गुरिंदर आज़ाद की गज़लें | #Ghazal : Gurinder Azad

गुरिंदर आज़ाद कवि और दलित एक्टिविस्ट हैं। उनके लेखे डाकुमेंट्री फ़िल्म निर्माण, पत्रकारिता, सामाजिक विषय लेखन जैसे अन्य काम भी हैं। बठिंडा में एक मार्क्सवादी परिवार में जन्मे। तज़ुर्बों की खाक़ छानते छानते अम्बेडकरवादी हो गए हैं। पिछले कई बरसों से दिल्ली में हैं और दलित और आदिवासी छात्रों के लिए काम कर रहे हैं। दलित आदिवासी नौजवानों के शैक्षणिक संस्थानों में जातीय उत्पीड़न से तंग आ कर ख़ुदकुशी करने के मसले पर 'दा डेथ ऑफ़ मेरिट' नेशनल कैंपेन का महत्त्वपूर्ण हिस्सा रहे।

        शब्दों से पुराना रिश्ता है। पंजाबी में अल्हड उम्र में लिखना शुरू किया और फिर हिंदी, अंग्रेजी में भी। उनकी शायरी में दलित आंदोलन के रंग और जाति ज़िन्दगी के संघर्ष को देखा जा सकता है। अच्छी बात ये है कि उनकी शायरी किसी यूटोपिया को नहीं प्रतिबिंबित करती बल्कि यथार्थ को संजोती हुई ज़हन में ज़िन्दगी के अर्थों के साथ फ़ैल जाती है। खरा खरा लिखते हैं। कड़क और कई बार चुभने वाला। वो उन कवियों में से हैं जो विषय कि तलाश नहीं करते, न कविता की तलाश में पन्ने ज़ाया करते हैं। ये चीज़ें खुद उनके पास चल के आती हैं।

आइये उनकी तीन नयी गज़लों के साथ, शब्दांकन पर उनका स्वागत करते हैं।

1 ◘◘◘◘◘◘◘◘◘◘◘◘◘◘◘◘◘◘◘◘◘◘◘◘◘◘◘◘◘◘◘◘◘◘◘◘◘◘

          हुई  सुबह के  झोला  टांग   करके  काम   पर  निकले
          ढले सूरज तो आफ़ताब  उफ़क़ -ए- जाम  पर निकले

          ये  मौज़ू  पर  नहीं  है  बात  उसके  तौर   पर   है   की
          नतीजा  उस  बहस  का जो किसी अंजाम पर निकले

          कोई   भी   बात   नहीं   आज-कल  दोनों  के  दरम्यां
          चुप की बन्दूक लेके हम कि  जैसे  लाम  पर  निकले

          खाली   हाथ   देर   रात   जो   लौटे    थे   कदम   फिर
          हुई  सुबह  तो  खाली  पेट  फिर  से  काम पर  निकले

          ये  भी  क्या  बात  साहेब  कि  मेरी  हर  बात  बारहा
          कि इल्ज़ामों की गठरी सर पे अपने थामकर निकले

          अजीब    बात   है   तेरे   सिवा   ग़म  और  बहुत   हैं
          मगर  निकले   है  जब आंसू तेरे ही नाम पर निकले

2 ◘◘◘◘◘◘◘◘◘◘◘◘◘◘◘◘◘◘◘◘◘◘◘◘◘◘◘◘◘◘◘◘◘◘◘◘◘◘

            ज़िन्दगी  को   हालाते - पामाल  में   भी देखा है
            लेकिन ज़िन्दगी को इस्तेकबाल में भी देखा है

            नगमे   में  नहीं  किसी,  ना  किसी  सदा  में  ही
            खुद  को  नफरतों  के  इस्तेमाल  में भी देखा है

            रातें बे-पड़ाव थीं ओ  दिन  के  सफ़र  खाली  थे
            सिमटी  ज़िन्दगी  को महज़ चाल में भी देखा है

            सुनते  जाएँ  हर्फ़  मेरे,  हर  सदा  दिल की मेरी
            अपने खिलाफ  हर्फों को सवाल  में  भी देखा  है

            'आजाद'  परिंदे  उड़  गए  भरोसों  के दरख्तों से
            हैरानियों  को  अपनी  हर  डाल   में  भी देखा है

3 ◘◘◘◘◘◘◘◘◘◘◘◘◘◘◘◘◘◘◘◘◘◘◘◘◘◘◘◘◘◘◘◘◘◘◘◘◘◘


     धोखों  की  सिलों  के  तले,  दबने  को  था  दिल,  अड़  गया
     फिर  उठके  एक  ही  झटके  में,  हस्ती  से  आगे  बढ़  गया

     इतनी  बड़ी  मोहब्बत  के  शादी  भी  कम-कम लगने लगी            
     घटी  तो  फिर  इतनी  घटी   कि  तलाक  छोटा   पड़   गया

     अपने  ही घर  में  मुझको  अब  लगता  नहीं  है अपनापन
     वो  घर  जो  मेरे  ज़हन  में  था  जाने  कब  का  उजड़ गया

     ये  जज़्बातीपन  रिश्तों  में,  बेवजह  की  ये  उम्मीदें   सब
     इक  घिसा   चोला   था   जो   मेरे  हाथों   अब  उधड़   गया

     जिस  मुकाम  पर  ह्याती  है  उसके  आगे  की  सोचना  है
     बाकि जो  रह  गया  सो  है,  जो बिगड़ना  था  बिगड़  गया



गुरिंदर आज़ाद

ईमेल : azad_gurinder@yahoo.com

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ

ये पढ़ी हैं आपने?

Hindi Story आय विल कॉल यू! — मोबाइल फोन, सेक्स और रूपा सिंह की हिंदी कहानी
गिरिराज किशोर : स्मृतियां और अवदान — रवीन्द्र त्रिपाठी
कोरोना से पहले भी संक्रामक बीमारी से जूझी है ब्रिटिश दिल्ली —  नलिन चौहान
मैत्रेयी पुष्पा की कहानियाँ — 'पगला गई है भागवती!...'
कहानी : भीगते साये — अजय रोहिल्ला
Harvard, Columbia, Yale, Stanford, Tufts and other US university student & alumni STATEMENT ON POLICE BRUTALITY ON UNIVERSITY CAMPUSES
ईदगाह: मुंशी प्रेमचंद की अमर कहानी | Idgah by Munshi Premchand for Eid 2025
तू तौ वहां रह्यौ ऐ, कहानी सुनाय सकै जामिआ की — अशोक चक्रधर | #जामिया
मन्नू भंडारी की कहानी — 'रानी माँ का चबूतरा' | Manu Bhandari Short Story in Hindi - 'Rani Maa ka Chabutra'
थोड़ा-सा सुख - अनामिका अनु की हिंदी कहानी