खुशियों की होम डिलिवरी 3- ममता कालिया (लम्बी कहानी भाग - 3) | Hindi Kahani by Mamta Kalia (Part 3)

Mamta Kalia's Hindi Kahani "Khushiyon ki Home Delivery" Part - III 

"खुशियों की होम डिलिवरी" भाग - 3 : ममता कालिया 

अभी दिन के सिर्फ चार बजे थे और अकेले घर में रुचि के सामने पूरी शाम पड़ी थी।

दीवान पर बहुत-सी किताबें और पत्रिकाएँ फैली पड़ी थीं। रुचि ने उनमें से ‘वॉट्स कुकिंग’ और ‘हैपी होम’ उठाई और बिस्तर पर जा लेटी।

उसने पन्ने पलटे, पर मन नहीं लगा। हलका-सा अफ़सोस हुआ सर्वेश के नाराज़ होने का। ऐसा लगा कि उसका पौरुष चोट खा गया। लेकिन उसका प्रस्ताव ही ऐसा था। अगर रुचि प्रतिवाद न करती, इसका अर्थ यह होता कि कोई भी, कभी भी उसके कमरे का और खुद उसका इस्तेमाल कर सकता है। अकेली रहनेवाली लड़कियाँ भयंकर असुरक्षा-बोध से घिरी रहती हैं। कहने को इमारत में दो सुरक्षाकर्मी हरदम तैनात रहते हैं। सीढिय़ों और लिफ्ट में भी सीसीटीवी कैमरे लगे हैं। प्रवेश द्वार पर रखा इंटरकॉम इमारत के सभी फ्लैटों से जुड़ा हुआ है, पर ये समस्त प्रबंध अनजाने, अचीन्हे आगंतुक पर कारगर हैं। जो आगंतुक, सहमति से अंदर आएगा, उसकी जि़म्मेदारी रुचि के सिवा और किसकी होगी? ‘विक्टोरिया चेंबर्स’ में तो नहीं, लेकिन पास ही ओशिवरा में दो-एक वारदातें हो चुकी थीं, जिनमें घर की मालकिन मृत पाई गई। दोनों ही वारदातों के सीसीटीवी फुटेज देखने पर पता चला कि हत्यारा मालकिन का पूर्व परिचित था और उसका उनके यहाँ पहले से आना जाना था।

सवाल यह था कि शहर में अकेली जीनेवाली लड़कियाँ आख़िर क्या करें? वे कहाँ, किससे, किस हद तक सामाजिक संपर्क बनाएँ। कामकाजी दुनिया में यह मुमकिन नहीं कि महिलाएँ सिर्फ महिलाओं के संपर्क में रहें और पुरुष सिर्फ पुरुषों के। संपर्क कभी-कभी सघन हो जाते हैं। क्या सभी संपर्कों के शीर्ष पर लड़कियाँ एक लाल बत्ती लगा दें। ऐसे में स्वाभाविक संवेगों का क्या होगा?

रुचि को लगा, क्या चालीस की उम्र में कोई महिला अपने को लड़की कह सकती है! साथ ही यह भी कि क्या चालीस साल की लड़की प्रेम कर सकती है! उसका उदाहरण तो और भी विचित्र था क्योंकि न वह अविवाहित थी न विवाहित। वह परित्यक्ता भी नहीं थी क्योंकि पति ने उसे नहीं छोड़ा था, वही पति को छोड़ आई थी। तलाक की तकलीफ़देह प्रक्रिया में पाँच साल गुज़र गए। जब समस्त बंधनों से आज़ाद हुई तो उसके माता-पिता एक के पीछे एक जल्द ही गुज़र गए। पहली बार जीवन में तब उसे एकाकीपन का मर्म समझ आया। तुम घर से निकलो और घर पर ताला लगाना पड़े या घर लौटो तो ताले का काला मुँह देखना पड़े, कितनी बड़ी सज़ा है यह? कहाँ उसके बाहर जाते समय मम्मी और पापा दोनों बालकनी में खड़े होकर हाथ हिलाते थे, कहाँ उसके घर की बालकनी समेत तमाम ओनों-कोनों में चिडिय़ों और कबूतरों ने घोंसले बना लिए। उसे अपने पैतृक घर से इतनी दहशत हुई कि उसने उसे औने-पौने दामों में बेचकर यह ओशिवरा वाला मकान ले लिया।

