मैं दिल्ली नहीं छोड़ सकता
अजित राय
नसरुल्ला और उनके जैसे हजारों–लाखों लोग जो भारत से बेइंतहा प्यार करते हैं, हम उनके लिए और कुछ नहीं कर सकते तो कम–से–कम उन्हें इस प्यार की सजा तो न दें। इस दुनिया में बहुत सारे लोग हैं जो सच्चे अर्थों में भारतीय संस्कृति से प्यार करते हैं। भारतीय सिनेमा, रंगमंच, नृत्य–संगीत, चित्रकला आदि के प्रति उनका प्यार दीवानगी की हद तक है। भारतीय साहित्य को लेकर मुझे संदेह है (अपवादों को छोड़कर) क्योंकि हमने अनुवाद और वितरण का कोई अंतर्राष्ट्रीय ढांचा नहीं बनने दिया।नसरुल्ला कुरेशी ने जब फोन पर ऊंची आवाज में प्यार से कहा—‘मेरी जान, बस आप आ जाइए, आकर देखिए तो सही, हम ओस्लो में कैसे बॉलीवुड को ले आए हैं’—मेरा दिल बाग–बाग हो गया। फैसला हो चुका था। अब चाहे जो हो, मुझे तो ओस्लो जाना है। यह मई 2012 की बात है जब मैं कोपेनहेगन में अपनी फिल्मकार मित्र लेस्ली एडविन के घर ठहरा हुआ था। लेस्ली की फिल्म ‘वेस्ट इज वेस्ट’ आ चुकी थी हालांकि उसने ‘ईस्ट इज ईस्ट’ जैसी सफलता नहीं अर्जित की। अक्टूबर 2011 में लेस्ली को मैंने हरियाणा अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह का उद्घाटन करने के लिए डी.ए.वी.गर्ल्स कॉलेज, यमुनानगर बुलाया था और वह इकोनॉमी क्लास में बारह घंटे का सफर करने को राजी हो गई थीं। उनकी दोनों फिल्मों में मुख्य भूमिकाएं ओमपुरी ने निभाई थीं। बाद में वह मेरे आमंत्रण पर पटियाला (फरवरी) और कुरुक्षेत्र (अप्रैल) भी आर्इं।
यमुनानगर, फरीदाबाद, वर्धा, कुरुक्षेत्र, पटियाला आदि के कॉलेजों, विश्वविद्यालयों में अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह आयोजित करते हुए कई बार खयाल आया कि विधिवत एक ट्रस्ट बनाया जाए और सिनेमा को लेकर एक राष्ट्रव्यापी मुहिम शुरू की जाए। इसी क्रम में लेस्ली ने मुझे डेनमार्क बुलाया था। उसी ने बताया कि ओस्लो में कुरेशी साहब पिछले कई वर्षों से बॉलीवुड फिल्म फेस्टिवल करते हैं। मैंने वहीं से उन्हें फोन किया और उनका आशिक की तरह जवाब था—‘मेरी जान बस आप जा जाइए!’
बॉलीवुड फेस्टिवल 6–13 सितंबर 2012 को होना था। इसी बीच दैनिक जागरण के प्रशांत कश्यप और विनोद श्रीवास्तव की पहल पर मैं ‘जागरण फिल्म फेस्टिवल’ के लिए बतौर सलाहकार अनुबंध कर चुका था। इस पर तुर्रा यह कि ईरान सरकार का आमंत्रण भी स्वीकार कर चुका था (संपादकीय, जनवरी 2014 देखें)। जागरण का फेस्टिवल फंस रहा था जो मेरी जिम्मेदारी थी। उधर सरफराज आलम मास्को की जिद पर अड़े थे। मैंने जैसे–तैसे प्रशांत को राजी किया कि वे देहरादून वाला फेस्टिवल संभाल लें। ईरान से लौटते ही अनुज गर्ग के साथ वाया मास्को ओस्लो पहुंचे। वहां से हमें स्वीडन जाना था और अनुज गर्ग को स्वीडिश दूतावास से शंघेन वीजा मिला था। वह भी सिंगल एंट्री। वे डरे हुए थे कि यदि ओस्लो एयरपोर्ट पर उन्हें रोक लिया गया तो क्या होगा। वे अपने आराध्य देव मथुरा के श्रीकृष्ण भगवान को याद कर रहे थे और मैं अपने दिमाग के कंप्यूटर में कोई पुरानी फाइल खोज रहा था। इमीग्रिशन काउंटर पर मैंने उनको पीछे किया और अपना पासपोर्ट बढ़ाया। उस युवा अधिकारी ने ध्यान से पूरा पासपोर्ट देखा और पूछा—‘आप नार्वे क्यों आए हैं ?’
