कहानी: सिरी उपमा जोग - शिवमूर्ति

कहानी

सिरी उपमा जोग

शिवमूर्ति



किर्र-किर्र-किर्र घंटी बजती है।

एक आदमी पर्दा उठाकर कमरे से बाहर निकलता है। अर्दली बाहर प्रतीक्षारत लोगों में से एक आदमी को इशारा करता है। वह आदमी जल्दी-जल्दी अंदर जाता है।

सबेरे आठ बजे से यही क्रम जारी है। अभी दस बजे ए. डी. एम. साहब को दौरे पर भी जाना है, लेकिन भीड़ है कि कम होने का नाम ही नहीं ले रही। किसी की खेत की समस्या है तो किसी की सीमेंट की। किसी की चीनी की, तो किसी की लाइसेंस की। समस्याएँ ही समस्याएँ।

पौने दस बजे एक लम्बी घंटी बजती है। प्रत्युत्तर में अर्दली भागा-भागा भीतर जाता है।

''कितने मुलाकाती हैं अभी?''

''हुजूर, सात-आठ होंगे''

''सबको एक साथ भेज दो।''

अगले क्षण कर्इ लोगों का झुंड अंदर घुसता है, लेकिन दस-ग्यारह साल का एक लड़का अभी भी बाहर बरामदे में खड़ा है। अर्दली झुँझलाता है, ''जा-जा तू भी जा।''

''मुझे अकेले में मिला दो,'' लड़का फिर मिनमिनाता है।

इस बार अर्दली भड़क जाता है, ''आखिर ऐसा क्या है, जो तू सबेरे से अकेले-अकेले की रट लगा रहा है। क्या है इस चिट्टी में, बोल तो, क्या चाहिए-चीनी, सीमेंट, मिट्टी का तेल?''

लड़का चुप रह जाता है। चिट्ठी वापस जेब में डाल लेता है।

अर्दली लड़के को ध्यान से देख रहा है। मटमैली-सी सूती कमीज और पायजामा, गले में लाल रंग का गमछा, छोटे-कडे़-खडे़-रूखे बाल, नंगे पाँव। धूल-धूसरित चेहरा, मुरझाया हुआ। अपरिचित माहौल में किंचित सम्भ्रमित, अविश्वासी और कठोर। दूर देहात से आया हुआ लगता है।

कुछ सोचकर अर्दली आश्वासन देता है, ''अच्छा, इस बार तू अकेले में मिल ले।'' लेकिन जब तक अंदर के लोग बाहर आएँ, साहब ऑफिस-रूम से बेड-रूम में चले जाते हैं।

ड्राइवर आकर जीप पोंछने लगता है। फिर इंजन स्टार्ट करके पानी डालता है। लड़का जीप के आगे-पीछे हो रहा है।

थोड़ी देर में अर्दली निकलता है। साहब की मैगजीन, रूल, पान का डिब्बा, सिगरेट का पैकेट और माचिस लेकर। फिर निकलते हैं साहब, धूप-छाँही चश्मा लगाए। चेहरे पर आभिजात्य और गम्भीरता ओढे़ हुए।

लड़के पर नजर पड़ते ही पूछते हैं, ''हाँ, बोलो बेटे, कैसे?''

लड़का सहसा कुछ बोल नहीं पा रहा है। वह सम्भ्रम नमस्कार करता है।

''ठीक है, ठीक है।'' साहब जीप में बैठते हुए पूछते हैं, ''काम बोलो अपना, जल्दी, क्या चाहिए?''

अर्दली बोलता है, ''हुजूर, मैंने लाख पूछा कि क्या काम है, बताता ही नहीं। कहता है, साहब से अकेले में बताना है।''

''अकेले में बताना है तो कल मिलना, कल।''

जीप रेंगने लगती है। लड़का एक क्षण असमंजस में रहता है फिर जीप के बगल में दौड़ते हुए जेब से एक चिट्ठी निकालकर साहब की गोद में फेंक देता है।

''ठीक है, बाद में मिलना'', साहब एक चालू आश्वासन देते हैं। तब तक लड़का पीछे छूट जाता है। लेकिन चिट्ठी की गँवारू शक्ल उनकी उत्सुकता बढ़ा देती है। उसे आटे की लेर्इ से चिपकाया गया है।

चिट्ठी खोलकर वे पढ़ना शुरू करते हैं- 'सरब सिरी उपमा जोग, खत लिखा लालू की मार्इ की तरफ से, लालू के बप्पा को पाँव छूना पहुँचे...''

