अजय नावरि‍या: कहानी 'यह आम रास्‍ता नहीं है' Hindi Kahani: Ajay Navaria - Ye Aam Rasta Nahi Hai

 यह आम रास्‍ता नहीं है

अजय नावरि‍या

                                                                  

अशोक इस तरह की मुस्‍कुराहटों का काफी अभ्‍यस्‍त हो गया है । उस ने इसे नज़रअंदाज कर दि‍या। हर जगह ऐसे मूर्खो से लड़ना व्‍यर्थ होता है, जब ये हारने लगते हैं तो इसी कुटि‍ल मुस्‍कुराहट से मारने की कोशि‍श करते हैं।

उस का पूरा शरीर खून से तर बतर था..... देह पर जगह जगह मि‍ट्टी से भरे चोट के गहरे नि‍शान..... पत्‍थरों और लाठि‍यों से उकेरे गए चि‍ह्न .....स्‍मृति‍ चि‍ह्न..... उखड़ती सॉंस को उस ने भरसक संभाला ताकि‍ उसके हॉंफने की आवाज कोई बाहर सुन न सके....जि‍स जगह वह छि‍पा, वह गॉंव का ऐसा उजाड़ महलनुमा मकान था, जि‍सके बारे में अफवाह थी कि‍ वह प्रेतबाधि‍त है और इसी लि‍ए वहॉं कोई न जाता, दि‍न में भी.....उस का ध्‍यान अपने घुटनों की तरफ गया, जहां से मांस छि‍लकर लटक गया था एक तरफ को, उस ने फि‍र एक मुट्ठी मि‍ट्टी भरी और घाव पर पूर दी, दर्द की लपलपाती लहर पूरे बदन में दौड़ गई.....आहहहहह, कातर स्‍वर रोकते रोकते भी फूट नि‍कला ..... खोजो उसे यहीं कहीं होगा ... एक आवाज उठी...छोड़ना नहीं है उस नीच को ...दूसरी आवाज ने साथ दि‍या...आज मार ही देंगे, उसकी बोटी-बोटी काट देंगे हम, उस की हि‍म्‍मत कैसे हुई गॉंव में हमारे रास्‍ते पर आने की, वह भी सूरज उगने के बाद..... वह उन हि‍न्‍सक आवाजों को सुनकर दहल गया और कानों पर हाथ रख लि‍ए, लेकि‍न आवाजें उसे घेरे खड़ी थीं जैसे वो बाहर से नहीं कहीं मन के तहखानों में बज रही हो.....अचानक दो परछाईयॉं उस की तरफ बढ़ी आईं, वह सि‍कुड़ गया, सॉंस रूक गई, प्राण कंठ को आ लगे..... एक गौरवर्णा स्‍त्री, ऊंचा कद, ऊंची नाक, उभरा हुआ माथा और मॉंग में ढेर सारा सि‍न्‍दूर, बड़ी-बड़ी बि‍ल्‍लौरी ऑंखे, वह बि‍ल्‍कुल सामने खड़ी थी और उस के साथ था लगभग एक सात साल का बच्‍चा.....उस स्‍त्री को देख भय से खुद ब खुद याचना में हाथ जुड़ गए उस के...चांडाल हूँ मैं...उस स्‍त्री की आंखों में उसे देखते ही एकाएक भयानक घृणा घि‍र आई...अरे चाण्‍डाल तू यहॉं कैसे...जैसे उस स्‍त्री की आंखों ने कहा, तभी उस स्‍त्री का ध्‍यान उस के शरीर से फूटते घावों और उधड़ी खाल पर गया, उस की आंखें करूणा से भर गई ... उस ने हाथ में पकड़े पूजा के थाल को दूसरे हाथ में संभाला और बाहर की तरफ लौट गई, जि‍स तरफ से पुरूषों और लड़कों की आवाजें आ रही थी.....देवी क्‍या आप ने कि‍सी नीच चाण्‍डाल युवक को इस तरफ आते देखा....उस खूंखार भीड़ में से एक युवक आगे बढ़ा..... नहीं-नहीं इस तरफ नहीं, उस तरफ जाते देखा... उस स्‍त्री ने वि‍परीत दि‍शा का इशारा... चलो भाईयों, आज उसे जान से मार ही देंगे ताकि‍ फि‍र कोई हमारे इलाके में घुसने की हि‍म्‍मत न कर सके... यह बोलने वाला व्‍यक्‍ति‍, सबसे आगे खड़ा था, जैसे इस भीड़ का नेतृत्‍व वही कर रहा हो... उसकी नीली आंखों और ऊंची नाक के बीच घृणा तमतमा रही थी... कोठरी में छि‍पे उस युवक ने भी यह सब सुना... कुछ देर वह दम साधे कोठरी में छि‍पा रहा और सब तरफ शांति‍ देख बाहर नि‍कला... उस ने चारों ओर देखा, कोई न था दूर तक, वह अंधाधुंध अपने जाने पहचाने रास्‍ते की तरफ भागने लगा, ... आवाजें अब भी पीछा कर रही थी, मारो मारो मारो...बच कर जाने न पाएं... उस ने पलभर को पलटकर भी देखा, पर वहॉं कोई न  था... उस के कान बज रहे थे जैसे... अचानक पेड़ की उभरी जड़ से उस का पैर उलझा और वह धम्‍म से गि‍र पड़ा..... बचाओ..... झटके से अशोक की नींद टूट गई। वह डर के मारे बि‍स्‍तर पर ही लेटा रहा...सन्‍न। कुछ देर तक जैसे वह तय ही नहीं कर पाया कि‍ वह कहॉं है, कि‍ यह ख्‍वाब है या हकीकत। दुस्‍वप्‍न टूट चुका था परंतु अशोक का मन अब भी उसी की भुजाओं के बंधन में था। टयूबलाइट ऑन करते हुए उस ने कि‍सी तरह अपनी चेतना को व्‍यवस्‍थि‍त कि‍या। टयूबलाइट में कोई हरकत ही न हुई पहले तो, फि‍र वह दो-तीन बार खांसी और पीली बलगम सी बेरौनक रोशनी कमरे में फैल गई। उस ने घड़ी देखी, सुबह के चार बज रहे थे। उस को धीरे-धीरे समझ आया कि‍ वह वि‍श्‍ववि‍द्यालय के हॉस्‍टल के अपने कमरे में ही है और पूरी तरह सुरक्षि‍त। 

       आशंकाओं का धुंआ छंटने लगा ।अशोक की नज़र सि‍रहाने लगी मेज पर पड़ी, जहॉं कई कि‍ताबें रखी थीं। डा. सी.एल. सोनकर द्वारा लि‍खि‍त ‘भारत में अस्‍पृश्‍यता- एक ऐति‍हासि‍क अध्‍ययन’, के. दामोदरन की ‘भारतीय चि‍न्‍तन परंपरा’ और आर.एस. शर्मा का ग्रंथ ‘शूद्रों का प्राचीन इति‍हास’। अब उसे ध्‍यान आया कि‍ रात वह डा. सोनकर की पुस्‍तक ही पढ़ रहा था और जाने कब नींद आ लगी। हाथ बढ़ाकर उस ने कि‍ताब खींच ली। कि‍ताब में बुकमार्क अटका हुआ था। कि‍ताब खोली तो वह बुकमार्क वहीं था, जहां वह रात सोने से पहले लगाया था। स्‍मृति‍ पर ज़ोर देने के बाद भी याद नहीं आया कि‍ कब बुकमार्क लगाया था उस ने। यह उस की पुरानी आदत है। क्‍या वाकई आदतें, अवचेतन अवस्‍था में भी जाग्रत रहती हैं?

