गणतंत्र और स्त्री - मैत्रेयी पुष्पा | Women and Republic - Maitreyi Pushpa

गणतंत्र और स्त्री

        - मैत्रेयी पुष्पा

गणतंत्र दिवस हर वर्ष 26 जनवरी को मनाया जाता है, २६ जनवरी १९५० को भारत का संविधान लागू हुआ| बस तभी से देश गणतंत्र हुआ और उसी उपलक्ष मे गणतंत्र दिवस हर वर्ष मनाया जाता है|. जनवरी 26, 1950 भारतीय इतिहास में सबसे महत्वपूर्ण दिन माना जाता है।
यह कैसा गणतंत्र है
कि महिला आरक्षण बिल
कब से लटका पड़ा है।
पंचायती राज में महिलाओं को
जो आरक्षण मिला है,
उसके तहत आयी स्त्री
अपने ही परिवार के
पुरुषों द्वारा
अयोग्य मान ली जाती है
और
सारे अधिकार
छीन लिए जाते हैं।

समय चक्र चलता रहा और स्त्री पृथ्वी सी घूमती रही। रात का फेरा पूरा हो चुका था। सवेरे की रौशनी अलवेली थी। उसे किसी ने जगाया नहीं क्योकि उसके लिए जागना ही खतरनाक शय है। मगर वह क्या था जिसके चलते खुद ही अपनी आँखें खोलीं और अपनी ही नज़रों से देखा। फिर खुद ब खुद गला खुलने लगा, अपनी ही आवाज को बार बार परखा। कान भी खुल आये, अनहद नाद पहली बार सुना! यह अपनी इंद्रियों में उस लोक का करिश्मा था जो अब तक चले आरहे नियम कानूनों के कारण स्त्री को अंधी, मूक और बधिर बनाये हुए था। अपंग भी क्योंकि हाथ-पाँव भी अपने लिए उठते नहीं थे आज्ञा की आदत जो पड़ी हुयी थी। शरीर में अद्भुत सी हरकत के साथ तेवरों में विचित्र सा बांकपन!

      विवाह, क्यों होता है विवाह? उसके जन्म लेते ही विवाह अनिवार्य शर्त सा लागू क्यों कर दिया जाता है क्या यह भी संविधान में तय है? तय है कि वह कब करेगी विवाह या कब कर दिया जायेगा उसे अपनी जन्मस्थली से अलग? कौन होगा उसका वर, क्या यह उस से पूछा जायेगा? विवाह के बाद उसके लिए क्यों जरूरी है संतान और निस्संतान स्त्री को क्यों नीची नज़र से देखा जाता है, इस तरह का अधिकार कहीं लिखा हुआ है क्या? क्या उसका जन्म ही कीड़े-मकोड़ों की तरह पुरुष की सेक्स संतुष्टि और प्रजनन लिए ही हुआ है? उसकी अपनी इच्छाएं क्या हैं, उसकी अपनी पहल किस जगह कितनी होगी, इस बात पर सारा समाज मौन क्यों रहता है और संस्कृति बदलने का नाम क्यों नहीं लेती अपना कैरियर क्या होगा इस पर बंदिशें तो हज़ार दिखती हैं रस्ते नहीं खुलते तो फिर सम्बन्धों पर खुद ही विचार करना होगा जो निश्चित ही पहले से अलग तरह का होगा।
अब कुश्ती और शिलाजीत व्यर्थ के चौंचले हैं क्योंकि स्त्री के हकों की सिफारिश किसी दूसरे की मौहताज नहीं, वह अपनी पैरवी मैं सबसे पहले खुद खड़ी होगी।


      गणतंत्र यानि नागरिक व्यवस्था में स्त्री ने अपने हक़ तय कर लिए, जिनको लिखित रूप में ही नहीं पहचाना। व्यव्हार रूप में भी परिचालित होना जरूरी माना। इस उपस्थिति में स्त्रियों को हम सैनानी के रूप में देख सकते हैं कि जिनको अपने जुनून में हक़ चाहिए ही चाहिए। वे जानती हैं कि उनके अधिकारों पर बड़ी चालाकी से डंडी मारी गयी है। देख लिया जाये कि संसद और विधान सभाएं अपने लिए मर्दानी कतारें सजाये रहती है जैसे स्त्री की बड़ी उपस्थिति से वे कमजोर हो जाएंगी। जब-जब स्त्रियां इस मुद्दे को उठती हैं, मर्द चतुर षड्यंत्रकारी के रूप में प्रकट होते हैं और औरत की ही बात कहते हुए जाति से जोड़कर मुद्दे को खटाई में दल देते हैं। यह कैसा गणतंत्र है कि महिला आरक्षण बिल कब से लटका पड़ा है। पंचायती राज में महिलाओं को जो आरक्षण मिला है, उसके तहत आयी स्त्री अपने ही परिवार के पुरुषों द्वारा अयोग्य मान ली जाती है और सारे अधिकार छीन लिए जाते हैं।

