अर्चना वर्मा - कहानी 'जोकर - एक जादू की सृष्टिकथा'


...सबसे उ़पर ‘रेप: डिस्कोर्स ऑफ पावर’ । फिर हिन्दी में चपला की लिखावट, ‘बलात्कार यानी बल से करना’ फिर कंकु की लिखावट, ‘क्या करना ।’ फिर चपला के बड़े–बड़े अक्षरों में शीर्षक की तरह रेखांकित ‘बलात्कार : बलात्चार ।’ यह ‘चार’ कहाँ से आ गया । मैंने पूछा, ‘विचार से’, चपला बोली, ‘यह डिस्कोर्स ऑफ पावर की हिन्दी है ।’ ‘यानी बल से चरना’, सुगंधा ने जोड़ा । 



जोकर 

एक जादू की सृष्टिकथा ... अर्चना वर्मा


गत्ते का बक्सा नीली रस्सी में बँधा था । गाँठ कस गई थी । काटकर खुली । ढक्कन चार पल्लोंवाला था । दो आड़े, दो बेड़े । उ़पर वाले दोनों पल्ले खोल चुकने के बाद मैंने एक–एक करके चपला, सुगंधा और कंकु पर नज़र डाली । इस उम्मीद के साथ कि नज़र गहरी लगी होगी । उनके चेहरे गंभीर थे । और उत्सुक । हम सबको मालूम था कि बक्से के अंदर क्या है । मुझे जानकारी से, उन्हें सूचना से । फिर भी उनके लिए अपनी यह सौगात मैं ज़रा नाटकीय बनाकर पेश करने वाली थी । रहस्योद्घाटन की तरह । वे भी उसे वैसी ही मुद्रा में ग्रहण करने को तत्पर खड़ी थीं । ऐसे छोटे–छोटे खिलवाड़ों से हम लोग अपने घर में जब–तब एक उत्सव रच लेते हैं और आज जब इतने महीनों बाद मैं घर लौटी तो सचमुच भी, उत्सव तो था ही ।

     खिड़कियाँ, दरवाज़े बंद, परदे खींच कमरे में अँधेरा । टेबिल लैंप जलाया । बक्सा उसके दायरे के आधा भीतर, आधा बाहर । तीसरा पल्ला हटते ही बक्से के भीतर के अधखुले दृश्य में कोरे कलफ दार सफेद कपड़े पर लाल छींटे दिखीं और एकटक ताकती तीन जोड़ी आँखें दृश्य के धक्के से फैल उठीं । किसी एक की चैंकी हुई साँस का झटका भी सुनाई दिया । असल में तो मैं खुद भी हड़बड़ा गई । नाटकीयता के यूँ डरावनी और खूँख्वार हो उठने का मुझे कतई अंदाज़ा नहीं था । चैथा पल्ला जल्दी में फटाक से बोला । कोरे कलफ दार कपड़े की लाल छींटों वाली चादर लपेटे डिब्बे के भीतर चैकोर देशकाल को पूरा घेरकर सोया हुआ रहस्य अब सबके सामने था और खुल जाने के बावजूद बेचैन कर रहा था । नीम उजाले या कि नीम अँधेरे में काजल की मोटी–मोटी आँखें और लाल छीटों वाले पदार्थ में खिंची अधर रेखा । सतह पर सूखकर पपड़ाई हुई फटी चमड़ी अब इतनी सूख चुकी थी कि कुछ दिन पहले लगी हुई चींटियाँ भी अब छोड़कर जा चुकी थीं । आटे की पिंडियों, पोटलियों, गाँठों, कपड़े की सलवटों और रक्त के छींटों से रचा वह रहस्य उस रोशनी में हे राम, तुलसा दाय ने कहा था, डरो मत, कैसे न डरूँ! है कहीं कोई कोना जहाँ डरे बिना रह सकूँ । लपककर मैंने टेबिल लैंप का स्विच बुझाया और ट्यूब लाइट जला दी । और युगों लम्बे इन कुछ क्षणों के बीत जाने के बाद चैन की साँस ली । अब वह वही दिख रहा था जो वह दरअसल था आटे का महज एक पुतला । सूखी सख्त सतह पर काजल और सिंदूर के नाक–नक्श, कपड़े पर पड़ी छींटें ज़रूर रक्त की थीं और अधरों पर बाद में उसी से एक रेखा भी खींची गई थी । सचमुच का रक्त । माने मानुष रक्त नहीं । मुर्गे का रंग काला था । उसकी गर्दन में चाकू फँसाकर तुलसा दाय ने फर्श पर बिछे कोरे कलफ दार कपड़े पर थिरकने के लिए छोड़ दिया था । वह छटपटाता, फड़कता अपने ही रक्त के छींटों को रौंदता छिटकता रहा था । अगर पृष्ठभूमि संगीत जैसी भी कोई चीज़ रही होती तो शायद वह नाचता–सा दिखा होता ।

     पृष्ठभूमि संगीत भी हुआ मगर बाद में । घुटने टेककर बैठी तुलसा दाय की हथेलियों ने यह बबुआ सहेजा, उछाला, दुलराया काले तिलों की छोटी–छोटी चैंसठ ढेरियों पर जलते दीपों की काँपती, लपकती लवों के समवेत प्रकाश में तुलसा ने उछाल–पछाड़ की सारी कसरतों के बाद अंतत: इसे चूमा और बीचोबीच वाली सबसे उ़ँची ढेरी पर पटककर बिठाया । पटकते ही तुलसा के आदमी ने ढोल पर ढमाक से थाप की और साथ की छोटी लड़की शायद बेटी रही हो खिन्–खिनक् खिन् खिनक् मंजीरा खनकाने लगी । बहुत तेज़ तड़ाकेदार लय थी जिस पर तुलसा ने बैठे–बैठे ही झूमना शुरू किया चक्राकार । दीयों की बातियाँ लपकती रहीं । छायाएँ डोलती रहीं । ढोल–मंजीरे की ताल और तुलसा दाय के अबूझ गीत की लय धीरे–धीरे हवा में धड़कने लगी और फिर मेरी रगों में । कैसे क्या हुआ पता नहीं पर उस वक्त तक सिर्फ़ क्रीड़ा कौतुक के भाव से सारे दृश्य में शामिल मुझ पर वह लय खून की तरह सवार हो गई । जाने कब मैं झूमने लगी और जाने कब झूमने की सुविधा के लिए ख़ुद ही आलथी–पालथी छोड़कर घुटने टेककर बैठ गई । लगातार तेज और तेज होती लय के साथ झूमना भी तेज़ और तेज़ होता चला गया । यहाँ तक कि सुबह की रोशनी जब फूटी और ढोल–मंजीरा बंद हुए ख़ासी देर भी हो चुकी तब तक भी उस ताल में जकड़ा मेरा शरीर किसी अश्रुत लय में काफी समय तक फड़कता ही चला गया ।

     “देवी माँ का ऐसा आवेश तो बरसों बाद आज किसी पर देखा है ।” तुलसा दाय ने कहा था, “बिला शक तुम्हारी मंशा पूरी होकर रहेगी ।” शायद वह सबसे ऐसा ही कहती होगी ।

     बाद के दो दिन मैं बिल्कुल थकी–पस्त पड़ी चकराती रही । शोध का सब काम भी अलग धूल खाता रहा । काग़ज़ उलट सकने लायक भी ताकत देह में महसूस नहीं हो रही थी । सच, मुझको सूझी भी क्या ? गई तो मैं इसलिए थी कि ओझा–सोखा, डाकिनी बहुल उस इलाक़े के लोगों के बीच रहूँ, उनका रहन–सहन, विश्वास, मनौतियाँ, रिवाज, संस्कार वगैरह देखूँ, सुनूँ और अपने शोधपत्र की सामग्री जुटाउ़ँ । ‘सोशल एण्ड साइकोलॉजिकल ऐस्पेक्ट्स ऑफ विचक्राफ्ट, मंडालिया, ए केस स्टडी’, सामग्री जुटाने के बहाने मारण महोत्सव मनाने का मेरा अपना कोई इरादा नहीं था । और सामग्री के नाम पर पूरी कसरत के बाद मिलता भी क्या ? कुल जमा ये डेढ़–दो वाक्य कि इन संस्कारों का अधिकांश स्थानीय और वैयक्तिक कल्पना प्रसूत है । किन्हीं शास्त्रसम्मत विधि–विधानों की यथावत् प्रामाणिकता का आभास इनसे नहीं मिलता । आदिवासी विषयक फिल्मी दृश्यों का खासा प्रभाव इन पर दिखाई देने लगा है । शायद धीरे–धीरे फिल्में असल और ये स्वयं प्रतिलिपियों में बदल जाएँगे ।

     “ऐसा सचमुच होता है क्या माँ ?” कंकु कुछ ज़्यादा फैली आँखों, कुछ ज़्यादा गोल होठों से पूछती है । भोला विस्मय साकार दिखने की कोशिश में । अदाएँ सीख रही है लड़की । पंद्रहवें बरस का स्वयंजात कौशल । इन्हीं कुछ महीनों में मुझसे ही अजनबी हो उठी है । उसके सवाल में जवाब के लिए बेचैनी नहीं सिर्फ़ विस्मय की अभिव्यक्ति है । सुगंधा ज़ोर से खिलखिलाती है और चपला चैंककर सिहर जाती है । सुगंधा टी.वी. पर आजकल चालू एक लोकप्रिय सीरियल की जीजीनुमा सखी या सखीनुमा जीजी के हावभाव में कहती है, “तेरे मुँह में घी–शक्कर लाड़ो । सचमुच ऐसा होता हो तो अपन एक एजेन्सी खोलकर बैठ जाएँ । आइये मेहरबान, अपने दुश्मनों का सफाया कराइये कद्रदान! मातृका के दफ्तर में तो कस्टमर्स की कतार लग जाएगी, कसम से । गिन–गिनकर एक–एक को...”

     यही तो पूछा था तुलसा दाय ने, “तुम्हारे दुश्मन का नाम ?” अब मैं नाम कहाँ से लाती ।” डरो मत, उसने कहा था । डर का इलाज उसके पास था । दुश्मन का बनाओ एक पुतला और दुश्मन हाथ न आए तो इस पुतले को ही दे लो वे सारे दण्ड जो दुश्मन को देने हैं । हाथ तोड़ दो, पैर काट दो । आँखें फोड़ दो । सूइयाँ चुभाओ । चाहे जो!

     सुगंधा के कान्वेन्टाई उच्चारण में ‘घी शक्कर लाड़ो’ भी अंग्रेजी-सा सुनाई देता है । मेरे हँसने से पहले ही चपला उसे झिड़क रही है, “हर बात में हँसी अच्छी नहीं होती सुगन, बस कर! सुगंधा और भी अतिरंजित हाव–भाव के साथ होठों पर उँगली रखकर फाँसी चढ़ जाने का अभिनय करती है । ऐसा ही होता है । चपला हर बात से आशंकित होती है, सुगंधा हर आशंका पर हँस देती है, हाव–भाव सहित, हाँ यही । यही हाव–भाव दीखते हैं आजकल कंकु की मुद्राओं में । इन्हीं कुछ महीनों में मेरी बेटी मुझसे ज़्यादा सुगंधा सान्याल से मेल खाने लगी है । सुगंधा मुझे प्रिय है । फिर भी, एक चिनगारी–सी मन में सुलगती है । ईर्ष्या ?

     कंकु की चिट्ठी से मिला ऐसा ही अहसास था जो उस शाम मुझे बेचैन करके असमय अकारण लिखना–पढ़ना बंद करवा के मंडालिया की बुधवारी हाट में भटकने के लिए उठा ले गया था । असमय क्योंकि दोपहर में काम के लिए निश्चित समय में अभी दो घंटे बाकी थे । अकारण क्योंकि मेरी चंद महीनों की इस अस्थायी गृहस्थी का जो भी सामान बुधवारी हाट से आता था उसमें से कुछ भी अभी दरकार नहीं था । पर बैठना अब असंभव था और भटकने के लिए बुधवारी हाट ही क्या बुरी थी ।

     कंकु की साप्ताहिक चिट्ठियों का नियमित क्रम ढुलमुलाना शुरू हो चुका था और दसवें–पंद्रहवें दिन आने वाली चिट्ठियां लगातार व्यस्तता का हवाला देती हर बार कोई नया बहाना विलम्ब की वजह के नाम पर पकड़ाने लगी थीं । माँ किन्हीं और चीजों के मुकाबले कुछ कम ज़रूरी लगने लगी थी । अपनी उदारता और आधुनिकता का प्रमाण ख़ुद को देते हुए मन ही मन मुस्कुराकर मैं सोच लेती थी कि शायद इस उम्र के लायक कोई नया–नया कारण होगा । पिछले दो बरसों में धीरे–धीरे करके यह सिखाना, समझाना मैं शुरू कर चुकी थी कि इस उम्र की दोस्तियों में कैसे एक सही सन्तुलन, ठीक दूरी साधे रखी जाए । पूरे तीन सप्ताह बाद आई इस चिट्ठी में किसी व्यक्ति का, सीमा रेखा के उल्लंघन का ऐसा कोई आपत्तिजनक हवाला नहीं था जो मुझे विचलित करता । पूरी चिट्ठी में सुगंधा सान्याल छाई हुई थी । विचलित मैं अनचित्ते दे दी गई सूचना से हुई कि सुबह नृत्य की कक्षा से लौटकर वह मातृका के दफ्तर चली जाती है और सारा दिन सुगंधा की मदद के लिए वहीं रहती है । मातृका के दफ्तर! मैं सकते में आ गई थी । इतने बरसों से मैं इतनी सावधानी और मेहनत के साथ कंकु को वहाँ घुसने से बचाए रही । दम भर में सब मिट्टी! जाहिर था कि यह क्रम पिछले कई हफ़्तों से चल रहा था । यही थी व्यस्तता । तो अब मुझसे छिपाने भी लगी है लड़की और सुगंधा को अच्छी तरह मालूम है कि मैंने कंकु को अब तक कितनी कोशिश से मातृका से दूर और बाहर रखा है । मातृका उसके लिए परी कथाओं का वह दरवाज़ा था जिस पर नौ सेर का ताला डालकर कुंजी छिपा दी जाती है । बाकी सारे महल का एक–एक कोना खुला पड़ा है पर उसी एक दरवाज़े़ के भीतर वह घुसेगी चाहे वहाँ का दृश्य हमेशा के लिए अंधा कर दे!

