सातवें आसमान पर आलोचना
ऊंट और गधे की शादी में ये लोग (मोहन, राकेश कमलेश्वर और राजेंद्र यादव) एक दूसरे के गीत गा रहे थे - विजय मोहन सिंह
कृष्ण कुमार सिंह के साथ हुए इस संवाद में आपको विजय मोहन सिंह अपनी बातों को एक से अधिक बार खुद ही कह के खुद ही काटते मिलेंगे .
आलोचक की कसौटी कौन तय करेगा ? पता नहीं . लेकिन इतना कहूँगा कि आलोचक को यह अहसास रहे कि तानाशाही की यहाँ कोई जगह नहीं है.
बहुवचन में प्रकाशित आलोचक अध्येता कृष्ण कुमार सिंह से शीर्षस्थ कथा आलोचक विजय मोहन सिंह की बातचीत, आप शब्दांकन पाठकों के लिए .
विजय मोहन सिंह हमारे समय के शीर्षस्थ कथा आलोचक हैं। वे कथा आलोचना पर कई किताबें लिख चुके हैं। उनकी विश्लेषणपरक दृष्टि और आलोचना का हिंदी भाषी समाज सदैव कायल रहा है। हिंदी कथा साहित्य को केंद्र में रखकर उनसे आलोचक अध्येता कृष्ण कुमार सिंह ने एक महत्वपूर्ण संवाद किया है। विजय मोहन सिंह ने जिस तरह दो टूक अंदाज में प्रश्नों के जवाब दिए हैं उससे यह संवाद कथा साहित्य को समझने के लिए एक नई दृष्टि देता है। विजय मोहन सिंह से यह संवाद उस समय किया गया जिन दिनों वे महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा में आवासीय लेखक के रूप में प्रवास कर रहे थे।
ऊंट और गधे की शादी में ये लोग (मोहन, राकेश कमलेश्वर और राजेंद्र यादव) एक दूसरे के गीत गा रहे थे - विजय मोहन सिंह
आप अपने सवाल में ही यह मानकर चल रहे हैं कि ‘गोदान’ को जो महत्व मिलना चाहिए वह मैंने नहीं दिया है। मैं सवाल यह करूंगा कि ‘गोदान’ को क्यों महत्व मिलना चाहिए? पहले से ही हम मानकर क्यों चलें कि महत्व मिलना चाहिए, कौन निर्णय करेगा और किस निकष पर करेगा कि ‘गोदान’ को क्या और कितना महत्व मिलना चाहिए? आप क्या समझते हैं? क्यों मिलना चाहिए?
पहली बात तो यह कि जितनी बातें आप कह रहे हैं उनका ‘गोदान’ की रचना से कोई संबंध नहीं है। रचना को सबसे पहले रचना होना चाहिए, वह यथार्थवाद को स्थापित करने का कोई आलोचनात्मक ग्रंथ या सिद्धांत ग्रंथ नहीं हो सकती। रचना को पहले रचना के स्तर पर ही अपने को प्रमाणित करना होगा। उसमें यथार्थ कितना है, कैसा है, क्या है, क्या नहीं है, कौन-सा यथार्थ है, ये सारे सवाल यथार्थ के बारे में कर रहे है, उपन्यास के बारे में नहीं। ‘गोदान’ रचना के स्तर पर उस श्रेणी की नहीं बन पाई है जिस श्रेणी के महान उपन्यास बनते हैं। जो कुछ मैंने कहा है वह रचना के संदर्भ में कहा है, उसका यथार्थ से कोई खास लेना-देना नहीं है। निश्चित रूप से प्रेमचंद ने यथार्थ का चित्रण किया है। वह पहले उपन्यासकार थे जिन्होंने उपन्यास को यथार्थ की भूमि पर उतारा। ‘चंद्रकांता’ व ‘चंद्रकांता संतति’ जैसे ऐयारी, जासूसी, मनोरंजनपरक उपन्यासों से अलग हटकर उन्होंने उपन्यास को यथार्थ से जोड़ा। उसमें भी देखना होगा कि उनके जो दस-बारह उपन्यास हैं उनमें से कौन किस कोटि का है। मैंने ‘गोदान’ की रचनात्मकता पर कुछ प्रश्न उठाए हैं। कहां उसकी रचनात्मकता क्षीण हुई है, कहां वह रचनात्मक स्तर पर उच्च कोटि की रचना बनाने में असफल हो गए हैं, कहां उन्होंने लटकों-झटकों से काम लिया है, इसके बहुत से उदाहरण मैंने दिए हैं। उन्हें यहां दोहराने की जरूरत नहीं है। उसके दुर्बल और सबल अंशों का भी जिक्र किया है मैंने। आपने पढ़ा होगा मैंने धनिया के बारे में लिखा है। उसमें चुहिया नाम की पात्र है जिसकी ओर किसी का ध्यान नहीं गया है। उसका भी जिक्र मैंने किया है। वह शहर में रहती है और गोबर की पड़ोसन है। जब गोबर की पत्नी मरने लगती है, उसके स्तन से दूध तक नहीं निकलता, बच्चा मर रहा है, तो वह गरीब मजदूरनी जिसके स्तन से कई साल से दूध नहीं उतरा है, वात्सल्य से भरकर बच्चे को गोद में लेती है और उसको दूध निकल आता है। इससे अधिक मार्मिक चित्रण क्या हो सकता है? यानी उसका वात्सल्य इतना सच्चा और प्रामाणिक है। वात्सल्य का अद्भुत वर्णन चुहिया के संदर्भ में प्रेमचंद ने किया है जो गोदान के महत्वपूर्ण स्थलों में से एक है। फिर, सारे दलित मिलकर मातादीन के मुंह में हड्डी डाल देते हैं कि तुम हमारी इज्जत लेते हो, हम तुम्हारा धर्म लेंगे। ये कुछ ऐसे स्थल हैं जो उपन्यास को सबल बनाते हैं। इसके साथ ही उसकी कमजोरियों का भी जिक्र किया है इसलिए मेरी दृष्टि में ‘गोदान’ क्या है मुझे यह बताने के लिए किसी आलोचक का नाम लेने की जरूरत नहीं है। उन बातों का जिक्र करने की जरूरत मुझे नहीं है जो आचार्य शुक्ल या नंददुलारे वाजपेयी लिख गए हैं। जब आदमी लिखता है तो अपनी दृष्टि से, अपने मानदंडों पर लिखता है। महत्व तो वह निर्धारित करेगा जो उसका मूल्यांकन करता है। दूसरा कौन बताएगा? हर आलोचक के अपने मापदंड होते हैं। मैंने अन्य आलोचकों से अलग ठोस उदाहरण देकर अपनी बात कही है।
हर रचना अपनी कसौटी खुद निर्धारित करती है। बनी बनाई कसौटी के आधार पर जो समीक्षक लिखेगा वह फार्मूलाबद्ध समीक्षा ही लिखेगा। समीक्षा के बने बनाए निकष नहीं होते, होंगे तो ठस होंगे। रचनाकार बने बनाए निष्पक्ष लेकर नहीं चलता है कि हमको यही करना है, यही सिद्ध करना है। समीक्षा को भी मैं रचना ही मानता हूं। रचना पर लिखते हुए ही समीक्षा के मापदंड निर्मित होते है।
हर महत्वपूर्ण रचना के लिए मापदंड क्या अलग-अलग होंगे जो उसी रचना से निकलेंगे?
