head advt

मृत्यु , हत्या और आत्महत्या भी कई तरह की होती है: कृष्ण बिहारी | Krishna Bihari on Rajendra Yadav

समय से बात -८

मृत्यु , हत्या और आत्महत्या भी कई तरह की होती है ...

राजेंद्र यादव के अवसान पर कृष्ण बिहारी  


राजेंद्र यादव की हत्या हुई है -
         बामकसद कहूं या बेमकसद,
         यह बेहूदा सवाल होगा
कृष्ण बिहारी
अजब इत्तिफाक है . 'निकट' के प्रवेशांक का लोकार्पण राजेंद्र यादव ने दुबई में किया था . उसमें उनकी कहानी  अनुक्रम में पहली रचना थी . 'निकट' का पिछला अंक ' पहली कहानी : पीढियां साथ -साथ , भाग-१ ' में भी उनकी कहानी है और अनुक्रम में पहले स्थान पर है . यह अंक मैंने उन्हें २९ जुलाई को दिया था .
हंस के वार्षिक कार्यक्रम में हर वर्ष की तरह मैं शरीक हुआ था . एक महीने बाद २८ अगस्त को मैं उनके जन्मदिन के आयोजन में भी शामिल हुआ . रात उनके निवास पर ही रहा . सुबह पांच बजे जब उनके निवास से निकला तब सो रहे थे . हर बार जगे मिलते थे और मैं मिलकर विदा लेता था लेकिन इस बार उन्हें नीद में देखकर निकलना ही उनके हमेशा के लिए नीद की गोद में सो जाने का समाचार बन गया . २९ अगस्त और ३ सितम्बर के बीच उनसे फोन पर व्यक्तिगत बातें हुई थीं . जिन हालात में वे गुजर रहे थे , बातें उनपर ही हुई थीं . निहायत बेहूदा प्रसंग था जिसमें वे उलझ गए थे . यह उलझना उन्होंने अपनी जिद को पूरा करने के लिए अपनाया था .अपनी जिद को पूरा करने में उनको ख़ुशी मिलती थी . लेकिन यह पहला मौका था जब वे अपनी जिद को जस्टिफाई नहीं कर पा रहे थे और मैं उनसे नाराज होता जा रहा था . मैं उनकी मेज पर उनका माफीनामा उनकी ओर से ही लिखकर छोड़ आया था और मैंने कहा था की इसे अगले अंक में ही देकर तोबा कर लीजिये कि जो हुआ उसे मैं अपनी भूल मानता हूँ और अब जिंदगी में यह सब नहीं होगा .माफीनामा भी उन्होंने मुझसे ही लिखवाया . क्या यह इस बात को बल नहीं देता कि अपनी तानाशाही को जीते हुए भी उनमें कहीं यह बात भी थी कि चलो स्वीकारता हूँ कि मैं ही हमेशा सही नहीं होता . लेकिन मैं जानता था कि वह माफीनामा नहीं छापेंगे . मैं उन्हें बचाना चाहता था मगर वह बचना नहीं चाहते थे . ३ सितम्बर की शाम मैं अबू धाबी आ गया. उसके बाद २५ अक्टूबर के बीच रचना यादव , बीना उनियाल और किशन से मैंने कई बार बात की . उनसे बात नहीं की . उनके उस व्यवहार पर मुझे गुस्सा था जो अपनी जिद में वे अपनाए हुए  थे . जिंदगी गुजर जाती है और पता नहीं चलता . मैंने सोचा कि उनकी समस्या का कोई हल निकल आये तो बात करूं या मैं किसी हल तक पहुँच पाने की कोशिश में किसी तरह कामयाब हो सकूं तो बात करूं . कई लोगों से बात की. राजेंद्र राव भाई साहब ने कहा कि यदि कोई ऐसे समय में काम आ सकता है तो वह विभूति नारायण राय हैं . उनसे ही कुछ मदद मिल सकती है . मैंने बहुत कोशिश की लेकिन राय साहब से मेरा संपर्क नहीं हो पाया . तीन  दिन और निकल गए . राजेंद्र यादव से मेरी नाराजगी नहीं टूटी और न उनकी नीद . क्या हम नीद और नाराजगी में अपना बहुत कुछ खो नहीं देते ? २९ अक्टूबर की सुबह साढ़े सात बजे जब अपना मोबाइल चेक किया तो भरत तिवारी , गीताश्री , प्रज्ञा पाण्डेय , गोविन्द उपाध्याय , विनय वर्मा  के सन्देश ....राजेंद्र यादव नहीं रहे .... एक न ख़त्म होने वाला कुहासा आँखों के आगे और एक न उठ सकने वाला हिमालयी दुःख मेरे कन्धों पर सवार हो गया . उस समय भारत में नौ बज रहे थे . नाराजगी का इतना बड़ा खामियाजा , इतना बड़ा दंड ... सभी कोशिशों के बावजूद मैं तीन बजे तक दिल्ली नहीं पहुँच सकता था . दाह-संस्कार का यही समय तय किया गया था . रात आठ बजे मैंने फ्रैंक , मुक्ता ,रचना और किशन से बात की .... एक - दो दिन बाद बीना से . अपने घर के यही सदस्य मुझे वहां मिले ...