     इसी उधेड़बुन में अटकते–भटकते हुए मैंने पटरी पर बिछी दुकानों से कहीं लाख की चूड़ियाँ खरीदी । कहीं रंगीन चुटीला और धातु की मोर पपैया वाली सजावटी कंघी । और तभी मैंने हाट की बाकी दुकानों से अलग किस्म के साज–सामान वाली वह दुकान देखी अचानक । बाँस की छोटी–छोटी टुकनियों में पीपल के लाल–लाल पीके, उड़द, तिल, चावल, हल्दी, सुइयाँ, नींबू, गुड़हल के फूल, लाख की चूड़ी, कोरा कलफ दार कपड़ा और किताबें । एक दम पीले खस्ता काग़ज़ पर किसी लोकल छापेख़ाने की मोटे बेडौल भद्दे अक्षरों वाली पटरी छाप ।’ ‘काला जादू’, ‘बंगला जादू’, ‘डाकिनी विद्या’, ‘चैंसठ योगिनी तपोमाया’ । रुकी मैं शोधार्थी की उत्सुकता से । न लेखक का नाम, न प्रकाशक का पता । प्रकाशन वर्ष का तो खैर सवाल ही क्या । शक्ल भी ऐसी कि भोजपत्र के बाद पहली बस ये ही हुई होंगी । ऐसी किताबों को न शोधपत्र में उद्धृत किया जा सकता है न ये पुस्तक–सूची में शामिल हो सकती हैं लेकिन क्षेत्र के आस–पास के इलाक़ों में उपलब्ध होने का हवाला तो दिया ही जा सकता है । ठहर गई ।

     दुकानदार उ़ँघ रहा था । शाम धुँधला रही थी । इक्का–दुक्का दुकानों पर कुप्पियाँ जल चुकी थीं । शेष पर जलने की तैयारी हो रही थी । हाट की चहल–पहल अब थोड़ी ही देर में उजड़ जाएगी । कुप्पी अभी तक यहाँ नहीं जली थी । धुँधलके में अक्षर और आकृतियाँ अधूरी और गड्डमड्ड सी होने लगी थी । मेरी आवाज़़ से दुकानदार चैंककर जागा । बँधा–बँधाया उसका पग्गड़ बगल में उतरा धरा था । फौरन उठाकर सिर पर रखा । शायद अँधेरे का असर था । लगा कि जैसे उतारकर अलग रखा खोपड़ा ही उठाकर कंधों पर पहन लिया हो । बिजली की अभ्यस्त मेरी शहरी आँखों ने मंडालिया में रोशनी का नया ही अर्थ सीखा ।

     किताबों का दाम अपनी तरफ से बहुत माँगा उसने, दस रुपए की एक । कहीं मैं इरादा बदल न दूँ इस ख़याल से जल्दी–जल्दी बताने लगा कितनी बहुमूल्य और दुर्लभ थीं वे किताबें, कितनी पुरानी, कई पीढ़ी पहले किसी असल जादूगरनी के खास अपने इस्तेमाल की । यानी समझो कि सैकड़ों साल से तो उसके अपने ही खानदान में पीढ़ी–दर–पीढ़ी चलती आ रही है । इस वक्त अगर हाथ इतना तंग और ज़रूरत इतनी सख़्त न होती तो किसी भी कीमत पर वह इस खानदानी परंपरा को बेचता थोड़े ही । मैं हँसी, ‘पाँच रुपए की एक’ कहकर मुड़कर चल दी । दिल्ली के पटरी बाज़ारों में मोलभाव का यही कारगर तरीका था । अभी वह पीछे से आवाज़़ देगा । अपना दाम बोलेगा । एकाध रुपया नीचे करके, सबकी सब खरीदने के कारण कुछ और रियायत माँगकर मैं ले लूँगी । काफी आगे बढ़ लेने के बाद भी उसकी आवाज़़ नहीं आई । चलो, दस रुपए की एक ही सही, इस हाट में बहुत ज़्यादा होते हों दस रुपए शायद वरना दस में आजकल मिलता क्या है ? लौटी तो चकित । बूढ़ा जिसे मैंने बाद में ढोलक पर थाप देते तुलसा के आदमी की तरह पहचाना अपनी दुकान समेत गायब था । कितनी देर लगती है भला दस कदम चलने में और वह मानो कभी वहाँ था ही नहीं ।

     हाट सिमटने लगी थी । चादरों पर फैली दुकानें अब उन्हीं चादरों में बँधी पोटलियों, टोकरों और बक्सों में बदलने लगी थीं । वैसे भी उसे मैं उसके पग्गड़ से ही पहचानती थी । अब उठते और चलते हुए दुकानदारों के झुण्ड और गहराती शाम के अँधेरे में पग्गड़ ही पग्गड़ थे । मोलभाव कुशलता की सारी जाँच मुझे भी यहीं करनी थी, मैं कुछ अतिरिक्त झुँझलाहट के साथ लौट आई ।

     लालटेन रातभर जलती ही रहती थी पर उसकी रोशनी में लिखना–पढ़ना मुझसे नहीं होता । जल्दी सोने की आदत भी नहीं । नींद आने तक मैं डाकबँगले के बरामदे में केतली भर चाय लेकर बैठी रहती और चौकीदार की बीवी मोहर दाय मेरे पास बैठी बतियाती रहती । काग़ज़ों– किताबों के बक्सों के साथ यहाँ यूँ अकेली आ टिकने वाली औरत मैं उसके लिए पहली हूँ । अजूबा । शुरू–शुरू में खुद मुझे भी मेरा यह दुस्साहस चकित ही करता था । पर अब इस धीमी, सोई, अलसाई दिनचर्या में इससे ज़्यादा स्वाभाविक और कुछ लगता ही नहीं । बचपन से बेहद सुरक्षा और आश्वासन के दायरों में घिरा मन चैखट के बाहर निकलते ही किसी संभावित दुर्घटना की आशंका से इतना ग्रस्त बल्कि शायद दुर्घटना के लिए ही इतना लालायित भी रहता है कि सब कुछ सकुशल, तनावरहित बीतता चला जाय तो चैन से ज़्यादा निराशा ही होती है । मोहर दाय यहाँ की बस्ती के साथ मेरे संपर्क का जरिया थी पर अभी तक मेरे शहरी लिबास और अपरिचित बोली की दूरी को पाटने वाला पुल कोई बन नहीं सका था । सचमुच की बातचीत का कोई अवसर किसी के साथ अभी तक आया नहीं था । आसानी से कोई मानने को तैयार भी नहीं होता था कि उसने किसी डायन को कोई पूजा दी या करवाई । ज़्यादा से ज़्यादा इस विद्या की सत्यता और माहात्म्य पर अपना विश्वास और आस्था प्रकट भर करके रह जाने वाले इन संवादों के सहारे मैं क्या खाक शोधपत्र लिख पाउ़ँगी ।

     तुलसा दाय उसी रात डाक बँगले पर आई थी । बिना बुलाए । अपने आप और फिर दूसरे–तीसरे दिन आती ही रही । मुझे ही बताती रही मेरी मंडालिया यात्रा का असली उद्देश्य जो उसे अब जाकर समझ में आया था वरना ये जो मैं बेमतलब बेकार लोगों को पकड़–पकड़कर उनसे तरह–तरह के सवाल पूछती और अपनी कॉपी में उनके जवाब लिखती रहती हूँ, इससे ज़्यादा हास्यास्पद और बेवकूफाना भी कोई हरकत हो सकती है भला ? असल में यह एक परदा है जो मैंने अपने असली उद्देश्य पर डाल रखा है । न कहने से कोई फायदा नहीं था । उसका विश्वास मेरे इनकार से ज़्यादा दृढ़ था । ‘डरो मत’, उसने कहा था, “महामाया ने तुम्हें ख़ुद भेजा है मेरे पास । तुम्हें मुझ तक पहुँचना ही था । इसीलिए हाट में उस दुकान पर तुम अपने आप रुकीं । वहाँ तो वरना सिर्फ़ वही जाता है जिसे मैं ख़ुद भेजती हूँ । वहाँ मिलता ही है सिर्फ़ मेरी पूजा का सामान ।”

     उसे संदेह था कि किताबें पढ़कर मैं ख़ुद पूजा का प्रयोग कर देखना चाहती थी । शायद धंधे में प्रतियोगिता की आशंका रही हो । शायद मुझे मुरीद बनाकर वह शेष बस्ती पर अपनी धाक को स्थायी कर लेना चाहती हो । पर ये मेरे शहरी मन की शंकाएँ थीं । तुलसा का उस इलाक़े में कोई प्रतियोगी नहीं और धाक तो पहले से ही स्थायी थी ऐसा मुझे मोहर दाय ने बाद में बताया । ‘डरो मत’, उसने कहा था, फिर उसने पूछा था मुझसे मेरे शत्रु का नाम जिसे दबाने या हराने या मिटाने के लिए महामाया की प्रेरणा से मुझे उसके पास पहुँचना था । मैं क्या बताती ? पर बिना बताए ही उसने जान लिया कि गोपनीय है । बताया नहीं जा सकता । जिसे मैं जानती ही नहीं थी उस गुप्त शत्रु का ध्यान करने से भी काम चल जाएगा, नाम बताने की ज़रूरत ही नहीं, उसने कहा था फिर कुछ कौतुक, कुछ क्रीड़ा के भाव से मैं आगे बढ़ती गई थी, देखें क्या होता है । बचपन से माँ मुझे झिड़कती आई थीं, लड़की जात, इतनी निडरता, ऐसा कौतूहल अच्छा नहीं । हर समय आजमाने को तैयार, देखें क्या होता है । एक दिन ऐसा होगा । कि देखने को बचेगा ही नहीं कुछ । और उसी बचपन में मैं सोचती थी कि एक दिन जब मैं बड़ी हो जाउ़ँगी और मेरी एक बेटी होगी तब मैं उसे बिल्कुल बिना किसी रोक–टोक के, फायरब्रांड बनाकर पालूँगी ।

     और अब आज यह मेरी फायरब्रांड कंकु उम्र के पन्द्रहवें बरस में मातृका के दफ्तर में पूरा–पूरा दिन बिताने लगी है तो कौतूहल और निडरता की वही हर समय आजमाइश के लिए तैयार बुद्धि लिए चालीसवें बरस में आ पहुँची मैं अपने को बरबस रोक रही हूँ कि माँ वाला भाषण उसे न पिला दूँ पर वही के वही शब्द हैं जो उमड़–उमड़कर कण्ठ तक आते और जबरन लौटा दिए जाते हैं ।

     काम तो वहाँ अब भी बाकी है बल्कि दरअसल काम तो वहाँ अभी–अभी ही शुरू हुआ था । तुलसा दाय के प्रताप ने रातोंरात वह कमाल कर दिखाया जो इतने दिनों की कोशिश और मोहर दाय की मदद के बावजूद नहीं हो पाया था । तुलसा के आँगन में उस रात की झूम–झाम से गुजर चुकने के बाद मैं उन लोगों के लिए उतनी बेगानी नहीं रह गई । फिर उनकी कथाओं में चमत्कार चर्चा और महिमा गान के साथ–साथ उनकी लालसाएँ और लोभ और ताकत की भूख और मोह वगैरह वे साध्य खुलने लगे जो उन्हें तुलसा दाय के पास खींच ले जाते हैं । क्या सचमुच कभी किसी की मंशा पूरी हुई ? उन्हें विश्वास था कि हुई या होगी । अलसाई, सोई पड़ी ज़िंदगी की शांत सतह के नीचे की हलचल इन कथाओं में दिखने लगी थी उनकी घृणाएँ, उनके क्रोध, उनके भय अैर उनके प्रतिशोध जो उनसे मारण यज्ञ कराते हैं । काम में मजा भी आया होता पर अब ध्यान साधकर टिके रहना मुझसे ही संभव नहीं हो पा रहा था । अपने एडवेंचर के बारे में एक मसालेदार चिट्ठी इन तीनों को लिख चुकने के बाद अचानक ही एक दिन मैंने चल देना तय कर लिया । मातृका के दफ्तर में कंकु की मौजूदगी का ख़याल मेरे सिर पर भूत की तरह चढ़ गया था । इतने दिनों उसे बेकार अपने से दूर, होस्टल में रखा । यहाँ इस घर में उ़पर की मंजिल खाली पड़ी होने के बावजूद मातृका के दफ्तर के लिए जगह किराए पर ली जहाँ मकानमालिक से लगातार झिक–झिक, झाँय–झाँय और कोर्ट–कचहरी के चक्कर चलते रहते हैं । जानेगी एक दिन कंकु भी । जानेगी ये हादसे । और उनके शिकार और शिकारियों को भी पहचानेगी । मगर एक सही वक़्त, सही उम्र भी तो होती है हर चीज़ को जानने–समझने की ।

     जानकी चाय की ट्रे ले आई तो कंकु ने लपककर चारों पल्ले ढके और डिब्बा अपने पास सरका लिया । यह सौगात ख़ास उसके लिए थी ।

     चाय में चीनी चलाते हुए मैंने अपने चालीस बरसों के लायक गंभीरता और सख़्ती ओढ़ने की कोशिश के साथ यथासंभव कठोर आवाज़़ में कहा, “कंकु मातृका...”

     उसने बीच में ही मेरी बात ले ली । मेरी नकल में गंभीर और सख़्त चेहरा बनाकर कठोर आवाज़़ में कहा, “के दफ्तर पहुँचने की हिमाकत तुमने की कैसे!” और खिलखिलाकर हँस पड़ी । “सिंपल अम्मा । बस में बैठी, टिकट लिया और जा उतरी, बस, ऐज़ सिंपल ऐज़ दैट ।”

     मैंने वही सख़्त नज़र सुगंधा की ओर घुमाई तो उसके पहले ही कंकु फिर बोल पड़ी, “सुग्गा मासी को मत घूरो माँ, बल्कि यह घूरना, कड़कना तो बस तुम रहने ही दो । तुमसे सधता नहीं है । साफ–साफ एक्टिंग लग रही है । वह भी ओवर एक्टिंग । हुआ यूँ कि मातृका के दफ्तर में जब मैं जा ही खड़ी हुई तो सुग्गा मासी मुझे धक्का देकर निकाल नहीं पार्इं ।

     फिर पलभर में उसने अपनी बचपन की भोली भंगिमा ओढ़ ली । मचलकर थोड़ा नकसुर में बोलीं, “फिर मैं करती भी क्या अम्मू सोचो । सुबह चाय के बाद चप्पल मासी दफ्तर, सुग्गा मासी मातृका । डांस टीचर नौ बजे आकर दस बजे गर्इं और सारा दिन मैं यहाँ भाड़ झोंकूँ ?...”