हर समीक्षक का मापदंड अलग-अलग नहीं होता। जब समीक्षक किसी रचना पर लिखेगा, तब रचना बताती जाएगी कि रचनात्मकता का आधार क्या होता है। धीरे-धीरे उसी प्रक्रिया में मापदंड बनते हैं। मापदंड अलग-अलग होंगे तो वहीं फार्मूलाबद्ध समीक्षा हो जाएगी। फिर तो वह एनार्किक हो जाएगी। पहले तो मुझे इन शब्दों से आपत्ति है। मापदंड, कसौटी ये कर्कश लगते हैं। कसौटी न बनी बनाई होती है न मापदंड होता है, समझ होती है। आप रचना को समझ रहे हैं कि नहीं, समझ रहे हैं तो कितना समझ रहे हैं? उसी समझ के आधार पर रचना का मूल्यांकन किया जाता है।
समीक्षक का एक दृष्टिकोण तो होता ही है। जरूरी नहीं दृष्टिकोण अलग-अलग हो जैसे कलावादी दृष्टिकोण या मार्क्सवादी दृष्टिकोण।
ये सब शब्दों का फेर है। बहरहाल मेरा दृष्टिकोण न कलावादी है न मार्क्सवादी। जब भी आप कलावादी या मार्क्सवादी कहेंगे तो फिर बने बनाए मापदंडों पर चले जाएंगे।
आप कविता, उपन्यास या कहानी का मूल्यांकन किस आधार पर करते हैं?
मैं किसी चीज का मूल्यांकन नहीं करता हूं। सिर्फ रचना को समझने की प्रक्रिया में अपने विचारों को व्यक्त करता हूं। आम पाठक की तरह मैं भी रचना को पढ़ता हूं, पढ़ते व समझते हुए जो विचार मन में आते हैं वही समीक्षा है।
निराला के संदर्भ में उनकी कविताओं के आधार पर आप निष्कर्ष निकालते हैं कि निराला एक्सेंट्रिक, सिनिकल कवि हैं।
निराला सनकी थे ही। मैंने कोई नई बात तो नहीं कही है। बाद में वे पागल भी हो गए थे। यह तथ्य है। हर रचनाकार थोड़ा-बहुत सनकी होता ही है- कोई थोड़ा ज्यादा तो कोई थोड़ा कम। रचनाकार थोड़ा एबनॉर्मल होता ही है। अगर एकदम नॉर्मल होगा तो रचनाकार नहीं होगा। मैंने थोड़ा अलग ढंग से लिखा है कि निराला विषमताओं के कवि हैं। विषमताओं से मेरा अर्थ यह है कि रचना का धरातल सम और विषम होता है। किसी भी रचनाकार का ग्राफ एक क्रम में बिना विचलन के या तो ऊपर जाता है या फिर ऊपर से नीचे आता है लेकिन निराला का ग्राफ बहुत ही विषम है, ऊपर-नीचे जाता-आता रहता है। कभी इस पटरी से उस पटरी पर चला जाता है इसलिए मैं उन्हें विषमताओं का कवि मानता हूं। निराला की रचनाओं का ग्राफ बहुत जटिल है। कभी यह ग्राफ सामान्य से भी नीचे चला जाता है तो कभी एकदम ऊपर उठ जाता है चकित करता हुआ पाठक को, आलोचक को जिसे उदात्त कहते हैं, सब्लाऊइम लेकिन निराला कभी-कभी रिडिकुलस पर भी चले आते हैं। यही चीज उन्हें एक्सेंट्रिक बनाती है।
क्या आप ‘राम की शक्तिपूजा’ के आरंभिक अंश की क्लिष्टता, जटिलता को निराला द्वारा अपनी रचनात्मक कमजोरी छिपाने के लिए अपनाए गए डिवाइस के रूप में देखते हैं?