अचानक जैसे करेंट लग जाता है उनको। लालू की मार्इ की चिट्ठी! इतने दिनों बाद। पसीना चुहचुहा आया है उनके माथे पर। सन्न!

बड़ी देर बाद प्रकृतिस्थ होते हैं वे। तिरछी आँखों और बैक मिरर से देखते हैं- ड्राइवर निर्विकार जीप चलाए जा रहा है। अर्दली ऊँघते हुए झूलने लगा है।

वे फिर चिट्ठी खोलते हैं-''आगे समाचार मालूम हो कि हम लोग यहाँ पर राजी-खुशी से हैं और आपकी राजी-खुशी भगवान से नेक मनाया करते हैं। आगे, लालू के बप्पा को मालूम हो कि हम अपनी याद दिलाकर आपको दुखी नहीं करना चाहते, लेकिन कुछ ऐसी मुसीबत आ गर्इ है कि लालू को आपके पास भेजना जरूरी हो गया है। लालू दस महीने का था, तब आप आखिरी बार गाँव आए थे। उस बात को दस साल होने जा रहे हैं। इधर दो-तीन साल से आपके चाचाजी ने हम लोगों को सताना शुरू कर दिया है। किसी न किसी बहाने से हमको, लालू को और कभी-कभी कमला को भी मारते-पीटते रहते हैं। जानते हैं कि आपने हम लोगों को छोड़ दिया है, इसलिए गाँव भर में कहते हैं कि 'लालू' आपका बेटा नहीं है।

वे चाहते हैं कि हम लोग गाँव छोड़कर भाग जाएँ तो सारी खेती-बारी, घर दुवार पर उनका कब्जा हो जाय। आज आठ दिन हुए, आपके चाचाजी हमें बड़ी मार मारे। मेरा एक दाँत टूट गया। हाथ-पाँव सूज गए हैं। कहते हैं- गाँव छोड़कर भाग जाओ, नहीं तो महतारी-बेटे का मूँड़ काट लेंगे। अपने हिस्से का महुए का पेड़ वे जबरदस्ती कटवा लिये हैं। कमला अब सत्तरह वर्ष की हो गर्इ है। मैंने बहुत दौड़-धूप कर एक जगह उसकी शादी पक्की की है। अगर आपके चाचाजी मेरी झूठी बदनामी लड़के वालों तक पहुँचा देंगे तो मेरी बिटिया की शादी भी टूट जाएगी। इसलिए आपसे हाथ जोड़कर विनती है कि एक बार घर आकर अपने चाचाजी को समझा दीजिए। नहीं तो लालू को एक चिट्ठी ही दे दीजिए, अपने चाचाजी के नाम। नहीं तो आपके आँख फेरने से तो हम भीगी बिलार बने ही हैं, अब यह गाँव-डीह भी छूट जाएगा। राम खेलावन मास्टर ने अखबार देखकर बताया था कि अब आप इस जिले में हैं। इसी जगह पर लालू को भेज रही हूँ।''

चिट्ठी पढ़कर वे लम्बी साँस लेते हैं। उन्हें याद आता है कि लड़का पीछे बंगले पर छूट गया है। कहीं किसी को अपना परिचय दे दिया तो? लेकिन अब इतनी दूर आ गए है कि वापस लौटना उचित नहीं लग रहा है। फिर वापस चलकर सबके सामने उससे बात भी तो नहीं की जा सकती है। उन्हें प्यास लग आर्इ है। ड्राइवर से कहते हैं, ''जीप रोकना, प्यास लगी है।'' पानी और चाय पीकर सिगरेट सुलगाया उन्होंने। तब धीरे-धीरे प्रकृतिस्थ हो रहे हैं। उनके मस्तिष्क में दस साल पुराना गाँव उभर रहा है। गाँव, जहाँ उनका प्रिय साथी था- महुए का पेड़, जो अब नहीं रहा। उसी की जड़ पर बैठकर सबेरे से शाम तक 'कम्पटीशन' की तैयारी करते थे वे। गाँव जहाँ उनकी उस समय की प्रिय बेटी कमला थी। जिसके लाल-लाल नरम होंठ कितने सुंदर लगते थे। महुए के पेड़ पर बैठकर कौआ जब 'काँ-काँ!' बोलता तो जमीन पर बैठी नन्ही कमला दुहराती- काँ ! काँ ! कौआ थक-हारकर उड़ जाता तो वह ताली पीटती थी। वह अब सयानी हो गर्इ है। उसकी शादी होने वाली हैं एक दिन हो भी जाएगी। विदा होते समय अपने छोटे भार्इ का पाँव पकड़कर रोएगी। बाप का पाँव नहीं रहेगा पकड़कर रोने के लिए। भार्इ आश्वासन देगा कंधा पकड़कर, आफत-बिपत में साथ देने का। बाप की शायद कोर्इ घुँधली-सी तस्वीर उभरे उसके दिमाग में।

