रवीन्द्र कालिया - दस्त़खत (दिसंबर 2013) | Ravindra Kalia - Dastakhat (Dec 2013)

इस बात को ज़्यादा वक्त नहीं हुआ, जब भारत के अधिसंख्य नगरों में यातायात के साधन इक्के और ताँगे और बाइसिकल ही हुआ करते थे। उससे भी पहले घोड़ों और हाथियों की सेना हुआ करती थी और इन्हीं के बल पर हार-जीत के निर्णय हो जाया करते थे। फिर यकायक रिक्शा साइकल दौड़ने लगीं। जीप दूसरे महायुद्ध की देन है। कालान्तर में एम्बेसडर गाड़ी ने अपना वर्चस्व हासिल कर लिया। ट्रकों की, ट्रेनों की संख्या में देखते-देखते बहुत इज़ाफा हो गया। अब तो ज़मीन पर और उसके ऊपर और नीचे भी मेट्रो का जाल बिछता जा रहा है। महानगरों में बसों, गाड़ियों से वातावरण इतना प्रदूषित हो गया है कि खुली हवा में साँस लेना नागवार गुज़रता है। आज भी एक सवारी ऐसी है कि जिससे न प्रदूषण फैलता है और न ही जिसे ट्रैफिक जाम के लिए जि़म्मेदार ठहराया जा सकता है। साइकल किसी को कुचलने का गुनाह नहीं करती, जबकि स्वयं कुचले जाने का शिकार होती रहती है। यह पर्यावरण की दोस्त और संरक्षक है। यह एक ऐसी सवारी है कि चालक को कोई लाइसेंस लेने की ज़रूरत भी नहीं है। एक ज़माना था, रेडियो और साइकलों पर टैक्स वसूला जाता था, अब साइकलें उससे मुक्त हैं। भारत में जिस किसी की आर्थिक स्थिति में ज़रा-सा सुधार आता है, सबसे पहले वह साइकल से छुटकारा पाता है। अपनी हैसियत के अनुसार स्कूटर, बाइक या फिर कार की तरफ लपकता है। मध्यवर्ग में कार एक ऐसा ‘स्टेटस सिम्बल’ बन चुकी है कि शादी के मौके पर लड़केवालों की तरफ से सबसे पहली माँग कार की ही आती है; चाहे उनमें पेट्रोल खरीदने की क्षमता हो या न हो, लड़का बेकार हो और कॉम्पटीशन की तैयारी में जुटा हो। बेकारी छिपाने का यह सबसे आधुनिक बहाना है। कुछ ऐसी ही जटिल मानसिकता पश्चिम बंगाल की मुख्यमन्त्री सुश्री ममता बनर्जी की लगती है। उन्होंने कोलकाता को लन्दन या पेरिस जैसा बनाने का सपना देखते हुए कोलकाता के 174 कूचों-बाज़ारों में साइकल पर प्रतिबन्ध लगा दिया है कि इन साइकलों से बाज़ारों में जाम लग रहे हैं। दरअसल, बाज़ारों में जाम साइकलों से नहीं, कारों और दूसरे वाहनों से लगते हैं। दिल्ली के अधिसंख्य बाज़ारों में यह दृश्य अक्सर देखने को मिलता है कि सड़क के दोनों ओर पूरा मार्केट कार पार्किंग ने घेर रखा है, कारों  की आवाजाही पर भी रोक नहीं, जबकि साइकलरिक्शा को भीतर घुसने से रोका जाता है। चालकों पर डंडे बरसाये जाते हैं। ममता कोलकाता को लन्दन जैसा देखना चाहती हैं जबकि लन्दन में रोज़ाना डेढ़ लाख लोग साइकल पर सफर करते हैं। पेरिस में रोज़ बीसियों हज़ार साइकलें रोज़ किराये पर उठती हैं और हज़ारों लोगों के पास निजी साइकलें हैं। एमस्टरडम की सड़कों के किनारे करीने से साइकलों की लम्बी कतारें देखी जा सकती हैं। लोग एक साइकल उठाते हैं और चल देते हैं, जहाँ उतरते हैं, वहीं जमा कर देते हैं। पेरिस में तो लोग ‘आई लव पेरिस—पेरिस लव्ज़ साइकल’ में यकीन रखते हैं। यानी मैं पेरिस से प्यार करता हूँ और पेरिस को साइकलों से प्यार है। एक इटैलियन फिल्म एक समय में बहुत लोकप्रिय हुई थी— बाइसिकल थीफ। इस फिल्म की कहानी एक  बेरोज़गार युवक के जीवन पर आधारित थी। उसके पास साइकल भी नहीं थी। एक नौकरी मिल सकती थी, मगर इसी शर्त पर कि उसके पास साइकल होना ज़रूरी है। एक साइकल की तलाश में वह एक दुश्चक्र में फँसता चला जाता है। दिल्ली में भी विदेशों की तर्ज़ पर साइकलों की लोकप्रियता बढ़ाने के लिए एक योजना शुरू की गयी थी, कुछ बस स्टॉप पर ज़ंजीर से बँधी साइकलें आज भी देखी जा सकती हैं। अगर किसी योजना के तहत ये साइकलें रखी गयी थीं तो प्रचार-प्रसार और जागरूकता के अभाव में योजना ठप हो गयी होगी। किसी भी मुख्यमन्त्री का, राजधानी को पेरिस अथवा लन्दन बनाने का सपना मुंगेरीलाल का हसीन सपना ही बना रहेगा, जबतक सरकार में दृढ़ इच्छाशक्ति न हो। जनता में जागरूकता और यह एहसास न हो कि स्थितियों में बदलाव न आया तो प्रदूषण इतना बढ़ जाएगा कि एक दिन श्वास नली अवरुद्ध हो जाएगी। जब नम्बूदरिपाद केरल के मुख्यमन्त्री चुने गये थे, उन्होंने सचिवालय जाने के लिए जो वाहन पसन्द किया, वह साइकल ही थी। उनकी देखादेखी केरल में बहुत से विधायक साइकल से सचिवालय जाने लगे थे। जनता पर भी इसका सकारात्मक प्रभाव पड़ा और केरल में साइकल को अनायास ही शाही सवारी का दर्जा हासिल हो गया था। लोग साइकल पर चलना प्रतिष्ठा की बात मानने लगे थे। आजकल एक केन्द्रीय मन्त्री सप्ताह में एक दिन अपने कार्यालय, कार से नहीं, मेट्रो रेल से पहुँचते हैं। उनका अनुसरण कितने लोगों ने किया, उसका ब्योरा उपलब्ध नहीं है। सादगी की शुरुआत यदि उच्चपदस्थ लोग करें, तो वे आम आदमी के रोल मॉडल बन सकते हैं। राजधानी में दूरियाँ इतनी अधिक हैं, जीवन इतनी क्षिप्र गति से चलता है कि दिल्लीवासियों के पास मेट्रो ही एक प्रदूषण रहित विकल्प बचता है।

       नवम्बर का महीना कभी इतना क्रूर न था। इस महीने के भीतर हिन्दी के अनेक यशस्वी और प्रतिष्ठित रचनाकार हमारे बीच नहीं रहे। राजेन्द्र यादव, विजयदान देथा, परमानन्द श्रीवास्तव, के.पी.सक्सेना, ओमप्रकाश वाल्मीकि, हरिकृष्ण देवसरे, ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित रावुरि भरद्वाज, मन्ना डे, रेशमा को ज्ञानपीठ परिवार की हार्दिक श्रद्धांजलि।



सम्पादकीय नया ज्ञानोदय, दिसंबर 2013

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