‘मैं नार्वे से प्यार करता हूं,’ मैंने जवाब दिया।
‘नार्वे की किस चीज से आपको प्यार है ?’
‘हेनरिक इब्सन से’ मैंने कहा।
‘इब्सन के किस नाटक को आप सबसे अधिक पसंद करते हैं ?’
‘द डॉल्स हाउस। ’
‘और कोई ?’
‘एनिमी ऑफ द पीपुल’, ‘मास्टर बिल्डर’, ‘लेडी फ्रॉम दी सी’, ‘पियर गिंट’, ‘द लिटिल इयोल्फ’, ‘व्हेन वी डेड अवेकेन’, ‘जॉन ग्राब्रिएल बार्कमैन’—सुनिए मिस्टर, यदि आपके पास वक्त हो तो मैं सारी रात इब्सन के नाटकों पर लगातार बोल सकता हूं। ’
वहां अच्छा–खासा दृश्य पैदा हो गया था। लंबी लाइन में लगे लोगों को भी हमारी बातचीत में मजा आने लगा था कि तभी उस अधिकारी की बॉस आई और उसे डपटते हुए कहा—‘जल्दी करो, इब्सन की बाकी जानकारी तुम्हें नेशनल थियेटर से मिल जाएगी। ’ इसी हड़बड़ी में उसने अनुज गर्ग को भी नहीं रोका।
हम बाहर निकले तो कुरेशी साहब के लोग मिले। उन्होंने हमें कुछ देर और रुकने को कहा क्योंकि कुछ मेहमान दूसरे विमान से आने वाले थे। बाहर हमें एक जेंटिलमैन मिले। हमने उनके साथ कॉफी पी। जब कार में बैठने लगे तो मैंने उनका नाम पूछा। उन्होंने सकुचाते हुए कहा—‘अनूप जलोटा!’
अरे–––मैंने सिर पकड़ लिया। दरअसल वे जिस पोशाक में थे मैं कभी कल्पना ही नहीं कर सकता था। गलती हुई, माफी मांगी। उन्होंने कहा—‘ऐसा मेरे साथ अक्सर हो जाता है, लोगों के मन में मेरी ऐसी छवि आ ही नहीं पाती। ’
हमें जिस ‘थोन होटल’ में ठहराया गया था वह बहुत दिलचस्प था। विशाल आंगन के ऊपर शीशे से ढंका हुआ। तीसरे दिन एक और घटना हुई। दो दिन से हमारे साथ तीन सज्जन झक्क सफेद ड्रेस में घूम रहे थे। हम साथ खाते–पीते थे, हंसी–मजाक करते थे, फिल्में देखते थे, क्लबों में जाते थे। तीसरे दिन मैंने नसरुल्ला कुरेशी से पूछा—‘भाई साहब, ये तीनों कौन हैं ?’
‘अरे, कमाल है, आप इन्हें नहीं जानते! इन्होंने ही तो अक्षय कुमार को लांच किया था। ’
‘क्या इन्होंने ‘खिलाड़ी’ बनाई थी ?’
‘हां–हां, और इन्हीं के कारण शाहरुख खान स्टार बने। ’
‘तो क्या ‘बाजीगर’ भी इनकी ही फिल्म है ?’
‘अच्छा पिछले दिनों आपने कौन–सी मल्टी स्टारर फिल्म देखी थी ?’