फिर उनके दिमाग में पत्नी के टूटे दाँत वाला चेहरा घूम गया। दीनता की मूर्ति, अति परिश्रम-कुपोषण और पति की निष्ठुरता से कृश, सूखा शरीर, हाथ-पाँव सूजे हुए, मार से। बहुत गरीबी के दिन थे, जब उनका गौना हुआ था। इंटर पास किया था उस साल। लालू की मार्इ बलिष्ठ कद-काठी की हिम्मत और जीवट वाली महिला थी, निरक्षर लेकिन आशा और आत्मविश्वास की मूर्ति। उसे देखकर उनके मन में श्रद्धा होती थी उसके प्रति। इतनी आस्था हो जिंदगी और परिश्रम में तो संसार की कोर्इ भी वस्तु अलभ्य नहीं रह सकती। बी0 ए0 पास करते-करते कमला पैदा हो गर्इ थी। उसके बाद बेरोजगारी के वर्षो में लगातार हिम्मत बँधाती रहती थी। अपने गहने बेचकर प्रतियोगिता परीक्षा की फ़ीस और पुस्तकों की व्यवस्था की थी उसने। खेती-बारी का सारा काम अपने जिम्मे लेकर उन्हें परीक्षा की तैयारी के लिए मुक्त कर दिया था। रबी की सिंचार्इ के दिनों में सारे दिन बच्ची को पेड़ के नीचे लिटाकर कुएँ पर पुर हाँका करती थी। बाजार से हरी सब्जी खरीदना सम्भव नहीं था, लेकिन छप्पर पर चढ़ी हुर्इ नेनुआ की लताओं को वह अगहन-पूस तक बाल्टी भर-भर कर सींचती रहती थी, जिससे उन्हें हरी सब्जी मिलती रहे। रोज सबेरे ताजी रोटी बनाकर उन्हें खिला देती और खुद बासी खाकर लड़की को लेकर खेत पर चली जाती थी। एक बकरी लार्इ थी वह अपने मायके से, जिससे उन्हें सबेरे थोड़ा दूध या चाय मिल सके। रात को सोते समय पूछती, ''अभी कितनी किताब और पढ़ना बाकी है, साहबी वाली नौकरी पाने के लिए।''

वे उसके प्रश्न पर मुस्करा देते, ''कुछ कहा नहीं जा सकता। सारी किताबें पढ़ लेने के बाद भी जरूरी नहीं कि साहब बन ही जाएँ।''

ऐसा मत सोचा करिए,'' वह कहती, ''मेहनत करेंगे तो भगवान उसका फल जरूर देंगे।''

यह उसी के त्याग, तपस्या और आस्था का परिणाम था कि एक ही बार में उनका सेलेक्शन हो गया था। परिणाम निकला तो वे खुद आश्चर्यचकित थे। घर आकर एकांत में पत्नी को गले से लगा लिया था। वाणी अवरूद्ध हो गर्इ थी। उसको पता लगा तो वह बड़ी देर तक निस्पंद रोती रही, बेआवाज। सिर्फ आँसू झरते रहे थे। पूछने पर बताया, खुशी के आँसू हैं ये। गाँव की औरतें ताना मारती थीं कि खुद ढोएगी गोबर और भतार को बनाएगी कप्तान, लेकिन अब कोर्इ कुछ नहीं कहेगा, मेरी पत बच गर्इ।

वे भी रोने लगे थे उसका कंधा पकड़कर।

जाने कितनी मनौतियाँ माने हुए थी वह। सत्यनारायण... संतोषी... शुक्रवार... विंध्याचल... सब एक-एक करके पूरा किया था। जरा-जीर्ण कपडे़ में पुलकती घूमती उसकी छवि, जिसे कहते हैं, राजपाट पा जाने की खुशी।