अब यहाँ की चुप्पी भी चिकोटी काटने लगी थी। बाकी फ्लैटों से हा हा ही ही की आवाज़ें आतीं, लिफ्ट से लोग निकलते और अलग-अलग नंबरों के फ्लैटों में जाते। रुचि के फ्लैट में सिर्फ उसके काम से जुड़े लोग आते। लड़कियों से दोस्ती विकसित करने के लिए ढेर-सा समय चाहिए था, जो उसके पास एकदम नहीं था। दोस्त आतीं और उसकी व्यस्तता देखकर विदा हो जातीं। किसी से बहुत निकटता नहीं थी।

तमाम शोहरत, शोमैनशिप और शाबाशी के बावजूद रुचि के मन में एक सन्नाटा था, जिसे फिर से पुरुष सान्निध्य की प्रतीक्षा थी। मौजूदा दौर में ऐसी बहुत लड़कियाँ थीं, जिनकी एक शादी असफल रही मगर दूसरी सफल। ‘सेकंड टाइम लकी’ कॉलम अब वैवाहिक विज्ञापनों वाले अख़बारी पृष्ठ का एक स्थायी स्तंभ था।

रुचि उसे बड़े ध्यान से पढ़ती। उसने जीवन साथी डॉट कॉम पर एक अन्य नाम पते से अपना विवरण डाला हुआ था। उसमें एक-दो प्रत्याशियों ने उत्तर दिया। वे अपने शब्द चयन और अंदाज़ में रुचि को काफी उथले लगे। उसने उन दोनों को डिलीट कर डाला। चालीस साल की लड़की का अकेलापन चौबीस साल की लड़की के अकेलेपन से नितांत भिन्न होता है। चालीसवाँ जन्मदिन आते-आते तक लड़की के मित्र-संसार में गिने-चुने नाम बच जाते हैं। सहेलियों की संख्या सीमित हो जाती है, दोस्तों की उनसे भी विरल। चालीस साल की लड़की जब विवाह के बारे में सोचती है, उसे अपने आसपास की तमाम कायनात ब्याही हुई मिलती है। उसकी उम्र के सभी लड़के विवाहित होते हैं और लड़कियाँ एक-दो बच्चों की माँ। चालीस साल की लड़की अपने जीवन के पिछले पाँच सालों पर नज़र डालती है तो पाती है कि उसने उन वर्षों में खूब काम किया, नाम किया, धन और यश कमाया। बस, मुहब्बत के खाते में बड़ा-सा अंडा पाया उसने। वह आगामी दस वर्षों के समय पर नज़र डालती है तो थर्रा उठती है। ऐसे में जो उपलब्ध है, वही श्रेष्ठ का सिद्धांत मजबूरन सामने रखना पड़ता है। यह पता होता है कि प्रस्तुत व्यक्ति आदर्श नहीं, किंतु दिल दिमाग़ सब ग़लत सिग्नल देते हैं।

कई दिनों तक रुचि का ‘वॉट्स एप्स’ का इनबॉक्स सर्वेश के नाम पर खाली रहा। इस फोनाचार की वह आदी हो गई थी। बार-बार फोन हाथ में लेती, ‘माय एप्स’ पर जाती पर निराशा हाथ लगती। आि़खरकार एक दिन उसी ने पहल की, ‘‘क्या बहुत व्यस्त हो गए हो?’’

फौरन जवाब आया, ‘‘अस्त-व्यस्त हूँ, पस्त हूँ!’’

—क्या हुआ?

—बेटा खो बैठा मैं।

—ओह नो, ऐसा कैसे?

—उसकी माँ ने रोका नहीं। ड्रग्स लेता था। एक शाम ज़्यादा ले ली।

—ओफ़ मैं आती हूँ जल्द!

