कन्या रत्न का दर्द - प्रेम जनमेजय | Vyangya - Kanya Ratan ka Dard - Prem Janmejay

कन्या रत्न का दर्द

प्रेम जनमेजय


आप यह मत सोचिए कि मैं कोई साधु संत या फिर आधुनिक बाबा-शाबा हो गया हूं और आपको माया मोह से दूर रहने की सलाह देकर स्वयं माया बटोरने का जाल बिछा रहा हूं तथा इस क्रम में आपको कन्या रत्न के दर्द को समझने का प्रवचन दे रहा हूं । न ही मैं प्लूटो के ग्रहों के चक्कर से दूर हो जाने पर कन्या जैसे किसी रत्न को धारण करने की सलाह दे अपना व्यवसाय जमा रहा हूं । मैं ऐसा क्यों और क्या कर रहा हूँ, आप भी जानिए । 

प्रेम जनमेजय

जन्म : 18 मार्च, 1949, इलाहाबाद
प्रकाशित कृतियां: 
व्यंग्य संकलन
राजधानी में गंवार , बेर्शममेव जयते , पुलिस ! पुलिस ! , मैं नहीं माखन खायो, आत्मा महाठगिनी , मेरी इक्यावन व्यंग्य रचनाएं, शर्म मुझको मगर क्यों आती ! डूबते सूरज का इश्क, कौन कुटिल खल कामी, मेरी इक्यावन श्रेष्ठ व्यंग्य रचनाएं, ज्यों ज्यों बूड़े श्याम रंग, संकलित व्यंग्य, कोई मैं झूठ बोलया
संपादन
‘व्यंग्य यात्रा’ के संपादक 
‘गगनांचल’ में संपादकीय सहयोग
बींसवीं शताब्दी उत्कृष्ट साहित्य: व्यंग्य रचनाएं
नेशनल बुक ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित ‘हिंदी हास्य व्यंग्य संकलन ’
श्रीलाल शुक्ल के साथ सहयोगी संपादक
हिंदी व्यंग्य का समकालीन परिदृश्य 
मेरी श्रेष्ठ व्यंग्य रचना 
श्रीलाल शुक्लः विचार विश्लेषण एवं जीवन 
बाल साहित्य
शहद की चोरी, अगर ऐसा होता, नल्लुराम, नव -साक्षरों के लिए खुदा का घडा, हुड़क, मोबाईल देवता
कहानी संकलन - टूटते पहाड़ की लालसा
सम्मान / पुरस्कार:
श्रीनारायण चतुर्वेदी सम्मान -2014
पं. बृजलाल द्विवेदी साहित्यिक पत्रकारिता सम्मान-2014
शिवकुमार शास्त्री व्यंग्य सम्मान -2012
लीलावती सम्मान -2010
‘व्यंग्यश्री सम्मान’ -2009 
कमला गोइन्का व्यंग्यभूषण सम्मान- 2008
संपादक रत्न सम्मान- 2006 ;हिंदी साहित्य समिति, नाथ द्वारा
हिन्दी निधि तथा भारतीय विद्या संस्थान ; त्रिनिडाड एवं टुबैगो द्वारा विशिष्ट सम्मान - 2002
अवन्तिका सहस्त्राब्दी सम्मान - 2001
हरिशंकर परसाई स्मृति पुरस्कार-1997
हिंदी अकादमी साहित्यकार सम्मान - 1997 - 98
अंतराष्ट्रीय बाल साहित्य दिवस पर ‘इंडो रशियन लिट्रेरी क्लब ’सम्मान -1998 
प्रकाशवीर शास्त्री सम्मान -- 1997 आदि

वेस्ट इंडीज़ विश्वविद्यालय, हिन्दी निधि तथा भारतीय उच्चायोग द्वारा त्रिनिडाड में भागीदारी 17 से 19 मई 2002 तक आयोजित त्रिदिवसीय ‘ अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी सम्मेलन ’ के  समिति के अध्यक्ष तथा आयोजन समिति के सदस्य। ‘प्रवासी हिंदी उत्सव यूू.के., न्यू जर्सी मिआमी , वेस्ट इंडीज और भारत में आयोजित अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलनों में आलेख पाठ एवं चर्चाओं में अध्यक्षता, आलेख पाठ एवं भागेदारी ।