सर्विस ज्वाइन करने के बाद एक-डेढ़ साल तक वे हर माह के द्वितीय शनिवार और रविवार को गाँव जाते रहे थे। पिता, पत्नी, पुत्री सबके लिए कपडे़-लत्ते तथा घर की अन्य छोटी-मोटी चीजें, जो अभी तक पैसे के अभाव के कारण नहीं थीं, वे एक-एक करके लाने लगे थे। पत्नी को पढ़ाने के लिए एक ट्यूटर लगा दिया था। पत्नी की देहाती ढंग से पहनी गर्इ साड़ी और घिसे-पिटे कपडे़ उनकी आँखों में चुभने लगे थे। एक-दो बार शहर ले जाकर फिल्म वगैरह दिखा लाए थे, जिसका अनुकरण कर वह अपने में आवश्यक सुधार ले आए। खड़ी बोली बोलने का अभ्यास कराया करते थे, लेकिन घर-गृहस्थी के अथाह काम और बीमार ससुर की सेवा से इतना समय वह न निकाल पाती, जिससे पति की इच्छा के अनुसार अपने में परिवर्तन ला पाती। वह महसूस करती थी कि उसके गँवारपन के कारण वे अक्सर खीज उठते और कभी-कभी तो रात में कहते कि उठकर नहा लो और कपडे़ बदलो, तब आकर सोओ। भूसे जैसी गंध आ रही है तुम्हारे शरीर से। उस समय वह कुछ न बोलती। चुपचाप आदेश का पालन करती, लेकिन जब मनोनुकूल वातावरण पाती तो मुस्कराकर कहती, ''अब मैं आपके 'जोग' नहीं रह गर्इ हूँ, कोर्इ शहराती 'मेम' ढूँढ़िए अपने लिए।''

''क्यों, तुम कहाँ जाओगी?''

''जाउँगी कहाँ, यहाँ रहकर ससुरजी की सेवा करूँगी। आपका घर-दुवार सँभालूँगी। जब कभी आप गाँव आएँगे, आपकी सेवा करूँगी''

''तुमने मेरे लिए इतना दुख झेला है, तुम्हारे ही पुण्य-प्रताप से आज मैं धूल से आसमान पर पहुँचा हूँ, गाढे़ समय में सहारा दिया है। तुम्हें छोड़ दूँगा तो नरक में भी जगह न मिलेगी मुझे?''

लेकिन उनके अंदर उस समय भी कहीं कोर्इ चोर छिपा बैठा था, जिसे वे पहचान नहीं पाए थे।

जिस साल लालू पैदा हुआ, उसी साल पिताजी का देहांत हो गया। क्रिया-कर्म करके वापस गए तो मन गाँव से थोड़ा-थोड़ा उचटने लगा था। दो बच्चों की प्रसूति और कुपोषण से पत्नी का स्वास्थ्य उखड़ गया था। शहर की आबोहवा तथा साथी अधिकारियों के घर-परिवार का वातावरण हीन भावना पैदा करने लगा था। जिंदगी के प्रति दृष्टीकोण बदलने लगा था। गाँव कर्इ-कर्इ महीनों बाद आने लगे थे। और आने पर पत्नी जब घर की समस्याएँ बताती तो लगता, ये किसी और की समस्याएँ हैं। इनसे उन्हें कुछ लेना-देना नहीं है। वे शहर में अपने को 'अनमैरिड' बताते थे। इस समय तक उनकी जान-पहचान जिला न्यायाधीश की लड़की ममता से हो चुकी थी और उसके सान्निध्य के कारण पत्नी से जुड़ा रहा-सहा रागात्मक सम्बन्ध भी अत्यंत क्षीण हो चला था।

तीन-चार महीने बाद फिर गाँव आए तो पत्नी ने टोका था, ''इस बार काफी दुबले हो गए हैं। लगता है, काफी काम रहता है, बहुत गुमसुम रहने लगे हैं, क्या सोचते रहते हैं?''

वे टाल गए थे। रात में उसने कहा, ''इस बार मैं भी चलूँगी साथ में। अकेले तो आपकी देह गल जाएगी।''

वे चौंक गए थे, ''लेकिन यहाँ की खेती-बारी, घर-दुवार कौन देखेगा? अब तो पिताजी भी नहीं रहे।''

''तो खेती-बारी के लिए अपना शरीर सुखाइएगा?''