जो शुरू की अठारह पंक्तियां हैं उनके बारे में नंददुलारे वाजपेयी बहुत पहले ही कह चुके हैं। वे पंक्तियां समझ में नहीं आती हैं। जिस शब्दावली में उन्हें रचा गया है उसे हिंदी का पाठक नहीं समझ सकता। वह दुरूहता व जटिलता से भी परे है- सामान्य क्या, अच्छे-खासे पढ़े-लिखे पाठक की समझ से भी परे। जो भी पढे़गा उसे लगेगा कि समझ में नहीं आ रही हैं पंक्तियां।
यह क्लिष्टता ‘सरोजस्मृति’ में बिल्कुल नहीं है लेकिन उसे भी आप एक दुर्बल कविता मानते है क्योंकि उसमें भावविह्वलता या कवि द्वारा अपने को धिक्कारने का भाव है।
मैंने जो शब्द इस्तेमाल किया है उसके लिए अंग्रेजी में सेल्फपिटी कहा जाता है। सभी समीक्षक सेल्फपिटी को कविता की दुर्बलता मानते हैं। कविता में जहां सेल्फ आता है वहां कविता कमजोर हो जाती है, ऐसा शुक्लजी ने भी लिखा है। आत्मभर्त्सना, आत्ममुग्धता जहां आती है वहां कविता कमजोर हो ही जाती है। यह मेरी कोई नई मान्यता नहीं है। मैंने सिर्फ वे स्थल दिखाए हैं जहां सेल्फ उभरकर आता है। जब आत्मदीनता आएगी तो वहां भाव विह्वलता होगी ही, मैनरिज्म आएगा। ये सब चीजें मिलीजुली हैं। ये बातें सभी आलोचकों ने कही हैं। मैंने तो सिर्फ उभारा है।
हिंदी में तो सभी समीक्षक कविता के उन्हीं अंशों पर लहालोट होते हैं।
किसी और ने उनके बारे में क्या लिखा है उससे मुझे कुछ नहीं लेना-देना। न मैं उस पर कमेंट करना चाहता हूं, न मुझे उससे कोई मतलब है। मैंने पढ़ने व समझने के क्रम में जो जाना व समझा उसे ही व्यक्त किया है।
फिर भी कोई समीक्षक यह कहकर तो नहीं बच सकता है कि मुझे किसी और से कोई मतलब नहीं है। अभी-अभी आप आचार्य शुक्ल व नंददुलारे वाजपेयी का जिक्र कर रहे थे।
मैंने यह कहा कि किसी आलोचक का कथन हमारे लिए रेलेवेंट नहीं हैं, काम का नहीं है तो हम उस पर क्यों राय व्यक्त करें? लेकिन पढ़ा हुआ तो आप नहीं भूल सकते। कुछ चीजें ऐतिहासिक क्रम में, परंपरागता क्रम में सर्व स्वीकृत होती जाती है। वे अपने आप निकष बन जाती हैं। कुछ चीजें तो आपको मानकर चलना ही होगा वरना समीक्षा भी एनार्किक हो जाएगी। मैंने उन्हीं चीजों का जिक्र किया है जो समीक्षा के स्तर पर लगभग स्वीकृत और मान्य हो चुकी हैं। भावविह्वलता न कभी कविता का गुण रही है न हो सकती है।
कसौटी की बात मैं भी उसी संदर्भ में कर रहा था। कोई तो सामान्य भावभूमि होगी बात करने के लिए।
ठीक कह रहे हैं आप वरना बातें अधर में लटकी रह जाएंगी। ये सब मान्यताएं सार्वभौमिक हैं, जैसे मनुष्य होना एक सार्वभौमिक मान्यता है। यह तो आप मानेंगे ही कि समीक्षक, पाठक या रचनाकार जो भी बातें करेगा वह रेशनल करेगा और रेशनल को ही स्वीकार करेगा। व्यापक संदर्भ में कहें तो मनुष्य का विकास इसी क्रम में हुआ है। जो चीजें आप को इरेशनल लग रही हैं उनको तो आप कंडेम करेंगे ही। इरेशनल होने का एक मतलब यह भी है कि आप अचानक भावविगलित हो रहे हैं, आत्मदीनता आप में आ रही है यानी आप रेशनल स्तर पर उसको अभिव्यक्त या स्वीकार नहीं कर रहे हैं। जब सेंटिमेंटलिटी को कंडेम करते हैं तो और कुछ नहीं सिर्फ इस कारण कि वह इरेशनल है। अधिक भाव विगलित होना इरेशनलिटी है। जो आदमी आप से हमेशा भावविह्वलता या भावुकता के स्तर पर मिलेगा उससे आप क्या बात करेंगे? उससे विचार विनिमय क्या करेंगे? वह तो रोने लगेगा।
यही दोष आपको नागार्जुन की कविता में भी दिखाई पड़ता है?
ठीक-ठीक यही दोष कैसे कहूं मैं? निराला निराला हैं और नागार्जुन नागार्जुन। लेकिन नागार्जुन में और बहुत सी चीजें मुझे नजर आती हैं। नागार्जुन का जिक्र मैंने अपनी किताब में काका हाथरसी के संदर्भ में भी किया था जो बाद में मैंने हटा दिया। केदारजी उसे पढ़कर दुःखी हो गए थे। उन्होंने ही उसे निकलवा दिया। नागार्जुन की कमजोरियों का हाल तो यह है कि कई जगह उन्हें पढ़ते हुए लगा और मैंने लिखा भी कि वे बेहतर काका हाथरसी हैं। केदारजी इससे दुःखी और कुपित हो गए थे कि क्या कह रहे हैं। मैंने वह वाक्य हटा जरूर दिया, लेकिन मेरी ऑरिजिनल प्रतिक्रिया यही थी। कुल मिलाकर नागार्जुन की कमजोरियां वह नहीं हैं जो निराला की हैं। संक्षेप में इतना ही। बहुत विस्तार में हम लोग न जाए फिलहाल।
अकाल पर नागार्जुन की जो कविता है वह बिंब की दृष्टि से महत्वपूर्ण कविता मानी जाती है। उस कविता के संदर्भ में एक बात मार्के की है कि उसका जो मित कथन है वह उसके सौंदर्य को बढ़ाता है। नागार्जुन तमाम जगह पर वोकल होते हैं पर वहां भाव-बोध बहुत संश्लिष्ट है और बिंबों के सहारे अपनी बात कहते हैं लेकिन आठ पंक्तियों की उस कविता में आप केवल एक पंक्ति को ही काव्यात्मक मानते हैं- ‘कौवे ने खुजलाई पांखें, कई दिनों के बाद’। सिर्फ एक पंक्ति को, बाकी को क्यों नहीं?
