सत्ताएं सिर्फ केंचुल बदलती हैं, जहर भरपूर रहता हैं - प्रेम भारद्वाज | We are all Haider - Prem Bhardwaj

सत्ताएं सिर्फ केंचुल बदलती हैं, जहर भरपूर रहता हैं

प्रेम भारद्वाज 


हम सब हैदर

‘वह कराहता है जैसे कुटते वक्त धान
वह कराहता है जैसे सोने वाले के तले पुआल
वह कराहता है जैसे वक्त से दबा हुआ बालिश
वह कूंथता है जैसे जंजीर को चबाता हुआ कुत्ता

अंधियारे कमरे के एक कोने में
एक बेसहारा बैठा हुआ बच्चा सुबकता है...’


‘मैं बहुत तकलीफ उठाता हूं, लेकिन सिर्फ अपने लिए। इसलिए उसका कोई मतलब नहीं होता कि सत्य और मूल्यों के विध्वंस पर दुखी होना सिर्फ एक मूर्खता होगी, क्योंकि हम चाहें या न चाहें वे ईश्वर की कृपादृष्टि वाले एक गुलाब के बगीचे की तरह थर्राते हुए पुष्पित हो जाते हैं। मानवता में भी मेरी दिलचस्पी नहीं क्योंकि वह सिर्फ एक तथ्य है जबकि मुझे इस दुनिया में मूल्यों के लिए लाया गया है।’

[ अत्तिला योझेफ ]

अत्तिला योझेफ हंगरी के महान कवि थे जिनके जन्म के तीन साल बाद उनके पिता लापता हो गए। दूसरे मां-बाप के यहां पले-बढ़े। 14 साल की उम्र में मां की मौत। तीस साल की उम्र में अवसादग्रस्त। माॅस्को में हंगरी के कम्युनिस्ट लेखकों ने उन पर फासिज्म का आरोप लगाकर हमला किया। अंततः 3 दिसंबर 1937 को मालगाड़ी के नीचे कूदकर आत्महत्या कर ली।

आप सोच रहे होंगे कि मैं अत्तिला योझेफ के बारे में विस्तार से लिखूंगा। लेकिन वह फिर कभी। अभी तो अत्तिला योझेफ के छोड़े गए कदमों के निशान के बारे में। शेक्सपीयर के ‘हैमलेट’ से लेकर आज तक का सबसे बड़ा सवाल ‘रहना है या नहीं रहना है।’ सवाल कि यह दुनिया क्या ऐसी रह गई है कि इसमें नारकीय यातना, छल-प्रपंच और खोखले रिश्तों के बीच भी रहा ही जाए। सपनों के सुंदर गुब्बारे, आश्वासनों का लेमनचूस, दिलफरेब दिलासों के बीच दुनिया की तमाम प्रार्थनाओं से बाहर पीड़ा के पथ पर रेंगते हुए सांसें लेना। मर नहीं जाना ही जीना है तो इस वक्त दुनिया में अनगिनत लोग जी रहे हैं। हर बात पर जो ‘जी’ कहते हैं और जो जी न लगने पर भी जिए जा रहे हैं।

खैर, अब लौटते हैं मुद्दे पर। हैमलेट और हैदर। इंतकाम और अस्तित्व का सवाल। जीने और नहीं जीने के बीच का तनाव। द्वंद्व। शेक्सपीयर और विशाल भारद्वाज का फर्क।