       क्या स्त्री का स्वतंत्रता संग्राम अभी भी जारी है? माना कि दिनों-दिन वह आगे बढ़ रही है लेकिन अचानक उसकी यात्रा को बाज़ार की और मोड़ दिया जाता है और आर्थिक मजबूती का झांसा ऐसा लगता है कि हमारी आजादी झटका खाकर मुंह के बल गिरती है। संविधान के किस नियम में लिखा है कि चीजों की बिक्री की बढ़ोतरी के लिए औरत को बाज़ार में होर्डिंग पर कपड़े उतरवाकर टांग दो। घर-घर घुसे टीवी के परदे पर वह कच्छे बनियान से लेकर साबुन, शेविंग क्रीम और कंडोम जैसी चीजें अभद्र ढंग से बेचती प्रतुत की जाये और विज्ञापनों की त्वरित आवृत्तियों पर कोई लगाम न हो!

       आश्चर्य यह भी है कि क्या सदियों से सतायी हुई स्त्री को बाहर की दुनियां में जाकर अपना वजूद खोलने का मौका मिला है तो वह सुध-बुध भूल गयी है या उसे आर्थिक आजादी चकाचौंध कर रही है? हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि बाज़ार का नियंता भी पुरुष है और उसने बाज़ार की छवि में, बाज़ार की भाषा में तथा बाज़ार की चमक-दमक में औरत को घेर लिया है। बेशक पढ़ी-लिखी स्त्री अपनी इच्छा से जी रही है मगर अपनी आजादी के रूप में वह नए तरीके की विकट गुलामी में कैद होती चली जा रही है। लग रहा है कि औरतों के लिए अब तमाम दरवाजे खुल गए हैं, ऊंची-ऊंची दीवारें ढह गयी हैं और उनकी लगन तथा साहस ने लौह कपाटों के परखच्चे उड़ा दिए हैं मगर कोई महीन साजिश ये सारे क्रन्तिकारी इरादों को पस्त क्यों कर डालती है? महीन साजिश, यानि कि पुरुष के भीतर के डर से निकली कुंठाएं -- औरत की कमाई से डर नहीं लगता उसके कैरियर से लगता है। --- ऐसे कितने पुरुषोत्तम होंगे जो अपनी स्त्री को शिखर की और बढ़ते देख कर खुश होते होंगे? हाँ खुशफहमी दिखाते जरूर हैं। फिर क्या ताज्जुब कि महिलाएं आज भी उतनी संख्या में आधिकारिक पदों पर नहीं हैं जितनी कि होनी चाहिए। यह सवाल हमारे गणतंत्र से मुखातिब है कि पॉलिसी मेकिंग में कितनी महिलाएं भाग लेती हैं?

       इस में भी शक नहीं कि स्त्रियों में अपार धैर्य होता है। अगर ऐसा न होता तो अभी तक जितनी भी कामयाब यात्रा सम्भव हुई है, वह भी न होती। माना कि "मैं चुप रहूंगी" की प्रतिज्ञा में बंधी नारी मुखर हुई है और लोगों के ताज्जुब का विषय भी बनी है साथ ही खतरों से रोज ही दो-चार हो रही है। वह जानती है कि बलात्कार, हिंसा, तेजाबी हमले, ये सब चीख चीखकर कह रहे हैं कि स्त्री मर्दानी व्यवस्था के लिए चुनौती बन गयी है। अब कुश्ती और शिलाजीत व्यर्थ के चौंचले हैं क्योंकि स्त्री के हकों की सिफारिश किसी दूसरे की मौहताज नहीं, वह अपनी पैरवी मैं सबसे पहले खुद खड़ी होगी।

       गणतंत्र दिवस यानि हमारे स्वतंत्र देश का अपना संविधान लागू होने का दिन। देश के नागरिकों के लिए नीति-नियम निर्धारित करते हुए उनके अधिकार और कर्तव्यों के खुलासा करने का दिन - 26 जनवरी।