     फिर लाड़ में उसने मेरे गले में दोनों बाँहें डाल दीं, “फिर अब मैं मातृका में घुस ही गई तो तुम मुझे वापस होस्टल तो नहीं भेजोगी न ? मुझे यहीं रहना है तुम्हारे पास, बस ।”

     मैंने झुँझलाहट को पार कर उसकी पीठ को अपनी बाँह से घेरा तो सही पर भीतर एक असहमत कठिनता बनी रही । चपला इतनी देर बिना इधर–उधर देखे अपने चाय के प्याले पर आँखें गड़ाए रही । ज़रूर उसने रोकने–समझाने की कोशिश की होगी और इन दोनों धौंतालों ने उसकी चलने नहीं दी होगी । मेरी इस नाराजगी से भीतर ही भीतर वह खुश ज़रूर होगी पर दिखाएगी यूँ जैसे मुझे क्या लेना–देना ।

     अब आख़िरकार धीरे–धीरे सहज होने लगी है चपला । घुटनों तक लम्बे बालों का कसकर उमेठा हुआ जूड़ा तो अब भी उतना ही कसा और उमेठा हुआ है लेकिन चेहरे की रेखाएँ अब उस तरह तनी नहीं रहतीं । अब वह जब तब अपनी राय भी जता देती है, भले ही मनवाने के लिए अड़ती अब भी नहीं ।

हद और बेहद


     शुरू–शुरू में जब अख्बारी विज्ञापन के जरिये मैंने इन दोनों लड़कियों को पेइंगगेस्ट के तौर पर चुना था तब सिवा इसके कि दोनों अपनी–अपनी तरह से मुझे अच्छी लगी थीं और इतने बड़े घर के ताम–झाम और रख–रखाव का खर्चा निकालने के लिए जितनी रकम की ज़रूरत होती उतनी देने को तैयार थीं, और कोई कारण नहीं था जो इन्हें निकट तो क्या, एक दूसरे के संपर्क में भी लाया होता । पहली नज़र में ही दोनों एक–दूसरे की उलट दिखी थीं । पृष्ठभूमि, स्वभाव, संस्कार–हर तरह से, चपला जितनी ही कसी बँधी, सुगंधा उतनी ही खुली–खिली । कंकु होस्टल भेजी जा चुकी थी । कॉलेज के बाद मातृका से लौटकर शाम गए जब मैं घर घुसती तो दोनों अपने–अपने कामोंसे लौटकर आ चुकी होती थीं । घर में अटैच्ड बाथरूम वाले कमरे तो तीन थे लेकिन रसोई एक ही थी । अड़चनें थीं । अपने–अपने शेल्फ में अपना–अपना चाय– कॉफी का डिब्बा और आटे–दाल, चावल के कंटेनर । फ्रिज में दूध की अलग–अलग बोतलें, अंडे, मक्खन, ब्रेड के अलग–अलग लिफाफे वगैरह । बरतने के पहले और बाद में अपने–अपने सामान की गिनती और हिसाब–किताब । कई बार इस बात पर कुड़कुड़ाया भी जाता रहा कि इसने उसकी बोतल से दूध या उसने इसके डिब्बे से चीनी निकाली और वापस नहीं रखी । अब इतनी छोटी–सी बात । कह दो तो कमीने बनो । न कहो तो सहते रहेा । कुड़कुड़ाना कहने न कहने के बीच की ऐसी स्थिति है जो दोनों तरह के काम निकाल देती है और कुड़कुड़ाती भी ज़्यादा थी यह चपला ही ।

     चपला त्रिवेदी अहूजा एण्ड अहूजा प्राइवेट लिमिटेड में फाइनेंस कंट्रोलर है । बहुत नीचे से शुरू करके यहाँ तक पहुँचने की यात्रा में पिछले बारह–तेरह बरस उसने इसी कम्पनी में बिता दिए हैं । कंपनी के अंदर–बाहर की एक–एक तह, हर तह में छिपा एक–एक रहस्य उसे मालूम हैं । पेंच निकालने की पेचीदगियों की वह उस्ताद है । नकेल उसके हाथ में है और मालिक उस पर निर्भर है । बहुत ही साधारण और लगभग दकियानूसी पृष्ठभूमि से निकलकर यहाँ तक पहुँच पाने की उपलब्धि उसे रोमाँचित करती ही होगी । करोड़ों के पेटे में कंपनी के प्रॉफिट–लॉस इनवेस्टमेंट एक्सपेंडीचर और रिटर्न वगैरह का हिसाब करते हुए शायद वह सोचती हो कि एक जमाना था जब यहाँ तक की गिनती भी मुझे नहीं आती थी ।

     परस्पर संदेह और असहिष्णुता के लगभग आठ–दस महीनों के बाद एक दिन ऐसा हुआ कि मेरे लौट जाने के भी काफी देर बाद चपला त्रिवेदी घर पहुँची, बदहवास, बेहाल, हाथ–मुँह धोने और चाय पीने तक तो किसी तरह जब्त किए साथ बैठी रही पर अपने कमरे में अकेले होते ही बाँध ढह गया । अजनबियों के साथ अपना ‘टाइम और स्पेस’ बाँटने की मजबूरी पर गुस्सा आया होगा, शायद अपने उ़पर तरस भी । रोने के लिए भी अपने पास एक कोना तक नहीं । आँसू पहले चुपचाप बहे होंगे । फिर सिसकियाँ, फिर वह बाकायदा फूट– फूटकर रोने लगी । मैंने ओर सुगंधा सान्याल ने एक दूसरे को देखा फिर चपला के दरवाज़े़ को । हमारे बीच औपचारिकता तब तक खत्म नहीं हुई थी पर शिष्टाचार का तकाजा भी यही होता कि दीवार दरवाज़ा पार कर बैठक तक गूँजते आते इस क्रंदन को सुना जाए । मैं ही उठी पहले । घर मेरा था और उम्र के हिसाब से भी अभिभावक की जगह पर मैं ही हो सकती थी । सुगंधा भी पीछे–पीछे आई पर दरवाज़े़ पर ही ठिठकी खड़ी रही ।

     चपला के कमरे में शाम का धुँधलका गाढ़ा हो रहा था । मैंने बत्ती नहीं जलाई । उसके सिर पर हाथ रखा और उसे अपने कंधे से सटाए खड़ी रही बहुत देर ।

     दुखी होने की समूची ताकत से दुखी होकर रो रही थी चपला । आवेग अपने आप ही थमा । मैंने भरसक तटस्थ रहने की कोशिश में बहुत धीमे से बस इतना ही कहा, “अगर चाहो तो बता दो । शायद मैं कुछ मदद कर सकूँ । नहीं तो शायद तुम्हें ही कुछ हल्का–सा लगे ।” बताने की कोशिश में वह सुलग उठी । रुदन का आवेग गुस्से में बदल गया, “इतनी हिमाकत । समझता क्या है मुझे ? कमीना कुत्ता । मुझे कोई ऐसी–वैसी समझ रखा है क्या...” गुस्से के मारे ही गला भर्राने लगा ।

     पता यह चला कि अहूजा एण्ड अहूजा लिमिटेड के जूनियर पार्टनर संदीप अहूजा ने पहले तो काम के बहाने रोके रखा इतनी देर । फिर कॉफी पिलाने ले गया । फिर गुस्ताखी यह कि बोला आई लव यू... ऐसे मार्मिक क्रंदन के इस रहस्योद्घाटन से अवाक् तो मैं भी रह गई पर दरवाज़े पर खड़ी सुगंधा को तो बाकायदा होठ काटकर हँसी रोकनी पड़ी । ‘ओ गॉड, दे आर स्टिल मेकिंग दिस मॉडल!’ अपने प्रिय मुहावरे में उसने सोचा होगा । किसी पुरुष की हिम्मत ही कैसे पड़ी आपकी ओर आकर्षित होने की! ज़रूर आपकी गरिमा, गंभीरता और मर्यादा में कोई खोट होगी । ज़रूर आप वक़्त–बेवक़्त जाने– अनजाने हँसी होंगी और उसे हँसी तो फँसी सोचने का मौका दिया होगा । गंभीर गरिमामयी और मर्यादाशील स्त्रियाँ न दाएँ देखती हैं, न बाएँ । वे मुस्कराती तक नहीं, हँसने की कौन कहे । उनकी भौहें तनी और जबड़े कसे रहते हैं । वे अब भी, सन् पंचानबे, इक्कीसवीं सदी से कुल पाँच बरस पहले संसार भर में महिला मुक्ति आंदोलनों के झंडों और नारों के बावजूद ऐसी ही होती है, बँधी और कसी ।

     मेरे मन में जाने क्या कौंध गया । उसी तटस्थ आवाज़़ में धीमे से मैंने कहा, “वह आदमी संदीप अहूजा नहीं है चपला । संदीप आहूजा उससे अलग कोई दूसरा आदमी है ।”

     चपला फटी हुई आँखों से भौचक मुझे ताकती रह गई । सुगंधा भी चैंकी । कौंध के उस क्षण में जैसे मेरे कानों के भीतर कोई और कान, आँखों के पीछे कोई और आँखें उग आई हों । उन कानों से मैंने सुनी चपला के मुँह से निकलते– निकलते रह गई बात, ‘आपको कैसे मालूम ?’ होठों तक आ पहुँची बात पीछे धकेल दी गई । उन आँखों में मैंने देखा गहन पाताल की सबसे गहरी गुफा के सबसे भीतरी छोर पर खुदा हुआ अभिशाप । इस तहखाने के पहरे पर तो वह नींद में, बेहोशी में, हर समय हर हाल में चैकन्नी रहती है । “कौन–सा आदमी ? किसकी बात कह रही हैं आप ?” स्वयं उमड़ आए शब्दों की जगह उसने सजग सतर्क शब्द बिठाए । लेकिन यह खेल का वक्त नहीं था । ‘पकड़ लिया’ के भाव से नहीं कौंध के उस क्षण मैं पीड़ा में उसकी साझीदार थी उसी तटस्थ आवाज़़ में धीमे से मैं कहती गई, “वही आदमी जिसने विश्वास करने की ताकत तुमसे छीन ली है ।”

     “क्या जानती हैं आप ?” तड़प गई चपला, “कैसे जानती हैं ?” बरफ पर भाप उठ रही थी । डॉक्टर, दवाई, अस्पताल । रक्तपात, मानुष गंध, बेहोशी, विस्मृति, आशंका, घबराहट । चपला की आँखों में से भीतरी तहखाने में कैद सोलह–सत्रह बरस की घायल, डरी हुई लड़की झाँककर दुनिया देख रही थी । बीहड़ बियाबान । खूँख्वार दरिंदे । एक बार उसके निर्भीक, भोले कौतूहल ने हाथ बढ़ाया था । पास से छूकर, टटोलकर दुनिया के, जिंदगी के रहस्य को जानना चाहा था । दुबारा हाथ बढ़ाने की हिम्मत ही नहीं हुई । घाव बिना मरहम–पट्टी के रिसते–बहते छूटे हुए हैं ।

     उस दिन के बाद कितनी ही बार चपला ने मुझसे उस भेदिए का नाम जानना चाहा जो यहाँ तक, इतने बरसों बाद भी बचपन के देश निकाले से उसका पीछा करता, जाने कौन–सा बदला लेने चला आया । उसे विश्वास नहीं होता कि यह जानने के लिए किसी भेदिए की ज़रूरत ही नहीं, कि बस कुल इतना ही है औरत का चरम परम गोपन सत्य–छलात्कार या बलात्कार ।

     उस दिन दरवाज़े़ पर खड़ी हँसी रोकती सुगंधा बहुत क्रूर और निष्ठुर लगी थी पर चपला और सुगंधा के रिश्ते की शक्ल उसी रात से बदल गई और सुगंधा के बारे में मेरी राय भी । पहले लगता था कि मस्त खिलन्दड़ किस्म की लड़की, एक मिनट में दो के हिसाब से चुटकुले सुनाती, आस–पास गुलजार किये रखती है । अपनी–अपनी चाय और अपना–अपना खाना एक ही मेज पर बैठकर साथ खाने का समय उसकी वजह से मजेदार हुआ करता है, बस । उस रात सुगंधा ने सबके लिए एक जगह खाना बनाया और हमें अपने पाक–कौशल की परीक्षा का निमंत्रण दिया । मैं अगर उस वक्त बात बदलकर चपला को इस बात का मौका देना भी चाहती कि कमज़ोरी के एक क्षण में हमारे वहाँ मौजूद रहने भर से वह खुल जाने को मजबूर हो गई हो तो अब चाहे तो फिर ख़ुद को ढाँप ले तो सुगंधा ऐसा संभव न होने देती । चपला की जरूरत को उसने मुझसे ज़्यादा पहचान लिए था । कई बार कोई सिर्फ़ किसी भीतरी संकोच और हिचकिचाहट की वजह से बँधा प्रतीक्षा करता रहता है कि स्नेह, सहानुभूति और मैत्री का कोई हाथ बढ़कर उसे बाहर घसीट ले जाएगा और हम उसे एकांत और निजता की ज़रूरत समझकर अकेला छोड़ देते हैं जबकि अनचाहे साथ की तरह निपट एकांत की भी ज़रूरत किसी को भी नहीं होती । उस दिन के बाद सुगंधा ने औपचारिकता और शिष्टाचार को हमारे बीच लौटने ही नहीं दिया बल्कि बातचीत का विषय भी वह जान–बूझकर अगले कुछ दिनों तक यही बनाए रही प्रेम और प्रेम का छल । साथिनों, सहपाठिनों की कहानियाँ, पुरुषों की चालें और उनकी काट के तरीके, प्रतिकार और प्रतिशोध, विषय बेहद सनसनीखेज ढंग से रोचक था और संवादियों को एक–दूसरे के रहस्य में शामिल होने की सी आत्मीयता देने वाला था, भले ही कहानियाँ किन्हीं तीसरे–चौथे यानी अपरिचित लोगों के बारे में रही हों ।

     उन्हीं दिनों की बात है जब कॉलेज और मातृका की सम्मिलित जिम्मेदारी की थकान मेरे लिए बूते से बाहर साबित होने लगी थी और सुगंधा ने सामान्य देखभाल का काम अपने सिर ले लिए था । मुझे थोड़ा आश्चर्य भी हुआ था । व्यवसाय से वह राजधानी के विज्ञापन जगत की तारिका है । सौंदर्य उसका कारोबार है और प्रसाधन उसकी जीवन–पद्धति, मित्रों में पुरुषों की गिनती स्त्रियों से कहीं ज़्यादा है । सप्ताहान्त में पार्टी के बिना उसका गुजारा नहीं जिसे वह सत्संग का नाम देती है । सत्संग साप्ताहिक ‘स्पिरिचुअलिज्म’ का अवसर है क्योंकि ‘स्पिरिट’ यानी सुरा का सेवन आपको आध्यात्मिक उ़ँचाइयों तक ले ही जाता है, चाहे–अनचाहे, दिलचस्प संवाद कौशल उसे इन पार्टियों का केंद्र बनाए रखता है । इस पूरे खाके में मातृका में उसकी दिलचस्पी कुछ फिट बैठती–सी नहीं दिखी थी पर उसके प्रस्ताव ने राहत इतनी दी कि मैंने मान लिए था । यूं इन दिनों अक्सर वह बीच–बीच में बहुत बेचैन और उद्विग्न दिखाई देती है । शायद अपने काम में कोई मानसिक तृप्ति न पाकर ज़िन्दगी में किसी सही सरोकार की, सार्थकता की तलाश में हो । निडरता कुछ भी कर गुजरने की आजादी तो देती ही है ।

