शब्द-चित्र - सौरभ पाण्डेय

गाँव चर्चा : सात परिदृश्य
१.मरे हुए कुएँ..
उकड़ूँ पड़े ढेंकुल..
करौन्दे की बेतरतीब झाड़ियाँ..
बाँस के निर्बीज कोठ.. .
ढूह हुए महुए..
एक ओर भहराई छप्परों की बदहवास खपरैलें..
सूनी.. सूखी आँखें ताकती हैं एकटक.. एक अदद अपने की राह
कि.. कुछ जलबूँद
और दो तुलसीपत्र जिह्वा पर रख त्राण दे जाए.
लगातार मर रहा है इन सबको लिए.. निस्शब्द
मेरा गाँव.
२.
गट्ठर उठाती इकहरी औरत
अनुचर दो-तीन बच्चे
गेहूँ के अधउगे गंजे खेत
जूझता हरवाहा
टिमटिमाती साँझ
बिफरा बबूल
बलुआहा पाट..
या फिर.. कोई फुसहा ओसारा
सब कुछ कितना अच्छा लगता है..
काग़ज़ पर.
३.
वहाँ उठता है धुआँ
कोई गाँव है..
है चीख भी
कोई घर है..
... धुक गई होगी जवार कोई बेटी
या फिर, भड़क गई होगी
किसी थके ओसारे की बिड़ी.. .
बढ़ता गया इन्हीं कुछ पिटे-पटाये अनुमानों में..
कि,
भटभटाती मोटरसायकिल पर थामे दुनाली
दो निकल गए गरजते..
"..औकात भूल गया था हरामी.."
४.
पाँच अंकों की आय बेटा झँखता है
चार अंकों की पेंशन बाप रोता है..
अब शहर और गाँव में यही फ़र्क होता है.
५.
गाँव के बरगद / पीपल
वृक्ष भर नहीं
एक पूरी आस्थावान परंपरा के संवाहक होते हैं
/ जीवंत संसार के पोषक /
जिनके बिरवे
रोपे नहीं जाते
सरकारी वृक्षारोपण कार्यक्रमों में !!
६.
दुबे के द्वार पर पाँड़े का ठट्ठा
मरद एक भोला..
भिड़े रह पट्ठा !
ठकुरा बकता है
बेलूरा छपता है
बँसटोली कहती है--
मिनिस्ट्री पलटेगी.
७.
...जो कुछ नहीं हुआ तो क्या जाता है
मगर कुछ हुआ, तो बहुत कुछ होगा...
सोचते हुए
उसके हाथ अब अर्जियाँ नहीं..
रह-रह कर गँड़ासे उठा लेते हैं.
मन कार्यालय हुआ : पाँच दशा
१.
मन उदास है
पता नहीं, क्यों..
झूठे !
पता नहींऽऽ, क्योंऽऽऽ..?
२.
कितना अच्छा है न, ये पेपरवेट !
कुर्सी पर कोई आये, बैठे, जाये
टेबुल पर पड़ा
कुछ नहीं सोचता.. न सोचना चाहता है
प्रयुक्त होता हुआ बस बना रहता है
निर्विकार, निर्लिप्त
बिना उदास हुए
३.
हाँ, चैट हुई
पहले से उलझे कई विन्दु क्या सुलझते
कई और प्रश्न बोझ गयी.
अपलोड कर लेने के बाद ऑफ़िशियल मेल / जरूरी रिपोर्ट
आँखें बन्द कर
पीछे टेक ले
थोड़ी देर निष्क्रिय हो जाना
कोई उपाय तो नहीं, लेकिन
और कोई उपाय भी तो नहीं है..
अभी !
४.
उम्मीदें भोथरी छुरी होतीं हैं
एक बार में नहीं
रगड़-रगड़ कर काटतीं हैं
फिर भी हम खुद को
और-और सौंपते चले जाते हैं उसके हाथों
लगातार कटते हुए
५.
वो साथ का है
पता नहीं !
वो स्सा.. थका है
हाँ पता है.. !!
जीवन के कुछ धूसर रंग
१.
लहूलुहान टेसू..
परेशान गुलमोहर..
सेमल त्रस्त
अमलतास, कनैले, सरसों.. पीलिया ग्रस्त
अमराई को पित्त
महुए को वात
और, मस्तिष्क ?.. दीमकों की बस्ती से आबाद !
ओः फागुन, तेरे रंग.. .
अब आज़ाद !!
२.
मांग खुरच-खुरच भरा हुआ सिन्दूर
ललाट पर छर्रे से टांकी हुई
येब्बड़ी ताज़ा बिन्दी.. .
खंजरों की नोंक से पूरी हथेली खेंची गयी
मेंहँदी की कलात्मक लकीरें..
फागुन..
अब और कितना रंगीन हुआ चाहता है !
३.
गुदाज लोथड़े को गींजती थूथन रात भर धौंकती है.. !
कौन कहता है
रंगों में गंध नहीं होती ?
४.