हिंदी की सभी शीर्ष पत्र -पत्रिकाओ, धर्मयुग, सारिका, दिनमान, पराग, नवभारत टाइम्स, शकर्स वीकली आदि में लगभग तीन सौ रचनाएं प्रकाशित । 
सम्प्रति: एसोसिएट प्रोफेसर , कालेज आफ वोकेशनल स्टडीज , दिल्ली विश्वविद्यालय ।
सम्पर्क: 73 साक्षर अपार्टमेंट्स ए - 3 पश्चिम विहार नई दिल्ली 63
दूरभाष: 011-2526 4227 / मोबाईल: 098111 54440
ईमेल: premjanmejai@gmail.com

उस दिन मैं जल्दी में था। मुझे एक सरकारी अस्पताल पहुंचना था। अस्पताल की ओर जाने वाला हर व्यक्ति जल्दी में होता है, यह अलग बात है कि सरकारी अस्पताल वाले कभी जल्दी में नहीं होते। आपका हाथ टूट गया है, आप दर्द से कराह रहे हैं और आपको लग रहा है कि आपसे अधिक पीडि़त व्यक्ति इस दुनिया में कोई और नहीं है। आप उम्मीद करते हैं कि आपको पीड़ा में देखकर डाक्टर आपकी मां की तरह चीखता हुआ आपसे लिपटकर कहेगा, ‘‘हाय, मेरे बच्चे मरीज, को क्या हो गया! तेरी यह हालत किसने कर दी, मरीजवा?’’ यह कहते हुए डाक्टर की आंखों में आंसू बहेंगे और वह सारा काम छोड़कर आपकी सेवा में लगा जाएगा। पर उसे जल्दी नहीं है। उसे डाक्टर-सखी से बतरस का आनंद उठाना है और नर्सों के सौंदर्य पर रिसर्च करनी है। डाक्टर ही क्या, आप पाएंगे कि अस्पताल का हर कर्मचारी अपने में व्यस्त है। आपको देखने की किसी को जल्दी नहीं है। आप अधिक जल्दी मचाएंगे तो वह आपके पेट में कैंची छोड़कर पेट सिल देगा। आपकी हाय-तोबा अस्पताल वालों के लिए दूरदर्शन के कार्यक्रमों की तरह है। यदि आप किसी के द्वारा प्रायोजित हैं तो सारा अस्पताल रुचि के साथ देखेगा, नहीं तो आप कृषिदर्शन कार्यक्रम हो जाएंगे। कुछ करने को नहीं होगा तो आपको भी विवशता में देख लिया जाएगा।

मेरा हाथ नहीं टूटा था और न ही मैं मरीज होने के कारण जल्दी में था। जल्दी का कारण मेरा मित्र था। वैसे हुआ उसे भी कुछ नहीं था, जो कुछ होना था वह उसकी पत्नी को होना था।

वह मेरा मित्र है ओर सहकर्मी भी। दोपहर को मित्र के घर से फोन आया कि उसकी पत्नी की तबीयत ठीक नहीं है इसलिए उसे अस्पताल ले जा रहे हैं। उसकी पत्नी मां बनने वाली थी और वह बाप बनने वाला था। फोन सुनते ही उसके चेहरे पर प्रसव-पीड़ा का दर्द छा गया। ऐसे दर्द सुख का कारण भी बनता है और दुख का कारण भी। वह दो लड़कियों का पिता है।

वह मुझे अस्पताल की सीढ़ियों पर मिला था। उसका चेहरा अब भी प्रसव-पीड़ा लिए था। मैंने उत्सुकता दिखाते हुए पूछा, ‘क्या हुआ?’

