राजेन्द्र यादव का आत्मकथ्य: 'तोते की जान' – अर्चना वर्मा | Autobiography of Rajendra Yadav 'Tote ki Jaan' by Archana Verma

अब जो प्रस्तुत है उसका आधार है जैसा मैने जाना के अलावा जैसा राजेन्द्र जी ने जहां तहां लिखा और उसे जैसा मैने पढ़ा। – अर्चना वर्मा
आत्मकथ्य सिर्फ अपना ही लिखा जा सकता सकता है भरत, इस आलेख का झमेला यही है कि राजेन्द्र जी लिखने से बचने की फिराक मेँ थे और मैँ गलत वक्त पर गलत जगह जा पहुँची और राजेन्द्र जी ने इस आलेख मेँ फँसवा दिया मुझे। लेकिन लिखा तो मैँने अपना ही कथ्य यह अलग बात रही कि राजेन्द्र जी भी लिखने से बच नहीं सके। उन्हें भी 'मुड़ मुड़ के देखता हूँ' लिखना ही पड़ा और जब वह पुस्तकाकार छपा तो राजेन्द्र जी ने उस किताब मेँ तोते की जान को भी शामिल कर लिया था।  - अर्चना वर्मा
राजेन्द्र जी की करीबी मित्र प्रो० अर्चना वर्मा ने कुछ वर्षो पहले, राजेन्द्र यादव जी का आत्म कथ्य लिखा था। ये काम भी सिर्फ राजेन्द्र जी ही कर सकते थे कि अपने आत्मकथ्य को उन्होंने प्रो वर्मा से लिखने को कहा। उनकी इस अनोखी, अनूठी आजादी देने की अदा को मैं “राजेन्द्राजादी” का नाम देता हूँ।  प्रो० वर्मा को पूरी राजेन्द्राजादी थी इस आत्मकथ्य को लिखने की और मजेदार बात ये – कि अपने आत्मकथ्य को उनसे लिखवाने के बाद नाम उन्होंने खुद दिया – “तोते की जान”।

आपमें से बहुतों ने शायद “तोते की जान” ना पढ़ी हो, इसलिए अर्चना जी से आग्रह किया कि शब्दांकन के ज़रिये आप तक पहुंचाने के लिए इसे उपलब्ध करा दें। आभारी हूँ अर्चना वर्मा जी का कि उन्होंने आग्रह स्वीकारा।

शब्दांकन राजेन्द्र जी का सदा आभारी रहेगा, वो ना देते तो ये नाम (शब्दांकन) ही ना होता और भी ना जाने और क्या-क्या ‘नहीं होता’।

आपका

तोते की जान – (दूसरी कड़ी)

तोते की जान – (पहली कड़ी)

– अर्चना वर्मा


षड्यंत्र तो जरूर था लेकिन 'प्री-प्लैन्ड' शायद नहीं ही रहा होगा। कम से कम लगा तो ऐसा ही कि यह दिमागी लहर मुझ पर नज़र पड़ने के बाद या साथ राजेन्द्र जी को आई। अखिलेश राजेन्द्र जी को शायद तद्भव के अगले अंक में कुछ लिखने के लिये घेर रहे थे, राजेन्द्र जी बचने की कोशिश कर रहे थे।  दुर्दैव से उसी समय मैने दफ़्तर में कदम रखा और ज़रा सी देर में राजेन्द्र जी को यह कहते सुना कि इससे लिखवाओ।  यह लिख सकती है।  यह मुझको सन पैंसठ से, ठीक ठीक कहा जाय तो सन छियासठ, इसमें ‘पिछली सदी का’और जोड़ दिया जाय तो वाकई प्रागैतिहासिक , जानती है ।  उसके बाद इसकी टोपी उसका सिर को चरितार्थ करते हुए सारा घिराव इस ओर घूम गया और मेरे इंकार और अखिलेश के आग्रह के बीच मुकाबिला शुरू हुआ।  अखिलेश के बारे में मनोहर श्याम जोशी जी की राय बता कर राजेन्द्र जी ने समझाया कि यह एक व्यर्थ मुकाबिला है।  राय यह थी कि खुद जोशी जी संपादक रह भी चुके हैं और बाकी सब बडे-बडे संपादकों को देख भी चुके हैं लेकिन अखिलेश जैसा बुलडोज़र संपादक उन्होंने दूसरा नहीं देखा।  लिखवा कर छोड़ेगा।  हथियार डालते हुए मैने जानना चाहा कि मामला क्या है।  मालूम हुआ कि राजेन्द्र जी से आत्मकथ्य लिखने का आग्रह है।

       आत्मकथ्य जैसी चीज़ में कोई दूसरा भला क्या कर सकता है?