आप उसे अगर ध्यान से पढ़ेंगे तो उसमें जितने तथाकथित बिंब हैं, वे बिंब नहीं हैं। चाहे छिपकली की गश्त हो या चूहों की हालत शिकस्त हो, वे सारे बिंब नहीं हैं। आप पाएंगे कि ‘कौवे ने खुजलाई पांखें’ में कई ध्वनियां एक साथ निकलती हैं जो अन्य पंक्तियों में नहीं हैं। बाकी पंक्तियां तुकबंदी ज्यादा लगती हैं। अकाल का अंत हो चुका है, चूल्हे से धुंआ निकल चुका है। यह पंक्ति पूरी कविता को अपने में समेटे है। पूरी कविता में जितनी बातें कही गई हैं वो इस एक पंक्ति में समेट ली गई हैं। इसलिए यह अधिक काव्यात्मक या सार्थक है।
उसे आप हिंदी की एक महत्वपूर्ण कविता मानते हैं कि नहीं?
नहीं। हिंदी बहुत बड़ी चीज है यार। वह बड़ी सामान्य कविता है, कविता ही नहीं है। अगर नागार्जुन के स्तर पर मैं उस कविता को देखूं तो नागार्जुन जनता के कवि हैं। यह कविता बड़े साधारण स्तर की है और साधारण लोगों के लिए है। सहृदय को यह कविता प्रभावित नहीं करती है।
क्या सामान्य जन सहृदय नहीं होता? कबीर की कविता यदि सामान्य जन समझते हैं तो वे सहृदय नहीं हैं?
मैं काव्य शास्त्रा में नहीं जाऊंगा लेकिन सहृदय के बारे में जो लिखा गया है, उसमें सामान्य जन नहीं आता है। पहली बात तो कबीर की जितनी कविताएं हैं वे सारी उत्कृष्ट नहीं हैं। जो उत्कृष्ट हैं उन्हें सामान्य जन नहीं समझते हैं। अगर आप हजारीप्रसाद द्विवेदी की किताब ‘कबीर’ देखेंगे तो कबीर की कविता में जो दर्शन, उलटबांसियां हैं उन्हें साधारण जन नहीं समझ सकता। मेरी समझ में आज तक यह नहीं आया कि क्या कबीर का है और क्या नहीं। कुमार गंधर्व ने जो कबीर को गाया है, अकसर वही प्रचलित हो गया है। एसेंसियल कबीर जब बनाएंगे तो पाएंगे कि कबीर भी कोई आसान कवि नहीं हैं जितना कि मान लिया गया है। रचनाकार कभी तय करके नहीं लिखता कि वह किसके लिए लिख रहा है। कबीर, तुलसी सभी के साथ यही बात है। जो तय करके लिखेगा, उसकी कविता कहीं न कहीं क्षतिग्रस्त होगी। मैं मानता हूं कि किसी न किसी स्तर पर तो कविता स्वतःस्फूर्त होती ही है। आप बहुत कांशस होकर लिखेंगे तो कविता में कृत्रिमता आ जाएगी।
कितनी दूर तक आप रोमैंटिसिज्म के साथ हैं? स्वतःस्फूर्त ...
स्वतःस्फूर्ति कोई रोमैंटिसिज्म का कॉपीराइट नहीं है। वे तो मानते हैं कि पूरी कविता ही स्वतःस्फूर्त है लेकिन मैं उस हद तक नहीं मानता। मैं मानता हूं कि यदि आप कुछ भी लिखेंगे तो उसमें एक आंतरिक प्रेरणा होगी ही होगी।
अच्छा, अब कुछ बातें कहानी के संदर्भ में- क्या आप मानते हैं कि ‘उसने कहा था’ आधुनिक भावबोध की पहली कहानी है?
नहीं। ‘उसने कहा था’ आधुनिक भाव-बोध की कहानी नहीं है।
रोमानी भाव-बोध की कहानी है?
बिलकुल।
क्या प्रेमचंद के उपन्यास और उनकी कहानियां भी रोमानी भाव-बोध की रचनाएं हैं?
नहीं, मैं ऐसा नहीं मानता हूं। मैंने तो इस धारणा का खंडन किया है कि गद्य तो यथार्थ और कविता रोमैंटिक लिखी जा रही थी उस युग में क्योंकि मैं मानता हूं कि एक युग का भाव-बोध एक ही होता है। वह विभाजित या खंडित नहीं होता। साहित्य ही नहीं बल्कि अन्य कला विधाओं में भी वही भाव-बोध अपने ढंग से अभिव्यक्त होता है। छायावादी युग की कविता का भाव-बोध अलग था और उसके गद्य का जहां प्रेमचंद लिख रहे थे वह बिल्कुल भिन्न था, ऐसा मैं नहीं मानता। प्रेमचंद की रचनाओं में भी वह एलीमेंट है जिसे आप सार्वभौमिक मानते हैं। मनुष्य में सहृदयता, करुणा होनी चाहिए, मानवीयता, प्रेम होना चाहिए। यह सार्वभौमिक चीज है। आप किसको अपना केंद्रीय भाव-बोध मानते हैं, फर्क इसका होता है। ये भाव-बोध की सामान्य चीजें हैं जो छायावादी कवियों में भी थीं और प्रेमचंद में भी थीं। अगर आप आगे बढ़ेंगे तो देखेंगे कि कहीं-कहीं प्रसाद प्रेमचंद से भी दस कदम आगे बढ़कर यथार्थ की अभिव्यक्ति अपने उपन्यासों में करते हैं। ‘तितली’, ‘कंकाल’ सबके संदर्भ में यह बात सही है। कई जगह प्रेमचंद अपने एप्रोच में रोमैंटिक बने रह जाते हैं। रोमैंटिक कहा जानेवाला रचनाकार यथार्थ की साहसपूर्ण अभिव्यक्ति कर सकता है और यथार्थवाद का सबल रचनाकार रोमैंटिक एटीच्यूड में फंसकर रह सकता है। कई ऐसे स्थल हैं जहां अपनी कृतियों में प्रेमचंद रोमैंटिक और प्रसाद यथार्थवादी हो गए हैं। ये चीजें घुलीमिली रहती हैं। किसी में कोई चीज मुखर होकर सामने आ जाती है और वही उसका कथन मान लिया जाता है। एक सजग पाठक समझता है कि किस लेखक की रचना में कहां रोमैंटिक तत्व प्रमुखता से व्यक्त हुए हैं और कहां यथार्थ की सघन अभिव्यक्ति हुई है। ये चीजें काफी संश्लिष्ट हैं। इसीलिए मैं श्रेणी-निर्धारण के खिलाफ हूं। हिंदी समीक्षा में जहां इस तरह का वर्गीकरण किया जाता है- एक इधर, एक उधर, एक वानर, एक भालू- मैं ऐसी चीजों में विश्वास नहीं करता हूं। ऐसा होता नहीं है।