       कि‍ताब का यह पांचवा अध्‍याय था- ‘मानव समुदायों में अस्‍पृश्‍य मानने की भावना का वि‍कास एवं वि‍स्‍तार( लगभग छठवीं शताब्‍दी से बारहवीं शताब्‍दी तक)’ – इसी को रात को पढ़ने मे तल्‍लीन था वह। जाने कि‍स अनचीन्‍ही सुरंग से यह सब उस के सपनों में कई बदरंग धब्‍बों में फैल गया, जैसे आसमान में काले-काले बादल फैल जाएं और अंधकार घि‍र जाए। ख्‍वाब जाने कि‍न पाताली सुरंगों से जुड़े होते हैं कि‍ जाने कब कि‍स सुरंग का मुंह खुलेगा और कौन ख्‍वाब में रूप बदल कर पहुँच जाएगा। कौन जान पाता है इसे? कि‍ कब और कि‍स राह पर चल कर कि‍स सुरंग में खो जाएगीं कामना, भीति‍, स्‍मृति‍यॉं और उमंग।  

       उसे पि‍ता याद आए1 उन की बातें याद आईं। तब वह लगभग सात वर्ष का ही था और पि‍ता लम्‍बे-लम्‍बे डग भर कर चलते हुए उसे अनेक तरह की कहानि‍यॉं सुनाते। कहानी के आखि‍र में उस का संदेश भी समझाते। लब्‍बोलुआब यही रहता कि‍ खूब परि‍श्रम करो, शि‍क्षि‍त बनो, धन अर्जि‍त करो और न्‍याय तथा सम्‍मान के लि‍ए संघर्ष करते रहो, परंतु ऐसे गहरे कभी न धंसों कि‍ सत्‍य का एक ही पक्ष दि‍खे। अपनी क्षमता के अनुसार ही पैठना। अपनी कमर का माप खुद को पता होना चाहि‍ए। अपने नाथ स्‍वयं बनो। वे बताते कि‍ डा. आम्‍बेडकर कहते थे कि‍ वीर पूजा पतन का मार्ग है। अशोक सुनता था बस, उस के पि‍ता अक्‍सर कहते और वह सि‍र्फ सुनता रहता, परंतु अर्थ की कुण्‍डली बहुत बाद में खुली और खुलती ही चली गई । मन की ये सुरंगे, कब, कैसे और कहॉं ख्‍वाबों से जाकर गठबंधन करती हैं,कोई नहीं जान पाता। बड़े से बड़ा ज्ञानी भी सि‍र्फ अटकलों में डूबता उतराता रह जाता है। 

       अशोक ने सोने की बहुत कोशि‍श की परंतु नींद जैसे कोसों दूर नि‍कल गई। वह जाने क्‍या-क्‍या सोचता रहा और एक घंटा जाने कब बि‍ना शोर के सरक गया, उठकर कमरे की बॉलकनी में गया । बाल्‍कनी पूरब की तरफ थी। पौ फटने को थी और आकाश में एक-दो जगह सूर्य के आने की पदचाप प्रकट होने लगी थी। अंधेरे की चादर के मुंह कई जगह से खुल गए और उन से रोशनि‍यॉं झांकने लगी।

       हॉस्‍टल में इस समय सोता पड़ा हुआ था। रात-रात भर पढ़ने वाले वि‍द्यार्थि‍यों का यही समय होता सोने का। अशोक भी शायद दो ही घंटे सो सका, रात के ड़ेढ़  बजने का तो उसे खूब अच्‍छे से ध्‍यान है। बाल्‍कनी में पन्‍द्रह-बीस मि‍नट वह बैठा रहा। इस बीच, उस ने एक लीटर के लगभग पानी यह सोचकर पी लि‍या कि‍ कम सोने की भरपाई ज्‍यादा पानी पीकर ही हो सकती है। हॉस्‍टल के कमरे में ताला लगाकर, वह कैम्‍पस में टहलने नि‍कल गया। छह बजे के आस-पास उस के मोबाइल फोन पर संदेश चमका- ‘सर के यहॉं मि‍लना पक्‍का है न, ठीक साढे सात, वहीं से साथ-साथ नि‍कलेंगे।‘ संदेश सुबोध सि‍हं का था। अशोक को अच्‍छे से याद था कि‍ आज उन्‍हें अपने शोध नि‍र्देशक के साथ उन के गॉंव जाना है परंतु वह क्‍या करे, गॉंव उसे बि‍ल्‍कुल अच्‍छे नहीं लगते। इस के बावजूद उस ने तुरंत जवाब लि‍खा- ‘बि‍ल्‍कुल’ । अपने माइक्रोमैक्‍स फोन को देखकर वह मुस्‍कुराया- ‘ गरीबों का ब्‍लैकबेरी।’ जब सुबोध सि‍हं ने एच टी सी कम्‍पनी का डि‍ज़ायर वन वी मॉडल लि‍या था, तब अशोक के फोन के लि‍ए यही कहा था उस ने हंसते हुए। 

       कमरे पर लौटकर वह जल्‍दी जल्‍दी नहाया। मैस से चाय लेकर कमरे में आया और आपातकाल के लि‍ए सुरक्षि‍त मठरि‍यों का भोग लगाया। ठीक साढ़े सात बजे वह अपने शोध नि‍र्देशक प्रो. अमर प्रताप सि‍हं के नि‍वास पर पहुँचा। सुबोध उस से भी पन्‍द्रह मि‍नट पहले आ चुका था। इति‍हास वि‍भाग का एक और वि‍द्यार्थी वहॉं उपस्‍थि‍त था।

       प्रो. सि‍हं को प्रणाम कर अशोक भी सोफे में धंस गया। कभी कि‍सी से पॉंव नहीं छुआते प्रो. सि‍हं, यह बात सभी को पता थी। वे वि‍ख्‍यात समाजवादी थे। उन्‍होंने जे.पी. के आंदोलन में हि‍स्‍सा लि‍या था, अपनी युवावस्‍था में। 

       अशोक की जि‍ज्ञासा को भांपते हुए सुबोध ने परि‍चय देते हुए कहा- ‘अशोक, ये धीरेन्‍द्र सि‍हं हैं, इति‍हास वि‍भाग में शोधार्थी हैं।’ फि‍र धीरेन्‍द्र की ओर मुखाति‍ब होते हुए कहा- ‘धीरेन्‍द्र जी, ये अशोक हैं, हमारे साथी, बहुत अच्‍छे कवि‍ और कहानीकार ।‘ कहकर पलभर सुबोध रूका, जैसे कुछ उठा-धर रहा हो, फि‍र बोला –‘ इधर इन की कहानि‍यों का भी एक संग्रह आ गया है... हि‍न्‍दी के सबसे बड़े प्रकाशन से, सत्‍ताईस साल की उम्र के तो ये पहले लेखक हैं जो वहॉं से छपे हैं।‘ 

       अशोक इस प्रशंसा से फूला नहीं समा रहा था परंतु उस ने गंभीर मुद्रा में कहा- ‘सुबोध तुम क्‍या कुछ कम अच्‍छे कहानीकार हो।‘ यह कहते हुए उस ने गुरूवर की ओर देखा तो पाया कि‍ उन की मुखमुद्रा कुछ असहज है। ‘यह सब तो सर के आर्शीवाद से मि‍ला है...इस में मेरा क्‍या है।‘ अशोक ने तुरंत जोड़ा । ‘ सर जि‍से चाहें, उसे बना दें, जहॉं से छपाना चाहें, वहॉं से छपा दें।‘ उस ने गुरू वंदना की और पाया कि‍ गुरूवर वापस अपने सहज और सौम्‍य व्‍यक्‍ति‍त्‍व में वि‍न्‍यस्‍त हो गए। उन्‍होंने पास पड़ी शेर छाप बीड़ी का बंडल उठाया और एक बीड़ी सुलगाकर होंठो में दबा ली। प्रो. सि‍हं घर पर होते हैं, तब वे शेर छाप बीड़ी ही पीते हैं। उन्‍हें कि‍सी और छाप की बीड़ी पीते, कभी कि‍सी वि‍द्यार्थी ने नहीं देखा। घर में उन की शेर छाप बीड़ी रहती और बाहर कमांडर की बि‍ना फि‍ल्‍टर की सि‍गरेट। इन्‍हें खरीदने के लि‍ए उन्‍हें कभी अपनी पेंट की जेब में हाथ नहीं डालना पड़ता। कोई न कोई छात्र आते वक्‍त इसे खरीद लाता और जो शोधार्थी कभी कुछ न लाते थे, उन ‘ढीठ’ और ‘कृतघ्‍न’ छात्रों को एक दो बार मौका देकर गुरू जी खुद कहते - ‘जाओ, पॉंच पेकेट बीड़ी और सि‍गरेट के ले आओ।’  इतना कह कर वे अपनी सारी जेबे खंगालने लगते, इतनी देर में छात्र खुद ही बोल उठता – ‘रहने दीजि‍ये सर, मैं ले आता हूँ।’ इस तरह वे पि‍छला हि‍साब वसूल करते।

