हमारी स-प्रमाण गर्वोक्ति
अशोक गुप्ता


किसी समय जब मोरारजी देसाई ने राष्ट्रीय स्तर पर शराब बंदी कानून का अभियान शुरू किया था, तब (यथा स्मृति) किन्हीं मेहता जी ने कहा था कि मैं शराब के बिना रह सकता हूँ, लेकिन शराब पीने के अधिकार से वंचित होना नहीं सह सकता. ठीक इसी तरह, वर्तमान लोकतंत्र, मनसा, वाचा, कर्मणा इस पर विश्वास करती है कि जो भी राजनैतिक, बतौर अल्पसंख्यक आज अभी अपराधी नहीं है, उसके लिये भविष्य में अपराधी हो जाने का रास्ता खुला होना चाहिये. वैसे भी, किसी दूसरे व्यक्ति को किसी ऐसे कृत्य में फंसा कर दण्डित करा देने का हुनर भी तो अपराध ही है, अपराधी के समर्थन में हाथ खड़े करना भी तो अपराध ही है.

विरोध तो हिंदुत्व के राजनैतिक षड्यंत्र से है.
अशोक गुप्ता
पता नहीं यह मेरा पुनर्निरीक्षण है या स्पष्टीकरण, लेकिन मेरा उद्वेलन तो है ही. इसलिये इसका बाहर आना ज़रूरी है.
मैं समझता हूँ कि हिंदुत्व का भाव हिंदू व्यक्ति और समाज के निजी और सांस्कृतिक अंतर्संसार से जुड़ा हुआ प्रसंग है. निजता का स्वातंत्र्य इसमें प्रमुख है और आरोपण निषिद्ध. हिंदुत्व की संरचना में भी कितने ही भेद है, जो एक दूसरे के विरोधी भी हैं. शैव्य और वैष्णव इसका एक उदाहरण है और भक्ति प्रारूप में मतभेद दूसरा. इनमें से किसी के भी पक्ष में अपना विश्वास और अपनी आस्था रखता व्यक्ति हिंदू है, निजता का स्वातंत्र्य अपने में बहुत महत्वपूर्ण है. भक्ति की निर्गुण धारा बहुत से कृत्यों और कर्मकांडों से मुक्त है, लेकिन मूल रूप से हिंदुत्व में इसे भी अपना स्थान मिलता है. कुल मिला कर, हिंदू बोध से मुक्त न होते हुए भी मैं इस तथाकथित हिंदुत्व की पुकार को स्वीकार्य नहीं पाता हूँ.

यहां मैं यह भी कहना चाहूँगा कि मेरा यह सोच केवल हिंदुत्व से नहीं जुड़ता. धार्मिक आस्था का जो भी भाव, चाहे वह इस्लामिक हो या इसाईयत का, अगर वह राजनैतिक आधार पर अपना विस्तार चाहता है तो वह मेरे दृष्टिकोण से कलुषित है. सारे इस्लामिक सरकारों वाले राष्ट्र आज सांप्रदायिक राजनीति के कारण आतंकवाद फ़ैलाने का केन्द्र बन रहे हैं और खुद भी आतंकवाद के शिकार हैं. इस तरह वह भी उतने ही निंद्य हैं जितना मोदी का हिंदुत्व.
साफ़ है, मैं भारत के हिंदू राष्ट्र होने के विचार को मान्यता नहीं देता, क्योंकि तब वह एलानिया अन्य संप्रदायों के नागरिकों को शत्रु मानने लगेगा ( जैसे मोदी और ठाकरे अभी भी मुसलमानों की हत्या को जायज़ मानते हैं ) राष्ट्र की व्यवस्था में एक सामंती सोच पैदा होगा और तानाशाही सत्ता का स्वतः स्वाभाविक चरित्र बन जायेगी. मैं यह स्पष्ट रूप से देख पा रहा हूँ कि राजनैतिक परिप्रेक्ष में हिंदुत्व के पक्षधर, हिंदुओं की सामाजिक आर्थिक दशा के प्रति सचेत नहीं हैं. जगन्नाथ पुरी मेरी प्रिय जगह है और वहां में अब तक तीन बार जा चुका हूँ. वहां मंदिरों के प्रभुत्व ने मंदिर से जुड़े छोटे मोटे धंधे के इतने रास्ते खोले हुए हैं कि उनके कारण शिक्षा किसी की वरीयता में स्थान नहीं पाती है. मंदिरों में निशुल्क प्रसाद एवं लंगरों का प्रावधान है. समुद्र तटीय स्थान होने की वजह से मौसम वहां शरीर ढकने की अनिवार्यता नहीं खड़ी करता. बड़े बड़े मंदिर अपने विपन्न नागरिकों को भक्त होने की शर्त पर छत देता है. इस तरह वह तीनों मूल भूत आवश्यकताएं, जिनके लिये व्यक्ति शिक्षित हो कर खुद को तैयार करे, हिंदुत्व के प्रतीक मंदिरों से पूरी हो रही हैं... लेकिन अधिकाँश जन परिवेश घोर विपन्नता की स्थिति में देखा जा सकता है. हिंदुत्व उन्हें संतोष का पथ पढ़ा कर चुप करा देता है. हिन्दुत्ववादी राजनैतिक लोग इस से प्रसन्न हैं, क्योंकि उनके मतदाता और समर्थक शिक्षा के आलोक में जाने से बचे हुए हैं. शिक्षा का आलोक उनके षड्यंत्र के लिये खतरनाक है, भले ही जन समुदाय का दीर्घकालिक भला शिक्षा के माध्यम से ही होने वाला है. इसके अतिरिक्त, अगर हम एकरस हिंदू कही जाने वाली संरचना को भी देखें तो, उसकी बहुत सी पर्तें दिख जाएंगी. तब धार्मिक एकरसता के नीचे जातीय फांकें दिखेंगी. ब्राह्मण और ठाकुरों का विद्वेष, सवर्ण और दलितों का विद्वेष और सबसे ऊपर स्त्री और पुरुष का विद्वेष तो रहेगा ही. और साफ़ है कि हिंदुत्व भी इस मामले में समदर्शी नहीं है. वह ब्राह्मण को श्रेष्ठ कह कर, दलित पर अत्याचार को मान्य ठहरता है. इसी तरह स्त्री हिंदू धर्मं की मान्यता के अनुसार पुरुष के सापेक्ष तो निकृष्ट है ही. इस व्यवस्था को राष्ट्र व्यापी स्तर पर कौन विवेकशील नागरिक स्वीकृति देना चाहेगा ?.
पूरे विश्व में जहाँ भी साम्प्रदयिक राजनीति और शासन पद्धति लागू है, वहां अशिक्षा, अंधविश्वास और विवेक दारिद्रय का बोलबाला है. वहीँ अतार्किक फतवे अपनी जगह बना पा रहे हैं. भारत को हिंदू राष्ट्र बनाना उसे इसी परिणिति की ओर धकेलना है, भले ही इससे राजनेताओं की यथास्थिति मजबूत बनी रहने की घनी संभावना है.
अब कहें, मैं क्यों न देश, समाज और व्यक्ति की निजता और स्वातंत्र्य के हित में हिंदुत्व के उस प्रारूप का विरोध करूँ जो अंततः छद्मवेश में राजनैतिक षड्यंत्र की रणनीति है. मैं समझता हूँ कि मुझे इस पर अडिग रहना चाहिये.
अशोक गुप्ता
305 हिमालय टॉवर.
अहिंसा खंड 2.
इंदिरापुरम.
गाज़ियाबाद 201014
मो० 09871187875
ई० ashok267@gmail.com
0 टिप्पणियाँ