राजेन्द्र यादव जी ने सही कहा था "इन दिनों कविता का ओवर प्रोडक्शन हो रहा है।" इस ओवर प्रोडक्शन का सबसे ज्यादा खामियाज़ा पाठक को पहुँचता है, अच्छी कवितायेँ कई दफा इसका शिकार होती हैं और जनमानस तक नहीं पहुँच पाती। लेकिन जितेन्द्र की कविता की बुलंदी, कविता-की-भीड़ में भी अपनी आवाज़ पाठक तक बड़े ही आराम से ना सिर्फ पहुंचाती है बल्कि मुख्यधारा और पाठक (जो एक कवि भी हो सकता है) इन सबको सीख और दिशा भी देती हैं।
ज़रा देखिये जितेन्द्र की कविता क्या कहती है -
भरत तिवारी
देवरिया (उ.प्र.) में जन्में, कवि-आलोचक जितेन्द्र श्रीवास्तव, (एम. ए., एम. फिल., पीएचडी - जे.एन.यू.) की चर्चित कृतियाँ हैं- इन दिनों हालचाल, अनभै कथा, असुन्दर सुन्दर, बिल्कुल तुम्हारी तरह, कायान्तरण (कविता संग्रह)
भारतीय समाज, राष्ट्रवाद और प्रेमचंद, शब्दों में समय, आलोचना का मानुष-मर्म, सर्जक का स्वप्न, विचारधारा, नए विमर्ष और समकालीन कविता (आलोचना)
प्रेमचंद : स्त्री जीवन की कहानियाँ, प्रेमचंद : दलित जीवन की कहानियाँ, प्रेमचंद: स्त्री और दलित विषयक विचार, प्रेमचंद : हिन्दू-मुस्लिम एकता संबंधी कहानियाँ और विचार (संपादन)।
उन्हें मिले प्रमुख सम्मान और पुरस्कार हैं - भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार, देवीशंकर अवस्थी सम्मान, कृति सम्मान, रामचन्द्र शुक्ल पुरस्कार, विजयदेव नारायण साही पुरस्कार, भारतीय भाषा परिषद का युवा पुरस्कार, डॉ. रामविलास शर्मा आलोचना सम्मान और परम्परा ऋतुराज सम्मान।
जितेन्द्र श्रीवास्तव इन दिनों इन्दिरा गाँधी राष्ट्रीय मुक्त विष्वविद्यालय नई दिल्ली के मानविकी विद्यापीठ में अध्यापन करते हैं।
ईमेल : jitendra82003@gmail.com | मोबाईल: 098 189 13798
ज़रा देखिये जितेन्द्र की कविता क्या कहती है -
- "सृष्टि में मनुष्यों से अधिक हैं यातनाएं / यातनाओं से अधिक हैं सपने" (सपने अधूरी सवारी के विरूद्ध होते हैं)
- "उनके लिए जो भोजन था / मालिकों के लिए वो बासी है" (साहब लोग रेनकोट ढूँढ रहे हैं)
- लम्बी कविता में वो कहते हैं... पर तुम कहाँ हो/मथुरा में अजमेर में/येरुशलम में मक्का-मदीना में/हिन्दुस्तान से पाकिस्तान जाती किसी ट्रेन में/अमेरिकी राष्ट्रपति के घर में/कहीं तो नहीं हो (चुप्पी का समाजशास्त्र)
भरत तिवारी

भारतीय समाज, राष्ट्रवाद और प्रेमचंद, शब्दों में समय, आलोचना का मानुष-मर्म, सर्जक का स्वप्न, विचारधारा, नए विमर्ष और समकालीन कविता (आलोचना)
प्रेमचंद : स्त्री जीवन की कहानियाँ, प्रेमचंद : दलित जीवन की कहानियाँ, प्रेमचंद: स्त्री और दलित विषयक विचार, प्रेमचंद : हिन्दू-मुस्लिम एकता संबंधी कहानियाँ और विचार (संपादन)।