       अशोक की गुरू वंदना अब भी चल रही थी। गुरूवर आराम से कश खींच रहे थे। एक नि‍श्‍चि‍त अंतराल के बाद उन्‍होंने अशोक को रोक दि‍या- ‘नहीं यह सब तो तुमने लि‍खा है... तुम्‍हारी जगह मैंने तो लि‍खा नहीं, तुम न लि‍खते तो मैं कि‍स से कहता कि‍ छाप दो।’ उन्‍होंने एक कश लि‍या और धीरेन्‍द्र की तरफ देखकर कहा-  ‘ दलि‍त लेखन में अशोक ने अपनी अच्‍छी जगह बनाई है।’  प्रो. सि‍हं ने जैसे अपना इलाका अलग कर लि‍या। इस के बाद गुरूवर एक शब्‍द न बोले। 

       ठीक इसी समय ड्राईवर ने कमरे में घुसते हुए प्रो. अमर प्रताप सि‍हं को सूचना दी- ‘ कार तैयार है।’ 

       ‘चलें।’ प्रो. सि‍हं ने सुबोध की तरफ देखा।

       यह सुन कर तीनों शोधार्थी सावधान मुद्रा में खड़े हो गए। 

       अंदर के कमरे की ओर मुंह कर के प्रो. सि‍हं ने अपनी पत्‍नी को नि‍कलने की सूचना दी- ‘ हम चल रहे हैं अब।’  उनकी हां-हूं या आने का इंतजार कि‍ए बगैर वे लम्‍बे-लम्‍बे कदम रखते हुए दरवाजे की ओर बढ़ गए। सुबोध ने झट से बढ़ कर सोफे पर रखा उन का बैग उठा लि‍या।

       बाहर गेट पर फॉक्‍सवेगन कम्‍पनी की सुनहरे रंग की वेन्‍टो कार खड़ी थी। दरवाजा खोले ड्राईवर उन का इंतजार कर रहा था । प्रो. अमरप्रताप सि‍हं, ड्राईवर के साथ वाली सीट पर आगे बैठ गए । तीनों शोधार्थी पीछे वाली सीट पर बैठ गए। प्रो. सि‍हं जब अकेले होते, तब ही कार की पि‍छली सीट पर बैठते। ’भगतसि‍हं जी हम कब तक गॉंव पहुँच जाएंगे।’  ड्राईवर का नाम लेकर धीरेन्‍द्र सि‍हं ने पूछा। 

       ‘अभी तो सुबह का वक्‍त है, रोड़ खाली मि‍लेगा, तीन घंटे में पहुंच जाएंगे।’ ड्राईवर ने संक्षि‍प्‍त सा जवाब दि‍या।

       तीनों शोधार्थी पहली बार प्रो. अमर प्रताप सि‍हं के गॉव जा रहे थे। काफी उत्‍साह में भी थे, तरह- तरह के वि‍षयों पर बातें होती रहीं। ’आप का वि‍षय क्‍या है अशोक जी?’ धीरेन्‍द्र ने पूछा। 

       ‘समकालीन उपन्‍यास में शहरी और ग्रामीण जीवन की वि‍संगति‍यॉं...’ 

       ‘अच्‍छा वि‍षय लि‍या आप ने पर आजकल तो दलि‍त वि‍मर्श का हल्‍ला है हर तरफ।’  धीरेन्‍द्र ने तपाक से कहा। ‘हॉं ...पर मेरी रूचि‍ इस में अधि‍क थी और रही बात हल्‍ला होने की तो वह तो अन्‍य दूसरे वि‍षयों का भी है।’  अशोक ने सावधान होते हुए जवाब दि‍या। फि‍र खुद से ही पूछा कि‍ क्‍यों वह बेवजह सावधान हो रहा है। इस वि‍चार ने उसे सहजता दी। 

       ‘क्‍या अशोक भाई, एक अच्‍छा सा फोन तो रखा करि‍ये, क्‍या इसी पुराने पर टि‍के हैं।’  धीरेन्‍द्र ने बात का रूख दूसरी ओर कि‍या। धीरेन्‍द्र के हाथ में सोनी कम्‍पनी का एक्‍सपीरि‍या मॉडल चमचमा रहा था। अशोक मुस्‍कुराते हुए बोला- ‘भाई अभी मेरे पास इतने पैसे नहीं हैं ।’  

       ‘क्‍यों, स्‍कॉलरशि‍प का क्‍या करते हो यार?’ इस बार सुबोध ने बीच में घुसते हुए सवाल कि‍या। ‘धीरेन्‍द्र ठीक कहते हो तुम, मैं भी कई बार कह चुका हूँ...क्‍या टि‍पि‍कल हि‍न्‍दी वाले बने रहते हो...दीन हीन और लस्‍त पस्‍त।’  

       प्रो. सि‍हं ने हस्‍तक्षेप कि‍या –‘ ठीक है, खरीद लेगा कभी ...क्‍यों उस के पीछे पड़ रहे हो?’ इस हस्‍तक्षेप ने हतोत्‍साहि‍त कि‍या दोनों को। ’सर आप के पास तो ब्‍लैकबैरी है न?’ धीरेन्‍द्र ने सीट पर आगे को खि‍सकते हुए पूछा। 

       प्रो. अमर प्रताप सि‍हं ने थोड़ी सी गर्दन मोड़ी, जि‍से सि‍हांवलोकन कहा जाता है- ‘नहीं, वह मैंने कि‍सी को दे दि‍या, दो साल पुराना हो गया था, अभी हाल ही में, सेमसंग का नोट टू मॉडल ले लि‍या।’ 

       ‘ कैसा एक्‍सपीरि‍यंस है सर आप का?’ धीरेन्‍द्र बात चाहे जो भी करता परंतु वह दि‍खता गंभीर ही था। हंसता तो वह शायद था ही नहीं। 

       प्रो. सि‍हं ने बि‍ना गर्दन मोड़े ही जवाब दि‍या- ‘ठीक है बस काम चल जाता है...अब ये हमारा क्षेत्र नहीं रहा भाई, तुम जैसे जवान बच्‍चों का है, इसे तुम संभालो ।’  

       ‘आजकल आप क्‍या पढ़ रहे हैं अशोक जी ?’  धीरेन्‍द्र ने पीछे को खि‍सकते हुए कहा। 

       अशोक अब तक समझ चुका था कि‍ धीरेन्‍द्र काफी बातूनी है। ’इधर डा. सी.एल.सोनकर की एक पुस्‍तक पढ़ रहा हूँ।’ 

       ‘कौन सी पुस्‍तक, सोनकर जी भी दलि‍त लेखक हैं।’  उस के स्‍वर में जि‍ज्ञासा थी, कोई उपेक्षा या व्‍यंग्‍य नहीं।

       ‘नहीं, ये सोनकर जी दलि‍त लेखन नहीं करते, इन्‍होंने एक बहुत ही महत्‍वपूर्ण कि‍ताब लि‍खी है, इति‍हास के वि‍द्वान हैं।’  यह सब बताते हुए उस ने पुस्‍तक के नाम और वि‍षयवस्‍तु पर भी रोशनी डाली। 

       ‘कमाल है, हम इति‍हास के वि‍द्यार्थी हैं और हमें ही नहीं पता कि‍ ये महत्‍वपूर्ण कि‍ताब कब आ गई?’ कह कर वह आशयपूर्ण ढंग से मुस्‍कुराया। 

       अशोक इस तरह की मुस्‍कुराहटों का काफी अभ्‍यस्‍त हो गया है । उस ने इसे नज़रअंदाज कर दि‍या। हर जगह ऐसे मूर्खो से लड़ना व्‍यर्थ होता है, जब ये हारने लगते हैं तो इसी कुटि‍ल मुस्‍कुराहट से मारने की कोशि‍श करते हैं।

       ‘शायद आप को यह भी नहीं पता होगा कि‍ इस पुस्‍तक में न केवल रोमि‍ला जी ने बल्‍कि‍ अनेक वि‍द्वानों और न्‍यायाधीशों ने अपने वि‍चार व्‍यक्‍त कि‍ए हैं। इस क्षेत्र में उन्‍होंने इसे अभूतपूर्व काम माना है।’ 

       रोमि‍ला थापर का नाम सुन कर धीरेन्‍द्र ठंडा पड़ गया। अपनी झेंप मि‍टाने के लि‍ए वह सुबोध की तरफ लपका- ‘आजकल तुम क्‍या लि‍ख रहे हो सुबोध?’ 