       पता चला कि जो चाहो सो करने की खुली छूट है।  आत्मकथ्य की वैचारिक किस्म वे खुद लिख देंगे और पूरक तौर पर बाकी कुछ अर्चना से लिखवा लो, यानी जीवनीपरक ललित निबन्ध जैसा कुछ।

       इस तरह के करतब राजेन्द्र जी ही कर सकते हैं।  जिस आत्मकथा को जी कर वे पहले ही फ़ाइनल कर चुके हैं उसमें जो चाहो सो कर देने की गुंजाइश ही कहां बचती है और जैसे चाहो वैसे लिख देने की पूरी छूट के बावजूद यह तो है ही कि मनचाहे तथ्य पैदा नहीं किये जा सकते ।  वे पहले से मौजूद हैं लेकिन मुझको उतने मालूम नहीं हैं। राजेन्द्र जी सुनते नहीं।  कहते है, “कुछ तो तुम जानती हो, कुछ सुन रखा है, बाकी सूंघ रखा है।  तुम्हारी नाक बहुत तेज़ है।  बेकार के बहाने मत करो।

       तो शुरू करने के पहले ही आगाह कर दूं।  यहां जो कुछ भी लिखा जा रहा है उसका आधार है थोड़ी सी जानकारी , थोड़ा कुछ सुना हुआ बहुत कुछ सूंघा हुआ।  खतरा है कि नतीजा ठीक वही हो जो राजेन्द्र जी के संपादकीयों में अक्सर हो जाया करता है यानी अनुमानित निष्कर्षों को प्रामाणिक ऐतिहासिक तथ्यों की जगह पर बिठा कर मान लेना कि सच यही है।  सच आखिर एक पाठ ही तो है।  जैसे चाहो पढ़ लो।

       लेकिन खतरा तो खुद राजेन्द्र जी ने ही चुना है।  उनके लिये यह अपनी उदारता साबित करने का एक मौका है या फिर मेरे लिये अपनी निष्पक्षता साबित करने की एक चुनौती? (संदर्भः कथादेश के अगस्त अंक में प्रकाशित राजेन्द्र जी के साक्षात्कार पर कथादेश के ही अगस्त अंक मेँ मेरी प्रतिक्रिया) लेकिन इस सन्दर्भ में निष्पक्षता का मेरा कोई दावा नहीं और न किसी की उदारता साबित करने का उपलक्ष्य ही मैं बनना चाहती हूं ।  यह मैं कहां आ फंसी लेकिन इस फेर में आ पड़ना खुद मेरा अपना ही तो किया हुआ है वैसे ही जैसे राजेन्द्र जी का खुद यह खतरा चुनना ।  तो खैरियत इसी में है कि जीवनी और प्रामाणिक वगैरह के चक्कर में पडे बिना व्यक्तिपरक जैसा कुछ लिख मारा जाय जो ललित जैसा भी कुछ बन पड़े तो अच्छा पर ऐसा तो न ही हो कि मेरे दुराग्रहों-पूर्वाग्रहों की अभिव्यक्ति को कोई भावी शोधशूर राजेन्द्र जी की प्रामाणिक जीवनी समझ बैठे।  यानी अब जो प्रस्तुत है उसका आधार है जैसा मैने जाना के अलावा जैसा राजेन्द्र जी ने जहां तहां लिखा और उसे जैसा मैने पढ़ा।  नवीनतम संदर्भ : कथादेश का पूर्वोल्लिखित साक्षात्कार।