जब भारत-पाकिस्तान को संयुक्त रूप से नोबेल शांति पुरस्कार दिए की जाने घोषणा हो रही थी। ठीक उसी वक्त दोनों देशों की सीमा पर गोलियों की शक्ल में हिंसा बरस रही थी। इसी समय देश के कई सिनेमाघरों में फिल्म ‘हैदर’ भी दिखाई जा रही थी। महाराष्ट्र चुनाव में भाजपा-शिवसेना की 25 साल पुरानी दोस्ती टूटी। फिर चुनाव हुआ। भाजपा की जीत। मोदी मैजिक। जयललिता का जेल जाना और आना। उनके भावुक प्रशंसकों की आत्महत्या। ईरान की रेहाना को सजा-ए-मौत। रेहाना ने अपने बलात्कारी की हत्या कर दी थी। उसकी बहादुरी को सलाम। इंसाफ को कब्रिस्तान में दफन करने का मंसूबा। लेकिन इन सबके बीच ‘हैदर’ का अंतिम दृश्य। बर्फ की वादियों में कब्रिस्तान। बिखरी हुई लाशें। रक्तरंजित बेटे को दुलारती-सहलाती मां। खून में नहाया बेटा। टाइम बम के तारों से लिपटी मां। बेटे को बचाने की अंतिम जिद। मां का आत्मघाती रूप। सब भागते हैं जान लेकर। प्यार का दम भरने वाला फरेबी आशिक भी। सिर्फ बेटा करीब आ रहा है। मां के पास। लेकिन उसके आने से पहले ही मां के जिस्म के परखच्चे उड़ जाते हैं। बाकी बची रह जाती है राख। खाक में मिल गए जिस्म का मलबा।
साहित्य भी इस मौसम या कहें समय के रंग को पकड़ने में उस तरह से मुस्तैदी नहीं दिखा रहा जैसी कि उससे उम्मीद की जाती है।
इसी वक्त दिल के सुराख में ढेरों सवाल सरसराते हुए सर्प की मानिंद दिमाग में रेंगने लगते हैं। इस राख का मतलब क्या है? ...कौन है लाशों के इस भयानक मलबे का मालिक। ये लाशें क्यों है? मलबा क्यों है। कोई मालिक क्यों हैं। हैदर क्यों है। आग क्यों है। और कब्रिस्तान क्यों है, कब्रिस्तान कश्मीर क्यों है। कश्मीर कब्रिस्तान क्यों है? उस सरजमीं पर खड़ा हैदर सवालों से लिपटा क्यों है और सवालों का दूसरा नाम हैदर क्यों है? हैदर है क्योंकि कश्मीर है। कश्मीर है क्योंकि सियासत है। सियासत की खूनी चालें हैं। सत्ता का सपना है। महत्वाकांक्षा है। राष्ट्र है। उसकी सीमारेखा है। इस पार हम। उस पार तुम। और इन सबके पार सोचने की कोई जहमत नहीं करता। ये हैदर सिर्फ कश्मीर में ही नहीं है। कश्मीर केवल कश्मीर नहीं है। एक कैनवस है कश्मीर। लोग उसमें अपने-अपने हिसाब से रंग भरते हैं। प्रेम, दहशत, खूबसूरती और सियासत के रंग। लेकिन कश्मीर के बाहर कई कश्मीर हैं जिनमें हैदर रहता है

मैं कभी कश्मीर नहीं गया। उसे सिर्फ सिनेमा में देखा है। किताबों में पढ़ा है। खबरों से जाना है। कायदे से मुझे उसके बारे में लिखने का कोई अधिकार नहीं है। लेकिन मैं हैदर को जानता हूं। वह मुझे हर जगह मिल जाता है। कभी कविताएं लिखता, कभी प्रेम करता, अपने सरपरस्त (पिता) को खोजता, सियासत, फरेब और रिश्तेदारों का शिकार। उसकी एक जननी है जो बेहद जटिल है। वह उसको बांटना नहीं चाहता। लेकिन वह बंटती है। हैदर के भीतर आग है। वह इंतकाम के सांचे में ढलना चाहता है। मगर द्वंद्व है। यथार्थ और आदर्श का पुराना टकराव। क्योंकि वह पागल है। सच बोलता है। अपने लिए इंसाफ मांगता है। हक-हकूक की बात करता है। ये तमाम चीजें इसलिए भी इस तरह इस वजह से हैं कि हमारे समय का रंग और उसका मन-मिजाज ही बदल गया है। हम सर्दी की धुंध भरी रात में मई की दोपहरी के ताप को महसूसने का सुनहरा सपना पाले हुए हैं? इसमें मौसम को मुजरिम कैसे ठहराया जा सकता है? हमारी ही इच्छाएं पिछड़ गई हैं। समय बहुत आगे निकल गया है। साहित्य भी इस मौसम या कहें समय के रंग को पकड़ने में उस तरह से मुस्तैदी नहीं दिखा रहा जैसी कि उससे उम्मीद की जाती है। यह वक्त मौजूदा सवालों को सियासी सांचे में ढालकर आंदोलन का माहौल बनाने का है। लेखकों की एक बड़ी जमात है जो राजनीति के रंग में रंगी हुई है। वे एक विचारधरा को जीते हैं जो राजनीतिक है। फिर भी साहित्य राजनीति-निरपेक्ष होता जा रहा है। कुछ लोग कहते हैं कि बदलाव की सूनामी है, जो हाल-फिलहाल में ठहरने वाली नहीं। कुछ भी बचने वाला नहीं- न परिवार, न प्रेम, न मनुष्यता, न समाज, न नैतिकता, न पार्टी, न संगठन, न विचारधारा... सब कुछ तेजी से नष्ट हो रहा है, जिसे हम चाहकर भी रोक नहीं सकते। ऐसे जहर भरे माहौल में अगर ‘हैदर’ चीखता है, ‘हम हैं या हम नहीं हैं’ तो यह चीख हर उस आदमी की पुकार बन जाती है जो नाइंसाफी का शिकार है, सितमजदा है और जो अपनेे होने को साबित करने में ‘नहीं है’ की परिधि में दाखिल हो जाता है?