       मृत्यु अंतिम सत्य है .होनी है . मनुष्य की जिंदगी का भी अन्य जीव-जंतुओं की तरह एक स्पैन है . अतः अंत और अंतिम सत्य के होने से इनकार नहीं किया जा सकता . लेकिन वह अंत सर्व - स्वीकार्य है या वह गले से नहीं उतरता , प्रश्न इसका है ! एक कालावधि बीतने के बाद अल्पायु , सामान्य आयु , दीर्घायु और शतायु होने की जो अवधारणाएं हैं उनमें हुई मृत्यु की भी श्रेणियां हैं . दुखद और अति दुखद . मृत्यु को कभी सुखद नहीं कहा गया है. बहुत हुआ तो लोग कहते हैं अच्छी मृत्यु मिली . वृद्धावस्था अपने में ही एक बीमारी है और यदि कोई इस अवस्था में अनेक बीमारियों का शिकार भी हो तो उसका वर्तमान विकट होता जाता है . राजेंद्र यादव वृद्धावस्था में भी वृद्ध नहीं रहे और अनेक बीमारियों का शिकार होने के बाद भी विकट वर्तमान से बाहर रहे . मैं उनको अपवाद कह सकता हूँ. मैंने उनको कई बार अस्वस्थ होकर अस्पताल जाते और वहां भर्ती होते सुना है . अब कह सकता हूँ कि सुना था . स्वास्थ्य के बारे में बातें हुई थीं लेकिन वे हर बार टनाटन बोलते हुए मिले और अपनी बीमारी को धता बताते हुए लगे . दूर से मैं उन्हें देख नहीं सकता था और पास से बीमार कभी देखा नहीं था . इसलिए जब १ मार्च २०१२ को सुबह ७ बजे मैंने उन्हें देखा तो लगा कि वह मृत्यु के दरवाजे पर खड़े हैं . दस्तक दे रहे हैं . मगर दरवाजा नहीं नहीं खुल रहा . मैं शायद समझने की भूल कर बैठा था . मृत्यु राजेंद्र यादव के पास खुद आई थी .मान -मनुहार करते हुए अपने साथ ले जाने के कई ताम-झाम कर रही थी मगर जिद्दी राजेंद्र यादव जिद पकडकर इस तरह बैठ गए थे कि वह  उन्हें अपने घर की चौखट के भीतर खींच-खांचकर ले जाने में भी हार गई और हारकर उसने अपने खुले दरवाजे राजेंद्र यादव के लिए दुबारा बंद कर लिए . ठीक उसी तरह जैसा वह दो -तीन बार पहले भी कर चुकी थी . क्या मृत्यु इस एक सच को जानकर निश्चिन्त थी कि चलो , छोडो इसे , एक दिन यह स्वयं मेरे घर के दरवाजे को खटखटायेगा . अब इसे ही आने दो ... लेकिन राजेंद्र यादव को जब चला जाना था तब नहीं गए . अंतिम बार भी वह चलकर नहीं गए . जो आदमी जिंदगी भर दौड़ना तो क्या बिना छड़ी के सहारे चलने के लिए भी तरसता रहा , जो जिंदगी भर चल पाने के लिए अभिशप्त रहा वह बिना रुके , एक सांस में म्रत्यु के दरवाजे पर उसे खटखटाने के लिए भी नहीं रुका . उसने एक धक्के में मौत के घर का दरवाजा तोड़ दिया .जबतक मौत कुछ समझती तबतक सब ख़त्म हो चुका था . मौत विस्मित थी नश्वर जगत की तरह . और उसकी तरह ही दुनिया और उसके वे लोग विस्मित थे जो राजेन्द्र यादव को जानते थे ...मैं हतप्रभ था . पिछले चार दिनों से कुछ सोच रहा था , अब वह सोचा हुआ मेरा अपना है . लेकिन यह सामयिक या असामयिक मृत्यु नहीं थी . यह प्राकृतिक मृत्यु नहीं थी . यह आसन्न मृत्यु का पल भी नहीं था .यह बलात थोपी हुई मृत्यु थी जिसने एक जिन्दगी को अचानक 'मिट्टी' में तब्दील कर दिया था ...