रुचि को तत्काल अपने बेटे गगन का ख़याल आया। कल को वह भी ड्रग्स लेने लगे तो उसे रोकनेवाला कोई नहीं होगा, क्योंकि उसका पिता प्रभाकर शर्मा तो खुद ऐबी है।

सारे सिरदर्द के बावजूद सर्वेश और रुचि अपने बच्चों से जुड़े हुए थे। तलाक पति-पत्नी का हुआ था, पिता-पुत्र या माँ-बेटे का नहीं। वहाँ तनाव था, रिश्तों में टकराव नहीं। अब तक अपनी हर परेशानी अंश अपने डैड से बाँटता था। लेकिन उसने अपनी नशाखोरी की लत की उन्हें कोई भनक नहीं लगने दी।

वर्ली समुद्र तट के पिछवाड़े जहाँ मार्कंडेश्वर का मंदिर बना है और जहाँ वर्ली गाँव की सीमा आरंभ होती है, वहाँ की आि़खरी इमारत के चौथे माले पर सर्वेश का घर था। अहाते से लेकर कमरों के अंदर तक प्रबल वेग से हवा आती थी, मगर उसके साथ ही सूखी मछली और झींगों की बू भी। रुचि को मछली की गंध नागवार थी। उसने नाक पर रूमाल रखा। सर्वेश की माँ समझ गईं। उन्होंने बाई से खिड़कियाँ बंद करवाईं।

सर्वेश काम पर नहीं जा रहा था। वह एक कोने में बैठा सिर्फ दीवार को घूर रहा था।

माँ ने पंजाबी मिश्रित बोली में कहा, ‘‘एनूं समझा तो सही, ओह दी माँ नू रब ने सजा दित्ती है।’’

सर्वेश ने चुप्पी तोड़ी और भभककर कहा, ‘‘सिर्फ माँ को सज़ा मिली, बाप को ईनाम मिला है, क्यों?’’

माँ गुस्से से दूसरे कमरे में चली गई। सर्वेश और रुचि देर तक अँधेरा घिरते कमरे में बैठे रहे। धीरे-धीरे सर्वेश ने बोलना शुरू किया, ‘‘इधर अंश ज़ेबख़र्च बहुत माँगने लगा था। मुझसे कहता, मम्मी कंजूस है, यह भी नहीं सोचती कि मोटरबाइक में पेट्रोल डलेगा, तभी वह चलेगी। कभी कहता, हफ्ते में तीन दिन मैं भूखा रहता हूँ। कॉलेज में देर हो जाती है, इतने पैसे नहीं होते कि बाहर कैफे में खा लूँ। जितनी बार वह अपना दुखड़ा बयान करता, मेरे कलेजे से आह निकलती। मेरे साथ तो मनजीत कमीनी थी ही, बेटे को भी उसने नहीं छोड़ा। मोटी तनख़्वाह पाती है। सरकारी नौकरी है, पर पैसा उसे पति और बच्चे से भी ज़्यादा प्यारा है। मैं अंश को पैसे भेजता, कभी-कभी तो पूरी तनख़्वाह उठाकर भेज दी। मुझे क्या पता था?’’

इस बीच बाई आकर चाय और बिस्किट रख गई थी। वे वैसे ही पड़े रहे। बोलने के बाद सर्वेश कुछ हलका हुआ। उसने बाई को आवाज़ दी, ‘‘मंदा, चा पाहिजे।’’

उसने सिगरेट सुलगाई और धुएँ के पहले गुबार में जैसे अपने आप से कहा, ‘‘अमृतसर से यह जो एक रिश्ता था, उसका तार भी टूट गया। अब मैं किसी का नहीं, कोई मेरा नहीं।’’

—जीवन फिर शुरू हो सकता है सर्वेश!

—मुझ-जैसे खंडहर के साथ कौन जीवन शुरू करेगा रुचि!

—दो खंडहर मिल जाएँ तो एक मुकम्मल मकां बन जाए।

—क्या मैं कहूँ कि अब तुम वापस मत जाना!