     चपला सुगंधा को कभी विस्मय से देखती है, कभी संदेह से । उसे देखने भर से शायद उसकी अपनी सहजता का दायरा कुछ और फैलता व लचीला होता है । जहां से वह आई है वहाँ सुगंधा जैसियों को ऐसी–वैसी समझा जाता है । ऐसी–वैसी लड़कियाँ सतही, छिछली और प्रदर्शनप्रिय भर हुआ करती हैं जिनका संसार कॉमिक्स, कैसेट, कोका कोला, केश और कैश के पंचककार से रचा जाता है लेकिन सुगंधा ने इन कुछ ही दिनों में उसे यह जताकर चकित कर दिया था कि वह ऊर्जा, ऊष्मा और स्नेह से भरी खासी मददगार किस्म की लड़की है, कुशल और व्यावहारिक । फाइल्स और अकाउंट्स को छोड़कर कितनी ही ऐसी जगहें हैं जहां अभी तक चपला को थोड़ा अनिश्चय और घबराहट महसूस होती है, मुंह सूखने लगता है । लेकिन सुगंधा काफी इत्मीनान से ‘एक्सक्यूज मी’ या ‘सॉरी टु बॉदर यू बट...’ कहकर घुस जाती है और निकल आती है । जींस और स्कर्ट जैसी पोशाकों, सिगरेट और अंग्रेजी की वजह से दूर से देखने वाले सड़क चलते उसे चालू भले ही समझते हों, आसानी से उसके सामने उल्टा–सीधा प्रस्ताव रखने की हिम्मत कोई नहीं कर पाता जबकि चपला की सीधी–सादी घरेलू सूरत और कसे–बंधे मर्यादित व्यक्तित्व के बावजूद या शायद उसी के कारण ही अक्सर कंपनी के ग्राहकों से लेकर अन्य परिचितों इस बार तो स्वयं मालिक भी तक के बीच टोह–टटोलकर देखने और मौका खोजने वालों से उसका पाला पड़ जाता है । बेहद कच्ची कोमल उम्र में विगत उस हादसे से अगर न गुजरी होती तो शायद इसे प्रशंसा समझकर गर्वित हुआ करती पर क्योंकि गुजरी थी इसलिए साल–छह महीने में एकाध बार घृणा, अपमान और आत्मधिक्कार के एक मर्मान्तक दौर से गुजरने की नौबत आ ही जाया करती है जिससे अब सुगंधा की दोस्ती और शायद मेरी अभिभावकता के सहारे वह उबर सी रही है । बरसों के सुन्न पड़े दिमाग में अब तो कभी–कभी शरारत भी कौंध जाती है, उसको फिर से बचपन की वही नटखट बच्ची बनाती हुई जिसके कारण कभी उसका नाम चपला पड़ा था ।

     सुगंधा मातृका में शामिल हुई तो जल्दी ही उसने तीनों की दिनचर्या को घोलकर एक बना लिया । कुछ दिन खाना बनाने का काम किसी दिन हम तीनों मिल–जुलकर या कार्यक्रम के हिसाब से बारी बांधकर करते रहे, फिर एक दिन सुगंधा ससुराल से प्राण बचाकर भागी हुई, मातृका में शरण के लिए आ पहुँची इस जानकी को घर उठा लाई । तन–मन के अनगिनत घाव पुरने तक जानकी ने घर संभाल लिया था । दहेज की वापसी और खर्चा–पानी वसूलने का मुकदमा अभी चल ही रहा है । कचहरी के चक्करों और बार–बार बदलती तारीखों से आजिज़ आकर वह कभी–कभी ‘छोड़ो मरने दो’ कहती भी है तो सुगंधा उसे घुड़क देती है । “चक्कर तो अभी उसको और हज़ार कटवाऊंगी मैं, तमाशा समझ रखा है क्या ? तेरी जान मुफ्त की थी ? जब तक उसकी जान पर न बन आए तब तक छोडूँगी नहीं । आधी तनखा धरवा लूंगी तब देखना ठाठ...” दाँत पीसकर सुगंधा कहती है तो लगता है जैसे ज्वालामुखी पर उग आया हरा–भरा जंगल हो, फलों–फूलों से लदा हुआ । जब तक वह फटता नहीं तब तक बस हरियाली ही दीखती है ।

     घर जानकी ने संभाला तो मातृका के हिसाब किताब और बहीखाते की देखभाल के लिए उसने चपला को भी लपेट लिया और हफ्ते में एक बार उसे मातृका ले जाने लगी । सब मिला जुलाकर सप्ताहान्त की पार्टी समेत दिनचर्या वापस अपनी पटरी पर और गर्मी की छुट्टियों में होस्टल से कंकु आई तो अपनी चपला मौसी और सुग्गा मासी को लेकर बिल्कुल बौरा ही गई । इसी सुरक्षा और आश्वासन के सहारे इन गर्मियों में मैंने कब के सोचे हुए इस छूटे पड़े शोधपत्र की सामग्री संचय का कार्यक्रम बनाया था । आख़िर कब तक कभी घर, कभी कंकु, कभी अपरिचित जगह के भय का दबाव और देखें क्या होता है’ के कौतूहल वाली बुद्धि की टकराहट में कुछ कर देखने की इच्छा को टालते जाया जा सकता है ? अब वक्त ही कितना बचा है । चालीस तो पार हो गए ।

     “कितने दिन की फुरसत निकालकर आई हो अम्मू ?” कंकु पूछती है, अभी यही समझ रही है कि मैं वापस जाने के लिए आई हूँ, सिर्फ़ उसके साथ छुट्टी का थोड़ा वक्त बिता लेने के लिए ।

     “आप लोग बाजार जाएंगी या मैं सब्जी ले जाऊँ जाकर ?” जानकी चाय के बरतन समेट रही है ।” वरना देर होगी तो कंकु बेबी खाए बिना ही सोने लगेगी...

     अगर सबको फुरसत हो तो इस घरेलू शॉपिंग के लिए हम साथ ही निकला करते हैं । दीन–दुनिया से बेख़बर, अपने आप में और आपस में मस्त । रास्ता चलते इस कदर हँसती–खिलखिलाती औरतों को देखकर सारा आस–पड़ोस और पूरा बाजार हमें ही ताकने लगता । ये कोई भले घर की बहू बेटियों के लच्छन तो हैं नहीं । आस–पास पड़ोस और बाजार को फिलहाल यह मालूम भी नहीं कि यह हँसी रोने की बजाय हँस पड़ने के फैसले से निकली हुई हँसी है । इसलिए कमबख्त हर समय आती ही रहती है । चपला और सुगंधा तो फिर भी इस पास–पड़ोस के लिए अपरिचित सी हैं और उनकी हैसियत भी ‘पेइंगगेस्ट’ की है । असली और स्थायी पड़ोसन तो मैं ही हूँ सारे फसाद की जड़ ।

     फसाद की जड़


     मैं मिसेज प्रतिमा कांत । डबल एम–ए. सोशियोलॉजी और सोशल वर्क । पीएच डी. सोशियोलॉजी, रीडर । प्रिय पाठक मुझे एक बार इस हैरान बाजार और परेशान पास–पड़ोस की नज़र डालकर भी देख लीजिए ।

     पति के देहांत और बेटी के होस्टल गमन ने मिसेज कांत की जिन्दगी को जड़ से बदलकर रख दिया था । भरी–पूरी गृहस्थी के अठारह–बीस बरस बाद अकेली छूट गई असहाय औरत के लिए ज़िंदगी का बदल जाना तो कोई अजूबा नहीं था । अजूबा तो था बदलने का ढंग । कायदे से तो यह होता कि कभी दूध के साथ दो सूखी स्लाइस तो कभी दलिया–खिचड़ी को भोजन का नाम दें । उबले आलू मसलकर सब्जी का काम निकालें और कभी भूखी ही सो रहे । अकेली अपनी जान के लिए क्या पकाना और क्या खाना । भगवान की कृपा है जो नौकरी भी है पास में । बाकी समय के लिए काफी है कि जिन्दगी के बोझ या बेगार होने का फलसफा पढ़ें या गढ़ें । पर देखो मिसेज कांत को । न अकेली, न असहाय । बल्कि वैधव्य तो उन्हें कुछ ऐसा रास आया कि पास–पड़ोस की सुहागिनें उनके सौभाग्य से ईर्ष्या करने लगीं ।

     होता है कभी–कभी ऐसा भी जैसा मिसेज कांत के साथ हुआ । प्रॉविडेंट फंड और लाइफ इंश्योरेंस वगैरह की रकम से मिलती है आकस्मिक संपन्नता । संपन्नता से स्वतंत्रता । दूसरे की इच्छा और रूचि के हिसाब से खुद को ढालने की कोशिश में जो बहुत से प्रतिबंध और निषेध खुद पर लाद लिए गए थे वे भी अचानक फालतू हो हैं । पति महोदय अगर सही समय पर रवाना हो गए यानी कि ऐसे समय पर जब शोक और साथ रहने की आदत से उपजे खालीपन, निर्थकता वगैरह से उबर चुकने के बाद भी जिन्दा रहने के लिए काफी वक्त बचा रहे तो ऐसा भी होता है कभी–कभी । प्रचलित भाषा में इस सही समय को असमय कहा जाता है इसका मतलब यह बिल्कुल नहीं कि पति के साथ जन्म जन्मांतर किस्म का गहरा प्यार नहीं था या कि पति ऐसा कुछ दुष्ट और नीच पापी वगैरह था कि मरा तो बची या फिर यह कि लच्छन ही ऐसे थे छिनार कि खसम खाय मस्ताय रही । लेकिन ठहरा पास–पड़ोस । इन संभावित कारणों में से जिसे जो रूचा होगा सो उसने माना होगा । सहानुभूतिशील दो–चार ऐसे भी शायद होंगे ही जिन्होंने शोकभार से उनके सनक जाने का संदेह किया होगा ।

     पति के जमाने में वे ढीले से जू़ड़े और बड़ी–सी बिंदी वाली सुसंस्कृत, संभ्रांत, सम्माननीय–सी महिला हुआ करती थीं । बाल तो अब भी उन्होंने कटवाए नहीं हैं और पहनती भी साड़ी ही हैं पर बाकी सनक जाने के सिवा इसे और क्या कहेंगे कि एक दिन लोगों ने देखा कि सड़क कूटती मजूरिन के बच्चे को गोद में उठाए वे छाबड़ी वाले से खीरा खरीदने गईं फिर वही पटरी पर फसकड़ा मारकर बैठी खुद खातीं और उसे भी खिलाती रहीं । काम से निपटकर मजूरिन पास गई तो बच्चा फौरन उसे थमाने की बजाय जाने क्या कहने हँसने बतियाने लगीं । हद तो यह कि मजूरिन ने बीड़ी सुलगाई तो खुद भी पीकर देखने की इच्छा जाहिर करते हुए हाथ फैला दिया । कभी ऐसा भी देखा गया कि रिक्शा लेकर पंसारी की दुकान तक गई । जब तक सौदा तौला और बांधा गया उतनी देर में रिक्शावाले से देस गाँव का हाल चाल, पकाने खाने का इंतजाम, रहने की जगह, घर के लोग वगैरह पर बात करते–करते इतनी ही देर में इतना सगापन जोड़ लिए कि लौटते समय सामान के दो चार थैले तो जरूर रिक्शा पर रखे गए लेकिन खुद बैठने की बजाय रिक्शावाले से बात करती साथ साथ पैदल ही चलती घर तक चली आई । बस के अंदर हों या बाहर स्टॉप पर, अपनी ओर से छेड़कर लोगों से बात शुरू करने का उनका शौक या रोग दिनोंदिन बढ़ता ही गया । लोग भी कैसे! न हैसियत का खयाल, न इज्जत की फिक्र । पुरुषों को तो फिर भी बेटा या भाई साहब वगैरह कह कर एक सुरक्षित दूरी तय कर लेतीं, औरतों के साथ तो देखते ही देखते ऐसी घुल–मिल जातीं कि जनम जिन्दगी के पता नहीं किन–किन रहस्यों का आदान–प्रदान होता दिखता । अब यह पेइंग गेस्ट रखने का मामला ही लो । कोई समझ सलीके का आदमी तो नाते रिश्ते, जान पहचान के दायरे से भरोसेमंद लोगों को चुनेगा लेकिन मिसेज कांत तो शुभचिंतकों के समझाने के बावजूद अखबारी विज्ञापन के खयाल पर डटी रहीं । सनक जाने में और क्या कसर बची ? इस तरह अजनबियों को ऐन घर के बीच कोई घुसा रखता है भला ? पर किसी जाने पहचाने को साथ रखने का मिसेज कांत का कोई इरादा ही नहीं था । वे बिल्कुल अपरिचितों को लेकर नये सिरे से संसार शुरू कर रही थीं ।

     फिर लोगों ने देखा कि साल–छह महीना बीतते न बीतते उन्हीं अजनबियों के साथ सगों से बढ़कर सगी हो गईं । सप्ताह भर उन लोगों की दफ्तर–कॉलेज– मातृका के हिसाब से बंधी दिनचर्या सप्ताहान्त में घड़ी की सुइयों के पार निकल जाने लगी । दाढ़ी झोला छाप लेखक, कलाकार, पत्रकार, समाज सेवक किस्म के पुरुष और आड़े–तिरछे कपड़ों और चांदी के गहनों में विज्ञापन जगत् कला जगत् की उदीयमान अस्तंगत और भावी तारिकाएं आती जाती दिखने लगीं । गई रात देर तक घर में संगीत और खिलखिलाहटें गूंजतीं और वही संभ्रान्त, सम्मानीय–सी ढीले जूड़े और बड़ी–सी बिन्दी वाली मिसेज कांत जब तब दीन दुनिया से बेख़बर चपला या सुगंधा के साथ वाइन शॉप पर कंधे से लटके झोले में बियर की बोलतें ठूंसती और पनवाड़ी के यहाँ दर्जनों के हिसाब से सिगरेट के पैकेट खरीदती दिखाई दे जाने लगीं तो ‘खसम खाय मस्ताय’ गुट के लोगों ने ‘हम न कहते थे’ के भाव से सिर हिलाया । बालों का वही ढीला–ढाला जूड़ा और पहनावे में साड़ी बरकरार रही । यह भी पता नहीं किस कारण से आपत्ति का विषय था । जींस और स्कर्ट वगैरह और पहनने लगें । बस! प्रतिमा कांत या तो सचमुच या जान–बूझकर इन मंतव्यों से बेख़बर बनी रहीं । उन्हें जब जैसा करना होता तब वैसा कर गुजरतीं । असहमति और विरोध पर स्थिति या मन:स्थिति के हिसाब से हंस देतीं या चुप रह जातीं ।

     तो यही मिसेज प्रतिमा कांत नाम की मैं बाजार से लौटते समय इस पार्क में साँस लेने सुस्ताने को सदल–बल आ बैठी जो बाजार से वापसी का शॉर्ट कट है । लौटते समय यहाँ रुकना और शाम बीतने तक बैठे रहना भी हमारा निश्चित नियमित क्रम है ।