       अब देखना यह है कि आजादी की एक तिहाई सदी बीत जाने पर अपने स्वतंत्र भारत में नागरिकों के लिए समानता का माहौल कैसा है? संविधान में लागू की गयी बातें क्या व्यवहारिक रूप से भी लागू हैं या हमारा संविधान केवल कागजों पर ही शब्दों की मुनादी है। जानना यह भी जरूरी है कि नागरिकों में गणतंत्र को समझने की हैसियत कितनी है? जाहिर है इस कसौटी पर हिंदुस्तान की जनसंख्या का बड़ा भाग नहीं कसा जा सकता क्योंकि वह संविधान को जानने-समझने के लिए इतना शिक्षित नहीं है। फिर स्त्रियों की तो बात ही क्या, जिनके समूहों को हम आधी आवादी के नाम से पुकारते हैं।

       अपने समाज और राज को देखते हुए मैं अभी तो इस नतीजे पर पहुँच पायी हूँ कि लोकतंत्र और गणतंत्र बोलने में बड़े ही स्वाधीनता मूलक शब्द हैं। स्त्री इस स्वाधीनता का स्वाद कितना चख पायी है या उसको अपने जीवन से जोड़कर मुक्ति का कैसा अहसास बताती है? गौर से देखा जाये तो ज्यादातर आजादियों के क्रूर निशाने पर स्त्री रहती है क्योंकि अभी भी उसके लिए घर परिवार का गणतंत्र संविधान पुराने रूप में ही लागू है, जिसमें उसके साथ भेद-भाव पूर्ण वर्ताव होता है। इस से आज भी कौन इंकार कर सकता है कि औरत के गले में एक अदृश्य मगर मजबूत रस्सा बांधे रखने का विधान है, जिसका एक सिरा घर के मुखिया (पिता, भाई, पति और पुत्र) के हाथ में रहता आया है। अब इस नियम के चलते भारत आजाद रहे या गुलाम, स्त्री की दशा निर्धारित दिशा को ही प्राप्त होती है। हम सब जानते हैं कि जिस पुरुष को उसका संरक्षक माना जाता है उसे विशेष अधिकार भी दिए जाते हैं, जिसके तहत वह अपने घर की स्त्री को अपने मन मुताबिक चला और रोक सकता है। आज्ञा उल्लंघन करने वाली को मनमानी सजा दे सकता है। सजा का रूप प्रताड़ना से लेकर गृह- निष्कासन और बेइज्जती जैसे दंड दिए जा सकते हैं। इतना है नहीं मौहल्ला और गाँव के स्तर पर उसे डायन करार देकर जन से मारा जा सकता है।

बेक़ीमत स्त्री की हैसियत याचक से ज्यादा कुछ भी नहीं है।

       गृह-निष्कासन, यह तो धार्मिक और आदर्श परंपरा से जुड़ा हुआ दंड है, यह उत्तम संविधान अपनी प्राचीन परम्परा में सर्वोत्तम माना गया है कि उस घर से औरत को खदेड़ दिया जाये जिसके लीपने-पोतने से लेकर साज-संवार तक उसे सोंपी गयी थी, जिसकी रिहाईश में उसने परिवार के सदस्यों के लिए सहूलियतें जुटाते हुए दिन-रात हाड-तोड़ मेहनत की थी - बिना किसी मूल्य के, एकदम बेकीमत के बिसात पर। अपने आप को त्याज्य समझने वाली की नस-नस में आज भी त्याग और निछावर होने की रक्त-रेखा प्रवाहित है क्योंकि आज भी वह परिवार में किसी गणतंत्र से परिचित नहीं होने दी जाती। बेक़ीमत स्त्री की हैसियत याचक से ज्यादा कुछ भी नहीं है।

       मेरी बातों को यहाँ काटा जा सकता है क्योंकि दावा यह है कि स्वतंत्र भारत में बहुत कुछ बदला है। बेशक कुछ खुले दिमाग वाले बुद्धिजीवी लोगों ने स्त्री की दशा को जाना-पहचाना और उनके लिए शिक्षा का द्वार खोला। इन मानवाधिकारों को समझने वाले लोगों का शुक्रिया कि उन्होंने देश के गणतंत्र में स्त्री को भागीदार बनाया। माना वे मुट्ठी भर ही थे, मगर वे समानता के पक्षधर और बुलंद आवाज के धनी थे। अब स्त्री पढ़ने लिखने के लिए प्रस्तुत हुई तो ज्यादातर परिवारों ने अपने कुल की इज्जत की दुहाई देते हुए समानता के पक्षधरों के आह्वान पर रोक लगा दी जबकि उन्हीं परिवारों ने बेटों को अनिवार्य रूप से शिक्षा का अधिकार दिया। यह तो एक मिसाल है, मेरे कहने का मतलब है कि स्त्री को दिए गए सामान अधिकारों को व्यवहार में लाने से पहले उन्हें छीनने वाले आते रहे हैं।