       इस परिचय को भारी भरकम तौर पर सम्माननीय बनाना हो तो जैसा कहा पिछली सदी के सन छियासठ में मिराण्डा हाउस के हिन्दी विभाग में नौकरी शुरू करने के बाद मन्नू जी की सहकर्मिणी और मित्र की हैसियत से उस घर में आना जाना शुरू हुआ था।  बचपना था।  समझ कोई खास नहीं थी।  मन्नू जी की ममता थी ।  मातृत्व भाव उनमें हमेशा से ही प्रबल था।  टिंकू, उनकी बिटिया, का नाम रचना है।  उसके साथ खेलते हुए मज़ाक में मैं कहा करती थी यह रचना मैं अरचना।  टिंकू के साथ राजेन्द्र जी को कभी कभी मैं पप्पू भी कहा करती।  कभी कभी इसलिये कि घर में वे होते ही कभी कभी थे।  उतने मशहूर लोगों के आस पास फटक सकने के अहसास में भी तब एक अपना आतंक था जिसे मैं बहुत चुप रह कर छिपाती थी।  चुप रह कर दिखता कुछ ज्यादा है।  लगता था कि इस घर में जब तब कभी बेमौसम बादल घिरे होते हैं तो कभी आंधी चढ़ी होती है। लेकिन बस लगता ही था।  सन उन्नीस सौ छियासठ में समझने लायक अकल नहीं थी, न पूछने लायक हिम्मत ही।  मेरे वहां होने के दौरान राजेन्द्र जी अक्सर घर पर नहीं होते थे।  मटरगश्ती के लिये निकल जाने का समय शायद वही रहा होगा।  राजेन्द्र जी की सूरत जब पहले पहल राजेन्द्र जी में ही देखी थी तो किसी पत्रिका, शायद सारिका, शायद कमलेश्वर के संपादनकाल में प्रकाशित उनकी उस तस्वीर की याद आई थी जिसका शीर्षक दिया गया था ‘ऐयारों के ऐयार’।  पता नहीं तब भी वे पाइप पीते थे या नहीं ।  तस्वीर में शायद ऐसा न भी रहा हो लेकिन मुझे उनका चेहरा हमेशा धुएं के गुबार से घिरा हुआ ही याद आता है।  कुछ तो धुएं से धुंधलाया और कुछ बड़े भारी चश्मे के पीछे छिपा किसी न खुलने वाले तिलिस्म जैसा-।  शीर्षक बिल्कुल दुरूस्त था।  वाकई ऐयारों के ऐयार ।  उन दिनों राजेन्द्र जी को बस इतना ही जाना।

       थोड़ा सा अधिक जानना सा शुरू किया ‘हंस’ के संपादन से विधिवत जुड़ने के बाद सन छियासी में। बीस बरस बीत चुके थे। इस दौरान मन्नू जी से संपर्क तो बना रहा लेकिन जिन्दगी के बहुत से उतारों- चढ़ावों, मोड़ों--चौराहों के बीच एक दूसरे को भीतर से जानने और साथ और सहारा देने का मौका प्रायः नहीं रहा।  दूर दूर से पता तो चलता रहा कि बीच बीच में कभी कभी कोई तूफ़ान उठा लेकिन बिना विशेष ध्वंस के बैठ गया।  निशान तो छोड़ ही जाता रहा होगा।