--कन्या-रत्न की प्राप्ति हुई है’’ कहते हुए उसका चेहरा कोयला हो गया था। उसके चेहरे पर पराजित नेता की मुस्कान थी जो जनता को सामने पाकर विवशता में आती है या फिर विदेशी निवेशक का, न चाहते हुए भी विरोध करने के बाद विजयी के रूप में खिसियाती है । मुझे समझ नहीं आ रहा था कि मैं नवजात-शिशु के आगमन की बधाई दूं या सहानुभूति प्रकट करूं।

-दोनों ठीक हैं न?’

-हां, ठीक हैं।’ वीतरागी-योगी के स्वर में वह बोला, ‘तू चल, मां भी ऊपर ही है... 46 नंबर कमरा है... सेकंड फ्लोर पर... मैं अभी आ रहा हूं।’ और वह भारत के दलित वर्ग -सा निर्जीव अपने को आगे धकेलने लगा।

मुझे देखकर मित्र की मां के चेहरे पर ऐसी मुस्कान छायी जैसे फोटोग्राफर ने किसी मुर्दे से कहा हो--स्माइल प्लीज!’ और मुर्दा मुस्करा दिया हो।

मित्र की मां ने कहा, ‘लक्ष्मी आयी है!’’ पर स्वर से लगा ,जैसे लक्ष्मी गयी है।

मैं मां के रूप में उस हौवा के सामने नतमस्तक हो गया जो एक और हौवा के कारण पीडि़त थी। धन्य है ऐसी व्यवस्था जिसमें औरत, औरत की दुश्मन बनने को विवश है। हे महान पुरुष, तू धन्य है जिसने औरत की आंखों के पानी का गुणगान किया और औरत की महानता को रोने द्वारा सिद्ध किया।

आजकल वैज्ञानिकों ने ऐसी खोज तो कर ही ली है जिससे भ्रूणावस्था में ही पता चल जाता हैं कि लड़का होने वाला है या लड़की। धन्य हैं ऐसे वैज्ञानिक जिन्होंने हौवा की पीड़ा को समझा और उसका उद्धार किया। हमें उतनी ही औरतें तो चाहिए जो घर की चक्की में पिसती रहें। फालतू औरतों का दिमाग फालतू कामों में लगेगा तो वे हौवा से हौआ बनेंगी और पुरुष को भयभीत ही करेंगी।
शब्दकोश के अनुसार हौवा शब्द स्त्रीलिंग है और वह सौंदर्य तथा कोमलता से पूर्ण है। परंतु हौवा जब पुल्लिंग होती है तब वह हौआ बन जाती है। हौआ डराने के काम आता है। जो बच्चे दूध नहीं पीते हैं, अच्छे बच्चे नहीं बनते हैं, हौआ उन्हें डराता है। हौवा जब तक स्त्रीलिंग रही है, सौंदर्य और कोमलता की प्रतिमा बनी रहती है, पुरुष के चरणों की दासी रहती है, घर की रानी बनी रहती है, पुरुष निश्चित होकर अपनी मर्दानगी का सुख भोगता है। परंतु अब हौवा जागती है, पुल्लिंग होती है, आदम से आगे बढ़ने का स्वप्न देखती है, तब वह हौआ बन जाती है।

जब भी हौवा आदम बनने को होती है, पुरुष का सिंहासन डोलने लगता है।

आजकल राधेलाल जी का सिंहासन डोल रहा है। पिछले रविवार उनके घर गया तो दरवाजा खोलते ही किसी आतंकवादी की तरह उन्होंने प्रश्न दाग दिया, ‘‘तुम... तुम ही बताओ आजकल के जमाने में पत्नी का क्या फर्ज है?’’ मैं आम आदमी-सा चकित ही था कि उन्होंने स्वयं उत्तर दे डाला, ‘‘उसका यही फर्ज है न कि अपनी गृहस्थी ठीक-ठाक संभाले। घर के मोटे-मोटे काम... नाश्ता तैयार करना, खाना बनाना, बच्चों को स्कूल भेजना, झाडू-पोंछा करना, बर्तन साफ करना, थोड़ी-बहुत सिलाई करना और घर की देखभाल करना। अब यह काम गृहिणी नहीं करेगी तो क्या गृहणा करेगा? आदमी शादी क्यों करता है... उसे सुख मिले इसलिए न?’’

