह

उन शिल्पियों को नमन
जिन्होंने निर्माण किए प्रणय की ख़ातिर
अति विशाल भवन
जहाज़ हिंडोला, मंडप की तरह

कभी गूँजी होंगी
लयबद्ध प्रणय-ध्वनियाँ
संयोग में
खो गए होंगे वो
शून्य तथा वियोग में

कभी रोया भी होगा संगीत
टूटी होगी लय
बदल गई होगी सिसकियों में

इतिहास देता है गवाही
निर्मल प्रणय
माँगता है सिर्फ़ त्याग

मैं उन प्रणय के
पुजारी-पुजारन को
उन तमाम शिल्पियों को
प्रणाम करता हूँ
┉┉┉┉●┉┉┉┉


निस्तब्ध मन


निस्तब्ध मन खो जाता है
कहीं-कहीं उलझ जाता है
उन अनजानी चीज़ों में
निश्चित अनिश्चित दिशाओं में
शब्दों में
शब्दों के मायाजाल में

उन्हीं पुराने अँधेरों में
पुनः ढूँढने लगता है वही सुराग
जिसमें से आ गई थी सूर्य किरण
बेधड़क
मार्ग दिखाने एक दिशा का
┉┉┉┉●┉┉┉┉


एक पीला दिन 


एक पीला दिन
हँसता हुआ दिन
बिखेर देता है खुशियाँ
पीली सृष्टि में

पीली आवाज़ पीली सुगंध
पीले रिश्ते
पीले बंधन
तथा हमारा प्रणय भी
हो जाता है पीला
पीले दिनों में
जैसे
फूल रहा हो सरसों का खेत
┉┉┉┉●┉┉┉┉



एक अनाम यात्रा 

मेरी यात्रा
एक अनाम यात्रा
शब्दों की
रंगों की रेखाओं की यात्रा

एक अनाम यात्रा तय कर रहा हूँ
हवा की फुसफुसाहट के सहारे
ख़ुद को ख़त्म करके

पीले, नीले, हरे
तथा काले दिनों में भी
गतिमान हूँ अनवरत

और जारी है
एक अनाम यात्रा
┉┉┉┉●┉┉┉┉


कुछ नया


कुछ नया करने में भी होता है एक राग
तथा उत्तेजना पर होता है मनन
तब मस्तिष्क में रख कर दिया
खोजता हूँ ख़ुद ही उन शब्दों के अर्थ
जो उत्तेजना में निकल गए मुँह से बाहर
कुछ भीतर ही दम साध रह गए

अलग- अलग हो जाता है
पानी मिले दूध से
पानी और दूध

पता नहीं कहाँ से
आ जाती है
आत्मचेतना
पुमः सक्रिय हो जाता हूँ
कुछ नया करने के लिए
┉┉┉┉●┉┉┉┉


मुक्ति 


मुझे मुक्त कर
ख़ुद भी मुक्त हो गईं

चली गईं
चौकड़ी भरतीं हिरनी की तरह
पश्चिम की ओर

मेरी आँखों में ठहर गए अश्रु
सिसकियाँ मेरे मन की धरोहर हो गईं

तुमने समझा कि मैं एक शिकारी हूँ

तुम दूर हो गईं
और मुझे याद आया बचपना बरबस
जब कट गई थी मेरी पतंग
जा थमी थी
किसी और की छत पर
┉┉┉┉●┉┉┉┉


मंदिर की अंतिम सीढ़ी पर 


मंदिर की अंतिम सीढ़ी पर भी
प्रार्थना के कुछ शब्द छोड़ आया
कुछ भावनाएँ-संवेदनाएँ छोड़ आया
थोड़ा-सा अपने को थोड़ा-सा आप को छोड़ आया
प्रेम छोड़ आया प्रेम का निनाद छोड़ आया

दो-चार फूल दो-चार बूँदें
मंदिर की अंतिम सीढ़ी पर भी
प्रेम प्रार्थनाएँ छोड़ आया
┉┉┉┉●┉┉┉┉


तुम्हारे ही पास 

मेरी शब्दहीन प्रार्थनाएँ
तथा अपेक्षाहीन भावनाएँ लिये
श्वेत प्रेम
जिद्दी नासमझ
अमूर्त शीर्षकहीन
तुम्हारी साँसों की अनसुलझी गुत्थियों में
शीर्षक पाने मौन खड़ा है
तुम्हारे ही पास
┉┉┉┉●┉┉┉┉


वह


वह हवा बाँध सकती है
वह सूर्य से मिल सकती है
वह तारों की पहन सकती है माला
वह नक्षत्रों से वार्ता कर सकती है

वह चाय पी सकती है
और गिन सकती है मेरी गर्म साँसें

वह दूर्वा पर
मेरे साथ लेट सकती है

मैं हूँ कि ऒस हूँ
┉┉┉┉●┉┉┉┉

मनोज कचंगल की कला : कुमार अनुपम 


एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