       इन बरसों में उम्र बढ़ाने के अलावा मैं अपनी जिन्दगी में और भी बहुत कुछ कर बैठी थी जिसमें से यहां काम की बात महज़ इतनी है कि ‘दिनमान’ के लिये नियमित रूप से समीक्षा लिखते हुए बिना किसी योजना या उद्देश्य के ही समीक्षा के तंत्र में फंस और साहित्य से जुड़ गयी थी और जब राजेन्द्र जी ने ‘हंस’ शुरू किया तो मेरा सहयोग समीक्षा स्तंभ को नियमित रूप से विधिवत चलाने के लिये ही लिया था।
यानी सिर्फ़ समय बिताने के सामान की तरह शुरू किया गया काम अब जी का जंजाल बन चुका था। साहित्यिक मित्र बताने लगे थे कि समीक्षा ही वह सबसे ज्यादा मूल्यवान और महत्त्वपूर्ण कर्म है जो मुझे करते रहना चाहिये।  पढ़ने का शौक मुझे है और यह पता भी कि लिखने वाले को एक ‘फ़ीड बैक’ की आकांक्षा और अपेक्षा होती ही है।  मित्रों की अपेक्षाओं को टालना आसान काम नहीं इसलिये बार बार यह प्रण करने के बावजूद कि अब बस यह आखिरी समीक्षा थी फिर फिर खुद ही उस प्रण को तोड़ भी बैठती हूं।  इसलिये तब ‘हंस’ को मेरी और मुझको ‘हंस’ की जरूरत का 'मूलाधार' यह समीक्षा ही थी।  फिर पता नहीं कैसे पहला अंक निकलने के पहले ही इस मूलाधार का तरह तरह से बन्टाधार हुआ जो अपनी शाखा प्रशाखा निकालता चला गया और मैं वहां प्रूफ़रीडिंग से ले कर रचनाओं की पहली छंटनी और जब जैसी जरूरत तब वैसा माल कविता, कहानी, छोटी कहानी, लम्बी कहानी, समीक्षा, एक बार का तो संपादकीय भी वगैरह सप्लाई करने जैसे तरह तरह के धन्धों में फंसी पाई गयी।  यानी कुल मिला कर शुरू के सालों में टाइमटेबिल का काफी काफ़ी हिस्सा ‘हंस’ के दफ़्तर में बीतने लगा।  इसमें कहीं मेरी अपनी भी कमजोरी रही ही होगी।  और कुछ नहीं तो अपेक्षाओं को टाल न पाने या फिर अटक भीर और अड़ी भिड़ी के समय बावजूद अनिच्छा और आलस्य के बरबस उठ खड़े होने की निहायत औरताना आदतें जो अपने आप से बेहद लड़ाई के बावजूद छूटती ही नहीं और भुनभुनाने की मनःस्थिति में इस फंसावड़े की सारी जिम्मेदारी (पढ़िये गलती और गुनाह) मैं राजेन्द्र जी पर डालना पसंद करती हूं।  मुझे भी इस तरह अपने लिये एक स्थायी बहाना मिला हुआ है कि ‘हंस’ की फ़ाइल-दर-फ़ाइल कहानियां पढ़ते हुए और रहे सहे वक्त में तथाकथित बाकी धन्धे निपटाते हुए न वक्त बचता है न दिमाग कि जो मैं सचमुच लिखना चाहती हूं वह लिख सकूं।  इस सिलसिले में भुनभुनाना एक किस्म की क्षतिपूर्ति ही समझिये।  यह अलग बात है कि बीच बीच में जब कुछ अरसे के लिये समीक्षा वगैरह से हाथ समेटा तब कुछ और भी नहीं ही लिखा।  थोड़ा बहुत जो लिखा गया वह कभी न लिखा गया होता यह फंसावड़ा अगर न होता।  राजेन्द्र जी यह कला जानते हैं।  वे जानते हैं कि मैं सिर्फ दबाव और मज़बूरी में ही काम करती हूं।  वे मुझे यह भी बताते हैं कि मेरे बहानों का असली नाम आलस्य है।  कभी चुनौती से, कभी धिक्कार से , कभी अपनी असहायता और अन्यत्र व्यस्तता के प्रदर्शन से और इस सबसे बढ़ कर इस जानकारी से कि किस पर किस वक्त कौन सा हथियार काम करेगा, वे लोगों को प्रेरित, प्रोत्साहित, उत्तेजित करके काम के लिये धकेलना जानते हैं।  उनकी इन्हीं युक्तियो (पढ़िये हथकण्डों) का नतीजा है कि आज मैं अखिलेश के चंगुल में फंस कर खुद राजेन्द्र जी को इस ललित निबन्धनुमा चीज़ का विषय बना कर इस चिन्ता में बैठी हूं कि यह ऐयार जो खुद ही तिलिस्म भी है, खुद ही तहखाना भी, इसकी चाभी है कहां।  और विषय ऐसा फिसलवां साबित हो रहा है कि आसानी से पकड़ में आने की बजाय अवान्तर भटकाता ही चला जा रहा है।  शायद ऐसा भी होता हो कि जहां आसानी से कोई रहस्य पकड़ में न आये वहां दरअस्ल रहस्य हो ही नही, सिर्फ रहस्य के लक्षण होने की वजह से मान लिया जाय कि रहस्य भी है ।  अब आज के ज़माने में विवाहेतर प्रेम प्रसंग या स्त्री--हृदय--संग्रह जैसे शौकिया शिकारों को रहस्य की कोटि में रखने की तुक तो कोई है नहीं।  उन्हें ले कर छोटा मोटा स्कैण्डल तक खड़ा करने के लिये भी एक बिल क्लिंटन चाहिये।  उनकी बात अलग है जिनके संस्कार आधी सदी पहले पड़ चुके थे या फिर जिनके भीतर भय है, जिनमें स्त्रियां ही प्रमुख हैं, जो भुगतती आई हैं और जो अब बहादुरी के कारनामों में स्वयं भी पीछे नहीं हैं और जो अब प्रतियोगिताओं में पुरूषों की अपेक्षा कहीं अधिक फ़ायदे में हैं क्योंकि देने वाली कुर्सियों पर जब तक अधिकतर पुरूष हैं तब तक इनके पास देने के लिये ऐसा कुछ है जो पुरूष प्रतियोगियों के पास नहीं है और जो उन स्त्रियों के लिये भी एक संकट खड़ा करती हैं जो इन शर्तों पर प्रतियोगिता में शामिल होना नहीं चाहतीं।  पर यह भी यहां एक अवान्तर प्रसंग है।  इसे आगे के लिये स्थगित करते हुए रेखांकित यहां मैं सिर्फ यह करना चाहती हूं कि ‘कथादेश’ के पूर्वोक्त साक्षात्कार में उल्लिखित राजेन्द्र जी के इकबालिया प्रेमप्रसंगों के अतिरिक्त-, जो अब रहस्य नहीं रहे-, अन्य रहस्य कहीं हैं या नहीं? वह तोता कहां है जिसमें राजेन्द्र जी की जान है??