''तुम तो फालतू में चिंता करती हो,'' लेकिन वह कुछ और सुनना चाहती थी, बोली थी, ''फिर आप शादी क्यों नहीं कर लेते वहाँ किसी पढ़ी-लिखी लड़की से? मैं तो शहर में आपके साथ रहने लायक भी नहीं हूँ।''

''कौन सिखाता है तुम्हें इतनी बातें?''

''सिखाएगा कौन? यह तो सनातन से होता आया है। मैं तो आपकी सीता हूँ। जब तक बनवास में रहना पड़ा, साथ रही, लेकिन राजपाट मिल जाने के बाद तो सोने की सीता ही साथ में सोहेगी। लालू के बाबू, सीता को तो आगे भी बनवास ही लिखा रहता है।''

''चुपचाप सो जाओ।'' उन्होंने कहा, लेकिन सोर्इ नहीं वह। बड़ी देर तक छाती पर सिर रखकर पड़ी रही फिर बोली, ''एक गीत सुनाऊँगी आपको। मेरी माँ कभी-कभी गाया करती थी।'' फिर बडे़ करूण स्वर में गाती रही थी वह, जिसकी एकाध पंक्ति ही अब उन्हें याद है- '' सौतनिया संग रास रचावत, मों संग रास भुलान, यह बतिया कोऊ कहत बटोही, त लगत करेजवा में बान, सँवरिया भूले हमें...''

वे अंदर से हिल गए और उसे दिलासा देते रहे कि वह भ्रम में पड़ गर्इ है, पर वह तो जैसे भविष्यद्रष्टा थी। आगत, जो अभी उनके सामने भी बहुत स्पष्ट नहीं था, उसने साफ देख लिया था। उनके सीने में उसने कहीं 'ममता' की गंध पा ली थी।

उस बार गाँव से आए तो फिर पाँच-छह महीने तक वापस जाने का मौका नहीं लग पाया। इसी बीच ममता से उनका विवाह हो गया। शादी के दूसरे तीसरे महीने गाँव से पत्नी का पत्र आया कि कमला को चेचक निकल आर्इ है। लालू भी बहुत बीमार है। मौका निकालकर चले आइए। लेकिन गाँव वे पत्र मिलने के महीने भर बाद ही जा सके। कोर्इ बहाना ही समझ में नहीं आ रहा था, जो ममता से किया जा सकता। दोनों बच्चे तब तक ठीक हो चुके थे, लेकिन उनके पहुँचने के साथ ही उसकी आँखें झरने-सी झरनी शुरू हो गर्इ थीं। कुछ बोली नहीं थी। रात में फिर वही गीत बड़ी देर तक गाती रही थी। उनका हाथ पकड़कर कहा था, ''लगता है, आप मेरे हाथों से फिसले जा रहे हैं और मैं आपको सँभाल नहीं पा रही हूँ।''

वे इस बार कोर्इ आश्वासन नहीं दे पाए थे। उसका रोना-धोना उन्हें काफी अन्यमनस्क बना रहा था। वे उकताए हुए से थे। अगले ही दिन वे वापस जाने को तैयार हो गए थे। घर से निकलने लगे तो वह आधे घंटे तक पाँव पकड़कर रोती रही थी। फिर लड़की को पैरों पर झुकाया था, नन्हे लालू को पैरों पर लिटा दिया था। जैसे सब कुछ लुट गया हो, ऐसी लग रही थी वह, दीन-हीन-मलिन।

वे जान छुड़ाकर बाहर निकल आए थे। वही उनका अंतिम मिलन था। तब से दस साल के करीब होने को आए, वे न कभी गाँव गए, न ही कोर्इ चिट्टी -पत्री लिखी।

हाँ, करीब साल भर बाद पत्नी की चिट्ठी जरूर आर्इ थी। न जाने कैसे उसे पता लग गया था, लिखा था-कमला नर्इ अम्मा के बारे में पूछती है। कभी ले आइए उनको गाँव। दिखा-बता जाइए कि गाँव में भी उनकी खेती-बारी, घर-दुवार है। लालू अब दौड़ लेता है। तेवारी बाबा उसका हाथ देखकर बता रहे थे कि लड़का भी बाप की तरह तोता-चश्म होगा। जैसे तोते को पालिए-पोसिए, खिलाइए-पिलाइए, लेकिन मौका पाते ही उड़ जाता है। पोस नहीं मानता। वैसे ही यह भी...तो मैंने कहा, 'बाबा, तोता पंछी होता है, फिर भी अपनी आन नहीं छोड़ता, जरूर उड़ जाता है, तो आदमी होकर भला कोर्इ कैसे अपनी आन छोड़ दे? पोसना कैसे छोड़ दे? मैं तो इसे इसके बापू से भी बड़ा साहब बनाऊँगी...'