यह हम जैसे कई लोगों की छाती पर जैसे गोद दिया गया है, ‘हम हैं या हम नहीं हैं।’ हम हैं तो कैसे, अगर नहीं हैं तो क्यों। हम रहते हुए भी नहीं हैं। सितम तो यह कि बदलाव की तेज आंधी में भी हमारे देश का मिजाज भीतर से नहीं बदला है। उसने सिर्फ कपड़े बदले हैं। मेक ओवर कराया है। लड़ाइयां नरम होती हुईं अब बेजान हो गई हैं। सरोकार का अपहरण हो गया है। सत्ताएं सिर्फ केंचुल बदलती हैं, जहर भरपूर रहता हैं। प्रतिभा के सभी नक्षत्रों को आसमान या अंतरिक्ष नहीं मिलता। अधिकतर उल्का पिंड की तरह रगड़ खाकर नष्ट हो जाती हैं। धरती पर उनके अवशेष ढूंढ़ने से भी नहीं मिलते। वह बहुत चालाकी से अपना चेहरा बदल रही हैं। लेकिन इसका क्या किया जाए कि चौड़े सीने में दिल बहुत छोटा है। पेसमेकर के रहते धड़क रहा है। इस देश में बुलबुले सरीखी दृश्यावलियों के भीतर यथार्थ को देखेंगे तो आप समझ जाएंगे कि हैदर कोई व्यक्ति नहीं, दर्द का दूसरा मगर नया नाम है। सवालों के सलीब पर रंगा वह ईसा भी नहीं। आशा-निराशा की लहरों पर डूबते मस्तूल। समाधि पर सूख गए फूल। विषैले दिन और कांटेदार रातों में कहीं पसरा हुआ है हैदर का दर्द?

हैदर किसी जाति, मजहब, सूबे का नहीं है। वह बेइंसाफी की ताबूत में लेटा घुटनदार अंधेरे और जानलेवा कफस में आजादी के लिए बार-बार फना होता जाता है। ‘रहना है या नहीं रहना है’ वाले जहर को पीने को अभिशप्त।

वह राजधानी दिल्ली से बहुत दूर पूर्वोत्तर के राज्यों में है, जहां चुनावों के जरिए ताश के तमाम पत्तों को फेंटकर जोकर का चुनाव किया जाता है। जहां दिल्ली की चौड़ी सड़कों से बाहर बहुत बड़ा भाग हाशिए का दर्द झेल रहा है। पिछले 13 साल से अनशन पर इरोम शर्मिला के भीतर भी हैदर का दर्द है। सवाल यहां भी है, ‘हम हैं या हम नहीं हैं।’ मणिपुर की एक विधवा सारा हैं जो इरोम की तरह उस कानून के खिलाफ फौज के सामने खड़ी हैं जिसके कारण एक आॅटो रिक्शा ड्राइवर को अलगावादी बतलाकर गोलियों से उड़ा दिया गया। हरियाणा-पश्चिम उत्तर प्रदेश के बहुत से गांवों में ‘पारो’ की पीड़ा बिखरी हुई है, जिन्हें उड़ीसा-झारखंड-पश्चिम बंगाल के आदिवासी गरीब इलाकों से सिर्फ बच्चे पैदा करने या अधेड़ों की दैहिक भूख मिटाने के वास्ते कौडि़यों के मोल खरीदकर लाया जाता है। ओडिशा के कालाहांडी जैसे इलाकों में आज भी भूख से लड़ना जिंदगी की सबसे बड़ी जंग है। विदर्भ के भीतर कर्ज में डूबे किसान आत्महत्या करते हैं। उनकी विधवाओं के कंधें पर जिम्मेदारियों का बोझ मुआवजे के इंतजार में है। छत्तीसगढ़ में जो आदिवासी जंगल बचाने के लिए आवाज उठाते हैं, वे माओवादी हैं। दिल्ली से महज 150 किलोमीटर की दूरी पर विधवाओं का एक नगर है वृंदावन, जहां कभी कृष्ण ने राधा के साथ रासलीला करते हुए प्रेम की बांसुरी बजाई थी। यहां हर विधवा की सूनी उदास आंखों में गौर से देखने से पता चल जाएगा कि वे सब राधा हैं। कभी उनका भी कोई कृष्ण था जिसने उनके साथ प्रेम ;का स्वांगद्ध किया था। साथ नृत्य किया था। लेकिन एक दिन कृष्ण उन्हें रोता-बिलखता छोड़कर द्वारका चले गए, राजपाट संभालने।  सत्ता साथ छुड़ा देती है। संवेदना की धमनियों में सुविधा-स्वार्थ का लहू दौड़ने लगता है। हम होते हैं, मगर हम कोई और होते हैं। अपने पूर्वरूप की अर्थी को कंधे पर लादेे। ‘हैदर’ में भी आधी विधवाओं की बातें हैं। लापता उम्मीद। अंतहीन इंतजार। ‘कुछ नहीं’ की प्रतीक्षा। जो होकर भी नहीं है, उसका इंतजार। तय है कि वह नहीं आएगा, फिर भी एक आत्मघाती जिद। नहीं मालूम इन थकी उदास आंखों में उम्मीद ज्यादा है या मायूसी।