       हत्या भी कई तरह की होती है . राजेंद्र यादव की हत्या हुई है . बामकसद कहूं या बेमकसद , यह बेहूदा सवाल होगा . राजेंद्र यादव ने बहुत लिखा . लिखे बिना शायद वे रह नहीं सकते थे . जी नहीं सकते थे . सुबह जब दुनिया मीठे सपनों में खोई होती तब वे अपने और सामाजिक वर्तमान से लड़ते हुए मिलते . अपने जीवन और लेखन , दोनों में राजेन्द्र यादव ने अतिक्रमण किया . अतिक्रमण ने राजेंद्र यादव को राजेंद्र यादव बनाया मगर किस कीमत पर ? जिन दिनों वे हिल नहीं सकते थे उन लम्हों में उन्होंने बोलकर एक किताब लिखवाई . 'स्वस्थ व्यक्ति के बीमार विचार ' . यह किताब अगर न लिखी जाती तो न तो हिंदी साहित्य का कुछ छूट जाता और न कोई ऐसी बात छिपी रह जाती जो बिना इस किताब के अधूरी छूटती मगर राजेन्द्र यादव का जो अपना जिया अतिक्रमण था वह जरूर छूट जाता . ऐसा क्या है इस किताब में जिसे लोग पहले से नहीं जानते . हाँ , जो बात केवल हवाओं में तैरती थी , जिसपर लोग दिल्ली ही नहीं देश भर में दारू पीने के बाद हर शाम चर्चा करते थे , जिसे सही शब्दों में कोरी गप कहा जा सकता है , वही सब कुछ इस किताब में है . दिल्ली में ही नहीं , भोपाल , लखनऊ में भी मैंने ऐसी गपों को गपोड़ियों से सुना है .वह किसी की बीवी को किसी के साथ सुला देने का जीवंत चित्र खींचते हैं , किसी लेखक को एक नहीं न जाने कितनी औरतों या लेखिकाओं का गुलाम या उनका बादशाह जो हरम में उनको रखे है , बता और दिखा सकते हैं  . हिंदी की दुनिया ही विचित्र है  . इसमें रचनाकार का मूल्यांकन नहीं होता . उसके चरित्र की हत्या होती है . इस किताब में भी चरित्र - हत्याएं हुई हैं और यही कारण  है कि यह किताब ही उनकी हत्या का मूलाधार बनी . यह उनकी हत्या की बुनियाद बन गयी . इस किताब के प्रकाशन की चर्चा जब कुचर्चा में तब्दील हो रही थी तब भी मैंने उनसे कहा था कि इस किताब की जरूरत नहीं है .दुनिया सब जानती है. सब छप चुका है .मगर जिद . मैंने वह पांडुलिपि नहीं पढ़ी. लेकिन सुनता हूँ कि कई लोगों ने उसे पढ़ा था तो उन्होंने राजेन्द्र यादव को क्यों नहीं रोका कि इस किताब का छपना उचित नहीं है. राजेंद्र यादव की हत्या के वे सभी जिम्मेदार हैं जिन्होंने उस किताब को छपने के पहले पढ़ा ...मैं उन सबके नाम जानता हूँ लेकिन मेरा मकसद हत्या के कारणों को जानना है न कि हत्यारों को पहचानना .हत्यारे तो सर्वविदित हैं . यह हत्या गैर इरादतन हत्या नहीं है . यह अचानक उन्माद से की गई हत्या भी नहीं है . यह सोची -समझी और सुनियोजित हत्या है जिसे नगाड़ा बजाकर मृत्यु में तब्दील कर दिया गया . हत्यारे साफ़ बच गए ... दिल्ली के साहित्यकार , पत्रकार और पाठक ही नहीं अन्य बहुत से लोग जानते हैं कि इस हत्या के प्लानर कौन हैं मगर सब चुप हैं ...यह कैसा अँधेरा है जिसमें उजाला अपनी मौत मरने के लिए अभिशप्त है ... यह हत्या रोकी जा सकती थी . सभी समझदार दिल्ली में थे . समझ तो दिल्ली वालों की जायजाद है न ! जो रोक सकता था वह भी उस हत्या में शामिल हो गया . लेकिन मैं यह भी जानता हूँ कि एक किताब आपकी हत्या नहीं कर सकती . एक किताब किसी कौम की हत्या का वायस भी नहीं बन सकती . मगर एक किताब पर हत्याएं होते हम सबने देखा है . किताब का जवाब हत्या नहीं , किताब होती है . मगर दूसरा राजेन्द्र यादव कौन बनता ? तो , उसी को मारो ...