—इतनी अकस्मात् मैं क्या कहूँ? कुछ वक्त दो। अभी तुम शोक में हो।

—अंश की रूह खुश होगी मुझे तुम्हारे साथ देखकर। जब वह छोटा था, उसने हम मियाँ-बीवी की भयानक लड़ाइयाँ देखी थीं।

विदा लेकर रुचि चल दी। उसके मन में उमंग की जगह एक चाह करवट ले रही थी, किस तरह वह सर्वेश को वापस जीवन के बीचोंबीच पहुँचाए?

जि़ंदगी का यह नया अध्याय बिना शोर-शराबे शुरू हुआ। सबको ईमेल करके नया पता भेज दिया गया। अपना ओशिवरा वाला मकान रुचि ने ताला लगाकर बंद कर दिया। उसका कुल सामान वहीं रहने दिया। सर्वेश के यहाँ सब कुछ इफ़रात में था। दो बड़े कमरों के बाद एक बालकनी भी, जिसके दूसरे छोर पर माँ का कमरा था। घर की व्यवस्था मंदा के हाथ में थी। वह सवेरे सात बजे आती और शाम सात बजे वापस अपने घर जाती। माँ के प्रशिक्षण से वह अच्छा खाना बनाना सीख गई थी।

रुचि और सर्वेश के इस नव-संबंध पर न तो किसी ने फूल बरसाए न काँटे। उन्होंने दो मित्रों की उपस्थिति में नोटरी से अपने विवाह की रजिस्ट्री करवाई और हल्दीराम के रसगुल्ले से सबका मुँह मीठा कर दिया। घर में माँ ने रुचि के गले में सोने की एक ज़ंजीर पहनाई और कहा, ‘‘देख कुड़े, मेरी फिकर ना करीं। बस तू ओनू सांभ!’’
नई-नई शादी के बावजूद सर्वेश बार-बार अपने बेटे को याद करता, ‘‘अंश कहता था डैड बड़ा होकर मैं भी आपकी तरह पत्रकार बनूँगा, खोजी पत्रकार। उसकी माँ ने कभी उसे अपने क़ब्ज़े से दूर नहीं होने दिया।’’

कभी सर्वेश लगातार सिगरेट पीते हुए स्वगत कथन करता, ‘‘आदमी हज़ार बार बिस्तर में जाता है पर एक या दो बार ही बाप बनने में कामयाब होता है। पितृत्व के ख़िलाफ़ औरतों के हाथ में कई हथियार हैं। वे आसानी से अपने को गर्भवती नहीं होने देतीं, वे कोई जि़म्मेदारी नहीं उठाना चाहतीं। अब तो मैं चाहूँ, तब भी बाप नहीं बन सकता। मैंने सन् दो हज़ार में ही नसबंदी करवा ली थी।’’ रुचि को इन बातों से खीझ और ऊब होती। यह क्या कि फैले हुए दूध पर रोये जा रहे हैं। बेटे से इतना ही लगाव था तो उसे साथ रखते!

दूसरी तरफ़ रुचि को मनोवैज्ञानिक उलझन होती। उसे बड़ी शिद्दत से माँ के रूप में अपनी नाकामयाबी महसूस होती। उसका बेटा गगन भी इन्हीं परिस्थितियों का शिकार था और कभी भी किसी गड्ढे में गिर सकता था। गगन के छुटपन में रुचि ने ज़रा भी धैर्य से काम नहीं लिया। वह पति का गुस्सा बेटे पर निकालकर सोचती, मैंने बदला ले लिया। एक बार गगन धूप में बाहर जाने की जि़द कर रहा था, रुचि ने खीझकर उस पर स्टील का गिलास दे मारा था। गगन के माथे पर चोट लगी, जिसका निशान बड़े होने पर भी बना रहा। प्रभाकर की हरकतों के विरुद्ध रुचि में आक्रोश इकट्ठा होकर गगन के प्रति हिंसा के रूप में आकार लेता। उसके मन में गाँठ बनती गई कि गंदे इंसान का बच्चा भी गंदा निकलेगा।