तोते की जान – (दूसरी कड़ी)

– अर्चना वर्मा

       फिलहाल वह तोता शायद ‘हंस’ है।  उनके बरसों के पाले हुए सपने का सच।  और उनके इच्छाजगत में संपादक को जैसा होना चाहिये वैसे ही संपादक की भूमिका उन्होंने अपने लिये तय की है।  अपनी सारी भुनभुनाहट के बावजूद इतना तो मैं भी जानती हूं कि यह अहसास उन्हें शायद बहुत गहराई तक तृप्त करता है कि किसी की रचनाशीलता को खादपानी देने में उनका भी हाथ है।  ‘हंस’ के साथ जुड़े नये लेखकों की लम्बी जमात का स्नेह और लगाव इसी का फल है लेकिन इसके कुछ अवान्तर नतीजे भी हैं ही।  जैसे कि राजेन्द्र जी का यह आग्रह कि वापस जानेवाली रचना में अगर थोड़ी भी गुंजाइश दिखे तो उस पर एक टिप्पणी और साथ में संशोधन की सलाह जरूर नत्थी की जाय।  पहली छंटनी का काम इससे बढ़ता और मुश्किल होता है, यह स्थिति का सिर्फ एक ही पहलू है।  यह भी होता रहता है कि सलाह के नतीजे खुद को ही भुगतने पड़ें।  लेखक अगर सलाह को अमल में लाकर सचमुच संशोधन कर डाले और हंस को सलाह और संशोधन के बीच कोई ताल मेल नज़र न आये तो गलती जाहिर है हमारी होगी।  संशोधन के कारण अगर कहानी और भी बिगड़ गयी सी पायी जाय तो इस सत्यानास की जिम्मेदारी भी जाहिर है हमारी ही होगी।  विचारार्थ दुबारा भेजते समय अगर लेखक मान चुका हो कि इस बार तो रचना स्वीकृत होगी ही तो उचित ही यह उसका अधिकार है।  यानी यह मान लेना कि स्वीकृति मिलेगी न कि प्रकाशित भी होना।  लेकिन दुर्भाग्य से यदि रचना को लौटाना पड़ा तो मामला संपादकीय तानाशाही का और लेखकीय अधिकार में हस्तक्षेप का बन जाता है ।  स्नेह और लगाव धरा का धरा रह जाता है और नाराज़ों की गिनती में एक और का इज़ाफा होता है।  जितनी आसानी से राजेन्द्र जी दोस्त बनाते हैं उतनी ही आसानी से दुश्मन भी लेकिन प्रकाशन की शुरूआत के चौदह वर्ष बाद आज भी यह संपादकीय नीति बरकरार है और राजेन्द्र जी यथासंभव लेखकों को पत्र भी स्वयं ही लिखा करते हैं। 