उन्हें मिले प्रमुख सम्मान और पुरस्कार हैं - भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार, देवीशंकर अवस्थी सम्मान, कृति सम्मान, रामचन्द्र शुक्ल पुरस्कार, विजयदेव नारायण साही पुरस्कार, भारतीय भाषा परिषद का युवा पुरस्कार, डॉ. रामविलास शर्मा आलोचना सम्मान और परम्परा ऋतुराज सम्मान।
जितेन्द्र श्रीवास्तव इन दिनों इन्दिरा गाँधी राष्ट्रीय मुक्त विष्वविद्यालय नई दिल्ली के मानविकी विद्यापीठ में अध्यापन करते हैं।
ईमेल : jitendra82003@gmail.com | मोबाईल: 098 189 13798
जनतंत्र में कचहरी मृगतृष्णा गरीब की
जितेन्द्र श्रीवास्तव की कविताएं
सपने अधूरी सवारी के विरूद्ध होते हैं
स्वप्न पालना
हाथी पालना नहीं होता
जो शौक रखते हैं
चमचों, दलालों और गुलामों का
कहे जाते हैं स्वप्नदर्शी सभाओं में
सपने उनके सिरहाने थूकने भी नहीं जाते
सृष्टि में मनुष्यों से अधिक हैं यातनाएं
यातनाओं से अधिक हैं सपने

सपनों से थोड़े ही कम हैं सपनों के सौदागर
जो छोड़ देते हैं पीछा सपनों का
ऐरे-गैरे दबावों में
फिर लौटते नहीं सपने उन तक
सपनों को कमजोर कन्धे
और बार-बार चुंधियाने वाली आँखें
रास नहीं आतीं
उन्हें पसन्द नहीं वे लोग
जो ललक कर आते हैं उनके पास
फिर छुई-मुई हो जाते हैं
सपने अधूरी सवारी के विरूद्ध होते हैं।
साहब लोग रेनकोट ढूँढ रहे हैं
“हजारों टन अनाज सड़ गया
सरकारी गोदामों के बाहर“
यह खबर कविता में आकर पुनर्नवा नहीं हो रही
यह हर साल का किस्सा है
हर साल सड़ जाता है हजारों टन अनाज
प्रशासनिक लापरवाहियों से
हर साल मर जाते हैं हजारों लोग
भूख और कुपोषण से
हर साल कुछ लोगों पर कृपा होती है लक्ष्मी की
बाढ़ हो आकाल हो या हो महामारी
बचपन का एक दृष्य

अक्सर निकल आता है पुतलियों के एलबम से
दो छोटे बच्चे तन्मय होकर खा रहे हैं रोटियाँ
बहन के हाथ पर रखी रोटियों पर
रखी है आलू की भुजिया
वे एक कौर में आलू का एक टुकड़ा लगाते हैं
भुजिया के साथ भुने गए मिर्च के टुकड़े
बड़े चाव से खाते हैं
रोटियाँ खत्म हो जाती हैं
वे देखते हैं एक दूसरे का चेहरा
जहाँ अतृप्ति है
आधे भोजन के बाद की उदासी है
उनके लिए जो भोजन था
मालिकों के लिए वो बासी है
बचपन का यह दृष्य
मुझे बार-बार रोकता है
पर सरकारों को कौन रोकेगा
जिनका स्थायी भाव बनते जा रहे हैं देशी-विदेशी पूंजीपति
कौन रोकेगा
हमारे बीच से निकले उन अफसरों को
जो देखते ही देखते एक दिन किसी और लोक के हो जाते हैं
कौन तोड़ेगा उस कलम की नोक
सोख लेगा उसकी स्याही
जो बड़ी-बड़ी बातों बड़े-बड़े वादों के बीच
जनता के उद्धार की बातें करती है
और छोड़ती जाती है बीच में इतनी जगह
कि आसानी से समा जाएं उसमें सूदखोर
वैसे सरकार को अभी फुर्सत नहीं है
अक्सर सरकार को फुर्सत नहीं होती
लेकिन उसकी मंशा पर शक मत कीजिए
वह रोकना चाहती है किसानों की आत्महत्याएं
स्त्रियों के प्रति बढ़ती दुर्घटनाएं
वह दलितों-आदिवासियों को उनका हक दिलाना चाहती है
वह बहुत कुछ ऐसा करना चाहती है
कि बदल जाए देश का नक्शा
लेकिन अभी व्यवधान न डालिए