अब जब वह सर्वेश को अंश की यादों में निमग्न देखती, उसके अंदर नए सिरे से अपराध-बोध होता। इसमें कोई शक नहीं कि उसके और प्रभाकर के रिश्तों की तल्ख़ियाँ सबसे ज़्यादा गगन ने झेलीं। कभी माँ उसे मारती तो कभी पिता। बचपन से ही वह हद दर्जे का उग्र और जि़द्दी बन गया।

रुचि की समस्या थी कि वह गगन से जुड़ी अपनी चिंताएँ पति से बाँट नहीं सकती थी। उसने उसे यह बताया ही नहीं था कि उसके कोई बच्चा भी है। अब वह पछताती। अगर उसने यह तथ्य उजागर किया होता तो अब वह सुझाव दे सकती थी कि वे लोग गगन को साथ रखें। यह अलग बात है कि गगन यह प्रस्ताव मानता या नहीं।
बड़ी उम्र के इस समझदार संबंध में रुचि और सर्वेश ने एक नूतन प्रणाली का प्रणय निर्मित किया था। अपने कार्यजगत की व्यस्तताओं का दोनों ख़्ायाल रखते। दोनों के अलग बैंक खाते थे और कोई किसी के आय-व्यय में हस्तक्षेप नहीं करता। सबसे बड़ी आज़ादी इस बात की थी कि रुचि जब अपने घर जाकर रहना, काम करना चाहे, उसे पूरी छूट थी। अगर सर्वेश को फुर्सत होती तो वह भी कभी-कभी ओशिवरा पहुँच जाता। कभी-कभी रुचि अपने शो के सिलसिले में इतने लोगों से घिरी होती कि पति-पत्नी में अंतरंग बात भी नहीं हो पाती। रुचि उसे रोकने की कोशिश करती तो वह हँसता हुआ उठ देता, ‘‘बाकी बातें इस पर।’’ वह अपना स्मार्ट फोन दिखाता।
रुचि की मित्र-मंडली को उसकी क़िस्मत पर रश्क़ होता, ‘‘कितना लिबरल शौहर पाया है तुमने! तुम्हें जीने की, काम करने की पूरी आज़ादी देता है।’’

रुचि कहती, ‘‘इसीलिए तो मैं उससे कहती हूँ, तुम तो मेरे पंद्रह अगस्त हो।’’

‘‘और वह तुम्हें क्या कहता है?’’

‘‘वह मुझे अपनी छब्बीस जनवरी कहता है।’’

सच्चाई यह थी कि इक्कीसवीं सदी के पहले दशक तक अपने मुल्क में शिक्षा और रोज़गार ने लड़के-लड़कियों के सामने उम्मीदों का संसार खोल दिया था। हुजूम की हुजूम लड़कियाँ पढ़-लिखकर काम पर जाने लगीं। माता-पिता के दबाव में उन्हें शादी के फ्रेम में बँधना पड़ता, पर दिन पर दिन यह फ्रेम उन्हें दमघोंटू महसूस होता। पारंपरिक विवाह में लोकतंत्र की संभावना कठिन थी। हर जीवन साथी की इच्छा रहती कि वह पत्नी के संपूर्ण जीवन को संचालित करे। सुबह उसके जागने से लेकर रात को उसके सोने तक वह उसका नक्शा तैयार रखता कि पत्नी को क्या करना है। कुछ जीवन साथी तो ऐसे थे कि पत्नी को बाथरूम या टॉयलेट में भी अगर देर लगती देखते, तो नर्वस हो जाते। पत्नी के बाहर निकलते ही पूछते, ‘‘अंदर बैठी क्या कर रही थी?’’

पत्नी के कहने पर कि वह टॉयलेट में अख़बार पढ़ रही थी या क्रॉसवर्ड कर रही थी, जीवनसाथी ने बुरा माना और कहा, ‘‘ये सब काम बाहर आकर भी किए जा सकते हैं!’’