बजबजायी गटर से लगी नीम अंधेरी खोली में
भन्नायी सुबह
चीखती दोपहर
और दबिश पड़ती स्याह रातों से पिराती देह को
रोटी नहीं
उसे जीमना भारी पड़ता है.
५.
फाउण्टेन पेन की नीब से
गोद-गोद कर निकाले गये ताजे टमाटर के गूदे
और उसके रस से लिखी जाती
अभिजात्य कविताएँ
महानगर की सड़कों पर / अब अक्सर
लग्जरी बसों और महंगी कारों में घण्टों पढ़ी जाती हैं
गदबदाये रंगों के धूसर होने तक.. .
चाँद : पाँच आयाम
१.
धुआँ कहीं से निकले --
आँखों से
मुँह की पपड़ियों से
चिमनी के मूँबाये अहर्निश खोखले से.
धुक चुके हर तरह
तो चुप जाता है / हमेशा-हमेशा केलिये
एक मन
एक तन
एक कारखाना.. .
चाँद बस निहारता है.
२.
अभागन के हिस्से का अँधेरा कोना
चाँदरातों का टीसता परिणाम है.
३.
मेरे जीवन का चाँद अब कहाँ ?
हाँ, तुम बादल हो --भरे-भरे.. .
४.
निरभ्र आँखों
तब देर तक देखता था चुपचाप
मोगरे / के फूलों की वेणी / की सुगंध बरसाता हुआ
चाँद.. .
अब चादर तान चुपचाप सो जाता है.
५.
वो
अब चाँद नहीं देखता / गगन में
दुधिया नहाती रहती है
उसकी चारपायी
सारी रात.
शक्ति : छः शब्द रूप
१.
धुंध का गर्भ नहीं जनता
मात्र रहस्य
सर्वस्वीकार्यता का आकाश
और आरोप्य क्षमता की गठन
की स्थायी समझ
इस सार्वकालिक धुंध की निरंतरता के नेपथ्य का
सदा से परिणाम यही है
शक्ति और शिव की गहन इकाइयों के अर्थवान निरुपण
हर काल में संसार रचते रहे हैं
२.
देखी है उसकी आँखें ?
--- निस्पृह
निर्विकार
निरभ्र / और
निश्चिंत !
हर तरह के अतिरेक को नकारतीं
इन्हीं ने तो जताया है समस्त ब्रह्माण्ड को --
हिंसा साध्य नहीं
संवाद और निराकरण का एक माध्यम भी होता है !
३.
किसी सक्षम का विस्तार अकस्मात नहीं होता
विस्तार वस्तुतः कढ़ता है
स्वीकृत होते ही सबल हो जाता है
फिर, अनवरत परीक्षित होता रहता है सर्वग्राही धैर्य
सदा-सदा-सदा
पुरातन काल से !
४.
अधमुँदी आँखों की विचल कोर को नम न होने देना
उसका प्रवाह भले न दीखे
वज़ूद बहा ले जाता है
५.
उसने छुआ
कि,
अनुप्राणित हो उसका शिवत्व.. .
जगे अमरत्व का पर्याय अक्सर आसुरी क्यों होने लगता है
एक बार फिर से छुए जाने के लिए !?
६.
थैले उठाये सब्जी लाती कल्याणी
बच्चों संग झँखती-झींकती कात्यायनी
पानी के लिए / बम्बे संग / चीखती कालरात्रि
सुबह से शाम तक स्वयं को बूझती-ढूँढती-निपटती कुष्माण्डा
देर रात तहस-नहस होती आहत-गर्व सिद्धिरात्रि
अपने अपरूपों का भ्रूण-वध सहती कालिका
शक्ति, तुझे मैंने कितना कुछ जाना है !! .. .
मद्यपान : कुछ भाव
१.
मैं बोतल नहीं
जो शराब भरी होने पर भी शांत रहती है
मुझमें उतरते ही शराब
खुद मुझे हैरान करती है.
२,
आदमी के भीतर
हिंस्र ही नहीं
अत्यंत शातिर पशु होता है
ओट चाहे जो हो
छिपने की फ़ितरत जीता है.. .
तभी तो पीता है.
३.
अच्छा खासा रुतबा
और चकित करते रौब लिये
वे हाशिये पर पड़े आदमी के उत्थान के लिए
मिलते हैं...
पर नशा / एक भोर तक
मिलने देता ही कहाँ है ! .
४.
मन के आकाश में खुमार के बादल
अनुर्वर पर बरस
उसे सक्षम नहीं बनाते
उल्टा उर्वर की संभावनाओं को मारते हैं.. . !
फिर,
चीख में जलन
आँखों में सूखा
मन में फ़ालिज़
पेट में आग बारते हैं.. .
५.
पलट गयी बस का ड्राइवर
बेबस यात्रियों के भरोसे पर
कहाँ उतरा था ?
वह तो जोश से हरा
होश से मरा
और शराब से भरा था !
सौरभ पाण्डेय
एम-II/ए-17, एडीए कॉलोनी, नैनी, इलाहाबाद - 211008, (उप्र)
मो० : +91-9919889911
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