       पत्रों का किस्सा भी खासा दिलचस्प है।  ‘हंस’ के दफ़्तर में वे ढेर के हिसाब से आते और बेहद चाव से पढ़े जाते हैं।  डाक राजेन्द्र जी खुद अपने हाथों से खोलते हैं और सबसे ज्यादा मज़ा नाराज़ पत्रों को पढ़ कर पाते हैं जो कभी कभी सचमुच इतने नाराज़ होते हैं कि बाकायदा गोली से लेकर गाली तक की समूची रेन्ज संभाले होते हैं।  और गालियां भी गोली से कतई कम नहीं शायद कुछ बढ़ कर भले हों।  इस मामले में राजेन्द्र जी का प्रिय शगल यह है कि खुद पहले पढ़ चुकने के बावजूद निहायत भोले और अनजान बन कर कोई ठेठ मांसाहारी किस्म का खत मुझे या वीना, सुश्री वीना उनियाल - हमारी कार्यालय सहयोगिनी, को थमा कर वे उसके सामूहिक सस्वर पाठ की फर्माइश करेंगे कि देखो तो ज़रा, क्या कहता है, मेरी समझ में नहीं आ रहा है , पढ़ कर सुना दो और इस क्रम में मेरी या वीना की भद्र महिलासुलभ आत्मछवि को खतरे में डाल देंगे ।  यानी कि होगा यह कि ‘संपादक साले उल्लू के पट्ठे, तू अपने को समझता क्या है’ जैसी अपेक्षाकृत विनम्र वचनावली से शुरू होने वाला पत्र जरा दूर चल कर मां की, बहन की शान में अकथनीय इजाफ़ा करता हुआ मिलेगा और पढ़नेवाली पढ़ती जाये तो अपनी स्त्रीजनोचित सुशीलता की शान में , और न पढ़ पाये तो तथाकथित बौद्धिकता के गुमान में बट्टा लगते हुये पायेगी ही।  एक दिन खीझ कर मैं भी खेल ही गयी।  अन्त तक पढ़ ही डाला ।  सन्नाटा छा गया।  थोड़ी देर।  किसी को समझ में ही नहीं आया कि प्रतिक्रिया क्या दी जाये ।  फिर राजेन्द्र जी ने ठहाका लगाया।  उस दिन के पहले तक के पुरूष प्रधान ‘हंस’ जगत में पुरूषोचित विमर्श की आकांक्षा होने पर मुझसे कमरा छोड़ देने की प्रार्थना की जाती थी।  उस दिन से मैने स्वयं को पूर्णकालिक सदस्य की हैसियत से स्वयं को दाखिल पाया और ‘हंस’ के साथ मेरे संबन्ध में सबसे अधिक मूल्यवान बात मुझे यही लगती है कि वहां अपने स्त्री होने के अहसास का कोई प्रतिबन्धक दबाव मुझे अपने मन पर महसूस नहीं होता।  प्रेमी-पुंगव के रूप में राजेन्द्र जी की ख्याति के सार्वजनिक होने के पहले और स्वयं इस ख्याति से अपरिचित होने के कारण मैं इस आशय का प्रमाणपत्र जब तब प्रसारित किया ही करती थी।  बिना मांगे।  इसके पीछे अपनी आश्वस्ति और निश्चिन्तता की अभिव्यक्ति है कि ऐसी दोस्ती और ऐसा दफ़्तर भी संभव है।  वह प्रमाण पत्र अब भी अपनी जगह बरकरार है। लेकिन उसे अब मैं उसे पहले की तरह प्रसारित प्रायः नहीं करती।  वजह बचकानी और हास्यास्पद है। एक तो यह कि यह मेरा व्यक्तिगत अनुभव है, सामान्यीकरण का आधार नहीं बन सकता।  दूसरे यह आशंका कि जनता की मनोवृत्ति को देखते हुए मेरे अनुभव की तुलना में राजेन्द्र जी ख्याति ज्यादा विश्वसनीय साबित होगी। 

       लेकिन बात पत्रों की हो रही थी।  मत और सम्मत में प्रकाशन के लिये पत्रों का चुनाव करते समय उन पत्रों की जगह सबसे ऊपर होती है जिनमें ‘हंस’ और राजेन्द्र जी की सख्त आलोचना हो। लेखकों के अलावा पाठक भी ऐसे पत्र काफ़ी खुले दिल और इत्मीनान से लिखते हैं।  बल्कि कुछ ज्यादा ही इत्मीनान से।  शायद वे भी जान चुके हैं कि कैसे पत्र जरूर छापे जायेंगे।  संपादक की डाक में बहुत से व्यक्तिगत पत्र भी होते हैं।  उनमें स्त्रियों के पत्रों की संख्या भी अच्छी खासी होती है।  कई बार ये साहित्यिक मसलों से जुड़े होते हैं तो कई बार लिखने वाले की बिल्कुल निजी दिक्कतों और समस्याओं के बारे में भी और लिखने वाले भी ऐसी पृष्ठभूमि के कि सोचना मुश्किल लगे कि इन्हें ‘हंस’ और राजेन्द्र जी के बारे में मालूम कैसे हुआ होगा।  एक पत्र उत्तरप्रदेश के किसी गांव की किशोरी का था। उसकी समस्या लड़की होने के कारण परिवार में अपनी उपेक्षा से जुड़ी हुई तो थी ही, इस समय और भी विकट हो उठी थी क्योंकि वह अपनी दसवीं तक की पढ़ाई पूरी करना चाहती थी जब कि घरवाले उसकी शादी कर देने पर तुले हुए थे।  राजेन्द्र जी से उसकी अपेक्षा यह थी कि दिल्ली में उसके लिये एक नौकरी का प्रबन्ध कर दें तो वह शादी के पहले ही घर से भाग निकले।  कुछ पत्र भावना और कर्त्तव्य के चिरन्तन द्वन्द्व में फंसी विवाहिताओं के होते हैं जो अपनी नैतिक दुविधाओं का समाधान राजेन्द्र जी से मांगती हैं।  एक दिवंगत विधुर लेखक की अविवाहित समर्पिता के इस आशय के पत्र पिछले दिनों राजेन्द्र जी की चिन्ता के विषय बने रहे कि अब वह अपने जीवन का क्या करे और दिवंगत की सम्पत्ति में से अपने गुजारे लायक कुछ पा सकने का उसका कोई कानूनी अधिकार है या नहीं।  राजेन्द्र जी को ये पत्र लेखक क्यों अपना विश्वास पात्र चुनते हैं, उनके साथ कैसे इतने निस्संकोच हो उठते है, कैसे ऐसी असंभव सी अपेक्षाएं उनसे रखने का अधिकार ले लेते हैं, मालूम नहीं लेकिन इतना मालूम है कि राजेन्द्र जी हर पत्र को गंभीरता से लेते और भरसक हर समस्या को समझने -सुलझाने की कोशिश के साथ जवाब लिखते हैं।  कम से कम जवाब तो लिखते ही हैं, बाकी समस्याओं का उलझना सुलझना उनके हाथ में कहां।  पर उनका विश्वास है कि और कुछ किसी को न भी दिया जा सके, ‘टी एण्ड सिम्पैथी’ तो दी ही जा सकती है। 

