
बांयें से प्रो० पुरुषोत्तम अग्रवाल, प्रियदर्शन, सुश्री सुमन केशरी व भरत तिवारी
एक जन्मदिन पर डॉक्टर इवा हजारी की याद
मुझे नहीं मालूम डॉ इवा हजारी

अगर हैं तो कहां हैं
और किस हाल में हैं,
न मैं आपको पहचानता हूं
और न आप मुझे पहचानती हैं
फिर भी हमारे-आपके बीच एक डोर है,
डोर जीवन की, जो सबसे पहले आपने थामी थी
मां की कोख से मुझे बाहर निकाला था
मेरी गर्भनाल काटी थी
और मुझे दुनिया की बांहों में सौंप दिया था।
मेरे जिस्म पर, मेरे वजूद पर, मेरे होने पर,
जो पहला स्पर्श पड़ा, वह आपका था
और मेरे जन्म की वह कहानी बताते-बताते
मां की आंखें अक्सर चमक उठती थीं,
यह प्रसंग छिड़ते ही वह अक्सर रांची के सदर अस्पताल के
उस ऑपरेशन थिएटर में पहुंच जाती थी,
जहां २४ जून, १९६७ की रात,
वह दर्द से कराहती लेटी थी
और फिर एक ममतामयी सी बंगाली- डॉक्टर ने
उसे सहलाया था- तसल्ली और भरोसा दिलाते हुए-
और बताते-बताते हंस पड़ती थी मां
कि उस डॉक्टर के कहने पर १० तक गिन रही थी
कि उसे पता भी नहीं चला और एनीस्थीसिया दे दिया गया।
'जब आंख खुली तो बगल में तुम लेटे थे'।
कहानी यहां ख़त्म नहीं, शुरू होती है डॉक्टर,
वह युवा लड़की- जिसे आपने मातृत्व की सौगात दी थी- मेरी मां
अब इस दुनिया में नहीं है
जिससे यह कहानी में फिर से सुन सकूं
और नए सिरे से जी सकूं
मातृत्व और पारिवारिकता का वह छलछलाता हुआ मान
जिसके कई सिरे अलग-अलग लोगों से जुड़े थे-
मेरे कुछ बेख़बर और कुछ चिंतित युवा पिता से,
जो तब मुझसे आज के हिसाब से १७ साल छोटे रहे होंगे;
मेरी बिल्कुल लगी रहने वाली दादी और नानी से
जिनकी गोद में बरसों तक मैं पलता रहा;
मेरे भागदौड़ करते मामा-मौसी से
जो कभी-कभी मां के साथ मिलकर उन दिनों की छलछलाती याद बांटा करते थे।
आज ४४ साल बाद ये तार बहुत बिखरे-बिखरे हैं मेरी अनजान प्रथमस्पर्शिनी डॉक्टर,
बहुत से लोग अब इस दुनिया में नहीं हैं,
और जो बहुत सारे लोग हैं, उनकी दुनिया बदल गई है।
मैं किससे पूछूं, किसके साथ बांटूं
उन प्रथम, सुकुमार दिनों का वह उजला अनुभव
जिस पर वक्त की मिट्टी और धूल बहुत मोटी हो गई है।
मैं भी तो बदल गया हूं।
अब समझ भी नहीं पाता,
वे कौन लोग थे और किसे सुनाते थे
मेरे मामूली से जन्म के बहुत गैरमामूली और जादुई लगते ब्योरे।
इन ४४ वर्षों में और भी बहुत कुछ बदला है, बिखरा है, गंदला हुआ है।
उस सदर अस्पताल को तो आप बिल्कुल नहीं पहचान पाएंगी
जहां किसी साफ़ सुथरे कमरे में आपने मेरी मां की देखभाल की होगी।
सरकारी अस्पताल इन दिनों सेहत का नहीं, बीमारी का घर लगते हैं
और वह रांची शहर भी बहुत बदल गया है
जो उन दिनों एक ख़ामोश कस्बा रहा होगा।
उस ख़ामोश कस्बे के इकलौते सरकारी अस्पताल में ही संभव रहा होगा
कि एक मरीज़ अपने डॉक्टर से ऐसा नाता जोड़े
जिसकी विरासत अपने बेटे तक छोड़ जाए।
इस बेटे को भी हालांकि कहां से पहचानेंगी आप?