कुछ पतियों को इस पर एतराज़ था कि उनकी पत्नी फोन पर लंबी बातें करती है तो कुछ को इस पर कि वह फेसबुक पर ढेरों दोस्त बनाती है। लड़कियाँ हक्की-बक्की रह जातीं। यह तीसरी क़िस्म की दासता थी और चौथी क़िस्म की जकड़बंदी जहाँ आपकी हर गतिविधि के पैरों में डोरी बँधी हो। आज़ादख़याल लड़कियाँ शादी से बचने लगी थीं।

सर्वेश और रुचि एक-दूसरे की क्षमता और सामथ्र्य पहचानते थे। उनकी कामकाजी दुनिया फैली हुई थी। किसी राजनीतिक कांड या आर्थिक घोटाले के पीछे सर्वेश और उसके अख़बार ‘खुलासा’ की टीम लग जाती तो कई दिनों तक उसका अता पता न मिलता। उन्हें गुमनाम रहकर काम करना पड़ता, जिसमें कई बार कामयाबी की जगह तोहमत हाथ लगती। हालाँकि ‘खुलासा’ भी समाचार प्रधान अख़बार था, अख़बार जगत के ही विभिन्न चैनल उनके पीछे जासूसी में लगे रहते कि वे आजकल किस टोह में हैं। रुचि को सप्ताह में दो टीवी कार्यक्रमों की तैयारी करनी होती। कभी-कभी काम की रफ्तार इतनी बढ़ा दी जाती कि एक बार में दो एपिसोड की शूटिंग कर लेते। लगातार कैमरे के सामने प्रस्तुति देते-देते रुचि की मानसिक दशा वह हो जाती कि वह घर की रसोई में भी उसी प्रदर्शन के अंदाज़ में बोलती जाती, ‘‘अब हम आधा चम्मच जैतून के तेल में प्याज़ सुनहरा भूरा होने तक पकाएँगे।’’ कभी माँ अपने कमरे से निकल उसकी कमेंट्री सुनतीं तो उसे टोकतीं, ‘‘बस भी कर, एत्थे कोई कैमरे नहीं लगे हैं।’’

तीन महिला पत्रिकाओं में रुचि का पाककला कॉलम छपता। तीनों की पत्रकार उससे मिलने ओशिवरा वाले फ्लैट में आतीं। रुचि का भी मन यहीं रमता काम में। वह कई बार ओशिवरा चली आती। इधर मसाला उद्योग, बर्तन निर्माता और क्रॉकरी कंपनियाँ भी रुचि के पास आ रही थीं कि वह उनके उत्पाद अपने टेलि-शो में इस्तेमाल होते दिखाए। आए दिन इन जगहों से उपहार आते। अख़बारों में छपे इश्तिहारों में भी रुचि एक जाना-पहचाना चेहरा बन गई थी, जिसके हाथ में इनमें से कोई उत्पाद होता और उसका बयान कि ‘अमुक मसाले में बने खाने की लज़्ज़त ही कुछ और है।’ अथवा ‘सचिन स्टील के बर्तनों से अपना घर संसार चमकाइए।’ उसका सहायक अली हर काम में उसकी सहायता के लिए खड़ा मिलता। सेट की तैयारी, शूटिंग का मिनिट-टु-मिनिट ब्रेकअप, मेहमानों की देखभाल, निर्देशक की माँग, सब वह सँभालता। वह हर काम की सिलसिलेवार तैयारी रखता। कुर्बान अली कलाकार की तरह मेज़ सजाना जानता था। हरी शिमला मिर्च की बग़ल में लाल टमाटर, नमक की बग़ल में हल्दी और देगी मिर्च कितना अच्छा विज़ुअल देंगी, उसे पता था। वह पूरी दोपहर तैयारी में लगा रहता। समय सीमा में अधिकाधिक व्यंजन बनाने का राज़ यही था कि आधी तैयारी पहले से कर ली जाती। जिन चीज़ों को ओवन में रखकर भाप द्वारा पकाते, एक शॉट में उन्हें ओवन में डालते हुए दिखाते तो दूसरे शॉट में बेक होकर तैयार दिखाते। ये सब जि़म्मेदारी अली की थी। वह बेक्ड व्यंजन का एक पात्र पहले से तैयार रखता। परंपरा यह थी कि शूटिंग के बाद यूनिट के सभी सदस्य व्यंजन चखते और सराहना करते। कभी-कभी व्यंजन बहुत अधिक बन जाता या फिर कुछ खास होता। यूनिट के लोग बड़े इसरार से उसका एक हिस्सा रुचि की कार में रखवा देते कि ‘‘सर्वेश जी तो स्वयं पारखी हैं। उन्हें भी यह लाजवाब बानगी दिखाइए।’’
रुचि को बड़ा धक्का लगा, जब घर में किसी ने उसके बनाए व्यंजन को चखा तक नहीं। माँ ने कहा, ‘‘मैं हर किसी का हाथ लगा खाना खांदी नहीं।’’