‘रेस–2 ’
‘ये भी इन्हीं की फिल्म है। ये तीन भाई हैं। साथ–साथ रहते हैं। इन्हें हम अब्बास–मस्तान–हुसेन कहते हैं,’ नसरुल्ला ने हंसते हुए कहा।
ओस्लो सिटी सेंटर के सुंदर से मोनालिसा रेस्तरां में हमारा दोपहर का भोजन होता था। वहां मैंने अब्बास भाइयों से कहा—‘माफ कीजिएगा, आपने बिजनेस के लिए तो सौ–सौ करोड़ की दर्जनों फिल्में बनाई हैं। लेकिन दुनिया में आपको कोई नहीं जानता। कुछ कम बजट की फिल्में अपनी इज्जत के लिए, नाम के लिए, फेस्टिवल के लिए तो बनाइए। ’
मैंने उन्हें कुछ मौलिक आइडियाज दिए। बाद के तीन दिन वे बार–बार मुझसे इसी विषय पर बातें करते रहे। तीसरे दिन उन्होंने कहा—‘आप मुंबई आ जाइए, हम आपको अपनी कंपनी में कंसलटेंट का पद ऑफर कर रहे हैं। ’ मैंने उनका धन्यवाद करते हुए कहा—‘मैं दिल्ली नहीं छोड़ सकता। ’
नसरुल्ला कुरेशी के फिल्म समारोह में एक खासियत है कि वहां तरह–तरह के लोग मिल जाते हैं। उनकी पत्नी प्रीतपाल कौर और बेटा शान सबका खयाल रखते हैं। उनकी मित्रमंडली दिन–रात मेहनत करती है। कई मित्र तो सरकार में ऊंचे–ऊंचे पदों पर हैं, कई का अपना बिजनेस है। सबमें एक बात ‘कॉमन’ है सभी मुंबइया फिल्मों के दीवाने हैं। बॉलीवुडी डांस पर सभी उछल पड़ते हैं। पिछले साल से कुरेशी ने भारतीय परिधानों का फैशन शो भी साथ में जोड़ दिया है। उनको बॉलीवुड फेस्टिवल का आइडिया मुंबई में ‘मूवी’ पत्रिका निकालने वाले निर्मल सूरी ने दिया था जो अब लंदन में बस गए है।
कुरेशी का कहना है कि जो भी उनके फेस्टिवल में आ जाता है उसकी किस्मत चमक उठती है। वे कहते हैं कि सलमान खान जब आए थे तो उनका वक्त ठीक नहीं चल रहा था। ओस्लो से जाते ही उनकी ‘दबंग’ ऐसी हिट हुई कि उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा। ऐसा ही अनिल कपूर, विद्या बालन और अरशद वारसी के साथ भी हुआ। हेमा मालिनी पर तो नार्वे के डाक–विभाग (जहां कुरेशी काम करते हैं) ने बाकायदा डाक टिकट जारी किया। मैं अपने बारे में सोचने लगा, कहीं ऐसा तो नहीं कि मेरा ‘राजयोग’ (मेरे कई मित्र इन दिनों यही कहते हैं) बॉलीवुड फेस्टिवल में जाने के कारण ही शुरू हुआ। कम से कम कुरेशी ऐसा ही मानते हैं। वे मुझे समझाते हैं—‘देखिए भाई साब, आप यहां आए, हमारे सलाहकार बने। जागरण वालों ने तीन साल के लिए आपको अपने फेस्टिवल का कंसलटेंट बनाया। दूरदर्शन ने आपको अपनी पत्रिका का संपादक बनाया। ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ ग्रुप ने आपका कान फिल्मोत्सव का प्रेस एक्रेडिटेशन करवाया। आप कान (फ्रांस) गए। अभी तो यह सिलसिला शुरू ही हुआ है। ’
मैंने उन्हें चिढ़ाने के लिए कहा—‘और हां, इसी वजह से तो आयरलैंड की सुपर मॉडल हीरा शाह से भी दोस्ती हुई। ’ वे शरमा गए।
मैंने खुद दर्जनों अंतर्राष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल आयोजित किए हैं। मुझे पता है कि कितना कठिन काम है यह। नसरुल्ला पिछले दस–बारह साल से लगातार ओस्लो में ‘बॉलीवुड फिल्म फेस्टिवल’ कर रहे हैं। इधर दुनिया के कई देशों में मुंबइया फिल्मों के ये समारोह काफी लोकप्रिय हो रहे हैं। जर्मनी के स्टुटगार्ट का समारोह काफी प्रतिष्ठित हो चुका है। लंदन में तो ऐसे दर्जनों छोटे–बड़े फिल्मोत्सव होते ही रहते हैं। न्यूयॉर्क इंडियन