       ‘एक कहानी आई है अभी हाल ही में, तापमान पत्रि‍का के युवा वि‍शेषांक में, दलि‍त वि‍षय पर है, ‘गाड़ी कब तक आएगी भाई’ नाम से । कहानी पर आलोचना की एक कि‍ताब की योजना भी दि‍माग में है।’ फि‍र सुबोध अपनी एक-एक कहानी की वि‍षयवस्‍तु के बारे में बताने लगा । जब यह समाप्‍त हो गया, तब वह कहानी और कवि‍ताओं की रचना-प्रक्रि‍या और बीजवपन के प्रसंग सुनाने लगा। 

       काफी देर तक सुनने के बाद आखि‍र प्रो. सि‍हं ने सि‍हांवलोकन करते हुए टोक ही दि‍या- ‘सुबोध, अपनी कहानि‍यों और कवि‍ताओं पर इतना मुखर होना अच्‍छा नहीं...ये लेखक की कमजोरी मानी जाती है।’ 

       इतना कह कर वे फि‍र आगे देखने लगे। 

       गाड़ी अब एक बड़ी पुरानी हवेलीनुमा संरचना के सामने आ खड़ी हुई। गाड़ी रूकते ही दो आदमी दौड़ते हुए आए और प्रो. सि‍हं के पांवों में झुक गए। एक तीसरा आदमी भी,पीछे-पीछे, धीमे कदमों से चलता हुआ आया और नमस्‍कार कर एक तरफ खड़ा हो गया। प्रो. सि‍हं ने उसी आदमी की तरफ देख कर कहा- ‘बहुत शि‍कायत आ रही हैं तुम्‍हारी मलकाराम।’ लम्‍बे-लम्‍बे कदम रखते हुए प्रो. सि‍हं हवेली के भीतर चले गए। उन दोनों आदमि‍यों में से एक ने गाड़ी में से बैग नि‍काल कर उठा लि‍या और दूसरा इन तीनों को भीतर आने का रास्‍ता दि‍खाने लगा। 

       ‘शि‍कायत आ रही है तो दूर करो हमारी शि‍कायत, हम कोई खैरात कोई मांग रहे है, अपना हक मांग रहे हैं।’ यह मलकाराम की भुनभुनाहट थी। मलकाराम सांवले रंग का गठीला अधेड़ आदमी था। उस की नाक काफी फैली हुई थी।

       ‘अबे तू मार खा के ही मानेगा क्‍या, चुप रह बस।’ रास्‍ता दि‍खाने वाले आदमी ने रूक कर मलकाराम से कहा। इस आदमी का चेहरा-मोहरा, मलकाराम से काफी मि‍लता-जुलता सा था।

       ‘तू भीतर जा कर इन के चरण चाट ...कुत्‍ता कहीं का।’ मलकाराम ने जमीन पर थूकते हुए कहा। ’आप तीनों इधर जा आइए।’ उस दूसरे आदमी ने रास्‍ता दि‍खाते हुए कहा। उन तीनों को एक कमरे तक बाइज्‍ज़त पहुँचा कर वह जरूरी बातों की जानकारी देने लगा कि‍ जैसे बाथरूम कहॉं है और खाना खाने कहॉं जाना है और कि‍तनी देर में। ‘भोजन के बाद आप लोगों को मालि‍क के साथ खेतों की तरफ जाना है, तब तक आप आराम कर लो।’ सब कह कर वह लौट गया, यंत्रवत। 

       यह कमरा काफी बड़ा था। उस में एक पलंग और दो चारपाईयॉं बि‍छाई हुई थीं। धीरेन्‍द्र बढ़कर पलंग पर लेट गया । ठीक उसी के सामने कूलर लगा था, हालांकि‍ इस सुहावने मौसम में इस की कोई जरूरत नहीं पड़नी थी। अशोक और सुबोध ने भी एक एक चारपाई पर कब्‍जा कि‍या और लम्‍बे हो गए। 

       अभी मुश्‍कि‍ल से दस-पन्‍द्रह मि‍नट ही बीते थे कि‍ दरवाजे पर खटखटाहट हुई। 

       ‘कौन है वहॉं, अंदर आ जाओ, दरवाजा खुला है।’ धीरेन्‍द्र ने कड़क आवाज में कहा। 

       ‘क्‍या मैं सुबोध सि‍हं जी से बात कर सकती हूँ।’ ये कि‍सी युवती का स्‍वर था। तीनों को जैसे बि‍जली का नंगा तार छू गया। वे झटके से उठ खडे हुए। धीरेन्‍द्र लपक कर दरवाजे पर पहुँचा और दरवाजे के पल्‍ले खोल दि‍ए। सामने एक नवयुवती खड़ी थी, गौरवर्णा, ऊंचा कद, लम्‍बी नाक और चौड़ा दि‍प-दि‍प करता माथा। 

       ‘आइए आइए, ये हैं सुबोध जी और मैं धीरेन्‍द्र सि‍हं शेखावत, मैं हि‍स्‍ट्री में पीएच- डी कर रहा हूँ, हम लोग मि‍त्र हैं, वैसे कहें तो बि‍रादरी भाई।’ धीरेन्‍द्र अपने स्‍वभाव के अनुसार बोलता ही चला गया। उस ने कमरे में साथ खड़े अशोक को जैसे भुला ही दि‍या।  

       नवयुवती ज्‍यों ही पास आई अशोक बुदबुदाया- ‘ये तो एकदम सपने वाली जैसी लड़की है। पर इस की मांग में सि‍न्‍दूर नहीं है..... और वह हमारा सुबोध भरेगा।’  सोचकर वह मुस्‍कुरा गया। ‘मैंने आप की एक कहानी ‘दि‍नचर्या’ पढ़ी थी, देशातंर पत्रि‍का में ...बहुत अच्‍छी थी। उस में जो फोटो छपा था, उस में तो काफी अलग दि‍ख रहे थे आप।’ उस ने शरमाते हुए कहा। 

       ‘क्‍या बहुत खराब ?’ सुबोध ने मज़ाक कि‍या। 

       ‘नहीं नहीं काफी बड़ी उम्र के जैसे...।’ अचकचा गई वह। 

       ‘आप ने मेरी कवि‍ताएं नहीं पढ़ी?’ सुबोध से रहा नही गया। 

       ‘नहीं कवि‍ताएं तो नहीं पढ़ी, पर कहानी पढ़कर मैं आप की फैन हो गयी।’  धीरेन्‍द्र से ये आकार लेता इन्‍द्रधनुष देखा न गया और वह कूद पड़ा समर में-     ‘आप क्‍या करती है यहॉं?’ 

       ‘मैं हि‍न्‍दी साहि‍त्‍य में एम.ए. कर रही हूँ, अभी फाइनल की परीक्षाएं होनी हैं... ।’ कहते हुए उस ने दोबारा सुबोध की ओर देखा – ‘प्रो. सि‍हं हमारे मौसाजी हैं। उन्‍हीं की प्रेरणा से इस ओर बढ़ी हूँ। आजकल छुटि‍टयॉं थीं, इसलि‍ए यहॉं चली आई। अब रि‍सर्च के लि‍ए तो दि‍ल्‍ली ही आना है।आप तो जानते हैं कस्‍बाई कॉलेजों की हालत और लड़कि‍यों की जिन्‍दगी...।’ उस ने भवि‍ष्‍य की योजना स्‍पष्‍ट की। 

       ‘वाह वाह ये तो बहुत अच्‍छी बात हुई। आप को आना ही चाहि‍ए दि‍ल्‍ली ... दि‍ल्‍ली को ध्‍वस्‍त कि‍ए बि‍ना सफलता नहीं मि‍लती और आप जैसी प्रति‍भाशाली छात्रा को पाकर तो वि‍श्‍ववि‍द्यालय कृतार्थ होगा।’ धीरेन्‍द्र ने बहुत ही मुलायम स्‍वर में तान उठायी। ‘ फि‍र हम भी वहॉं हैं। मेरे पास तो अपनी कार भी है वहॉं। सुबोध मेरे छोटे भाई जैसा है, इसे मैंने कई बार समझाया कि‍ मोटर साईकि‍ल से दि‍ल्‍ली में काम नहीं चलता, बहुत तेज सर्दी, बहुत तेज गर्मी और थोड़ी सी बारि‍श में ही तर-बतर। पर इस ने अब तक अपनी खटारा मोटर साईकि‍ल को नहीं छोड़ा।’  धीरेन्‍द्र का यह रूप, अब तक के सभी रूपों से अलग और अनपेक्षि‍त था। आगंतुका की आब ने जैसे उसे धुरी से हटा दि‍या था। 

       ‘ सुबोध जी तो रचनाकार हैं, रचनाकार तो ऐसे ही होते हैं, मस्‍तमौला, रमते जोगी।’ वह चहक कर बोली। सुबोध जो अब तक धीरेन्‍द्र के वाक् कौशल के नीचे दब सा गया था, इस सहारे से उबर गया। उस ने तपाक से पूछा- ‘ आप का नाम जान सकता हूँ?’ 