इस समय वह व्यस्त है विदेशी पूंजीपतियों के साथ
स्थायी संबंध विकसित करने के लिए चल रही एक दीर्घ वार्ता में
यकीन जानिए उसे बिल्कुल नहीं पता
कि बाहर हो रही है मूसलाधार बारिश
और जनता भींग रही है
इस क्षण वह विदेशी मेहमानों के साथ
चुस्कियाँ ले रही है साफ्ट ड्रिंक की
चबा रही है अंकल चिप्स
और बाहर जनता भींग रही हैं
साहब लोक रेनकोट ढूँढ रहे हैं
और हजारों-लाखों टन अनाज सड़ रहा है
सरकारी गोदामों के बाहर।
माँ का सुख
आज हल्दी है
कल विवाह होगा छोटे भाई का
छोटा-सा था कब जवान हुआ
पता ही नहीं चला
इस अवधि में हमारा घर खूब फूला-फला

पर इसी अवधि में एक दिन चुपचाप चले गए पिता
हम सबको अनाथ कर
माँ का साथ बीच राह में छोड़कर
जो घर हँसता था हर पल
उदास रहा कई बरस
आज वही घर सजा है
उसमें गीत-गवनई है
रौनक है चेहरों पर
गजब का उत्साह है माँ में
परसों उतारेगी वह बहू
पाँव जमीन पर नहीं हैं उसके
सब खुश हैं उसके उल्लास में
आज रात जब वह सोएगी थककर
उसके सपने में जरूर आएंगे पिता उसको बधाई देने
उसका सुख निहारने।
चुप्पी का समाजशास्त्र
उम्मीद थी
मिलोगे तुम इलाहाबाद में
पर नहीं मिले
गोरखपुर में भी ढूँढा
पर नहीं मिले
ढूँढा बनारस, जौनपुर, अयोध्या, उज्जैन, मथुरा, वृन्दावन, हरिद्वार
तुम नहीं मिले
किसी ने कहा
तुम मिल सकते हो ओरछा में
मैं वहाँ भी गया
पर तुम कहीं नहीं दिखे
मैंने बेतवा के पारदर्शी जल में
बार-बार देखा
आँखे डुबोकर देखा
तुम नहीं दिखे
तुम नहीं दिखे
गढ़ कुण्हार के खण्डहर में भी
मैं भटकता रहा
बार-बार लौटता रहा
तुमको खोजकर
अपने अंधेरे में
न जाने तुम किस चिड़िया के खाली खोते में
सब भूल-भाल सब छोड़-छाड़
अलख जगाए बैठे हो
ताकता हूँ हर दिशा में
बारी-बारी चारों ओर
सब चमाचम है
कभी धूप कभी बदरी
कभी ठण्डी हवा कभी लू
सब कुछ अपनी गति से चल रहा है

लोग भी खूब हैं धरती पर
एक नहीं दिख रहा
इस ओर कहाँ ध्यान है किसी का
पैसा पैसा पैसा
पद प्रभाव पैसा
यही आचरण
दर्षन यही समय का
देखो न
बहक गया मैं भी
अभी तो खोजने निकलना है तुमको
और मैं हूँ
कि बताने लगा दुनिया का चाल-चलन
पर किसे फुर्सत है
जो सुने मेरा अगड़म-बगड़म
किसी को क्या दिलचस्पी है इस बात में
कि दिल्ली से हजार कि.मी. दूर
देवरिया जिले के एक गाँव में
सिर्फ एक कट्ठे जमीन के लिए
हो रहा है खून-खराबा
पिछले कई वर्षों से
इन दिनों लोगों की समाचारों में थोड़ी-बहुत दिलचस्पी है
वे चिन्तित हैं अपनी सुरक्षा को लेकर
उन्हें चिन्ता है अपने जान-माल की
इज्जत, आबरू की
पर कोई नहीं सोच रहा उन स्त्रियों की
रक्षा और सम्मान के बारे में
जिनसे संभव है
इस जीवन में कभी कोई मुलाकात न हो
हमारे समय में निजता इतना बड़ा मूल्य है
कि कोई बाहर ही नहीं निकलना चाहता उसके दायरे से
वरना क्यों होता
कि आजाद घूमते बलात्कारी
दलितों-आदिवासियों के हत्यारे
शासन करते
किसानों के अपराधी