मैं समझ गया कि उनके घरेलू हालत ठीक नहीं हैं। परंतु एक अच्छे पड़ोसी की तरह उनके घरेलू मामलों में हस्तक्षेप न करते हुए अनजान होकर मैंने पूछा, ‘पर हुआ क्या, राधेलाल जी?’’

... होना क्या है... मैं दफतर से थककर आया और इन महारानी जी से बोला कि कुछ चाय- नाश्ता दे दो, तो जानते हैं महारानी जी ने क्या कहा? बोली, मैं भी थकी हुई हूं, आज चाय तुम पिला दो। शिव! शिव! शिव! इतना घोर अनर्थ घर का स्वामी चूल्हा-चौका करे? बाहर जाकर थोड़ा-बहुत कमा क्या लाती है, हम पर हुक्म चलाने लगी... अपने पति पर! पहले की औरतें कितना काम करती थीं... और आजकल, थोड़ा बहुत पढ़-लिख गयीं... कमाने लगीं... तो सारी गृहस्थी भूल गयीं... चाय बनने को कहो तो सिर में दर्द होने लगता है।’’

राधेलाल जी रक्तचाप महंगाई की तरह बढ़ता जा रहा था और मैं वित्त मंत्री-सा विवश खड़ा था। राधेलाल जी की मूंछ को नारी जाति ने ललकारा था, आज उन्होंने अपने तरकस के सारे तीर खोल लिये थे। वह सत्संग माला उठा जाए और कांपते हाथों से उसे खोलते हुए जैसे किसी महामंत्र का जाप करने लगे। ‘‘जानते हैं इस किताब में महापुरुषों ने क्या लिखा है... नारी नरक का द्वार है... पति की आज्ञानुसार चलने का व्रत रखने वाली स्त्री कभी दुखी नहीं होती। पति की आज्ञापालन करना स्त्री का परम धर्म है। वह इतना ही कर ले तो स्वर्ग जाती है... और यह स्त्री। यह तो नरक का कीड़ा बनेगी।’’

मुझे उस दिन राधेलाल के रूप में महान पुरुष के दर्शन हुए। हे राधेलाल, तू महान् है। तू नारी को आज्ञा देता है जिससे तेरी आज्ञा का पालन करके वह पतिव्रत धर्म का पालन कर सके। तू अपने कोमल हाथों से कुलटा नारी की देह को पीटता है, जलाता है, जिससे उसे स्वर्ग मिले। तूने ही नारी को बलिदान का मार्ग दिखाया। तूने नारी को महान बनाने के लिए उसे वनवास दिया, सती बनाया, शिला बनाया, क्या-क्या नहीं बनाया। कितना निर्माण किया है तूने भारतीय नारी का ! तू त्याग के इस पथ पर खुद नहीं चला, इसे नारी के लिए त्यागा, तेरा त्याग महान् है।

हे पुरुष जाति! तू भी राधेलाल की तरह जाग। देख, जमाना कितना बदल गया है। एक वह जमाना था कि पति नारी से कह दे कि तुझे अग्निपरीक्षा देनी है तो वह हंसते-हंसते चिता पर चढ़ जाती थी और आजकल चाय का पानी चढ़ाने को कहकर तो देखें।

हे आदम्, तू जाग और हौवा को हौआ मत बनने दे। ऐसी व्यवस्था बना कि हौवा हौआ की दुश्मन बनी रहे। तू दहेज के सांप को पाल, नारी को ईश्वर-शक्ति की अफीम खिला और उसकी आंखों पर पतिव्रत धर्म का चश्मा चढ़ा तथा खुद चैन की बांसुरी बजा। तू नारी को रत्न बनाकर अपनी शोभा बढ़ा, उसे क्रय-विक्रय की वस्तु बना और यदि वह रत्न न बने तो उसे परीक्षा की अग्नि में जलाकर खरा सोना ही बना । क्योंकि तू पुरुष है, धन्य है !