       ‘अभि‍लाषा सि‍हं। वह सकुचा गई। ‘मैं तो नर्वस हो रही थी, आप से मि‍लने से पहले, परंतु आप तो बहुत सहज और सरल हैं, इतने बड़े लेखक होकर भी कोई अभि‍मान नहीं।’  

       और दि‍न होते तो कि‍सी पाठि‍का की इतनी प्रशंसा से वह पागल सा हो जाता परंतु वह अपने को यथासंभव संयत कि‍ये रहा। अभी रास्‍ते में मि‍ली गुरूवर की नसीहत उसे याद थी। 

       अशोक दोनों के अखाड़े के रास्‍ते से बाहर खडा था। यह सब दॉंवपेंच देख कर बस एक बार उस के मन में आया कि‍ आखि‍र वह बाहर क्‍यों है ?’

       ‘ये हमारे मि‍त्र हैं अशोक कुमार...।’ सुबोध ने जैसे आगे की राह पाई। ‘बहुत अच्‍छे लेखक हैं, मुझ से भी काफी पहले से लि‍ख रहे हैं।’ सुबोध ने अशोक का परि‍चय कराया। ’नमस्‍कार।’ अभि‍लाषा ने हाथ जोड़ कर कहा। ‘अच्‍छा आप भी लेखक हैं।’  

       ‘आप ने इन का कुछ नहीं पढ़ा?’ धीरेन्‍द्र ने झट आगे बढ़ कर पूछा। ‘ माफी चाहती हूँ, पढ़ाई की वजह से बहुत कम समय मि‍ल पाता है, इसलि‍ए ध्‍यान नहीं जा सका।’  

       ‘कौन-कौन सी मैगजीन पढ़ती हैं आप?’ सुबोध ने बात बदल दी और चारपाई की तरफ बैठने का इशारा कि‍या। अभि‍लाषा बि‍ना कि‍सी ना-नुकुर के बैठ गई। सुबोध अपने अनुरोध के अति‍शीघ्र अनुपालन से आश्‍वस्‍त हो गया कि‍ धीरेन्‍द्र अब कुछ नहीं बि‍गाड़ सकता और अशोक से तो कोई खतरा ही नहीं है। ‘जो आसानी से मि‍ल जाती है, जैसे देशान्‍तर, अभ्‍युदय, तापमान आदि‍।’  अभि‍लाषा ने याद करते हुए पत्रि‍काओं के नाम गि‍नाए। 

       ‘तापमान में अभी पीछे मेरी एक कहानी...।’  

       ‘पढ़ी थी, हॉं हॉं क्‍या नाम था उस का, देखि‍ए आप न बताइए, मैं बताती हूँ...1’ वह कुछ पल याद करने का अभि‍नय करने लगी।‘ मैं आप की सभी कहानि‍यॉं ढूंढ ढूंढ कर पढ़ती हूँ... हॉं ‘गाड़ी कब तक आएगी भाई’  नाम से छपी थी। दलि‍त फैशन के हि‍साब से लि‍खी गई थी परंतु बहुत मार्मि‍क कहानी थी।’  

       ‘फैशन’ शब्‍द अशोक को चुभ गया पर वह कुछ नहीं बोला। ‘आपको अच्‍छी लगी... शुक्रि‍या।’ सुबोध का मन बल्‍लि‍यों उछलने लगा पर वह प्रकटत: गंभीर ही बना रहा।  

       ‘हॉ पर मुझे आनंद ‘दि‍नचर्या’ कहानी में आया, युवावस्‍था के कस्‍बाई प्रेम का क्‍या खूब चि‍त्रण कि‍या है आप ने। पूरी दि‍नचर्या जैसे प्रेम की प्रार्थना बन गई है, एक पवि‍त्र प्रेमचर्या, कैसे सोच लेते हैं आप ऐसी छोटी छोटी बातें। दलि‍त कहानि‍यों में यह बात कहॉं, वहॉं तो हमें बस ताने, उलाहने और गालि‍यॉं ही सुनने को मि‍लती हैं। हालांकि‍ आप की कहानी में तटस्‍थता और धीरज बहुत है परंतु आमतौर पर दलि‍त लेखक भयानक अधीरता के शि‍कार हैं।’ अभि‍लाषा उत्‍साह से बोली।  यह सुनकर अशोक आवेश में आ गया और अब उस से चुप न रहा गया- ‘आप को तो कहानि‍यों में यह सब सुनने में बुरा लग रहा है परंतु दलि‍त होना तो जीवन और समाज में ही हरकदम पर गाली बना दि‍या गया है। जि‍से आप को पढ़ने में घि‍न आती है, उस जि‍न्‍दगी को वो जीते हैं। इस बारे में आप क्‍या कहेंगी?’ कहने को तो अशोक कह गया, परंतु अब सोचने लगा कि‍ क्‍यों वह कुछ देर चुप न रह गया। कम से कम ये बदमज़गी तो न पैदा होती। लेकि‍न तुरंत ही दूसरा वि‍चार मन में उठ बैठा कि‍ आखि‍र कब तक हम ही इन की बदमज़गी का खयाल करते रहेंगे? और इस वि‍चार ने प्रबलता से पहले वि‍चार को चारों खाने चि‍त्‍त कर दि‍या। ‘यह बात, तुम ठीक कहते हो अशोक, मैं तुम से शत–प्रति‍शत सहमत हूँ।’ धीरेन्‍द्र ने बढ़ कर नया पाला चुना। ‘कोई भी सहमत होगा, यह तो उचि‍त और न्‍यायसंगत बात है।’ सुबोध ने भी पैंतरा बदला। ‘और आखि‍र अशोक का एक दलि‍त लेखक के तौर पर फ़र्ज़ भी बनता है कि‍ वह हर मोर्चे पर इस की आवाज़ उठाए।’ सुबोध ने अभि‍लाषा को सूचना दी तथा अशोक और धीरेन्‍द्र के हौंसले पस्‍त कि‍ए। 
परंतु यह जरूर हुआ कि‍ इस के बाद बातचीत पटरी पर न आ सकी। चुप्‍पी उन के बीच चहलकदमी करने लगी। ‘मैं फि‍र मि‍लती हूँ सुबोधजी।’ उठकर अभि‍लाषा चलने को हुई, फि‍र पलभर को रूक कर पलटी और अशोक को ‘सॉरी’ कह कर कमरे से नि‍कल गई। सुबोध वहीं नहीं रूका । अभि‍लाषा के पीछे पीछे ही बाहर नि‍कल गया।

       ‘ देखा अशोक जी, साला लौंडि‍या देखते ही लटटू हो गया ।’ धीरेन्‍द्र ने अपनी भड़ास नि‍काली परंतु अशोक की कोई प्रति‍क्रि‍या न देख आगे जोड़ा – ‘ ये हि‍न्‍दी वाले भयानक जाति‍वादी और पुराणपंथी हैं, जब सारा भारत सुधर जाएगा, तब ये सुधार केन्‍द्र में अपना पंजीकरण कराने जाएंगे।’ कह कर उस ने ठहाका लगाया । अशोक ने इस पर भी कोई प्रत्‍युतर न दि‍या और बाथरूम में घुस गया। 

       ‘चूति‍या’... । बाथरूम में घुसते हुए उस ने धीरेन्‍द्र की भुनभुनाहट सुनी।

       अशोक सोचने लगा कि‍ आखि‍र ये लोग हमारे बारे में ऐसा क्‍यों सोचते हैं? हमारे दुखों की तरफ इनकी नज़र क्‍यों नहीं जाती?क्‍यों नहीं सोचते ये कि‍ दुनि‍या के सामने, दर्प से, इन की तरह, हम अपनी जाति‍ नहीं बता पाते? शास्‍त्रीय संगीत और नृत्‍य, अभि‍नय और गैर सरकारी संस्‍थाएं, ऐसी तमाम जगह हैं, जहॉं जाति‍ बता कर हम आगे नहीं बढ़ सकते । हमें अपनी जाति‍ छि‍पानी पड़ती है और भेद खुलने के भय से सदा आक्रांत रहना होता है, जैसे इस में हमारा कोई अपराध है। जब कि‍ हमारी कोई गलती नहीं, हम से पूछा नहीं गया कि‍ कि‍स जाति‍ या धर्म में जाओगे। यह बस एक संयोग है। मात्र इसी संयोग के कारण ये ऐसे इठलाते हैं, जब कि‍ इस में इन की कोई अर्जि‍त उपलब्‍धि‍ या योग्‍यता नहीं है। सि‍र्फ एक संयोग कि‍ हम यहॉं जन्‍मे और वे वहॉं... और इस का ऐसा मूढ़ अभि‍मान। सदा के सेवक , नि‍चले दर्जे के नौकर- बस यही छवि‍ दर्ज है इन के दि‍मागों में, पीढ़ी दर पीढ़ी, इसीलि‍ए ये अब भी वहीं से देखते हैं हमें और हमेशा वहीं देखना चाहते हैं... सूत भर भी ऊपर नहीं। इस पुरानी छवि‍ से ही ये आज भी हमें गंदा,  अयोग्‍य और असभ्‍य समझ कर तौल रहे हैं। धारा के प्रबल प्रवाह में वह पीले पत्‍ते की तरह बहता चला गया। तभी एक वि‍परीत धार ने उस की दि‍शा मोड़ दी। 