       आत्महत्या शब्द राजेंद्र यादव का शगल रहा है . कई मौके हैं जहाँ उन्होंने ख़ुदकुशी को गरिमामंडित किया है . दुनिया भर के लेखकों , रचनाकारों , कलाकारों की जीवनियाँ उनकी जबान पर थीं . किसी ऐसे रचनाकार जिसने नाम कमाकर खुद को खत्म कर लिया उसकी चर्चा वह इस अंदाज़ में करते थे कि उसके पास न तो कुछ पाने के लिए बचा और न दुनिया को नया कुछ दे पाना ही उसके वश में था तो उसने ऐसा कर लिया . राजेंद्र यादव आत्महंता थे . उन्होंने अपनी जिंदगी में एक नहीं अनेक बार अपनी हत्या की . वे सारे पल उनकी आत्महत्या के ही थे . परम्परा भंजक , मूर्ति भंजक , विचार भंजक , स्वास्थ्य भंजक , जीवन - मूल्य भंजक और सबसे अधिक अपने आस-पास के दायरे के भंजक कि तुम सब लकीर के फकीर हो और मैं हर लकीर को तोड़ने वाला . तो , उन्होंने जितनी बार लकीर तोड़ी , अपनी ही हत्या की . लेकिन यह लकीर जो उन्होंने ८४ वर्ष की उम्र में तोड़ी उसके विरोधी उनके घर में ही पैदा हो गए थे . हर तानाशाह की स्थिति अपने घर से ही कमजोर होती है . वही हुआ . सबने मना किया कि अनुचित , उचित नहीं है . लेकिन यादव की जिद . उचित है .लोग उस वक़्त चुप रह गए . यह चुप्पी बहुत महंगी पड़ी और एक जान ने अपनी जान दे दी .... कि अब कुछ भी नया देने के लिए बचा नहीं .....

      यह एक जिद की आत्महत्या थी . यह अकेले होते जाने की आत्महत्या थी . हमेशा जमघट से घिरा रहने वाला आदमी इस कदर अकेला हो गया था कि उसे जीवन की अंतिम वास्तविकता ही अपनी सच्ची ' महबूबा' नजर आई. वह २८ अक्टूबर की रात थी जब राजेंद्र यादव ने नकली महबूबाओं से एक झटके में रिश्ता तोड़ लिया ...अपनी ओर से रिश्ते तोडना भी आत्महत्या ही है ...