आपके हाथों से तो न जाने कितने अनजान शिशुओं ने जीवन का वरदान ग्रहण किया होगा।
लेकिन आप इस दुनिया में हों न हों,
आपको यह यकीन दिलाना चाहता हूं
कि आपका दिया हुआ जो जीवन था
उसे अब तक क़ायदे से जिया है डॉक्टर।
ऐसा कुछ नहीं किया, जिससे आपका प्रथम स्पर्श लजाए, ख़ुद को संकुचित महसूस करे।
निश्चय ही इस जीवन में अपनी तरह की क्षुद्रताएं आईं, कहीं-कहीं ओछापन भी,
शर्मिंदगी के कुछ लम्हे भी, भय की कुछ घड़ियां भी।
कई नाइंसाफ़ियों से आंख मिलाने से बचता रहा
और कहीं-कहीं घुटने भी टेके
लेकिन इन सबसे निकलता रहा मैं,
किसी विजेता की तरह नहीं,
बल्कि अपनी हारी हुई मनुष्यता को
नए सिरे से आत्मा का जल देते हुए, भरोसे की थपकी देते हुए।
शर्म करने लायक कुछ न करना,
न घुटने टेकना, न डरना,
नाइंसाफ़ी से आंख मिलाना
और जो सही लगे, उसके साथ खड़ा होने की कोशिश करना सीखते हुए।
हालांकि यह आसान नहीं है
और जीवन हर रो़ज़ लेता है नए सिरे से इम्तिहान।
लेकिन इस काम में बहुत सारे हाथ मेरा साथ देते हैं
बहुत सारी निगाहें मुझे बचाए रखती हैं।
वे भी जो दुनिया में हैं और वे भी जो दुनिया में नहीं हैं।
अक्सर तो नहीं, लेकिन कभी-कभी जब बहुत घिर जाता हूं
तो एक हाथ अचानक अपने कंधों पर पाता हूं
उस स्त्री का, जो मेरी लंबी उम्र की कामना के लिए जीवित नहीं है
लेकिन जिसकी न जाने कितनी कामनाएं- लंबी उम्र से लेकर अच्छे जीवन तक की- मेरे वजूद पर
किसी कवच की तरह बनी हुई हैं।
आज अपने 44वें जन्मदिन पर
उसी हाथ को महसूस करते-करते
उन चमकती आंखों की
और उनके सहारे आपकी याद आई है डॉक्टर इवा हजारी।
क्या आपको याद है
अपने ऑपरेशन टेबल पर ४४ साल पहले लेटी वह युवा स्त्री
जो मेरी मां थी?
पता नहीं, आप इस दुनिया में हैं या नहीं,
हैं भी तो कहां हैं,
लेकिन मेरी स्मृति में, मेरे संवाद में,
आपकी उजली उपस्थिति मेरे जीवन को
बिल्कुल उस लम्हे, उस कोने, उस कमरे तक ले जाती है
जहां से इसकी शुरुआत हुई थी।
वहां बस हम तीन थे-मां, आप और मैं।
हम तीनों जीवित हैं डॉक्टर।
आखिर आपने जो जीवन दिया है,
उसमें आपका भी तो जीवन शामिल है
और
मेरी मां तो मेरे साथ रहेगी ही।
कभी-कभी मां की याद
जब भी 65 पार की किसी महिला को देखता हूंतो ख़याल आता है कि मां अगर जीवित होती तो इसी उम्र की होती
फिर कल्पना करता हूं, कैसी वह लग रही होती।
उसके वे बाल पूरी तरह पक गए होते
जिनके किनारों पर सफ़ेदी देखकर
आख़िरी तीन-चार वर्षों तक वह हंसा करती थी।
उसकी पीठ शायद कुछ झुक गई होती
जिसे तान कर बैठने की वह हमको कभी नसीहत दिया करती थी
और कभी अभ्यास कराया करती थी
उसकी आवाज़ में शायद उम्र की कुछ सांसें दाखिल हो गई होतीं।
वह एक पूरी तरह बूढ़ी महिला होती
जो अपनी ममता का ख़जाना अब अपने दो बेटों और एक बेटी
के बेटे-बेटियों पर लुटाया करती-
हालांकि पता नहीं, बहुओं से उसके कैसे रिश्ते होते
और उसकी उपस्थिति में यही बहुएं होतीं भी या नहीं
क्योंकि हममें किसी की शादी देख या तय कर पाने से पहले ही
वह जा चुकी थी।
नहीं, यह मेरे लिए अफ़सोस का विषय नहीं है
कि वह यह सब देखे बिना चली गई।
आख़िर हममें से कोई भी अमृत पीकर नहीं आया है
और हर किसी को किसी न किसी दिन जाना है,
और अब तक के अपने अनुभव से मैं जानने लगा हूं
कि किसी की भी सारी इच्छाएं एक उम्र में पूरी नहीं होतीं
और अगर हो जाती हैं तो उनके भीतर नई इच्छाएं पैदा होने लगती हैं.