इस देश के किसी भी हिस्से में रहने वाला गरीब, कमजोर और आदिवासी ‘हम हैं या हम नहीं हैं’ वाली स्थिति में है। उनका होना नहीं होने जैसा है। जंगल में है, मगर दरख्तों से दूर है। आजादी के 67 साल बाद भी वे न जाने किस देश के वासी हैं। इस देश में कई ‘मोहनदास’ हैं जो खुद के होने को साबित करने में बेहाल हैं। ऐसे हैदरों की कमी नहीं जिनका घर नहीं बचा, या घर में घर जैसा कुछ भी शेष नहीं रह गया है। जो घर में नहीं रहते, वे कब्रिस्तान में रहते हैं। मकान में कब्रिस्तान कब सरक आता है, हम नहीं जान पाते। कब्रिस्तान में अब पहले जैसे सन्नाटे दिल को नहीं बेधते। अलबत्ता गोलियां जिस्म को छलनी करती हैं। कब्र खोदने वाले के हाथ में ए.के. 47 है। बूढे़-बुजुर्ग अमन का पैगाम देने के बजाय लाशें बिछाते हैं। कब्रिस्तान की खोपड़ी हंसती है। विदूषक हमारे समय की विद्रूपता को अपने ढंग से व्यक्त करते हैं। ‘हैदर’ में सलमान खान के दो फैन हैं। जो जाहिर करते हैं कि जब बर्फ की सफेद वादियां हिंसा से लाल हो रही हैं, घाटी में दहशत का जहर उगलता सूरज ठहरकर जब और तप रहा है, जब लोकतंत्र डल झील की तरह जमकर बर्फ बन गया है... ऐसे माहौल में एक तबका मगन है नाच-गाने और मनोरंजन में। प्लीज, इसे हमारे समय का कोई कंट्रास्ट नहीं समझें। दरअसल यह विद्रूपता है जो हमारी सांस, सियासत, सुविधा और स्वार्थ के रसायन से तैयार हुई है। भूख, प्यास, प्रेम, हिंसा, दर्द की तरह कुछ चीजें सदियां गुजर जाने के बाद भी नहीं बदलतीं। और आदमी के अस्तित्व से जुड़े सवाल भी जो मनुष्य की चेतना की पहली लकीर से आज इस वक्त, इन पंक्तियों के लिखे जाने तक खींची गईं कुछ सवालनुमा लकीरें खिंचने तक। चार सौ साल पहले शेक्सपीयर भी ‘हैमलेट’ के जरिए सवालों से ही टकरा रहे थे। इस नाटक का नायक हैमलेट बोलता है : 

 ‘मेरा यह शरीर, जो एक मांस के दूषित पिंड जैसा है, गलकर ओस की बूंदों की तरह बह क्यों नहीं जाता। कैसा बेकार यह जीवन इस संसार के सभी नियम और गतिविधियां, कितने दुःख-दर्द। मेरे लिए डेनमार्क एक कारागार है। जीवित रहूं या मृत्यु के गोद में सदा के लिए सो जाऊं, यह प्रश्न बार-बार मेरे अंतर को काटता है। मेरे लिए इन दोनों में से क्या अधिक अच्छा होगा। मैं दुर्भाग्य की ठोकरें सहता रहूं या मृत्यु की शरण लेकर इस क्रूर भाग्य के क्रम का अंत कर दूं।

वह इतना सच्चा है कि ‘पागल’ की श्रेणी में आ गया है। हममें से बहुत से लोग हैदर हैं। लेकिन पूरी तरह नहीं। पागल न हो जाएं, इसलिए थोड़ा कम सच्चे हैं, थोड़ा कम ईमानदार हैं। शायद आज के जमाने में जीना जिंदगी की सबसे पहली प्राथमिकता है, लेकिन क्या कैसे भी, कहीं से भी गुजरकर...?

***
'पाखी' नवंबर-2014 अंक का संपादकीय 

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