फिल्म फेस्टिवल और लॉस एंजिल्स इंडियन फिल्म फेस्टिवल के अलावा दुबई और आबुधाबी में भी इनकी शुरुआत सफल रही है। गोवा इंटरटेनमेंट सोसायटी के पूर्व सीईओ मनोज श्रीवास्तव की पहल पर म्यूनिख की ‘बॉलीवुड न्यूज एजेंसी’ की एडिटर अलेक्जांद्रा सी टीटो ने बर्लिन में बॉलीवुड फेस्टिवल की अच्छी शुरुआत की है। अब वे इसे फ्रैंकफुर्ट ले जा रही हैं। स्वीडन, डेनमार्क और पोलैंड में भी मेरे कई मित्र ऐसा समारोह करना चाहते हैं। हाइंज वरनर वेश्लर की मदद से स्वीडन के उपसाला में ईवा कलंदेर तो भारतीय उत्सव शुरू भी कर चुकी हैं, जिसका एक हिस्सा फिल्मों पर केंद्रित होता है। मनोज श्रीवास्तव की बातों पर यकीन करें तो मानना पड़ेगा कि यूरोप को अब भारत के खुशनुमा सिनेमा का चस्का लग गया है। यूरोप अपने त्रासद अतीत से उबर रहा है।
पिछले साल जब मैं कान फिल्मोत्सव में गया था तो नसरुल्ला हमसे मिलने आए थे। बड़ी मुश्किल से उनका एक्रेडिटेशन हो पाया था। मुख्य सभागार के ठीक सामने के ढाबे ‘कैफे रोमा’ में हमारा अड्डा जमता था। सबको पता था कि घूमफिर कर हम वहीं आते हैं। अभी पिछले दिनों अनुज गर्ग ने अपनी एक टीम भेजकर नसरुल्ला के पैतृक मकान की खोज करवाई थी। उनका परिवार सन् 47 के विभाजन के समय हुए सांप्रदायिक दंगों में जैसे–तैसे जान बचाकर हरियाणा के कैथल से पाकिस्तान चला गया था। वहां से कुछ ही साल बाद उनके पिता लगभग मजदूर की हैसियत में नार्वे जाकर बस गए। आज नसरुल्ला की वहां बड़ी ऊंची हैसियत है। उन्होंने कभी खुद को पाकिस्तानी नहीं माना। हमेशा उनका दिल और दिमाग हिंदुस्तानी ही रहा है। उनकी पत्नी सरदारनी हैं और जालंधर की हैं। अभी इसी जनवरी में नसरुल्ला अपना पैतृक मकान देखने कैथल गए थे। अब वहां जूतों की दुकान बन गई है। वहां वे आधे घंटे चुपचाप खड़े रहे। उनकी दोनों आंखों से झरझर आंसू बह रहे थे।
नसरुल्ला और उनके जैसे हजारों–लाखों लोग जो भारत से बेइंतहा प्यार करते हैं, हम उनके लिए और कुछ नहीं कर सकते तो कम–से–कम उन्हें इस प्यार की सजा तो न दें। इस दुनिया में बहुत सारे लोग हैं जो सच्चे अर्थों में भारतीय संस्कृति से प्यार करते हैं। भारतीय सिनेमा, रंगमंच, नृत्य–संगीत, चित्रकला आदि के प्रति उनका प्यार दीवानगी की हद तक है। भारतीय साहित्य को लेकर मुझे संदेह है (अपवादों को छोड़कर) क्योंकि हमने अनुवाद और वितरण का कोई अंतर्राष्ट्रीय ढांचा नहीं बनने दिया। ईरानी मूल की जर्मन लड़की नाबेला अली अपने कैंसर से लड़ने के लिए फिल्मोत्सवों से जुड़ी थी। वह देर रात तक हम सबको बर्लिन के बेबीलोन सिनेमा से होटल पहुंचाती थी। एंजेला वॉन शैंपेरोन ने अपना नाम ही शांति रख लिया है। उसके बेडरूम में भारतीय सिनेमा के कई दुर्लभ पोस्टर देखे जा सकते हैं। हेलसिंकी (फिनलैंड) के नाइट क्लबों में आपको बेलारूस, यूक्रेन आदि पूर्व सोवियत देशों की ऐसी कई नृत्यांगनाएं मिल जाएंगी जो हिंदी सिनेमा पर सारी रात बात कर सकती हैं, जैसा कि मैंने उस एमीग्रिशन आफिसर से इब्सन को लेकर कहा था। मुझे लगता है कि भारतीय सिनेमा हमारी अंतर्राष्ट्रीय डिप्लोमेसी का एक महत्वपूर्ण हथियार बन सकता है। नसरुल्ला कुरेशी को सलाम।
अजित राय / दृश्यांतर / अप्रैल 2014
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