       लेखक जाति के जन्तु से थोड़ा बहुत साबका तो ‘हंस’ के साथ जुड़ने के पहले भी पड़ता रहा था लेकिन अब का देखना उन्हें झुन्ड का झुन्ड देखना थाऔर उनके बीच राजेन्द्र जी को देखने का मतलब उन्हें उनके प्राकृतिक आवास में स्वाभाविक व्यक्तित्व और अस्तित्व में देखना था।  जो न बल्ख में पाया न बुखारे में उस किसी दुर्लभ तत्त्व की तलाश में दिल्ली से हो कर गुजरने वाला अमूमन हर लेखक रज्जू के चौबारे तक आ ही पहुंचता है और लेखक जात के दिल्लीवासियों की जमात में से भी अधिकतर साप्ताहिक, पाक्षिक या मासिक देखादेखी कार्यक्रम निभाने में आनन्द लेते हैं।  वह दुर्लभ तत्त्व है बतरस।  ‘हंस’ का दफ़्तर वह प्रदेश है जहां इसकी बरसात का कोई मौसम नहीं।  या कहें कि हर मौसम इसी बरसात का है।

       जुए और शराब जैसी कोई चीज़ है बतरस।  अपने आप में भरा पूरा एक नशा।  और निस्संदेह राजेन्द्र जी सिद्ध कोटि के नशेड़ी हैं।  यह मानसिक भोजन है लेकिन सिर्फ सात्विक और निरामिष किस्म का वैसा मानसिक भोजन नहीं जो सिर्फ पेट भरता और स्वास्थ्य को सुरक्षित रखता है।  ऊपर उपर से देखते हुए किसी को जितना जाना जा सकता है उतनी सी अपनी जानकारी के बल पर कहूं तो ऐसा लगता है कि संगत अगर मन की हो तो राजेन्द्र जी के लिये शायद बिल्कुल निजी तौर पर जिन्दग़ी की प्राकृतिक और बुनियादी किस्म की अनिवार्य जरूरतों के अलावा बाकी हर चीज़ का स्थानापन्न है यह बतरस।  बल्कि कहना यह चाहिये कि यह उनकी प्राकृतिक और बुनियादी जरूरतों में से एक तो है ही, जरूरत से बढ़ कर एक नशा भी है।  उसकी जगह हर चीज़ से ऊपर और पहले है, शायद उन जरूरतों के भी ऊपर और पहले जो उनके स्वयं-स्वीकृत प्रेमसंबन्धों से पूरी होती हैं।  यह जीवन के साथ उनका संपर्क, लेखन के लिये सामग्री का स्रोत, और न लिख पाने के दिनों में स्वयं सृजन का स्थानपन्न है।  बतरसियों का शायद सभी जगह यही हाल हो।
बतरस में शामिल संगत के हिसाब से सामग्री और स्तर बदलते रहते हैं।  लेकिन केवल परनिन्दासुख का टॉनिक पी कर पुष्ट होने वाली गोष्ठी यहां प्रायः नहीं होती।  यानी अगर होती है तो निन्दनीय की उपस्थिति में, आमने सामने, सद्भाव सहित टांगखिंचाई के रूप में जिसका मज़ा उसे खुद लेने को मज़बूर होना पड़ता है।  इन सरस आत्मीय प्रसंगों के शिकारों में ‘हंस’ का पूरा स्टाफ़ शामिल है जो राजेन्द्र जी के मुंह से ऐसी ऐसी बातें सुन कर निहाल हो लेता है जिन्हें कोई और कहे तो अपना सिर फुड़वाये।  कभी वीना का परिचय देते हुए किसी से वे कह बैठेंगे ‘पिछले बारह वषों से यह मेरी संगिनी है’ और वीना का चेहरा देखने लायक होगा।  कभी कविता, नवोदित समीक्षिका, कवयित्री और कथाकार – इन दिनों ‘हंस' का शीघ्र प्रकाश्य कथा संचयन बनाने में सहायक, की स्वाद संबन्धी रूचियों का बखान होगा।  ‘हंस’ का हर आगन्तुक उसके एकाग्र आलू प्रेम से परिचित है।  कभी किशन का प्रशस्तिगान चल रहा होगा, ‘यह तो अगर बिड़ला के यहां भी नौकरी कर रहा हो तो साल भर में उसे दीवालिया बना कर सड़क पर निकाल दे। ’ या फिर यह कि ‘ घर का मालिक तो असली यही है जो करता है सब अपने लिये।  जो खाना हो सो बनाता है।  खा पी कर ठाठ से मस्त रहता है। सब इसीका है।  हम साले कहां।  हमारा क्या।  एक रोटी खा लेते हैं।  एक कमरे में पड़े रहते हैं।  बाकी सारा घर तो इसने दबा रखा है ’ वगैरह और किशन सुनी अनसुनी करता हुआ व्यस्त भाव से दफ़्तर के इस कमरे से उस कमरे में होता रहेगा और खाने के समय अभिभावक के रोब से डांट डांट कर सारी कसर निकाल लेगा। चुपचाप खा लीजिये।  यह दवा लीजिये।  नहीं तो मैं दीदी – टिंकू – से शिकायत कर दूंगा।  और राजेन्द्र जी बच्चों की तरह ठुनकते रहेंगे।  देख कर लगेगा कि यही इनका असली आनन्द है कि इसी तरह उलटे-पलटे, उठाये-धरे, झाड़े-तहाये जाते रहें।  नाज़ नखरे उठते रहें।  पर यह भी सच है कि किशन लम्बी छुट्टी पर चला जायेगा तो दो चार दिन परेशान दिखने के बाद उसी मुफ़लिस मिस्कीन मुद्रा के ऐसे अभ्यस्त दिखाई देंगे जैसे सदा से ऐसे ही रहने के आदी हैं।  अनमेल कपड़े, अगड़म बगड़म खाना, अनूठी धजा।  बतायेंगे कि आखिर घर का मालिक अनुपस्थित है तो इतना फ़र्ज. तो राजेन्द्र जी का भी बनता ही है कि उसकी अनुपस्थिति को सलामी दें।  फिर वीना, हारिस, दुर्गा, अर्चना सब के डिब्बों से राजेन्द्र जी के लिये इतना खाना निकलेगा कि दोपहर में दफ़्तर में खाने के बाद वे रात के लिये घर ले जायेंगे और अगले दिन दफ़्तर में बतायेंगे कि उसी में मेहमान भी खिला लिये ।  दुर्गा की खुराक उसकी चिरन्तन छेड़ है।  वह शादी करके लौटा तो छूटते ही राजेन्द्र जी बोले कि अपनी रोटियों की गिनती कम कर वरना दो दिन में भाग खड़ी होगी।  सुबह की सेंक कर चुकेगी और शाम की शुरू कर देगी।  और कुछ तो देख ही नहीं सकेगी जीवन में।  बदकिस्मती से वह सचमुच चली गयी।  दुर्गा ने अभी दूसरा विवाह किया है और राजेन्द्र जी ने अपनी चेतावनी दोहरानी शुरू कर दी है।  यानी दफ़्तर में किसी दिन मेहमान कोई आये या न आये, रौनक के लिये राजेन्द्र जी अकेले ही काफ़ी हैं।  छेड़ छाड़ का यह ताना बाना आत्मीयता का एक वितान बुनता है।  यह सबको अपने साथ ले कर चलने का उनका तरीका है।  कहीं दूर दराज़ से एक दिन को दिल्ली आया हुआ कोई अपरिचित पाठक भी घन्टे आध घन्टे की अपनी मुलाकात में इस आत्मीयता का प्रसाद पा कर गद्‍गद्‍ हो उठता है। 

... क्रमशः

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