       फिर भी स्त्रियां अपनी ज़िद और लगन के कारण जितनी संख्या में पढ़-लिख गयीं वह इस देश के लिए विचारणीय विषय है कि क्यों आज भी औरतों का बड़ा तबका शिक्षा से बहुत दूर है? अब जो पढ़-लिख गयीं वे स्वतंत्र भारत में अपने अधिकारों का कितना उपयोग कर पाती हैं, यह सवाल मामूली नहीं है। उनको फिर भी घर-परिवार के घेरे से निकलने के लिए समानता का वह हक़ नहीं मिला जो उस परिवार के बेटे को मिल जाता है अपने विशेष अधिकार के रूप में। पहले तो पढ़ने का मतलब सिर्फ लड़की की शिक्षा माना गया जिसका उसकी आर्थिक मजबूती से कोई मतलब नहीं था। अगर लड़की ने कुछ करने का मन बना ही लिया और जिद ठान ली तो उसे जो छूट दी गयी, वह इतनी ही थी कि ऐसी जगह से बचा जाये जहाँ पुरुषों का मजमा हो। उनके लिए कन्या विद्यालय की शिक्षिका, स्त्रियों की डॉक्टर जैसे कार्य ही आदर्श और निरापद थे।

       अभी भी परिवारों में देश में लागू गणतंत्र से अपरिचय बना हुआ है क्योंकि पुरुषों ने जो महकमे हथियाए हुए हैं उन में अगर लड़की जाती है तो वह प्रवेश अवांछित माना जाता है साथ ही जोखिम भरा भी। साहित्य जो स्वतंत्रता के बाद लिखा गया क्या वह स्त्री को लेकर इस लिए ही अटका ठिठका सा रहा? जो मिल गया उसी को मुकद्दर समझ लिया के अंदाज में! और इस लिए ही जो पढ़ लिख गयी थीं वे पितृसत्ता की शान में कैरियर संपन्न पुरुषों की जीवन संगिनी बनकर धन्य हुईं। साथ ही उन्होंने शिक्षित माँ का रोल बखूबी अदा किया, यह भी स्त्री की कम बड़ी उपलब्धि नहीं थी क्योंकि देश को योग्य भावी नागरिक देने का जिम्मा वह उठाये हुए थी।

       हमारी मर्दानी संस्था इस मामले में बड़ी स्वाभिमानी रही है कि वह औरत की कमाई नहीं खायेगी। मसला यह था कि कमानेवाली स्त्री को अपनी कल्पना में वे जबरजोर औरत के रूप मबन देखते थे कि कहीं उनका कद बौना न हो जाये। सच भी यही है कि स्त्री को स्वतंत्र भारत में गुलाम बनाये रहने का नुस्खा उसके आर्थिक रूप से खाली हाथों में छिपा है। किसी को छोटा करके देखना गुलामी के लिए उसकी तैयारी का पहला और जरूरी चरण है। ऊपर से शिक्षित स्त्री का राजा होना!

       मगर चेतना भी गज़ब चीज है! जो पढ़ लिख गयी उसके सामने तमाम ऐसी इबारतें खुलने लगीं जिन्होंने उसे बेचैन कर डाला। कम्बख्त ज्ञान इसलिए ही तो बुरा होता है व्यक्ति का चैन छीन लेता है। कितना सकूं था जब किताबों के लिए आँखों में रौशनी ही नहीं थी। कितने निश्चिन्त थे हम जब अपने अधिकार जानते ही नहीं थे, गधे जैसा जीवन, बैल जैसी जिंदगी जिसको मेहनत से ही काम और घोड़े जैसी अक्ल कि मालिक की आँख की पुतली का संकेत ही पहचान लें। कुल मिलाकर गुलामी के मस्त आनंद में गोते खा रही थी पढ़ी-लिखी स्त्री, यानि हम।

       मैं आखिर कौन हूँ? मनुष्य ही न? मैं समझदारी के साथ श्रम करती हूँ, शारीरिक और मानसिक। फिर बेक़ीमत क्यों रहती हूँ? अपने समय को अपने तरीके से क्यों नहीं बांटती? मेरे लिए दूसरों के दिए फैसले ही क्यों अहम होते हैं? क्या वाकई मैं मवेशी या जानवर हूँ? मुझे स्त्री के रूप में पुरुष ने अपने गाड़े खूंटे क्यों दिए हैं क्या मैं किसी खूंखार जानवर की तरह भयानक हूँ? नहीं मैं मनुष्य की नस्ल में जन्मी स्त्री मनुष्य ही हूँ, मेरा यही दावा होना चाहिए।