लेखक और दलित लेखक :
हिंदी में आदिकाल से लेकर आधुनिक काल तक कई धारायें और उनकी अन्तरधारायें चलती आयी हैं .यदि राजवंशों की सुरक्षा के घेरे के बाहर के रचनाकारों को देखा जाए तो सभी वंचित थे . कुछ तो राजवंशों और बादशाहों की सुरक्षा में रचना करते रहे और रचना के बाद भी उन्हें कुछ नहीं मिला . मैं तुलसी , मीरा , सूर , कबीर , जायसी को भी वंचित ही मानता हूँ . नामदेव , दादू और रविदास को भी . इन सबकी रचनाओं में वंचितों की ही बात है .एक लम्बे अंतराल के बाद प्रेमचंद को देखता हूँ तो  कफन , पूस की रात , ईदगाह , पञ्च परमेश्वर , दो बैलों की जोड़ी , बड़े भाई साहब , सवा सेर गेहूं , आदि रचनाओं में वंचितों की ही बात कही गयी है . ठाकुर का कुंवा  में तो वंचित की पीड़ा से पाठक छटपटाता है .एक अंतहीन श्रृंखला है रचनाकारों की जिन्हें मैंने पढ़ा है .लेकिन उन्हें पढ़ते हुए कभी यह विचार मन में एक पल के लिए भी नहीं आया कि मैं किसी अमुक वर्ग या जाति से सम्बंधित लेखक को पढ़ रहा हूँ . साहित्य की बदलती धाराओं में एक नया शब्द जुड़ गया है , दलित साहित्य . यह साहित्य उनके नाम से जुड़ गया है जो एक उन्माद में दलित लेखक का तमगा लिए घूम रहे हैं . मेरा मानना है कि लेखक , रचनाकार होता है . वह वंचित हो सकता है और है . लेकिन यदि वह खुद को दलित कहलवाने पर उतारू है तो मैं उसे वैचारिक रूप से दरिद्र कहूँगा .वंचित नहीं . किसी फ़ॉर्मूले पर लिखी कहानी जिसका उद्देश्य किसी जाति को जानबूझकर निशाना बनाना है ,  कहानी नहीं षड़यंत्र है . इससे समाज बदलता नहीं , इससे समाज के टुकड़े होते हैं . मैंने मोहन राकेश , कमलेश्वर , धर्मवीर भारती , राजेन्द्र यादव, रवीन्द्र कालिया , यशपाल , भगवती चरण वर्मा , इलाचंद्र जोशी , वृन्दावन लाल वर्मा , निर्मल वर्मा , राही मासूम रजा , मन्नू भंडारी , ममता कालिया ,शानी , मंज़ूर एहतेशाम , राजेंद्र राव , महीप सिंह , अमरीक सिंह दीप , असगर वजाहत  तथा अन्य बहुत से प्रतिष्ठित रचनाकारों को कभी धर्म के नाम पर बांटकर नहीं पढ़ा और इसी तरह ओमप्रकाश वाल्मीकि , श्योराज सिंह बेचैन , सूरजपाल सिंह चौहान , शरण लिम्बाले , अजय नावरिया को दलित मानकर नहीं पढ़ा . मैंने रचनाकारों को पढ़ा है . वर्गों में बिखरे वादियों को नहीं . इसलिए मेरी समझ में रचनाकार , केवल रचनाकार होता है . जब वह किसी वर्ग में आकंठ डूबता है तो वह वैचारिक रूप से दरिद्र होता है . उसकी सोच को दीमक लग जाती है . हिंदी साहित्य में अनेक आन्दोलन हुए हैं . कहानी में बहुत जोर - शोर से समान्तर आन्दोलन खड़ा किया गया. कमलेश्वर जैसे सशक्त हस्ताक्षर के नेतृत्व में कुछ वर्ष चला आन्दोलन आज कहाँ है ? उसके तत्कालीन स्वनामधन्य रचनाकार आज कहाँ हैं ?  साहित्यकार की प्रतिबद्धता समाज है और समाज ही उसका सरोकार है . मुझे याद नहीं पड़ता कि वह कौन साहित्यकार है जिसने अपनी चिंता में समाज को बहिष्कृत किया है . और , वह कौन - सी रचना है जो समाज को अनुपस्थित रखकर लिखी गयी है. यदि ऐसी कोई कृति कहीं है भी तो उसका औचित्य क्या है ?