     निषिद्ध प्रदेश में


     किस कदर बोलने लगी है कंकु सुगंधा की भाषा और भंगिमा के साथ । जो सुगंधा पर इतनी सजती है वही कंकु पर कितनी असहज और अशोभन लगती है, रटे हुए वयस्क संवाद बोलती हुई फिल्मी बच्ची की तरह । इतने ही दिनों में उसने निषिद्ध द्वार के पार सारे कोने अंतरे झाँक डाले हैं, देख डाली हैं स्त्री होने के पहले ही स्त्री के जीवन की सारी खंदक–खाइयाँ और मातृका की फाइलों में दर्ज मामलों की लुटी–पिटी, थकी–हारी, सताई–जलाई जाती औरतों के पक्ष से मन में दुनिया–जहान का द्वेष, घृणा और रोष जमा कर लिया है । चपला की मौन और सुगंधा की मुखर सहमति ने उसे अपने रोष पर अभिमान करना भी सिखा दिया है, दोनों कैसे मुग्ध भाव से अपनी रची इस नयी औरत को निहार रही हैं । और इसे चपला से सहानुभूति भले हो, अनुकरण के लिए आदर्श तो सुगंधा का निडर खुलापन ही हो सकता है । ये अपने शत्रु को साफ पहचानती है । “दुश्मन के दरवाज़े़ पर आधी रात को रख देना यह पुतला”, तुलसा दाय ने कहा था । उसे किसी का कोई डर नहीं था । आधी रात को भी वह कहीं से उठकर कहीं भी जा सकती थी, श्मशान भी । पर वह जो जानती थी, अपनी निडरता के बावजूद, स्त्री के जो डर, ये नहीं जानतीं । यहाँ यह समझ पाने की कोई गुंजाइश नहीं कि क्यों गुस्सा उतर जाने, दिल–दिमाग ठंडा हो जाने के बाद स्वाभिमान बेच खाई और अपमान घोल–घालकर पी गई ये औरतें और भी दबी झुकी, उन्हीं शर्तों की गुलाम और मोहताज, वापस वहीं उसी नरक में लौट जाना चाहती हैं, घर नाम के उसी मृगजल में जहाँ वे जानती हैं कि सिर्फ़ रेगिस्तान है । इनके पास हर बात का वही एक जवाब है कि क्योंकि यह पुरुषों का संसार है, पुरुषों की व्यवस्था इसलिए । थोड़ी तरस मिली हिकारत के साथ इन औरतों को देखती हुई ये हर लौट जाने वाली पर पराजय की हताशा से भर जाती हैं ।

     सुगंधा की ओर देख कंकु ने सूचना दी है, “डॉ. खन्ना को फोन मैंने कर दिया था सुग्गा मासी । उन्होंने बुधवार की शाम का समय दिया है...” वह मेरी ओर देखती है इस आशा या आशंका से कि मैं पूछूँगी, किस बात का टाइम । मेरे न पूछने पर स्वयं ही कुछ आक्रामक हो कर उसने अपनी बात पूरी की, “रामकली की प्रेगनेंसी टर्मिनेट करने के लिए...”

     फिर भी मैंने जब्त कर लिया है । कंकु, उम्र पंद्रहवें साल की शुरुआत, गर्भ का अर्थ जानने के पहले ही गर्भपात का समय तय कर रही है ।

     “रामकली कौन”, मैंने पूछा है, जानते हुए भी कि मातृका का कोई नया केस होगा ।

     “यू मस्ट मीट हर माँ । कल मिलना जरूर से ।” यह कंकु थी । इतने ही दिनों में इसने मुझे मातृका से बाहर और अजनबी कर दिया है । मातृका को अपनी संपत्ति और अपना दायित्व बना लिया है ।

     कंकु मुझे रामकली और उसकी माँ से मिलाना चाहती है क्योंकि उन्हें वापस नहीं लौटना । वे आख़िर तक लड़ेंगी । तेरह बरस की रामकली बाप की हवस का शिकार हुई । “और उसका बाप! रत्तीभर शर्म नहीं माँ । इमैजिन, थाने में बयान लिए गया तो बोला, ताल ठोंककर बोला कि पेड़ मैंने लगाया है तो फल भी मैं ही खाउ़ँगा ।” मैं देखती रहती हूँ उसका चेहरा । नाक, कान, आँख से अलग, बाकी चेहरे से बाहर लगते हैं बोलते हुए होठ । टुकड़ों में बिखर गया है उसका चेहरा ।

     “और दूसरा जो नया केस है माँ, शकुंतला । देखना जरा, कितनी सुंदर है । बेहद । इतनी तो सुग्गा मासी भी नहीं । सोलह साल उसकी शादी को हुए । और हर दिन, यानी कि इमैजिन, सोलह साल का एक–एक दिन उसका मर्द उसे ताले में बंद करके दफ्तर गया और फिर भी उसे भरोसा नहीं । तीस बरस की औरत के नौ बच्चे । केप्ट हर प्रेग्नेंट आल द टाइम कि कहीं भाग न जाए । एण्ड सच अ परवर्ट कि इस कदर उसे नोचता–दबोचता, काटता– खसोटता रहा कि बेचारी का एक– एक रोयाँ घायल है । दफ्तर की जल्दी में एक दिन छत का दरवाज़ा बंद करने से छूट गया तो बेचारी छत से कूदकर भागी । और उसका पीछा करता मातृका तक आया उसका मर्द । सुग्गा मासी से तो घंटों बहस हुई उसकी । बेहूदा कहीं का । चपला मासी को तो इतना गुस्सा आ गया कि सचमुच ही चप्पल उठाकर खड़ी हो गर्इं । कहता है कि ठीक ही तो करता था ताला लगाकर! देख लो । हाथ कंगन को आरसी क्या । एक दिन छूट गया तो निकल भागी हरामजादी या नहीं । औरत पर, इमैजिन कहता है कि भरोसा किया ही कैसे जा सकता है । मरद से आठ गुनी ज़्यादा होती है उसकी कामवासना! जी कभी भरता थोड़े ही है । उसके नाक न हो तो गू खाय । सच ऐसा होता है क्या माँ ?”

     हे भगवान! अब तो यह लड़की जरा देर चुप ही बैठे । जाउ़ँगी मातृका । देखूँगी अपनी आँखों से । सहलाउ़ँगी, मरहम–पट्टी करूँगी । अभी इस वक्त तो समझ नहीं आ रहा कि रामकली और शकुंतला नाम के घावों की टीस मेरे मन में ज़्यादा गहरी है या कि तेजी से पकते हुए इस कंकु नाम के नये घाव की! “कंका, तू आइसक्रीम खिला न सबको, गला सूख रहा है ।” मैं अपना बैग उसकी तरफ बढ़ा देती हूँ । तीनों साथ ही उठकर क्वालिटी आइसक्रीम की गाड़ी तक चली गई हैं । मैं भी उठ खड़ी हुई । अब और नहीं बैठना– सुनना । आइसक्रीम रास्ते के लिए । कितना गोल–मटोल गदबदा प्यारा सा बच्चा था । ढाई–तीन साल का होगा । अपनी आया के साथ पार्क में घुस रहा था । आइसक्रीम लिए मेरी ओर मुड़ती सुगंधा ने उसे आइसक्रीम दिखाई और मुँह चिढ़ाया । अक्सर पार्क में खेलते बच्चों के साथ वह ऐसी ही उल्टी–सीधी हरकतें करके दोस्ती गाँठ लेती है । और शाम भर उनके साथ खेलती रहती है । गोलमटोल छुटकू राम खिलखिलाकर हँसे और दोनों बाँहें फैलाकर अपनी लड़खड़ चाल से सुगंधा की ओर बढ़ने लगे । सुगंधा प्रतीक्षा में ठिठक गई । चपला ने लपककर सुगंधा की पीठ पर धौल जमाई, “सुग्गा भाग, ही इज कमिंग टू रेप यू ।” शरारत की वही कौंध उसकी आँखों में थी जो उसे कभी–कभी सचमुच की चपला बना देती है । हँसती– खिलखिलाती तीनों भागने के नाटक के साथ घर के रास्ते पर भाग चलीं । सड़क चलतों को तो घूमकर, घूरकर देखना ही था । मैं पिछड़ गई तो मेरे इंतजार में तीनों ठहर गर्इं पर हँसी नहीं ठहरी । थी ही बेहताशा कि रुकने ही न दे । चढ़ी साँसों के साथ ही चपला ने फिर कहा, “इतना हँस क्यों रही है कमबख्त! डोंट यू नो, हँसना इज ऐन इन्विटेशन टू रेप ।” गंभीरता के नाटक् के साथ गंभीर होकर तीनों तेज कदमों से घर की ओर बढ़ चलीं । इस बार सुगंधा ने चपला को धौल जमाई, “ऐसा पत्थर जैसा सख्त चेहरा क्यों बना रखा है चपला । डोंट यू नो सख्त चेहरा इज़ ए चैलेंज टु रेप ।” और आख़िर मुझे भी हँसी आ ही गई ।

     असल में यह एक खेल था


     शाम के मेहमानों के आ पहुँचने में अभी देर थी । सफर की थकान उतारने के खयाल से मैं थोड़ी देर लेटी । कंकु अपनी सौगात का डिब्बा यहीं सोने के कमरे में उठा लाई थी और गत्ता, रूलर एकाध खपच्ची वगैरह लगाकर उसे मेंटल पीस पर खड़ा करने में जुटी थी । पीठ पीछे गत्ते के डिब्बे का सहारा देने से वह टिक गया । एक कोने में उसकी बार्बी डॉल सुनहले बाल, नीली स्कर्ट और काले जूतों में लकदक । दूसरी तरफ यह बेडौल, सूखा, चीमड़ पुतला हमारा डर । जाने कहाँ है वह दुश्मन का दरवाज़ा ।

     “और भी कुछ किया छुट्टियों भर या मातृका में चौधराहट ही छाँटती रहीं ?” मैंने पूछा है । ज़रा–सी देर का एकांत घर पहुँचने के बाद पहली बार मिला है कंकु के साथ ।

     “इतनी मस्ती की अम्मू, चपला सुग्गा मासी के साथ...” और लो, ये हाजिर उसकी चप्पल सुग्गा मासियाँ । चपला जानकी को रात की रसोई के बारे में हिदायत दे आई है । सुगंधा ड्राइंगरूम के कुशन वगैरह सहेज सँभाल कर ओने–कोने में फूल–वूल सजा आई होगी । दोनों कंकु को मुझसे बचाए रखने की कोशिश में ज़्यादा ही तैनात खड़ी हैं ।

     “रात–रात भर गप्पें मारीं, हम लोगों ने खूब जी लगाकर रखा इसका ।” चपला बोली । सो तो दीख ही रहा है अच्छी तरह ।

     “आपके लिए एक नया प्रोजेक्ट भी तय करके रखा है हम लोगों ने ।” सुगंधा बोली ।

     “हाँ अम्मू, क्यों तुम इस विच क्राफ्ट की जान को लगी हो । जाने कहाँ–कहाँ भटकती फिरोगी सामग्री संचय के चक्कर में । ऐसा कुछ करो न जो घर बैठे ही निपट जाय । सामग्री ही सामग्री बिखरी पड़ी है चारों ओर । जैसे यह देखो । ‘रेप : सोशल एण्ड साइकोलॉजिकल डाइमेंशन्स ।’

     ‘यह देखो’ का मतलब कंकु के हाथ में थमा हुआ रजिस्टर था जिसमें इन तीनों शैतानों ने मिलकर जाने क्या–क्या चीत रखा था प्रस्तावित संभावित शोधकार्य की योजना । मेरा देखना और उनमें से किसी न किसी का जोर से पढ़ना साथ–साथ चलता चला और बीच–बीच की टीका– टिप्पणियों के साथ हँसी का दौरा भी ।

     सबसे उ़पर ‘रेप: डिस्कोर्स ऑफ पावर’ । फिर हिन्दी में चपला की लिखावट, ‘बलात्कार यानी बल से करना’ फिर कंकु की लिखावट, ‘क्या करना ।’ फिर चपला के बड़े–बड़े अक्षरों में शीर्षक की तरह रेखांकित ‘बलात्कार : बलात्चार ।’ यह ‘चार’ कहाँ से आ गया । मैंने पूछा, ‘विचार से’, चपला बोली, ‘यह डिस्कोर्स ऑफ पावर की हिन्दी है ।’ ‘यानी बल से चरना’, सुगंधा ने जोड़ा । हँसी तो मुझे भी फिर आई ही पर इस ख़याल के साथ कि हम किस बात पर हँस रहे हैं ।

     आगे कंकु के कच्चे हिंदी अक्षरों में नम्बर डालकर नुक्ते नोट किये गए थे और बीच–बीच में चपला, सुगंधा की वयस्क लिखावटों में कुछ जोड़ा भी गया था । एक, कौमार्य का सुरक्षित रह जाना महज एक दुर्लभ इत्तेफाक है । आगे सुगंधा के लिखावट में जोड़ा गया था कि नहीं इत्तेफाक से भी ऐसा होना संभव नहीं क्योंकि अगर स्त्री के मन पर अपनी स्त्री देह का अहसास हर समय एक दबाव की तरह बना रहता है, उसे रोकता, बाँधता, बौना और भयभीत करता हुआ तो यह शारीरिक न सही, प्रतिक्षण एक मानसिक बलात्कार है उसके साथ ।

     “दो, ‘जहाँ–जहाँ आग वहाँ–वहाँ धुआँ । जहाँ–जहाँ पुरुष वहाँ–वहाँ बलात्कार ।” यह फिर कंकु की लिखावट में था । ‘यानी सर्वव्यापी ।’

     “तीन, मौत की तरह निश्चित है बलात्कार । वह होगा तो अवश्य पर कब और कहाँ होगा इसके बारे में कुछ निश्चित नहीं ।” यह सुगंधा की लिखावट में था । आगे कंकु की लिखावट में प्रश्नचिह्न के साथ जोड़ा गया था, “तो बलात्कार क्या ईश्वर है ?”