जबकि मां तो इतनी सारी इच्छाओं वाली थी भी नहीं,
इसलिए फिर दुहराता हूं
उसका जाना मेरे लिए शोक का विषय हो तो भी उसे सार्वजनिक करने के लिए
मैं इन पंक्तियों का सहारा नहीं ले रहा
बावजूद इसके कि वह काफी पहले चली गई
बावजूद इसके कि उसके जाने के बाद हम सबने ऐसा खालीपन महसूस किया
जिसे भरा नहीं जा सका
जैसे वह धुरी ही टूट गई जिस पर हर हमारा वह पूरा परिवार टिका था
जो उसके बाद जैसे बिखरता चला गया।
नहीं, मैं इस शोक के ज्ञापन के लिए भी यहां नहीं हूं।
मैं तो उस शोक के पार जाने की कोशिश कर रहा हूं
जो मां की मृत्यु ने और इससे पैदा हुए सन्नाटे
ने हम सबके भीतर पैदा किया था।
ऐसा नहीं कि किसी भी बूढ़ी महिला को देखकर मुझे अपनी मां याद आती हो।
ऐसा भी नहीं कि हमेशा उसकी याद आती रहती हो
उसके गुज़रने के बाद अब तक के 17 साल में
बस कुछ कातर और आत्मीय लम्हे रहे होंगे जब वह मुझे शिद्दत से याद आई
और
कुछ रातों के सिहरते हुए कोमल सपने
जहां कभी वह मेरे बाल सहलाती, मेरे साथ घूमती या बात करती या मेरी फिक्र करती मिली।
लेकिन वह नहीं है,
वह धीरे-धीरे जीवन से दूर चली गई
जैसे किसी सीधी पगडंडी पर आगे बढ़ता या पीछे लौटता मुसाफिर
धुंधला होता-होता अदृश्य हो जाए।
हालांकि यह रूपक इस आशय से मेल नहीं खाता
क्योंकि पीछे वह छूटती चली गई,
आगे हम बढ़ते चले गए।
हमारे भीतर की खाली जगहें भरती चली गईं
या मरती चली गईं।
यह सब सोचकर कुछ उदासी होती है
मन कभी-कभी भर आता है
कि कितना निर्मम होता है जीवन।
पीछे छूट गए लोगों के लिए कोई गुंजाइश नहीं छोड़ता।
हम फिर हंसते हैं, फिर खेलते हैं, फिर से जीने लगते हैं
और कभी-कभी उदास भी हो जाते हैं
लेकिन स्मृति और उदासी के गलियारों में टहलना भी
जीवन का उल्लास ही है-
जो नहीं हैं, उनके अब तक होने की कामना
और यह कल्पना कि वे कैसे लगते अगर अब भी होते।
मेरे लिए इस कल्पना का मोल हो तो हो

जिसे न कोई कल्पना छूती होगी
न कोई दुख व्यापता होगा
वह तो स्मृति और जीवन के पार
न जाने किस अकल्प अछोर अंधकार में
हमेशा-हमेशा के लिए गुम हो गई है।
वह नहीं लौटेगी, जानता हूं।
बस उसे अपने भीतर बचाए रखना चाहता हूं
उसके लिए नहीं, अपने लिए
जिसे इस लगातार अजनबी होते संसार में
चाहिए एक अपना।
वह यों ही याद नहीं आ जाती है कभी-कभी
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24 जून 1968, राँची में जन्में, प्रियदर्शन एनडीटीवी में वरिष्ठ पत्रकार हैं। कहानी संग्रह "उसके हिस्से का जादू", संस्मरण "नष्ट कुछ भी नहीं होता", लेख संग्रह "इतिहास गढ़ता समय" के साथ वो बहुत लग्न से अनुवाद से जुड़े हैं और आधी रात की संतानें (सलमान रुश्दी), बहुजन हिताय (अरुंधति रॉय), कत्लगाह (रॉबर्ट पेन), पीटर स्कॉट की जीवनी आदि उनकी कुछ अनुदित रचनाएँ हैं ।
प्रियकवि प्रियदर्शन की कवितायेँ कैसी होती हैं ये अब बताने की आवश्यकता नहीं है ...
संपर्क
ई-4, जनसत्ता अपार्टमेंट,
सेक्टर 9, वसुंधरा, गाजियाबाद, (उ.प्र.)
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