सब चुप हैं
अपनी-अपनी चुप्पी में अपना भला ढूँढ़ते
सबने आशय ढूँढ लिया है
जनतंत्र का
अपनी-अपनी चुप्पी में
हमारे समय में
जितना आसान है उतना ही कठिन
चुप्पी का भाष्य
बहुत तेजी से बदल रहा है परिदृष्य
बहुत तेजी से बदल रहे हैं निहितार्थ
वह दिन दूर नहीं
जब चुप्पी स्वीकृत हो जाएगी
एक धर्मनिरपेक्ष धार्मिक आचरण में
पर तुम कहाँ हो
मथुरा में अजमेर में
येरुशलम में मक्का-मदीना में
हिन्दुस्तान से पाकिस्तान जाती किसी ट्रेन में
अमेरिकी राष्ट्रपति के घर में
कहीं तो नहीं हो
तुम ईश्वर भी नहीं हो
किसी धर्म के
जो हम स्वीकार लें तुम्हारी अदृष्यता
तुम्हें बाहर खोजता हूँ
भीतर डूबता हूँ
सूज गई हैं आँखें आत्मा की
नींद बार-बार पटकती है पुतलियों को
शिथिल होता है तन-मन-नयन
पर जानता हूँ
यदि सो गया तो
फिर उठना नहीं होगा
और मुझे तो खोजना है तुम्हें
इसीलिए हारकर बैठूँगा नहीं इस बार
नहीं होने दूँगा तिरोहित
अपनी उम्मीद को
मैं जानता हूँ
खूब अच्छी तरह जानता हूँ
एक दिन मिलोगे तुम जरूर मिलोगे
तुम्हारे बिना होना
बिना पुतलियों की आँख होना है।
तमकुही कोठी का मैदान
महज सामंतवाद की
तो निश्चित तौर पर मैं उसे याद नहीं करता
यदि वह महज आकांक्षा होती
अतृप्त दिनों में अघाए दिनों की
तो यकीनन मैं उसे याद नहीं करता
मैं उसे इसलिए भी याद नहीं करना चाहता
कि उसके खुले मैदान में खोई थी प्राणों सी प्यारी मेरी साइकिल
सन् उन्नीस सौ नवासी की एक हंगामेदार राजनीतिक सभा में
लेकिन मैं उस सभा को नहीं भूलना चाहता
मैं उस जैसी तमाम सभाओं को नहीं भूलना चाहता
जिनमें एक साथ खड़े हो सकते थे हजारों पैर
जुड़ सकते थे हजारों कंधे
एक साथ निकल सकती थीं हजारों आवाजें
बदल सकती थीं सरकारें
कुछ हद तक ही सही
पस्त हो सकते थे निजामों के मंसूबे
मैं जिस तरह नहीं भूल सकता अपना शहर

उसी तरह नहीं भूल सकता
तमकुही कोठी का मैदान
वह सामंतवाद की कैद से निकलकर
कब जनतंत्र का पहरूआ बन गया
शायद उसे भी पता न चला
ठीक-ठीक कोई नहीं जानता
किस दिन शहर की पहचान में बदल गया वह मैदान
न जाने कितनी सभाएं हुईं वहाँ
न जाने किन-किन लोगों ने कीं वहाँ रैलियाँ
वह जंतर-मंतर था अपने शहर में
आपके शहर में भी होगा या रहा होगा
कोई न कोई तमकुही कोठी का मैदान
एक जंतर-मंतर
सायास हरा दिए गए लोगों का आक्रोष
वहीं आकार लेता होगा
वहीं रंग पाता होगा अपनी पसंद का
मेरे शहर में
जिलाधिकारी की नाक के ठीक नीचे
इसी मैदान में
रचा जाता था प्रतिरोध का सौन्दर्यशास्त्र
वह जमीन जो ऐशगाह थी कभी सामंतों की
धन्य-धन्य होती थी
किसानों-मजूरों की चरण धूलि पाकर
समय बदलने का
एक जीवन्त प्रतीक था तमकुही कोठी का मैदान
लेकिन समय फिर बदल गया
सामंतों ने फिर चोला बदल लिया
अब नामोनिशान तक नहीं है मैदान का
वहाँ कोठियाँ हैं फ्लैट्स हैं
अब आम आदमी वहीं बगल की सड़क से
धीरे से निकल जाता है
उस ओर