       इन का भी क्‍या दोष... इन के माता-पि‍ता, रि‍श्‍तेदार और यहॉं की राजनीति‍ चौबीसों घंटे इन्‍हें यही सब सि‍खाते हैं कि‍ उन से दूर रहो, कि‍ इन से बचो, कि‍ इन के आरक्षण ने तुम्‍हारे रोजगार खा लि‍ए हैं।  ये भी अपना वर्चस्‍व और वजूद बनाए रखना चाहते हैं। कौन नही चाहता? नहीं चाहते कि‍ इन के बाग-बगीचे, पद-पदवि‍यॉं चले जाएं और इन्‍हें इन के कल तक के नौकर-चाकर ऑंख दि‍खा कर डांटें कि‍ हम तुम से कि‍स तरह छोटे हैं। ये उन के नीचे बैठने से डरते हैं। ये यह भी अच्‍छी तरह से जानते हैं कि‍ इन की आबादी इस देश में कि‍तनी कम है और वंचि‍तों और पि‍छड़ों की कई गुना ज्‍यादा। सच ये भी तो भवि‍ष्‍य के भय से सि‍हरते हैं....पर....परन्‍तु कहीं तो कोई रास्‍ता होगा , ऐसा रास्‍ता जो आमोखास के लि‍ए बराबर हो, जहॉं न सवर्णो की पेशवाई हो और न पि‍छड़ों और वंचि‍तों की अराजकता। बहुत देर तक अशोक वि‍चारों के भंवर में डूबता-उतराता रहा। 

       भोजन के लि‍ए बुलाने वही आदमी आया। तीनों को लि‍ए, वह उस बड़े कमरे में पहुँचा, जहॉं प्रो. सि‍हं और अभि‍लाषा पहले से बैठे हुए थे। प्रो. सि‍हं अपनी वेशभूषा बदल चुके थे। अब पेंट कमीज की जगह झकाझक सफेद धोती कुर्ते ने ले ली थी । काफी भव्‍य डाइनिग टेबुल और कुर्सि‍यॉं थी। डाइनि‍ग टेबुल पर खाना खाने का अभ्‍यास अशोक को हॉस्‍टल में रहने के दौरान ही हुआ, हालांकि‍ शुरू में बहुत अटपटा लगा परंतु अच्‍छा लगता था। 

       ‘ ये भी लो अशोक, ये बटेर का गोश्‍त है।’ प्रो. सि‍हं ने सामने खड़े उस व्‍यक्‍ति‍ की तरफ देखा। उस ने बढ़कर अशोक के लि‍ए एक बड़ी कटोरी में सालन डाल दि‍या। 

       ‘क्‍या तुम ने पहले कभी खाई है बटेर?’ धीरेन्‍द्र ने रोटी का कौर तोड़ते हुए सवाल कि‍या। ‘सर, हमारे यहॉं अक्‍सर बनता है।’ सुबोध ने अशोक के जवाब का इंतजार कि‍ए बि‍ना अपनी बात घुसाई। 

       ‘काफी स्‍वादि‍ष्‍ट है।’ अशोक ने सालन खाते हुए सि‍र्फ इतना कहा। 

       ‘यहॉं आसपास कहीं नहीं मि‍लती... ये ही खरीद लाता है, जब मैं आता हूँ, बहुत महंगी है और मुश्‍कि‍ल से मि‍लती है।’ उन्‍होंने उसी व्‍यक्‍ति‍ की तरफ देखा। ‘मुझे बहुत प्रेम करता है, बचपन से यहीं है, मेरे पास ...।’ 
फि‍र अचानक ही अभि‍लाषा से मुखाति‍ब हो कर बोले-‘तुम भूखी मत रह जाना, हमारी गप्‍पों के बीच।’ एक बार फि‍र उन का पेडुलम अशोक की तरफ आया- ‘अशोक तुम दलि‍त कहानी पर आलोचना की एक पुस्‍तक संपादि‍त करो।’ हडडी पर लगे मांस को नोचकर उन्‍होंने हडडी साथ में रखी खाली कटोरी में फेंकी। ‘सुबोध के साथ मि‍ल कर इसे करो।’ 

       सुबोध ने आनाकानी के स्‍वर में तुरंत जवाब दि‍या- ‘सर मैं अभी कुछ नहीं कर पाऊंगा, मैं पहले ही शोध कार्य से दबा हूँ।’ 

       ‘इस पर नहीं करना तो युवा कहानी पर मि‍ल कर कुछ बनाओ।’ प्रो. सि‍हं ने दूसरी हड्डी भी कटोरी में फेंकी। साठ की इस उम्र में भी कि‍सी युवा व्‍यक्‍ति‍ से अच्‍छी खुराक थी, प्रो. सि‍हं की। ‘नहीं सर अभी मैं कुछ और नहीं कर सकूंगा।’ सुबोध ने उम्‍मीद के उलट, बहुत ही दृढ़ स्‍वर में अपने गुरू के आदेश को ठुकरा दि‍या। अशोक कुछ न बोला। धीरेन्‍द्र मंद मंद मुस्‍कुराता रहा। अभि‍लाषा नीचे मुंह कि‍ए खाती रही। प्रो. सि‍हं ने सि‍र्फ एक बार ऑंख उठा कर सुबोध की तरफ देखा और ‘हूं’ कर के फि‍र भोजन करने में तल्‍लीन हो गए। अशोक ने कुछ भी न कहा, परंतु उस का भोजन करना भारी हो गया। 

       भोजन करने के पश्‍चात् सब लोग खेतों की तरफ चले। अभि‍लाषा और सुबोध पीछे-पीछे चल रहे थे। दोनों इस तरह बातें करने में व्‍यस्‍त थे कि‍ जैसे बरसों पुरानी जान-पहचान हो। 

       खेत के सब कामों से नि‍पटकर प्रो. सि‍हं, वहीं बने एक दोमंज़ि‍ले मकान की खुली छत पर बैठ गए और अशोक को भी वहीं बुला लि‍या। ‘ये देखो अशोक, यहॉं से वहॉं तक सब हमारी जमीने हैं।’ अशोक की नजर दूर तक फैली सरसों के फूलों में उलझ गई। 

       ‘इस पूरे इलाके में सब हमारी ही जमीने हैं। हम ने ये जमीने अपने हलवाहों को दे रखी हैं , कई पीढ़ि‍यों से ये हमारे साथ हैं। हमारे हलवाहे खुश हैं। वे हमें खुश रखते हैं। वो कभी अपने मन में हमारी जमीनों के लि‍ए लालच नहीं लाते। हम भी उन्‍हें बच्‍चों की तरह मानते हैं।’  ’जी सर।’ अशोक ने साथ दि‍या। हालांकि‍ ‘बच्‍चों’ शब्‍द के लि‍ए उस के मन में ‘ ‘ ‘प्रजा’ शब्‍द आया। ‘पर ...वो मलकाराम..।’ दांत पीसते हुए प्रो. सि‍हं बोले- ‘उसे यहॉं की राजनीति‍ की हवा लग गई है। संयोग से, तुम्‍हारी ही जाति‍ का है, वफादारी, ईमानदारी और वि‍नम्रता सब खत्‍म ... बराबरी तो हम देते ही हैं पर लगता है कि‍ उस हरामखोर को इज्‍जत रास नहीं आई।’  

       ‘यह तो बहुत गलत बात है सर... जब सब कुछ संतुलन से चल रहा हो, तब यह सब ठीक नहीं ।’ बात को और अधि‍क गहराई से जानने के उपक्रम में उन के सुर में उस ने सुर मि‍लाया । 

       इस समर्थन का अपेक्षि‍त प्रभाव पड़ा। प्रो. सि‍हं के चेहरे पर आश्‍वस्‍ति‍ और आह्लाद पसर गया। ‘हॉं, वही तो पर अब उस मूर्ख को कौन समझाए... क्‍या तुम समझाओगे उसे, सुना है आजकल यह कहता फि‍रता है कि‍ ठाकुरों के दि‍न अब गए, वोट के राज में जनता का राज होता है, बताओ कैसी नई नई बातें सीख गया है।’ प्रो. सि‍हं की आवाज में चि‍न्‍ता थी। इस समय वे गॉंव के एक ठेठ जमींदार की ही तरह दि‍ख रहे थे। उन का प्रोफेसर व्‍यक्‍ति‍त्‍व वि‍लीन हो गया था इस रूप में । मजदूरों, कि‍सानों और अंति‍म आदमी के हकों की बात करने वाले प्रख्‍यात समाजवादी आलोचक प्रो. अमर प्रताप सि‍हं , अनपढ़ ठाकुर अमर प्रताप सि‍हं की तरह बातें कर रहे थे। क्‍या यह गॉव की मि‍टटी, पानी और हवा के कीटाणुओं का असर है?