‘नई कहानी’ की पहली कृति ‘परिंदे’, यह वर्गीकरण ही तो है। जाहिर है कि आप उससे सहमत नहीं होंगे।
पहली कृति की तो बात ही नहीं है। मैं ऐसा मानता नहीं हूं। ऐसा होता नहीं है। किसी आलोचक ने कुछ वर्ष पहले ‘परिंदे’ को पहली कहानी कह दिया, कोई किसी और को पहली कहानी कह देगा। इससे पूरी बहस मूल मुद्दों से हटकर पहली कृति पर चली जाएगी। ऐसा हिंदी में होता आया है। पहली कहानी, पहला उपन्यास, पहली कविता आदि को लेकर मार-काट कर रहे हैं समीक्षक और इतिहासकार। मैं इससे बचता हूं।
1960 के दशक में आपने ‘नई धारा’ पत्रिका में भुवनेश्वर की कहानी ‘भेड़िए’ की चर्चा की थी और बताया था कि वह किस तरह से नई कहानी के दौर में लिखी गई तमाम कहानियों के बरक्स ज्यादा विकसित भाव-बोध की कहानी है।
आज भी मानता हूं। नई कहानी पचास के बाद की चीज थी। एक आदमी जो चालीस के पहले यह बात लिख चुका है तो उसे विकसित भाव-बोध की कहानी कहेंगे न। उस वक्त हिंदी में जो कहानियां लिखी जा रही थीं वे इस अर्थ में अविकसित भाव-बोध की थीं कि उनमें भावुकताग्रस्त कहानियों की भरमार थी। अविकसित भाव-बोध का वह युग था जिसमें रोमैंटिसिज्म के चलते रोमैंटिक व भावुकताग्रस्त कहानियां लिखी जा रही थीं जिनका वास्तविकता से कोई सरोकार नहीं था। एक दशक पहले ही वह कहानीकार ‘नई कहानी’ के अविकसित भाव-बोध के बरक्स विकसित भाव-बोध की कहानी लिखता है तो यही कहेंगे न। यही मानकर मैंने ऐसा कहा था।
अगर रोमानियत से भरी कहानियां उस युग में लिखी जा रही थीं तो प्रेमचंद के आखिरी दौर की तमाम यथार्थवादी कहानियों को क्या कहेंगे?
मैं नई कहानी की बात कह रहा था और संदर्भ भी ‘नई कहानी’ का है। प्रेमचंद की बात मैं नहीं कर रहा था। वह नई कहानी है। अपने फॉर्म, शिल्प, भाषा में वह नई कहानी थी।
‘नई कहानी’ के दौर में मोहन राकेश, कमलेश्वर और राजेंद्र यादव की तिकड़ी ने उस आंदोलन को हथिया लिया था। क्या आपको लगता है कि इनसे ज्यादा सशक्त कहानीकार उस युग में दूर दराज के इलाकों में कहानियां लिख रहे थे जिनमें रेणु जैसे कहानीकार भी थे?
अपने को मसीहा घोषित कर देंगे तो सब लोग उन्हें मसीहा थोड़े मान लेंगे? उस दौर में ‘सारिका’ के अंक देखें- ‘मेरा हमदम मेरा दोस्त’। ये लोग एक दूसरे का प्रचार कर रहे थे। मोहन राकेश कमलेश्वर के बारे में लिख रहे थे, कमलेश्वर मोहन राकेश और राजेंद्र यादव के बारे में। ऊंट और गधे की शादी में ये लोग एक दूसरे के गीत गा रहे थे। बाद में नामवर सिंह ने इनकी पोल खोल दी। नामवर सिंह ने ‘परिंदे’ को पहली कहानी कहा था तो वह जानबूझकर इन लोगों को पीटने के लिए ही कहा था। पहली कहानी तो यह है, आपकी नहीं। यह तिकड़ी तो उसी वक्त पिट गई थी। बहुत जल्दी मुलम्मात छूट गया था इन लोगों का। खुद नामवरजी इनको इन्हीं के समय में लिखी जा रही कहानियों से पीट रहे थे, बल्कि साठ के बाद के कहानीकारों की चर्चा कर भी उन्हें उनकी सीमा बता रहे थे। बेहतरीन कहानियां दूरदराज में लिखी जा रही थीं जैसे- रेणु लिख रहे थे। उनकी कहानियां पूर्णिया से खिसककर पटना आईं और फिर सब जगह छा गयीं। सबको पता चल गया कि कौन कितने पानी में है। भाई, कलई तो खुलनी ही थी, खुल गई। मैंने तो उसी दौर में लिखा कि ये सभी कभी जैनेंद्र और अज्ञेय से आगे बढ़े ही नहीं थे। इनसे ज्यादा आधुनिक भाषा तो अज्ञेय के पास है, जैनेंद्र के पास है। इसे नामवरजी उस वक्त नहीं मान रहे थे, बाद में उन्होंने माना। जैनेंद्र की कहानी ‘जाह्नवी’ से राजेंद्र यादव की कहानी ‘जहां लक्ष्मी, कैद है’ की तुलना की जाए तो यह कहानी पिछड़ जाती है। यह कहानी भावुकता ग्रस्त है। इसके शीर्षक से ही यह भाव स्पष्ट हो जाता है। उस दृष्टि से ‘जाह्नवी’ काफी आगे की चीज है। वह उसके शिल्प व भाव-बोध, भाषा, क्राफ्ट से पता चल जाता है। मैंने कहा था कि ‘नई कहानी’ कभी नई हुई ही नहीं, वह तो इन तीनों लोगों का मिसनोमर था, एक मिथ था। इन्हीं लोगों का अपना बजाया ढोल था। इनसे कहीं ज्यादा नई कहानी अज्ञेय और जैनेंद्र की है। प्रेमचंद की कहानियों में और जैनेंद्र तथा अज्ञेय की कहानियों में एक फर्क साफ नजर आता है। एक डिपार्चर तो