     “चार, विवाह का अर्थ है बलात्कार महोत्सव । विवाह बलात्कार पर टिकी संस्था है ।”

     मैंने रजिस्टर बंद कर दिया तो चपला ने मेंटलपीस से उठा कर एक रोल किया हुआ पोस्टर मेरे सामने फैला दिया । यह भी तीनों की समवेत कला का नमूना था और उनके हिसाब से उस प्रस्तावित शोध निबंध का आवरण पृष्ठ । एक लंबा जलूस था । पिछले सिरे पर आकृतियाँ अधूरी जिससे काग़ज़़ के बाहर भी जलूस के जारी रहने का आभास मिलता था । सब की सब आकृतियाँ स्त्रियों की थीं । चेहरों की जगह दुनिया भर की मशहूर औरतों की शक्लें चिपका दी गई थीं । कहीं की फर्स्ट लेडी, कहीं की रानी, कहीं की प्रधान मंत्राणी । नेत्रियाँ और अभिनेत्रियाँ और चितेरियाँ । नर्तकियाँ, लेखिकाएँ, गायिकाएँ, खेल जगत और कला जगत की तारिकाएँ । इतने चेहरे इन्होंने कहाँ से जुटाए । काटे, चिपकाए । हर एक के हाथ में दे दी वही एक तख्ती “आई हैव बीन रेप्ड ।”

     हँसी अचानक थम गई । सन्नाटा छा गया । शायद ख़ुद ही हँसते–हँसते थक गए थे हम । शायद अन्तत: यह ख़याल हावी हो ही गया कि आख़िर हम हँस किस बात पर रहे हैं । ‘और कुछ नहीं सूझा तुम लोगों को ?’ मैंने पूछा है । ‘असल में यह एक खेल था’, चपला ने कहा है । ‘रामकली के किस्से से हम इतने परेशान हो गए । कंकु तो सन्न हो गई एक दम । फिर सुगंधा ने शुरू कर दिया यह खेल । बलात्कार पर निबंध लिखो ।’

     शायद कारगर ही हो यह खेल! चपला के साथ भी सुगंधा ने ऐसा ही खेल खेला था और चपला कुछ न कुछ नॉर्मल–सी हो ही गई है । सुगंधा कभी सन्न नहीं होती । डरती भी नहीं ।

     बेहद की हद


     ज़्यादा लोग नहीं थे शाम की बैठक में । आना तो सिर्फ़ संदीप अहूजा और के.एस. को था पर के.एस. अपने साथ एक उभरती हुई या उभरने का सपना देखती हुई मॉडल को भी लिए आए थे ।

     सुगंधा के.एस. को काकू कहती है । शायद कोई पारिवारिक मित्रता हो । शायद कोई रिश्तेदारी ही हो । के.एस. सुगंधा की ऐड एजेंसी के मालिक हैं । अभी तक सुगंधा ही लगभग स्थायी रूप से उनकी प्रमुख मॉडल का और मॉडलिंग से जुड़े कार्यक्रमों की देखभाल का काम करती आई है ।

     राधिका गुप्ता सुगंधा जितनी सुंदर नहीं । सुगंधा जैसा लालित्य भी नहीं । कभी अभ्यास से अर्जित की होंगी ये भाव– भंगिमाएँ और चाल–ढाल सुगंधा ने । अब वे उसकी नसों में घुल–मिलकर स्वाभाविक बन चुकी हैं । वह गर्दन मोड़कर भौंह उठाएँगी । और चित्र बन जाएगी । आँचल फहराकर कदम रखेगी और लय बन जाएगी । लेकिन उम्र के बत्तीसवे– तैंतीसवें साल में अब उतार की यात्रा शुरू होने को है । अब भी वह आकर्षक है । बल्कि इस आकर्षण में परिपक्वता और गहराई तो अभी आनी शुरू हुई है । लेकिन उसके व्यवसाय में उम्र और अनुभव योग्यता में इजाफा नहीं करते । राधिका गुप्ता उम्र में उससे बहुत छोटी है और काकू शायद उसे आजकल ज़्यादा लिफ्ट दे रहे हैं ।

     काकू, सुगंधा और राधिका के हाथों में बियर के गिलास अभी थे । काकू के लाए कैसेट पर वूडी एलेन की फिल्म पूरी हो चुकी थी । मैं खाना गरम करवाने के लिए उठी और चपला मेज लगाने के लिए । संदीप अहूजा भी उसके साथ उठ आया था और मेज लगवाने में उसकी मदद कर रहा था । कई महीने पहले चपला के सामने प्रस्ताव रखने और उसकी प्रतिक्रिया देखने के बाद वह बहुत सँभल–सँभलकर कदम रखने लगा था । चपला से उसने ‘सर्वथा सुयोग्य एवं वांछनीय कुमार’ के अहंकार के साथ बात की थी । चपला की प्रतिक्रिया ने उसको हक्का–बक्का कर दिया था । थोड़ा आहत भी । लेकिन निश्चित दूरी से अब भी वह उसको अच्छी लगती थी । कपड़ा, गहना, ब्यूटी क्लिीनिक और स्वादिष्ट भोजन के हथियारों के सहारे अपने–अपने मर्द को रिझाने और एक–दूसरे को नीचा दिखाने के पूर्ण कालिक उद्योग में व्यस्त अपने घर–परिवार की स्त्रियों के मुकाबले चपला उसे अलग और आकर्षक लगी थी । जैसी संगिनी की तलाश में वह अब तक कुँआरा ही रह गया था, वैसी । जितनी देर फाइल्स और अकाउंट्स में न डूबी रहती उतनी देर भी अपने आप में गुम दिखाई देती । कुछ ऐसी असहाय और असुरक्षित कि उस पर छाँह बनकर फैल जाने को मन करता । इसके अलावा यह भी तो था कि व्यवसाय के सारे पेंच और पैंतरे तो थे ही उसकी मुट्ठी में और बेहतर अवसर की तलाश में किसी प्रतिद्वन्द्वी उद्योग में उसके निकल भागने का ख्तरा, बोनस, अतिरिक्त सुविधाएँ, अतिरिक्त वेतनवृद्धि आदि की शक्ल में दूर करते रहना भी एक पत्नी के रख–रखाव और भरण–पोषण के खरचे से कुछ अधिक ही महँगा बैठता था । सप्ताहांत के निमंत्रितों में संदीप को शामिल कर उसके थोड़ा खुल चुकने के बाद मैंने उससे कहा था, “चपला जैसी लड़कियों से प्रेम निवेदन नहीं, सीधे शादी का प्रस्ताव किया जाता है,” तो हँसकर वह बोला, “यह सलाह आपने पहले क्यों नहीं दी ?” अब उसने अपने लगाव को बहुत सूक्ष्म लगभग अदृश्य कर लिया था । पर उसे जता पाने की आकांक्षा से गिलास और प्लेटें रखवाने– उठवाने जैसे कामों के लिए साथ आ खड़ा होना नहीं भूलता था । अपनी असली कीमत का शायद चपला को अब भी कोई अंदाज़ा नहीं था । अब भी वह इसे छल के इरादे से मोह का भुलावा ही समझ रही थी । खैर, जब जो होना हो! ज़िंदगी को कम से कम से एक मौका तो मिले उसके घाव भर देने का!

     इस समय भी वह साथ खड़ा कमरे के कोने में सजे फूलों की तारीफ में कुछ कह रहा था । चपला प्लेटें उठाने–रखने में व्यस्त थी इसलिए किसी को कुछ पता नहीं चला कि दरअसल हुआ क्या । बाद में चपला को याद जरूर आया था कि उठते–उठते उसने सुगंधा को उस उभरती या उभरने का सपने देखती लड़की से धीमी मगर सख़्त आवाज़़ में एक एक शब्द चबा–चबाकर बोलते सुना था बस, “सो यू आर हिज़ न्यू बॉटल ? हैव यू कलेक्टेड योर प्राइस आलरेडी ? बिकॉज़ ही इज़ ए फॉरगेटफुल मैन!” चिनगारियाँ तो पहले छूटी ही होंगी पर दिखी नहीं । सीधे विस्फोट ही सुनाई दिया । सुगंधा ने पहले हाथ में पकड़े गिलास की बियर राधिका के मुँह पर फेंकी फिर हाथ घुमाकर तड़ाक् से दिया एक तमाचा । जब तक हम वहाँ पहुँचते सुगंधा ‘यू ब्लडी बिच’ जैसा कुछ बड़बड़ाती, एड़ियाँ खटखटाती जाकर अपने कमरे में बंद हो गई थी । काकू हतप्रभ से इधर–उधर देख रहे थे मानो तमाचा था तो उन्हीं के लिए लेकिन लगा कहीं और था । फिर काकू उठे । अपनी पगली बिटिया सुगंधा की ओर से बहुत–बहुत क्षमायाचना करते हुए, बहुत– बहुत शर्मिंदगी का इजहार करते हुए चले गए । संदीप से खाने के लिए रुकने का आग्रह तो मैंने किया पर मौके की नज़ाकत देखते हुए उसने खिसक जाना ही ठीक समझा तो ज़्यादा ज़ोर भी नहीं दिया ।

     इस लड़की ने यह किया क्या! कंकु सारा वक्त वहीं मौजूद थी । सारा नाटक कमबख्त ने अपनी आँखों से देखा पर यूँ सन्नाटा खींचे बैठी है कि एक भी शब्द बोली तो सुग्गा मासी के साथ दगाबाजी होगी ।

     कमरे में जा घुसने के बाद धाड़–धाड़ धड़ाम की आवाज़ें आती रही थीं । वह गया फूलदान । चकनाचूर । टेबिल लैंप । दरवाज़े़ को हाथ मैंने लगाया तो वह खुल गया । सिर्फ़ उड़का हुआ था । म्यूजिक सिस्टम उसने उठाया तो सही पर पटकने से ख़ुद को रोक लिए । महँगा है । मानो रोकना तो वह चाहती थी ख़ुद को हर क्षण पर जैसे उसके गुस्से ने उससे अलग एक ताकत बनकर उस पर काबू पा लिया हो और उसकी देह को हिंसा के एक स्वयंचालित यंत्र में बदल डाला हो । चीजे़ं अपने आप हाथों में उठ आतीं और पटकी जाती रही थीं । पूरी ताकत लगाकर उसने म्यूज़िक सिस्टम को पटके जाने से रोका और सँभालकर वापस धीरे से रखा । आँख उठाई और देखा, दरवाज़े़ पर हम खड़े थे । सिर्फ़ ठेलने की देर थी । दरवाज़ा तो खुला ही था । शायद वह चाहती ही थी हमें अंदर बुलाना, रोक लिया जाना । हमें देखते ही ठहाका मारकर हँसी, “मजा आया न! कुछ मार–धाड़ तोड़–फोड़ के बिना ठीक–ठाक मजा आता नहीं न! यह भी क्या बात हुई कि आओ बैठो, खाओ, खाने की तारीफ करो, चल दो । अब दो–चार दिन याद तो रहेगा पार्टी हुई ।”

     खाने की मेज पर बिना किसी उकसावे के, कह डालने की ज़रूरत से कहने लगी, “आप लोगों को पता नहीं, ये मेरे अपने काकू हैं । मेरे पिता के सगे छोटे भाई ।”

     जाने कौन–सी स्मृति गले में आ रुँधी । पानी के घूँट से नीचे उतारी । लगा कि अभी रो देगी । पर रोयी नहीं । थोड़ी देर अटकी चुप बैठी रही । फिर एक दम अपनी झिझक को फलाँगकर बोलने लगी तो बोलती ही चली गई । जाने कितने बरसों का बोझ था जो उतार फेंकना था ।

     कुल दस महीने की थी जब पिता चल बसे । घर में बाबा–दादी, काकू और माँ । पिता सन् पैंसठ में आर्मी ऐक्शन में मारे गए थे । पेंशन वगैरह के अलावा वॉर–विडो होने के नाते माँ के पास गैस की एजेंसी भी थी और सरकार की तरफ से मिला घर भी ।

     पाँच बरस की नन्हीं सुगंधा के साथ काकू ने एक दिन वही आदिम खेल खेला और खेल चुकने के बाद धमकाया कि ख़बरदार जो किसी के सामने जबान खोली । काटकर फेंक दूँगा । काकू बाबा–दादी के सिरचढ़े लाडले, अब इकलौते बच रहे बेटे थे और सुगंधा बाकी सबके साथ–साथ काकू की भी महादुलारी गुड़िया थी । उनके कंधों पर चढ़कर घूमी थी, उनके हाथों से नहाई थी । उनकी लोरी से सोयी थी, उनकी बात भला क्यों न मानती । काकू जब–तब खेलते वही खेल, चॉकलेट–टॉफी भी देते और धमकी भी । एक दिन जाने कैसे नन्हीं–सी बुद्धि को यह समझ में आ ही गया कि इस खेल में कोई भेद की बात तो जरूर ही है । काकू हर बार जो ख़बरदार करते हैं तो कोई न कोई डर उनको भी अपने लिए होगा ही । तो अगली बार सुगंधा ने छूटते ही फरमाइशों की लंबी लिस्ट रख दी, ‘नहीं लाए न, तो देखना दादी को बता दूँगी । काकू मेरे साथ कैसे खेलते हैं ।’ और लो, काकू सचमुच शाम को लिस्ट से कुछ ज़्यादा ही सामान लिए चले आए । फिर तो सुगंधा ने काकू को नचाना शुरू किया । इच्छाओं का दायरा छोटा था, फरमाइशें टॉफी, चॉकलेट, फ्रॉक, जूतों तक ही सीमित । चलता रहा । स्त्रीदेह की लज्जा, भय, आशंका, पुण्य, पाप वगैरह का कोई भी बोध पैदा होने से पहले ही उसने पढ़ लिए था पहला पाठ, गुनाह करने में नहीं, किए हुए के खुल जाने में है । जब तक वह राज़ रहे जब तक गुनहगार तुम्हारे चंगुल में है ।

     फिर माँ चल बसीं । घर में काकी का आना हुआ । फिर सुगंधा कॉलेज पहुँची । उसका बेझिझक, निडर, प्रसन्न व्यक्तित्व, जैसा कि होना ही था आकर्षण का केन्द्र बना रहा । पढ़ने से ज़्यादा दिलचस्पी नाचने– गाने और नाटक करने में थी । सहपाठी लड़कों के बीच मस्त खिलंदड़ दोस्तियों के दौरान उसने पढ़ा दूसरा पाठ, ‘इफ माई बॉडी इज़ देयर वीकनेस, इट्स देयर प्रॉब्लम, नॉट माइन । फॉर मी, इट्स माई वेपन अगेन्स्ट देम ।’ तो देह का हथियार और दोस्ताना व्यवहार के आवरण में बहुत सूक्ष्म लगभग अदृश्य अत: बेख़बर किस्म के ब्लैकमेल की कार्यविधि का औजार लेकर वह जिन्दगी में उतरी । कौमार्य था ही नहीं जो कौमार्य भंग की चिन्ता होती । मस्ती थी और बेफिक्री भी । काकू पर भरोसा था पर पढ़ाई पूरी होने तक बाबा–दादी भी जा चुके थे और काकी से उसकी पटती नहीं थी इसलिए वर्किंग गर्ल्स होस्टल में अगले कुछ वर्ष बीते और वहाँ की अवधि पूरी होने के बाद वह मेरे पास आई ।

     माँ–पापा का कम्पेंसेशन, प्रॉविडेंट फंड, इंश्योरेंस वगैरह की पूँजी से उसने काकू की पार्टनरशिप में यह ऐड एजेंसी शुरू की थी । उसी की दोस्तियों, संबंधों और व्यवहार–कौशलों के बल पर ऐड एजेंसी को अधिकतर व्यापार मिलता भी था । अभी तक सब ठीक–ठाक ही था पर अब काकू के बच्चे बड़े हो रहे हैं, उनके वारिस । अब सुगंधा के हथियार अपनी धार को रहे हैं । अब आगे भविष्य...