जहाँ कचहरी है
और अब आपको क्या बताना
आप तो जानते ही हैं
जनतंत्र में कचहरी मृगतृष्णा गरीब की।
किसी सगे की तरह
जो चीजें वर्षों रही हों आपके साथ
उनका किसी दिन किसी स्टेशन से गुम हो जाना

अखरता है देर तक दिनों तक
चीजें आती हैं पैसों से
लेकिन वे महज पैसा नहीं होतीं
एक लम्बा वक्त गुजारा होता है आपने उनके साथ
आपके जीवन में वे होती हैं
किसी सगे की तरह
उनका जाना
महज कुछ चीजों का खो जाना नहीं
किसी सगे का
हमेशा हमेशा के लिए चले जाना है।
इस गृहस्थी में
देखो न
तुम तो बैठी हो चुपचाप
अब हँसो नहीं खोजो
बहुत जरूरी है रसीदों को बचाकर रखना
हम कोई धन्ना सेठ तो नहीं
जो खराब हो जाएं हाल-फिलहाल की खरीदी चीजें

तो बिसरा दें उन्हें
खरीद लाएं दूसरी-तीसरी
हमारे लिए तो हर नई चीज
किसी न किसी सपने का सच होना है
हमारे सपनों में कई जरूरी-जरूरी चीजें हैं
और खरीदी गई चीजों में बसे हैं कुछ पुराने सपने
उठो, देखो न कहाँ गुम हो गई रसीद!
उसे महज एक कागज का टुकड़ा मानकर
भुलाना अच्छा नहीं होगा
वह रहेगी तभी पहचानेगा शो-रूम का मैनेजर
कुछ पुराने-धुराने हो गए कपड़ों के बावजूद
उन्हें बदलना पड़ेगा सामान
अभी बहुत कम है वेतन
मैं नहीं ले सकता क्रेडिट-कार्ड
उपयोगी चीजों के लिए भी नहीं हैं पैसे
मैं नहीं खरीद सकता सजावट के सामान
वैसे अच्छा है
तुम मुझसे ज्यादा समझती हो यह-सब
बड़े हिसाब-किताब से चलाती हो घर
लेकिन इस समय जब मैं हूँ बहुत परेशान
तुम बैठी हो चुपचाप
उठो, देखो न कहाँ गुम हो गई रसीद!
अरे, यह क्या
अब तो तुम्हारे होठों पर आ गयी है शोख हँसी
लगता है जरूर तुमने सहेज कर रखा है उसे
अपने लॉकर वाले पर्स में
चलो इसी बात पर खुश होकर
मैं भी हँस लेता हूँ थोड़ा-सा
यह अच्छा है इस गृहस्थी में
जो चीजें गुम हो जाती हैं मुझसे
उन्हें ढूंढकर सहेज देती हो तुम
मैंने अब तक किए हैं आधे-अधूरे ही काम
जो हो सके पूरे या दिखते हैं लोगों को पूरे
उनका सारा श्रेय तुम्हारा है।
रामदुलारी
रामदुलारी नहीं रहीं
गईं राम के पास
बुझे स्वर में कहा माँ ने
मैं अपलक निहारता रहा माँ को थोड़ी देर
उनका दुःख महसूस कर सकता था मैं
रामदुलारी सहयोगी थीं माँ की

माँ के कई दुःखों की बँटाइदार
माँ के अलावा सब दाई कहते थे रामदुलारी को
काम में नाम डूब गया था उनका
कभी-कभी माँ उनके साहस के किस्से सुनाती थीं
सन् दो हजार दस में तिरासी वर्ष की आयु में
दुनिया से विदा हुईं रामदुलारी ने
कोई तिरसठ वर्ष पहले सन् उन्नीस सौ सैंतालिस में
पियक्कड़ पति की पिटाई का प्रतिरोध करते हुए
जमकर धुला था उसे
गाँव भर में दबे स्वर में
लोग कहने लगे थे उन्हें मर्द मारन
पर हिम्मत नहीं थी किसी में सामने मुँह खोलने की
रामदुलारी ने वर्षों पहले
जो पाठ पढ़ाया था अपने पति को
उसका सुख भोग रही हैं
गाँव की नई पीढ़ी की स्त्रियाँ
उनमें गहरी कृतज्ञता है रामदुलारी के लिए