भारतीय लोकतंत्र का वर्तमान
चुनाव भी हो गए और नतीजे भी आ गए . पांच राज्यों में हुए चुनाव में कांग्रेस केवल मिजोरम में अपना चेहरा बचा सकी . मध्य प्रदेश , राजस्थान , छतीसगढ़ में भाजपा को बहुमत मिला . मिलना ही था . दिल्ली में भी यदि सीधा मुकाबला कांग्रेस से होता तो भाजपा को ही बहुमत मिलता  . यह भी संभव था कि कांग्रेस को एक सीट भी न मिलती और हर जगह उसकी जमानत जब्त होती . लेकिन आम आदमी पार्टी के चुनाव में आ जाने से स्थिति अलग हो गई है , परिदृश्य ही बदल गया है . आप पार्टी अपने सिद्धांतों के बल पर २८ सीट जीतकर आई है . उसे पूर्ण बहुमत नहीं मिला है इसलिए उसे सरकार भी नहीं बनाना है . उसके खिलाफ भाजपा और कांग्रेस ने संयुक्त मुहिम चलाई और ठीक चुनाव से पहले अन्ना हजारे ने जो किया वह भी सत्य और आपके  खिलाफ गया और उसे बहुमत न मिल सका . चुनाव के दिन शाम पांच बजे के बाद जो मतदान हुआ वह भी उसके खिलाफ हुए षड्यंत्रों में से एक है फिर भी जो परिणाम आये वे उसके लिए ही नहीं देशवासियों के लिए भी एक संतोष का वायस हैं . अब भाजपा और कांग्रेस दोनों मिलकर चाहती हैं कि यह पार्टी सरकार बनाए और एक हफ्ते में बदनाम होकर गिर जाए और इसका भविष्य उगने से पहले डूब जाए मगर ऐसा होता नहीं दिखाई देता . भाजपा और कांग्रेस के प्रवक्ता दोनों ही इस कदर  अहंकार में डूबे हुए हैं कि उनके चेहरे घिनौने लगने लगे हैं . दोनों ने मिलकर आम आदमी पार्टी की अस्मिता को पहले नकारा और अब कह रहे हैं कि आप पार्टी ही सरकार बनाए . आम आदमी पार्टी  इतनी भी बेवकूफ नहीं कि अपना जनाधार और विश्वास खो दे . मोदी का रास्ता बिलकुल साफ़ था लेकिन अब उनके रास्ते में आप है और आपको हटाना कितना मुश्किल है , यह आज सभी जान रहे हैं . दिल्ली की जनता को शीला दीक्षित ने बेवकूफ कहा है . उन्हें बुढापे में तो पता चलना चाहिए कि बेवकूफ कौन है ....

       अपना देश बापुओं , तेजपालों , गाँगुलियों , बाबाओं और तलवारों का देश है . यहाँ जो घटता है वह बहुत कम दिखता है और जो नहीं दिखता है वह बहुत ज्यादा घटता है . मैं कह नहीं सकता कि जिस समय मैं यह लिख रहा हूँ , न जाने कितने बापू , तेजपाल , गांगुली , बाबा और तलवार अपनी वाली कर रहे होंगे ...

'निकट' का यह अंक 'पहली कहानी : पीढियां साथ -साथ भाग-२' आपके सामने है . ("निकट" सदस्यता फ़ार्म) हमने एक कोशिश की है कि हमारे समय के रचनाकार कुछ पीछे और कुछ आगे की यात्राओं को देखें . हमारी कोशिश यह भी थी कि हम अपने प्रयास को युगानुसार संतुलित भी रखें . अनेक रचनाकारों ने निवेदनों के दुहराव के बाद भी रचना नहीं दी . उम्मीद है कि भविष्य में वे 'निकट' को अपनी नई रचना जरूर देंगे . इस वर्ष हमने राजेंद्र यादव , के . पी सक्सेना , परमानंद श्रीवास्तव और ओमप्रकाश बाल्मीकि को खो दिया . हिंदी की दुनिया के लिए यह अपूर्णनीय क्षति है . 'निकट' परिवार इसे अपनी व्यक्तिगत क्षति भी मानता है .हमारी हार्दिक श्रद्धांजलि ....

कृष्ण बिहारी

एक टिप्पणी भेजें

1 टिप्पणियाँ

  1. बहुत जोरदार सम्पादकीय है। आत्महत्या हत्या और म्र्त्यु जो भी आप कहे उसमें आदमी तो चला ही जाता हैऔर हम उसके जाने के कारणों का विश्लेषण करते रहते है। राजेंद्र यादव मी म्रत्यु जावन से परे एक तरह का अतिक्रमण थी। लेकिन यह तय है उन्होने जीवन को अपनी शर्तो और जिद्द पर जिया।ुन्होने विवादस्पदता को जीने का ढगं बनाया और पाठको के दिल में धडकते रहे ।यह कम योगदान नही है। वे जब भी याद आयेगे तो खूब याद आयेगे।

    जवाब देंहटाएं

गलत
आपकी सदस्यता सफल हो गई है.

शब्दांकन को अपनी ईमेल / व्हाट्सऐप पर पढ़ने के लिए जुड़ें 

The WHATSAPP field must contain between 6 and 19 digits and include the country code without using +/0 (e.g. 1xxxxxxxxxx for the United States)
?