दिखता ही है, मूल्यांकन के स्तर पर चाहे जो कहें। तो ‘नई कहानी’ जैसी कोई चीज थी ही नहीं। वह तो नामवरजी पहले ‘नई कहानी’ के प्रवक्ता बने और बाद में जब उन्होंने उसकी पोल खोली तो इन लोगों से उनकी खटक गई। पहले तो नामवरजी प्रवक्ता बनाए गए थे, बाद में वे ट्रेटर मान लिए गए। यह नामवरजी का विरोधाभास कहा जाएगा। बाद में नामवरजी ने ही लिखा कि ये तो जगह-जगह दुकान खोलकर बाट लगाए बैठे थे- नई कहानी ले लो, नई कहानी ले लो। मैंने तो उसकी जड़ ही काट दी। जब ‘नई कहानी’ थी ही नहीं तो उसके संदर्भ में बात क्या की जाए? अज्ञेय और जैनेंद्र के बाद उस तरह का डिपार्चर सिर्फ साठोत्तरी कहानी में दिखाई पड़ता है। जाहिर है अपने युग की कहानी का प्रवक्ता बनकर आया मैं। बीच में नई कहानी कहीं थी नहीं। ये लोग तो सेवार आदि बकवास किस्म की घास की तरह उग आए थे।
नामवर जी ‘परिंदे’ को लेकर लहालोट होते हैं। उसकी भाषा, लाक्षणिकता आदि को लेकर।
नामवरजी उसके प्रशंसक हैं नहीं, थे। बाद में वे उसके बहुत बड़े क्रिटिक बन गए- ‘परिंदे’ के भी, निर्मल के भी। फिर यह तो उस समय की मांग थी। उस तिकड़ी से कहानी को बाहर निकालने के लिए। नामवरजी ने बाद में निर्मल की जितनी भर्त्सना की उतनी किसी और ने नहीं की। उनके कृतित्व की ही नहीं, व्यक्तित्व की भी। आगे जाकर उन्होंने जिसे कहते हैं ‘बिलो द बेल्ट’ मारा है निर्मल वर्मा को। उन्होंने यह क्यों किया? उसके साहित्यिक कारण थे। उसका जिक्र अभी अप्रासंगिक है।
नामवर सिंह आज भी मानते हैं कि निर्मल वर्मा एक मेजर कहानीकार हैं। क्या आप भी ऐसा मानते हैं?
यह तो मैं भी मानता हूं। तो ......?
क्यों? एक दो कारण बताइए?
एक-दो नहीं, सौ कारण बता सकता हूं। पहली बात यह कि जो विशेषता बड़े कथाकार की होती है वह निर्मल वर्मा में है। वह यह है कि उन्होंने अपनी एक अलग कथा भाषा बनाई। मैं मानता हूं कि दो ही रचनाकार हिंदी कथा साहित्य में ऐसे थे जिन्हों ने अपनी अलग कथा भाषा बनाई। एक छोर पर बिल्कुल आधुनिक ढंग से निर्मल वर्मा ने तो दूसरे छोर पर, दूसरे ढंग से भिन्न स्तर पर रेणु ने। यह बात कहानी के संदर्भ में ही नहीं उपन्यास के संदर्भ में भी लागू होती है। ‘नई कहानी’ के दौर में किसी तीसरे की कोई कथा भाषा बनी ही नहीं। उस पूरे दौर में इन्हीं दो कथाकारों ने अपनी सर्वथा निजी, पृथक् कथा भाषा- बहुत ही डिस्टिंग्विस्डम, डॉमिनेंट, प्रभावशाली कथा भाषा बनाई। एक कारण तो यह है और दूसरी बात कि निर्मल वर्मा पहले ऐसे कहानीकार थे जिन्होंने कहानी को जिंदगी के बुनियादी सवालों को एक्सप्लोर करने का माध्यम बनाया। फिलॉसाफिकल, मेटाफिजिकल सवालों से टकराने वाला पहला कहानीकार कोई दिखाई देता है तो वह निर्मल वर्मा।
आप दोनों बातें एक ही साथ कह रहे हैं। एक तरफ तो जीवन के बुनियादी सवाल और दूसरी तरफ मेटाफिजिकल ....। क्या आप सामाजिक, आर्थिक सवालों को जीवन के बुनियादी सवाल नहीं मानते हैं?
बहुत अच्छा सवाल, कुल मिलाकर यह सवाल बुनियादी है। मैं मेटाफिजिकल चीजों को ही जीवन के बुनियादी सवाल मानता हूं।
मेटाफिजिकल सवाल कैसे बुनियादी होगा?
वही बुनियादी सवाल है। सतह के स्तिर पर बुनियादी सवाल का एक पहलू होता है और एक वह जहां वह सतह से नीचे या ऊपर जाता है। मुक्तिबोध ने ‘ब्रह्मराक्षस’ में और निर्मल वर्मा ने अपनी कहानियों के जरिए सतह के नीचे के बुनियादी सवालों को उठाया। वे इन्हीं मेटाफिजिकल सवालों से टकराते हैं। उस समय कहानी में निर्मल के अलावा यह कोई नहीं कर रहा था। दूसरी बात यह कि सामाजिक, आर्थिक सवाल इतने आसान नहीं होते जिस तरह हमारे कहानीकार उन्हें उठाते हैं। टॉलस्टाय की ‘आन्ना कारेनिना’ इसलिए महान रचना है कि वह एक साथ मेटाफिजिकल और सामाजिक, आर्थिक सवाल से जूझती है। दोनों स्तरों पर एक साथ एक्सेस करते हैं टॉलस्टाय इसलिए टॉलस्टाय हैं। वे सामाजिक, आर्थिक सवालों की जड़ों तक जाते हैं। एक तरफ वो सामंतशाही और ब्यूरोक्रेसी से टकराते और लड़ते हैं तो दूसरी तरफ उसके बियोंड जो जीवन है, जहां हमारे ऋषि-मुनि पहुंचते हैं, महान दार्शनिक पहुंचते हैं, उस स्तर तक जाते हैं। इसीलिए बड़ा रचनाकार द्रष्टा हो जाता है, ऋृषि हो जाता है।
लेकिन निर्मल उस तरह बुनियादी सवालों से कहां टकराते हैं? वे तो ‘अंतिम अरण्य’ में चले जाते हैं।
मैं यह कहां कह रहा हूं कि टकराते हैं? वे उठाते हैं।
क्या उनसे पहले किसी ने यह सवाल नहीं उठाया था? प्रेमचंद, जैनेंद्र, अज्ञेय किसी ने नहीं?