सर्वेश का मूड उस दिन उखड़ा हुआ था, उसने अपने कमरे से आवाज़ लगाई, ‘‘मंदा, मेरे लिए एक कटोरी दलिया बना दो, पेट ख़राब है।’’

खीझकर रुचि ने वह व्यंजन मंदा को घर ले जाने के लिए दे दिया और भूखी सो गई।

कार्यक्रमों और चैनलों के वैश्विक विस्तार से यह संभव हो गया था कि देश-विदेश के सभी चैनलों के एक से बढ़कर एक मशहूर पाककला कार्यक्रम सबको देखने को मिलते। भारतीय दर्शक उन्हें देखता, भले ही व्यंजन समझ आए न आए। उन कार्यक्रमों में विशेषज्ञा के प्रस्तुतीकरण में इतनी उछलकूद और नाटकीयता भरी होती कि दर्शक लोटपोट हो जाता। कोई कार्यक्रम समुद्रतट पर तो कोई रेगिस्तान के बीच आयोजित दिखाते। जो कार्यक्रम रसोईघर केंद्रित होते, उनमें भी पाक-विशेषज्ञ मटकती हुई व्यंजन सिखाती।
रुचि के दोनों कार्यक्रम, ‘सुरुचि’ और ‘स्वाद’ में तड़क-भड़क की बजाय सादगी और स्वाभाविकता थी। दोनों चैनल दावा करते कि उनके सभी व्यंजन पहले से आज़माए हुए हैं। दोनों चैनल के मालिक मारवाड़ी थे और उनका फोकस शाकाहार पर था। बड़ी मुश्किल से ‘म’ चैनल वालों ने कुछ हफ्तों पहले अंडे वाले व्यंजनों के लिए अपनी मंज़ूरी दी थी। लाला जी को समझाना पड़ा कि केक, पेस्ट्री वगैरह अंडे के बिना बेमज़ा बनती हैं। ‘म’ चैनल के कार्यक्रम में विविधता बढ़ गई थी। वीर अंडों की सफेदी को फेंटकर झाग का ऐसा सफेद पहाड़ बना देता कि बिना बेक किए भी वह व्यंजन-जैसा ही चित्र उपस्थित करता।

‘म’ चैनल की चुनौती में ‘क’ चैनल के मालिकों ने आपसी विचार-विमर्श से यह तय किया कि वे अपने कार्यक्रम में सामिष व्यंजन बनाना भी सिखाएँगे। साथ ही, उन्होंने इस संभावना पर भी गौर किया कि स्वाद कार्यक्रम की होस्टेस बदली जाए। मालिकों की दलील थी कि रुचि शर्मा की छवि एक घरेलू मध्यवर्गीय गृहणी की है। उसके हाथों में गोश्त और मुर्गे की विधियाँ सजेंगी ही नहीं। एक मालिक ने कहा, ‘‘ऐसा कर सकते हैं, हम ‘स्वाद’ प्रोग्राम के दो हिस्से कर दें। सोमवार मंगलवार वैसे भी हिंदुस्तानी लोग मांस-मच्छी खाते नहीं हैं। शुक्रवार को भी लोगों को परहेज़ रहता है। तीन दिन ‘स्वाद’ प्रोग्राम रुचि शर्मा करें, तीन दिन कोई और।’’

रुचि को यह सुझाव नागवार लगा। अब तक इस कार्यक्रम पर उसका एकछत्र साम्राज्य था। उसने थोड़ा कठिन रुख़ अपनाया, ‘‘या तो मैं पूरा प्र्रोग्राम करूँगी नहीं तो बिलकुल नहीं।’’