       जिद औरत के लिए जहर है -- यह बात घुट्टी की तरह घोट पीस कर पिलायी गयी है। राजनीति औरत के लिए नहीं मर्दों के कार्यक्षेत्र हैं -- ये बातें उस स्त्री को जहर लगीं जिसके सामने इबारतों ने बहुत सी सच्चाईयां खोल दी थीं। वह भी सोच बैठी -- बिना विष का सर्प क्या और बिना बल की रस्सी क्या? साथ ही बिना जिद की जोरू क्या .... तुकबंदी ऐसी सार्थक लगी कि वह मन ही मन हंस पड़ी और खुद से ही खुद ने कहा - अब यह बल खाई औरत बहलने भटकने वाली नहीं।

       समय पलट रहा था कि स्त्री बदल रही थी? संविधान में क्या है और क्या नहीं है साथ ही क्या क्या होना चाहिए अपना विधान रचने लगी वह। अब वह चाहे गृहस्थ करती हो या कि खेती में बराबर से काम, अपने श्रम को उसे हक़ दिलाना होगा। जरूरी नहीं कि ऑफिस दफ्तर ही उसके आर्थिक उत्थान के जरिये बनें वह अपने आस-पास की धरती पर दावेदारी कर सकती है जिस पर उसका अधिकार व्यवहार में आया ही नहीं। यों तो कहा जाता है कि नए रास्ते आंदोलनों से बनते हैं, लेकिन अपने लिए निर्विघ्न चलने की डगर तो अपने फैसलों से ही बना करती है। वह मान बैठी कि संविधान में तय कानूनों और नियमों को भी अपने निजी निर्णयों द्वारा ही उपयोग में लाया जा सकता है और यही आजादी के दायरे में प्रवेश करने की निशानी है।

       आज वह आश्चर्य भी करती है कि कितने महत्वपूर्ण स्थानों और पदों से वह दूर रखी गयी क्योंकि वह स्त्री थी। आर्थिक पराधीनता, और सांस्कृतिक जिम्मेदारियों के चलते घर की चारदीवारी में उसे कैद रखा गया, क्योंकि वह स्त्री थी। क्या मंज़र क्या माज़रा! पुरुष, पुरुष से ही डरता रहा कि उसकी स्त्री को धन संपत्ति की तरह कोई लूट लेगा। उसे जीती जगती जिंदगी में मनुष्य नहीं माना गया क्योंकि वह स्त्री थी।

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3 टिप्पणियाँ

  1. न जाने ऐसे ही कितने प्रश्न हैं, सहजीवन में व्यवस्थायें सबको संतुष्ट कहाँ कर पाती हैं?

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  2. यथा स्थिति का बहुत संवेदनशीलआकलन किया है मैत्रेयी जी ने. यह एक ललकार है स्त्रियों के लिये भी कि वह इस जकडन को नकारने का प्रकल्प करें. बुद्धि में, विवेक में, क्षमता में और ज्ञान में भी वह पुरुष से कहीं कमतर नहीं हैं... लेकिन यह ज़रूर समझें कि उन्हें अपने संविधान सम्मत भी मांगने पर नहीं मिलेंगे बल्कि जतनपूर्वक छीनने पड़ेंगे. उसके लिये ज़रूरी है कि स्त्रियां पहले खुद को अपने भीतर की पराधीन भावना से मुक्त करें.

    मैत्रेयी पुष्पा जी को बधाई.. वह अपने काम से स्त्रियों को भी सचेत कर रही हैं. उनका लेख ही नहीं, उन्कसाहिटी भी इसकी गवाही देता है.

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  3. बेहद सटीक....विषय पर बारंबार चोट करता हुआ...झकझोरता हुआ...सच में आखिर किन गणों का है यह गणतंत्र. क्यूँ आखिर स्त्री केो बाँधे रखने में अपनी मर्दानगी समझता है यह समाज....स्त्री भी मनुष्य है...पुरूष के ही समान है...इल्म और हुनर में जरा भी कम नहीं..आधुनिकता की दुहाई दी जाती है पर जीती वो समाज के तथाकथित मापदण्डों पर है....आखिर क्यों?

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