एक टिप्पणी भेजें

1 टिप्पणियाँ

  1. प्रेम जन्मेजय जी की पहले कभी सारिका में या कहीं अन्यत्र पढ़ा होगा ।फिर एक बहुत बड़ा गैप आ गया ।उन्हें अधिक नहीं पढ़ पाया ।भाई साहब नरेंद्र मौर्य ( हरदा ) के सान्निध्य में कुछेक फुटकर रचनाएँ पढ़ी होंगी । इंटरनेट की कृपा से अब घर बैठे पढ़ना बहुत आसान हो गया है ।
    काफी समय कोई पाकी व्यंग्य रचना पढ़ने का अवसर मिला है ।
    प्रेम जन्मेजय जी की यह रचना 'कन्या रत्न का दर्द' समूचे भारतीय स्त्री समाज का दर्द है ।पुरुष-सत्तात्मक समाज ने अपनी सुख-सुविधाओं की प्राप्ति के लिए कैसे कैसे सामाजिक एवं धार्मिक क़ानून-क़ायदे बना लिए हैं, जो स्त्री की महानता की स्वीकृति उसके एकतरफा सर्वस्व त्याग पर ही निर्भर करती है ।लेकन विडम्बना यह भी है कि, वह उसका पैदा होना स्वीकार नहीं करता । हर पुरुष को स्त्री के रूप में एक दासी अवश्य चाहिए किन्तु वह अपने घर में उसके जन्म को स्वीकार नहीं करता । उसे स्वर्ग-वासिनी बनाने के लिए उससे से सभी प्रकार का त्याग तो अवश्य चाहता है किन्तु स्वयं उसके लिए कोई त्याग नहीं करता । इस बात को प्रेम जनमेजय ने अपनी इस रचना में बड़ी शिद्दत से व्यंग्य में उठाया है ।
    एक माँ स्त्री होकर भी पुत्री होने पर उदास हो जाती है ।एक स्त्री के लिए इससे बढ़कर अभिशाप क्या होगा ।एक अवान्छिता लडकी अपने लड़की होने के बारे में क्या सोचती होगी ।
    पढ़े-लिखे और बुद्धिजीवी कहलाने वाले परिवार भी अगर 'कन्या रत्न के आगमन' पर खिसियाई हँसी हँसते हैं । तब उनका सारा बुद्धिजिविपना सामने आ जाता है ।
    एक बहुत ही सार्थक व्यंग्य के लिए प्रेम जनविजय जी आब्जा आभार एवं अभिन्दन !!

    जवाब देंहटाएं

ये पढ़ी हैं आपने?

Hindi Story: कोई रिश्ता ना होगा तब — नीलिमा शर्मा की कहानी
विडियो में कविता: कौन जो बतलाये सच  — गिरधर राठी
इरफ़ान ख़ान, गहरी आंखों और समंदर-सी प्रतिभा वाला कलाकार  — यूनुस ख़ान
ईदगाह: मुंशी प्रेमचंद की अमर कहानी | Idgah by Munshi Premchand for Eid 2025
परिन्दों का लौटना: उर्मिला शिरीष की भावुक प्रेम कहानी 2025
Hindi Story आय विल कॉल यू! — मोबाइल फोन, सेक्स और रूपा सिंह की हिंदी कहानी
ज़ेहाल-ए-मिस्कीं मकुन तग़ाफ़ुल Zehaal-e-miskeen makun taghaful زحالِ مسکیں مکن تغافل
रेणु हुसैन की 5 गज़लें और परिचय: प्रेम और संवेदना की शायरी | Shabdankan
एक पेड़ की मौत: अलका सरावगी की हिंदी कहानी | 2025 पर्यावरण चेतना
द ग्रेट कंचना सर्कस: मृदुला गर्ग की भूमिका - विश्वास पाटील की साहसिक कथा