उन्होंने पत्र का कोर्इ उत्तर नहीं भेजा था। हाँ, वह पत्र ममता के हाथों में जरूर पड़ गया था, जिसके कारण महीनों घर में रोना-धोना और तनाव व्याप्त रहा था।... और करीब नौ साल बाद आज यह दूसरा पत्र है।

पत्र उनके हाथों में बड़ी देर तक काँपता रहा और फिर उसे उन्होंने जेब में रख लिया। मन में सवाल उठने लगे- क्या मिला उसको उन्हें आगे बढ़ाकर? वे बेरोजगार रहते, गाँव में खेती-बारी करते। वह कंधे से कंधा भिड़ाकर खेत में मेहनत करती। रात में दोनों सुख की नींद सोते। तीनों लोकों का सुख उसकी मुट्ठी में रहता। छोटे से संसार में आत्मतुष्ट हो जीवन काट देती। उन्हें आगे बढ़ाकर वह पीछे छूट गर्इ। माथे का सिंदूर और हाथ की चूड़ियाँ निरंतर दुख दे रही हैं उसे।

सारे दिन किसी कार्यक्रम में उनका मन नहीं लगता।

शिवमूर्ति

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शाम को जीप वापस लौट रही है। उनके मस्तिष्क में लड़के का चेहरा उभर आया है- जैसे मरूभूमि में खड़ा हुआ अशेष जिजीविषा वाला बबूल का कोर्इ शिशु झाड़, जिसे कोर्इ झंझावात डिगा नहीं सकता। कोर्इ तपिश सुखा नहीं सकती। उपेक्षा की धूप में जो हरा-भरा रह लेगा, अनुग्रह की बाढ़ में जो गल जाएगा।

जीप गेट के अंदर मुड़ती है तो गेट से सटे चबूतरे पर लड़का औंधा लेटा दिखार्इ देता है। मच्छरों से बचने के लिए उसने अंगौछे से सारा शरीर ढँक लिया है। जीप आगे बढ़ जाती है।

अंदर उनकी चार साल की बेटी टी.वी. देख रही है। आहट पाकर दौड़ी आती है और पैरों से लिपट जाती है। फिर महत्वपूर्ण सूचना देती है तर्जनी उठाकर, ''पापा, पापा, ओ बदमाश लड़का, बरामदे तक घुस आया था। मम्मी पूछती, तो बोलता नहीं था। भगाती तो भागता नहीं था। मैंने अपनी खिलौना मोटर फेंककर मारा, उसका माथा कटने से खून बहकर मुँह में जाने लगा तो थू-थू करता हुआ भागा। और पापा, वह जरूर बदमाश था। जरा भी नहीं रोया। बस, घूर रहा था। बाहर चपरासियों के लड़के मार रहे थे, लेकिन मम्मी ने मना करवा दिया।''

वाश-बेसिन की तरफ बढ़ते हुए वे ममता से पूछते हैं, ''कौन था?''

''शायद आपके गाँव से आया है। भेंट नहीं हुर्इ क्या?''

''मैं तो अभी चला आ रहा हूँ, कहाँ गया?''

''नाम नहीं बताता था, काम नहीं बताता था, कहता था, सिर्फ साहब को बताऊँगा। फिर लड़के तंग करने लगे तो बाहर चला गया।''

''कुछ खाना-पीना ?''

''पहले यह बताइए, वह है कौन?'' एकाएक ममता का स्वर कर्कश और तेज हो गया, ''उस चुड़ैल की औलाद तो नहीं, जिसे आप गाँव का राज-पाट दे आए हैं? ऐसा हुआ तो खबरदार, जो उसे गेट के अंदर भी लाए, खून पी जाऊँगी।''

वे चुपचाप ड्राइंगरूम में आकर सोफे पर निढाल पड़ गए हैं। चक्कर आने लगा है। शायद रक्तचाप बढ़ गया है।

बाहर फागुनी जाड़ा बढ़ता जा रहा है।

सबेरे उठकर वे देखते हैं- चबूतरे पर 'गाँव' नहीं है।

वे चैन की साँस लेते हैं।


यह कहानी सारिका कथापत्रिका के दिसम्बर (द्वितीय) 1984 के अंक में प्रकाशित हुई थी।

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