वे उन्हें ‘मर्द मारन’ नहीं
‘योद्धा’ की तरह याद करती हैं
जातियों में सुख तलाशते गाँव में
हमेशा जाति को लांघा था रामदुलारी ने
कोई भेद नहीं था उनमें बड़े-छोटे का
सबके लिए चुल्लू भर पानी था उनके पास
माँ कहती हैं
व्यर्थ की बातें हैं बड़ी जाति अपार धन
रामदुलारी न किसी बड़ी जाति में पैदा हुई थीं
न धन्ना सेठ के घर
पर उनके आचरण ने सिखाया हमेशा
निष्कलुश रहने का सलीका
बाभनों, कायथों, ठाकुरों, बनियों, भूमिहारों में
डींगें चाहे जितनी बड़ी हों अपनी श्रेष्ठता की
पर कोई स्त्री-पुरुष नहीं इनमें
जो आस-पास भी ठहर सके रामदुलारी के।
लोकतंत्र का समकालीन प्रमेय
कल अचानक मिले रूद्रपुर में जगप्रवेश
मेरे बाल सखा
हाफ पैंटिया यार
मूछों में आ चुकी सफेदी
खुटियाई दाढ़ी से ताल मिला रही थी
अब उतनी बेफिक्री उतना संवरापन नहीं था
जितना होता था नेहरू माध्यमिक विद्यालय में साथ पढ़ते हुए
धधाकर मिले जगप्रवेश

खूब हँसे हमारे मन
हमने याद किया अपने शिक्षकों और सहपाठियों को
हालचाल लिया एक दूसरे के परिवार का
और खूब प्रसन्न हुए इस बात पर
कि दोनों पिता हैं दो-दो बेटियों के
जगप्रवेश को मालूम था मेरे बारे में
बड़े भाई साहब ने बहुत कुछ बता दिया था उन्हें
वे खुश थे अपने मित्र की खुशी में
मैं भी कुछ-कुछ जानता था उनके बारे में
मसलन यह कि वे कोटेदार हैं
एक राजनीतिक पार्टी के स्थानीय नेता हैं
उनकी पत्नी शिक्षिका हैं
और एक बड़ा-सा घर है शहर में उनके नाम
बात-बात में पता लगा
जगप्रवेश विधायक होना चाहते हैं
उन्होंने खूब धन-बल जुटाया है बीच के दिनों में
टिकट का प्रबंध पक्का है
उन्होंने आँकड़े इकट्ठा कर लिए है जातियों के
उनकी अपनी जाति के वोट हैं ढेर सारे
कल बहुत सारी इधर-उधर की बातें करते हुए
जगप्रवेश ने धीरे से कहा मुस्कुराते हुए
आपको भी मेरा साथ देना होगा भाई साहब
हम जाति भाई नहीं लेकिन दोस्त हैं पुराने
आपके आने से बल मिलेगा
आपकी जाति का एकमुश्त वोट मिल जाएगा मुझे
और मित्रो इस तरह मैं
अचानक मित्र से एक जाति में बदल गया
मैं अचरज में था
कि स्कूल के दिनों में
गणित में बेहद होशियार जगप्रवेश
अब भाषा और रिश्तों में
नए प्रमेय गढ़ रहा था
मुझे कोई आश्चर्य नहीं होगा
जो किसी दिन आपको भी मिले आपका कोई पुराना मित्र
लोकतंत्र का पहरुवा बनने को उत्सुक विकल
और धीरे से बातों ही बातों में
आपको रूपान्तरित कर दे एक जाति में।
बहुत ही अच्छी और सुन्दर कवितायें
जवाब देंहटाएंsir aapki kavitaye bahut achi h aur sach ko bahut hi achey trikey se vyaqt karti h
जवाब देंहटाएंjitendra ji, kavitaye bahut achi v aaj ke yatharth ko veyakt karti he. Manisha jain
जवाब देंहटाएंjitendra ji, kavitaye bahut achi v aaj ke yatharth ko veyakt karti he. Manisha jain
जवाब देंहटाएंsunder rachnayen
जवाब देंहटाएंसच्ची अच्छी कविताएं
जवाब देंहटाएं