दिनेश झुनझुनवाला ने कहा, ‘‘जैसी आपकी मर्जी। हमको कोई बाधा नहीं है।’’

रुचि को अपनी स्थिति के अस्थायीपन का अंदाज़ हो गया। मन मारकर उसने मालिकों की बात मान ली। इसके सिवा कोई चारा नहीं था।

प्रभाकर शर्मा का स्वास्थ्य दिन-पर-दिन गिरता जा रहा था। वाशी के सेक्टर सत्रह में उसके पास ‘अष्टम’ नामक हाउसिंग सोसायटी में जो पुश्तैनी मकान था, उसका गृह कर, जल कर और बिजली का बकाया अब एक छोटे-मोटे पहाड़ की शक्ल ले चुका था। बिजली विभाग ने तो उसके फ्लैट 808 की बिजली काट दी, गृह कर और जल कर का आए दिन नोटिस आता रहता। इन दिनों पूँजी निवेश का उसका धंधा भी मंदा चल रहा था। दरअसल इतने बरस बाद भी प्रभाकर अपनी शादी के फ्लॉप होने के धक्के से उबर नहीं पाया था। अपनी पुरुष मानसिकता में उसके लिए इस बात से समझौता करना मुश्किल था कि उसकी पत्नी उसे छोड़ कर चली जाए; ऊपर से अपना अलग जीने का रास्ता स्वयं ढूँढ़ ले। बहुत दिनों तक वह सोचता रहा कि एक दिन रुचि लुटी-पिटी वापस घर आएगी और उसके पैरों पर गिरकर अपनी भूलचूक की माफी माँगेगी। प्रभाकर के ज़ेहन में स्त्री की छवि एक समर्पित, सहनशील अनुगामिनी की थी। अपनी ज़्यादतियों के बारे में उसका दृष्िटकोण बड़ा उदार था। वह मानता था कि अगर पुरुष के पास अतिरिक्त पौरुष है तो वह पत्नी से इतर रिश्ते बनाएगा ही। वह अकसर दोस्तों के बीच शेखी बघारता, ‘‘आय एम सरप्लस फॉर माय वाइफ़।’’ इन जुमलों पर ठहाका लगता और प्रभाकर का मनोबल कई गुना बढ़ जाता। उसके सारे क़िस्से और लतीफे यौन संबंध से ताल्लुक़ रखते। जब रुचि साथ रहती थी, इस तरह की अभिव्यक्ति पर एतराज़ करती, ‘‘बच्चे के सामने ऐसी बातें मत किया करो!’’ प्रभाकर उसका एतराज़ हँसी में उड़ा देता, ‘‘मेरा बेटा मर्द बच्चा है, इसे शेरेपंजाब बनाऊँगा मैं।’’ उसे अपनी अनियमित जीवन शैली पर नाज़ था। गगन को भी वह धारा के विरुद्ध काम करना सिखाता। जब तक माँ-बाप की दी हुई संपत्ति घर में थी, इन अनीतियों के दुष्परिणाम स्पष्ट नहीं हुए लेकिन बाद में प्रभाकर परिवार के सुखचैन पर ग्रहण लगता गया। अपने जीने के ऊटपटाँग ढर्रे पर सोच-विचार न कर प्रभाकर कहता, ‘‘यह आठ नंबर बड़ा सिरफिरा होता है, मुझे इसने कभी चैन से नहीं रहने दिया। मेरी जन्मतिथि आठ है, जन्म का महीना भी आठ है। बाऔजी ने आठ को शुभ अंक मानकर उस ‘अष्टम’ सोसायटी में आठवीं मंजि़ल पर आठवाँ फ्लैट ले लिया। इस अट्ठू ने आठ साल अच्छा फल दिया बस। आठ नंबर बड़ा ज़ालिम होता है, ‘कभी अर्श पर कभी फ़र्श पर’ इसी के लिए कहा जाता है। अगर बग़ल की नवम या दशम सोसायटी में वे घर ले लेते तो आज यह हाल न हुआ होता!’’


अगली  कड़ी मंगलवार 11 नवम्बर को प्रकाशित होगी... 





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