       ‘वो भूल गया है शायद कि‍ ठकुराई क्‍या होती है। हमें हमारे नौकरों ने बताया तो हमें हैरानी हुई कि‍ चींटी के कैसे पर नि‍कल आए। वह जो लड़का बटेर पकड़ कर लाता है न, वह उस का चचेरा भाई है, उसी ने हमें आगाह कि‍या , बताओ उसे वो हमारा कुत्‍ता कहता है, वफादार होना क्‍या कुता होना होता है?’ उन के नथुने फड़क गए। ‘नमक हराम कहीं का, कमीना। सोचता है कि‍ मैं पढ़ा लि‍खा हूँ तो कायर हूँ।’ 

       अशोक ने एक भी शब्‍द नहीं कहा , न हॉं न हूँ। उस की आंखों में वह फैली नाक वाला युवक तैर गया, जि‍स का चेहरा-मोहरा मलकाराम जैसा ही था।             ‘इसीलि‍ए मैंने सोचा था कि‍ इस बार तुम्‍हें साथ लि‍या जाए ताकि‍ उस मलकाराम को तुम मेरे बारे में समझाओ। क्‍या तुम्‍हें कभी मेरे व्‍यवहार से लगा कि‍ मैं कहीं का सामंत हूँ?’ उन की आवाज में मायूसी थी। उन्‍होंने कमांडर सि‍गरेट के पैकेट से सि‍गरेट नि‍काल कर जला ली और एक लम्‍बा कश लि‍या । यह बात सही थी। अशोक अच्‍छे से जानता था कि‍ न केवल प्रो. सि‍हं बल्‍कि‍ उन के परि‍वार के अन्‍य सदस्‍य भी जाति‍ के आधार पर कि‍सी से छुआछूत नहीं करते थे। उन के घर अक्‍सर खाना पीना चला करता और अनेक दलि‍त और पि‍छड़ी जाति‍यों के अध्‍यापक और वि‍द्यार्थी शामि‍ल रहते। 

       ‘मेरे समझाने से वो मानेंगे?’ अशोक दुवि‍धा में फंस गया पर तभी उसे अपनी पीएच. डी का काम याद आ गया। 

       ‘शायद मान जाए, तुम उच्‍च शि‍क्षि‍त हो, उसी की जाति‍ के हो, दलि‍त साहि‍त्‍य में तुम्‍हारा एक नाम है, अपने कौशल का इस्‍तेमाल करो। मैं मजबूर हूँ , वो नहीं माना तो कहीं उसे।’ प्रो. सि‍हं जैसे खुद से लड़ रहे थे। ‘मैं कुछ कर नहीं पाऊंगा फि‍र, पर मैं यह चाहता नहीं। उसे जमीन चाहि‍ए क्‍योंकि‍ उसे पता चल गया है कि‍ जमीन का एक हि‍स्‍सा उस के नाम काग़जों में चढ़ा है। हमारे लोग यह बर्दाश्‍त नहीं करेंगे कि‍ उस की जमीन, उन की जमीनों के बीचोंबीच पड़े। ये गॉव है। यहॉं हर चीज मर्यादा में चलती है। मैं मलकाराम को जमीन दे देता पर बि‍रादरी के लोग मुझे चैन से नहीं रहने देगे, कायर कहेंगे, जीना मुश्‍कि‍ल कर देंगे, कल को अपने ही लोग जमीनें दबाना शुरू कर देंगे।’ प्रो. सि‍हं ने अपनी व्‍यथा कही। 

       अशोक यह सुन कर भीतर तक दहल गया। ‘वो देखते हो... ।’ उन्‍होंने खड़े होते हुए दूर इशारा कि‍या- ‘वहॉं इन खेतों से बाहर तो हम ने खुद कुछ लोगों को जमीनों के टुकड़े दि‍ए हैं पर जहॉं मलकाराम मॉंग रहा है, वहॉं ये मुमकि‍न नहीं है। ये हमारे इलाके के बीचोंबीच है। हमारे घरों के नजदीक... ।’ 

       अशोक ने दूर तक नज़र दौड़ाई। उन के दाएं हाथ की तरफ लगभग सौ मीटर की दूरी पर सुबोध सि‍हं और अभि‍लाषा सि‍हं, जाने कि‍न मुद्दों पर बातचीत में तल्‍लीन थे। अशोक के मन में सहसा एक दुष्‍ट वि‍चार उछला कि‍ अगर इस समय सुबोध की जगह, वह अभि‍लाषा के साथ होता तो क्‍या प्रो. सि‍हं इसी तटस्‍थ भाव से बैठे होते, परंतु अशोक ने अपने अरबी अश्‍व को इस इलाके में घुसने से तुरंत रोक दि‍या। 

       ‘आप ऐसा कहते हैं तो मैं जरूर समझाने की कोशि‍श करूंगा।’ अशोक को उस अनजान व्‍यक्‍ति‍ की जान की तो चि‍न्‍ता हुई ही, साथ ही प्रो. सि‍हं की मनस्‍थि‍ति‍ में आए बदलाव ने भी उसे प्रेरि‍त कि‍या। अगर वह कहानी लि‍ख रहा होता तो वह दि‍खाता कि‍ कैसे अकेले मलकाराम ने ठाकुर अमर प्रताप सि‍हं के दांत खटटे कर दि‍ए और जरूरत न पड़ने पर भी लाठी, बल्‍लम या कुल्‍हाड़ी तक चलवा देता। पाठकों का एक वर्ग यह देख कर प्रसन्‍न भी होता। साधुवाद की एकाध चि‍टठी या फोन भी उसे आता। परंतु जि‍न्‍दगी के इस भयावह और यायावर यथार्थ के सामने सारी स्‍थि‍रबुद्धि‍ साहि‍त्‍यि‍क समझ‍ धूल चाटने लगी। यह अपनेपन की कैसी हदें हैं, जो एक अपरि‍चि‍त आदमी के लि‍ए उस के मन में आत्‍मीयता पैदा कर रही हैं...सि‍र्फ बि‍रादरी के कारण ही न । क्‍या यही वे घेरेबंदि‍यॉं हैं जहॉं प्रो. सि‍हं न चाहते हुए भी कैद हैं? ये पूरा देश !!!

       इसी सब उघेड़बुन में जाने कब वह खेतों से वापस अपने कमरे पर आ गया। वह दुश्‍चि‍न्‍ताओं और दु:स्‍वप्‍नों के जाले में मामूली मकौड़े की तरह अटक गया। वहॉं वह जि‍तना ही ज्‍यादा छटपटाता, शि‍कंजा और उलझता- कसता जाता। इसी छटपटाहट में सुबह का वह सपना झि‍लमि‍लाने लगा। करूणा के काजल से भरी ऑंखों वाली वह नवयुवती दि‍खी, भवि‍ष्‍य से बलबलाता वह बालक दि‍खा। अशोक ने आंखें बंद कर ली, जैसे वह इस के अलावा अब और कुछ न देखना चाहता हो, न प्रो. सि‍हं को, न ईर्ष्‍यादग्‍ध धीरेन्‍द्र सि‍हं को, और न ही सपने की उस पगलाई भीड़ को। 

