गरीबी रेखा या रोटी रेखा - अशोक चक्रधर | Choun re Champoo - Ashok Chakradhar

चौं रे चम्पू 

गरीबी रेखा या रोटी रेखा  

अशोक चक्रधर



—चौं रे चम्पू! गरीबी की बहस कहां तक पौंहची?

—अभी तो परिभाषाएं बन रही हैं। रंगराजन की रिपोर्ट ने बहस को आगे बढ़ाया है कि ग़रीब कौन है। उनके अनुसार शहरों में प्रतिदिन सैंतालीस रुपए से कम और गांवों में बत्तीस रुपए से कम खर्च करने वाले को गरीब बताया गया है। उनसे पहले तेंदुलकर समिति द्वारा ग़रीबी के रेखा से नीचे रहने वालों के लिए यह राशि क्रमश: तेतीस रुपए और सत्ताईस रुपए बताई गई थी।

—तौ बहस गरीबी पै नायं, गरीबी की रेखा पै है?

—चचा! हमारे यहां ग़रीबी की रेखा से नीचे रहने वालों को बीपीएल यानी बिलो पावर्टी लाइन कहा जाता है। एक अंग्रेज़ी शब्दकोश इसे कहता है बीबीएल यानी बिलो ब्रैड लाइन। गरीबी रेखा नहीं, रोटी रेखा। रोटी रेखा ज़्यादा सही है। अब महंगाई ने रुपए वाले मानक काफ़ी पीछे छोड़ दिए हैं। असल पैमाना है रोटी। मिली कि नहीं मिली! ग़रीब घास की रोटी तो नहीं खा सकता, घास काट कर रोटी का जुगाड़ ज़रूर करता है। मैंने पच्चीस-तीस साल पहले एक कथात्मक कविता लिखी थी, गरीबदास का शून्य। मुकेश शर्मा ने उस पर आधारित एक फ़िल्म भी बनाई थी लखनऊ दूरदर्शन के लिए।

—तौ चल कबता ई सुना।

—कविता लंबी है। चलिए, पहले दृश्य के कुछ अंश सुना देता हूं। कहानी है, इसलिए बीच-बीच में हां-हूं करते रहना। 

—सुना तौ सई!

—सुनिए, घास काटकर नहर के पास, कुछ उदास-उदास सा चला जा रहा था गरीबदास। क्या हुआ अनायास..... दिखाई दिए सामने दो मुस्टंडे। जो अमीरों के लिए शरीफ़ थे, पर ग़रीबों के लिए गुंडे। उनके हाथों में तेल पिए हुए डंडे थे, और खोपड़ियों में हज़ारों हथकण्डे थे। बोले, ओ गरीबदास सुन! अच्छा मुहूरत है अच्छा सगुन। हम तेरे दरिद्दर मिटाएंगे, तुझे ग़रीबी की रेखा से ऊपर उठाएंगे। 

—अच्छा जी!

—गरीबदास डर गया बिचारा, उसने मन ही मन विचारा, इन्होंने गांव की कितनी ही लड़कियां उठा दीं, कितने ही लोग ज़िंदगी से उठा दिए अब मुझे उठाने वाले हैं, आज तो भगवान ही रखवाले हैं। हां भई गरीबदास चुप क्यों है? देख मामला यों है, कि हम तुझे ग़रीबी की रेखा से ऊपर उठाएंगे, रेखा नीचे रह जाएगी तुझे ऊपर ले जाएंगे। गरीबदास ने पूछा, कित्ता ऊपर? एक बित्ता ऊपर! पर घबराता क्यों है, ये तो ख़ुशी की बात है, वरना क्या तू और क्या तेरी औक़ात है? जानता है ग़रीबी की रेखा? हजूर हमने तो कभी नहीं देखा। हं, हं, पगले, घास पहले नीचे रख ले। गरीबदास! तू आदमी मज़े का है, देख सामने देख वो ग़रीबी की रेखा है। कहां है हजूर? वो देख, सामने बहुत दूर। कहां है साब? सामने तो बंजर धरती है बेहिसाब! 

—फिर मुस्टंडे का बोले?

—अच्छा सामने देख आसमान दिखता है? दिखता है। धरती दिखती है? दिखती है! ये दोनों जहां मिलते हैं वो लाइन दिखती है? दिखती है साब इसे तो बहुत बार देखा है। बस गरीबदास वही ग़रीबी की रेखा है। सात जनम बीत जाएंगे तू दौड़ता जाएगा, दौड़ता जाएगा, लेकिन वहां तक कभी नहीं पहुंच पाएगा। और जब पहुंच ही नहीं पाएगा तो उठ कैसे पाएगा, जहां है वहीं-का-वहीं रह जाएगा। लेकिन तू अपना बच्चा है, और मुहूरत भी अच्छा है! आधे से थोड़ा ज़्यादा कमीशन लेंगे, और तुझे ग़रीबी की रेखा से ऊपर उठा देंगे। 

—कमीसन काए बात कौ?

—वह बात कथा में आगे आएगी चचा। बहरहाल, एक मुस्टंडा बोला, गरीबदास! क्षितिज का ये नज़ारा हट सकता है पर क्षितिज की रेखा नहीं हट सकती, हमारे देश में रेखा की ग़रीबी तो मिट सकती है, पर ग़रीबी की रेखा नहीं मिट सकती। 

—वा भई वा!

—गरीब भोला तो था ही थोड़ा और भोला बन के, बोला सहम के, क्या गरीबी की रेखा हमारे जमींदार साब के चबूतरे जित्ती ऊंची होती है? हां, क्यों नहीं बेटा। जमींदार का चबूतरा तो तेरे बाप की बपौती है। अबे इतनी ऊंची नहीं होती रेखा ग़रीबी की, वो तो समझ सिर्फ इतनी ऊंची है जितनी ऊंची है पैर की एड़ी तेरी बीवी की। जितना ऊंचा है तेरी भैंस का खूंटा, या जितना ऊंचा होता है खेत में ठूंठा, जितनी ऊंची होती है परात में पिट्ठी, या जितनी ऊंची होती है तसले में मिट्टी, बस इतनी ही ऊंची होती है, ग़रीबी की रेखा, पर इतना भी ज़रा उठ के दिखा! 

—आगै बता!

—आगे अगली बार!

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