मेरी जानकारी में नहीं। हां, निर्मल वर्मा भी केवल उठा रहे थे लेकिन उनकी कहानियों में यह प्रवृत्ति दिखाई देती है, अंतर्धारा की तरह। वहां वे एकदम से ट्रांसेंड करते हैं। अब उसमें उनको सफलता नहीं मिली, यह सचाई है।
दो चार कहानियों में ही वे इस तरह के सवाल उठा भी पाए हैं।
हां, यही बात है। लेकिन उससे पता चलता है कि उनके दिमाग में कुलबुलाहट है। यह अलग बात है कि उनको शरण ‘अंतिम अरण्य’ में मिलती है। यही बात कहानियों पर लागू होती है जहां शरण ‘कव्वे और काला पानी’ में मिलती है।
क्या आप नहीं मानते कि अमूर्तता की ओर मुड़ने पर रचनात्मक लेखन की मृत्यु हो जाती है? इस तरह के लेखन में पूरी गुंजाइश है कि वह अमूर्तता की ओर मुड़ जाए।
नहीं, ऐसा नहीं होता। फिर मैं टॉलस्टाय का उदाहरण दूंगा। वे सवाल उठाते हैं और अमूर्तता की ओर नहीं मुड़ते। लेकिन निर्मल वर्मा मुड़ जाते हैं। इसलिए निर्मल वर्मा टॉलस्टाय नहीं हो सकते वैसे ही जैसे नागार्जुन निराला नहीं हो सकते।
क्या ऐसा नहीं लगता कि निर्मल जीवन से उस तरह प्रेम नहीं करते हैं जिस तरह एक रचनाकार को करना चाहिए?
यह सच है, वह जीवन से प्रेम नहीं करते। मैं अज्ञेय और निर्मल दोनों के बारे में यह बात लिख चुका हूं।
तब मेजर कथाकार कैसे हो गए निर्मल वर्मा?
मैं निर्मल को मेजर कथाकार कहां कह रहा हूं? कौन-सी चीज उनको दूसरे कहानीकारों से अलग करती है, यह महत्वपूर्ण है। कहानीकारों की जमात से उनको अलग करने के लिए उनकी उन विशेषताओं को रेखांकित करना जरूरी होगा और उनको थोड़ा बड़ा मानना होगा। अंतिम मूल्यांकन में वह मेजर कहानीकार नहीं हैं। अगर मुझे हिंदी के दस श्रेष्ठ कहानीकारों को चुनना हो तो मैं प्रेमचंद को भी रखूंगा और अज्ञेय तथा निर्मल वर्मा को भी।
निर्मल वर्मा के साथ कहानीकार के रूप में और किसे रखना चाहेंगे?
किसी को नहीं।
एक पाए का दूसरा कहानीकार?
पाए के तो केवल रेणु हैं लेकिन वे दूसरे छोर पर हैं। दोनों में कहीं से कोई कुलावा नहीं मिलता है। अकसर दो विरोधी चीजें एक बिंदु में मिल जाती हैं। मार्क्स भी कह गए हैं।
अगर आपको हिंदी के पांच श्रेष्ठ उपन्यासों के नाम लेने हों तो.......?
चलिए साथ ही बनाते हैं सूची। अपनी कोई स्थापना नहीं देने जा रहे हैं, आपके सहयोग से ही बनाने जा रहे हैं। बनाने का मतलब है सोचना। हमारे यहां यथार्थवादी उपन्यासों की शुरुआत ही देर से होती है। जाहिर है प्रेमचंद का ‘गोदान’ पहला होगा। दूसरा रखना हो तो मैं ‘शेखर: एक जीवनी’ को रखूंगा। तीसरा ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ और चौथा ‘मैला आंचल’ होगा। पांचवें उपन्यास के रूप में जैनेंद्र के ‘त्यागपत्र’ को रखना चाहूंगा।
‘राग दरबारी’ को नहीं रखेंगे?
‘राग दरबारी’ तो घटिया उपन्यास है। मैं उसे हिंदी के पचास उपन्यासों की सूची में भी नहीं रखूंगा। पता नहीं ‘राग दरबारी’ कहां से आ जाता है? वह तीन कौड़ी का उपन्यास है। हरिशंकर परसाई की तमाम चीजें ‘राग दरबारी’ से ज्यादा अच्छी हैं। वह व्यंग्यबोध बोध भी श्रीलाल शुक्ल में नहीं है जो परसाई में है। उनके पासंग के बराबर नहीं है श्रीलाल शुक्ल और उनकी सारी रचनाएं।
और अगर पांच कहानियां चुननी हों तो.....?
इस पर तो मैंने सोचा ही नहीं है। चलिए, आपके साथ सोच लेते हैं। जल्दी जल्दी एक, ‘उसने कहा था’, दूसरी ‘कफन’, तीसरी अज्ञेय की ‘हिली बोन की बत्तखें’, चौथी रेणु की कोई कहानी, फिर कायदे से निर्मल वर्मा की एक कहानी रखना चाहूंगा।
कौन सी? नाम बता दें।
‘दूसरी दुनिया’। फिलहाल यही।
इस सूची में अमरकांत की कोई कहानी नहीं है।
नहीं। अमरकांत मेरे प्रिय कहानीकार नहीं हैं।
क्यों?
