मशहूर लेखक, विचारक अशोक सेकसरिया का बीती रात (29-30 नवंबर) निधन हो गया। पिछले कुछ दिनों से बीमार चल रहे सेकसरिया जी के अचानक निधन की ख़बर से हिंदी साहित्य जगत सन्न रह गया।
साहित्य के इस संत को शब्दांकन परिवार की श्रधांजलि।
उनके कुछ क़रीबी लोगों ने शब्दांकन के साथ उनकी यादों को साझा किया।
अशोक सेकसरिया बेहद सादा तबीयत के आदमी थे - नीलाभ अश्क
सो कर उठने पर भूमिका ने अशोक सेकसरिया के देहांत की खबर दी। इस खबर को सुन कर बहुत उदास हो गया मैं। मुझे गालिबन 1964-65 के दिन याद आ गए, जब मैंने लिखना शुरू ही किया था और बीच-बीच में दिल्ली आया करता था। ज़ाहिर है लिखना शुरू करने के बाद दिल्ली में की जाने वाली अड्डेबाज़ी और मेल-मुलाक़ात का दायरा भी अलग हो गया, अब रिश्तेदारों से कम और साहित्यकारों से ज्यादा मुलाक़ात होने लगी थीं। कॉफी-हाउस, टी-हाउस में नियमित बैठकी होने लगी, उसी ज़माने कि बात है जब एक तरफ मेरा परिचय जगदीश चतुर्वेदी, नरेंद्र धीर और अकविता पत्रिका प्रकाशित करने वाले मित्रों से हुआ और दूसरी तरफ अशोक सेकसरिया और महेंद्र भल्ला जैसे साहित्यकारों से। दिल्ली का माहौल उन दिनों आज की बनिस्बत बहुत भिन्न था, बहुत मिलना-जुलना था, प्रेम था, गहमागहमी थी, बहसें थीं और खासी तेजतर्रार हुआ करती थीं, लेकिन आज जैसी क्षुद्रता नहीं थी। अकविता से जुड़े लोग हों या अशोक सेकसरिया और महेंद्र भल्ला सभी मुझसे उम्र में बड़े थे लेकिन उन्होंने बड़े प्यार और गर्मजोशी के साथ मुझे अपने दायरों में शामिल कर लिया।
अशोक सेकसरिया उन दिनों शायद लोहियाजी की पत्रिका के सम्पादकीय-विभाग में थे या पत्रिका का सम्पादन कर रहे थे और एक अजीब फक्कड़पन और बोहेमियन तौर-तरीका उनके हाव-भाव से बातचीत से झलकता था। मैं उनकी कहानियाँ पढ़ चुका था और ‘बिल्डिंग’ कहानी जो शायद सारिका में छपी थी उसकी छाप मेरे मन पर थी।
अशोक सेकसरिया जी औसत से थोड़ा ज्यादा लम्बे थे, सांवला रंग और खादी का लिबास – बेहद सादा तबीयत के आदमी थे। उस बीच उनसे कई मुलाकातें हुईं, जब भी मिलते हौसला बढ़ाते रहे। मैं कवि था वे कहानीकार लेकिन उन्होंने कभी इसे बीच में नहीं आने दिया। सत्तर के शुरूआती दिनों में वे अकसर जनपथ पर टहलते हुए मिल जाते, वहीँ कॉटेज इम्पोरियम के पास ‘बांकुरा’ रेस्तरां में भी बैठते थे। उनसे मिलने का क्रम जहाँ तक मुझे याद पड़ता है ७१-७२ तक रहा, फिर वो कलकत्ता चले गए और आपातकाल में तो काफी उलटफेर हुआ और मिलने-जुलने के क्रम में रूकावट आ गयी और फिर मुलाक़ात नहीं हुई। बीच में प्रयाग शुक्ल से उनकी चर्चा होती रही और जब प्रयागजी के प्रयासों से अशोक सेकसरिया का कहानी संग्रह ‘लेखिकी’ छपा तो उसे पढ़ते हुए काफी दिनों तक उन पुरानी कहानियों में डूबा रहा। अलकाजी (अलका सरोगी) से उनके बारे में बीच-बीच में हालचाल मिलता रहा।
ज़ाहिर है कि एक उभरते हुए लेखक को जिन लोगों ने बहुत स्नेह और सहृदयता दी हो उन्हें भुलाना संभव नहीं। यही संतोष है कि अंत-अंत तक अशोक सेकसरिया जी की टेक वैसी ही बनी रही।
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