     मानो शाम भर में दस बरस बूढ़ी हो गई हो सुगंधा । ‘नो बडी कैन फूल मी ।’ कहने वाली सुगंधा, ‘प्यार माई फुट!’ कहने वाली सुगंधा । ‘हर बात का वही एक मकसद है ओ के, बट नथिंग फॉर फ्री’, ‘नथिंग विदआउट ए प्राइस’, कहनेवाली सुगंधा कहने के दौरान ही अपनी कहानी में जाने किस खोखलेपन का सामना कर गई थी । ऐसी सुनसान हताश आँखें सुगंधा के चेहरे पर । मैं तो कभी सोच भी नहीं सकती थी । कह कर वह चुप हो गई थी । चुप ही बैठी अपनी प्लेट के खाने से खेलती रही । फिर अंत में एक गहरी साँस में सारा अतीत एकबारगी ही भीतर भरकर बाहर उगल दिया । सिगरेट के गहरे कश की तरह, “छोड़ो जाने दो! बहुत हो चुका । भाड़ में जाय ऐड एजेंसी । कल से यह सिलसिला ही बंद...”

     “नॉन्सेंस ।” चपला ने उसे झिड़क दिया है । इस वक्त अचानक बागडोर उसके हाथ में है । सब सँभाल सकने के पूरे आत्मविश्वास से वह निर्देश दे रही थी, “जानकी के मर्द को तो अभी तुम चक्कर कटवाओगी हज़ार और अपनी बारी में यूँ हथियार डालकर बैठ जाओगी ? जी नहीं, ऐसा आप कुछ नहीं करेंगी । कल से आप रोज जाएँगी वहाँ । ऐसा जताएँगी भी नहीं कि कुछ हुआ है । हर फाइल के एक–एक पन्ने का फोटोस्टेट चाहिए मुझे । एक बार देखूँ तो सही कहाँ क्या हेराफेरी है । खोना ही होगा तो खो ही जाएगा बट नथिंग विदआउट ए फाइट । और वह मकान ? और गैस एजेंसी ?...

     “मकान में वे लोग रहते हैं । गैस एजेंसी काकी चलाती है । नाम ? हाँ, थी तो माँ के ही नाम! काग़ज़ कहीं होने तो चाहिए । देखना पड़ेगा...

     “यानी बिल्कुल ज़रूरी है वापस वहीं घुसना, हमेशा के लिए निकलने के पहले तो और भी!” अपने दफ्तर में शायद दिखती हो वह चपला, मैं तो उसकी यह शक्ल पहली बार देख रही हूँ । भूमिकाएँ बदल गई हैं, चपला के हथियार और औजार कुछ दूसरे हैं । देह के हथियार की तरह वक्त आ पड़ने पर भौथरे और नाकाफ़ी नहीं हो जाया करते! वह डर ही था सुगंधा के भीतर सदियों से कैद जो रोष बनकर फटा था ।

     चित्रलिखित साँड़


     सुगंधा को चपला अपने कमरे में ले गई है । बत्ती अभी तक वहाँ जल रही है । बातचीत की गुनगुनाहट भी सुनाई दे रही है और बीच–बीच में सुगंधा की हँसी भी जो न रोने की जिद में से निकली है । इस ज़िद में हँसने के सिवा वह कभी–कभी दाँत पीसकर मरदों की दुनिया में पैदा होने की मजबूरी पर बारी–बारी से क्रुद्ध और दयनीय भी होने लगती है । इसी के जवाब में ज़रा देर पहले खाने की मेज पर सनाका खाई–सी चुप बैठी कंकु ने सुगंधा से कहा था, “तो क्या कहीं से कोई और धरती आनेवाली है औरतों की दुनिया के लिए ?” कंकु के कंठ में यह पुरखिन जैसा स्वर जाने क्यों इस बार मुझे खटका नहीं । “यह जो मरदों की दुनिया है न, यही औरतों की दुनिया भी है सुगंधा मासी । यहाँ जैसे चींटे हैं, मच्छर हैं, खटमल हैं, वैसे ही मर्द भी हैं । क्या ज़रूरी है कि शेर, भेड़िया, भालू ही कहो । उपमान ही तो हैं । बदल दो!”

     हम तीनों को ही हँसी आ गई थी । कंकु के शब्दों में सब कुछ बहुत राहत भरे और तसल्लीदेह ढंग से आसान था ।

     सुबह होने में अभी पता नहीं कितनी देर है । कंकु अभी ज़रा देर पहले सोई है । सोने से पहले मेरे पास आ सटी । कंधे में मुँह घुसाकर बोली, “कितना अच्छा हुआ न अम्मू कि पापा पहले ही मर गए । और हमारे घर में दूसरा भी कोई मर्द है ही नहीं । आई थिंक आई एम लक्की । रियली लकी ।”

     अँधेरे में उसका चेहरा मुझे दिखा नहीं, आवाज़़ ज़रूर उसी नन्हीं–सी बच्ची की बारीक–सी आवाज़़ थी जिसे छोड़कर मैं मंडालिया गई थी । बहुत दिनों बाद मेरी बेटी मेरे पास थी । उसकी बात से मैं हिलकर रह गई । समझ में नहीं आया कि हँसूँ या रोउ़ँ । दुश्मन के दरवाज़े की तलाश में यह पुतला यहाँ खड़ा है और लड़की बाप के मर जाने को अपना सौभाग्य समझ रही है ।

     ससुराल में जलकर मर गई या जलाकर मार डाली गई बहन की ज़िंदगी से विचलित होकर मेरे पति शशिकांत ने जी–जान की मेहनत और जीवनभर की जमापूँजी से मातृका की नींव डाली थी । सरकारी और गैर–सरकारी अनुदानों के लिए जी–तोड़ दौड़–धूप से एक स्थायी निधि बनाई थी । मुझे स्थायी नौकरी मिल जाने के बाद वे मेरी और कंकु की ओर से लगभग निश्चिंत होकर पूरी तरह मातृका को समर्पित हो गए थे । कनिष्क वायु दुर्घटना में देहांत के पहले के वर्षों में वे लेक्चर–टूर के लिए विदेश यात्राओं से कमाए और बचाए हुए पैसे से मातृका की अपनी इमारत खड़ी कर पाने का सपना देख रहे थे । उनके न रहने के बाद मुझे कंकु से बढ़कर मातृका ही उनकी अपनी निशानी महसूस हुई थी । एक बार कंकु के बड़ी हो जाने के बाद घर को ही मातृका भवन बना लेने का फैसला मैं कर चुकी थी और उसी मातृका ने यह सबक दिया कंकु को, बाप का मर जाना सौभाग्य बना दिया ।

     मेरे कंधे पर कंकु के सिर का हल्का–सा भार है । मैं उसका सिर थपकती हूँ । क्या कभी जानेगी यह लड़की प्यार का अर्थ ? देह और मन का एकाग्र संगीत सुन पाएगी कभी ? पराए अनुभवों की हदें कहीं उसे अनजाने, अनचाहे महज़ एक स्त्री देह बनाकर तो नहीं छोड़ देंगी ? अपनी ओर से मैंने कभी उसे स्त्री देह की आशंकाओं से परिचित नहीं होने दिया । लज्जा और ग्लानि से परे रखा पर दूसरों के अनुभव... मैं बेचैन होकर भी करवट नहीं बदलती । उठ नहीं बैठती । कंकु कहीं जाग न जाय । अब सारे घर में सन्नाटा है । मुझे मेरी साँसों की आवाज़़ भी सुनाई दे रही है, बारह साल पहले की उस चिलकती दोपहर के सुनसान रास्ते पर मुझे धकेलती ले जाती जिसके मोड़ पर आर. के. स्टूडियो था और मैं पासपोर्ट साइज़ की फोटो खिंचाने बीच रास्ते में बस से उतर पड़ी थी । कॉलेज से घर पहुँचने के बाद निकलना हो ही नहीं पाता था । कंकु उन दिनों बहुत छोटी थी । गर्मी की छुट्टियाँ पास थीं और इस बार मैं भी उनके साथ आगामी विदेश यात्रा पर निकलने का कार्यक्रम बना रही थी ।

     इस रास्ते से बस से रोज़ गुजरने भर की वजह से लगता था कि जैसे जाना–पहचाना इलाका है । उतरने के बाद लगा कि यहाँ तो एक भी नाम–पता ऐसा नहीं जो हमारे जाने की जगह हो । स्टूडियो की सीढ़ियों पर कदम रखते हुए देखा कि इस मोड़ के साथ ही मेन रोड की चहल– पहल पीछे रह जाती थी और रिहायशी इलाका शुरू हो जाता था जो धुर दुपहरिया के सन्नाटे में इस वक्त यहाँ से वहाँ तक सूना था । मकानों की कतार के पार गली के उस मुहाने पर गुलमुहर की लाल फूलों से लदी डालियों के नीचे छाँह पकड़कर चुपचाप बिल्कुल शांत शायद उ़ँघता–सा एक साँड़ खड़ा था । जैसे सचमुच नहीं, कैनवस पर संयोजित दृश्य में खड़ा हो । मेरे घर में टँगे एक कैनवस पर चित्रित साँड़ की मुद्रा इसकी बिल्कुल उल्टी है । चित्रकार ने उसका नाम भी रखा है, ‘उन्माद’ । दुकान के अगले हिस्से में काउंटर किसी तरह ठूँस दिया गया था । सीढ़ियों के बाद अंदर पाँव रखने भर की जगह भी मुश्किल से थी । काउंटर के पीछे दरवाज़े पर स्टूडियो लिखा था और फोटोग्राफर की कला के सबूत के तौर पर दुल्हनों की, बर्थडे बेबीज़ की, यूँ ही शौकिया खिंचाई गई फिल्मी मुद्राओं में हीरोइननुमा लड़कियों की तस्वीरें टँगी थीं । काउंटर पर दोपहरी की अलस तंद्रा में झीमते आदमी को देखकर लगा नहीं कि यही फोटोग्राफर है । कनपटियों पर सफेद होते बाल, गंजेपन की शुरुआत में खोपड़ी । अचानक चौंककर जागा हुआ बड़ा बेचारा, विपत्तिग्रस्त–सा चेहरा । जैसे कंकाला पत्नी या दुष्टा बहू का सताया हुआ रिटायर्ड बाप हो जिससे फिलहाल घर के मुंडू का काम लिए जाने लगा हो ।

     “पासपोर्ट साइज़ फोटो खिंचानी है,” सुनकर जब उसने पीछे स्टूडियो का दरवाज़ा खोला और ‘आइये’ कहा तो ताज्जुब–सा हुआ । पता नहीं क्यों मैंने अपने दिमाग़ में फोटोग्राफर के साथ एक ज़्यादा रंगीन और युवा व्यक्तित्व को जोड़ा हुआ था ।

     उसके दिखाए स्टूल पर बैठी तब तक वह कैमरे के पीछे था । फिर वह दो डग आगे बढ़ आया । ऐंगल ठीक करने के लिए मेरा चेहरा पकड़कर किसी नामालूम सही दिशा में घुमाया । फिर अचानक बिना किसी पूर्वसूचना या चेतावनी के उसकी पकड़ सख़्त हो गई ।

     क्या कहूँ प्रिय पाठक, कि इसके बाद क्या हुआ । फिल्मों, ब्लू फिल्मों, स्टार और केबिल टीवी वगैरह के खाद–पानी ने कल्पना को इतना पुष्ट, प्रौढ़ और सक्रिय तो कर ही दिया है कि कहे बिना भी सुनने वाले बेहतर जानते हैं कि फिर कैसे क्या हुआ होगा । फिर भी । दौरान कुल आधा मिनट । या शायद उतना भी नहीं, केवल कुछ सेकेंड । धक्के से ज़मीन पर गिरी भुक्तभोगिनी चैंकती या चीखती इसका भी समय नहीं मिला और इतना तो शायद आपकी कल्पना भी न जता सके कि दस वर्ष की विवाहित देह की स्वामिनी और एक बच्चे की माँ होने के बावजूद एक अबूझ क्षण में वह जान नहीं सकी कि जो भी उसका हश्रो–हवाल होनेवाला था वह सचमुच हुआ भी था या कि नहीं । चाभीवाली गुड़िया की तरह खड़ाक से वह उठ खड़ी हुई । हमलावर सामने था । सिटपिटाया, झेंपा, खिसियाया हुआ चेहरा । यह किसी खलनायक का चेहरा नहीं था । उस चेहरे पर कुछ भी ऐसा नहीं था जो प्राण या प्रेम चोपड़ा या रंजीत जैसे चरित्रों की याद भी दिलाता हो ।

     उस क्षण की मेरी उस स्वत:स्फूर्त प्रतिक्रिया को बाद के बरसों में बहुत बार मैंने समझने की कोशिश की । ऐसा मैंने क्यों किया । बल्कि सच तो यह है कि ऐसा मैंने किया नहीं । ऐसा मुझसे हुआ अपने आप । भीतर से अपने आप ख़ुदबुद– ख़ुदबुद कर हँसी फूट–फूटकर बह चलने को हुई और इस अधगंजे, अधबूढ़े, बाप, चाचा, ताउ़नुमा जिंदगी से बेजार, कंकाला बीवी या दुष्टा बहू के सताए हुए से दीखते इस आदमी को कैसा लगेगा सोचकर मैंने अनफूटी हँसी से हिलते अपने वजूद को हँसने से रोका । सख़्त ट्रेनिंग के बावजूद कीमती कारपेटवाला कमरे का कोना गंदा कर देनेवाले सिटपिटाए, कान लटकाए, सजा का इंतजार करते खड़े कुत्ते की तरह उस आदमी को दिखे होंगे हँसी से फड़कते नथुने और थिरकते कपोल और खुलते–खुलते बंद कर लिए गए होठ और कस लिए गए जबड़े और रोकी हुई हँसी के आवेश से भर आई आँखें । हे भगवान! यह तो मुझे चालू समझ रहा होगा!