नहीं हैं तो नहीं हैं। हां, अमरकांत की एक कहानी अचानक याद आ रही है। उसको मैं जरूर रख सकता हूं, वह है ‘हत्यारे’। वह अद्भुत कहानी है। अमरकांत के पूरे कथा साहित्य में एक विचलन है। यह कहानी एकदम से उछलकर आ जाती है बीच में। उनकी बाकी कहानियों से उसका कोई संबंध नहीं है- ‘दोपहर का भोजन’ से, फलां से, ढेमाका से कोई संबंध नहीं है। वह चौंकानेवाली कहानी है। आश्चर्य होता है कि कैसे अमरकांत लिख गए। यहां तक कि पांच कहानियों में भी उसके लिए जगह बना सकते हैं।
उसके लिए आप रेणु और निर्मल वर्मा में से किसकी कहानी को रिप्लेस कर सकते हैं?
निर्मल की कहानी को कर सकता हूं। रेणु को नहीं कर सकता। रेणु की कहानियां क्या हैं? वे तो नगीने हैं। कोई हीरा है, कोई पन्ना है, कोई रूबी है, कोई मोती है। रेणु ने कहानियों में तो केवल नगीने ही नगीने दिए हैं। कंकड़ पत्थर दिए ही नहीं। रेणु ने बहुत ज्यादा कहानियां नहीं लिखी हैं। कुल मिलाकर पच्चीस-तीस कहानियां होंगी। उनमें पांच-सात तो अनमोल हैं इसलिए रेणु की तो बात ही छोड़िए।
यह आकस्मिक नहीं है कि आपकी सूची में रेणु के बाद के दौर के किसी कहानीकार की कोई कहानी नहीं है अपनी पीढ़ी सहित।
नहीं। रेणु के बाद के दौर में रेणु की कहानी भी नहीं है और निर्मल की कहानी भी नहीं है। रेणु और निर्मल की नकल है। लेकिन नकल तो नकल होती है। रेणु और निर्मल के बाद कहानी का दौर कई दृष्टियों से अलग है, मतलब मार्क ऑफ डिपार्चर बहुत सारे हैं लेकिन वह ग्राफ ऊपर नहीं जा रहा है। दोनों दो अलग चीजें हैं। जैसे आधुनिकता को आप रोमैंटिसिज्म से आगे की चीज मानेंगे, लेकिन जब आप पूछेंगे कि भाई कीट्स से बड़ा कवि बताओ तो मुश्किल हो जाएगी। शेक्सपीयर का युग बिल्कुल अलग था। उसके बाद बड़े-बड़े परिवर्तन आए। उस समय तो आधुनिकता कहीं थी ही नहीं लेकिन शेक्सपीयर के बराबर किस कवि को मानेंगे? इसलिए यह एकदम अलग चीज है। विकास की प्रक्रिया में परिवर्तन अलग होता है, लेकिन कोई उससे ऊंचा शिखर लेकर आए तब न। क्या कालिदास, तुलसीदास के बाद कोई कवि नहीं हुआ है? किस कवि को आप इन दोनों की तुलना में रखेंगे? उसी तरह से कहानी के क्षेत्र में भाषा के स्तर पर बड़े परिवर्तन हुए लेकिन मैं उदय प्रकाश की कहानी को नहीं रख सकता हूं निर्मल या रेणु की कहानी के समानांतर। एकाध और नाम ले सकते हैं।
जैसे शिवमूर्ति......?
अरे नहीं, शिवमूर्ति तो औसत दर्जे का कहानीकार है। उदय प्रकाश में तो फिर भी एक वैरिएशन है। उसने अपने ढंग से अद्भुत कहानियां लिखी हैं। शिवमूर्ति तो बहुत सिलपट कहानीकार है। रेणु और निर्मल के बाद उस पाए का कहानीकार आया नहीं। इक्की-दुक्की कहानियों के आधार पर थोड़े ही कोई दावा किया जा सकता है? यह सारा कुछ मेल्टिंग पॉट में है, बनने की प्रक्रिया में है। हो सकता है अचानक कोई रेणु आ जाए, कोई निर्मल आ जाए। मार्टिन टर्नर की मशहूर किताब ‘नॉवेल ऑफ फ्रांस’ में फ्लावेयर की बड़ी लानत-मलामत की गई है, लेकिन वह भी नहीं बता सकता है कि ‘मादाम बावेरी’ जैसा कोई उपन्यास क्यों नहीं लिखा गया। उसके बाद बहुत विकास हुआ। सार्त्रा आए, कामू आए लेकिन हम थोड़े ही कह सकते हैं कि ‘आउट साइडर’ ‘मादाम बावेरी’ से बड़ा उपन्यास है? वहां उसका स्थान वही है जो रूस में ‘अन्ना कैरीनिना’ का है। बल्कि मैं मानता हूं कि ‘अन्ना कैरीनिना’ का मूल तत्व फ्लावेयर के ‘मादाम बावेरी’ से लिया गया है। टॉलस्टाय पेरिस में काफी समय तक रहे थे। उसमें भी वही होता है न। यही तो मुश्किल है, क्या-क्या, कितना-कितना सुनाएं? किसको-किसको सुनाएं? आप परंपरा की दृष्टि से देखें कि कैसे परंपरा प्रभावित करती है। उसे नकल नहीं कहें। अपनी निरंतरता में ट्रेडीशन कैसे आगे की पीढ़ी को गढ़ता चलता है, उसका साक्षात उदाहरण तो यही है और यह चकित करने वाली बात है कि अगर ‘मादाम बावेरी’ नहीं लिखा गया होता तो शायद ‘अन्ना कैरीनिना’ भी नहीं लिखा गया होता। यानी दुनिया के महानतम उपन्यासों में से एक नहीं लिखा गया होता यदि उससे थोड़ा इंफीरियर उपन्यास ‘मादाम बावेरी’ नहीं लिखा गया होता। इसी तरह से परंपरा हमको प्रभावित करती है।
प्रतिभाशाली लेखक परंपरा से ग्रहण कर उसे और अधिक चमका देता है।
जाहिर है कि टॉलस्टाय टॉलस्टाय हैं, फ्लावेयर फ्लावेयर, ‘आन्ना कारेनिना’ ‘आन्ना कारेनिना’ है और ‘मादाम बावेरी’ ‘मादाम बावेरी’ है।
बहुवचन से साभार