       वह मानो कि‍सी ऐसे इलाके में प्रवेश कर गया ,जहॉं सि‍र्फ फूल हैं, खुशबुएं हैं, ऊंचे पर्वत और कल-कल बहती नदी है, जि‍स की धार में मछलि‍यॉं वि‍परीत दि‍शा में भी मस्‍ती से तैर रही हैं। दूर कि‍सी जोगी के गाने का स्‍वर चला आ रहा है – ‘अवधू बे गम देस हमारा, राजा रंक फकीर बादसा , सब से कहूँ पुकारा, जो तुम चाहों परमपद को, आओ देस हमारा।’ ठीक इसी वक्‍त, पानी में छप्‍प –छप्‍प करता, तेजी से दौड़ता हुआ मलकाराम सामने आ खड़ा हुआ। उस की आंखों में भयानक क्रोध है। उस ने अपने हाथ की लाठी से जमीन को इतनी जोर से ठोका कि‍ वहॉं गहरी दरार हो गई – ‘मैं अपनी जमीन लेकर रहूँगा, तुम क्‍या मुझे संसार का कोई आदमी नहीं समझा सकता।’ प्रो. सि‍हं मोढ़े पर एक तरफ बैठे, शेर छाप बीड़ी पी रहे हैं। ‘दि‍माग से काम ले मलकाराम’ - उन्‍होंने सि‍र्फ इतना कहा और फि‍र कश लगाने लगे। सुबोध अभि‍लाषा को समझा रहा है- ‘हमें इस पर अन्‍तर्मंथन करना चाहि‍ए, यह देश सब का है’ – अभि‍लाषा का सि‍र सुबोध के कंधे पर टि‍का है। धीरेन्‍द्र सि‍हं गुस्‍से में पांव पटक रहा है – ‘ऐसा कभी नहीं रहा, इति‍हास आप झुठला नहीं सकते, हम राजा हैं, ये हमारी प्रजा है, नौकर हैं हमारे।’ मलकाराम ने लाठी का जोरदार वार धीरेन्‍द्र के सि‍र पर कि‍या- ‘तो ये ले, तेरे इस इति‍हास को मैंने पलट दि‍या, अब कर ले तू, जो कर सकता है।’ धीरेन्‍द्र कराह कर वहीं जमीन पर लुढ़क गया। खून की धार बहने लगी। सब तरफ खून के रंग के लाल लाल फूल दहक गए। 

       ‘इसे तुम मारो मत मलका ...।’ सामने बाबासाहेब आम्‍बेडकर खड़े हैं, काषाय चीवर में, हाथ में पुस्‍तक । मलकाराम लाठी फेंक उन के पॉंवों मे गि‍र पड़ा और जार जार रोने लगा। अपने आंसूओं से उन के पॉव धो दि‍ए उस ने- ‘पर... पर बाबासाहेब, ये मुझे मेरी जमीन नहीं लेने दे रहा, मुझे नौकर कहता है और ...और आप ने ही तो कहा है संघर्ष करो।’ प्रो. सि‍हं, अभि‍लाषा और सुबोध भी उन के पांवो में झुक गए। 

       ‘पर हि‍न्‍सा नहीं।‘ बाबासाहेब उस के सि‍र पर हाथ फि‍राने लगे। ‘संगठि‍त होकर करो, अहि‍न्‍सा से लड़ो, जैसे मैंने महाड़ में लड़ी थी, हमारे सि‍र भी फूटे थे पर मलका हि‍न्‍सा हमारे वोट के राज को खा जाएगी। इन्‍हें माफ करना सीखो, ये अतीत की गोद में सो रहे हैं, करूणा करो इन पर।’ उन्‍होंने अपने हाथ में पकड़ी कि‍ताब को प्‍यार से सहलाया, जैसे पि‍ता अपनी संतान को दुलारता है। ‘ये हमारी नहीं सुनेंगे बाबा।’

       ‘सुनेंगे, जरूर सुनेंगे, इन में से ही बहुत सारे लोग, जो जाग गए हैं, तुम्‍हारा साथ देंगे, जैसे मेरा साथ, मेरे श्रीधर गंगाधर ति‍लक जैसे कई ब्राह्मण मि‍त्रो के अलावा मेरे मि‍त्र नवल भथेना, बडौदा के राजा सयाजीराव गायकवाड़, छत्रपति‍ साहू जी महाराज और बाद में गॉंधी जी और नेहरू जी ने दि‍या था... थोड़ा समय दो इन्‍हें, हजारों वर्ष की यादें हैं इन के दि‍मागों में, धीरे-धीरे खुरच कर साफ होंगी ... पर संघर्ष करना मत छोड़ना।’ 

       डा. सी.एल. सोनकर ने खड़े होकर अपनी कि‍ताब के पॉंचवें अध्‍याय को पढ़ना शुरू कर दि‍या – ‘‘मानव मानव के बीच समुदायगत वि‍भेद व अस्‍पृश्‍यता को समाप्‍त कर, चि‍त्‍त व आत्‍मि‍क शुद्धि‍ द्वारा ही मानवीय प्रति‍ष्‍ठा स्‍थापि‍त कि‍या जाना, जीवन का वास्‍तवि‍क लक्ष्‍य होना चाहि‍ए.....।’’ अचानक बाबासाहेब अर्न्‍तधान हो गए।   

       उन को देखने के लि‍ए मलकाराम ने सभी दि‍शाओं में सि‍र घुमाया और फि‍र उठकर भागने लगा, पानी के पार, खेतों के बीच से होते हुए, गॉव की गलि‍यों और कच्‍चे मकानों को लांघता हुआ ..... वह एक जगह जा कर एकाएक ठि‍ठक गया, सामने आलीशान कोठि‍यॉं थीं, पोर्श, ऑडी, बेन्‍टली, मर्सि‍डीज़, जेगुआर और बीएमडब्‍ल्‍यू कारें, एक के बाद एक, यहॉ-वहॉं, सरकारी सड़क पर, बेतरतीब, इन्‍हीं भव्‍य अट्टालि‍काओं के बीच एक ऊंची दीवार पर एक बड़ी तख्‍ती ठुकी थी – यह आम रास्‍ता नहीं है’ – वहॉं स्‍लेटी वर्दी पहने दो मुच्‍छड़ गार्ड खड़े थे, उन के हाथ में राइफलें थीं, अचानक मलकाराम सपने वाले घायल युवक में बदल गया है, नहीं वह अशोक में बदल रहा है, बि‍ल्‍कुल अशोक..... तभी उन दोनों गार्डो में से एक मुच्‍छड़ गार्ड ने उस की तरफ रायफल उठा कर धांय से फायर कर दि‍या..... 

       अशोक की नींद झटके से टूट गई। ख्‍वाब के रास्‍ते कैसे उलझे होते हैं, हम कहॉं से शुरू करते हैं और कहॉं पहुँच जाते हैं, कुछ पता नहीं चलता। सामने की चारपाई पर सुबोध और दूसरी पर धीरेन्‍द्र सो रहा था। ‘ये दोनों चारपाई पर ही सो गए।  मैं सर को स्‍पष्‍ट कहूँगा कि‍ जमीन मलकाराम की है और उस का हक उसे मि‍लना ही चाहि‍ए। बाकी वो जाने, इसे अब कि‍तनी देर और रोक पाएंगे ये।’ वह बुदबुदाया।  

       उस ने दृढनि‍श्‍चय कि‍या और उठ कर बाहर दालान में आ गया। बाहर अभि‍लाषा पहले से टहल रही थी। उस ने अशोक को आते देख मुस्‍कुरा कर स्‍वागत कि‍या। अशोक भी मुस्‍कुरा गया। हवा में बासंती खुशबु डोल रही थी, जि‍स की कल्‍पना भी  शहरों में नहीं की जा सकती। हालांकि‍ बसंत अभी ऐसा चढ़ा भी नहीं था कि‍ खुशबु फैलती पर गॉंव में इस शुरूआत का सुख भी महसूस हो रहा था। 

       ‘अब मैं आप की कहानि‍यॉं पढूंगी और देखती हूँ कि‍ आप क्‍या लि‍खते हैं, आप की आभारी हूँ कि‍ आप ने साहि‍त्‍य को देखने का एक नया नज़रि‍या मुझे दि‍या। मैं वाकई इस से अनभि‍ज्ञ थी।आलोचना से चि‍ढ़ तो नहीं जाएंगे?’  

       अशोक ने मुस्‍कुरा कर ‘नहीं’ में गर्दन हि‍लाई। उस का नि‍श्‍चय और पक्‍का हो गया। 

डॉ० अजय नावरि‍या
असि‍स्‍टेंट प्रोफेसर, हि‍न्‍दी वि‍भाग 
जामि‍या मि‍ल्‍लि‍या इस्‍लामि‍या, नई दि‍ल्‍ली -25 
मो० : +91 99 108 27330 
ईमेल: ajay.navaria@gmail.com

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