     प्रिय पाठक, किसी भी गुणवती, शीलवती कुलवधू के लिए सर्वथा अस्वाभाविक है यह प्रतिक्रिया, यही सोचा न आपने, चालू के अलावा ऐसा करेगी ही कौन । तो आपके सोचने की चिंता मैं क्यों करूँ ? आपको बलात्कार के बारे में मालूम ही क्या है ? आपके साथ तो कभी ऐसा हुआ ही नहीं, न हो सकता है । लेकिन प्रिय पाठिका, शायद ही कहीं किसी अपवाद को छोड़कर शेष अधिकतर आप सब कभी न कभी ऐसे अनुभव से गुजरी हैं जिसका रहस्य इतना गोपनीय कि साँसों से निकलकर हवाओं तक को नहीं मिला । यानी अगर छिपा रह सका तो । स्त्री के पास इससे अधिक या इससे अतिरिक्त गोपनीय और होता ही क्या है ? छलात्कार या बलात्कार । बाकी तो उसका जीवन खुली किताब है । बल्कि दरअसल तो उसका यह चरम परम गोपन भी उसके जीवन का खुला खेल ही है । क्योंकि देखिये न, किसी भी स्त्री में ज़रा–सा भी असहज या विलक्षण कुछ देखते ही इसी एक नतीजे पर तो पहुँचते हैं हम कि खाई–खेली है या चालू है या कमर्शियल है! शायद आपको भी प्रिय पाठिका, शायद क्या निश्चय ही, मेरा वह आचरण अस्वाभाविक लगा होगा । आप क्या अगर जो मैं खुद उस क्षण से गुजरने के पहले कभी कल्पना की उड़ान के पागल से पागल किसी दौर में ऐसे किसी हादसे का अनुमान करती तो अपने लिए ऐसी प्रतिक्रिया कभी न चुनती । तब तक की देखी हुई हिंदी फिल्म की तर्ज पर मैंने चुना होता रोना, गिड़गिड़ाना, विनती, दुहाई या फिर लड़ाई–मारधाड़ और अब इधर की पढ़ी हुई एकाध ख़बरों वगैरह के हिसाब से बॉबिटिंग यानी मूलोच्छेदन । कातर हुई होती या फिर आक्रामक तो देखे, सुने–भोगे हुए के अनुसार आपको भी और मुझको भी स्वाभाविक लगा होता । स्वाभाविक आख़िरकार होता ही क्या है हमारे हिसाब से ? हमारे देखे, सुने, भोगे की हद! एक धुँधला, निर्वैयक्तिक, निराकार, सार्वजनिक औसत । फिर भले ही उसका संबंध किसी के सचमुच के स्वभाव से हो या न हो । जबकि स्वयं अपना स्वभाव भी हम ठीक–ठीक जानते कहाँ हैं ? किसी अनाहूत अप्रत्याशित क्षण में अपने आप से वैसे ही चैंक जाया करते हैं जैसे उस क्षण मैं ।

     तो प्रिय पाठक, अगर फिर भी आपको मेरा यह आचरण स्वाभाविक और संभाव्य नहीं लगता तो यही मानकर तसल्ली करें कि मैं, प्रतिमाकांत, सचमुच हूँ थोड़े ही । मैं तो महज़ अपनी लेखिका के एक अगड़म– बगड़म से विचार का वाहन भर हूँ । हाँ यह फोटोग्राफर ज़रूर या शायद सचमुच हो क्योंकि पिछले कई वर्षों में कभी मनोहर कहानियाँ के किसी अंक में, कभी अख़बारों की सुर्खियों में, अजमेर, जलगाँव सरीखे छल–बल काण्डों की सूचनाओं समाचारों में इस जात के जीवों से मेरी लेखिका की मुलाकात होती रही है ।

     कब तक रुकी रहती वह हँसी । बेबस बेहताशा फूट निकली । जैसे पेट के गड्ढे में जा लगा दहशत का क्षणिक पर ताकतवर धक्का हँसी में फूटा हो । और इसी हँसी ने पता नहीं क्या किया कि उस ज़िंदगी से बेजार, बेचारे कंकाला बीवी या दुष्टा बहू के मारे से दीखते अधगंजे, अधबूढ़े बाप, चाचा, ताउ़नुमा आदमी को प्रेम चोपड़ा या प्राण या रंजीत का कोई चरित्र बना डाला सचमुच । चीते की तरह टूटकर जो उसने मुझे नोचना–खसोटना, छीलना, काटना दीवार पर मेरा सिर दे मारना और गला दबाना शुरु किया कि लगा जैसे कल के अखबार की सुर्खियों में प्रतिमाकांत की हत्या का समाचार ही होना है । अपने असफल अभियान को सफल करने की कोशिश उसने नहीं की । वह तो मानो सिरे से ही मेरा सफाया करने पर तुला था हिंसा का वैसा ही स्वयंचालित यंत्र जैसा अभी ज़रा देर पहले सुगंधा में दिखा था । प्राण भय के अलावा और कोई ताकत नहीं थी जो मुझे उसके शिकंजे से छुड़ा पाती ।

     बाहर वैसी ही सुनसान दोपहरी थी । सब कुछ वैसा ही था । गुलमुहर के नीचे चित्रलिखित–सा वह साँड़ तक उसी तरह छाँह पकड़े शांत उ़ँघता खड़ा था । मैंने अपने को देखा । वही हाथ, वही पाँव, प्रतिमाकांत, डबल एम.ए. सोशियोलॉजी और सोशल वर्क, पी.एच.डी. रीडर सोशियोलॉजी, तुम्हारी इज़्ज़त तो, सोचते ही मुझे फिर हँसी आने लगी, जाते–जाते ही रह गई शायद । बीसवीं सदी की आख़िरी चौथाई में भी इस कमबख़्त इज़्ज़त का ऐड्रेस नहीं बदला अभी तक ।

     गर्मी और पसीने की चिपचिप के अलावा अपने से थोड़ी घिन–सी भी लग रही थी, गलीज–सी गिजगिजाहट । खूब देर तक रगड़कर नहाने का मन था । उस आदमी के लिए हिकारत मिला रोष तो था ही पर उसमें थोड़ा तरस, थोड़ी करुणा भी मिली हुई थी । कौन–सी ताकत थी, कौन–सा दबाव, जिसने यह करवाया उससे! उ़पर घर था । वहाँ शायद पत्नी, बहू–बेटियाँ होंगी । किसी भी समय कुछ भी हो सकता था । कोई आ ही जाता । मैं तो वहाँ अपरिचित थी पर उसका तो अपना मुहल्ला, पास–पड़ोस था । और मैं ही उसे छोड़ दूँगी इसका क्या आश्वासन था उसके पास । उसके चेहरे की वह झेंपी, सिटपिटाई खिसियाहट... उस रोष, हिकारत, करुणा, तरस में थोड़ा कौतुक, विनोद और परिहास भी मिला हुआ था । मैं ऐसा कोई शब्द आज तक नहीं जानती जिससे उस भाव को नाम दूँ ।

     छिली–कटी, नोची–खसोटी देह लिए घर में घुसी तो शशिकांत लौट चुके थे और रोती हुई बिटिया को बहलाते–टहलाते झुनझुना बजाते उसके साथ खुद भी हलकान थे । जैसे सहज भाव से उन्होंने पूछा क्या हुआ वैसे ही सहज भाव से मैंने बता भी दिया कि यह हुआ । मेरे मन में एक बार भी आया ही नहीं कि इसमें छिपाने जैसी भी कोई बात है । ऐसा तो मुझे शशिकांत ने ही गढ़ा था और यह उन्हीं की अपेक्षा भी थी कि एक गहरे, सच्चे ईमानदार रिश्ते में मैं उनकी संगिनी हो सकूँ । विवाह के समय बी.ए. फाइनल में ही तो थी मैं, ले–देकर उन्नीस बरस की । देह से अधिक, अतिरिक्त और परे व्यक्तित्व के बारे में उन्होंने ही तो सिखाया था मुझे । फिर छिपाती ही क्यों!

     सुनकर विश्वास ही नहीं किया उन्होंने । तब तक उन्हें भी यह अंदाजा नहीं था कि कोई स्त्री ऐसा करेगी । यानी कहेगी । उन्होंने समझा था बस से गिरी या स्कूटर से एक्सीडेंट हुआ । डिटॉल से धोते, चोटों पर मरहम लगाते यही दोहराते रहे कि ‘यह भी कोई मजाक की बात है ।’ आख़िरकार उनके अविश्वास पर मैं झुँझला गई, “गोद में बच्ची लेकर खड़ी हूँ, तुमसे झूठ क्यों कहूँगी ? और मजाक की बात तो सचमुच यह है ही नहीं!”

     इसके बाद ज़िंदगी बदल गई । शशिकांत उस वक्त चुप हो गए । फिर लगभग स्थायी रूप से चुप । कोई वितृष्णा थी जो मुझे छूते ही लहर की तरह उनके भीतर दौड़ जाती थी, उनके सारे विवेक के विरुद्ध, उनके बस के बाहर, जाने मेरी देह में वे क्या छू लेते थे । उनसे मुझे कोई शिकायत नहीं । हर बार वे एक गहरी ग्लानि और आत्मधिक्कार के दौर से गुज़रते थे । फिर मैं उनके सामने पड़ने से बचने लगी और वे भी मातृका में ज़रूरत से ज़्यादा व्यस्त होकर दीवार के उस पार चले गए । शायद उन्हें उम्मीद थी कि मैं भी...!

     किसी ग्लानि या धिक्कार महसूस ही नहीं हुआ अपने भीतर । उनकी दुर्दशा से उन्हें छुटकारा देने के लिए जरूर मैंने अपनी तरफ से एक कोशिश की । झूठे ही कहा कि “उस दिन सचमुच मैं मजाक ही कर रही थी । दरअसल बस से ही गिरी थी । झूठे भी क्यों कहूँ । मुझे तो लगा था कि बलात्कार हुआ पर शब्द के ठीक–ठीक पारिभाषिक अर्थ में कहा भी जा सकता था कि शायद नहीं ही हुआ । अश्वत्थामा तो मरा ही था । बच्ची को तो मैं इस बार भी गोद में लिए खड़ी थी पर इस बार उन्हें मेरी इस बात पर विश्वास नहीं हुआ । वे क्रुद्ध हो उठे और आक्रामक, “क्या तमाशा बना रखा है ? बच्चों का खेल समझ रखा है ?” उनके यूँ टूट पड़ने, नोचने– खसोटने, पटकने में मुझे फिर, उसी फ़ोटोग्राफर की शक्ल दिखाई दी । मानो उनके लिए यही असली तृप्ति थी, यही हिंसा । इसके पहले जो हम अपने नितांत निजी एकांत में देह और मन का एकाग्र संगीत रचा करते थे वह दरअसल किसी असली चीज़ की फीकी, बेरंग, धूमिल सी अनुकृति भर थी । फिर हमारे बीच यही एक छंद तय सा हो गया । फिर मेरे लिए उसमें न कुछ निजी रहा, न एकांत । तब जो नहीं हुई थी अपने देह से वह घिन अब होने लगी । लाख नहाने पर भी न छूटती । फिर वही घिन शशिकांत से भी होने लगी । उनका देहांत मेरे लिए छुटकारे की साँस था । उनके लिए भी । मतलब साँस नहीं, छुटकारा ।

     उस दिन के बाद कहाँ कहाँ नहीं दिखा मुझे उस फ़ोटोग्राफर का चेहरा । बाप और भाई और दूसरे रिश्तेदार, दोस्त और सहयोगी और छात्र और भांजे–भतीजे । किसी के साथ भी बात करते–करते अचानक इस अहसास से घिर जाती कि यह मेरी बात सुन नहीं रहा, कपड़ों के भीतर एक स्त्री देह भर देख रहा है । अपने साथ जाने कैसी घनघोर भीषण लड़ाई से गुज़र रहा होगा बेचारा अभिशप्त । किसी भी क्षण डोर इसके हाथ से छूट जाएगी । हार जाएगा और हार का दंड मुझे देगा । बेचारा । अभिशप्त ।

     दुश्मन का दरवाज़ा


     नींद शायद सुबह के आस–पास कहीं आई होगी । जागी तो कमरे में कोई नहीं था । बाहर इन तीनों के चहकने की आवाज़ें आ रही थीं । जानकी के लिए घंटी बजाई । अगर इन लोगों के तय विषय पर कभी शोध–पत्र मैंने लिखा ही तो एक वाक्य आँख खुलते ही दिमाग में आया । सोचा कंकु के रजिस्टर में नोट कर दूँ दंड विधान की कठोरता से अपराध समाप्त नहीं होते, सिर्फ़ ज़्यादा जटिल, अप्रत्यक्ष और क्रूर हो जाते हैं । देखा तो रजिस्टर था ही नहीं । इन तीनों के बीच शायद छूटा हुआ खेल फिर जारी था । मियाँ की जूती मियाँ का सिर । सुगंधा का नुस्खा सुगंधा पर ही आजमाया जा रहा था । उठकर बाहर आई । हाँ, रजिस्टर वहीं खुला हुआ था । चपला के हाथ से कलम अभी–अभी कंकु ने ली थी और चपला की लिखावट में कुछ जोड़ रही थी । पीठ पीछे खड़े होकर मैंने पढ़ा, बलात्कार सिर्फ़ एक शारीरिक कर्म नहीं जो होकर ख़त्म हो जाता है । बल्कि एक मानसिक विकलांगता है जो ख़त्म होने के बाद चलती रहती है । चाहो तो मुक्त हो जाओ । सुगंधा की लिखावट में कोने में था, दुरफिट्टे मूँ । विकलांगता ही काहे की । वहाँ चोट लगने पर तो न बैसाखी चाहिए न ही जैपुर लिम्ब । उठो और चल दो । हमलावर एक डरा हुआ आदमी है । उसे तुम्हारी शर्म पर भरोसा है । बेशर्म बनो ।

     नीचे कंकु लिख रही थी, मच्छर तो रहेगा पर मलेरिया नहीं । बलात्कारी तो रहेगा पर बलात्कार नहीं ।

     खाने की मेज़ पर पुतला फैंसी ड्रेस में खड़ा हँस रहा था । उसके माथे पर जोकर की भोंपूनुमा टोपी थी । कानों में कंकु अपनी बार्बी डॉल की जूतियाँ लटका रही थी ।


अर्चना वर्मा 
कविताओं और लघु कथाओं के जरिए हिंदी साहित्य जगत की समृद्धशाली परंपरा को आगे बढ़ाने वाली अर्चना वर्मा का जन्म 1946 में हुआ था. पेशे से प्राध्यापक एवं 'हंस' जैसी साहित्यिक पत्रिका के संपादन से जुड़ी रहीं, अर्चना वैसे तो बहुत कम लिखती हैं, लेकिन जो भी लिखती हैं, वह मानवीय संवेदनाओं को झंकृत करता है. उनका लेखन जहां इंसानी जज्बातों को गहराई से पकड़ता है, वहीं आधुनिक जीवनशैली की आपाधापी के पीछे भागने को मजबूर मध्यवर्गीय समाज की त्रासदी का बखूबी चित्रण भी करता है. वह कामकाजी महिलाओं की मुश्किलें, उसकी सोच-समझ का दायरा और मानसिकता को बारीकी से कहानियों का शक्ल दे देती हैं. 'कुछ दूर तक', 'लौटा है विजेता' (कविता संग्रह),  'आशीर्वाद', 'सौख', 'राजद्रोह', 'पहरा', 'शोक गीत' और 'जाती बरसात का इंद्रधनुष' अर्चना की प्रमुख कृतियां हैं.  

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